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अनेकान्त
[वर्ष १३
बतलाया जाय तो भागम उन मायावियांका भी है- अपने बचनरूप भागमके द्वारा उन अविशर्योको मायाचारजन्य होने पर भी सत्य ही प्रतिपादित करते हैं। और यदि अपने हो मागम (जैनागम) को इस विषय में प्रमाण माना जाय तो रक हेतु भागमाश्रित ठहरता है, और एक मात्र उसके द्वारा दूसरोके यथार्थ वस्तु स्थितिका प्रस्थय एवं विश्वास नहीं कराया जा सकता। अत: उक्त कारण-कलापरूप हेतु भापकी महानता एवं भासताको व्यक्त करने में असमर्थ है और इसीसे मेरे जैसोंके लिए एक प्रकारसे उपेषणीय है। अध्यात्मं बहिरप्येष विग्रहादि-महोदयः । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रागदिमत्सु सः ॥२॥
'यह जो आपके शरीरादिका अन्तर्बाह्य महान् उदय है-अन्तरंग में शरीर दुधा-तृषा-जरा-रोग-अपमृत्यु प्रादिके प्रभावको और बाझमे प्रभापूर्ण अनुपम मौन्दर्षके साथ गौर वर्ण रुधिरके संचार सहित नि:स्वेदता, सुरमिता एवं निर्मलताका खिए हुए है-जो साथ ही दिव्य है-अमानुषिक तथा सत्य है-मायादिरूप मिथ्या न होकर वास्तविक भोर मायावियोम नहीं पाया जाता-(उपीके कारण यदि आपको महान्, पूज्य एवं भाक्ष पुरुष माना जाय, तो यह हेतु भी व्यभिचार दोषस दूषित है; क्याक) वह (विग्रहादि महादय) रागादिसे युक्त-राग द्वेष-कामकाध-मान • माया-जोमादि कषायोंपे अभिभूत स्वर्गक देवों में भी पाया जाता है: ( वही यदि महानता एवं भालताका इंतु हा तो स्वर्गाके रागी, द्वेषी, कामी तथा क्रोधादि कषाय दोषांसे दूषित दव भी महान् पूज्य एवं प्राप्त ठहरे; परन्तु वे वैसे नहीं है, अतः इस अन्तर्बाह्य विग्रहादि महोदय' विशेषणके मायावियों में न पाये जाने पर भी रागादिमान देवामें उसका सस्व होनेके कारण वह व्यावृत्ति-हेतुक नहीं रहता और इसलिए उससे भी भाप जैसे प्राप्त पुरुषोका कोई पृथक् बोध नहीं हो सकता)
(यदि कहा जाय कि धातिया कोका प्रभाव होने पर जिस प्रकारका विग्रमादि महोदय आपके प्रकट होता हे उस प्रकारका विमहादि महोदय रागादियुक्त देवा में नहीं होता तो इसका क्या प्रमाण ? दोनांका विग्रहादि महोदय अपने प्रस्थत नहीं है, जिससे तुलना की जा सके । यदि अपने ही भागमको इस विषय में प्रमाण माना जाय तो यह हेतु भी भागमाश्रित ठहरता है और एक मात्र इसीसे दूसरोंको यथार्थ वस्तुस्थितिका प्रत्यय एवं विश्वास नहीं कराया जा सकता । अता यह विग्रहादि महोदय हेतु भी प्रापकी महानता व्यक्त करने में असमर्थ होनेसे मेरे जसा के लिए उपेक्षणीय है। तीर्थकृत्समयानां च परस्पर-विरोधतः । सर्वेषामामता नास्ति, कश्चिदेव भवेद् रुः ॥३॥
(यदि यह कहा जाय कि पाप तीर्थकर है-संसारस पार उतरनेके उपायस्वरूप भागम तीर्थक प्रवर्तक हैं-और इसलिए प्राप्त-सर्वश होने महान् हैं, तो यह कहना भी समुचित प्रतीत नहीं होता; क्योंकि तीर्थकर तो दूसरे सुगतादिक भी कहलाते है और वे भी संसारसं पार उतरने अथवा निवृति प्राप्त करनेके उपायस्वरूप प्रागमतीर्थके प्रवर्तक माने जाते है, तब वे सब भी प्राप्त-सर्वज्ञ ठहरते हैं, मत. तीर्थकरन्थहेतु भी व्यभिचार-दोषसे दूषित है। और यदि सभी तीर्थंकरीको प्राप्त अथवा सर्वज्ञ माना जाय तो यह बात मी नहीं बनती; क्योकि) तीर्थकरोंके भागों में परम्पर विरोध पाया जाता है जो कि सभीके प्राप्त होने पर न होना चाहिए। अतः इस विरोधदोषके कारण सभी तीर्थकरोंके प्राप्तता-निर्दोष सर्वज्ञता-टित नहीं होता।'
(इसे ठीक मानकर यदि यह पूछा जाय कि क्या उन परस्परविरुद्ध प्रागमके प्ररूपक सभी तीर्थंकरोंमें कोई एक भी प्राप्त नहीं है और यदि है तो वह कौन है। इसका उत्तर इतना ही है कि) उनमें कोई तीर्थकर प्राप्त जरूर हो सकता है और वह वही पुरुष हो सकता है जो चित ही हो-चैतन्यके पूर्ण विकासको लिए हुए हो अर्थात् जिसमें दोषों तथा प्रावरणोंकी पूर्णतः हानि हो चुकी हो।'