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किरण
हस्तिनागपुरका बड़ा जैन मन्दिर
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मुजफ्फरनगरक निवासी ला• जयकुमारमबजी भी उपस्थित नैनसिंहजीके यहाँ पहुँचे । यद्यपि राजा मैनसिंह ला हरसुखथे। और जिनका स्वास सम्बन्ध बहसूमेके राजा नैनसिंहसे रायजीसे परिचित ही थे और शाही खजांची होनेके कारण थावे जय यात्राको आते थे तब राजा नैनसिंहके यही हो वे उनका भादर भी करते थे। राजा नैनसिंहके शाही रूपयेकी उहरते थे। उस समय भी वे उन्हींके यहाँ ठहरे हुए थे और भदायगी राजा हरसुखरायजीनं अपने पाससे एक लाख पंचायतमें मौजूद थे। उनसे भी राजा हरसुखरायजीने रुपया देकर कराई थी। इसीसे सन् १८७१ में लिखे जाने प्रेरणा की, और कहा कि यह सब कार्य प्रापको सम्पन वाले मेरठके इतिहासकी एक पुस्तकमें हस्तिनागपुरके मन्दिर कराना है। उन राजा साहबने अपनी पगड़ी पंचायतमें रख बनवाने के सम्बन्ध में निम्न पंक्तियां लिखी हुई हैं और वे इस दी और कहा कि मन्दिर निर्माणमें जितना भी रुपया लगे में प्रकार हैं:दू'गा। आप मन्दिर बनवानेकी व्यवस्था कराहये। इस तरह 'तखमीनन साठ पैसठ वरस हुए कि यह डेरा पहन विचार-विनिमयके बाद सब लोग खाना खाकर बहसूमे चले।
को नैनसिंहके इस तौर पर बना था कि राजा मौसूफको कुछ गये। बहसमे पहुँच कर ला. जयकमारमलजीx राना रुपया माह देहलीका देना था और उसमें राजा साहब
-. .. यमुकाम देहली थे। जब सबील प्रदाई रुपयेकी न बन अंकित नहीं किया। उन्होंने नामक लिए मन्दिर नहीं बन पाई तो लाला हरसुखराय नामी खजांची बादशाह देहलीने, वाए थे किन्तु धार्मिक भावनासे प्रेरित होकर ही सब कार्य जो वह जैन धर्मी था, बिल एवज राजा साहब मौसूफका किया था, अाजकल जैसी यशोलिप्सा और नाम करनेका रुपया इस शर्त पर अदा किया कि राजा साहब डेरा पारसचाह उनमें नहीं थी। वे जैसे श्रीमान थे वैसे ही उदार नाथ बमुकाम हस्तिनापुर बनवा दें, किस धास्ते कि यह और चरित्रनिष्ट भी थे। उनकी प्रकृति में उदारता और जगह बहुत पवित्तर समझी जाती है और जमीदारान् भदता दोनों ही बातें सम्मिलित थीं । वे न्याय प्रिय व्यकि गनेशपुर दनको मान तामीर थे। चुनांचे राजा साइबकी थे। उस समयमें उनकी धार्मिकवृत्ति स्पृहाकी वस्तु थी। दवागतसे मरावगी अपने मकसदको पहुँचे। ऐसा कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं था जिसमें वे भाग नहीं
-देवो, जैनसिद्धांतभा कर भा० ११-१ लेते हों । प्रतिदिन शास्त्र मभामें जाते थे। वे शुद्धाम्नायके इससे स्पष्ट है कि राजा हरसुग्घरायजी हस्तिनापुरमें प्रेमी थे तेरह पन्धक अभ्युदयमें उन्होंने अपना पर्ण सह- मन्दिर निर्माण करानेके लिए कितने उत्सुक थे और बराबर योग दिया था और विद्वानांसे उनका भारी प्रेम था, वे प्रयन्नमें लगे हुए थे, परन्तु गनेशपुरके जमींदारोंके भारी गुणीजनोंको श्रद्धा और पादरकी रष्टिसे दबते थे। और विरोधके बावजूद मन्दिर निर्माणका कार्य शुरू करानेमें वे गुणीजनोंमें भी उनका श्रादर पाया जाता था। इनके जोधन- मंकोच कर रहे थे. कि न्यर्थमें झगड़ा क्यों मोल लिया जाय परिचय पर फिर कभी यथोचित प्रकाश डाला जावेगा। पुनीत कार्यको सरल तरीकस ही सम्पन्न करना उचित है।
x लाजा जयकुमारमनजी भी अग्रवाल कुलमें उत्पन्न हुए इसीसे ला० हरसुग्वरायजीने राजा नैनसिंहकी स्वीकृति प्राप्त थे। और बाल ब्रह्मचारी थे। श्रापकी एक दुकान मेरठमें करानक लिए ला. जयकुमारमलजीको प्रेरित दिया था। थी। एक बार राजा नैनसिंहजीको कुछ रुपयोंकी आवश्यकता क्योंकि ये राजा ननमिहक धनिष्ठ मित्र थे। पटी जब जा जयकमारमलजीने मेरठ दकानसं हजार उस समय जयकुमारमनजीके चहरे पर कर उदासी रुपया दे दिया था, बादमें वह रुपया राजा साहबने वापस छाई हुई थी राजा ननर्मिहीने उन्हें देख कर पूछा कि भेज दिया था। राजा साहबसे उनकी घनिष्ट मित्रता थी। अभयकुमारजी थे। अभयकुमारके पुत्र शीदयालमल थे। इसीसे वे उनके यहाँ ठहरते थे। वे राजाको समय-समय पर जिन्होंने हस्तिनागपुर मन्दिरके बड़े दरवाजे बनानेमें सहयोग समुचित सलाह भी दिया करते थे। अतः राजाका उन पर प्रदान किया था उनस दो पीढ़ियों प्रारम्भ हुई, मंगमलाल प्रेम होना स्वाभाविक है। मापने मन्दिर निर्माणमें यथेष्ट जयकुमारमलके पोते थे और संगमलालक प्रपौन बा. कर्तव्यका पालन किया है। कहा जाता है कि उन्हीं दिनों विमलप्रसाद जी, जो तृतीय पीढ़ीके हैं इस समय शाहपुरमें शाहपुरमें भी मन्दिरका निर्माण कार्य भी शुरू हुमा भा, मौजूद हैं और वहींके मन्दिरका प्रबन्ध करते हैं। उनकी उसका कार्य भार भी आप पर था । जयकुमारमनके भाई दुकान (कसरेट) बर्तनों की है।