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किरण
क्या व्यवहार निश्चयका साधक है ?
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• प्रमाण ज्ञान पर्व अंशोंकी उन उनके रूपमें युगपत निश्चय अंशक', कारणमें कार्यका उपचार करके, साधन ग्रहण करता है। पर इन अंशोंमें सर्व ही उपादेय या सर्व कहा जाता है । पर इसका यह अर्थ नहीं कि जिसे सम्यक्त्व हो हेय नहीं हुअा करते। इन मब अंशोंमें स्वाभाविक प्रगटा नहीं, उसके प्रति रुचि उत्पन्न हुई नहीं, उसको अंशों रूप उपादय ऐसे सद्भुत नयके विषय तथा विभाविक समझनेका भी प्रयास जो वर्तमानमें करता नहीं, 'निश्चयकी अंश रूप हेय ऐसे श्रमदभूत नयके विषय.दोनों ही मम्मिलित कथनी' इतना कह कर उसे छोड़ देता है ऐसे अज्ञानीको होते हैं। ज्ञान मबको युगपत जानता है। परन्तु सबको भी उन क्रियाओंको माधन या व्यवहार कहा जाये। क्योंकि ही उपादय नहीं मान लेता । ज्ञान अर्थात् जानना एक भूत नैगमनय कार्य प्रगट हो जाने पर और भावी नैगमनय बात है और मम्यक्त्व अर्थात यथार्थ हेयोपादय बुद्धि, इमरी आंशिक कार्य देव कर भविष्यमें पूर्ण हो जानेका निश्चय हो बात । सम्यक्च सद्भूत अर्थात निश्चय ही विषयको ग्राह्य जाने पर ही लाग होती है। जिन शुभ क्रियाओंके पीछे मानता है, अमद्भूत अर्थात् व्यवहार या उपचारक विषयको मिथ्यात्व होना पड़ा हो उन्हें सम्यक्त्व या धर्मका उपचारसे हेय रूपमे अंगीकार करता है। यदि इन दोनोंमें इस प्रकार भी साधन नहीं कहा जा सकता। इस विषम व्याप्तिके का हेयोपदिय रूप भेद न हो और दोनों ही समान रूपसे कारण यह दोनों क्रमवर्ती अंश ग्रहण नहीं किये जा सकते। धर्म हों तो इनको भिन्न-भिन्न नयोंका विषय न बनाया यदि ऐसा किया जाये तो द्रव्य लिंगीको मोक्ष होनेका प्रसंग जाये । ज्ञानमें ग्रहण करनेकी अपेक्षा यद्यपि दोनों समान हैं भाजाये। इस हानिके कारण इस प्रकारकी मान्यताको उपचार पर चारित्रमें प्राचरंजेकी अपेक्षा निश्चयको मदा मुख्य तथा या व्यवहार भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उपचार व्यवहारको मदा गोगा ही समझना चाहिए। क्योकि व्यव- किमी लाभदायक प्रयोजनकी सिद्धि के लिये ही किया जाता है हारनय म्याग करने योग्य है पर अनुमरने योग्य नहीं है। हानिकारक प्रयोजनके लिये नहीं। जैसे कि जीवको दहके नय सम्यग्ज्ञानका अंश है चरित्रका नहीं । इसलिए प्रवृत्तिमें कारण वर्णादिमान कहना कोई उपचार नहीं हो सकता । नयका प्रयोजन ही नहीं है । यही समीचीन सापेक्षता है।
वास्तवमें सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाते ही, तत्क्षण चारित्रमें व्यवहारको धर्म कहनेका प्रयोजन
भी आंशिक वीतरागता (स्वरूपाचरण) प्रगट हो जाती है। यह व्यवहार तथा निश्चय एक धर्मीक दो अंश दो यही रत्नत्रयकी एकता है। पर अल्पशक्तिके कारण उस वीतप्रकारसे हो सकते है । एक क्रमवर्ती तथा दूसरा यहवर्ती। गगताके साथ वर्त रहे राग अंशके फलस्वरूप उसके द्वारा यह ठीक है कि सम्यक्त्व सन्मुख जीवको सम्यक्त्व प्रगटनेमै हट पूर्वक भी ग्रहण की जा रही वह बाह्य क्रियायें, उनके पूर्व शुभ रागरूप व्यवहार होता है और इसी कारण उसके प्रति अन्तरमें निषेध होते हुए भी, उसमें होती हैं। इसमें शकोभत नगमनयकी अपेक्षा उसर ममयमें प्रगटने वाले कोई दोष नहीं। क्योंकि स्वाभाविक वीतराग अंशके साथनम्मान म उपादयो नापादयस्तदन्यनयवादः ।
माथ जो यह राग रुष विभाविक अंश या व्यवहार धर्म चाध्यायी पूर्वाद्ध ६२-६३०॥ रहता है उसकी हटको बराबर अपने अनन्त पुरुषार्थ द्वारा सत्यं शुद्धनयः श्रेयान् न श्रेयानितरो नयः । माधक जीव पीछे छोड़ना तथा निश्चय धर्ममें वृद्धि करता अपि न्यायबलादास्त नयः श्रेयानिवतरः। .
चला जाता है । और एक दिन उस व्यवहारका मूलोच्छेद पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध १३७॥ करके पूर्ण निश्चय धर्म तत्व प्रगट करता है। अतः इन - व्यवहारनयोपि म्लेक्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थ प्रति- दोनोंको महवर्ती अंशोंके रूपमें ही नियमसे ग्रहण किया जा
पादकत्वादपज्यमनीयो, अथ च ब्राह्मणों न म्लेच्छितव्य मकता है। इसमें प्रति व्याप्ति प्रादि कोई भी दषण नहीं इतिवचनाद्व्यवहारनयो नानुमर्तव्यः ।
लग सकता। ___ससा. श्रात्मख्यानि गा.८
वीतरागता रूप निर्विकल्प, सूक्ष्म, अरुपी, वचनातीत, ।' प्रवृत्तिमें नयका प्रयोजन ही नहीं है।
मो० मा.प्र.प्र. निश्चय व्यवहाराबलम्बी प्र.२ तद्वादोऽय यथा स्याज्जीवो वर्णादिमान इहास्तीति, यही भेद विज्ञान है, यही जिनशासनका सार है। इसलिये इत्युक्त न गुणः स्थापत्युत दोषस्तदेकबुद्धित्वात् । यही जैनधर्म है।
(पंचाध्यायी पूर्वार्ध ५५५)