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________________ किरण] दीवान अमरचन्द मर जायो । हिरयोंका समूह खड़ा हो गया। तबदीवानी एजेंट भी रहता था। किसी समय कारणवश एक अंग्रेजको ने राजासे कहा कि वे हिरणोंका समूह खड़ा है, अब पाप किसी मुहल्लेकी जनसाने मार दिया था, जिसकी वजहसे इनको रक्षा करें या विनाश । राजाने सोचा जरा-सी बाहर जयपुरको उदाने या खत्म करनेकी बात सामने आई। पाकर चौकड़ी भर कर भागने वाला यह डरपोक जानवर दीवानजीके पता लगाने पर भी मारनेवालोंका कोई पता अपने समूह सहित निर्भय बड़ा है यह कम भारचर्यको पात नचला । फलतः दीवानजीके सामने एक ही प्रश्न था और नहीं है। अतः शरणमें पाए हुओं पर प्रस्त्र चलाना ठीक वह यह कि जयपुरको रक्षा कैसे हो । जब रक्षाका अन्य नहीं है। मैं माजसे शिकार नहीं खेलूगा। दीवानजीने भी कोई साधन ही नहीं बन पड़ा, तब नगरकी रक्षार्थ दीवानराजासे उसी बातको पुर किया। दीवानजी जैगोथे, उनमें जीने स्वयं अपनेको पेश कर दिया, और कहा कि यह कार्य जैनधर्मकी पारमाका मूर्तरूप विद्यमान था, उनका भात्मबल मेरी वजहसे हुआ है अता जो चाहें सो दण्ड दीजिये। पर बढ़ा हुचा था अत: वह पशुओं पर भी अपना प्रभाव मगरको नुकसान न पहुँचाइये। उन्होंने दीवानजीको बहुत अंकित करने में समर्थ हुए। दीवानजीके जीवनकी यह समझाया कि पाप जैन श्रावक हैं, जैनी लोग ऐसा कभी नहीं घटनाएँ अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। कर सकते । परन्तु फिर भी दीवानजीने अपने अपराधकी दीवान अमरचन्दजी केवल जिनपूजन, सामायिक, स्वीकृतिसे इंकार नहीं किया। तब उनसे कहा गया कि स्वाध्याय ही नहीं करते थे किन्तु वे इन्द्रियजय और प्राणि जानते हो इस भारी अपराधका दण्ड मृत्यु होगा। चुनांचे संरक्षणकी ओर अधिक ध्यान देते थे। उन्हें जैन सिद्धान्तका उसका अदालतमें वाकायदा मुकदमा चला और दीवानजीको भी अच्छा परिज्ञान था। अनेक प्रन्थोंको भी उन्होंने लिख- कद कर लिया गया, और अदालनसे उन्हें फाँसीका हक्म वाया है। और अनेक प्रन्योंकी टीकाएँ भी विद्वानोंको दिया गया और उनको बहुमूल्य सम्पत्तिका भी अपहरण प्रेरित कर बनवाई हैं। इन सब कार्योंसे उनकी धर्मप्रियताका कर लिया गया। पता चल जाता है। वे जो कुछ भी करते थे उस पर ___सम्पत्तिका अपहरण करनेसे पूर्व उनके घर वालोंको पहले विचार कर लेने के बादमें उस कार्यमें परिणत करते इस बातका कोई पता नहीं था कि दीवानजीने जयपुरकी थे। वे राजनीतिमें भी दक्ष थे। परन्तु उनका व्यवहार छल रक्षार्थ कोई ऐसा गुरुनर अपराध स्वीकार कर लिया है और कपटसे रहित था। जैन समाजमें शिक्षा प्रचारक लिये भी उससे उन्हें फॉम्पीकी सजा दी जावेगी। जब उन्हें फाँसी दी उ जानेका भमय पाया, तब उनसे कहा गया कि आपको जिस प्रयत्न करते रहते थे, और अपने आर्थिक सहयोग द्वाग गरीब किससे मिलना हो मिल लीजिये । परन्तु उन्होंने उत्तर दिवा विद्यार्थियोंको उनके पठन-पाठनमें सहायता देते । यही कारण कि मैं किसीसे भी नहीं मिलना चाहता, मुझे एक घण्टा है कि विद्वान लेखकोंने दीवानजीके आर्थिक सहयोगको ध्यान रखनेको अनुमति दी जाय । चुनांचे श्रारम-ध्यान करते स्वीकार किया है, और उनका आभार व्यक्त किया है। ___ दीवामजीने संवत् १८७१ में पं. मनालालजी मांगाको हुए एक घण्टेके अन्दर उनके प्राण पखेरू बिना किसी माधाके उड़ गए। और उनके निर्जीव ध्यानस्थ शवको माथमें ले जाकर हस्तिनापुरको यात्रा की थी। यात्रास लौटने फाँसीके तग्रते पर रख दिया गया। जयपुर नगरकी रक्षा तो पर दीवानजीको राजा जगतसहिंजीके कार्यसे ८-१० दिन तक दिल्ली में ठहरना पड़ा । उन दिनों पं० मन्नालालजीने हो गई परन्तु एक महापुरुषको अपनी बलि चढ़ानी पड़ी। शास्त्रसभामें अपना शास्त्र पढ़ा और अपनी रोचक कथन धन्य हे उस वीर साहसी श्रात्माको, जिसने निर्भय शैली द्वारा श्रोताओंका चित्त आकर्षित किया था। तब हाकर नगरकी रक्षार्थ अपने प्राणोंका उत्सर्ग कर दिया। ला. सुगनचन्दजीने पंडितजीसे 'चरित्रसार' नामक ग्रन्थकी यही कारण है कि देहलीके धर्मपुराके नये मन्दिरके परमात्महिन्दी टीका बनानेकी प्रेरणा की और पंडितजीने उक्र अन्य प्रकाश नामक ग्रन्थकी प्रतिके संस्कृत टिप्पणके अन्तमें निम्न दो दोहे मिलते हैं, जो बहुत ही अशुद्ध रूपमें बिखे गये है, की टीका चार महीनेमें ही बना कर दे दी थी। पर उनसे उक बातका समर्थन प्रच्छी तरहसे होता है। उस समय अंग्रेज सरकार जयपुर पर कब्जा करना चाहती थी, उसके लिये अनेक पदयन्त्र रचे जारहे थे। श्रीदिवाण अमरेशजू कियो स्वर्ग (स्वयं) यह काम। सांगानेरमें अंग्रेजी छावनी रहती थी, और वहाँ पोलिटिकल पंचसरावग(परमपद)ध्यान परि,पायो सुख महाधाम ॥१॥
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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