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५०1 अनेकान्त
[वर्ष १३ संसारका प्रत्येक देश विविध उपायोंसे अपनी शक्तिको हमारी ही कमबोरी,कायरता है, पाप है, हिंसा है। संचित करने और एक दूसरेको नीचा दिखाने में लगे हुए इस पापसे छुटकारा अहिंसा विना नहीं हो सकता। है। इस तरह प्रत्येक देशकी खुदगर्ग (स्वार्थ तत्परता) अहिंसा पास्माका गुण है, परन्तु उसकी अभिव्यक्ति ही उन्हें पनपने नहीं दे रही है। और संसारके सभी वीर पुरुष में होती है, कायरमें नहीं; क्योंकि यह प्रारममानव मागत युद्धकी उस भयानक विभीषिकासे मन्त्रम्त घाति है, यहाँ वीरता और आत्म-निर्भयता है वहीं अहिंसा
रहे है-भयभीत हैं प्रशान्त और उद्विग्न है: वे है। और वहां कापरता, बुजदिली एवं भयशीखता है वहां शान्तिके इच्छुक होते हुए भी बेचैन है, क्योंकि उनके हिंसा है। काबरताके समान संसारमें अन्य कोई पाप मामने एकमबमसे होने वाले हिरोशिमा विनाशक गरि नहीं है क्योंकि वह पापोंको प्रश्रय अथवा प्राश्रय देती बाम सामने दिख रहे है। मौतिक अस्त्र शस्त्रोंका निर्माण है। कायर मनुष्य मानवीय गुणोंसे भी वंचित रहता है, एवं संग्रह उनकी उस विनाशसे रक्षा करने में नितान्त बस- उसकी चारमा हर समय डरपोक बनी रहती है और वह मर्थ है।
किसी एक विषय में स्थिर नहीं हो पाता। उस पर दुःख युरसे कभी शान्ति नहीं मिलती प्रत्युत प्रशान्ति और उद्वेग अपना अधिकार किये रहते हैं उसका स्वभाव मुखमरी एवं निर्धनता (गरीबी) तथा बेकारी बढ़ती है एक प्रकारसे दम्बू हो जाता है वह दूसरोंको कुत्सितवृत्तिके इससे मानव परिचित है और युद्धोत्तर कठिनाइयोंको भोग खिबाफ पा उनके असम्यवहारके प्रतिपक्षमें कोई काम कर बनुभव भी प्राप्त कर चुका है। अतः युद्ध किसी तरह नहीं कर सकता, किन्तु वह हिवता भयखाता और शंकाभी शान्तिका प्रवीक नहीं हो सकता । तो फिर कभशां. शीख बना रहता है कि कहीं वह अमुक बुरे कार्यमें मेरा तिके दूर करनेका क्या उपाय है?
नाम न ले दे-मुझे ऐसे दुष्कर कार्य में न फंसा दे, जिससे
फिर निकलना बड़ी कठिनतासे हो सके, इस तरह उसकी प्रशान्तिके दूर करनेका उपाय अहिंसा
भयावह मामा अत्यन्त निर्बल और दयनीय हो जाती है, विश्वकी इस प्रशान्तिको दूर करनेका एक ही अमोघ वह हेयोपादेषके विज्ञानसे भी शून्य हो जाता है इन्हीं जरा और वह अहिंसा । यही एक ऐसा शस्त्र सबकारणोंसे कायरता दुपयोंकी जमक और मानवकी जिस पर बनेसे प्रत्येक मानव अपनी सुरक्षाकी गारन्टी अत्यन्त शत्र है। परन्तु महिपा वीर पुरुषकी भारमा है कर सकता है और अपनी मान्तरिक प्रशान्तिको दूर अथवा वही पबवान् पुरुष उसका अनुष्ठान कर सकता करने में समर्थ हो सकता है। जब तक मानव मानवताके है जिसकी रष्टि विकार रहित समीचीन होती है उसमें रहस्यसे अपरिचित रहेगा अर्थसंग्रह अथवा परिग्रहकी कायरतादि दुणुय अपना प्रभाव अंकित करने में समर्थ अपार तृण्यारूपी दाहसे अपनेको खाता रहेगा तब तक नही हो पाते क्योंकि उसके पमा, वीरता, निर्भयता और पहहिंसाकी उस महत्तासे केवल अपरिचित ही नहीं भीरतादि गुण प्रकट हो जाते है जिनके कारण उसकी रष्टि रहेगा किन्तु विश्वकी उस अशान्तिसे अपनेको संरचित विकृत नहीं हो पाती, वह कभी शंकाशीन भी नहीं होता करने में सर्वया असमर्थ रहेगा। अहिंसा जीवन-प्रदायनी किन्तु निर्भय और सदा निःशंक बना रहता है। उसमें शकिबह अहिंसाको हो महत्ता है जो हम समष्टिरूपसे दूसरोंके दोषोंको पमा करने अथवा पचानेकी पमता एवं एक स्थानमें बैठ सकते हैं, एक सरेके विचारोंडो सामर्थ्य होती है। वह बास्म प्रशंसा चौर पर विदाम्मेषण सकते हैं, एक दूसरे मुखदुःखमें काम आते है, उनमें की वृत्तिसे रहित होता है, और अपनेको निरन्तर क्रोधादिप्रेमभावकी वृद्धि करने में समर्थ हो सकते है। यदि दोषोंसे संरक्षित रखनेका प्रयत्न करता रहता है, उसकी अहिंसा मारा स्वाभाविक धर्म न होता तो हम कभी निर्मख परिणति ही अहिंसाकी जनक है। सधिमें एक स्थान पर प्रेमसे बैठ भी नहीं सकते, विचार भगवान महावीरने माजसे हाई हजार वर्ष पहले सहिष्णुता होगा तो दुरकी पास है। हम कभी-कभी दूसरे मानव जीवनकी कमजोरिया, अपरिमित इमामोंके वचनोंको सुनकर भाग-बबूला हो जाते हैं प्रशान्त अभीष्ट परिग्रहकी सम्माप्तिस्प माशाचों-और मानवताहोकर अपने सन्तुबनको खोकर असहिष्णु बन जाते हैं.बह शून्य अनुदार विचारों भादिसे समुत्पड इन भयानक