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मद्रास और मयिलापुरका जैन - पुरातत्त्व
( छोटेलाल जैन )
अभी जब मूडबिद्रीको सिद्धान्तत्रमतिमें सुरक्षित श्रागम ग्रन्थ ( धवलादि ) की एक मात्र प्रतियोंके फोटो प्राप्त करने के उद्देश्यसे दक्षिणकी यात्रा करनी पड़ी थी. वहां का कार्य समाप्त कर मैं सितवासल' सिद्धक्षेत्रके फोटो लेता हुआ मद्रास गया था। वहां 'दक्षिण के जैनशिलालेखों का संग्रह ' नामका एक ग्रन्थ, जो कई वर्षोंसे वीरशासनसंघ के लिए तैयार कराया जा रहा था, उसको शीघ्र पूर्ण करानेके लिये मुझे
यहां प्रायः एक माम ठहर जाना पडा। इस दीर्घ समयका उपयोग मैंने मद्रास और उसके निकटवर्ती स्थानोंके जैन पुरातरका अनुसन्धान करनेमें किया। उसीके फलस्वरूप जो किंचित इतिहास मद्रासका में प्राप्त कर सका उसे आज पाठकोंक समक्ष प्रस्तुत करता हूँ ।
मद्रास नगरका इतिहास मात्र तीन शताब्दी जीवनकालत्रे क्रमिक विकास ( वृद्धि ) का है। वर्तमानका विस्तीर्ण यह नगर, जो सन् १६३६ में स्थापित हुआ था, अंग्रेजोंक श्रागमनकं मैकडों वर्ष पूर्व विभिन्न छितरे हुए ग्रामोंके रूपमें था, 'मद्राम' शब्द की उत्पत्ति इन्हीं ग्रामोंसें एक ग्रामके नामसे हुई है जो 'मामपटम्' कहलाता था, और जो 'चीनपटम्' ( वर्तमानका फोर्ट सेंट जार्ज दुर्ग ) के निकट उत्तरकी र तथा सैनथामी' (मयिलापुर) के उत्तर तीन मील पर था । यह नगर बंगोपसागर के तट पर अवस्थित है और उपकूलक साथ साथ मील लम्बा तथा तीन मील चौड़ा है, जिसका क्षेत्रफल प्रायः ३० वर्ग मील है। इसको संस्थिति समुद्रतल (Ser-level ) के बराबर है और इसका सर्वोच्च प्रदेश समुद्रतटसे कुल २२ फीट ऊँचा है।
किन्तु इसके चारों श्रोरके प्रदेशोंका अतीत गौरव और ऐतिहासिक गुरू तथा इसके कुछ भागों (जैसे ट्रिप्लिकेन, मथिलापुर और तिरुभोट्टियूर) और पल्लवरम् जैसे उपनगरोंने भूनकालमें जो महत्व प्राप्त किया था वह वास्तव में श्रन्यन्त चित्ताकर्षक है। मद्रासके निकटके अंचलोंमें नेक प्रागैतिहासिक अवशेष, प्रस्तरयुगकी समाधियाँ, प्रस्तरनिर्मित शवाधार (क) और पत्थरकी चक्रियों और अन्य पुरातत्वकी सामग्री प्राप्त हुई है, जो इतिहास और मानव-विज्ञानके अनुसन्धाताओंके लिए बहुत ही उपयोगी है।
स्व प्रापर्ट (स०प्र० २ ) साहबने इनकी व्युत्पत्ति, को (कु) = पर्वत शब्दके वर्धित रूप 'कुरु' से की है। अस्तु, कुरुव या कुम्बका अर्थ होता है पर्वतवासी ।
मूलतः ये यादववंशी थे जिन्होंने कौरव पाण्डव (महाभारत ) युद्ध में भाग लिया था । तत्पश्चात् इनके वंशधर विभिन्न क्षेत्रों में तितर-बितर हो गए थे। अति प्राचीन कालमे ये जैनधर्मानुयायी थे। किसी समय कर्नाट देशसे इन ऐतिहासिक कालका विचार करने पर हम देखते हैं कि लोगोंने द्राविड देशमें 'टोएडमण्डलम्' तक विस्तार किया
इसके निकटके कई अंचल और आस-पासके अनेक ग्राम एक समय संस्कृति और धर्मोके केन्द्र रह चुके हैं ।
कुरुम्ब-जाति
कर्नल मेकेन्जीने हस्तलिखित ग्रन्थों और लेखोंका बहुत बड़ा संग्रह किया था, जो अब मद्रासके राजकीय पुस्तकालय में सुरक्षित है। इनका परिचय और विवरण टेलर साहबने सन् १८६२ में 'कंटेलोगरिशाने श्राफ ओरियन्टल मान्युस्कृप्ट्स इन दि गर्वन्मेंट लायब्ररी' नामक वृहद् ग्रन्थमें प्रकाशित किया था । इनमें दक्षिण भारतके इतिहासकी प्रचुर सामग्री हे । कुरुम्बजानिके सम्बन्धमें भी अनेक विवरण इसमें उपलब्ध हैं, उन्होंके श्राधारसे हम यहां कुछ लिख रहे हैं :
कुरुम्ब-जातिके लोग भारतके अति प्राचीन अधिवासी हैं और वे अपनी द्रविड जातीय वल्लवोंसे भी पूर्व यहां ब हुए थे । किन्तु परवर्ती कालमें ये दोनों मातियाँ परम्पर मिश्रित हो गई थीं ।
भारतीय इतिहासमें कुरुम्बोंने उल्लेखनीय कार्य किये हैं । श्रति प्रसिद्ध 'टोम्डमण्डलम् ' प्रदेशका नाम, जिसकी राजधानी एक समय कांचीपुरम् थी, 'कुरुम्ब-भूमि' या 'कुरुम्बनाडु' था । सर वाल्टर ईलियट (सहायक ग्रन्थ १,५ ) के अभिमनसे तो 'द्राविड देशके बहुभागका नाम कुरुम्ब भूमि था और जिसका विस्तार कोरोमण्डलसे मलाबार उपकूल तक इस सम्पूर्ण प्रायोद्वीपक किनारे तक था । इस प्रदेशके पूर्व भागका नाम 'टोण्डमण्डलम्' तो तब पड़ा था जबकि धोलोंन इसे विजित किया था। इनके अभिमनसे चोलवंशके नपति करिकालने कुरुम्बोंको जीना था। इस प्रान्तका चौवीस जिलों ( कोहम् ) में विभाजनका श्रेय कुरुम्बों को है ।”