________________
२२६ ]
अनेकान्त
। वर्षे १३
मुख्यतया व्यवहारको अधर्म संशित सिद्ध करने पर अर्थात् पापका अगवाई बताया गया है । कार्तिकेयानुअधिक रहता है। मोक्षमार्ग प्रकाशक अधिकार - प्रकरण प्रेक्षामें सम्यग्दृष्टिके भी नि.दनर्गहन आदिको पुण्य १६ में भी ऐसा ही कहा है कि 'अपनेको जो विकार हो (प्रशद्धोपयोग रूप अधर्म ) कहा है x धर्म नहीं, फिर उसके निषेध करने वाले उपदेशको ग्रहण करे पर उसके पोषण
मागको तो बात ही क्या है। वाले उपदेशको न ग्रहण करे। इसलिए उसका अर्थ यह
कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४.१ के अनुसार जो पुरुष पुण्यको नहीं लगाया जाना चाहिए कि वह एकान्ती है या उनका चाहता है वह संसारको चाहता है। अभिप्राय इन बाह्य क्रियानोंको छुड़ा कर जनमाधारणको
जब तक उसे धर्म जानता रहेगा तब तक उसके प्रति स्वच्छन्दी बनाने या आगममें धर्म मंज्ञिन उन क्रियाओंका
उपदिय बुद्धि बनी रहना स्वाभाविक है। माना कि लौकिकमें सर्वथा निषेध करके किमी रूपमें भी उन महान पाद पूज्य अधर्म पापको और धर्म पुण्यको भी कहते हैं परन्तु यह प्राचार्य भगवन्तोंकी जिनके लिए कि उनकी दृष्टिमें अगाध
मोक्षमार्ग है। लौकिक या संसारमार्ग नहीं । यही पुण्य प्रादर भरा हुआ है, जिनके लिये कि उनके हृदयमें भत्रि
तथा पाप यह द्वैत ही बनता नहीं छ । यहाँ तो एक शुद्धोरसका सागर कल्लोलित हो रहा है, अबहलना करने या
पयोग ( धर्म ) है और दूसरा अशुद्धोपयोग (अम) है करानेका है। न ही वे कोई सम्प्रदाय बनाने जा रहे है।
इसीलिए यहाँ पुण्यका कोई मूल्य नहीं। सम्यग्दृष्टि इसे क्योंकि जितनी बातें भी वह कहते हैं सप्रमाण दिगम्बर
प्राधव अर्थान् बाधक ही समझता है महायक नहीं। यह ग्रन्थोंके आधार पर हो कहते हैं, कोई अपनी तरफसे नहीं।
विभाव है और विभाव तीन कालमें भी स्वभावका कारण कहते। जब तक व्यवहारको भी उसी रूपसे उपादेय रूप धर्म
नहीं हो सकता। लौकिकमें या उपचारसं धर्म कहा जाने समझा जाता रहंगा, जिस प्रकारसे कि निश्चयको तब तक
वाला यह अंश उसके लिए अधर्म ही है। यदि इन दोनों दोनों में भेद करना असम्भव है। भेदके अभावमें सप्तभंगों
अंशोंमेंस व्यवहारको अधर्म न समझा जाये तो मोक्षमार्ग अभाव तथा एकान्तका प्रसंग प्राता रहेगा। तथा दोनों ही
ही न बने । बल्कि सम्यग्दर्शन होते ही पूर्ण धर्म अर्थात अंश धर्म हो जाने पर अधर्म रूप अंशका सर्वथा अभाव
मोक्ष हो जाया करे। मानना होगा। और इस प्रकार अधर्मकै अभावमें पूर्ण धर्म
इस प्रकार वास्तविकताको लयमें रख कर व्यवहारका रूप केवलज्ञान प्रगट हो जानेका प्रसंग उपस्थित हो
कथञ्चित निषेध करने वाले वक्रा पर श्रागमविरुद्ध होनेका
आरोप लगाना युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता। जायेगा। केवलज्ञान धर्मसे नहीं बल्कि अधर्मसे रुका हुआ है। अत, व्यवहारधर्मको अधर्म स्वीकार किये बिना माधक + विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी चराहि संजुनो। कभी आगे नहीं बढ़ सकता । वस्तु अर्थात् प्रात्माका निज उवसमभावे सहियो णिदणगोहि संजुत्तो॥
का० धनु. ४८ स्वभाव न होनेके कारण मिथ्यादृष्टिकी यह एकान्तिक क्रियायें पंचाध्यायां में अधर्म बताई गई है। इन्हें अशुभ
+ पुराणं पिजी समिच्छदि, समारो तेण ईहिदो होदि ।
पुगणं मग्गई हेऊ.पुण्णग्वयेणेव णिवाणं ॥ * नापि धर्मः क्रियामानं मिथ्यादृष्टेरिहार्थतः ।
का अनु०४०६ नित्यं रागादि सद्भावात् प्रत्युताऽधर्म एव सः। ॐ परमार्थतः शुभाशुभोग्योगयोःपृथक्व व्यवस्था नावतिष्ठते ।
(पंचाध्यायी उत्तराद्ध ४४४) . प्र. सा. तत्वदीपिका टीका गा. ७२ ॥ सम्पादकीय नोट
लेखकने लेखमें व्यवहारको अधम बतला कर उसे केवल स्थापन (जानने) योग्य बतलाया है । यदि ऐसा है तो सम्यग्दृष्टिका व्यवहार भी क्या अधर्म है ? तब उसे व्यवहार धर्मका आचरण नहीं करना चाहिये। लेखमें सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि दोनोंके व्यवहारकी खिचड़ी करदी गई है । यदि व्यवहार केवल स्थापनकी ही चीज है तो उसका जीवनमें उपयोग क्यों किया जाता है ? वह तो अधर्म है, फिर मूर्ति और मन्दिर निर्माण तथा प्रतिष्ठादि कार्यमें प्रवृत्ति क्यों की जाती है वह भी व्यवहार है । ईन व्यवहार कार्यों में प्रवृत्ति करते हुए