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________________ २६.1 अनेकान्त वर्ष १३ महोदयने किया और न अन्य किसी विद्वानने उन पर उपरके इस विवेचनसे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि प्रकाश डालने या परिमार्जन करनेका यत्न किया है ऐसी ऐतिहासिक विद्वानको इतिहास लिखनेके लिये इस तरहके स्थितिमें उन पर विचार करना भी प्रावश्यक है। यहाँ उपयोगी संशोधनों, नोटों और ग्रंथ-भण्डारोंके सावधानीसे बतौर उदाहरणके एक दो अशुद्धियोंको दिखाकर ही लेख अन्वेषण करनेकी कितनी प्रावश्यकता है। बिना ऐसा किए समाप्त किया जाता है। दूसरे ग्रंथांतरोंके सम्बंधसे होनेवाली अशुद्धियोंका परिमार्जन उक्र प्रशस्ति संग्रहमें पू. १०पर 'हरिवंश पुराण' को नहीं हो सकेगा। अन्वेषण कार्य और जांचका कार्य सम्पन प्रशस्ति दी हुई है, जिसके कर्ता भ. श्रुतकीर्ति है। प्रश. हो जाने पर उक्र सूचियों वगैरहसे जो साहाय्य मिल सकता स्तिमें भ. श्रुतकीर्तिकी गुरु परम्परा दी जाने पर भी उनका है फिर उससे भी लाभ उठाया जा सकता है। कोई परिचय नहीं दिया गया। किंतु उनके स्थानमें यशःकोर्ति ऐसी स्थितिमें सूचियों आदि परसे समस्त जैन साहियके का परिचय दिया गया है । जिनका इस प्रशस्तिसे कोई इतिहासका निर्माण जैसे महान कार्यका तयार करना उचित सम्बन्ध नहीं था | प्रशस्ति-गत पाठकी अशुद्धियों पर ध्यान मालूम नहीं देता। और न वह क तपय उपलब्ध ग्रंथोंके न देते हुए भी यशः कोर्तिके सम्बन्धमें वहां विचार करना इतिवृत्तसे जिनका परिचय अनेकांतादि पत्रों या ग्रंथ प्रस्ताऔर श्रुतकीर्तिका नामोल्लेख तक नहीं करना किसी भूलके वनादि द्वारा हो चुका है, उतने मात्रसे भी उसकी पूर्ति नहीं परिणामको सूचित करता है। हो सकती। और इतिहास जैसे गम्भीर और महत्वके कार्यमें बढ़ी सावधानी और सतर्कताकी जरूरत है । ऐतिहासिकके ८वीं प्रशस्ति षड् दर्शन प्रमाण-प्रमेयानु प्रवेश' नामक लिये निष्पक्ष और असम्प्रदायी होना जरूरी है। क्योंकि प्रथकी है जिसके कर्ता भ. शुभचंद्र हैं | जिसमें ग्रंथ कर्ताकी पक्षपात और साम्प्रदायिकतासे कार्य करना उसकी महत्ताको अंतिम प्रशस्ति पत्र पर कोई बच्य न देते हुए पाण्डवपुराण कम करना और प्रामाणिकताको खो देना है। इसके लिए आदि ग्रंथों के कर्ता भ. शुभचंद्रके सम्बंधों के विचार किया निष्पक्ष दृष्टिसे सभी साहित्यका यथास्थान प्रयोग होना गया है। परंतु मूलप्रशस्ति पथमें उल्लिखित कण्डूरगणके आवश्यक है। शुभचद्रका कोई उल्लेख नही किया गया। यदि उस पर प्राशा है इतिहास लेखक विद्वान्गण अपने दृष्टिकोणको कर लिया जाता तो उक्त शुभचदका स्थित अन्य बदलनेका प्रयत्न करेंगे। और विशाल उदार दृष्टिकोणके शुभचंद्रोंसे स्वतः ही भित्र सिद्ध हो जाती । उसके लिए सक लिए साथ यथेष्ट परिश्रम द्वारा पहलेसे प्रन्थ-सूचियों वगैरहकी र पाण्डवपुराणादिके कर्ता भ० शुभचंद्रके परिचय ससमय जाँचके साथ नूतन साहित्य-परिचयको प्रथ भण्डारोंसे लेकर ग्रन्थोल्लेख आदिकी कोई आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि इतिहासका निर्माण करेंगे। ऐसा करने पर उसमें त्रुटियोंको उनका गणगर छादिक भिन्न होनेसे पाण्डवपुराणके कर्तासे वे कम स्थान मिलेगा। और इतिहास प्रामाणिक कहलायगा, स्वतः भिन्न सिद्ध होते हैं। अन्यथा वह सदा ही मालोचनाका विषय होनेके साथ-साथ इसी तरह अन्य प्रशस्तियोंके सम्बंध में जानना चाहिए। अनेक भूल-भ्रांतियोंके प्रसारमें सहायक बनेगा। 'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें 'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से १२ वें वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है । लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है। लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइलें थोड़ी ही शेष रह गई हैं। अतः मंगानेमें शीघ्रता करें । प्रचारकी दृष्टिसे फाइलोंको लागत मूल्य पर दिया जायेगा। पोस्टेज खर्च अलग होगा। मैनेजर-'अनेकान्त', वीरसेवामंदिर, दिल्ली
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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