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________________ अनेकान्त - प्रकार जिसके प्रताप वर्णनसे ही शत्रु दूर भाग जाते हैं। स्वरूप कुष्ट रोगसे पीड़ित हो गया और जीवनसे निराश गोमंडल (गायोंका समूह) जिस तरह पुरुषोत्तम विष्णुके होकर चिता बनाकर अग्निमें जल मरा। सोमशर्मा भी अपने द्वारा रक्षित रहता है, उसी तरह यह पृथ्वीमंडल भी प्रिय विरहसे दुःखित होकर चितामें प्रवेश कर परलोकवासिनी पुरुषोंमें उत्तम राजा श्रेणिकके द्वारा रक्षित रहता है। राजा हो गई। कुछ दिन बीननेके पश्चात् उस नगरमें 'सुधर्म' श्रेणिकके समक्ष युद्ध में ऐसे कौन शत्रु-सुभट हैं, जो मृत्युको मुनिका आगमन हुथा। मुनिने धर्मका उपदेश दिया, प्राप्त नहीं हुए, अथवा जिन्होंने केशव (विष्णु) के भागे भवदत्तने धर्मका स्वरूप शान्तभावसे सुना भवदत्तका मन भायुध रहित होकर प्रात्म-समर्पण नहीं किया. संसारमें अनुरक्र नहीं होता था, अतः उसने प्रारम्भ परिग्रह से ग्रन्थका कथा भोग बहुत ही सुन्दर, सरस और र रहित दिगम्बर मुनि बननेकी अपनी अभिलाषा व्यक की। मनोरंजक है और कविने उसे काव्योचित सभी गुणोंका और वह दिगम्बर मुनि हो गया। और द्वादशवर्ष पर्यन्त ध्यान रखते हुए उसे पठनीय बनानेका यत्न किया है. उसका तपश्चरण करनेके पश्चात् भवदत्त [क बार मंधके साथ संक्षिप्त सार इस प्रकार है अपने ग्रामके समीप पहुँचा। और अपने कनिष्ठ भ्राना भवदेवको संघमें दीक्षित करनेके लिए उक वर्धमानप्राममें कथासार प्राया । उस समय भवदेवका दुर्मर्षण और नागदेवीकी पुत्री जम्बूद्वीपके भरत-क्षेत्रमें मगध नामका देश है। उपमें नागवसुसे विवाह हो रहा था। भाईके श्रागमनका समाचार श्रेणिक नामका राजा राज्य करता था । एक दिन राजा पाकर भवदेव उमसे मिलने पाया, और स्नेहपूर्ण मिलनके श्रेणिक अपनी सभामें बैठे हुए थे कि वनमालीने आकर पश्चात् उसे भोजनके लिये घरमें ले जाना चाहता था परन्तु विपुलाचल पर्वत पर महावीर स्वामीके समवसरण आनेको भवदत्त भवदेवको अपने संघमें लेगया और वहाँ मुनिवरसे सूचना दी । श्रेणिक सुन कर हर्षित हुआ और उसने सेना माधु दीक्षा लेनेको कहा । भवदेव असमंजसमें पड़ गया। प्रादि वैभव के साथ भगवानका दर्शन करनेके लिये प्रयाण क्योंकि उसे विवाह कार्य सम्पन्न करके विषय-सुखोंका पाककिया। श्रेणिकने समवसरणमें पहुंचनेसे पूर्व ही अपने पण जो था, किन्तु भाईको उस सदिच्छाका अपमान करनेका समस्त वैभवको छोड़ कर पैदल समवसरणमें प्रवेश किया उसे साहस न हुसा। और उपायान्तर न देख प्रवज्या और वर्द्धमान भगवानको प्रणाम कर धर्मोपदेश सुनकी (दीक्षा) लेकर भाईके मनोरथको पूर्ण किया, और मुनि जिज्ञासा प्रकट की, और धर्मोपदेश सुना। इसी समय एक होनेके पश्चात् १२ वर्ष तक संघके साथ देश-विदेशों में भ्रमण तेजस्वी देव अाकाशमार्गसे प्राता हुआ दिखाई दिया । गजा करता रहा। एक दिन अपने ग्रामके पाससे निकला । उसे श्रेणिक द्वारा इस देवके विषयमें पूछे जाने पर गौतम स्वामीने विषय चाहने आकर्षित किया, और वह अपनी स्त्रीका बतलाया कि इसका नाम विद्युन्माली है और यह अपनी स्मरण करता हुआ एक जिनालयमें पहुंचा, वहाँ उसने एक चार देवांगनाओंके साथ यहाँ बन्दना करनेके लिये बाया है। अर्जिकाको देखा, उससे उन्होंने अपनी स्त्रीके विषयमें कुशल यह पाजसे वें दिन स्वर्गसे चयकर मध्यलोकमें उत्पन्न वार्ता पूछो । अर्जिकाने मुनिके चित्तको चलायमान देखकर होकर उसी मनुष्य भवसे मोक्ष प्राप्त करेगा । राजा श्रेणिकने उन्हें धर्म में स्थिर किया और कहा कि वह आपकी पत्नी इस देवके विषयमें विशेष जाननेकी अभिलाषा व्यक्त की, में ही हूँ। आपके दीक्षा समाचार मिलने पर मैं भी दीक्षित तब गौतम स्वामीने कहा कि-'इम देशमें वर्ल्ड माम नामका हो गई थी। भवदेव पुनः छेदोपस्थापना पूर्वक संयमका एक नगर है। उसमें वेदघोष करने वाले, यज्ञमें पशु बलि अनुष्ठान करने लगा। अन्तमें दोनों भाई मरकर सनत्कुमार देने वाले, सोमपान करने वाले, परस्पर कटु वचनोंका नामक स्वर्गमें देव हुए। और सात सागरको आयु तक वहाँ व्यवहार करने वाले अनेक प्राह्मण रहते थे। उसमें अत्यन्त वास किया। गुणज्ञ एक ब्राह्मण-दम्पति श्रुतकण्ठ आर्यवसु रहता था। भवदत्त स्वर्गसे चय कर पुण्डरीकिनी मगरीमें वज्रदन्त उसकी पन्नीका नाम-सोमशर्मा था। उनसे दो पुत्र हुए थे राजाके घर सागरचन्द्र नामका और भवदेव बीतशोका भवदत्त और भवदेव । जब दोनोंकी प्रायु क्रमशः १८और नगरीके राजा महापन चक्रवर्तीकी वनमाला रानीके शिव१९ वर्षकी हुई, तब आर्यवसु पूर्वोपार्जित पापकर्मके फल- कुमार नामका पुत्र हुभा। शिवकुमारका १०५ कन्याओंसे
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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