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२७६ अनेकान्त
[वर्ष १३ मुनियों तथा श्रापकों के प्राचारको फेवलिजिन-प्रणीत धर्म आशा है मेरे इस समग्र विवेचन परसे श्रीबोहराजीको मानते हैं और इसीसे उसकी हरण प्राप्त करना समुचित समाधान प्राप्त होगा और वे श्रीकानजीस्वामीकी तथा उसे अपनाना अपना कर्तव्य समझते हैं। अपने-अपने अनुचित वकालतके सम्बन्धमें अपनी भूलको महसूप महान् प्राचार्योंके इस कथनकी प्रामाणिकता पर उन्हें करेंगे। अविश्वास नहीं है, जबकि कानजी स्वामीको बाहर-भीतर- जैन लालमन्दिर, दिल्ली ।
जुगलकिशोर मुख्तार की स्थिति कुछ दूसरी ही प्रतिमासित होती है।
जेष्ठ सुदि २,सं. २०१२
चन्द्रगुप्त मौर्य और विशाखाचार्य
परमानन्द शास्त्री
भगवान महावीरके निर्वाणके पश्चात् १६२ वर्ष तक सम्राट चन्द्रगुप्तमौर्य भी उज्जयनीमें ठहरा हुआ था। जैनसंघकी परम्परा अविचित्र रही, अर्थात् १५२ वर्षके चन्द्रगुप्त भद्रबाहुश्रुतकेवलीको वहाँ आया हुआ जान कर अन्दर इन्मभूति, सुधर्माचार्य, जम्बूस्वामी ये तीन केवली उनकी बन्दनाके लिये गया । चन्द्रगुप्तने भद्रबाहुकी वन्दना और पाचश्रुतकेवलियो-विष्णुकुमार, नन्दीमित्र, अपरा- की और धर्मोपदेश श्रवण किया। चन्द्रगुप्त भद्रबाहुके जित, गोवर्दन और भद्रबाहु इन पाँच श्रुतधरों-तक संघ व्यक्तित्वसे इतना प्रभावित हुआ कि वह सम्यग्दर्शनसे संम्पन्न परम्पराका भले प्रकार निर्वाह होता रहा है। भद्रबाहुके महान् श्रावक हो गया । भद्रबाहुका व्यक्तित्व असाधारण बाद संघ परम्पराका बहन १३ वर्ष तक विशाखाचार्य था। उनकी तपश्चर्या, आत्म-साधना और सघ संचालनकी प्रादि ग्यारह प्राचार्य क्रमशः करते रहे । यहाँ यह जानना अपूर्व गुरुता देखकर ऐसा कौन ब्यक्रि होगा, जो उनसे मावश्यक है कि भद्रबाहुने अपना संधभार जिन विशाखा- प्रभावित हुए बिना रहा हो । भद्रबाहुके निर्मल एवं प्रशान्त चार्यको सोंपा था, जिसका प्राचार्यकाल प्राकृत पावलीमें जीवन और अपूर्व तत्वज्ञानके चमत्कारसे चन्द्रगुप्तका अन्त: दस वर्ष बतलाया गया है। और जिन्हें दश पूर्वधरों में प्रथम करण अत्यन्त प्रभावित ही नहीं हुआ था किन्तु उसकी उल्लेखित किया गया है। और जिन्होंने संघकी बागडोर प्रान्तरिक इच्छा उन जैसा अपरिग्रही संयमी साधु जीवनके ऐसे भीषण समयमें सम्हाली, जब द्वादश वर्षीयदर्भिपके बितानेकी हो रही थी, भद्रबाहु निःशल्य और मानापमानमें कारण समस्त संघको दषियकी भोर जाना पड़ा था। समदर्शी थे और उनका बाह्यवेष भी साक्षात् मोक्षम र्गका विशाखाचार्य कौन थे और उनका जीवन-परिचय तथा गुरु निदर्शक था । चन्द्रगुप्त स्वयं राज्य-काका संचालन करना परम्परा क्या है ? इसी पर प्रकाश डालना ही इस लेखका था और विधिवत श्रावकवतोंक अनुष्ठान द्वारा अपने जीवन में प्रमुख विषय है। जहाँ तक मैं समझता है अब तक किसी पात्मिक-शान्ति लाने के लिए प्रयत्नशील था । जैन-धर्मसे भी विद्वानने वह लिखनेकी कृपा नहीं की, कि प्रस्तुत विशा- उसे विशेष प्रेम था, वह उपकी महत्ता एवं प्रभावसे भी खाचार्य कौन थे और उनके सम्बन्धमें क्या कुछ बातें जैन- परिचित था। ग्रन्थों में पाई जाती है। प्रस्तु,
वह चन्द्रगुप्तमौर्य उच्च कुलका क्षत्रिय पुत्र था। वह विशाखाचार्य गोवद्धनाचार्यक प्रशिध्य और अन्तिम बड़ा ही वीर और पराक्रमी था। उसने मेल्यूकस Seleश्रुतधर भद्रबाहश्रुत केवलीके शिष्य थे। भद्रबाहुके गुरु uns) जैसे विजयी सेनापतियोंको भी पराजित किया गोवद्ध नाचार्य के दिवंगत हो जानेके बाद वे अपने संघके था । उसकी शासन-व्यवस्था बड़ी ही सुन्दर और जनहितसाथ विहार करते हुए अवन्तिदेशमें स्थित उज्जयनी नगरीमें 8 तकालेतत्पुरि श्रीमांश्चन्द्रगुप्तो नराधिपः । माये। और उस नगरीके समीपमें स्थित सिमानामक नदीक सम्यग्दर्शन सम्पयो बभूव श्रावको महान् । किनारे उपवनमें ठहरे। उस समय उस नगरका शासक
-हरिपेणकयाकोष