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१६.1 अनेकान्त
विषे १३ यन्त्रको उसके गले में बांध दिया जाता है ऐसी प्रसिद्धि है। 'संः १२१५ माघसुदि ५रवो देशीयगणे पंडितः भगवान शान्तिनाथकी इस मूनिके नीचे निम्न लेख अंकित नाइ (ग) नन्दी तच्छिष्यः पंडित श्रीभानुकीर्ति है जिससे स्पष्ट है कि यह मूर्ति विक्रमको ११वीं शताब्दी आणिका मेरुश्री प्रतिनन्दतु । के अन्तिम चरण की है:
___ इस तरह बजुराहा अतिशय क्षेत्र स्थापन्यकलाकी दृष्टिसे 'सं० १०८५ श्रीमान् श्राचार्य पुत्र श्री ठाकुर देवधर अत्यन्त दर्शनीय है। परन्तु जनताका ध्यान इस क्षेत्रकी सुत सुत श्री शिवि श्रीचन्देय देवाः श्री शान्तिनाथस्य व्यवस्थाको अोर बहुत कम है । जवकि भारतके दूसरे क्षेत्रोंमें प्रतिमाकारितेति ।
तीर्थक्षेत्रोंकी तरक्की हुई है, उनमें सुविधानुसार विकास और खखुराहे को खरिडत मुनियों में से कुछ के लेख
हुया है । तब बुन्देलखण्डका यह क्षेत्र अत्यन्त दयनीय निम्न प्रकार है-१ सं० ११४२ श्री आदिनाथ स्थितिमें पड़ा हुआ है। यहांके मन्दिर कलापूर्ण और लाखोंप्रतिष्ठाकारक श्रेष्टी बीवनशाह मायों सेठानी पद्मावती! की लागतके होते हुए भी वर्तमानमें उनका बन सकना सम्भव
चौथे नं० की घेदीमें कृष्ण पाषाणको हथेली और नहीं है। अतः समाजका कर्तव्य है कि इस क्षेत्र की व्यवस्था नासिकासे खंडित जैनियोंके बीसवें नीर्थकर मुनि मुव्रतनाव सुचारु रूपसे होनी चाहिए। और ऐसा प्रयत्न होना चाहिये की एक मूर्ति है उसके लेखसे मालूम होता है कि यह जिससे जनताका उधर आकर्षण रहे । यदि हम अपने मूर्ति विक्रमकी १३ वी शताब्दीके शुरूमें प्रतिष्ठित हुई है। पूर्वजोंकी कीर्तिका मरक्षा नहीं कर सके वो जनता एमाले लेख में मूलसंघ देशीय गणके पण्डित्त नागनन्दीके शिष्य योग्यताका उपहास करेगी। पाशा है धर्मत्र मी सज्जन पं० भानुकीति और मार्यिका मेरुश्री द्वारा प्रतिष्ठित कराये
इस पोर विशेष ध्यान देनेकी कृपा करेंगे। अने का उल्लेख किया गया है । वह लेख इस प्रकार है
-परमानन्द जैन श्रीहीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन
और कुछ शंकाएँ (जुगलकिशोर मुग्तार)
गत किरणसे आगे पं० टोडरमलजी-कृत मोक्षमार्गप्रकाशकके जो वाक्य इसमें बतलाया है कि मोहान्धकाररूप अज्ञानमय मिथ्याप्रमाणरूपमें उपस्थित किए गए हैं वे प्रायः सब अप्रासंगिक वका अपहरण होने पर-उपशम. क्षय या क्षयोपशकी दशाको असंगत अथवा प्रकृत-विषयके साथ सम्बन्ध न रखनेवाले हैं। प्राप्त होने पर-पम्यग्दर्शनकी-निर्विकार दृष्टिकी-प्राप्ति होती है, क्योंकि वे द्रव्यलिंगी मुनियों तथा मिथ्याष्टि-जैनियोंको और उम दृष्टिकी प्राप्तिसे सम्यग्ज्ञानको प्राप्त हुआ जो माधुलक्ष्य करके कहे गये हैं, जबकि प्रस्तुत पूजा-दान-वनादिरूप पुरुष है वह गग-द्वेषकी निवृत्तिके लिए सम्यक्चारित्रका सराग-चरित्र एवं शुभ-भावोंका विषय सम्यचरित्रका अंग अनुप्ठान करता है। इससे स्पष्ट है कि जिस चारित्रका उकहोनेसे वैसे मुनियों तथा जैनियोंसे सम्बन्ध नहीं रखता, अन्थमें श्रागे निधान किया जा रहा है वह सम्यग्दर्शन तथा बल्कि उन मुनियों तथा जैनश्रावकोंसे सम्बन्ध रखता है जो सम्यक्ज्ञान-पूर्वक होता है-उनके विना अथवा उनसे शून्य सम्यग्दृष्टि होते हैं। इसीसे पंचमादि-गुणस्थानवर्ति-जीवोंके नहीं होता-और उसका लक्ष्य है राग-दूषकी निवृत्ति । लिये उन पूजा-दान व्रतादिका पविशेष रूपसे विधान है। अर्थात् राग-द्वेषकी निवृत्ति साध्य है और व्रतादिका पाचरण, स्वामी समन्तभद्रने,सम्यक्चारित्रक वर्णनमें उन्हें योग्य स्थान जिसमें पूजा-दान भी शामिल हैं, उसका साधन है। जबतक देते हुए, उनकी दृष्टिको निम्न वाक्यके द्वारा पहले ही स्पष्ट साध्यकी सिद्धि नहीं होती तबतक साधनको अलग नहीं किया करदिया है
जासकता-उसकी उपादेयता बराबर बनी रहती है । सिद्धत्वमोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । की प्राप्ति होने पर रगधनकी कोई आवश्यकता नहीं रहती और राग-द्वेपनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः॥ इस दृष्टिसे वह हेय ठहरता है। जैसे कोठेकी छत पर पहुंचने