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किरण ११-१२]
चन्द्रगुप्त मौर्य और विशाखाचार्य कारी थी। वह उदार, न्यायी और कर्तव्य पालनमें निह मउडधरेमचरिमो जिण दिख घरदि चंदगुत्तोय । था । राजनीतिमें दस अत्यन्त साहसो और अपनी धुनका तत्तो मउडधरा दुप्पवज्जणं णेव गेण्इंति ।। ४-४८१ एक ही व्यक्ति था। उसने अपने बाहुबबसे विशाल राज्य ब्रह्म हेमचन्द्रने भी अपने भुतावतारमें दीपाका उल्लेख कायम किया था, और वह उसका एक अभिषिक्त सम्राट् करते हुए लिखा कि मुकुट धारी नरपपि चन्द्रगुप्तने पंच महाथा। उसके शासनकालमें विदेशियोंने जो मुंह की खाई थी व्रतोंको ग्रहण किया । जैसा कि उनकी निम्न गाथासे स्पष्ट है:इसीसे किसी विदेशी राजाओंकी हिम्मत भारत पर पुनः चरिमो मउड धरीसो गरवाणा चंदगुत्तणामाए । आक्रमण करनेकी नहीं हुई थी। उसका चाणिक्य जैसा पंच महव्वय गहिया अरि रिक्खाय प्रोच्छिण्णा राजनीतिका विद्वान मन्त्री था। उसके राज्यसंचालनकी
-श्रुतस्कन्ध, ७० व्यवस्थाका बाज भी लोकमें समादर है। और सभी दीक्षा लेनेके बाद चन्द्रगुप्तने साधु-चर्याका विधिवत ऐतिहासिक व्यक्तियोंने चन्द्रगुप्तकी राजनीति और शासन- अनुष्ठान करते हुए अपने जीवनको आदर्श और महान् व्यवस्थाको प्रशंसा की है।
साधुके रूपमें परिणत कर लिया। और अभीषया ज्ञानोपयोग
तथा आत्मसाधना द्वारा भद्रबाहुके प्रमादसे दशपूर्वका परिएक समय भद्रबाहुस्वामी चर्याके लिये नगरमें गये।
ज्ञानी हो गया । और तब भद्रबाहु स्वामीने मुनिचन्द्र गुप्तउन्होंने चर्या के लिए जिस घरमें प्रवेश किया उसमें उस ममय
को सब तरहसे योग्य जानकर उन्हें संघाधिप तथा विशाखा कोई व्यक्ति नहीं था, किंतु पालनेमें एक छोटा सा शिशु मूल
चार्य नामक संज्ञासे विभूषित किया, जैसा कि हरिषेण कथा रहा था। उसने भद्रबाहुको देख कर कहा कि हे मुने ! तुम
कोषके निम्नपद्यसे प्रकट है :यहाँ से शीघ्र चले जाओ। भद्रबाहु अन्तराय समझ कर चर्यासे वपिस लौट आये, और उन्होंने अपने चन्द्र गुप्ति मुनिः शोघ्र प्रथमो दशपूर्विणाम । निमित्तज्ञानसे विचार किया, तब मालूम हुआ कि यहाँ सर्व संघाधिपो जातो विशाखाचार्य संज्ञकः ॥३६॥ द्वादशवर्षीय घोर दुर्भिक्ष पड़ेगा। अतः यहांसे साधु-संघको अस्त. विशाखाचार्यने उस मूल साध्वाचारके यथार्थ सुभिक्ष स्थानमें अर्थात् दक्षिण देशकी ओर ले जाना रूपको भीषणतम दुर्भिक्षके समय में भी अपने मूल रूपमें चाहिये। इधर सम्राट चन्द्रगुप्तको रानिमें सोते हुए जो संरक्षित रखनेका प्रयन्न किया था। स्वप्न दिखाई दिये थे वह उनका फल पूछनेके लिये भद्र- यहां पर यह विचारणीय है कि चन्द्रगुप्त मौर्यका दीक्षा बाहुके पास आया और उसने भद्रबाहुकी बंदना कर उनसे नाम कुछ भी क्यों न रहा हो। परन्तु उन्हें लोकमें विशाखाअपने स्वप्नोंका फल छा । तदनन्तर चन्द्रगुप्तको जब यह चार्यकै नामसे उल्लेखित किया जाता था इसीसे हरिसेणाज्ञात हुआ कि इस देशमें १२ वर्षका घोर दुर्भिक्ष पड़ेगा। चायनेभी अपने कथा कोशमें उनको विशाखाचार्य नामक संज्ञा
और स्वयं देखते हुए स्वप्नोंका फल भी अनिष्टकारी जान- से उल्लेम्वित किया है। उनका विशाखाचार्य यह नाम किसी कर चन्द्रगुप्तकी मनः परिणति विरक्रिकी ओर अग्रसर होने शाखा-विशेषके कारण प्रसिद्ध हुआ हो, यह नहीं कहा जासकता लगी। उसे दह-भोग और विषय निस्सार ज्ञात होने लगे। क्योंकि दक्षिणको भोर जो संघ इनकी देख-रेख अथवा संरक्षण राज्य भव और परिग्रहकी अपार तृष्णा दुःखकर, अशान्त में गया था वह जैन साधु सम्प्रदायका मूल रूप था । शाखा और विनश्वर जान पडी। फलतः उसने २४ वर्ष राज्य विशेषके कारण उक्त नामकी प्रसिद्धि तो तब हो सकती थी करनेके अनन्तर अपने पुत्र बिन्दुसारको राज्य भार सोंप कर जब कि द्वादश वर्षीय.घोर दुर्भिक्ष पड़नेके बाद यदि उनका भद्रबाहुस्वामीसे दीक्षा देनेकी प्रार्थना की । भद्रबाहुने नाम करण किया जाता, तब उक नामकी सम्भावना की जा चन्द्रगुप्तको अपने संघमें दीक्षित कर लिया ! चुनांचे सम्राट सकती थी। परन्तु उनका 'विशाखाचार्य' यह नाम दश पूर्वचन्द्रगुप्त मौर्य की जैन दीपाका उल्लेख प्राचीन जैनग्रन्थों, धारी हो जाने के बाद प्रथित हुश्रा जान पड़ता है। हां, यह श्रतावतारों और शिलालेखादिमें समादरके साथ पाया जाता हो सकता है कि विशाखाचार्यके नेतृत्व में जो संघ दक्षिण है। विक्रम की चौथी पांचवीं शताब्दोके प्राचार्य यतिवृषभने देशकी मोर गया था वह दुर्भिक्ष समाप्तिके बाद जब लौटअपनी तिलोयपण्यातीमें उसका निम्न प्रकार उल्लेख कर वहां पाया, तब जो साधु संघ यहां स्थित रह गया था। किया है।
उसे दुर्भिक्ष की विषम परिस्थिति वश चर्या की सीमा का