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________________ अनेकान्त [वर्ष १३ - - - - या जानसे मारना ही इसका विषय है, इसीलिये इसे पूर्णशक्रियोंका विकास होजाता है, तब पात्मा पूर्ण अहिंसक संकल्पी-हिमा कहते हैं । गृहस्थ अवस्थामें रहकर प्रारम्भजा कहलाने लगता है। अस्तु, भारतीय धर्मों में अहिंसाधर्म ही हिंसाका त्याग करना अशक्य है। इसीलिये जैन ग्रन्थों में इस सर्वश्रेष्ठ है। इसकी पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाला पुरुष परमहिंसाके न्यागका आमतौरपर विधान नहीं किया है । परन्तु ब्रह्म परमात्मा कहलाता है । इसीलिये प्राचार्य समन्तभद्रने यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेकी ओर संकेत अवश्य किया है जो अहिंसाको परब्रह्म कहा है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम कि आवश्यक है। क्योंकि गृहस्थीमें ऐसी कोई क्रिया नहीं जैन शासनके अहिंसातत्वको अच्छी तरहसे समझे और उस होती जिसमें हिमा न होनी हो। अतः गृहस्थ सर्वथा हिमाका पर अमल करें। साथ ही, उसके प्रचार में अपनी पर्वन्यागी नहीं हो सकता। इसके मिवाय, धर्म-देश-जाति और शक्तियों को लगादें, जिससे जनता अहिंसाके रहस्यको समझे अपनी नया अपने प्रान्मीय जनोंकी रक्षा करने में जो विरोधी और धार्मिक अन्धविश्वामम होनेवाली घोर हिमाका-राक्षसी हिमा होती है उसका भी वह त्यागी नहीं हो सकता। कृत्यका-परित्यागकर अहिमाकी शरणमें पाकर निर्भयतास जिम मनुष्यका मांसारिक पदार्थोसे मोह घट गया है अपनी आत्मशक्रियोंका विकाम करनेमें समर्थ हो सकें। और जिसकी आत्मशक्रि भी बहुत कुछ विकास प्राप्त कर गृहवामसंवनरतो मन्दकषायाप्रवनितारम्भः । चुकी है वह मनुष्य उभय प्रकार परिग्रहका न्याग कर जैनी प्रारम्भजां महिमां शक्नोति न रक्षतु नियमान् ॥ दीक्षा धारण करता है और नब वह पूर्ण अहिंसाके पालन श्रावकाचार, अमिनगतिः, ६, ६, ७ करने में समर्थ होता है। और इस तरहसे ज्यों-ज्यों श्रात्म ६. अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं, शक्रिका प्राबल्य एवं उसका विकास होता जाना है न्यों-त्यों न सा तत्रारम्भोम्न्यगुरपि च यत्राश्रमविधौ ॥ अहिसाकी पूर्णना भी होती जाती है। और जब अात्माकी तनस्तपिढयथं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं, हिसा द्वधा प्रोक्ताऽऽरंभानारंभजत्वतोद। भावानेवाल्यातीन च विकृतवेषोपधिरतः ॥११६ गृहवासतो निवृत्तो द्वेधाऽपि त्रायने तॉच ।। म्वयंभुस्तोत्रे, ममन्तभद्रः। सकता। समाधितन्त्र और इष्टोपदेश वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित जिस 'समाघितन्त्र' ग्रन्थके लिये जनता असेंसे लालायित थी वह ग्रन्थ इष्टोपदेशके साथ इसी सितम्बर महीनेमें प्रकाशित हो चुका है। प्राचार्य पूज्यपादकी ये दोनों ही आध्यात्मिक कृतियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। दोनों ग्रन्थ संस्कृत टीकाओं और पं० परमानन्दजी शास्त्रीके हिन्दी अनुवाद तथा मुख्तार जुगलकिशोरजीकी खोजपूर्ण प्रस्तावनाके साथ प्रकाशित हो चुका है। अध्यात्म प्रेमियों और स्वाध्याम प्रेमियों के लिये यह ग्रन्थ पठनीय है। ३५० पेजकी सजिन्द प्रतिका मन्य ३) रुपया है। जैनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह यह ग्रन्थ १७१ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंको लिए हुये है। ये प्रशस्तियाँ हस्तलिखित ग्रन्थों परसे नोट कर संशोधनके साथ प्रकाशित की गई हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीकी ११३ पृष्ठकी खोजपूर्ण प्रस्तावनासे अलंकृत है, जिसमें १०४ विद्वानों, प्राचार्यों और भट्टारकों नथा उनकी प्रकाशित रचनाओंका परिचय दिया गया है जो रिसर्चस्कालरों और इति-संशोधकोंके लिये बहुत उपयोगी है। मूल्य ५) रुपया है। मैनेजर वीरसेवा-मन्दिर, १ दरियागज, दिल्ली ।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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