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२६० ] अनेकान्त
[ वर्ष १३ समस्त मामग्रीका परित्याग तो किया ही, किन्तु लेशमात्र वनस्पति आदि सब सचेतन पदार्थोमें जीव रहता है । जीवकी परिग्रह रखना उन्होंने अपनी शान्ति और आत्मशुदिका ये गतियाँ उसके पुण्य और पापके फलसे ही उत्पन होती बाधक समझा । इसलिए उन्होंने वस्त्रका भी परित्याग कर हैं। जब मनुष्य श्रद्धा, ज्ञान और संयमके द्वारा पाप-पुण्यदिया और वे 'निग्रंथ' या 'मचेल हो गये । इस प्रकार रूपी कर्म-बंधका नाश कर देता है, तब वह इस संसारसे बारह वर्षों तक कठोर तपस्या करनेके पश्चात् उन्हें सच्चा, मुक हो जाता है। यही उसका निर्वाण है, जिसके होने पर शुद्ध और सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ. जिसके कारण वे प्रारमामें सच्चे ज्ञान और निर्बाध सुखको उत्पत्ति हो जाती 'मर्वज्ञ' और 'कवली' कहलाने लगे। उस समय मगध देश- है। इस प्रकार यही जीव परमात्मा हो जाता है । की राजधानी राजगृह (माधुनिक राजगिर) थी और वहाँ अपने इस तत्वज्ञानके आधार पर भगवान् महावीरने सम्राट श्रेणिक बिंबसार राज्य करते थे। भगवान् महावीर जीवनको सखमय, सशांतिपूर्ण और कल्याणकारी बनानक विहार करते हुए राजगृह पहुँचे और विपुलाचल नामक लिए कछ उपयोगी नियम स्थिर किये। चूंकि सभी जीवपहाड़ी पर उनका सर्वप्रथम प्रवचन हुथा। उनके उपदेशोंको धारियों में परमात्मा बननेकी योग्यता रखने वाला जीव हजारोंकी संख्यामें जनताने बड़े चावसे सुना और ग्रहण विद्यमान है. अतएव सत्ताकी दृष्टिसे वे सब समान हैं और किया। फिर कोई तीस वर्षों तक भगवान महावीर देशके अपना-अपना विकास करनेमें स्वतन्त्र हैं। वे सब अपनेभिन्न-भिन्न भागोंमें विहार करते रहे और इसीलिए इस अपने कर्मानमार नाना गतियों और भिन्न अवस्थाओं में प्रदेशका नाम 'विहार' प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने मुनि, अर्जिका,
हुआ। उन्हान मुनि, अाजका, विविध प्रकारके सुख-दुःखोंका अनुभव करते हैं। इसमें न श्रावक और श्राविका इस प्रकार चतुविध संघकी रचना कोई देवी-देवता उन्हें क्षमा कर सकता और न दे दे की, जिसकी परम्परा जैनधर्मके नामसे अाज तक भी सकता है। अतएव प्रत्येक मनुष्यको अपनी पूरी जिम्मेदारीविद्यमान है। किन्तु मैं यह बात नहीं मानता कि महावीर
का ध्यान रखते हुए अपना चरित्र शुद्ध और उन्नतिशील भगवानके उपदेशोंकी परम्परा केवल अपनेको जैनी कहने बनाना
। बनाना चाहिए । अपनी इस जिम्मेदारीको कभी भूलना नहीं वाले लोगोंमें ही विद्यमान हो। भगवान महावीरने जो
चाहिए और न मदाचारमें कोई प्रमाद करना चाहिए। अमृतवाणी वर्षायी, उसका भारतकी कोटि-कोटि जमताने
प्रमाद, भूल और अपराध करनेसे केवल अपना ही बुरा पान किया, जिसका प्रभाव आज तक भारतीय जनता भग्में होता हो, सो बात नहीं है | अपनी प्रात्माका अधःपतन तो कुछ-न-कुछ सर्वत्र पाया जाता है। बिहार करते हुए भगवान
होना ही है. किन्तु साथ ही उसके द्वारा दूसरे प्राणियोंकि पावापुरीमें पहुंचे और वहाँ करीब बहत्तर वर्षाको अवस्थामें
र वहा कराब बहत्तर वर्षाको अवस्थाम विकासमें भी बाधा पडती है। और यही यथार्थतः हिसा है। उनका निर्वाण हो गया। प्राचीन ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है जो वशीभत होकर. या प्रकार-वश अथवा कि भगवान महावीरका निर्वाणोत्सव दीपमालिकाओं द्वारा
छल-कपट बुन्दिरी, या लोभवश कुछ अनाचार या दुराचार मनाया गया और आजकल जो दीवाली मनायी जानी है,
करते हैं, तब हम स्वयं पापके भागी होते हैं और दूसरे वह उसी परम्पराकी योतक है।
प्राणियोंको हानि या चोट पहुंचती है, जो हिंसा है। दूसरे भगवान् महावीरका उपदेश संक्षेपमें यह था कि चेतन जीवोंका प्राण-हरण करना तो हिंसा है ही, उनको किसी और जब ये दोनों अलग-अलग पदार्थ हैं, जिन्हें हम जीव प्रकार हानि या चोट पहुंचाना भी हिसा है, जिससे सदाचारी और अजीव तस्व भी कह सकते हैं। ये दोनों प्रकारके तत्व मनुप्यको सावधान रहना चाहिए। किमीका प्राण हरण अनादि और अनन्त है । जीवका जड़ भौतिक तस्वके साथ करना या चोट पहुंचाना जैमा पाप है, उसी प्रकार चोरी अनादि कालसे सम्बन्ध चला पाता है। यही उसका संसार करना, मूठ बोलना, व्यभिचार करना भी पाप है । यहाँ या कर्म-बन्धन है। जीव शुभ कर्म करता है, तो उसे पुण्य- तक कि अपनी और अपने कुटुम्बकी आवश्यकताओंसे का बंध होता है और वह सुख भोगता है तथा स्वर्गको अधिक धन-संचयका लोभ करना भी पाप है। इन्हीं पांच जाता है। और जीव यदि अशुभ या बुरे कर्म करता है, तो पापोंसे समाजमें नाना प्रकार का विद्वष, कलह और उसे पापका बन्ध होता है, वह दुःख भोगता है और नरकको संघर्ष उत्पन्न होता है। यदि लोग इन पाँच पापोंका परित्याग जाता है। मनुष्यसे लेकर पशु पक्षी, कोट, पतंग एवं वृष, कर दें, तो वे समाजके विश्वासपात्र और प्रेम-भाजन बन