________________
३१४
अनेकान्त
वर्ष १३ ]
और खापर्वाहीका हा द्योतक है। खेद है कि हम लोग किनिदत्तरं प्राहु राप्ता हि श्रुतदेवयोः।' जो कुछ अनार इन नागम ग्रन्थोंकी महत्तामे परिचित होते हुए भी उनको है वह केवल प्रत्यक्ष परोक्षका है । जिनवाणी हमारी माता वास्तविक भक्रि और कर्तव्यपे दूर हैं। हजारों ताडपत्रके है हमें उसकी रक्षा उसी प्रकार करनी चाहिये जिस तरह हम ग्रन्थ आज जीर्ण-शीर्ण दशामें अपना जीवन ममाप्त कर अपनी माताको करते हैं। वीरसेवामन्दिरके द्वारा उठाया रहे हैं । परन्तु हमारा लचा उनको रक्षाका अब तक भी हुमा ग्रन्थोंके जीर्णोद्धारका कार्य महान् है । समाजका कर्तव्य नहीं हुमा, यह देख कर तो और भी खेद होता है। है कि इस पुनीत कार्यमें अपना सहयोग प्रदान करें। दहली
गिरनारको 'चन्मगुहा' जो प्राचार्य धरसेनका निवाप के कुछ सजनोंसे इस कार्यके लिये अभी सात-पाठपी की स्थान था, नगरके समीप होते हुए भी हम लोग यात्राका सहायता प्राप्त हुई है, उनके नामोंकी सूची भी सुनाई गई। जाते हैं, परन्तु उसे देखने तक नहीं जाते । यद्यपि अब उसमें अन्य भाइयोंको भी अपना लक्ष्य इधर देनेकी आवश्यकता कोई विशेष सांस्कृतिक चिन्ह अवशिष्ट नहीं है। फिर भी है। अन्तमें आपने अपने मित्र धर्म माम्राज्यजीका परिचय देते गवर्नमेन्ट उसकी रक्षाके लिये वहाँ ८०) रुपये माहवारका हुए बतलाया कि यह सब महत्वका कार्य प्रापकी कृपा एवं एक चपरासी रक्खे हुए है। इसी तरह मद्रास प्रान्तः सौजन्यका प्रतिफल है। मैं उनका अभिनन्दन करता हूं । 'मित्तनवामल' नामका एक रमणीय एवं सुन्दर स्थान है जो एक मुख्तार सा० ने अपने भाषणमें धर्ममाम्राज्यजी की धर्मसिद्ध स्थान कहलाता है । वहाँ भी मुनियोंके निवा-की अनेक प्रियताका उल्ने ग्व करते हुए समाजका ध्यान जीर्ण शीर्ण गुफाएं बनी हुई हैं जो ईस्वी सनसे पूर्व की हैं । वहीं ईम्बी सन् ग्रन्थोंके उद्धार करने की ओर अाकृष्ट किया और फलस्वरूप पूर्वका एक शिलालेख भी मिला हैं । जैन श्रमण संस्कृति- उसी समय श्रीमती गुणमाला जयवन्तीदवाने जीर्णोद्धार की अनेक पुरातनवस्तुएँ अजायबघरों, जंगलों, बण्डहरों, कार्यमें सौ रुपये प्रदान किये । मन्दिरों तथा भूगर्ममें दबी पड़ी हैं और जिसके ममुद्धारकी अनन्तर ला. रघुवीरसिंहजीने दहली निवासियोंकी भोर हमें कोई चिन्ता नहीं है। यह हमारी उपेक्षा ही हमें पतन से धर्मसाम्राज्यजी और बाबू छोटेलालजीका आभार की ओर ले जा रही है। मेरा विचार था कि कमसे कम दो व्यक्त करते हुए धन्यवाद दिया और कहा कि आप इसी घण्टेमें आपको इन आगम प्रन्थोंके परिचयके साथ इनके तरह पार भो ग्रन्थ वीरसेवामन्दिरके मारफत लाइये प्रति अपने कर्तव्यकी ओर आपका ध्यान आकृष्ट करता: उनकी भी मरम्मत हो जायेगा । और समाजका सहयोग परन्तु अब समय कम रह गया है। अत: हमारा कर्तव्य है भी प्राप्त होगा । यह कार्थ महान् और पुनीत है। इस कि हम जिनवाणीके प्रति होने वाली भारी उपेक्षाको छोडें, तरह भगवान महावीरकी जयध्वनि पूर्वक सभा समाप्त क्योंकि जिनदेव और जिनश्रुतमें कोई फरक नहीं है, 'नहि हुई।
-परमानन्द जैन
वीरसेवा मन्दिर सोसाइटी की मीटिंग
आज ता.१ अप्रेल सन् १९५५ को दिनके १॥ बजेसे १. वीरसेवामन्दिरकी यह कार्यकारिणी समिति स्थानीय श्री दिगम्बर जैन लालमन्दिरमें श्री वीरसेवामंन्दिरके निम्नलिखित महानुभावोंको कार्यकारिणी समितिके सदस्य दफ्तरमें कमेटीका अधिवेशन हुआ । जिसमें उपस्थिति निम्न नियुक्त करती है । साहू शान्तिप्रसादजी जैन कलकत्ता, प्रकार थी-पं० जुगलकिशोर जी, बा. छोटेलाल जी नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता, श्रीराजेन्द्रकुमारजी जैन (अध्यक्ष), बा. जयभगवान जी एडवोकेट, बा. नेमचन्द्र देहली, रायसाहब ला० ज्योतिप्रसादजी देहली, राय सा० जी वकील, डा. ए. एन० उपाध्ये कोल्हापुर (विशेषा- ला उल्फतरायजी जैन देहली, श्री तनसुखरायजी जैन देहली, मंत्रित), ला० जुगल किशोर जी कागजो, ला० राज कृष्ण डा० सुखबीरकिशोरजी, राय बहादुर ला. दयाचन्द्रजी जी और जयवन्ती देव।
देहली, लाप्रेमचन्द्रजी, ला० नन्हेमल जी (सुपुत्र ला. प्रथम मीटिंगका नोटिस और एजंडा पढ़कर सुनाया गया। मनोहरलालजी) ला० नन्हेमलजी सदरबाजार, ला. मक्खन