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अनेकान्त
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मित्र ! आज आप चिन्तित क्यों हैं ? क्या पंचायत में कोई गड़ा हुआ या अन्य कोई चिन्ताजनक बात हुई, जिससे आप सचिन्त दीख रहे हैं। तब जयकुमारमलजीने कहा राजा साहब ऐसी तो कोई बात नहीं हुई, किन्तु सब लोगोंने और खास कर राजा हरसुखरायजीने यह खास तौरसे आग्रह किया है कि उस टीले पर जैनमन्दिरका निर्माण करना है। और उसे श्राप करा सकते हैं। उन्होंन पंचोंमें मेरे सामने पगड़ी भी उतार कर रख दी थी। इसीसे चिन्तित हूँ कि यह विशाल कार्य कैसे सम्पन्न हो । तब राजा नैनसिंहजीने का हरसुखरायजी और जयकुमारमल जीकी बात रखते हुए कहा कि मित्र ! इसमें चिन्ताकी कोई बात नहीं हे श्राप खुशीसे जहाँ चाहें वहीं मन्दिर बनवाइये । जयकुमारमलजीने कहा कि आप कल सवेरे नींव में पाँच ईंटें अपने हाथसे रख दीजिये । राजाने स्वीकृति दे दी और जयकुमारमलजीने राजा हरसुखराय तथा बहसूमे बालसिं कहा कि कल सबेरे ही हस्तिनागपुर में मन्दिरकी नीव रखी जायेगी। अतः राज मजदूर और सामान लेकर हस्तिनागपुर चलना है। चुनांचे सब लोग प्रातःकाल उस टीले पर गये और राजा नैनसिंहजी ५ इंटें उठाकर अपने हाथसे नींव में रख दीं । इम तरहसे जिन मन्दिर के निर्माणका कार्य शुरू हो गया। जयपुरले कारीगर भी आ गये और लगभग पाँच वर्षके परिश्रमके परिणामस्वरूप मन्दिरका विशाल शिखर बन कर तय्यार हो गया। इस मन्दिरके निर्माण कार्यकी देख-देख ला जयकुमारमलजी शाहपुर करते थे बच राजा हरसुखराज की श्रोरले भी वहाँ आदमी नियुक्त था जा कार्यकी देख-भाल करता था, सामान लाकर मुहय्या करता था और रुपये पेसका हिसाब भी रखता था। परन्तु कार्यका निर्देश जयकुमामल करते थे, रुपया भी संभवतः उन्हींकी मार्फत श्राता था और ये प्रत्येक महीने शाहपुर हस्तिनापुरके लिए था और राजा ने यहाँ थे और मन्दिर निर्माणका निरीक्षण कर श्रावश्यक कार्यकी सूचनाएँ करके वापिस चले जाते थे। यद्यपि बीजाला हरमुदगी भी मन्दिर निर्माणका कार्य देखनेके लिए जाते थे। और अपने गुमास्तेके जरिये सब बातें मालूम करते रहते थे । इस तरह हस्तिनापुर मन्दिरके विशाल शिखरका निर्माण ५ वर्षमें बन कर तय्यार हो गया । मन्दिरका यह शिखर बड़ा मजबून बनाया गया है और श्रापत्काल आने पर उसमें सुरक्षाका भी ध्यान रखा गया है । मन्दिरके चारों ओर जो सिदरी बनी हुई हैं वे
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[ वर्ष १३
सब जा० हरसुखरायजीकी बनवाई हुई है। हाँ बाहरको कुछ सिदरी ला० जयकुमारमलने स्वयं अपनी लागत से अपने भाईके लड़केके लिये बनवाई थीं ।
इस समय शिखरके दरवाजे में जो किवाड़ों की जोड़ी लगी हुई है वह शाहपुर जिला मुजफ्र नगरसे बन कर आई थी और जिसकी लागत दो हजार रुपया थी ।
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इस तरह मन्दिरके तय्यार हो जाने पर संवत १८६३ के फाल्गुन महीने में जब सब लोग तबला हरसुखरायजी ने कहा कि मन्दिर बन कर तय्यार हो गया है वेदी प्रतिष्ठा और कलशारोहणका कार्य सम्पन्न कराना है मेरी जितनी सामर्थ्य थी उतना किया, मन्दिर धाप सबका है अतः इस कामें अपना अपना सहयोग प्रदान करें । उस समय वहाँ जो लोग उपस्थित थे उनके सामने एक घढ़ रक्खा गया और उसमें सब लोगोंने अपनी-अपनी मुट्ठीमें जो जिनिके पास था लेकर उसमें डाला अंतमें उस घड़ेको बोलकर देखा गया तो वह द्रव्य इतना अल्प था कि उसमे दोनोंमेंसे कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता था। क्योंकि जनता मन्दिरमें रुपया पैसा ले जाकर नहीं बैठी थी । जो कुछ थोड़ा सा रुपया निकला, उससे राजा साहबको क्या करना था उनका तो एक मात्र आयोजन मन्दिरको सार्वजनिक बनाने और अपने अहंभ वको दूर करनेके लिए था। चुनांचे प्रतिष्ठा और कलामा विशाल कार्य राजा हम्सुम्पने बड़े महोत्सवके साथ सम्पन्न कराया। उस समय इस मन्दिर में भगवान पार्श्वनाथकी बिनाफा वाली मूर्ति विराजमान की गई, जो ला० हरसुखरायजी देहलीस लाये थे । हस्तिनापुर में बिम्ब प्रतिष्ठाका कोई कार्य सम्पन्न नहीं हुआ ।
मन्दिर की प्रतिष्ठा हो जान ३०-३५ वर्ष बाद जहाँ मन्दिरजीक सामने विशाल दरवाजा बना हुआ है वहीं बड़ का एक विशाल पेड था। गृज़र लोग उस बढ़क पेड़को कट वाने नहीं देते थे । अतः विशाल दरवाजेका निर्माण कैसे हो ? यह चिन्ता भी बराबर अपना घर किए हुए थी। एक चार ला० हरसुखरायजीक सुपुत्र ला० सुगनचन्दजीने जयपुरके किसी कारीगरसे कहा कि यहाँ विशाल दरवाजा बनाना हे और बढ़के दरख्त काटे बिना दरवाजा बन नहीं सकता । तब उसने कहा कि मुझे १०० मजदूर दीजिए आपका दरवाजा बन जायगा और आप सब बहसूमे ठहरिये । श्रतः जयकुमारमलजी शाह वालक पोते स्वीदीने 1.. मजदूर दिये । तब उन्होंने रात्रि में उस बड़ को काटकर गंगाम
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