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________________ ३२२1 अनेकान्त [ वर्षे १३ ५. अगले वर्षकी समस्या घाटेकी उ स्थितिमें अनेकान्तको अगले वर्ष कैसे निकाला जाय-कहांसे और कैसे इतनी बड़ी रकमको पूरा किया जाय? यह एक समस्या है जो इस समय संचालकोंके सामने खड़ी है। दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिए कि जो समस्या १० वर्षक अन्तमें उत्पन्न हुई थी यही भाज फिरसे उपस्थित हो गई है। इस समस्याको हल किये बिना भागे और घाटेकी जोग्खोंको कौन उठावे ? अत: अनेकालके प्रेमी पाठकों और उससे पूरी महानभूति रखने वाले सज्जनोंसे निवेदन है कि वे इस समस्याको हल करनेके लिए अपनेअपने सुझाव शीघ्र ही उपस्थित करनेकी कृपा करें, जिसमे उनपर गंभीरता के साथ विचार होकर शीघ्र ही कोई समुचित मार्ग स्थिर किया जा सका क्योंकि साहित्य तथा इतिहासकी ठोम सेवा करनेवाले से पत्रोंका ममाज-हितको प्टिसे अधिक दिन तक बन्द रहना अच्छा नहीं है । शाशा है यह समस्या जल्दी ही हल होगी और इसके हल होने तक प्रेमी पाठक, समस्या हलग यथाशक्ति अपना सहयोग देते हुए, धैर्य धारण करेंगे। 'अनेकान्तके यदि १०. संरक्षक और ५०० सहायक हो जावें तो वह घाटेको चिन्तासे बहुत कुछ मुक्र हो सकता है, परन्तु इसपर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। यदि अनेकान्तके प्रेमी पाठक कोशिश करते तो इतने संरक्षकों तथा सहायकोंका हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी । परंतु खेद है कि उन्होंने संरक्षकों तथा सहायकोंको बनानेकी तो बात दूर, ग्राहकोंको बनानेकी भी प्रायः कोई कोशिश को मालूम नहीं होती। घाटेका प्रधान कारण ग्राहक-संख्याकी कमी है और उसीकी वजहसे संरक्षकों तथा सहायकोंकी ज़रूरत पड़ती है। यदि ग्राहक-संख्या एक हजार भी हो तो वर्तमान स्थितिमें घाटेको चिन्ताके लिये कोई स्थान नहीं रह सकता। इस वर्ष ग्राहक-संख्याकी वृद्धि के लिये तीन उपयोगी योजनाएँ की गई-एक १२) की जगह १०) रु. पेशगी भेजने वालोंको अनेकान्तकी दो कापी दी जानेको, एक उना लिये और दूसरी उनके किसी इष्ट-मित्रादिके लिये जिस वे भिजवाना चाहें । दूसरी, स्थानीय किसा सस्था तथा मन्दिरादिको प्राहक बनाकर १२) रु. पेशगी भेज देनेवाले विदानोंको एक वर्ष तक फ्री पत्र दिये जानेकी और तीसरी ६) रु.पेशगी मेज देनेवालोंको १. रु. की पुस्तके १) में दिये जानेकी, जिससे पत्र ) में ही सालभर पढ़नेको मिल जाता है। इतनी सुविधाएँ दिये जानेपर भी प्रेमी पाठकॉन ग्राहक-संख्याको वृद्धिका कोई खास प्रयत्न नहीं किया, यह बडे ही खेदका विषय है !! यदि वे दो-दो ग्राहक भी बनाकर भेज देने अथवा अपने प्रयत्न-द्वारा किसीको २५१)दन वाला मरक्षक या 1.1) देने वाला सहायक बना देने तो आज पत्रके घाटेका प्रश्न ही पैदा न होता । इस समय संरक्षकोंको संख्या कुल २४ और सहायकोंकी संख्या ३३ है । मंरक्षकोंके पायसे सहायताकी कुल रकम पा चुकी है। सहायकॉमसे एकके पाम पूरी, दुसरेके पास श्राधी और तीसरेके पास माधीसे भी कम रकम बाकी है. जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-१. बा. जिनेन्द्रकुमारजी जैन बजाज सहारनपुर, २. ला. परमादोलालजी पाटनी देहली, ३. ला. रतनलालजी कालकावाले दहली। आशा है ये तीनों सज्जन अपनी स्वीकृत महायताके वचनको अब शीघ्र ही पूरा करनेकी कृपा करेंगे। शेष सब महायकोंसे भी सहायताकी पूरी रकम था चुकी है। इस सहायताके लिये संरक्षक और सहायक दोनों ही धन्यवादके पात्र हैं। इस सम्बना एक विचार यह चल रहा है कि पत्रको त्रैमाम्पिक करके एकमात्र साहित्य और इतिहासके कामोंक लिए ही सीमित कर दिया जाय, इससे ग्राहकसंख्या गिरकर आर्थिक समस्याके और भी जटिल हो जानेकी सम्भावना है। दृप्सरा विचार है कि पत्रको बदस्तूर मासिक रखकर उसके लिए एक तो उपहार ग्रन्थोंकी याजना की जाय और दूसरा कार्य संरक्षकों तथा सहायकों की वृद्धिका किया जाय और इन दोनों कार्योको सान बनाने की ज़िम्मेदारी कुछ प्रभावशाली प्रेमी प्राहक एवं पाठक मज्जन अपने-अपने ऊपर लनेकी कृपा करें। तीसरा विचार है योग्य प्रचारक द्वारा ग्राहकवृद्धिकी योजना, जिसके लिये योग्य प्रचारककी आवश्यकता है। और चौथा विचार है मूल्य तथा पृष्ठसंख्याको कम करके पत्रको जैस तैसे चालू रग्वा जाय । इन सब विचारोंकी उपयुक्रना-अनुपयुक्तापर भी समस्याको हल करते समय उन्हें विचार कर लेना चाहिए । जुगलकिशोर मुख्तार
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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