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________________ किरण ६] अपभ्रंश भाषाका जंबूसामिचरिव और महाकवि वीर राजधानी रायगिह' (राजगृह ) कहलाती सरस्वत्यप्याग्निगदनविधौ विशुद्धता, चयोपशमकी विशेषता और कवित्व शलिसे उस उसके बाद दोनोंमें मतभेद पाया जाता है । जम्बूस्वामी प्रन्थको इतना प्राकर्षिक बना देता है कि पढ़ने वाले व्यक्केि अपने समयके ऐतिहासिक महापुरुष हुए हैं। ये कामके हृदयमें उस ग्रन्थ और उसके निर्माता कविके प्रति आदर असाधारण विजेता थे। उनके लोकोत्तर जीवनकी पावन भाव उत्पन्न हुप बिना नहीं रहता। ग्रन्थको सरस और झोंकी ही चरित्र-निष्ठाका एक महान भादर्श रूप जगतको साशकार बनाने में कविकी प्रतिभा और पान्तरिक चित्त- प्रदान करती है। इनके पवित्रतम उपदेशको पाकर ही शुद्धि ही प्रधान कारण है। विद्युच्चर जैसा महान् चोर भी अपने चौरकर्मादि 'जिन कवियोंका सम्पूर्ण शब्दसन्दोहरूप चन्द्रमा 'दुष्कर्मोंका परित्यागकर अपने पांचसौ योदामोंके साथ मतिरूप स्फटिकमें प्रतिविम्बत होता है उन कवियोंसे भी महान् तपस्वियोंमें अग्रणीय तपस्वी हो जाता है और व्यंतऊपर किसी ही कविकी बुद्धि क्या अदृष्ट अपूर्व अर्थमें स्फरित रादि कृत महान् उपसौको ससंघ साम्यभावसे सहकर नहीं होती है ? जरूर होती है। सहिप्ताका एक महान प्रादर्श उपस्थित करता है। स कोप्यंतर्वेद्यो वचनपरिपाटी गमयतः उस समय मगध देशका शासक राजा भेशिक था, - जिसे विम्बसार भी कहते हैं। उसकी राजधानी 'रायगिह' कवेः कस्याप्यर्थः स्फुरति हृदि वाचामविषयः। (राजगृह) कहलाती थी, जिसे वर्तमानमें लोग राजगिरके सरस्वत्यप्यर्थानिगदनविधौ यस्य विषमा- नामसे पुकारते हैं। प्रन्यकर्ताने मगधदेश और राजगृहका मनात्मीयां चेष्टामनुभवति कष्टं च मनुते॥ वर्णन करते हुए, और वहाँके राजा श्रेणिकका परिचय देते अर्थात् काव्यके विषम अर्थको कहनेमें सरस्वति भी हुए, उसके प्रतापादिका जा सॉरप्त वणन किया है, उस अनारमीय चेप्टाका अनुभव करती है और कष्ट मानती है। तीन पथ यहाँ दिये जाते हैंकिंतु वचनकी परिपाटीको जनाने वाले अन्तर्वेदी किसी कविके 'चंड भुजदंड स्वसिय पयंडमंडलियमंडली वि सड्ढ़ें। हृदय में ही किसी-किसी पद्य या वाक्यका अर्थ स्फुरायमान धारा ग्वंडण भीयत्व जयसिरी वसइ जस्स खरगंके ॥१॥ दोता है, जो वचनका विषय नहीं है। लेकिन जिनकी रे रे पलाह कायर मुहई पेक्खइन संगरे सामी। भारती (वाणी) लोकमें स्पष्ट रसभावका उद्भावन तो इय जस्स पयावधोमणाप विहडंति वइरिणो दूरे ॥२॥ करती है परन्तु महान प्रबन्धक निर्माणमें स्पष्ट रूपसे जस्स रक्खिय गोमडलस्म पुरसुत्तमस्स पद्धाए। विस्तृत नहीं होती, ग्रन्थकारको दृष्टिमें, वे कवीन्द्र ही के के मवा न जाया समरे गय पहरणा रिउणो ।।३।। नहीं है +। अर्थात् जिनके प्रचंड भुजदंडके द्वारा प्रचंड मांरखिक प्रस्तुत ग्रन्थकी भाषा बहुत प्राञ्जल, सुबोध, मरम राजाश्रांका समूह बंडित हो गया है, ( जिसने अपनी और गम्भीर अर्थकी प्रतिपादक है और इसमें पुष्पदन्नादि भजाांक बलगे मांडलिक राजाओंको जीत लिया है) महाकवियोंक काव्य-ग्रन्थोंकी भाषाके समान ही पीढता और और धाग-बंडनके भयसे ही मानो जयश्री जिसके खाकमें अर्थगौरवकी छटा यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है। बमती है। जम्बूस्वामी अन्तिम केवली हैं । इसे दिगम्बर- राजा श्रेणिक संग्राममें युद्धमे मंत्रस्त कायर पुरुषोंका श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय निर्विवाद रूपसे मानते हैं और मुग्य नहीं देखते, रे, रे कायर पुरुषो! भाग जाश्रो'-इस भगवान महावीरके निर्वाणसे जम्बूस्वामीके निर्वाणतककी - परम्परा भी उभय सम्प्रदायों में प्रायः एक-सी है, किन्तु x दिगम्बर परम्परामें जम्बूस्वामीके पश्चात् विष्णु, नन्दी मित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पाँच * 'जाणं समग्गसंदोह ब्मेंदु उरमइ मइ फडक्कमि | श्रुतकेवली माने जाते हैं किन्तु श्वेताम्बरीय परम्परामें __ ताणं पिहु उवरिल्ला कस्स व बुद्धी न परिप्फुरई ॥' प्रभव, शश्यंभव, यशोभद्र, भार्यसंभूतिविजय, और + 'मा होतुते कईदा गरुयपबंधे विजाण निम्बूढा। भद्रबाहु इन पांच श्रुतकेवलियोंका नामोल्लेख पाया रसभावमुनिरंती वित्थरहन भाई भुवणे॥ जाता है। इनमें भद्रबाहुको छोड़कर चार नाम एक -जम्बूस्वामी-चरित संधि दूसरेसे बिल्कुल भित्र हैं।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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