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________________ किरण ३] विश्वकी शान्तिको दूर करनेका उपाय [७६ है, इस लिए दोनों तियचों में उत्पन्न हुए। तिर्यचोंमें भी करते हुए भी दूसरों के दोषों, ऐरों और अवगुणों पर नज़र प्रधानतः दो जातियां है-पशु जाति और पची जाति। न रखकर गुणों और भनाइयों पर नजर रखता था, स्थिर जो केवल उदर-पत्ति के लिये मायाचार करते हैं, मेरा माया- मनोवृत्ति और मचिंचव रष्ठि था, अखाद्य और खोकनिध चार प्रगट महो जाय, इस भयसे सदा शंकित-चित्त रहते पदार्थोंको नहीं खाता था और लोगोंके साथ बातचीतके हैं, मायाचार करके तुरन्त नौ-दो ग्यारह हो जाते हैं, या समय ति. मित और प्रिय बोलता था, वह उस प्रकारके भागनेको फ्रिक में रहते है.वे पक्षी जातिके जीवोंमें उत्पन्न होते संस्कारोंके कारण कोयनकी पर्यायमें उत्पन्न हुभा, जहां हैं। जो उदर-पत्ति अतिरिक्त समाज में बवाबनने, खोक- वह स्वभावत: ही मीठी बोली बोलता है, असमयमें नहीं में प्रतिष्ठा पाने और धन उपार्जन करने सादिके लिए बोलता, उंची जगह बैठता है और उत्तमही खान-पान मायाचार करते हैं, वे पशुजातिके तिर्यचोंमें उत्पन्न होते रखता है। पूर्वभवमें बीज रूपसे बोये गये संस्कार इस हैं। तदनुसार काक और कोयनके जीवॉन अपने पूर्वभवामें भव में अपने-अपने अनुरूप वृषरूपसे अकुरित पुष्पित भोर एकसा मायाचार किया है,मत: इस भवमें एकसा रूप रज फलित हो रहे हैं। कौएमे जो बुरापन और बोली की और प्राकार प्रकार पाया है। परन्तु उन दोनांक जीवोंमें कटुता, तथा कोयल में जो भलापन और बोलीको मिष्टता से जिसका जीव मायाचार करते हुए भी दूसरोके दोषों ऐवों अाज दष्टिगोचर हो रही है, वह इस जन्मके उपार्जित और अवगुणों पर ही सतर्क और चंचल दृष्टि रखता था, संस्कारोंका फल नहीं, किन्तु पूर्वजन्मके उपार्जित अखाद्य वस्तुको खाया करता था,तथागतचीत में हर एकके संस्कारोंकाही फल है। माप समय-समय कांव-कांव(व्यर्थ बकवाद)किया करता था वह तदनुकूल सस्कारोंके कारण काकको पर्याय में उत्पन्न हमें कामवृत्ति छोड़कर दैनिक व्यवहार में पिकके समान हुमा। किन्तु जो जीव काकके जीवके समान मायाचार मधुर और मितभाषी होना चाहिए। विश्वकी अशान्तिको दूर करनेके उपाय (परमानन्द जैन शास्त्री) विश्व-प्रशान्ति के कारण विनाशकारी उन अस्त्र-शस्त्रोंकी चकाचौंधमें वह अपनी माजके इस भौतिक युगमें सर्वत्र अशान्ति ही शांति कर्तव्यनिष्ठा और न्याय अन्यायकी समतुबाको खो दृषि गोचर हो रही है। संसारका प्रत्येक मानव सुख-शांति बैठा है, वह साम्राज्यवादको मूली विप्सामें गन्जीतिक का इच्छुक है, परन्तु वह घबराया हुआा-सा दृष्टिगोचर अनेक दाय-पंचखेवर अपरेको समयत सुखी समृद्ध होता है। उसकी इस प्रशान्तिका कारण इच्छानोंका देखना चाहता है और दूसरेको अविनत-गुलाम निधन मनियन्त्रण, भप्राप्ति,साम्राज्यवादकी लिसा,भोगा एवं दुखी, राष्ट्र और देशों की बात जाने दीजिये | मानवऔर या प्रतिष्ठा मादि है। संसार विनाशकारी उस भीषण मानवबीच परिमाकी अन्ततृष्या और स्वार्थ तस्वरयुद्धकी विभीषिकासे ऊब गया। एटमबम और ग्वजन- ताके कारण गहरी खाई हो गई है, उनमेंसे कब बोग वमसे भी अधिक विनाशकारी अस्त्र शस्त्रोंक निर्माणको तो अपनेको सर्व प्रकारसे सुखी और समुभव देखना चाहते चर्चा उसकी आन्तरिक शान्तिको खोखला कर रही है। एक है और दूसरेको निर्धन एवं दुखी। दूसरेको सम्पत्ति पर राष्ट्र दूसरे राष्ट्रको निगल जाने, उनकी स्वतन्त्रता वाधा कब्जा करना चाmaहै। और उसे संसारसे प्रायः समाप्त डालने अथवा हर जाने के लिये तय्यार है। ९० देश करनेकी भावना भी रखता है इस प्रकारकी दुर्भावनाएं दूसरे देशकी श्री और धन-सम्पत्ति पर अपना अधिकार ही नहीं है किन्तु इस प्रकारकी अनेकों शरणाएं भी बर्षित कर अपना प्रभुत्व चाहता है, इतना ही नहीं किन्तु उन हो रही है जो अशान्धिकी जमकरे और अहिंसाधर्मसे देशवासियोंको पराधीन एवं गुखाम बनाना चाहता है। परान्मुखनेका स्पष्ट संदेश करती है। इसी कारण
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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