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किरण १]
मद्ररास और मविलापुरका जैन पुरातत्त्व वध कर मारी कुरुम्बभूमि पर अधिकार कर उसका नाम वह प्राचीन समझी जाती थी। दूसरा मन्दिर वैष्णव था, जो 'टोन्डमण्डलम् रख दिया।
प्राचीन नहीं था और तीसरा शैव मन्दिर था उसे 'पाडोम्बाई' इस कथानकका बहुभाग 'तिरुमलैवयल्पटिकम्' नामक बोलनृप द्वारा निर्मित कहा जाता था। पुज्हलूर मैं भी गत शव ग्रन्थसे लिया गया है। टेलर साहब अभिमतसे मई मासमें गया था। वहाँ अब भी एक प्राचीन विशाल (सं. प्र.३, पृ. ४५२) इस कथाका सारांश यह है कि हिंदुओंने दिगम्बर जैन मन्दिर है जिसमें मूलमायक प्रथम तीर्थकर कोलीरुन नदीके दक्षिणकी प्रारके देशमें तो उपनिबंश अति आदिनाथकी एक बहुत बड़ी पद्मासन प्रस्तर-मूर्ति है जो प्राचीनकालमें स्थापित कर लिया था और उपर्युक युद्धके बड़ी मनोश है। मंदिरके चारों ओरका क्षेत्र बड़ा ही चितासमयसे मद्रासक चतुर्दिकवी दशमें उन्होंने पदार्पण किया। कर्षक और प्राकृतिक सौन्दर्यको प्रदर्शित करता है। दिगम्बर राजनैतिकके साथ-माथ धर्मान्धता भी इस आक्रमणका कारण जैनोंमें यह रिवाज है, खासकर दक्षिणमें, कि प्रत्येक थी। क्योंकि जैनधर्मके प्राधान्यका चूर्ण करना था। शवमतका मन्दिरको किसी जैन दिगम्बर ब्राह्मण पुजारीक प्राधीन कर प्रभुन्च हो जाना ही इस युद्धका मुख्य परिणाम हुआ। दिया जाता है जो वहां दैनिक पूजा, आरती किया करता है यद्यपि लिङ्गायन मतमें अनेक कुरुम्बोंको परिणत कर दिया तथा उसकी देखभाल करता रहता है और मन्दिरका चढाबा गया, तो भी कुरुम्बास जैनधर्म विहीन न हो सका। तथा उसके प्राधीन सम्पत्तिसे प्रायका किंचित् भाग उसे ___चोल राजाओंका अब तक जितना इतिहास प्रगट हो पारिश्रमिकके रूपमें प्राप्त होता रहता है। ऐसे मन्दिरोंक चुका है उसमें 'प्राडोन्डई' नामक किसी भी नृपतिका नाम प्राम-पास जहां श्रावक नहीं रहे वहांक मन्दिरोंके पुजारी नहीं मिलता है। हां, कलोत्ता चोल राजाका इतिहास प्राप्त स्वर सर्वेसर्वा बनकर उसकी सम्पत्तिको हड़प रहे हैं-ऐल है. उनका समय है सन १.७० ११२० । इसी प्रकार कई क्षेत्र मैंने देखे हैं। जिन मन्दिरोंकी बड़ी-बड़ी जमीदारी करिकाल चोलराजाका भी थोडा इतिहास अवश्य प्राप्त है. थी उन्हें ये हड़प चुके हैं और दक्षिणका दिगंबर जैन समाज उनका समय पचम शताब्दीस पूर्वका है किन्तु यह युद्ध ध्यान नहीं दे रहा है. यह दुःस्व की बात है । इमो पुज्हलर उनक समय नहीं हुआ था। मैं तो इस युद्धको १२ वीं (पुरल) दिगम्बर मन्दिरके पुजारीने भी ऐसा ही किया है। शताब्दीक बादका मानता है। इसका अनुसंधान मैं कर उस प्राचीन दिगम्बर मन्दिरकी मुलनायक ऋषभदेवकी रहा हूँ।
मूर्निपर चा लगा दिये गए हैं। हमारे श्वेताम्बर भाई पुरल (पुरुलूर) में और इसक निकटवर्ती क्षेत्रमें अब दिगम्बर मन्दिरोंमें पूजा-पाठ करें यह बहुत ही सराहनीय है क्या-क्या बचा हुआ है इसका अनुसंधान करनेके लिये सन् और हम उनका स्वागत करते हैं। किन्तु यह कदापि उचित १८८७ के लगभग आपट साहब भी (स.प्र२) वहाँ स्वय गये नहीं कहा जा सकता है कि वे किसी भी दिगम्बरमूनि पर थे। उन्होंने लिखा है (पृ. २४८)-यह प्राचीन नगर मद्रास प्राभूषण और पशु लगावें। यह बच और आभूषण मगरसं उत्तर-पश्चिम आठ मील पर है और 'रेडहिल्स' नामक लगानेकी पृथा स्वयं श्वेताम्बरोंमें भी प्राचीन नहीं है। यह वृहत् जलाशय (जहां से मद्रासको अब पेयजल दिया जाता श्रृंगारकी प्रथा तो पड़ौसी हिन्दुओंकी नकल है। बौद्धोंपर है) के पूर्वकी ओर अवस्थित है । इस नत्र (Red Hills) इनका प्रभाव नहीं पड़ा, इसीलिये उनकी मूर्तियों में विकार क पल्लो नामक स्थान में पुज्हलूर (पुरल) का प्राचीन दुर्ग था नहीं पाया । समस्त परिग्रहत्यागी, निग्रन्थ. वीतराग, उस स्थानका अब भी लोग दिखात है और वहां उसकी बनवामी महात्माको यदि आभूषणसे शृंगारित कर दिया प्राचीरके कई भग्नावशेष विद्यमान है । मद्रासपर चढाई जाय तो किमीको भी अच्छा नहीं लगेगा और उमक मच्चे करनेके ममय हैदरअली यहीं ठहरा था । पुरलको 'वाण जीवनको भी वह कलंकित करेगा। क्या महात्मा गांधीजी पुलल' भी कहते है और उसके निकट 'माधवरम्' नामका की मूर्तिको आज कोई प्राभूषणोंसे सजानेका माहस करेंगे? एक छोटा गोंव भी है। दक्षिण-पूर्वकी ओर एक मीलपर फिर तीर्थकर तो निग्रंथ थे। अपर जिम्म पुहलूर (पुरल) वर्तमान पुललग्राम है जिसमें प्रापर्ट साहबने तीन मन्दिर जिलेका वर्णन किया गया है उसी पुज्हलर जिलेके अन्तर्गत दग्वे थे, "एक आदि तीर्थकरकी जैनवसति--जो उस समय मद्रास अवस्थित था। यद्यपि जीर्णावस्थामें थी. तो भी वहां पूजा होती थी और कुछ वर्ष हुए श्रीसीताराम प्रायर इन्जीनियरके नं०३०
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