________________
किरण हस्तिनागपुरका बड़ा जैन मन्दिर
[२०६ बहा दिया और गहरी विशाल नीव खोद कर रात्रिमें तय्यार वहीखाता नहीं है जिसमें मन्दिर निर्माणके खर्चका पूरा ब्योरा की गई। प्रातःकाल गूजर लोग श्रा पहुंचे, जब कुछ कहा दिया गया हो। उन्होंने उसकालमें अनेक मन्दिरोंका निर्माण सुनी होने लगी तब जयपुरका वह राज नीवमें कूद गया, कराया था। इस कार्यमें उन्होंने बहुत रुपया खर्च किया था । उसके कूदते ही गूजर लोग भाग गए और मन्दिरका विशाल जिसकी संख्या एक करोड़से कम नहीं थी | किन्तु उनकी यह दरवाजा बनकर तय्यार हो गया, जो मन्दिरको शोभाको सबसे बड़ी विशेषता थी कि मन्दिर बनवानेके बाद उन्होंन दुगुणित किए हुए है।
कहीं अपने नामका कोई पत्थर नहीं लगवाया | आजकल जैन उस समय हस्तिनागपुरमैं कुल तीन ही निसि या निषचा समाजकी प्रवृत्ति नाम लिखवानेकी अर अधिक बढ़ थीं। परन्तु तीसरी निसि भ० अरहनाथको बहुत दूर थी, गई है। जिन लोगोंने उनके बनवाए हुए मन्दिरों में चार सौ वहां धना जंगल होने और हिंसक जानवरोंको बामद रफ्न पांच सौ रुपया खर्च करके थोड़ा सा संगमर्मरका फर्श लगवा के कारण उतनी दूर यात्रियोंका आना जाना सरल नहीं था, दिया, वहीं अपना नाम भी अंकित करवा दिया है। यह यात्रियोंका जीवन वहाँ अरक्षित था । इसीसे भगवान अरह- प्रवृत्ति कुछ अच्छी नहीं जान पड़ती। श्राशा हे समाज इस नाथकी उस निसि (निषद्या) को भ. कुन्थुनाथकी निसिके और अपना ध्यान दगी। और अपनेको अहंकार ममकारके बगल में बनवा दिया गया है। फिर भी यात्रीलोग पुरानी निसिकी बन्धनमें बन्धनेसे बचानेका यत्न करेंगी। यात्राके लिए जाते रहते हैं। भगवान शान्तिनाथकी निसिक दिगम्बर मन्दिर बन जानेके बहुत वर्षोवाद श्वेताम्बरों बगलमें जो कुआ बना हुआ है उसे लाला संगमलालजी ने भी अपना मन्दिर बनवा दिया। और दिगम्बर समाजके शाहपुरने बनवाया था।
उमटीले पर जहां शान्तिनाथकी मूर्तिके निकलनेका उल्लेख मन १८५७ (वि० सं० १६१४ ) में जब गदर पड़ा, किया गया है। अपनी निसी भी बनवाली है। कुछ दिनोंसे तब गूजर लोगोंने अवसर पाकर हस्तिनापुरके उस मन्दिरको दोनों में साधारण कारणोंको लेकर कशमकश चल रही है। लूटकर ले गए, वहां का वे सब सामान ही नहीं ले गए थे आज के असाम्प्रदायिक्युगमें दोनोंको चाहिए कि वे प्रेमसे किन्तु भगवान पार्श्वनाथकी उस मूर्तिको भी उठाकर ले रहना सीखें। अपनी धार्मिक परिणतिको कहर साम्प्रदायिगए थे। बादमें शान्ति स्थापित हो जाने पर दिल्लीक धर्म- कताकी पोर न जाने दें। साम्प्रदायिकता एक विष है जो पुराके नए मन्दिरजीसे भगवान शान्तिनाथकी सं० १५४८की कषायक संस्कारवश अपने व दूसरेका बिगाड़ करनेपर उतारू भ० जिनचन्द्रद्वारा प्रतिष्ठिन मृति मूलनायकके रूपमें विराज- हो जाता है । उससे हानिके सिवाय कोई लाभ भी नहीं है। मान की गई थी। तबस यह मन्दिर शानिनाथक नामसे आशा है उभय समाजके व्यक्ति अपनी परिणति असाम्प्रदापुकारा जाने लगा है।
यिक बनानेकी ओर अग्रसर होंगे। __ प्रयत्न करने पर भी यह मालूम नहीं हो सका, कि यह लेख पं० शातलप्रसादजी शाहपुरवालोंकी गजा हरसुवरामजोने इस मन्दिरक बनवाने में कितना रुपया प्रेरणासे लिखा गया है। इसके लिये मैं उनका खर्च किया है। क्योंकि उनके वंशमें अब उस समयका कोई आभारी हु।
जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह यह ग्रन्थ १७१ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंको लिए हुये है। ये प्रशस्तियाँ हस्तलिखित ग्रन्थों परसे नोट कर संशोधनके साथ प्रकाशित की गई हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीकी ११३ पृष्ठकी खोजपूर्ण महत्त्वकी प्रस्तावनासे अलंकृत है, जिसमें १०४ विद्वानों, प्राचार्यों और भहारकों तथा उनकी प्रकाशित रचनाओंका परिचय दिया गया है जो रिसर्चस्कालरों और इतिहास संशोधकों के लिये बहुत उपयोगी है । मूल्य ४) रुपया है। मैनेजर वीरसेवा-मन्दिर,
दि. जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, दिल्ली।