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१४] अनेकान्त
[ वर्प १३ गुण, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी शुद्धि के विधानका और प्रेममे सूत्ररूपमें उपदेश देते हए और साधुजनाको भिक्षाशुद्धिका सारभूत है।'
संबोधन करते हुए कहा है:इस प्रकार इस अधिकारका महत्व उसके नामसे ही भिक्खं चर वस रणणे थोवं जेमेहि मा वह जंप । स्पष्ट है । अधिकारका प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार कहत दुकावं सह जिग्ण णिहां मेति भावेहि सुटरी वेरगं ।।। हैं कि जो श्रमण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और संहननकी अपेक्षा जैसा प्रयत्न या परिश्रम करता है, तदनुसारही वह हे माधुओ, हे श्रमणो, तुम लोग कहां भटके जा रहे अल्पकाल में सिद्धिको प्राप्त करता है। इसका अभिप्राय हो और अपने कर्तव्यको भूल रहे हो? ग्रामों और नगरोंमें यह है कि साधुको अपने द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव और
केवल भिसाके लिए पानेका तुम्हें श्रादेश है, वहाँ बसनेका काय-बल के अनुसार अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए। नहीं; अतः भिक्षाके समय ग्राम या नगरमें जाओ और साधु श्रास्ममिद्धिको किस प्रकार शीघ्र प्राप्त कर लेता है. श्राहार करके तुरन्त वनको वापिस लौट आयो। गाथाके प्रश्नका उत्तर देते हुए मलाचारकार कहते हैं कि जो धीर- इस प्रथम चरण द्वारा साधुओं को उनके बड़े भारी कर्तव्यका वीर है अर्थात् परीषह और उपसगाको दृढ़तापूर्वक महन भान कराया गया है और नगर-निवाससे उत्पन्न होने वाले करता है, वैराग्य में तत्पर ई-अर्थात् संसार, देह और अनेक दोषोंसे साधु-जनांको बचाने का प्रयास किया गया है। भोगास विरक चित्त है, वह साधु थोड़ा भी पढ़कर-अष्ट गाथा द्वितीय चरण द्वारा एक विधानात्मक और एक निपेप्रवचन-माताका और अपने कर्तव्यका परिज्ञान कर लेता है, धात्मक ऐसे दो उपदेश एक साथ दिए गए हैं। वे कहते हैं बह सिद्धिको पा लेता है, परन्तु जो वैराग्यसे रहित है- कि हे मिश्रो ! थोड़ा जीमो और अधिक मत बोलो। कितना जिमका चित्त संसार, देह और मांगामें आसक्त है, वह सुन्दर और मार्मिक उपदेश है। मनुष्य जब अधिक खाता मई शास्त्रांको पढ़ करके भी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता है। है तब अधिक बोलता भी है। एक ओर जहाँ अधिक इम उत्तरंक द्वारा ग्रन्धकार प्रा. कुन्दकुन्दने साधुश्रांको खानेसे प्रालस्य और निद्रा मनुष्यको पीदित करती है. उनका कर्तव्य बतलाते हुए एक बहुत ही महत्वको बात वहीं दूसरी ओर अधिक बोलने वाले मनुष्यके द्वारा कही कि माधको राग्यसे भरा हमाहाना ही चाहिए। सत्यका संरक्षण नहीं हो पाता । इसलिए प्राचार्य उपदेश यदि वह वैराग्यसे भरपूर नहीं है और उसका चित्त सांसा
देते हैं कि कम खामो और कम बोलो। ध्यान और रिक प्रपंची और विषय वासनामामें उलझा हुआ है तो वह अध्ययनकी सिद्धि तथा चित्त की विशुद्धि के लिए इन दोनों कभी भी सिद्धिको नहीं पा सकता। (गा० २.३)
बातोंका होना अत्यन्त आवश्यक है। गाथाके तीसरे चरण अनगारभावनाधिकारके अध्ययनसे जहां यह विदित द्वारा प्राचार्य उपदेश देते हैं कि हे साधुभो, दुःखको सहन होता है कि मुलाचार-कारके समय में साधुगण नगरांमदर करो और निद्राको जीतो। श्रास्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिए निर्जन, एकान्त, शान्त वन-प्रदेशों में रहकर मौन-पूर्वक निद्राको जीतना और दुःखोंको सहन करना अत्यन्त श्रास्मसाधनामें तत्पर रहते थे, वहाँ इस अधिकार के अध्य- आवश्यक है। निद्रा मनुष्य को अचेतन कर देती है और यनसे यह भी ज्ञात होता है कि माधुजनों में कुछ शिथिला- उसके हिताहित-विवेकको शून्य बना देती है। इसके विपचारका प्रवेश होने लगा था और वे गांचरी-कालक
रीत जो निद्रा पर विजय प्राप्त करता है, उसकी बुद्धि अतिरिक्त अन्य समय में भी नगरों में रहने लगे थे. थाहारकी तीक्ष्ण होती है तथा ग्रहण और धारणा शक्ति बढ़ती है। मात्राका उल्लंघन करने लगे थे, व्यर्थ अधिक बोलने लगे इसी प्रकार शान्तिके साथ दुःख सहन करनेसे तपोबल थे, परीपह और उपसगाँ के दुःख सहन करने में कायरपनका बढ़ता है और उससे संचित कर्मोको निर्जरा द्वारा श्रात्मअनुभव करने लगे थे। उन्ह रात्रि में निद्रापर विजय पाना स्वरूपकी सिद्धि होती है, अतएव मुमुक्षु श्रमणको कठिन प्रतीत होने लगा था तथा वैराग्य और मैत्रीभावकी दुःखोंका सहन करना और निद्रा पर विजय पाना अत्यन्त कमी होने लगी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि साधुजनोंके आवश्यक है। चतुर्थ चरणके द्वारा प्राचार्य उपदेश देते हैं इस प्रकारके व्यवहार और प्राचारको देख कर प्रा० कुन्द- कि प्राणिमात्र पर मैत्रीभाव रखो और अच्छी तरह कुन्दका हृदय पान्दोजित हो उठा है और उन्होंने अत्यन्त वैराग्य की भावना भावो।(गा.)