________________
= ]
अनेकान्न
वाकर उस हालत में जब कि वे निर्यातवाद के सिद्धान्तको मान रहे हैं और यह प्रतिपादन कर रहे हैं कि जिस द्रव्यकी जो पर्याय जिम कम जिस समय होने को है वह उस क्रमसे उसी समय होगी उसमें किमी भी निमितमे काई परियमेन नामकना ऐसी स्थिति शुभभावाकां अधर्म बतलाकर उनको मिटाने अथवा छुडानेका उपदेश देना भी व्यर्थका प्रयास जान पड़ता है। ऐसा करके वे शुभ पाटिकी प्रवृत्तिका मार्ग माफ कर रहे है; क्योंकि शुद्ध भाव स्थावथामें मदा स्थिर नहीं रहता कुछ क्षण उसके समाप्त होने ही दुसरा भाव आएगा, वह भाव यदि धर्मको मान्यता के निकल जानेसे शुभ नहीं होगा तो बाकी कुशुभ
ही प्रवृत होना पड़ेगा ।
अब यहाँ एक प्रश्न और पैदा होता है वह यह कि जब कानजी महाराज पूजादिके शुभ रगको धर्म नहीं मानव मन्दिर मूर्तियां तथा मानस्तम्भादिक निर्माण में और उनकी पूजा-प्रतिष्ठाके विधानमें यांग क्यों देते है ? क्या उनका यह योगदान उन कार्योंकी अधर्म एवं श्रहिनकर मानते हुए किसी मजबूरीके वशवर्ती है ? या तमाशा देखनfrerrant किसी भावनाका साथमें लिए हुए हैं ? श्रथवा लोक-संग्रहको भावनाएं लोगोको अपनी ओर
किशन कर उनमें अपने किसी मन-विशेष के प्रचार करने की दृष्टि प्रोविन है ? यह सब एक समस्या है, जिसका उनके द्वारा शीघ्र ही हल होनेकी बढो जरूरत है; जिससे उनका कथनी और करणीमें जो स्पष्ट अन्तर पाया जाता है उसका सामंजस्य किसी तरह बिठलाया जा सके । उपसंहार और चेतावनी
कानजी महाराजके प्रवचन बराबर एकाकी चोर रहे है और इससे अनेक विद्वानोका आपके विषय में अब यह खयाल हो चला है कि आप वास्तव कुन्दकुन्दाचार्यका नहीं मानते और न स्वामी समन्तभद्र जैम दूसरे महान जैन श्राचायको ही वस्तुतः मान्य करते हैं; क्योंकि उनमे से कोई भी प्राचार्य निश्वय तथा व्यव हार दोनों में किसी एक ही नयके एकान्त पक्षपाना नहीं हुए नयाँको परम्पर माक्षेप, अविनाभाव हुए एक दूसरेक मित्र-रूप में मानते तथा प्रतिपादन करने आये हैं जब कि कानजी महाराजका नोनि कुछ दूरी ही जान पड़ती है। अपने प्रवचन
सम्बन्धको
वर्ष १३
निश्चय अथवा द्रव्यार्थिकनयके इतने एकान्त पचपानी बन जाते हैं कि दूसरे नयs assist विरोध तक कर बैठते है-इसे शत्रके वगम्यरूपमें चित्रित करते हुए 'धर्म' तक कहनेके लिए उतारू हो जाते हैं। यह विशेष ही उनको सर्वथा एकाच कराता है और उन्हें श्री कुन्दकुन्द तथा स्वामी समन्तभद्र जम महान् आचार्यों के उपासकोंकी कोटिले निकाल कर अलग करना है अथवा उनके वैसा होने में सन्देह उत्पन्न करता ई और इसीलिए उसका अपनी कार्य-सिए कुन्दकुन्दादिकी दुहाई देना प्रायः वैसा ही समझा जाने लगा है जैसा कि कांग्रेस सरकार गांधीजीक विषय में कर रहा है—वह जगह-जगह गांधीजीकी दुहाई देकर और उनका नाम ले लेकर अपना काम तो निकालती है परन्तु गांधीजी सिद्धान्तोकी वस्तुतः मान कर देती हुई नज़र नहीं आती ।
1
कानजी स्वामी और उनके अनुयायियोको प्रत्यक देख कर कुछ लोगां यह भी शंका होने लगी कि कहीं जैन समाजमे यह चौथा सम्प्रदाय ता कायम होने नहीं जा रहा है, जो दिगम्बर श्वेताम्बर और स्थानकवासा ऊपरी को कर तीनों मूल ही कुठाराघात करेगा और उन्हं आध्यात्मकताके एकान्त गर्तमें धकेल कर एकान्त मिथ्यादृष्टि बनानेम यत्नशील होगा; श्रावक तथा मुनिधर्मके रूपमें सच्चारित्र एवं शुभ भावोंका उत्थापन कर लोगोंको कवल 'आमार्थी' बनाने की चेष्टा तग्न रहेगा उसके द्वारा शुद्धामाके गीन तो गाये जायेंगे परन्तु शुद्धात्मा तक पहुँचने का मार्ग पापमे न होने बांग "इती भ्रष्टाम्नतो भ्रष्टाः" की दशाको प्राप्त होंगे; उन्हें अनाचारका डर नहीं रहेगा, बे
केंगे कि जब श्रात्मा एकान्ननः अबद्धस्पृष्ट है- सर्व प्रकार के कर्म बन्धनोसे रहिन शुद्ध बुद्ध ह और उस पर वस्तुतः किसी भी कर्मका कोई असर नहीं होता, तब बन्धन छूटने तथा मुफि प्राप्त करनेका यत्न भी कैमा ? और पापकर्म जब आमाका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकते तब उनमें प्रवृस हानेका भय भी कैमा ? पाप और पुण्य दानों समान दोनों ही सब पुराव जैसे कष्ट साध्य कार्यमें कौन प्रवृत्त होना चाहेगा ? इस तरह यह चोथा सम्प्रदाय किसी समय पिछले तीनों सम्पदाका हिन- शत्रु बन कर भारी संघर्ष उत्पन्न करेगा और