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________________ - - % 3D ७.] अनेकान्त [वर्ष १३ बातें ऋषभदेव और शिवजीकी एकताकी द्योतक नहीं त्रिलोकसारके रचयिता आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्तहैं। निश्चयतः उक्त समता अकारणक नहीं है और चक्रवर्तीने भी गंगावतरणके इस दृश्यको इस प्रकार उसकी सहमें एक महान तथ्य भरा हुधा । चित्रित किया है: शिवजीको जटाजूट युक्त माना जाता है भगवान सिरिगिहसीमद्वियंबुजकारणयसिंहासणंजडामउल। ऋषभदेवकी श्राज जितनी भी प्राचीन मूर्तियां मिली। जिणममिसित्तमणावा प्रोदिपणा मत्यए गंगा।५६० है, उन सबमें भी नीचे लटकती हुई केश-जटाएँ स्पष्ट दृष्टि गोचर होती हैं। प्रा०जिनसेनने अपने . अर्थात् - श्रीदेवीके गृहके शीर्ष पर स्थित कमलआदिपुराणमें लिखा है कि भ० ऋषभदेवके दीक्षा की कर्णिकाके ऊपर एक सिंहासन पर विराजमान जो लेनेके अनन्तर और पारणा करनेके पूर्व एक वर्षके जटामुकुटवाली जिनमूर्ति है, उसे अभिषेक करनेके लिये ही मानों गंगा हिमवान् पर्वतसे अवतीर्ण हुई है। घोर तपस्वी जीवन में उनके केश बहुत बढ़ गये थे और शिवजीके मस्तक पर गंगाके अवतीर्ण होनेका वे कन्धोंसे भी नीचे लटकने लगे थे, उनके इस तपस्वी रहस्य उक्त वर्णनसे स्पष्ट हो जाता है और किसी भी जीवनके स्मरणार्थ ही उक्त प्रकारको मूत्तियोंका निर्माण निप्पक्ष पाठकका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करता है। किया गया इस प्रकार शिवजी और ऋषभदेवकी शिवजीके उक्त रूपकका अर्थ इस प्रकार भी लिखा जटा-जूट युक्त मूर्तियां उन दोनोंकी एकनाकी ही परि जा सकता है कि इस युगके प्रारम्भमें दिव्यवाणीरूपी चायक हैं। गंगा भ० ऋषभदेवसे ही सर्वप्रथम प्रकट हुई, जिसने गगावतरण भूमंडल पर बसनेवाले जीवोंके हृदयोंसे पाप-मलको ___ हिन्दुओंकी यह मान्यता है कि गंगा जब आकाश- दूर कर उन्हें पवित्र बनानेका बड़ा काम किया। सीई, तो शिवजीकी जटाओं में बहुत समय तक्षशिला और गोम्मद श्वरकी मतितक भ्रमण करती रही और पीछे वह भूमण्डल पर भारतवर्षके आदि सम्राद भरतके जीवन में एक अवतरित हुई। पर वास्तवमें बात यह है कि गंगा हिमवान् पर्वतसे नीचे जिम गंगाकूट में गिरती है. वहां । ऐसी घटना घटी, जो युग-युगोंके लिये अमर कहानी बन गई । जब वे दिग्विजय करके अयोध्या वापिस पर एक विस्तीर्ण चबूतरे पर आदि जिनेन्द्रकी जटा लौटे और नगर में प्रवेश करने लगे, तब उनका सुदमुकुट वाली बज़मया अनेक प्रतिमाएँ हैं, जिन पर र्शनचक्र नगरके द्वार पर अटक कर रह गया। राजहिमवान पर्वतके ऊपरसे गंगाकी धार पड़ती है। इसका बहुत सुन्दर वर्णन त्रिलोक-प्रज्ञप्तिकारने किया है, जो पुरोहितनि इसका कारण बतलाया कि अभी भी कोई ऐसा राजा अवशिष्ट है, जो कि तुम्हारी आज्ञाको विक्रमकी चौथी शताब्दीके महान् श्राचार्य थे और नहीं मानता है। बहुत छान-बीनके पश्चात् ज्ञात हुआ जिन्होंने अनेक सद्धान्तिक ग्रन्थोंकी रचना की है। वे कि तुम्हारे भाई ही आज्ञा-वश-वर्ती नहीं हैं । सर्व उक्त गंगावतरणका वर्णन अपनी त्रिलोकज्ञप्तिक . भाइयोंके पास सन्देश भेजा गया। वे लोग भरतकी चौथे अधिकार में इस प्रकार करते हैं: शरणमें न आकर और राज पाट छोड़कर भ० ऋषभप्रादिजिमप्पांडमात्रा साया जडमउडसहारखाना। देवकी शरणमें चले गये, पर बाहुबलाने जो कि पडिमोवरिम्मगंगा अभिसित्तुमणा व सा पडदिा२३० भरतकी विमाताके ज्येष्ठ पुत्र थे-स्पष्ट शब्दोंमें भरत अर्थात्-उस कुण्डके श्रीक्ट पर जटा-मुकुटसे की आज्ञा माननेसे इन्कार कर दिया और दूतके मुखमशोभित आदिजिनेन्द्रकी प्रतिमाएं हैं। उन प्रति- मे कहला दिया कि जाओ और भरतसे कह दोमाओंका मानों अभिषेक करने के लिये ही गंगा उन 'जिस बापके तुम बेटे हो, उसीका मैं भी हूँ। मैं पिताप्रतिमाओंके जटाजूट पर अवतीर्ण होती है । (अभि- के दिये राज्यको भोगता हूँ, मुझे तुम्हारा आधिपत्य षेक जलसे यक्त होनेके कारण ही शायद वह बादको स्वीकार नहीं है।' भरतने यह सन्देश सुनकर बाहसर्वागमें पवित्र मानी जाने लगी।) बलीको युद्धका आमन्त्रण भेज दिया। दोनों ओरसे
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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