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________________ - - - विगुत्थी घादसणा विजया खिल्ल गगदवा 1b2HP 1 : PREPA तो को to भी प.प्रदानकी थी। इनम सपने मनपरी था, "तथा रहन-सहन साहगंगारामुपायपुबाईपां. दुसवाल धोरे शिविताको जीवन में अपनाना का था, और कठोर सचक्लास-पासाबाय-किलियाक्सिान-नोसजिंदुसार वाकी छोडको ड मिों के 'सहरी सुकोमले प्राचार को पालनी या था, मध्यम मार्ग के हामी" हो चुके पुण्यागोगदेखाएं व प्यास्त्र सादापुरतुद्ध थे, मतः उपसर्ग और रोषहीकी तीवेदनाको साइनमें संताणे पोहिलणे सियो जयसैणी णगसेही वे सर्वथा समर्थ । अत: उन स्थानीय साधुनोंकी हदि से वह व विशिष्र्ट' ही था."योंकि उसने साध्वाचारक धम्मसेणा लिए एकारजा दशपुबह बहार यथार्थ रूपको भीषणतम दुर्भिक्षके समय में भी अपने मूल .. ..... जयधवला भग १०५ लपमें सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया था। हो सकता है कि इससे विशाखालार्य के आदी होने मौक, शेकापी बदके प्राचार्यानि विशाखाचार्यका अर्थ यदि विशिष्ट शाखा एक देशधारक होना उनके महान् हिरवको मूश्चित करना है। प्राचार्य रूप में स्वीकृत कर लिया हो, हरिषेण कथाकोषके अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ही विशाखाबात नहीं है। .. . "'"'.. " चाय थे यह स्पष्ट है, क्योंकि उन्होंने भद्रबाहु स्वामीके हलो कारण भरिक शुभचन्द्र ने अपने पाण्डव पुराणकी पादमूल में दौसा धारणकर पूर्वका अध्ययन किया था। प्रशस्तिमें निम्न पंच दिया है जिसमें बतलाया गया है कि मेरे इतने सुयोग्य विद्वान हो गए थे कि 'भद्रबाहुने विशाखाचार्य शुद्ध वैशोभूत हैं, उनकी प्रसिद्ध शाखा मुझे उन्हें स्वयं संघधिपको उपाधिसे अलंकृत किया था और संरक्षित करे, क्योंकि संसारके सभी लोगोंने इनकी बाजति उन्हें विशाखाचायला होकर स्तुति कीजी: बातोंसे चन्द्रगुप्तके माधु जीवनको महानताकी दिग्दर्शन हो विशाखो।विश्रुषा शाखा सुशाखो यस्य पासु'मा । नहीं होता किन्तु विशाखाचार्यकै माथ चन्द्रगुप्तके, एकत्वा भूतले मिझन्मौलि हस्तभूलोक मंस्तुतः।।१३ भी समर्थन होता है । भद्रबाहुने इन्हीं विशाखाचार्य सहक - इससे विशाखाचार्य के जीवनको महत्तापर विशेष प्रकाश मुनि चन्द्रगुप्तके नेतृत्वमें समस्त संघको दक्षिणको और जानेका आदेश दिया था, जैसा कि हरिषेण, कथाकोषके " । दिगम्बर पहावलियों और श्रृंतवतारों में विशाखाचार्य निम्न वाक्यसे प्रकार है: की दश पूर्वधर बतलाया गया है। जयवनाकारा " उपरके इस सबविवचनसपट ग त म वीरसेनने विखाचार्यको दशपूर्वधरोंमें प्रथम उद्घोषित हा हो विशाखाचार्य है। मद्रवाह और चन्द्रगुप्तका जो समय करते हुए लिखा है कि विशाम्बाचाय वाचारादि ग्यारह अंगौ र है वही मुनि शिवाचार्य है। विशाखाञ्चायने अपने और उत्पाद पूर्व भादि दशपोंक धारक तथा प्रत्याख्यान, - संघकी 'मार श्राचार्य प्रालि 'प्राणकाय, क्रिया विश और लोक बिन्दुसार हुन चार. अनेन सहसंघीऽपि समस्तो गुरु वाक्यतः । । पूर्वोक एक देश धारक हुए है । और शेष दश प्राचार्य दक्षिणापथ देशस्थ पुबाद विषय यी ॥५०.. अविछिन सन्तान रूपसे दर्शपूर्वके धारी हुए है-जैसाकिं . जा द्वादश वर्ष भिम समाप्त हो गया, जब भाडु अनके निम्नवाक्योंसे सष्ट है। गुरुके रिप्यविराखाचार्य सर्व संबा सहित दहियापार । वरि, विसाहारियो तक्काले बायारादीणमेका- मध्यदेशको प्राप्त हु%xt_rrts ... " ' नन्दिसंघको प्राकृत पहावली और , काटासंघकी Ex सति संजा अर्थसंत समय गुर्वावलीमें भी विशाखाचार्यादि एकादश प्राचार्योको छापूर्व-रोमरिन समाप्रपाmar - . : सववाहपुरोशिमो मायाम । -देखो, जैन सिद्धांत भास्कर भा० कि०३-१,पू.1, 2 मध्य संपाम सियादेशात ७६ [. prjins har R' HIT: H it DITEES - httvAFFAARIFPU1F FE म ह . . . नाम".. 1 .P. .. + 15 ये सति सं असम घर प्राचार्यादि एकादश प्राचारों को
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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