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________________ मुनियों और श्रावकका शुद्धोपयोग ( पं० हीरालाल जैन शास्त्री ) भगवती आराधनाकी 'विजयोदया' टीकामें टीकाकार श्रीचपराजितसूरिने शुद्धोपयोगके मुनि और गृहस्थकी अपेक्षा दो भेद किये हैं। आजकल सर्वसाधारणमें शुद्धोपयोगकी अधिक है, पर वह मुनि और श्रावकोंके क्रिय रूपमें होता है. इसके विषय में लोगोंको जानकारी कम है। अतएव यहाँ पर उक्त टीकाका कुछ विवरण देना असंगत न होगा । विजयोदया टीकाकारने गाथा नं० १८३४ की टीका करते हुए 'यतेः शुद्धोपयोगः इत्थम्भूतः जिन छह पयोंको उद्धृत किया है, ये हिन्दी अनुवादके साथ इस प्रकार हैं:जीवान्नहन्यां न मृषा बदेयं, चौर्यन कुर्यान्न भजेय भोगान् । धनं न सेवेय न च क्षपामु भुजीय कृच्छ्रे ऽपि शरीरतापे रोषेण मानेन च माययां च, लोभेन चाहं बहुदुःखकेन । युजेय नारंभ - परिम हैश्च, दीक्षां शुभामभ्युपगम्य भूयः । यथानभायाच्चल मौलिमालो भिक्षांचरन्कार्मुकबाणपाणि: तथा न भायां यदि दीक्षितः सन् वहेय दोषानवहायलज्जां। लिंगं गृहीत्वा महतामृषीणां, अंगंच बिभ्रत्परिकर्महीनं । भंगं व्रतानामविचित्यकष्टं, संगं कथं काम गुणेषु कुर्याम् । चर्यामनार्या चरितामधैर्या धैर्ये राहीनाः कृपणत्वमेत्य । कथं वृथामुण्डशिरश्चिरेण लिंगी भवन्नंगविकारयुक्तः । इत्येवमादिः शुभकमेचिता सिद्धादाचार्यबहुश्रुतेषु । चैत्येषु संघेजिनशासने व भक्तिविरक्तगुरागिता च । अर्थात् मैं जीवों को नहीं मारूंगा, असत्य नहीं बोलू ँगा, चोरी नहीं करूं'ग', भोगों का नहीं भोगूंगा, धनको नहीं ग्रहण करूंगा, शरीरको अतिशय कष्ट होने पर भी रात मैं नहीं खाऊंगा। मैं पवित्र जिन दीक्षाको धारण करके क्रोध, मान, माया और लोभके वश बहु दुख देने वाले प्रारम्भ और परिग्रहसे अपनेको युक्र नहीं करूंगा । जैसे अपने मुकुटपर माजा धारण करने वाले तथा हाथमें धनुषवाणको लेकर घूमने वाले किसी तेजस्वी राज पुरुषका भीष मांगना योग्य नहीं है उसी प्रकार सिंहवृत्ति वाली जिन दीक्षाको धारण करके मेरा आरम्भ – परिग्रहादिकको प्रहण करना भी योग्य नहीं है । मैंने पूज्य महर्षियोंका लिंग (वेष) धारण किया है, अब यदि मैं उसे धारण करते हुए व्रतोंका भंग करूँगा और लज्जाको छोड़कर दोषोंका धारण करने वाला बनूंगा तो यह महान् कटकी बात होगी, दीक्षाको धारणकर मैं काम-विकार में अपनी आसक्ति कैसे करूँ ? धैर्यको छोड़कर चाहे जैसी प्रवृत्ति करना यह श्रनार्यपनेका सूचक है। धै छोड़कर और हीन होकर नीच प्रवृत्ति करना योग्य नहीं है । यदि मेरे अंगमें बिकार रहेगा तो व्यर्थ मस्तक मूंडर यातका वेष धारण करना निरर्थक है। इस प्रकार आरम्भपरिमहादिकले विरक्त होकर शुभकर्मके चिन्तनमें अपने चित्तको लगाना सिद्ध, अर्हन्त, श्राचार्य, उपाध्याय, जिन चैत्य, संघ और जिनशासनकी भक्ति करना और इनके गुणोंमें अनुरागी होना तथा विषयोंसे विरक्त रहना यह मुनियोंका शुद्धोपयोग है।" उक्त पद्योंके अनन्तर टीकाकारने लिखा है:'विनीतता, संयमोऽप्रमत्तत्ता, मृदुता, क्षमा, श्रार्जव: सन्तोषः संज्ञाशल्य गौरव विजयः, उपसर्ग परीषहाजयः, सम्यग्दर्शनं, ताद्विज्ञानं, सरागसंयमः, दशविधं धर्मध्यानं, जिनेन्द्रपूजा, पूजोपदेशः, निःशंकित्वादिगुणाष्टकं, प्रशस्त रागममेना तपोभावना, पंचसमितयः, तिस्रो गुप्तयः इत्येवमायाः शुद्ध प्रयोगाः । - अर्थात् विनीत भाव रखना, संयम धारण करना, अप्रमत्तभाव रखना, मृदुता, क्षमा, श्रार्जव और सन्तोष रखना, श्रहार भय मैथुन परिग्रह इन चार संज्ञाओंको माया मिथ्यात्व और निदान इन तीन शक्योंको, तथा रस, ऋद्धि और सात गौरवों को जीतना, उपसर्ग और परीषद्दों पर विजय प्राप्त करना, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सरागसंयम धारण करना दश प्रकारके धर्मोका चिन्तवन करना, जिनेन्द्र पूजन करना, पूजा करनेका उपदेश देना, निःशंक - तादि आठ गुणको धारण करना, प्रशस्तरागले युक्त तपकी भावना रखना, पाँचसमितियोंका पालना, और तीन गुप्तियों का धारण करना, इत्यादि ये सब मुनियोंका शुद्ध प्रयोग है। इसके आगे गृहस्थोंका शुद्धोपयोग वर्णन करते हुए टीकाकार लिखते हैं: " गृहिणां शुद्धोपयोगः उच्यते- गृहीतव्रतानां धारण- पालनयोरिच्छा, क्षणमपि व्रतभंगोऽनिष्टः, अभीक्ष्णं यतिसंप्रयोगः अन्नादिदानं श्रद्धादिविधि पुरस्सरं, श्रमनोदनाय भोगान् भुक्त्वापि स्थगितशक्तिविगहेणं, सदा गृहप्रमोक्ष प्रार्थना, धर्मश्रवणोपलं भात्ममनजोऽति तुष्टिः । भक्त्या पंचगुरुस्तवनप्रणामेन
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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