________________
वार्षिक मूल्य ६)
वर्ष १३ किरण ६
ॐ अर्हम
न क
विश्व तत्व-प्रकाशक
| नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्त !
वारमेवामन्दिर, C/o दि० जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, देहली पौप, बीर नि० संवत् २४५१ वि० संवत् २०११
एक किरण का मूल्य II)
दिसम्बर १६५४
समन्तभद्र-भारती देवागम
हेतोरद्वैत-सिद्धिश्चेद्द्वैतं स्याद्ध ेतु-साध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वैतं वाङ्मात्रतो न किम् ||२६|| ' (इसके fare यह प्रश्न पैदा होना है कि इतकी सिद्धि किसी हेतुसे की जाती है या विना किसी हेतुके 'वचनमात्रसे ही ? उत्तरमें) यदि यह कहा जाय कि अद्वैतकी सिद्धि हेतुसे की जानी है तो हेतु (साधन ) और माध्यदोको मान्यता होनेसे द्वैनापति खड़ी होती है-पर्वथा श्रतका एकांत नहीं रहता और यदि बिना किसी हेतु ही सिद्धि कही जाती है तो क्या ववनमात्र से द्वैतापत्ति नहीं होती ?-- साध्य श्रद्धत और वचन, जिसके द्वारा rathata किया जाता है, दोनोंके अस्तिम्बसे श्रद्धतता स्थिर नहीं रहती। और यह बात तो बनती ही नहीं कि जिसका स्वयं अस्तित्व न हो उसके द्वारा किमो दूसरेके अनिवको सिद्ध किया जाय अथवा उसकी सिद्धिकी घोषणा की जाय । श्रतः श्रत एकांतकी किसी तरह भी मिन्द्धि नहीं बनतो, वह कल्पनामात्र ही रह जाता है ।"
श्रद्वैतं न विना द्वैतादहेतुरिव हेतुना । संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्याहते क्वचित् ||२७||
' (एक बात और भी बतला देनेकी है और वह यह कि द्वैत के विना अद्वैत उसी प्रकार नहीं होता जिस प्रकार कि हेतुके विना हेतु नहीं होता; क्योंकि कहीं भी संज्ञीका - नामवालेका-प्रतिषेध प्रतिषेध्य के विनाजिसका निषेध किया जाय उसके अस्तित्व-विना नहीं बनता । द्वत शब्द एक संज्ञी है और इसलिये उसके निषेधरूप जो शब्द है वह इतके अस्तित्वको मान्यता- विना नहीं बनता ।'--
[इस प्रकार अद्भुत एकांतका पक्ष लेनेवाले ब्रह्माद ेत, संवेदनाद्व ेत और शब्दात जैसे मत सदोष एवं बाधित ठहरते हैं । ] पृथक्त्व कान्त-पक्षेऽपि पृथक्त्वादपृक्तु तौ । पृथक्त्वे न पृथक्त्वं स्यादनेकस्यो हासौ गुणः ॥२८॥
' (अत एकांत में दोष देखकर) यदि पृथकपनका एकल पक्ष लिया जाय-- यह माना जाय कि वस्तुतस्व एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न है तो इसमें भी दोष भाता है और प्रश्न पैदा होता है कि पृथक्त्व गुणसे द्रव्य और