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तीर्थ और तीर्थंकर
साधारणत: नदी-समुद्रादिके पार उतारनेवाले धाट प्राप्तिसे होता है। जब तक आत्माको अपने आपका चादि स्थानको तीर्थ कहा जाता है। प्राचार्योने तीर्थके दो यथार्थ ज्ञान नहीं होता, तब तक वह धन, स्त्री, पुत्र, परिमेद किए हैं:-द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ । महर्षि कुन्दकुन्दने जन, भवन, उद्यानादि पर पदार्थोंको सुख देने वाला समझ द्रव्यतीर्थका स्वरूप इस प्रकार कहा है:
कर रात-दिन उनके संग्रह अर्जन और रक्षणकी तृष्णामें दाहोपसमण तहाछेदो मलपंकपक्हणं चेव। पड़ा रहता है। किन्तु जब उसे यह बोध हो जाता है कितिहिं कारणेहिं जुत्तो तम्हा तं दव्वदो तित्थं ॥६२।।
"धन, समाज, गज, बाज, राज तो काज न पावे, अर्थात् जिसके द्वारा शारीरिक दाहका उपशमन हो,
ज्ञान प्रापको रूप भये थिर मचल रहावे।" प्यास शान्त हो और शारीरिक या वस्त्रादिका मैन वा कीचड़ बह जाय, इन तीन कारणोंसे युक्त स्थानको द्रव्यतीर्थ
तभी वह पर पदार्थोंके अर्जन और रक्षणकी तृष्णाको कहते हैं। (मूलाचार षडावश्यकाधिकार)
छोडकर आत्मस्वरूपकी प्राप्तिका प्रयन्न करता है और पर
पदार्थोक पानेकी तृष्णाको आत्मस्वरूपके जाननेकी इच्छामें ___ इस ब्याख्याके अनुसार गंगादि नदियोंके उन घाट आदि खास स्थानोंको तीर्थ कहा जाता है, जिनके कि द्वारा
परिणत कर निरन्तर प्रारमज्ञान प्राप्त करने, उसे बढ़ाने उक्र तीनों प्रयोजन सिद्ध होते हैं। पर यह द्रव्यतीर्थ केवल
और संरक्षण करनेमें तत्पर रहने लगता है। यही कारण शरीरके दाहको ही शान्त कर सकता है, मानसिक सन्तापको
है कि मम्यग्ज्ञानको नृष्णाका छेद करने वाला माना गया है। नहीं शरीर पर लगे हुए मैल या कीचड़को धो सकता है, जल शारीरिक मल और पंकको बहा देता है, पर वह श्रात्मा पर लगे हुए अनादिकालीन मैलको नहीं धो सकताः प्रान्मांक द्रव्य भावरूप मल और पंकको बहानेमें श्रम - शारीरिक तृष्णा अर्थात् प्यासको बुझा सकता है, पर प्रान्मा
मर्थ है। किन्तु शुद्ध आचरण प्रारमाके शानावरणादि रूप की तृष्णा परिग्रह-संचयकी लालसाको नहीं बुझा मकता।
पाठ प्रकारके द्रव्य-कर्म-पंकको और रागद्वेषरूप भाव-कर्मश्रात्माके मानसिक दाह, तृष्णा और कर्म-मलको तो सम्य- मलको बहा देता है और प्रान्माको शुद्ध कर देता है, इस ग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय-तीथं ही लिए हमारे महर्षियोंने सम्यक्चारित्रको कर्म-मल और दूर कर सकता है। अतएव आचार्यों ने उस भावतीर्थ पाप-पंकका बहानेवाला कहा है। कहा है।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रप्रा. कुन्दकुन्दने भावतीर्थका स्वरूप इस प्रकार कहा है :- रूप रत्नत्रय धर्म ही भावतीर्थ है और इसके द्वारा ही भव्यदसण-णाण-चरित्ते णिज्जुत्ता जिणवरा दु सव्वेवि। जीव संसार-सागरसे पार उतरते हैं। तिहिं कारणेहिं जुत्ता तम्हा ते भावदो तित्थं ॥३॥ इस रत्नत्रयरूप भावतीर्थका जो प्रवर्तन करते हैं, पहले
प्रारमाके अनादिकालीन अज्ञान और मोह-जनित दाह- अपने राग, द्वेष, मोह पर विजय पाकर अपने दाह और की शान्ति सम्यग्दर्शनको प्राप्ति से ही होती है। जब तक तृष्णाको दूर कर ज्ञानावरणादि कर्म-मलको बहाकर स्वयं जीवको अपने स्वरूपका यथार्थ दर्शन नहीं होता, तब तक शुद्ध हो मंसार-सागरसे पार उतरते हैं और साथमें अन्य उसके हृदयमें अहंकार-ममकार-जनित मानसिक दाह बना जीवोंको भी रत्नत्रयरूप धर्म-तीर्थका उपदेश देकर उन्हें पार रहता है और तभी तक इप्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोगों के उतारते है-जगत्के दुःम्वोंसे छुदा देते हैं-वे तीर्थकर कारण वह वेचेनीका अनुभव करता रहता है। किन्तु जिस कहलाते हैं। लोग इन्हें तीर्थकर, तीर्थकर्ता, तीर्थकारक, तीर्थसमय उसके हृदय में यह विवेक प्रकट हो जाता है कि पर कृत , तीर्थनायक, तीर्थप्रणेता, तीर्थप्रवर्तक, तीर्थकर्ता, तीर्थपदार्थ कोई मेरे नहीं है और न कोई अन्य पदार्थ मुझे मुम्ब- विधायक, तीर्थवेधा, तीर्थसृष्टा और तीर्थेश-श्रादि नामोंसे दुख दे सकते हैं। किन्तु मेरे ही भले बुरे-कम मुझे सुख-दुख पुकारते हैं। देते हैं, तभी उसके हृदयका दाह शान्त हो जाता है। इस
संस्गरमें सदज्ञानका प्रकाश करनेवाले और धर्मरूप लिए प्राचार्योने सम्यग्दर्शनको दाहका उपशमन करने वाला
तीर्थका प्रवर्तन करनेवाले तीर्थकरोंको हमारा नमस्कार है। पर पदार्थोके संग्रह करनेकी तृष्णाका छेद सम्यग्ज्ञानको
-हीरालाल