________________
किरण १]
समन्तभद्र - भारती दोषाऽऽवरणयोर्हानिनिःशेषाऽस्त्यतिशायनात । चियथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥४॥
(यदि यह कहा जाय कि ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है जिमम भज्ञान-रागादिक दोषों तथा उनके कारणभूत कर्म प्रावरणोंकी पूरतः हानि सम्भव हो तो यह भी ठीक नहीं है। क्यों कि) दोषों तथा दोषोंके कारणोंकी कहींकहीं सातिशय हानि देखने में आती है-अनेक पुरुषोमे अज्ञान तथा राग-द्वेष काम क्रोधादिक दोषोंकी एवं उनके कारणोंकी उत्तरोत्तर बहुत कमी पाई जाती है और इसलिए किसी पुरुष-विशेषमें विरोधी कारणोंको पाकर उनका पर्णतः अभाव होना उसी प्रकार सम्भव है जिस प्रकार कि (सुवर्णादिकमे) मल-विरोधी कारणोंको पाकर बाह्य
और अन्तरंग मलका पूर्णतः क्षय हो जाता है-अर्थात् जिस प्रकार कि-कालिमादि मनसे बद्ध हया सुवर्ण अग्निप्रयोगादिरूप योग्य साधनोंको पाकर उस सारे बाहिरी तथा भीतरी मनसे विहीन हुभा अपने शुद्ध सुवर्णरूपमें परिणत हो जाता है उसी प्रकार वन्य तथा भावरूप कर्ममबसे बद्ध हुमा भव्य जीव सम्यग्दर्शनादि योग्य साधनों के बलपर उस कर्ममनको पूर्णरूपसे दूर करके अपने शुद्धात्मरूपमें परिणत हो जाता है। अतः किसी पुरुष विशेषमें दोषों तथा उनके कारणोंकी पूर्णत: हानि होना असम्भव नहीं है। जिस पुरुष में दोषों तथा प्रावरणोंकी यह निःशेष हानि होती है वही पुरुष प्राप्त अथवा निदोष सर्वज्ञ एवं लोकगुरु होता है। सूक्ष्मान्तरित-द्गाः प्रत्यक्षाः कम्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति मर्वज्ञ-संस्थितिः ॥१॥
यदि यह कहा जाय कि दोषों तथा सावरणोंकी पूर्णत: हानि होने पर भी कोई मनुष्य प्रतीत-अनागतकान सम्बन्धी सब पदार्थोंको अतिदरवर्ती सारे वर्तमान पदार्थों को और सम्पूर्ण सूचम पदार्योको साक्षात रूपसे नहीं जान मकमा सो वह ठीक नहीं है क्योंकि' मूक्ष्मपदार्थ-स्वभाष विप्रकर्षि परमाणु मादिक-अन्तरित पदार्थ-कानसे अन्तरको लिये हए काल विप्रकषि राम रावणादिक और दूरवर्ती पदार्थ-क्षेत्रसे अन्तरको लिये हुए क्षेत्रविप्रकर्षि मेरु हिमवानादिक-अनुमेय ( अनुमानका अथवा प्रमाणका विषय ) होनेसे किमी न किमीके प्रत्यक्ष जरूर हैं। जैसे
अग्नि आदिक पदार्थ जो अनुमान या प्रमाणका विषय हैं वे किसीके प्रत्यक्ष जरूर हैं। जिसके सूक्ष्म, अन्तरित और दरवर्ती पदार्थ प्रत्यक्ष हैं वह मर्वज्ञ है। इस प्रकार सर्वज्ञकी सम्यक स्थिति, व्यवस्था अथवा सिद्धि भले प्रकार सुघटित है।
-युगवीर १ प्रमाणका विषय 'मेय' कहलाता है। अनुमंयका अर्थ 'मनुगतं मेयं मानं येषां से अनुमेया. प्रमेया इत्यर्थः' इस वसनाचार्यके वाक्यानुसार 'प्रमेय' भी होता है और इस तरह भनुमेयस्व हेतुमें प्रमेयस्व हेतु भी गर्मित।
मिथ्यात्वको महत्ता चित्तकी चचलताका कारण अंतरङ्ग कपाय है। वैसे चित्त तो चंतन्य आत्माके चेतना गुणका परिणमन है, किन्तु कषायदेवीकी इसके ऊपर इतनी अनुकम्पा है कि जागृत अास्थाकी तो कथा दर रहे, स्वप्नावस्था में भी उसे प्रेमका प्याला पिलाकर बेहोश बनाये रहती है और यह प्याला भी ऐसा है कि मद्यसे भी अधिक उन्मत्त करता है। मादक द्रव्यका पान करने वाला तो उतना उन्मत्त नहीं होता, बाह्य शरीरकी चेष्टाए ही उसकी अन्यथा दिखती हैं, घर जाना हो तो म्खलद्गमन करता हुआ घरके सम्मुख ही जाता है परन्तु यहाँ तो उसके विपरीत प्रात्मतचसे बाह्य शरीरमें ही स्वतन्त्रका अध्यवसाय करके अहर्निश उसीके पोषणमें पूर्ण शक्तियों का उपयोग करके भी यह मोही जीव भानन्दका पात्र नहीं होता । बलिहारी हम मिथ्यादर्शनकी।
(वर्णी वाणी से)