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________________ २२४ अनेकान्त [वर्ष १३ केवल अनुभव गम्य तथा दृष्टान्त रहिन उस निश्चय अंश- है। परन्तु इसका यह अर्थ कदापि सम्भव नहीं कि किसी का किसी मन्द वुद्धि या प्राथमिक शिष्यको परिज्ञान कराने जीवको व्यवहार क्रियाओं रूप धर्मका उपादेय रूप अंगीकार के लिये x उस अंशके सहवर्ती यह रूपी बाह्य क्रियायें तथा किसी अन्यको निश्चयका उपादेय रूप अंगीकार या किसी साधन पड़ती हैं। और साधनका नाम ही उपचार है+। तीसरको दोनों ही का उपादेय रूप अंगीकार समान रूपसे मोर जहां जो प्रयोजन निमित्त होता है वहां उपचार होता है और फलमें कारण या माधन हो सकता है। वह उपचार व्यवहारमें गर्मित है। मुख्यके अभाव में प्रयो- निश्चय मुख्य तथा व्यवहार सदा गोण होता है जन या निमित्त दशनिक लिवे उपचार प्रवतता है। अन्तरंग पंचाध्यायी उत्तरार्ध गा०८०६, कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. वीतरागतामें प्रवृत्ति बाह्य त्यागादि कार्योंमें साधन है । इस २७७+ तथा टीका ३११४ स्वयंभूस्तोत्र ५० आदि रूपसे तो निश्चय व्यवहारका माधन है तथा उपरोक प्रकार नियालेनेके पश्चात ( अर्थ ग्रहया निश्चयका ज्ञान करानेमें बाह्य व्यवहार साधन है। करते समय ) निश्चय सदा मुख्य तथा व्यवहार सदा गौण इस प्रकार एक दूसरेमें भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे माध्य साधन ही होता है. बाह्य क्रियानोंको व्यवहार धर्म कहना सत्य है। भाव है। यही इन दोनोंका परस्परोपकारीपना या मैत्रित्व इसके अतिरिक्त नय समीचीन तभी कहला सकती है जब कि इत्यादि है। यही श्रीस्वयंभूस्तोत्र गा. ६१का ' अभिप्राय वह लक्षण कारण तथा प्रयोजन सहित ही ग्रहण की जाय। तस्मादवसेयमिदं यावदुदाहरणपूर्वको रूपः। प्रकृन विषयमें प्रथम अश असदभूत नयका विषय है । जिसतावान् व्यवहारनयस्तस्य निषेधात्मकस्तु परमार्थः॥ का कारण उस जीवकी विभाव परणति अर्थात् व्रतादिका (पंचाध्यायो पूर्वार्ध ६२५) हट पूर्वक अंगीकार है और इस प्रकारका पराश्रय रूप संकर xपरमार्थतस्त्वेक...स्वभाव-अनुभवतो न दर्शनं न ज्ञानं न दोषोंका सय करना ही इस नयके विषय रूप व्यवहार धर्मको चारित्रं, शायकैव एकः शुद्धः। प्रारमख्यातिटीका गा०७ जाननेका फल है (), १७लघुनयचक्र गा० ७७ 0 में भी तहि परमार्थ एवैको वक्तव्य इति चेत् । (इस शंकाका बाझ व्यवहारको बन्धका कारण जान अराधना कालमें अर्थात उत्तर गा.८ में दिया है) निश्चय धर्मरूप यथार्थ स्वभाव प्रगटानेके लिए गौण करनेको यथा नापि शक्योऽनार्योऽनार्यभाषां विना तु ग्राह्ययितुम् । ही कहा है। अर्थात विद्यमान रहते भी उस राग रूप व्यवतथा व्यवहारेण विना परमार्थोपदेशनमशक्यम् ॥ हार धर्म प्रति मदा हेयबुद्धिरूप अरुचि अन्तरङ्गमें रखनका स० सा० गा०८ - + अर्थो ज्ञेयज्ञायकसंकरदोषभ्रमक्षयो यदिवा। र तद्विधाऽथ च वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात । अविनाभावात् साध्य सामान्य माधको विशेषः स्यात । प्रधानं स्वान्मसम्बन्धिगुणे यावत्परात्मनि ॥ पंचाध्यायी पूर्वार्ध ५४५ (पंचाध्यायी उत्तरार्ध ८०६) नो व्यवहारेण विना निश्चयसिद्धिः कृता विनिर्दिष्टा। + जण सहावेण जदा परिणद रुखम्मि तम्मयत्तादो। साधनहेतुर्यस्मात्तस्य च सो भणितो व्यवहारः॥ तप्यरिणाम साहदि जो विसयो सो वि परमत्यो । (वृ० नयचक्र २६५) (का० अनु० गा० २७७) अन्य वस्तुका अन्य वस्तुमें प्रारोपण करके प्रयोजन x अध्यात्मप्रकरणमें मुख्यका तो निश्चय कहा है और सिद्ध किया जाता है। वहां उपचार नय कहलाता है। गौणको व्यवहार कहा है। का. अनु० टीका ३। यह भी व्यवहारमें ही गर्भित है ऐसा कहा है। जहाँ जो : यस्तु बाह्य गुणदोषसूतेनिमित्तभ्यन्तरमूलहेतोः । प्रयोजन निमित्त होता है प्रहां उपचार प्रवर्तता है। अध्यात्मवत्तस्य तदंगभूतमभ्यन्तर केवलमप्यते ॥ कार्तिकेयानुप्र हा टीका गा. ३११-३१२) स्वयंभू स्तीत्र॥ व्यवहारनय भी उपचार है। जैसे कुण्डी बहती है, मार्ग . फलमागन्तुकभावादुपधिमात्र विहाय यावदिह । चलता है। स्याद्वाद मारी २८११ पृ० १६॥ शेषस्तच्छुद्धगुणःस्यादिति मत्वा सुदृष्टिरिह कश्चित् ॥ ० य एव नित्यत्तणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षाः स्वपरप्रणाशिनः । . पंचाध्यायी पूर्वार्ध ५३२ त एव तत्वं विमलस्य ते मुने परस्परेता स्वपरोपकारिणः॥ ॥ व्यवहारादो बन्धो माक्खो जम्हा सहावसंजुत्तो। स्वयम्भूस्तोत्र ६॥ तम्हाकु रुतं गउणं सहावमाराहणाकाले लघुनयचक्र०७॥
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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