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________________ किरण क्या व्यवहार धर्म निश्चयका साधक है? २२७ उन्हें अधर्म (पाप) की घोषणा करते हुए केवल उपादानका उपदेश देने और व्यवहार प्रवृत रहनेसे तो मोक्षमार्ग नहीं बन जाता। व्यवहार के बिना केवल निश्चयकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। आचार्य अमृतचन्दने जब तक शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती तब तक व्यवहारनयको हस्तावलम्बके समान बतलाया है और उक्त च रूपसे उद्धृत निम्न प्राचीन पद्य के द्वारा उसका समर्थन भी किया है। जड़ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार णिच्छए मुणह । एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णण उण तच्चं ॥ इममें बतलाया गया है कि यदि तुम जिनमतको प्रवतोना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयोंको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारनयके बिना तो तीर्थ का नाश हो जायगा और निश्चयके बिना तत्त्व (वस्तु) का बिनाश हो जायगा । अतः यथायोग्य दोनों नयोंका व्यवहार करना उचित है। एकको ही उपादेय और दूसरेको मात्र स्थापनकी चीज समझना उचित नहीं जान पड़ता। निश्चयनय सदा मुख्य कैसे हो सकता है ? उमके सदा मुख्य रहने पर व्यवहार बन नहीं मकता । इसलिए निश्चयनय सदा मुख्य नहीं रह सकता । यदि केवल निश्चयनयको सदा मुख्य मान लिया जाय तो क्या बिना किमी निमित्त के केवल उपादनसे कार्य निष्पन्न हो सकता है। कार्य निष्पत्तिके लिए तो अनेक कारणोंकी आवश्यकता होती है क्या उनके बिना भी उपादान अपना कार्य कर सकता है ? लेखिका अन्तिम भाग पढ़नेस ज्ञान होता है कि लेखकने श्री कानजी स्वामीके सम्बन्धमें उठनेवाले आक्षेपोंका परिमार्जन करने के लिए ही प्रस्तुत लेख लिखने का प्रयास किया है परन्तु उन आपत्तियोंका लेखकसे कोई निरसन नहीं बन पड़ा है। और न कानजी स्वामीने ही उनके सम्बन्ध में अपना कोई वक्तव्य देनेको कृपा की है। जब शुभक्रियाओं को आगममें धर्मसंजित स्वीकार कर लिया गया तब फिर उनके निषेधकी आवश्यकता ही क्या रही ? -परमानन्द जैन नागकुमार चरित और कवि धर्मधर ( परमानन्द शास्त्री) नागकुमारकी कथा कितनी लोक प्रिय रही है, इन्द्रिय विषयों में प्रामकि उत्पन्न करनेमें असमर्थ रही है। इसे बतलानेकी आवश्यकता नहीं है। उस पर अनेक ग्रंथ रच वह आत्म-जयी वीर था जो अपनी साधनामें म्बरा उतरा गए हैं। यकृत और अपभ्र श भाषामें अनेक कवियों द्वारा है। और अपने ही प्रयत्न द्वारा कर्मबन्धनकी अनादि परग्रंथोंकी रचना की गई है। इस पर ग्वण्डकाव्य भी रच गण तन्त्रतास सदाक लिए उन्मुक्ति प्राप्त की है। हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ भी कविको एक छोटीसी संस्कृत कृति है कवि परिचय जिसमें नागकुमारका संक्षिप्त जीवन-परिचय अंकित किया इस ग्रन्थके कर्ता कवि धर्मधर हैं जो इच्वाकुवंशमें गया है। नागकुमाग्ने अपने जीवन में जो-जो कार्य किये, व्रता समन्पन्न गोलाराडान्वयी माहू महादेवके प्रपुत्र और प्राशदिका अनुष्ठान कर पुण्य संचय किया और परिणामत: विद्या- पालक पुत्र थे । इनकी माताका नाम हीरादेवी था धर्मधरके दिका लाभ तथा भोगोपभोगकी जो महनी मामग्री मिली, दो भाई और भी थे जिनका नाम विद्याधर और देवधर था। उसका उपभोग करते हुए भी नागकुमारने उनसे विरक्र होकर पंडित धर्मधरकी पन्नीका नाम नन्दिका था जो शीलादि श्रात्म-साधना-पथमें विचरण किया है। नागकुमारका जीवन मद्गुणोंसे अलंकृत थी, उससे दो पुत्र एवं तीन पुत्री उत्पन्न बड़ा ही पावन रहा है उसे क्षणस्थाई भोगोंकी चकाचौंध हुई थीं। पुत्रोंका नाम पराशर और मनमुम्ब था । इमी सब
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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