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________________ इटोपदेशकी विषय-सूची . १० १६ मंगलाचरण-टीकाकार और मूल ग्रन्थकर्ताका १मोही कर्मोंको बाँधता है, और निर्मोही दृट जाता 'स्वयंस्वभावाप्ति' का समाधान - २ है, इसलिए हरतरहसे निर्ममताका प्रयत्न करे-- ३३ अनादिकोंकी सार्थकता ३] में एक ममता रहित शुद्ध हूँ, संयोगसे उत्पन्न आत्म-परिणामीके लिये स्वर्गकी सहज में ही प्राप्ति ५ पदार्थ देहादिक मुझसे सर्वथा भिन्न हैंस्वर्ग-सुखोंका वर्णन - ६ देहादिकके सम्बन्धसे प्राणी दुःख-समूह पाते हैं, "सांमारिक स्वर्गानि-सुम्ब भ्रान्त है" इसका कथन ७ इससे इन्हें कैसे दूर करना चाहिए ? यदि ये वासनामात्र हैं, तो उनका वैमा अनुभव ज्ञानी सदा निःशंक हे, क्योंकि उसमें रोग, मरण, क्यों नहीं होता? इसका उत्तर-मोहसे ढका बाल, युवापना नहीं, ये पुद्गल में हैं हा ज्ञान वस्तु-स्वरूपको ठीक-ठीक नहीं प्रद्रलोको बार बार भोगे और छो, इससे ज्ञानीका जानता है उच्छिष्ट-झूठेमे प्रेम नहीं है। मोहनीयकर्मके जालमें फंसा प्राणी शरीर, धन, दारा, कर्म कर्म का भला चाहता है, जीव जीवका, सब को आत्माके समान मानता है अपना अपना प्रभाव बढ़ाते हैजीव-गति वर्णन,अपने शत्रुओके प्रति परका उपकार छोटकर अपने उपकारमें तत्पर होओ. भी द्वेषभाव मत करो अपनी भलाईमें लगो। गग देष भावसे आत्माका अहित होता है गुरुके उपदेशसे अपने और परके भेदको जो मसारमें सुख है तो फिर इमका त्याग क्या किया जानता है, वह मोक्षसम्बन्धी मुखका अनुभव करता है। जाय ? इसका समाधान स्वयं ही स्वयंका गुरु है मासारिक सुख तथा धम, आदि, मत्य और अन्तम अभव्य हजारों उपदेशोंमे ज्ञान प्राप्त नहीं कर दुःखदायी है सकता है। मंच योगी अपने भ्यानसं चलायमान 'धनसे आत्माका उपकार होता है, अत: यह नहीं होते हैं, चाहे कुछ भी हो जाव उपयोगी है, इसका समाधान वात्मावलोकनके अभ्यासका वर्णन घनमे पुण्य करूँगा, इसलिये कमाना चाहिए स्वात्ममंवित्ति बढनेपर आत्मपरिणतइसका समाधान योगी निर्जन और एकान्तवास चाहता है, अन्य भोगोपभोग कितने भी अधिक भोगे जायेंगे कभी तृप्ति न होगी ___ सब बातें जल्दी भुला देता हैं २१ शरारके सम्बन्धमे पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो ध्यानमें लगे योगीकी दशाका वर्णन जाते है-शरीरकी मलिनताका वर्णन- २२ आत्मस्वरूपमें तत्पर रहनेवालेको परमानन्द की प्राप्ति जो आत्माका हित करता है, वह शरीरका अपकारी परद्रव्यों के अनुराग करनेसे होनेवाले दोधोका वर्णन है और जो शरीरका हिन करता है, वह तत्त्वसंग्रहका वर्णन जीवका अपकारक ( बुरा करनेवाला) है २३ तत्वका सार-वर्णनध्यानके द्वारा उत्तम फल और जघन्य फल शास्त्रक अध्ययनका साक्षात् और परम्परास होने इच्छानुमार मिलते है वाले फलका वर्णनआत्मस्वरूप वर्णन , उपसंहार और टीकाकारका निवेदन-- मनको एकाग्र कर इन्द्रियोंके विपयोको नष्ट कर परिशिष्ट नं.१ मराठी पद्यानुवादआत्मा ज्ञानी परमानदमयी होकर अपने-आपने , न. २ गुजराती , रमता है २७ नं.३ अंग्रेजी अनुवादअजगति अज्ञानको ज्ञानभक्ति ज्ञानको देती है, जो The Discourse Divine, जिसके पास होता है, उसे वह देता है २८ ,,४ अंग्रेजी विस्तृत पद्यानुवाद आत्मामे आत्माके चितवनरूर ध्यानसे, परीप Happy Serimony हादिका अनुभव न होनेमे, कर्म निर्जरा होती है-२९ ,, नं. ५ मूल श्लोकोकी वर्णानुक्रमणिका ८४ जहाँ आत्मा हीन्याता और ध्येय हो जाता है वहाँ , न.६ उद्धृत श्लोकों गाथाओ और दोहोंकी अन्य सम्बन्ध कैसा ? ३२ वर्णानुक्रमणिका १८ न्यू भारत प्रिटिंग प्रेस, गिग्गांव बम्बई ४
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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