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किरण ११-१२) श्री कुन्दकुन्द पार समन्तमद्रका तुलनात्मक अध्ययन
२६३ बड़ी ढ़ता के साथ आगे बढ़ाया है।
श्रमणोंसे वर्तन प्रादि श्रमण-मुनिके, चारित्रकी छोटास लेकर दूसरा शेयतत्व-प्रज्ञापन अधिकार तो अनेकान्तकी जब बड़ी बातें कुन्दकुन्दने समझाई हैं। निश्चय-म्यवहारको है कुन्दकुन्दके पहले तीन ही मूल भा प्रचलित थे। दृप्टिसे यह अध्यात्मका निरूपण है। सारे ग्रन्थमें प्रात्माकी कुन्दकुन्दने तीनोंसे ही सातभंग करके दिखलाये। अनादि- प्रधानता होनेसे सारा वाणी-प्रवाह शान्तधाराके समान बहता कालसे परिभ्रमण करनेवाले जीवने स्व-पर-भेदविज्ञानका हुअा अध्यात्म-गीत सुना रहा है। रसास्वाद कभी नहीं पाया। बंधमार्गके समान मोक्षमार्गमें ५. समयसार-(ज्ञानी-संतके गलेका हार) भी जीव अकेला कर्ता-कर्म-करण और कर्मफल बन जाता समय नाम प्रात्माका है। 'आत्मा ज्ञानमात्र है। इस है-इनके साथ वास्तविक कुछ सम्बन्ध नहीं। इस तरहकी तरह प्रवचनसाग्में समझाने के बाद 'स्थितिरत्र तु चारित्रम्' सानुभव श्रद्धा कभी भी नहीं हुई। इस कारण सैकड़ों अर्थात् प्रास्मामें स्थिर होना ही चारित्र है ऐसा निर्देश है। उपाय करके भी यह जीव दुःखोंसे मुक्ति नहीं पा रहा है- कुन्दकुन्दके शब्दों में ही 'सव्वणय-पक्ख-रहिदो भणिदो जो इन दुःखोंसे मुक्रिका रामबाण उपाय भेद-विज्ञान बताया सो समयसारा' यह समयसारका रूप है। नव पदार्थोंका
कथन शुद्धनयकी प्रधानतासे किया है। श्री कुन्दकुन्द ग्रन्थके ___ संसारमें कोई भी सत् पदार्थ या द्रव्य उत्पाद-व्यय- प्रारम्भमें ही एकत्व-माधनको दुर्लभता दिख जाते हैं। वे ध्रौव्यके या गुण-पर्यायके विना नहीं होता। मत् कहो या स्वयं कह रहे हैंद्रव्य कहो, या उत्पाद-व्यय-ध्रीव्य कहो, या गुण-पर्याय- 'सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि काम-भोग-बंधकहा । पिण्ड कहो, ये सब एक ही हैं। यही वीतराग-विज्ञान है। एयत्तस्सुवलंभोगवरिण सुलहो विहत्तस्स ॥३॥ द्रव्य-निरूपण तो स्वयं अध्ययन किये बिना ठाक समझा 'कामभोगकी कथाएँ सबने सुनी हैं, परिचयमें आई हैं हो नहीं जा सकता । द्रव्य-सामान्य-निरूपणके साथ द्रव्य- और अनुभव की गई है; परन्तु परसे जुदे एकत्व-अभेदकी विशेषका निरूपण अनिवार्य है । इस तरह जैनसिद्धान्तका प्राप्ति दुलभ है। बाकीके मारे दर्शनकार सर्वथा भेद या नत्त्व इसमें कूट-कूट कर भरा हुआ है। द्रव्यके सर्वथा सर्यथा अभेदका एकान्त निरूपण करते हैं। पर कुन्दकुन्दकी प्रभावका निषेध, द्रव्यकी सिद्धि मन्-अमन्, एक-अनेक, विशेषता यह है कि भेदमेंसे अभेद पाना। इसी बातको पृथक् अपृथक् , तद्-अतद्, नित्य-अनित्य आदि रूपमें युक्रि ागम-परम्परा तथा अनुभूति द्वारा समझानेको वार २ अनेकान्तस की गई है। वस्तु स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी चेष्टा की गई है। प्रान्माके बिना जिनशासन कुछ भी अपेक्षा अस्तिरूप है और पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी नहीं हैअपेक्षा नास्तिरूप है। इस प्रकार म्बमत सिद्धि के समय जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ट अणएणमविसेसं। बौद्धादि अन्य मतोंका निराकरण सहज ही हो गया है। अपदेससंतमझ पस्सदि जिणशासणं सव्वं ।। जीव देहादिका कर्ता नहीं, अन्योंसे जीवकी भिन्नता, जीव
समय. १५ पुद्गल पिण्डका भी कर्ता नहीं, निश्चय बन्धका स्वरूप, 'जो आत्माको प्रबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, भविशेष चनना-लक्षण आदि विषयों पर स्पष्ट प्रकाश डाला गया है। तथा असंयुक्र देखते हैं वे समग्र जिनशासनको देखते हैं, वीर-शासनका मौलिकतत्व सिद्धान्त अवाधयुक्तिसे- इस तरहका जब तक स्वयं जीव अनुभव नहीं करता तब म्याद्ववादसे—सिद्ध किया गया है । यह अधिकार वीर-जिन तक वह मोक्षमार्गी नहीं है। ऐसे जीवके भाव अज्ञानमय शासनका प्रकाशस्तम्भ ही है।
होते हैं-उसने भले ही व्रत-समिति-गुप्ति प्रादि सबका प्रवचनसारका तीसरा अधिकार चरणानुयोग सूचक. पालन किया हो, सारे पागम मुखाम किए हों। शुद्ध प्रात्माचूलिका या चारित्र-प्रज्ञापन-तत्त्व है । इसमें शुभोपयोगी मुनि की अनुभूति जहों है वहीं सम्यग्दर्शन है। रागादिक उदयसे श्रमणकी अन्तरंगदशाका यथार्थ चित्र खींचा गया है। सम्यग्दृष्टि जीव कभी एकाकाररूप परिणमता नहीं, किन्तु दीक्षाविधि, अन्तरंग सहजदशानुरूप, बहिरंग यथाजातरूप, ऐसा समझता है कि यह पुद्गल-कर्मरूप रागका विपाक २८ मूलगुण, अन्तर्बाह्य छेद, उपधिनिषेध, उत्सर्ग-अप- उदय है, यह भाव मेरा नहीं, मैं तो एक शुद्ध शायक स्वभाव वाद, युनाहार-विहार, एकाग्रतारूप मोक्षमार्ग, श्रमणका अन्य- हं। इस तरह प्रतिपादन करते समय प्राचार्य श्री स्वयं ही