Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य स्व. पूज्य गुरुदेव श्रीजोरावरमलजी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादकयुवाचार्य श्री मधुकर मुनि ज्ञाताधर्मकथा (मूल-अनुवाद-विवष्का-विष्यण-पशिष्ट युक्त) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत श्रीसुव्रतमुनि 'सत्यार्थी शास्त्री एम. ए. (हिन्दी-संस्कृत) परमपूज्य, विद्वद्वरेण्य, तत्त्ववेत्ता, प्रबुद्ध मनीषी, आगमबोधनिधि, श्रमणश्रेष्ठ, स्व. युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. 'मधुकर' जी प्राचीन विद्या के सर्वतन्त्रस्वतन्त्र प्रवक्ता थे। अापके मार्गदर्शन एवं प्रधान सम्पादकत्व में जैन आगम प्रकाशन का जो महान् श्रुत-यज्ञ प्रारम्भ हुआ, उसमें प्रकाशित श्री आचारांग, उत्तराध्ययन, व्याख्याप्रज्ञप्ति और उपासकदशांग आदि सूत्र गुरुकृपा से देखने को मिले / आगमों की सामयिक भाषा-शैली, और तुलनात्मक विवेचन एवं विश्लेषण अतीव श्रमसाध्य है। शोधपूर्ण प्रस्तावना, अनिवार्य पादटिप्पण एवं परिशिष्टों से आगमों की उपयोगिता सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार के पाठकों के लिए सुगम हो गई है तथा आधुनिक शोध-विधा के लिए अत्यन्त उपयोगी है। सभी सूत्रों की सुन्दर शुद्ध छपाई, उत्तम कागज और कवरिंग बहुत ही आकर्षक है / अतीव अल्प समय में विशालकाय 30 आगमों का प्रकाशन महत्त्वपूर्ण प्रवदान है / इसका श्रेय श्रुत-यज्ञ के प्रणेता प्रागममर्मज्ञ, पूज्यप्रवर युवाचार्य श्री जी म. को है तथापि इस महनीय श्रुत-यज्ञ में जिन पूज्य गुरुजनों, साध्वीवृन्द एवं सद्गृहस्थों ने सहयोग दिया है वे सभी अभिनन्दनीय एवं प्रशंसनीय हैं। आगम प्रकाशन समिति विशेष साधुवाद की पात्र है। For Prve & Parsonal use only . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-प्रन्थमाला: ग्रन्यांक-४ [परम श्रद्ध य गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज की पुण्यस्मृति में आयोजित] पंचम गणधर भगवत्सुधर्म-स्वामि-प्रणीत षष्ठ अंग ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र [मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, परिशिष्ट युक्त सन्निधि 0 उपप्रवर्तक शासनसेवी स्व० स्वामी श्री ब्रजलालजी महाराज प्राद्य संयोजक तथा प्रधान सम्पादक / (स्व०) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक-विवेचक---सम्पादक 0 पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल प्रकाशक . श्री आगमप्रकाशन समिति, न्यावर (राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिनांगम-प्रन्यमाला : प्रथाडू४ - परामर्श साध्वी श्री उमरावकुबर अर्चना' 1 सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनिश्री कन्हैयालाल 'कमल' उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्र भारिल्ल सम्प्रेरक मुनिश्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्र मुनि 'दिनकर' 0 द्वितीय संस्करण वीर निर्वाण सं० 2516 प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति वज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन-३०५९०१ 0 मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ - प्रियविधि) मुल्यमे 50 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Shri Joravarmalji Maharaj Fifth Ganadhar Sudharma Swami Compiled Sixth Anga NAYA DHAMMAKAHAO ( Original Text, Hindi Version, Notes, Annotation and Appendices etc.) Inspiring Soul (Late) Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Sri Brijfalji Maharaj Cossvener & Founding Editor (Late) Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar Translator & Annotator Pt. Shobhachandra Bharilla Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 4 Direction Sadhwi Umravakunwar 'Archana' Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiyalal 'Kamal' Upachrya Sri Devendramuni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharilla O Promotor Muni Sri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinakar' Second Edition Vir-nirvana Samvat 2516, Oct. 1989 Pablishers Sri Agam Prakashan Samiti, Brij-Madhukar Smriti-Bhawan, Pipalia Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305 901 Printer Satishchandra Shukla Vedic Yantralaya Kaiserganj, Ajmer PRETORIAZE, 69 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिनकी तलस्पर्शी विद्वत्ता जैन संघ में विश्रुत है, अनेकानेक दशाब्दियाँ जिनके उज्ज्वल आचार की साक्षी हैं, जो आगम-ज्ञान के विशाल भण्डार हैं, बहुभाषाविज्ञ हैं, ज्योतिष शास्त्र के मर्मज्ञ आचार्य हैं, जिनका हृदय नवनीत-सा मृदुल एवं मधुर है, जिनके व्यवहार में असाधारण सौजन्य झलकता है, संघ जिनके लोकोत्तर उपकारों से ऋणी है, उन महास्थविर श्रमणसंघरत्न पण्डितप्रवर उपाध्याय श्री कस्तूरचन्द्रजी महाराज के कर-कमलों में - मधुकर मुनि (प्रथम संस्करण से) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्रमण भगवान महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के पावन प्रसंग को स्मरणीय बनाने के लिए एक उत्साहपूर्ण वातावरण निर्मित हया था / शासकीय एवं सामाजिक स्तर पर विभिन्न योजनायें बनीं। उसमें भगवान महावीर के लोकोत्तर जीवन और उनकी कल्याणकारी शिक्षाओं से सम्बन्धित साहित्य प्रकाशन को प्रमुखता दी गई थी। स्वर्गीय श्रद्धेय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. सा. ने विचार किया कि अन्यान्य प्राचार्यों द्वारा रचित साहित्य को प्रकाशित करने के बजाय प्रागमों के रूप में उपलब्ध भगवान् की साक्षात् देशना का प्रचार-प्रसार करना विश्वकल्याण का प्रमुख कार्य होगा। युवाचार्य श्री जी को इस विचार का चविध संघ ने सहर्ष समर्थन किया और पागम बत्तीसी के प्रकाशित करने की घोषणा कर दी। शुद्ध मूलपाठ व सरल सुबोध भाषा में अनुवाद, विवेचन युक्त आगमों का प्रकाशन प्रारम्भ होने पर दिनोंदिन पाठकों की संख्या में वद्धि होती गयी तथा अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी समिति के प्रकाशित प्रागम ग्रन्थों के निर्धारित होने से शिक्षार्थियों की भी मांग बढ़ गई / इस कारण प्रथम संस्करण की अनुमानित संख्या से अधिक मांग होने एवं देश-विदेश के सभी ग्रन्थभंडारों, धर्मस्थानों में प्रागमसाहित्य को उपलब्ध कराने के विचार से अनुपलब्ध प्रागमों के पुनर्मुद्रण कराने का निश्चय किया गया। तदनुसार अभी तक आचारांगसूत्र, प्रथम भाग, उपासकदशांगसूत्र के द्वितीय संस्करण प्रकाशित हो गये हैं और अब ज्ञातधर्मकथांगसूत्र का प्रकाशन हो रहा है / समय क्रम से अन्य आगमों के भी द्वितीय संस्करण प्रकाशित किये जायेंगे। प्रबुद्ध संता, विद्वानों और समाज ने प्रकाशनों की प्रशंसा करके हमारे उत्साह का संवर्धन किया है और सहयोग दिया है, उसके लिए आभारी हैं तथा पाठकों से अपेक्षा है कि प्रागम साहित्य का अध्ययन करके जिनवाणी के प्रचार-प्रसार में सहयोगी बनेंगे। इसी प्राशा और विश्वास के साथ रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष सायरमल चोरडिया महामंत्री श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर अमरचन्द मोदी मंत्री Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर (कार्यकारिणी समिति) अध्यक्ष कार्यवाहक अध्यक्ष उपाध्यक्ष महामंत्री मंत्री पाली सहमंत्री कोषाध्यक्ष सलाहकार श्री किशनलालजी बेताला मद्रास श्री रतनचन्दजी मोदी ब्यावर श्री धनराजजी बिनायकिया व्यावर श्री पारसमलजी चोरडिया मद्रास श्री हुक्मीचन्दजी पारख जोधपुर श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया मद्रास श्री जसराजजी पारख श्री सायरमलजी चोरडिया मद्रास श्री अमरचन्दजी मोदी व्यावर श्री ज्ञानराजजी मूथा श्री ज्ञानचन्दजी बिनायकिया ब्यावर श्री जंवरीलालजी शिशोदिया ब्यावर श्री अमरचन्दजी बोथरा मद्रास श्री जालमसिंहजी मेड़तवाल ब्यावर श्री प्रकाशचन्दजी जैन नागौर 1. श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया मद्रास 2. श्री मूलचन्दजी सुराणा नागौर 3. श्री दुलीचन्दजी चोरडिया मद्रास 4. श्री प्रकाशचन्दजी चोपड़ा ब्यावर 5. श्री मोहनसिंहजी लोढ़ा ब्यावर 6. श्री सागरमलजी बेताला इन्दौर 7. श्री जतनराजजी मेहता / मेड़तासिटी 8. श्री भंवरलालजी श्रीश्रीमाल 9. श्री चन्दनमलजी चोरडिया मद्रास 10. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया जोधपुर 11. श्री प्रासूलालजी बोहरा महामन्दिर-जोधपुर सदस्य Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय : यत्किञ्चित ज्ञाताधर्मकथाङ्ग द्वादशांगी में छठा अंग है और कथाप्रधान है। यद्यपि अन्तगड, अनुत्तरोवाइय तथा विपाक प्रादि अंग भी कथात्मक ही हैं तथापि इन सब अंगों की अपेक्षा ज्ञाताधर्मकथा का अपना एक विशिष्ट स्थान है। कहना चाहिए कि यह अंग एक प्रकार से पाकर अंग है / यद्यपि प्रस्तुत अंग में भी प्रोपपातिक, राजप्रश्नीय आदि अंगों के अनुसार अनेक प्ररूपणाएँ-विशेषत: राजा, रानी, नगर पादि को जान लेने के उल्लेख-स्थान-स्थान पर उपलब्ध होते हैं, फिर भी अनेक कथा-प्रागमों में ज्ञातासूत्र का ही प्रचुरता से उल्लेख हुआ है / अतएव आकरअंगों में प्रस्तुत सूत्र की गणना करना अनुचित नहीं, सर्वथा उचित ही है। ज्ञाताधर्मकथांग की भाषा भी पूर्वोक्त अंगों की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ और साहित्यिक है / जटिलता लिए हुए है। अनेक स्थल ऐसे भी इसमें हैं जहाँ बड़ी हृदयहारी आलंकारिक भाषा का प्रयोग किया गया है और उसे पढ़ते समय ऐसा प्राभास होता है कि हम किसी कमनीय काव्य का रसास्वादन कर रहे हैं / आठवें अध्ययन में वर्णित अर्हन्नक श्रमणोपासक की समुद्रयात्रा के प्रसंग में ताल पिशाच द्वारा किये गये उपसर्ग का वर्णन है और नौका के डूबने-उतराने का जो वर्णन किया गया है, वह अत्यन्त रोचक है। उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकार वहाँ मन को मोह लेते हैं / अन्यत्र ज्ञाताधर्मकथासूत्र की कथानों में अवान्तर कथानों का उल्लेख मिलता है, वे सब कथाएँ आज उपलब्ध नहीं हैं तथापि उनकी एक स्पष्ट झलक पाज भी देखी जा सकती है और वे अवान्तर कथाएँ लगभग सर्वत्र विद्यमान हैं। प्रथम अध्ययन में मेघकूमार की कथा के अन्तर्गत उसके पूर्वभवों की कथाएँ हैं तो द्वितीय अध्ययन में धन्य सार्थवाह की कथा में विजय चोर की कथा गभित है। अष्टम अध्ययन में तो अनेकानेक अवान्तर कथाएँ आती हैं। उनमें एक बड़ी ही रोचक कथा कपमंडक की भी है। नौवें माकन्दी अध्ययन में प्रधान कथा माकन्दीपूत्रों की है, मगर उसके अन्तर्मत रत्नद्वीप की रत्ना देवी और शूली पर चढ़े पुरुष की भी कथा है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भी ऐसी कथाएँ खोजी जा सकती हैं। उदाहरण के रूप में ही यहां अवान्तर कथाओं का उल्लेख किया जा रहा है। प्रागम का सावधानी के साथ पारायण करने वाले पाठक स्वयं ऐसी कथाओं को जान-समझ सकेंगे, ऐसी आशा है। प्रस्तुत प्रागम दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। टीकाकार के अनुसार प्रथम श्रुतस्कन्ध में जो कथाएँ हैं, वे ज्ञात अर्थात उदाहरण हैं और दूसरे श्रुतस्कन्ध की कथाएँ धर्मकथाएँ हैं। अनेक स्थलों पर टीकाकार का यही अभिमत उल्लिखित हया है। टीकाकार श्री अभयदेवसूरि ने अपनी टीका के प्रारम्भ में इस प्रकार लिखा है 'नायाणि त्ति ज्ञातानि उदाहरणानीति प्रथमश्रुतस्कन्धः, धम्मकहानो-धर्मप्रधाना: कथाः धर्मकथाः / ज्ञातता चास्यवं भावनीया-दयादिगुणवन्त: सहन्त एव देहकष्टं उत्क्षिप्तकपादो मेधकुमारजीवहस्तीवेति / ' तात्पर्य यह है कि 'नाय' का संस्कृत रूप 'ज्ञात' है और ज्ञात का अर्थ है उदाहरण / इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कन्ध 'ज्ञात' है / इसे ज्ञात (उदाहरण) रूप किस प्रकार माना जाय ? इस प्रश्न का समाधान यह दिया गया है कि जिनमें दया आदि गुण होते हैं वे देह-कष्ट सहन करते ही हैं, जैसे एक पैर ऊपर उठाए रखने वाला मेघकुमार का जीव हाथी / इस प्रकार प्रथम अध्ययन का उदाहरण के रूप में उपसंहार करने का समर्थन किया गया है। अन्य अध्ययनों को भी इसी प्रकार उदाहरण के रूप में समझ लेना चाहिए। दूसरे श्रुतस्कन्ध में टीकाकार का कथन है कि धर्मप्रधान कथाओं को धर्मकथा जानना चाहिए / Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात और धर्मकथा का जो पृथक्करण टीकाकार ने किया है, वह पूरी तरह समाधानकारक नहीं है। क्या प्रथम श्रुतस्कन्ध की कथाओं को धर्मप्रधान कथाएँ नहीं कहा जा सकता? यदि वे भी धर्मप्रधान कथा और वस्तुतः उनमें धर्म की प्रधानता है ही-तो उन्हें धमकथा क्यों न माना जाय ? यदि उन्हें भी धर्मकथा मान लिया जाता है तो फिर उक्त पृथक्करण ठीक नहीं बैठता। ऐसी स्थिति में सुत्र का नाम 'ज्ञाताधर्मकथा' के बदले 'धर्मकथा' ही पर्याप्त ठहरता है, क्योंकि दोनों श्रतस्कन्धों में धर्मकथाएं ही हैं। इसके अतिरिक्त, दूसरे श्रुतस्कन्ध में जो धर्मकथाएं हैं, क्या उनका उपसंहार मेघकूमार की कथा के समान ज्ञात-उदाहरण रूप में नहीं किया जा सकता ? अवश्य किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में दोनों श्रुतस्कन्ध 'ज्ञात' ही बन जाते हैं और उक्त पृथक्करण बिगड़ जाता है। अतएव प्रथम श्रुतस्कन्ध में ज्ञात और दूसरे श्रुतस्कन्ध में धर्मकथाएं होने से प्रस्तुत अंग का नाम 'ज्ञाताधमंकथा' अथवा 'नायाधम्मकहानो' है, यह अभिमत चिन्तनीय बन जाता है। इस विषय में एक तथ्य और उल्लेखनीय है। श्री अभयदेवसूरि ने यह भी उल्लेख किया है कि प्राकृतभाषा होने के कारण 'नाय' के स्थान पर दीर्घ 'पा' हो जाने से 'नाया हो गया है / यह तो यथार्थ है किन्तु जब 'नायाधम्मकहानो' का संस्क्रतरूपान्तर 'ज्ञाताधर्मकथा' किया गया तो 'ज्ञात' का 'ज्ञाता' कैसे हो गया, इसका कोई समाधान सूरिजी ने नहीं किया है। किन्तु उन्होंने भी अपनी टीका की प्रादि और अन्त में 'ज्ञाताधर्मकथा' शब्द का ही प्रयोग किया है-- ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्यानुयोगः कश्चिदुच्यते / -~-मंगलाचरणश्लोक शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणा विवृत्तिः कृता। ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य श्रुतभक्त्या समासतः।। -अन्तिम प्रशस्ति प्रस्तुत प्रागम के नाम एवं उसके अर्थ के सम्बन्ध में अनेक प्रश्नों का समाधान होना अब भी शेष है। यद्यपि समवायांगटीका में इसके समाधान का प्रयत्न किया गया है, परन्तु वह सन्तोषजनक नहीं है। प्रस्तावनालेखक विद्वद्वर श्रीदेवेन्द्र मुनिजी ने अपनी विस्तृत प्रस्तावना में इस सम्बन्ध में भी गहरा ऊहापोह किया है। अतएव हम इस विषय को यहीं समाप्त करते हैं। वास्तव में मुनिश्री ने प्रस्तुत आगम की विस्तारपूर्ण प्रस्तावना लिख कर मेरा बड़ा उपकार किया है। मेरा सारा भार हल्का कर दिया है। उस प्रस्तावना से मुनिश्री का विशाल अध्ययन तो विदित होता ही है, गम्भीर चिन्तन भी प्रतिफलित होता है। उन्होंने प्रस्तुत आगम के विषय में सर्वांगीण विचार प्रस्तुत किए है। प्रागम में आई हुई नगरियों आदि का ऐतिहासिक दृष्टि से परिचय देकर अनेक परिशिष्टों के श्रम से भी मुझे बचा लिया है। मैं उनका बहुत आभारी हूँ। अनुवाद और सम्पादन के विषय में किंचित उल्लेख करके ही मैं अपना वक्तव्य समाप्त करूंगा। श्रमणसंघ के युवाचार्य पण्डितवर्य मुनि श्री मिश्रीमलजी म. के नेतृत्व में प्रागमप्रकाशन समिति ने प्रायमों का मूलपाठ के साथ हिन्दी संस्करण प्रकाशित करना प्रारम्भ किया है / यह एक सराहनीय प्रयत्न है। इस पुनीत प्रायोजन में मुझे जो सहयोग देने का सद्भाग्य प्राप्त हुआ। उसके प्रधान कारण ग्रागमग्रन्थमाला के प्रधान सम्पादक मधुकर मुनिजी हैं। ज्ञाताधर्मकथा का सन् 1964 में मैंने एक संक्षिप्त अनुवाद किया था जो श्री तिलोक-रत्न स्था. जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड पाथर्डी से प्रकाशित हया था। वह संस्करण विशेषत: छात्रों को लक्ष्य करके सम्पादित और प्रकाशित किया गया था। प्रस्तुत संस्करण सर्वसाधारण स्वाध्यायप्रेमी एवं जिज्ञासूमों को ध्यान में रख कर समिति Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा निर्धारित पद्धति का अनुसरण करते हए तैयार किया गया है। इसमें स्थान-स्थान पर 'जाव' शब्द का प्रयोग करके इसी ग्रन्थ में अन्यत्र पाए पाठों को तथा अन्य भागमों में प्रयुक्त पाठों को संक्षिप्त करने का प्रयास किया गया है। फिर भी ग्रन्थ अपने आप में बहदाकार है। अतएव ग्रन्थ अत्यधिक स्थूलकाय न बन जाए, यह बात ध्यान में रख कर 'जाव' शब्द से ग्राह्य आवश्यक और प्रत्युपयोगी पाठों को बकेट में दे दिया गया है, किन्तु जिस 'जाव' शब्द से ग्राह्य पाठ वारंवार पाते ही रहते हैं, जैसे 'मित्त-णाई', अन्नं पाणं, प्रादि वहाँ अति परिचित होने के कारण यों ही रहने दिया गया / कहीं-कहीं उन पाडों के स्थान टिप्पणों में उल्लिखित कर दिए हैं। __कथात्मक होने से प्रस्तुत ग्रन्थ के प्राशय को समझ लेना कठिन नहीं है। अतएव प्रत्येक सूत्र-कंडिका का विवेचन करके ग्रन्थ को स्थूलकाय बनाने से बचा गया है, परन्तु जहाँ प्रावश्यक प्रतीत हुअा वहाँ विवेचन किया गया है। __ प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ से पूर्व उसका वास्तविक रहस्य पाठक को हृदयंगम कराने के लक्ष्य से सार संक्षेप में दिया गया है। अावश्यक टिप्पण और पाठान्तर भी दिए गए हैं। अनेक स्थलों में मूलपाठ के 'जाव' शब्द का 'यावत्' रूप हिन्दी-अनुवाद में भी प्रयुक्त किया गया है। यद्यपि प्रचलित भाषा में ऐसा प्रयोग नहीं होता किन्तु प्राकृत नहीं जानने वाले और केवल हिन्दी-अनुवाद पढ़ने वाले पाठकों को भी प्रागमिक भाषापद्धति का किंचित् आभास हो सकेगा, इस दृष्टिकोण से अनुवाद में 'यावत्' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'यावत' शब्द का अर्थ है—पर्यन्त या तक / जिस शब्द या वाक्य से आगे जाव (थावत) शब्द का प्रयोग हुया है, वहां से प्रारम्भ करके जिस शब्द के पहले वह हो, उसके बीच का पाठ यावत् शब्द से समझा जाता है / इस प्रकार पुनरुक्ति से बचने के लिए 'जाव' शब्द का प्रयोग किया जाता है / __अन्त में तीन परिशिष्ट दिए गए हैं। प्रथम परिशिष्ट में उपनय-गाथाएँ दी गई हैं और उनका हिन्दी भाषा में अर्थ भी दे दिया गया है / ये गाथाएँ मूल आगम का भाग नहीं हैं, अतएव इन्हें मूल से पृथक रक्खा गया है। फिर भी अध्ययन का मर्म प्रकाशित करने वाली हैं, अतएव पठनीय हैं। दूसरे परिशिष्ट में प्रस्तुत प्रागम में युक्त व्यक्तिविशेषों की प्रकारादि क्रम से सूची दी गई है और तीसरे मैं स्थल-विशेषों की सूची है जो अनुसंधानप्रेमियों के लिए विशेष उपयोगी होगी। मूलपाठ के निर्धारण में तथा 'जाव' शब्द की पूर्ति में मुनि श्री नथमलजी म. द्वारा सम्पादित अंगसूत्ताणि' का अनेकानेक स्थलों पर उपयोग किया गया है, एतदर्थ उनके श्राभारी हैं। अर्थ करने में श्री अभयदेवसूरि की टीका का अनुगमन किया गया है / इनके अतिरिक्त अनेक प्रागमों और ग्रन्थों से सहायता ली गई है, उन सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना कर्तव्य है। प्राशा है प्रस्तुत संस्करण जिज्ञासु स्वाध्यायप्रेमियों, आगम-सेवियों तथा छात्रों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। चम्पानगर ---शोभाचन्द्र भारिल्ल ब्यावर Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख (प्रथम संस्करण से) जैनधर्म, दर्शन व संस्कृति का मूल प्राधार वीतराग सर्वज्ञ की वाणी है। सर्वज्ञ अर्थात् प्रात्मद्रष्टा / सम्पूर्ण रूप से प्रात्मदर्शन करने वाले हो विश्व का समग्र दर्शन कर सकते हैं / जो समग्न को जानते हैं, वे ही तत्त्वज्ञान का यथार्थ निरूपण कर सकते हैं। परमहितकर निःश्रेयस् का यथार्थ उपदेश कर सकते हैं। सर्वज्ञों द्वारा कथित तत्त्वज्ञान, प्रात्मज्ञान तथा प्राचार-व्यवहार का सम्यक परिबोध 'प्रागम', शास्त्र या सूत्र के नाम से प्रसिद्ध है। तीथंकरों की वाणी मूक्त सूमनों की वृष्टि के समान होती है, महान् प्रज्ञावान् गणधर उसे सूत्र रूप में ग्रथित करके व्यवस्थित 'प्रागम' का रूप दे देते हैं।' आज जिसे हम 'पागम' नाम से अभिहित करते हैं, प्राचीन समय में वे 'गणिपिटक' कहलाते थे / 'गणिपिटक' में समग्र द्वादशांगी का समावेश हो जाता है / पश्चाद्वर्ती काल में इसके अंग, उपांग, मूल, छेद, आदि अनेक भेद किये गये। जब लिखने की परम्परा नहीं थी, तब प्रागमों को स्मृति के आधार पर या गुरु-परम्परा से सुरक्षित रखा जाता था / भगवान् महावीर के बाद लगभग एक हजार वर्ष तक 'पागम' स्मृति-परम्परा पर ही चले आये थे। स्मृतिदुर्बलता, गुरुपरम्परा का विच्छेद तथा अनेक कारणों से धीरे-धीरे आगमज्ञान भी लुप्त होता गया। महासरोवर का जल सूखता-सूखता गोष्पद मात्र ही रह गया। तब देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने श्रमणों का सम्मेलन बुलाकर स्मृति-दोष से लुप्त होते पागमज्ञान को, जिनवाणी को सुरक्षित रखने के पवित्र उद्देश्य से लिपिबद्ध करने का ऐतिहासिक प्रयास किया और जिनवाणी को पुस्तकारूढ करके आने वाली पीढ़ी पर अवर्णनीय उपकार किया। यह जैनधर्म, दर्शन एवं संस्कृति की धारा को प्रवहमान रखने का अदभुत उपक्रम था। प्रागमों का यह प्रथम सम्पादन वीरनिर्वाण के 980 या 993 वर्ष पश्चात सम्पन्न हुश्रा / पुस्तकारूढ होने के बाद जैन प्रागमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित हो गया, किन्तु कालदोष, बाहरी आक्रमण, प्रान्तरिक मतभेद, विग्रह, स्मृति-दुर्बलता एवं प्रमाद प्रादि कारणों से प्रागमज्ञान को शुद्ध धारा, अर्थबोध की सम्यक् मुरु-परम्परा धीरे-धीरे क्षीण होने से नहीं रुकी। प्रागमों के अनेक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ, पद तथा गूढ अर्थ छिन्न-विच्छिन्न होते चले गए। जो आगम लिखे जाते थे, वे भी पूर्ण शुद्ध नहीं होते थे। उनका सम्यक अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही रहे। अन्य भी अनेक कारणों से आगम-ज्ञान की धारा संकुचित होती गयी। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लोकाशाह ने एक क्रांतिकारी प्रयत्न किया। आगमों के शुद्ध और यथार्थ अर्थ-ज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पूनः चाल हुया। किन्तु विक्रम की 1. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं / Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ काल बाद पुन: उसमें भी व्यवधान प्रा गए। साम्प्रदायिक द्वेष, सैद्धान्तिक विग्रह तथा लिपिकारों की भाषाविषयक अल्पज्ञता प्रागमों की उपलब्धि तथा उनके सम्यक अर्थबोध में बहुत बड़ा विध्न बन गए। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब पागम-मुद्रण की परम्परा चली तो पाठकों को कुछ सुविधा हुई। भागमों की प्राचीन टीकाएँ, चूणि व नियुक्ति जब प्रकाशित हुई तथा उनके आधार पर प्रागमों का सरल व स्पष्ट भावबोध मुद्रित होकर पाठकों को सुलभ हुआ तो पागमज्ञान का पठन-पाठन स्वभावत: बढ़ा, सैकड़ों जिज्ञासूनों में प्रागम-स्वाध्याय की प्रवृत्ति जगी व जैनेतर देशी-विदेशी विद्वान भी पागमों का अनुशीलन करने लगे। प्रागमों के प्रकाशन-सम्पादन-मुद्रण के कार्य में जिन विद्वानों तथा मनीषी श्रमणों ने ऐतिहासिक कार्य किया, पर्याप्त सामग्री के अभाव में आज उन सबका नामोल्लेख कर पाना कठिन है / फिर भी मैं स्थानकवासी परम्परा के कुछ महान् मुनियों का नाम ग्रहण अवश्य ही करूंगा। __पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज स्थानकवासी परम्परा के महान साहसी व दृढ़संकल्पबली मुनि थे, जिन्होंने अल्प साधनों के बल पर भी पूरे बत्तीस सूत्रों को हिन्दी में अन दित करके जन-जन को सुलभ बना दिया। पूरी बत्तीसी का सम्पादन, प्रकाशन एक ऐतिहासिक कार्य था, जिससे सम्पूर्ण स्थानकवासी व तेरापंथी समाज उपकृत हमा / गुरुदेव पूज्य स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज का एक संकल्प : मैं जब गुरुदेव स्व. स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज के तत्त्वावधान में आगमों का अध्ययन कर रहा था तब प्रागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित कुछ आगम उपलब्ध थे। उन्हीं के आधार पर गुरुदेव मुझे अध्ययन कराते थे। उनको देखकर गुरुदेव को लगता था कि यह संस्करण यद्यपि काफी श्रम-साध्य है, एवं अब तक के उपलब्ध संस्करणों में काफी शृद्ध भी हैं, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट हैं। मूल पाठ में एवं उसकी वृत्ति में कहीं-कहीं अन्तर भी है, कहीं वृत्ति बहुत संक्षिप्त है। गुरुदेव स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज स्वयं जैन सूत्रों के प्रकाण्ड पण्डित थे / उनकी मेधा बड़ी व्युत्पन्न व तर्कणा-प्रधान थी। प्रागमसाहित्य की यह स्थिति देखकर उन्हें बहुत पीड़ा होती और कई बार उन्होंने व्यक्त भी किया कि प्रागमों का शुद्ध, सुन्दर व सर्वोपयोगी प्रकाशन हो तो बहुत लोगों का कल्याण होगा, कुछ परिस्थितियों के कारण उनका संकल्प, मात्र भावना तक सीमित रहा। इसी बीच प्राचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज, जैनधर्मदिवाकर प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी महाराज, पूज्य श्री घासीलालजी महाराज प्रादि विद्वान् मुनियों ने प्रागमों की सुन्दर व्याख्याएँ व टीकाएँ लिखकर अथवा अपने तत्त्वावधान में लिखाकर इसी कमी को पूरा किया है। वर्तमान में तेरापंथ सम्प्रदाय के प्राचार्य श्री तुलसी ने भी यह भगीरथ प्रयत्न प्रारम्भ किया है और अच्छे स्तर से उनका प्रागम-कार्य चल रहा है। मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' प्रागमों की वक्तव्यता को अनुयोगों में वर्गीकृत करने का मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण प्रयास कर Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के विद्वान् श्रमण स्व. मुनि श्री पुण्यविजयजी ने प्रागम. सम्पादन की दिशा में बहुत ही व्यवस्थित व उत्तमकोटि का कार्य प्रारम्भ किया था। उनके स्वर्गवास के पश्चात् मुनि श्री जम्बूविजयजी के तत्वाधान में यह सुन्दर प्रयत्न चल रहा है। उक्त सभी कार्यों का विहंगम अवलोकन करने के बाद मेरे मन में एक संकल्प उठा। अाज कहीं तो प्रागमों का मूल मात्र प्रकाशित हो रहा है और कहीं आगमों की विशाल व्याख्याएँ की जा रही हैं। एक, पाठक के लिए दुर्बोध है तो दूसरी जटिल। मध्यम मार्ग का अनुसरण कर प्रागमवाणी का भावोद्घाटन करने वाला ऐसा प्रयत्न होना चाहिए जो सुबोध भी हो, सरल भी हो, संक्षिप्त हो पर सारपूर्ण व सुगम हो / गुरुदेव ऐसा ही चाहते थे। उसी भावना को लक्ष्य में रखकर मैंने 4-5 वर्ष पूर्व इस विषय में चिन्तन प्रारम्भ किया / सुदीर्घ चिन्तन के पश्चात वि. सं 2036 वैशाख शुक्ला 10 महावीर कैवल्यदिवस को दढ निर्णय करके आगम-बत्तीसी का सम्पादन-विवेचन कार्य प्रारम्भ कर दिया और अब पाठकों के हाथों में प्रागम-ग्रन्थ क्रमशः पहुंच रहे हैं, इसकी मुझे अत्यधिक प्रसन्नता है। प्रागम-सम्पादन का यह ऐतिहासिक कार्य पूज्य गुरुदेव की पुण्यस्मृति में प्रायोजित किया गया है। ग्राज उनका पुण्यस्मरण मेरे मन को उल्लसित कर रहा है। साथ ही मेरे वन्दनीय गुरुभ्राता पूज्य स्वामी श्री हजारीमलजी महाराज की प्रेरणाएँ---उनकी प्रागम-भक्ति तथा प्रामम सम्बन्धी तलस्पर्शी ज्ञान, प्राचीन धारणाएँ, मेरा सम्बल बनी हैं। अत: मैं उन दोनों स्वर्गीय प्रात्मानों की पुण्यस्मृति में विभोर हूँ। शासनसेवी स्वामीजी श्री ब्रजलालजी महाराज का मार्गदर्शन, उत्साह-संवर्द्धन, सेवाभावी शिष्य मुनि विनयकुमार व महेन्द्र मुनि का साहचर्य-बल; सेवा-सहयोग तथा महासती श्री कानकुंवर जी, महासती श्री झणकारकुरजी, परमविदुषी साध्वी श्री उमरावकुंवर जी, 'अर्चना' --की विनम्र प्रेरणाएँ मुझे सदा प्रोत्साहित तथा कार्यनिष्ठ बनाये रखने में सहायक रही हैं। मुझे दृढ विश्वास है कि प्रागम-बाणी के सम्पादन का यह सुदीर्घ प्रयल-साध्य कार्य सम्पन्न करने में मुझे सभी सहयोगियों, श्रावकों व विद्वानों का पूर्ण सहकार मिलता रहेगा और मैं अपने लक्ष्य तक पहुंचने में गतिशील बना रहूँगा। इसी प्राशा के साथ....... -मुनि मिश्रीमल 'मधुकर Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण के अर्थ सहयोगी श्रीमान सेठ खींवराजजी चोरडिया [ जीवन-रेखा ] राजस्थान के गौरवास्पद व्यवसायी, स्थानकवासी जैनसमाज को अन्यतम विभूति, धर्मनिष्ठ सेठ श्री खींवराजजी सा. चोरडिया का जन्म राजस्थान के ग्राम नोखा–चान्दावतों का----में ई. सन 1914 को हरा। प्रापके पूज्य पिताश्री मिरेमलजी सा. और माता सायबकुंवरजी के धार्मिक संस्कार प्रापको उत्तराधिकार के रूप प्त हुए हैं। प्रापके ज्येष्ठतम भ्राता सेठ होराचंदजी सा. ज्येष्ठ भ्राता पद्मश्री सेठ मोहनमलजी सा. तथा श्री माणकचंदजी सा. है / अापके सुपुत्र श्री देवराजजी और श्री नवरत्नमलजी हैं। अनेक पौत्रों और पौत्रियों से हरा-भरा पापका यह बृहत् परिवार समाज के लिए धर्मनिष्ठा की दृष्टि से प्रादर्श है / चोरडियाजी की धर्मपत्नी श्रीमती भंवरीबाई धर्मश्रद्धा की प्रतिमूर्ति एवं तपस्विनी भी हैं। प्रापने शारीरिक स्वास्थ्य साधारण होते हए भी अपने प्रबल प्रात्मबल के आधार पर वर्षी तप की आराधना की है, जिसका उद्यापन बड़ी ही धमधाम से नोखा में किया था / वर्षी तप के उपलक्ष्य में लाखों की राशि दान में दी गई थी। श्री चोरडियाजी का विशाल व्यवसाय मद्रास नगर में है। व्यापारिक समाज में प्रापका वर्चस्व है। व्यापारियों में आप एक प्रकार से राजा कहलाते हैं / आपके व्यवसाय इस प्रकार है १-खींवराज मोटर्स प्रा. लि. मावर रोड, मद्रास २-फाइनेन्सर्स ३-खींवराज मोटर्स बैंगलूर---प्रोटोमोबाइल्स एजेन्सी ४-राज मोटर्स-~-मोटर साइकिल एजेन्सी ५-जमीन-जायदाद का व्यवसाय ६-दी भवानी मिल्स लिमि. (धागे को मिल) (चेयरमेन) 7- श्रीविग केमिकल (चेयरमेन) इसके अतिरिक्त प्रापकी मद्रास, जोधपुर तथा नोखा आदि में विपुल स्थावर सम्पत्ति है। किन्तु यह न समझा जाये कि आपका जीवन व्यवसाय के लिए ही समर्पित है / धार्मिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी प्राप तन, मन और धन से महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं। निम्नलिखित तालिका से यह कथन स्पष्ट हो जाता है। वर्तमान में प्रापका नि. लि. संस्थानों के साथ घनिष्ठ सम्पर्क है १-माप स्थानकवासी जैन संघ के उपाध्यक्ष हैं। २-श्री वर्धमान सेवासमिति, नोखा के अध्यक्ष हैं। ३-दयासदन, मद्रास के अध्यक्ष हैं / ४-मुनि श्रीहजारीमलजी म. सा. ट्रस्ट, नोखा के ट्रस्टी हैं। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-श्री जैन एजुकेशन सोसाइटी के पेटनं हैं। ६--श्री जयमल जैन छात्रावास के सदस्य हैं। 7 -- श्री एस. एस. जैन महिलासंघ के अध्यक्ष हैं। ......श्री दक्षिण भारत स्वाध्याय समिति मद्रास के सदस्य हैं। उल्लिखित संस्थानों के साथ संबद्ध होने के साथ-साथ आपने स्वयं अपने उदार दान से नि. लि. संस्थानों की स्थापना भी की है-- १-खींवराज चोरडिया डिस्पेन्सरी, मावर रोड, मद्रास २-खींवराज चोरडिया चेरेटेबिल ट्रस्ट, मद्रास ३–श्रीमती भंवरीकुंवर चोरडिया चेरेटेबिल, मद्रास इस संक्षिप्त परिचय से ही पाठक समझ सकेंगे कि सेठ खींवराजजी का जीवन कितना बहुमुखी है। विशेषत: उल्लेखनीय ग्रह है कि चोरडियाजी अतीव भाग्यशाली हैं / वे लक्ष्मी के पीछे नहीं दौड़ते, लक्ष्मी उनके पीछे दौड़ती है। जब, जहाँ, जिस व्यवसाय में हाथ डालते हैं, पूर्ण सफलता आपका स्वागत करने के लिए सन्नद्ध रहती है। इतना सब होते हुए भी चोरडियाजी बहुत सादगी-पसन्द, सौजन्यमूत्ति, भद्रहृदय, अत्यल्पभाषी और प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी हैं। उल्लेख करते हुए अत्यन्त प्रसन्नता है कि प्रस्तुत शास्त्र 'ज्ञाताधर्मकथा' के प्रकाशन का व्यय-भार प्रापने ही वहन किया है। इस उदारता के लिए समिति प्रापकी अतीव प्राभारी है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (प्रथम संस्करण से) धर्म, दर्शन, समाज और संस्कृति का भव्य प्रासाद उनके मूल-भूत ग्रंथों की गहरी नींव पर टिका हुआ है। विश्व में जितने भी धर्म और संप्रदाय हैं उनके वरिष्ठ महापुरुषों ने, प्रवर्तको ने जो पावन उपदेश प्रदान किये वे उपदेश वेद, त्रिपिटक, बाइबिल, कुरान या गणिपिटक के रूप में जाने और पहचाने जाते हैं। उन्हीं ग्रंथों को केन्द्र बनाकर विश्व के धर्म और दर्शन विकसित हए हैं। वेद और आगम बाह्मण संस्कृति के मूल-भूत अन्य वेद हैं। वेद वैदिक चिन्तकों के विचारों की प्रमूल्य निधि हैं। ऋग्वेद आदि की विज्ञगण विश्व के प्राचीनतम साहित्य में परिगणना करते हैं। ब्राह्मण मनीषियों ने वेदों के शब्दों की सुरक्षा का अत्यधिक ध्यान रखा है / कहीं वेदमन्त्र के शब्द इधर-उधर न हो जायें, इसके लिए वे सतत जागरूक रहे। वेदों के शब्दों में मन्त्रशक्ति का प्रारोप करने से उनमें शब्दपरिवर्तन नहीं हए / क्योंकि वैदिक विज्ञों ने संहितापाठ, पादपाठ, पपाठ, जटापाठ, धनपाठ के रूप में वेदमन्त्रों के पठन और उच्चारण का एक वैज्ञानिक क्रम बनाया था, जिसके कारण वेदों का शाब्दिक कलेवर वर्तमान में ज्यों का त्यों विद्यमान है / पर बौद्ध और जैन चिन्तकों ने शब्दों की अोर अधिक लक्ष्य न देकर अर्थ पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने अर्थ की किंचित मात्र भी उपेक्षा नहीं की, जिससे जैन प्रागम और बौद्ध त्रिपिटकों में अनेक पाठान्तर उपलब्ध होते हैं। विविध पाठान्तरों के होने पर भी अर्थ के सम्बन्ध में मतभेद नहीं है। जैन और बौद्ध शास्त्रों में मन्त्रशक्ति का प्रारोप नहीं किया गया। इसलिए भी उनमें शब्द-परिवर्तन होते रहे हैं। जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य का जब हम तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करते हैं तो यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि वेद एक ऋषि के द्वारा निर्मित नहीं हैं, अपितु अनेक ऋषियों ने समय-समय पर मन्त्रों की रचनाएँ की हैं, जिसके कारण वेदों में विचारों की विविधता है। सभी ऋषियों के विचारों में एकरूपता हो, यह कभी संभव नहीं है। वैदिक मान्यतानुसार ऋषिगण मन्त्रद्रष्टा थे, मन्त्रस्रष्टा नहीं थे, उन्होंने अपने अन्तश्चक्षों से जो देखा और परखा उसे शब्दों में अभिव्यंजना दी थी। पर जैन आगम और बौद्ध त्रिपिटक श्रमण भगवान् महावीर और तथागत बुद्ध के चिन्तन का ही मूर्त रूप हैं। उनके प्रवक्ता एक ही हैं, इसलिए उनमें विभिन्नता नहीं आई है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वेद में ऋषियों के ही शब्द हैं जब कि जैन आगमों में तीर्थंकरों के शब्द नहीं हैं। तीर्थकर तो अर्थ रूप में अपना प्रवचन करते हैं, शब्द रूप में सूत्रबद्ध रचना गणधर करते हैं। अत: जैन प्रागम के शब्द गणधरों के हैं 1. प्रावश्यकनियुक्ति गा० 192 (ख) धवला भा. 1. 64-72. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरों के नहीं। जैन परम्परा में और वैदिक परम्परा में यह महत्त्वपूर्ण अन्तर है कि एक ने अर्थ को प्रधानता दी है तो दूसरे ने शब्द को प्रधानता दी है। यही कारण है कि वैदिक परम्परा में वेद के नाम पर विभिन्न चिन्तनधाराएँ विकसित हुई हैं। विभिन्न दार्शनिक जीव, जगत् और ईश्वर को लेकर पृथक्-पृथक् व्याख्याएं करते रहे हैं / वेद सभी को मान्य हैं, किन्तु वेदों की व्याख्या में एकरूपता नहीं है। जैन परम्परा में बैदिक परम्परा की तरह संप्रदायभेद नहीं है। जो श्वेतांबर, दिगबर या अन्य उपसंप्रदाय हैं उनमें विचारों का मतभेद प्रमुख नहीं, अपितु प्राचार का भेद प्रमुख है। यह सत्य है कि श्वेताम्बरमान्य प्रागमों को दिगम्बर मान्य नहीं करते हैं, पर दिगंबर साहित्य में अंग साहित्य के नाम ज्यों के त्यों मिलते हैं, किन्तु वे उन्हें विच्छिन्न मानते हैं / यह पूर्ण सत्य है कि श्वेतांबर और दिगंबरों के मूल-भूत तत्त्वों में किंचित मात्र भी अन्तर नहीं है। षट द्रव्य. नौ तत्व, प्रमाण, नय, निक्षेप, कर्म प्रादि दोनों ही परम्परामों में एक सदृश है। जैन आगम के उद्गाता तीर्थकर हैं जिन्होंने स्वयं भौतिक वैभव को ठुकराकर साधना के पथ पर अपने सुदृढ कदम बढ़ाये थे। इसलिए उन्होंने सभी को उस पथ पर बढ़ने की पवित्र प्रेरणा दी। उन्होंने स्वर्ग के रंगीन सुखों को नहीं किन्तु मोक्ष के अनन्त आनन्द को प्रधानता दी और मोक्षमार्ग की बहुत ही विस्तार चर्चा की, जब कि वेदों में भौतिक वैभव को प्राप्त करने को कामना और भावना प्रमुख रही है और इसी के लिए प्रार्थनाएँ की जाती रही हैं / यहाँ पर यह बात स्पष्ट करना प्रावश्यक है कि जैन आगमों में प्राध्यात्मिक चिन्तन की प्रमुखता तो है ही, साथ ही उस युग में प्रचलित अनेक ज्ञान-विज्ञानों का अपूर्व संकलन भी उनमें है / जीवविज्ञान के सम्बन्ध में जितना विस्तार के साथ जैन आगमों में निरूपण हुम्रा है उतना अन्यत्र मिलना कठिन है / आगमों में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के सम्बन्ध में गहराई से विश्लेषण किया गया है। उस युग की धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिस्थितियों का जो चित्रण है, वह जैन परम्परा के अभ्यासियों के लिए ही नहीं अपितु मानवीय संस्कृति के अध्येताओं के लिए भी अत्यन्त उपयोगी है। पाश्चात्य और पौर्वात्य अनुसंधानकर्ता भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति का मूल वेदों में निहारते थे, पर मोहनजोदडो हडप्पा के ध्वंसावशेषों में प्राप्त सामग्री के पश्चात् चिन्तकों को चिन्तन-दिशा ही बदल गई है और अब यह प्रमाणित हो चुका है कि श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृति से पृथक् है। वैदिक संस्कृति में ईश्वर को सृष्टि का निर्माता माना है, जबकि श्रमणपरम्परा ने विश्व की संरचना में जड़ और चेतन इन दोनों को प्रधानता दी है। जड और चेतन ये दोनों तत्त्व ही सृष्टि के मूल कारण हैं। सृष्टि की कोई प्रादि नहीं है, वह तो अनादि है। चक्र की तरह वह सदा चलती रहती है। व्रत निरूपण संसारचक्र से मक्त होने के लिए किया गया है। जबकि वेदों में व्रतों का जिस रूप में चाहिए उस रूप में निरूपण नहीं है। श्रमण संस्कृति का दिव्य प्रभाव जब द्रुत गति से बढ़ने लगा तब उपनिषदों में और उसके पश्चाद्वर्ती वैदिक साहित्य में भी व्रतों के सम्बन्ध में चर्चाएँ होने लगीं / संक्षेप में सारांश यह है कि जैन मागम वेदों पर प्राधत नहीं है। वे सर्वथा स्वतंत्र हैं। पूर्व पंक्तियों में हम यह लिख चुके हैं कि तीर्थकर अर्थ के रूप में प्रवचन करते हैं / जब जैसा प्रसंग प्राता है, उस रूप में वे प्ररूपणा करते हैं। अर्थात्मक दृष्टि से किये गये उपदेशों को उनके प्रमुख शिष्य सूत्र Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप में संकलन करते हैं। भगवान महावीर के एकादश मणधर थे। उनमें सभी गणधर अपनी दृष्टि से शब्दरूप में उनकी रचना करते हैं। शाब्दिक दृष्टि से सभी गणधरों की रचना एक सदश हो, यह संभव नहीं है पर अर्थ सभी का एक था। भगवान महावीर के गणधर ग्यारह थे किन्तु उनके गण नौ थे२, पहले से सातवें तक गणधर एकएक गण को वाचना देते थे। पाठवें नौवें गणधर की एक वाचना थी और दसवें तथा ग्यारहवें की भी एक वाचना थी। वे गणधर परस्पर सम्मिलित रूप से वाचना देते थे। इसलिए स्थानांग और कल्पसूत्र में यह स्पट बताया है कि ग्यारह गणधरों की नौ वाचनाएँ हुई। नौ गणधर भगवान महावीर के रहते हुए ही मुक्त हो चके थे / इन्द्रभूति गौतम और सुधर्मा, ये दोनों भगवान महावीर के मुक्त होने के पश्चात विद्यमान थे। ज्यों-ज्यों गणधर मुक्त होते चले गये, उनके गण सुधर्मा के गण में सम्मिलित होते गये। प्राज जो प्रागम-साहित्य उपलब्ध है उसके रचयिता सुधर्मा हैं पर अर्थ के प्ररूपक भगवान महावीर ही हैं। किन्तु स्मरण रखना होगा कि उसकी प्रामाणिकता, अर्थ के प्ररूपक सर्वज्ञ होने से ही है। अनुयोगद्वार में पागम के सुत्तागम प्रत्थागम और तदुभयागम, ये तीन भेद प्राप्त होते हैं। साथ ही अन्य दृष्टि से प्रात्मागम अनन्तरागम और परम्परागम, ये तीन रूप भी मिलते हैं। तीर्थंकर अर्थ रूप प्रागम का उपदेश प्रदान करते हैं। इसलिए अर्थ रूप प्रागम तीर्थकरों का प्रात्मागम है। उन्होंने अर्थागम किसी अन्य से प्राप्त नहीं किया। वह अर्थागम उनका स्वयं का है। उसी अर्थागम को गणधर; तीर्थंकरों से प्राप्त करते हैं। तीर्थकर और मणधरों के बीच किसी अन्य तीसरे व्यक्ति का व्यवधान नहीं है। इसलिए वह अर्थागम गणधरों के लिए अनन्तरागम है। उस अर्थागम के आधार से ही गणधर स्वयं सूत्र रूप में रचना करते हैं, अतः सूत्रागम गणधरों के लिए आत्मागम है। गणधरों के जो साक्षात् शिष्य हैं, सूत्रागम गणधरों से सीधा ही प्राप्त करते हैं। उनके बीच में भी किसी तीसरे का व्यवधान नहीं है, अत: उन शिष्यों के लिए सूत्रागम अनन्तरागम हैं। पर अर्थागम परम्परागम से प्राप्त हुआ है, क्योंकि वह अर्थागम अपने धर्मगुरु गणधरों से उन्होंने प्राप्त किया। अर्थागम गणधरों का आत्मागम नहीं क्योंकि उन्होंने तीर्थंकरों से प्राप्त किया / गणधरों के प्रशिष्य और उनकी परम्परा में होने वाले अन्य शिष्य-प्रशिष्यों के लिए सूत्र और अर्थ-दोनों आगम परम्परागम हैं। श्रमण भगवान महावीर के पावन प्रवचनों का गणधरों ने सूत्र रूप में जो संकलन और प्राकलन किया, वह संकलन "अंगसाहित्य" के नाम से विश्रुत है। जिनभद्र गणी क्षमा-श्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है कि तप, नियम और ज्ञानरूपी वक्ष पर पारूढ अनन्तज्ञानसम्पन्न केवलज्ञानी भव्यजनों को उदबोधन देने हेतु ज्ञान-पुष्पों की वृष्टि करते हैं, उसे गणधर बुद्वि रूपी पट में ग्रहण कर उसका प्रवचन के निमित्त प्रथन करते हैं / गणधरों में विशिष्ट प्रतिभा होती है। उनकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण होती है। वे बीजबुद्धि प्रादि ऋद्धियों से संपन्न होते हैं। वे तीर्थंकरों को पुष्पवृष्टि को पूर्णरूप से ग्रहण कर रंगबिरंगी पुष्पमाला की तरह प्रवचन के निमित्त सूत्रमाला ग्रथित करते हैं / बिखरे हुए पुष्पों को ग्रहण करना बहुत कठिन है, किन्तु गूंथी हई पुष्पमाला को ग्रहण करना सुकर है। वही बात जिनप्रवचन रूपी पूष्पों के सम्बन्ध में भी है। पद, वाक्य 2. कल्पसूत्र-२०३. 3. स्थानांग. स्था. 9-26 4. कल्पसूत्र सू० 203 5. अनुयोगद्वार-४७० पृ० 179, 6. वही 470 वही| 7. विशेषा. भाष्य. 1094-95 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण, अध्ययन, प्राभृत आदि निश्चित क्रमपूर्वक सूत्ररूप में व्यवस्थित हो तो वह सहज रूप से ग्रहीतव्य होता है। इस तरह समीचीन रूप से सरलता-पूर्वक उसका ग्रहण, गुणन, परावर्तन, धारण, स्मरण, दान, पृच्छा प्रादि हो सकते हैं। गणधरों ने अविच्छिन्न रचना की है। गणधर होने के कारण इस प्रकार श्रुतरचना करना उनका कार्य है। भाष्यकार ने विविध प्रकार के प्रश्न समुत्पन्न कर उनके समाधान प्रस्तुत किये हैं। तीर्थकर जिस प्रकार सर्वसाधारण लोगों के लिए विस्तार से विवेचन करते हैं, वैसा गणधरों के लिए नहीं करते / वे गणधरों के लिए बहुत ही संक्षेप में अर्थ भाषित करते हैं / गणधर निपुणता के साथ उस अर्थ का सूत्ररूप में विस्तार करते हैं / वे शासनहित के लिए सूत्र का प्रवर्तन करते हैं। सहज में यह जिज्ञासा उदबुद्ध हो सकती है कि तीर्थकर प्रर्थ का प्ररूपण करते हैं, बिना शब्द के अर्थ किस प्रकार कहा जा सकता है ? यदि तीर्थकर संक्षेप में सूचना ही करते हैं तो जो सूचना दी जाती है वह तो सूत्र ही है ! पर उसे अर्थ कहना कहाँ तक उचित है ? समाधान करते हुए जिनभद्र ने कहा- अर्हत् पुरुषापेक्षया अर्थात् मणधरों की अपेक्षा से बहत ही स्वल्प रूप में कहते हैं। वे पूर्णरूप से द्वादशांगी नहीं कहते / द्वादशांगी की अपेक्षा से वह अर्थ है और गणधरों की अपेक्षा से सूत्र है। तीर्थंकर जब धर्मदेशना प्रदान करते हैं, उनके वैशिष्ट्य के कारण वे भाषात्मक पदगल श्रोताओं को अपनी अपनी भाषा में परिवर्तित हो जाते हैं। समवायांग में 'भाषा-अतिशय के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है-तीर्थकर अर्धमागधी भाषा में धर्म का प्राख्यान करते हैं। उनके द्वारा कही हुई अर्धमागधी भाषा आर्य-अनार्य, द्विपद-चतुष्पद मृग पशु पक्षी सरीसृप आदि जीवों के हित व कल्याण तथा सुख के लिए उनकी अपनी अपनी भाषाओं में परिणत हो जाती है। उसी कथन का समर्थन औपपातिक10 में और प्राचार्य हैमचन्द्र ने काव्यानुशासन में किया है। संक्षेप में सारांश यह है कि वर्तमान में जो अंग साहित्य है उसके अर्थ के प्ररूपक भगवान महावीर और सुत्र-रचयिता गणधर सूधर्मा हैं। अंग-साहित्य के बारह भेद हैं, जो इस प्रकार हैं-(१) प्राचार (2) सूत्रकृत् (3) स्थान (4) समवाय (5) भगवती (6) ज्ञाताधर्मकथा (7) उपासकदशा (8) अन्तकृद्दशा (9) अनुत्तरोपपातिक (10) प्रश्नव्याकरण (11) विपाक और (92) दृष्टिपाद / ज्ञातासूत्र परिचय अंग साहित्य में ज्ञाताधर्मकथा का छठा स्थान है। इसके दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में ज्ञात यानी उदाहरण और द्वितीय श्रुतस्कंध में धर्मकथाएं हैं। इसलिए इस आगम का 'णायाधम्मकहानो' नाम है। प्राचार्य अभयदेव ने अपनी टीका में इसी अर्थ को स्पष्ट किया है। तत्त्वार्थभाष्य में 'ज्ञातधर्भकथा' नाम पाया है। भाष्यकार ने लिखा है-उदाहरणों के द्वारा जिसमें धर्म का कथन किया है।२ / जयधवला में नाहधम्मकहा---'नाथधर्मकथा' नाम मिलता है। नाथ का अर्थ स्वामी है। नाथधर्मकथा का तात्पर्य है नाथ-तीर्थकर 8. अनुयोगद्वार-४७० पृ० 179 9. समवायांग सू० 34 10. प्रौपपातिक पृ० 117-18 11. काव्यानुशासन, अलंकार तिलक 1-1 12. ज्ञाता दृष्टान्ता: तानुपादाय धर्मो यत्र कथ्यते ज्ञातधर्मकथाः। --तत्त्वार्थभाष्य 20 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा प्रतिपादित धर्मकथा / संस्कृत साहित्य में प्रस्तुत मागम का नाम 'ज्ञातृधर्मकथा' उपलब्ध होता है। प्राचार्य मलयगिरि१४ ब आचार्य अभयदेव१५ ने उदाहरणप्रधान धर्मकथा को ज्ञाताधर्म कथा कहा है। उनकी दृष्टि से प्रथम अध्ययन में ज्ञात हैं और दूसरे अध्ययन में धर्मकथा हैं। प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने कोश में ज्ञातप्रधान धर्मकथाएँ ऐसा अर्थ किया है। प. वेचरदास जी दोशी, डा. जगदीशचन्द्र जैन, डा. नेमिचन्द्र शास्त्री१६ का अभिमत है कि ज्ञातपुत्र महावीर की धर्मकथानों का प्ररूपण होने से प्रस्तुत अंग को उक्त नाम से अभिहित किया गया है। श्वेतांबर पागम साहित्य के अनुसार भगवान् महावीर के वंश का नाम 'ज्ञात' था / कल्पसूत्र, प्राचारांग 20, सूत्रकृतांग 1, भगवती२२, उत्तराध्ययन, और दशवकालिक 24 में उनके नाम के रूप में 'ज्ञात' शब्द का प्रयोग हुआ है। विनयपिटक 25, मज्झिमनिकाय२६. दीघनिकाय२७, सुत्तनिपात 28 आदि बौद्धपिटकों 13. तत्त्वार्थवातिक 1120, पृ. 72 14. ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा: अथवा ज्ञातानि-ज्ञाताध्ययनानि प्रथमश्रुतस्कंधे धर्मकथा द्वितीयश्रुतस्कंधे यासु ग्रंथपद्धतिषु (ता.) ज्ञाताधर्मकथाः / -नंदी वृत्ति, पत्र 230-231 15. ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा, दीर्घत्वं संज्ञात्वाद् अथवा--प्रथमश्रुतम्कंधो ज्ञाताभिधायकत्वात् ज्ञातानि, द्वितीयस्तु तथैव धर्मकथाः / -समवायांग पत्र 108 / 16. भगवान महावीर नी धर्मकथानो, टिप्पण पृ. 180 17. प्राकृत साहित्य का इतिहास 18 प्राकृत भाषा और साहित्य का पालोचनात्मक इतिहास, पृ. 172 19. कल्पसूत्र 110 20. (क) प्राचारांग श्रु. 2, अ. 15, मू. 1003 (ख) प्राचारांग थु. 1, अ.८, उ.८, से. 448 21 (क) सूत्र. उ. 1, गा. 22 (ख) सूत्र. 1602 (ग) सूत्र. 11624 (घ) सूत्र. 216 / 19 22. भगवती 1579 23. उत्तरा० 6 / 17 24. दशव०म० 5, उ० 2, गा० 49 तथा 6 / 25 एवं 6 / 21. 25. विनय पिटक महावग्ग पृ० 242 26. मज्झिमनिकाय हिन्दी उपाति-सुत्तन्त पृ० 222 चूल-दुक्खक्खन्ध सुत्तन्त चूल-सोरोपम-सुत्तन्त महा सच्चक सुत्तन्त अभयराज कुमार सुत्तन्त 234 देवदह सुत्तन्त 1, 441 27 दीघनिकाय सामञ्जफल सुत्त 18 / 21 , संगीति परियाय सुत्त 282 ,, महापरिनिवाण सुत , पासादिक सुत्त 28. सुत्तनिपात--सुभिय सुत्त 124 252 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में भी भगवान् महावीर का उल्लेख"निगंठ नातपुत्त" के रूप में किया गया है। दिगंबर साहित्य में महावीर का वंश "नाथ" माना है। 'धनंजय नाममाला'30 में नाथ का उल्लेख है। उत्तरपुराण में भी 'नाथ' वंश का उल्लेख हा है। कितने ही मुर्धन्य मनीषियों का अभिमत है कि प्रस्तुत आगम का नाम भगवान् महावीर के वंश को लक्ष्य में लेकर किया गया है। ज्ञातृधर्मकथा या नाथधर्मकथा से तात्पर्य है भगवान महावीर की धर्मकथा / पाश्चात्य चिन्तक वेबर 2 का मानना है कि जिस ग्रंथ में ज्ञातवंशीय महावीर की धर्मकथा हो वह 'नायाधम्मकहा' है। किन्तु समवायांग 3 3 नंदीसूत्र 4 में प्रागमों का जो परिचय प्रदान किया गया है उसके आधार से ज्ञातवंशी महावीर की धर्मकथा यह अर्थ संगत नहीं लगता / वहाँ पर यह स्पष्ट किया गया है कि ज्ञाताधर्मकथा में ज्ञातों (उदाहरणभूत व्यक्तियों) के नगर, उद्यान आदि का निरूपण किया गया है। प्रस्तुत प्रागम के प्रथम अध्ययन का नाम "उक्खित्तणाए" (उत्क्षिप्तज्ञात) है। यहाँ पर ज्ञात का अर्थ उदाहरण ही सही प्रतीत होता है / इसमें उदाहरणप्रधान धर्मकथाएँ हैं। उन कथानों में उन धीरवीर साधकों का वर्णन है जो भयंकर उपसर्ग समुपस्थित होने पर भी मेरु की तरह अकंप रहे। इसमें परिमित वाचनाएं, अनयोगद्वार, नियुक्तियाँ, संग्रहणियां व प्रतिपत्तियां संख्यात-संख्यात हैं। इसके दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में उन्नीस अध्ययन हैं और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में दस वर्ग हैं। दोनों श्रुतस्कंधों के २९उद्देशन काल हैं, 29 समुद्देशन काल हैं, 573000 पद हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनंत गम, अनंत पर्याय, परिमित त्रस, अनन्त स्थावर आदि का वर्णन है। इसका वर्तमान में पदपरिमाण 5500 श्लोक प्रमाण है। प्रथम श्रुतस्कंध में कितनी ही कथाएँ–ऐतिहासिक व्यक्तियों से सम्बन्धित हैं और कितनी ही कथाएँ कल्पित हैं। प्रथम अध्ययन का मुख्य पात्र मेघकुमार ऐतिहासिक व्यक्ति है। तुबे आदि की कुछ कथाएं रूपक के रूप में हैं। उन रूपक-कथाओं का उद्देश्य भी प्रतिबोध प्रदान करना है। द्वितीय श्रुतस्कंध में दस वर्ग हैं। उनमें से प्रत्येक धर्मकथा में 500-500 प्राख्यायिकाएं और एकएक आख्यायिका में 500-500 उप-प्राख्यायिकाएँ हैं और एक एक उप-प्राख्यायिका में 500-500 आख्यायिकोपाख्यायिकाएं हैं३५ पर वे सारी कथाएँ आज उपलब्ध नहीं हैं। वह विराट कथासाहित्य अाज विच्छिन्न हो चुका है। उसका केवल प्राचीन साहित्य में उल्लेख ही मिलता है। वर्तमान में प्रथम श्रुतस्कंध में 19 कथाएँ और द्वितीय श्रुतस्कंध में 206 कथाएँ हैं। विश्व के जितने भी धर्मसंस्थापक हुए हैं, उन्होंने जन-जन के आध्यात्मिक समुत्कर्ष के लिए धर्मतत्त्व के गंभीर रहस्यों को बताने के लिए प्रात्मा-परमात्मा, कर्म जैसे दार्शनिक 29. तिलोयपण्णत्ति 4-550, जयधवला पृ० 135. 30. धनंजय-नाममाला, 115. 31. उत्तरपुराण पृ० 450 32. Stories from The Dharma of Naya इं, एं, जि 19, पृ०६६ 33. समवायांग प्रकीर्णक, समवाय सूत्र, 94 34. नंदीसूत्र-८५ 35. नंदीसूत्र, बम्बई, सूत्र 92, पृ० 37. 22 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहलुओं की सुलझाने के लिए कथाओं का उपयोग किया है। वेद, उपनिषद्, त्रिपिटक, कुरान व वाइबिल में कथाएं व रूपक हैं। भगवान महावीर ने भी कथाओं द्वारा बोध प्रदान किया है / प्रस्तुत प्रागम में प्रात्मा की उन्नति के क्या हेतू हैं, किन कारणों से आत्मा अधोगत होता है, महिलावर्ग भी उत्कृष्ट आध्यात्मिक उत्कर्ष कर सकता है। पाहार का उद्देश्य, संयमी जीवन की कठोर साधना, शुभ परिणाम, अनासक्ति व श्रद्धा का महत्त्व प्रादि विषयों पर कथाओं के माध्यम से प्रकाश डाला गया है / ये कथाएं वाद-विवाद के लिए नहीं, जीवन के उत्थान के लिए हैं। ये कथाएँ ईसामसीह की नीतिकथाओं (पैरबल्स) की तरह हैं, इनमें अनुभव का अमृत है। इन कथाओं की शैली सरल सीधी और सचोट है। मेघकुमार प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में मेघकुमार की कथा दी गई है। मेघकुमार राजा श्रेणिक का पुत्र है। भगवान महावीर के त्याग-बैराग्य से छलछलाते हए प्रवचन को श्रवण कर अपनी पाठों पलियों का परित्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण करता है। माता-पिता व अन्य परिजन उसे रोकने का अथक प्रयास करते हैं किन्तु वैराग्यभावना इतनी प्रवल थी कि संसार का कोई भी आकर्षण उसे आकषित न कर सका। उसे एक दिन का राज्य भी दिया गया पर वह उसमें भी प्रासक्त नहीं हुआ / दीक्षा ग्रहण के पश्चात् श्रमण मेघ को रात्रि में सोने के लिए ऐसा स्थान मिला जहाँ सन्त-गण प्राते-जाते रहते थे। उनके पैरों की टकराहट से उसकी आँखें खुल जाती, पुनः अांखों में नींद छाने लगती कि दूसरे मुनि के चरण का स्पर्श हो जाता / फलों की सुकुमार शय्या पर सोने वाला राजकुमार प्राज धूल में सो रहा था और पैरों की ठोकरें लगने से उसे नींद नहीं पा रही थी, जिससे सिर भन्ना गया, आँखें लाल हो गईं और सम्पूर्ण शरीर शिथिल हो गया। उसके विचार बदल गये। उसका सम्पूर्ण धैर्य कांच के बर्तन की तरह टूट-टूट कर बिखरने लगा। वह सोचने लगा-प्रतिदिन इस प्रकार पलकें मसलते-मसलते उनींदी रातें बिताना किस प्रकार संभव हो सकेगा? प्रातः होने पर भगवान महावीर मुनि मेघकुमार को उसका पूर्वभव सुनाते और कहते हैं---तुमने पूर्वभव में किस तरह कष्ट सहन किया था, स्मरण पा रहा है न ? सुमेरुप्रभ हाथी के भव में दो दिन और तीन रात तुमने अपना एक पैर खरगोश को बचाने के लिए अधर रखा था। तीन दिन पश्चात् जब पैर को नीचे रखना चाहा तो अधर में रहने के कारण वह अकड़ गया था। जोर देकर नीचे रखने का तुमने प्रयास किया तो अपने आपको न संभालकर नीचे गिर पड़े। तीन दिन के भूखे और प्यासे होने से तुम उठ नहीं सके पर तुम्हारे मन में अपूर्व शांति थी। वह सुमेरुप्रभ हाथी मरकर तुम मेघ हुए हो। अब जरा से कष्ट से घबरा रहे हो ! घबराओ मत, आध्यात्मिक दृष्टि से समभावपूर्वक सहन किये गये कष्टों का अत्यधिक मूल्य है / ये कष्ट जीवन को पवित्र बनाने वाले हैं। __ भगवान् महावीर की प्रेरणाप्रद वाणी से मेघकुमार का हृदय प्रबुद्ध हो गया और वह साधकजीवन में आने वाले कष्टों से जूझने के लिए तैयार हो गया। मेघ के साथ नन्द की तुलना मेघकुमार के समान ही सद्य:दीक्षित नन्द का वर्णन बौद्ध साहित्य सुत्तनिपात,3५ धम्मपद३६ अट्ठकथा, 35. सुत्तनिपात-अट्ठकथा, पृ० 272. 36. धम्मपद-अट्ठकथा, खण्ड-११ पृ. 59-105. 23 , Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातककथा व थेरगाथा३८ में प्राप्त होता है। वहां भी तथागत बुद्ध के पास अपनी नवविवाहिता पत्नी जनपदकल्याणी को छोड़ कर दीक्षा ग्रहण करता है। पर जनपदकल्याणी नन्दा का उसे सतत स्मरण प्राता रहता है जिससे वह मन ही मन व्यथित होता है। तथागत बुद्ध ने उसके हृदय की बात जान ली और उसे प्रतिबुद्ध करने के लिए वे उसे अपने साथ में लेते हैं। चलते हुए मार्ग में एक बन्दरिया को दिखाते हैं, जिसकी कान, नाक और पूंछ कटी हुई थी, जिसके बाल जल कर नष्ट हो गये थे। चमड़ी भी फट चुकी थी। उसमें से रक्त च रहा था। दीखने में बड़ी बीभत्स थी। बुद्ध ने नन्द से पूछा-जन्द, क्या तुम्हारी पत्नी इस बन्दरिया से अधिक सुन्दर है ? उसने कहा-भगवन् ! वह तो अत्यन्त सुन्दर है। बुद्ध उसे अपने साथ त्रायस्त्रिश स्वर्ग में ले गये / बुद्ध को देखकर अप्सराओं ने नमस्कार किया। अप्सरानों की ओर संकेत कर बुद्ध ने नन्द से पूछा- क्या तुम्हारी पत्नी जनपदकल्याणी नंदा इनसे भी अधिक सुन्दर है ? 'नहीं भगवन् इन अप्सराओं के दिव्य रूप के सामने जनपदकल्याणी नन्दा का रूप तो बन्दरी के समान प्रतीत होता है।" तथागत ने मुस्कराते हुए कहा तो फिर नन्द, क्यों विक्षुब्ध हो रहे हो? भिक्षधर्म का पालन करो। यदि तुमने अच्छी तरह से भिक्षधर्म का पालन किया तो इनसे भी अधिक सुन्दर अप्सराएँ तुम्हें प्राप्त होंगी। वह दत्तचित्त होकर भिक्षधर्म का पालन करने लगा। पर उसके मन में नन्दा बसी हई थी। उसका वैषयिक लक्ष्य मिटा नहीं था। एक बार सारीपुत्र प्रादि अस्सी भिक्षुमों ने उपहास करते हुए कह–'तू तो अप्सरानों के लिए श्रमणधर्म का आराधन कर रहा है / ' यह सुनकर वह बहुत ही लज्जित हुना। उसके पश्चात विषयाभिलाषा से वह मुक्त होकर अर्हत बना / मेघकूमार और नन्द की साधना से विचलित होने के निमित्त अलग-अलग हैं। भगवान महावीर मेघकुमार को पूर्वभव को दारुण वेदना और मानवजीवन का महत्त्व बताकर संयम-साधना में स्थिर करते हैं तो तथागत बुद्ध नन्द को आगामी भव के रंगीन सुख बताकर स्थिर करते हैं। जातक साहित्य से यह भी परिज्ञात होता है कि नंद अपने प्राप्त भवों में हाथी था / दोनों के पूर्व भव में हाथी की घटना भी बहुत कुछ समानता लिए हुए है। प्रथम अध्ययन में पाये हुए अनेक व्यक्ति ऐतिहासिक हैं। सम्राट श्रेणिक को जीवनगाथाएँ जैन साहित्य में ही नहीं, बौद्ध साहित्य में भी विस्तार से प्राई है / अभयकुमार, जो श्रेणिक का पूत्र था, प्रबल प्रतिभा का धनी था, जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराएं उसे अपना अनुयायी मानती हैं और उसकी प्रतापपूर्ण प्रतिभा की अनेक घटनाएँ जैन साहित्य में उङ्कित हैं / 37. जातक सं० 182. 38. थेरगाथा-१५७. 39. संगामावतार जातक-सं 182 (हिन्दी अनुवाद खं. 2 पृ. 248-254) 40. सुत्तनिपात-पवज्जासुत्त 2 (क) बुद्ध चरित सं. 11 श्लो 72 (ग) विनयपिटक-महावग्गो---पृ. 35-38 41. (i) भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति, पावश्यकचूणि, धर्मरत्नप्रकरण आदि / (i) थेरीगाथा अट्ठकथा 31-32, मज्झिमनिकाय-अभयराजकुमार सुत्त, धम्मपद अट्ठकथा आदि / 42. त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित 10-11 24 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकसूत्र में प्रभयकुमार के जैनदीक्षा लेने का उल्लेख है / 3 बौद्धदीक्षा लेने का उल्लेख थेरा अपदान व थेर गाथा की अट्ठकथा में है।४४ मज्झिमनिकाय,४५ संयुक्त निकाय 6 आदि में उसके जीवनप्रसंग हैं। राजगृह प्रथम अध्ययन में राजगृह नगर का भी उल्लेख है जहाँ पर भगवान महावीर ने अनेक चातुर्मास किये थे४७ और दो सौ से भी अधिक बार उनके वहाँ समवसरण लगे थे। राजगृह नगर को प्रत्यक्ष देवलोकभूत व अलकापुरी सदृश कहा है / 6 तथागत बुद्ध भी अनेक बार राजगृह में पाए थे / उन्होंने अपने धर्मप्रचार का केन्द्र बनाने का भी प्रयास किया था। भगवान् महावीर गुणशील, मण्डिकुच्छ और मुदगरपाणि आदि उद्यानों में ठहरा करते थे,५० जबकि बुद्ध गृद्धकूट पर्वत, कलंदकनिवाप और बेणुवन से ठहरते थे।५१ राजगृह नगर और उसके सन्निकट नारद ग्राम,५२ कुक्कुटाराम विहार,५3 गध्रकट पहाड़ी यष्टिवन, उरुविल्वग्राम प्रभासवन५५ प्रादि बुद्ध धर्म से सम्बन्धित थे। राजगृह में एक बौद्ध-संगीति हुई थी।५६ जब बिम्बसार बुद्ध का अनुयायी था तब बुद्ध ने राजगृह से वैशाली जाने की इच्छा व्यक्त की। तब राजा ने बुद्ध के लिए सड़क बनवायी और राजगृह से गंगा तक की भूमि को समतल करवाया / 57 राजगृह के प्राचीन नाम गिरिव्रज, वसुमती५८ बार्हद्रथपुरी५६ मगधपुर० वराह, वृषभ, ऋषिगिरि 43. अनुत्तरौपपातिक 1-10 44. खुद्दकनिकाय खण्ड 7 नालंदा, भिक्षजगदीश कश्यप 45. मज्झिमनिकाय 76 46. संयुक्तनिकाय 47. कल्पसूत्र 5-123 (क) व्याख्याप्रज्ञप्ति 7-4, 5-9, 2-5 (ख) प्रावश्यक 473/492/518 48. भगवान् महावीर एक अनुशीलन पृ. 241-43 49. पच्चक्खं देवलोगभूषा एवं अलकापुरीसंकासा / 50. (क) ज्ञाताधर्मकथा पृ. 47, (ख) दशाश्रुतस्कंध 109 पृ. 364. (ग) उपासकदशा 8, पृ. 51 / 51. मज्झिमनिकाय सारनाथ पृ. 234 (ख) मज्झिमनिकाय चलसकलोदायी सुत्तन्त पृ. 305 52. नेपालीज बुद्धिस्ट लिटरेचर पृ. 45 53. वही पृ. 9-10 54. महावस्तु 441 55. नेपालीज बुद्धिस्ट लिटरेचर पृ. 166 56. चुल्लवग्ग ११वां खन्धक 57. धम्मपद कामेंट्री 439-40 58. रामायण 1/32/7 59. महाभारत 24 से 44 60. वही 20-30 25 , Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यक बिम्बसारपुरी २और कुशाग्रपुर 3 थे। बिम्बसार के शासनकाल में राजगह में आग लग जाने से वह जल गई इसलिए राजधानी हेतु नवीन राजगृह का निर्माण करवाया / युवानच्वाङ् का अभिमत है कि कुशागारपुर या कुशाग्रपुर प्राग में भस्म हो जाने से राजा बिम्बसार श्मशान में गये और नये राजगह का निर्माण करवाया। फाह्यान का मानना है नये नगर का निर्माण अजातशत्रु ने करवाया, न कि बिम्बसार ने। चीनी यात्री ह्वेनसांग जब भारत पाया था तो वह राजगृह में भी गया था, पर महावीर और बुद्ध युग का विराट् वैभव उस समय नहीं था / 4 महाभारत में राजगृह को पांच पहाड़ियों से परिवेष्टित कहा है (1) वैराह, (2) वाराह, (3) वृषभ, (4) ऋषिगिरि और (5) चैत्यगिरि६५ / फाह्यान ने भी इस सत्य तथ्य को स्वीकार किया / 66 युवानच्चाङ्ग का भी यही अभिमत है।६७ गौतम बुद्ध के समय राजगह की परिधि तीन मील के लगभग थी।८ राजनीति के केन्द्र के साथ ही वह धार्मिक केन्द्र भी था। महाभारत के राजगृह की पहाड़ियों को सिद्धों, यतियों और मुनियों का शरण भी बताया है। वहाँ पर अनेक सन्तमण ध्यान की साधना करते थे। जैन और बौद्ध साहित्य में उनके उल्लेख है। भगवती आदि में गर्म पानी के कुण्डों का वर्णन है। युवान्च्वाङ ने भी इस बात को स्वीकार किया है। उस पानी से अनेक चर्मरोगी पूर्ण स्वस्थ हो जाते थे, प्राज भी वे कुण्ड हैं। स्वप्न : एक चिन्तन प्रस्तुत अध्ययन में महारानी धारिणी के स्वप्न का वर्णन है / वह स्वप्न में अपने मुख में हाथी को प्रवेश करते हुए देखती हैं / जहाँ कहीं भी आगम-साहित्य में कोई भी विशिष्ट पुरुष गर्भ में प्राता है, उस समय उसकी माता स्वप्न देखती है। स्वप्न न जागते हुए आते हैं, न प्रगाढ निद्रा में पाते हैं किन्तु जब अर्धनिद्रित अवस्था में मानव होता है उस समय उसे स्वप्न आते हैं।' अष्टांगहृदय में लिखा है७२-जब इन्द्रियां अपने विषय से निवृत्त होकर प्रशान्त हो जाती हैं और मन इन्द्रियों के विषय में लगा रहता है तब वह स्वप्न देखता है। 61. पोलिटिकल हिस्ट्री प्रॉव ऐंश्येंट इंडिया पृ. 70 62. द लाइफ एण्ड वर्क प्रॉव बुद्धघोष, पृ. 87 टिप्पणी 63. बील, द लाइफ प्रॉव युवानच्चाड पृ. 113 पोजिटर ऐंश्येट इण्डियन हिस्टोरिकल ट्रेडिशन पृ. 149 64. लेग्गे, फाहियान पृ. 80 65. महाभारत सभापर्व अध्याय 54 पंक्ति 120 66. फाहियान, गाइल्स लन्दन पृ. 49 67. ऑन युवान्च्चाङ्ग, वाटर्स 2, 153 68. अॉन युवान्च्वाङ्ग, वाटर्स 2, 153 69. एतेषु पर्वतेन्द्रेषु सर्वसिद्ध समालयाः / यतीनामाश्रमश्चैव मुनीनां च महात्मनाम् / वृषभस्य तमालस्य महावीर्यस्य वै तथा / गंधर्वरक्षसां चैव नागानां च तथाऽऽलयाः॥ -महाभारत सभापर्व अ. 21, 12-14 70 प्रॉन युवान्च्चाङ्ग, वाटर्स, 2, 154 71. भगवती सूत्र 16-6 72. अष्टांगहृदय निदानस्थान. 9 26 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन के अनुसार स्वप्न का मूल कारण दर्शनमोहनीय कर्म का उदय है। दर्शनमोह के कारण मन में राग और द्वेष का स्पन्दन होता है, चित्त चंचल बनता है। शब्द आदि विषयों से संबंधित स्थूल और सूक्ष्म विचार-तरंगों से मन प्रकंपित होता है / संकल्प-विकल्प या विषयोन्मुखी वृत्तियाँ इतनी प्रबल हो जाती हैं कि नींद आने पर भी शांति नहीं होती / इन्द्रियाँ सो जाती हैं, किन्तु मन को वृत्तियाँ भटकती रहती हैं। वे अनेकानेक विषयों का चिन्तन करती रहती हैं / वृत्तियों को इस प्रकार की चंचलता ही स्वप्न है। सिग्मण्ड फ्रायड ने स्वप्न का अर्थ दमित वासनानों की अभिव्यक्ति कहा है। उन्होंने स्वप्न के संक्षेपण, विस्तारीकरण, भावान्तरकरण और नाटकीकरण, ये चार प्रकार किये हैं। (1) बहत विस्तार की घटना को स्वप्न में संक्षित रूप में देखना (2) स्वप्न में घटना को विस्तार से देखना (3) घटना का रूपान्तर हो जाना, किन्तु मूल संस्कार वहो है, अभिभावक द्वारा भयभीत करने पर स्वप्न में किसी कर व्यक्ति प्रादि को देखकर भयभीत होना (4) पूरी घटनाएँ नाटक के रूप में स्वप्न में ग्राना। चार्ल्स युग७३ स्वप्न को केवल अनुभव की प्रतिक्रिया नहीं मानते हैं। वे स्वप्न को मानव के व्यक्तित्व का विकास और भावी जीवन का द्योतक मानते हैं। फ्रायड और युग के स्वप्न संबंधी विचारों में मुख्य रूप से अन्तर यह है कि फ्रायड यह मानता है कि अधिकांश स्वप्न मानव की कामवासना से सम्बन्धित होते है जब कि युग का मन्तव्य है कि स्वप्नों का कारण मानव के केवल वैयक्तिक अनुभव अथवा उसकी स्वार्थमयी इच्छानों का दमन मात्र ही नहीं होता अपितु उसके गंभीरतम मन की आध्यात्मिक अनुभूतियाँ भी होती हैं। स्वप्न में केवल दमित भावनाओं की अभिव्यक्ति की बात पूर्ण संगत नहीं है, वह केवल संयोग मात्र ही नहीं है, किन्तु उसमें अभूतपूर्व सत्यता भी रही हुई होती है। प्राचार्य जिनसेन ने स्वस्थ अवस्था वाले और अस्वस्थ अवस्था वाले, ये दो स्वप्न के प्रकार माने हैं। जब शरीर पूर्ण स्वस्थ होता है तो मन पूर्ण शांत रहता है, उस समय जो स्वप्न दीखते हैं वह स्वस्थ अवस्था वासा स्वप्न है। ऐसे स्वप्न बहुत ही कम आते हैं और प्राय: सत्य होते हैं / मन विक्षिप्त हो और शरीर अस्वस्थ हो उस समय देखे गये स्वप्न असत्य होते हैं। प्राचार्य ने दोषसमुद्भव और देवसमुदभव 5 इस प्रकार स्वप्न के दो भेद भी किये हैं। वात, पित्त, कफ प्रभति शारीरिक विकारों के कारण जो स्वप्न पाते हैं वे दोषज हैं। इष्टदेव या मानसिक समाधि की स्थिति में जो स्वप्न पाते हैं वे देवसमुद्भव हैं। स्थानांग७६ और भगवती७७ में यथातथ्य स्वप्न, (जो स्वप्न में देखा है जागने पर उसी तरह देखना, अर्थात् अनुकल-प्रतिकूल शुभ-अशुभ फल की प्राप्ति) प्रतानस्वप्न (विस्तार से देखना) चिन्तास्वप्न (मन में रही हुई चिन्ता को स्वप्न में देखना) तद्विपरीत स्वप्न (स्वप्न में देखी हुई घटना का विपरीत प्रभाव) अव्यक्त स्वप्न (स्वप्न में दिखाई देने वाली वस्तु का पूर्ण ज्ञान न होना), इन पाँच प्रकार के स्वप्नों का वर्णन है / 73. हिन्दी विश्वकोश खण्ड-१२ पृ० 264 74. ते च स्वप्ना द्विधा भ्रात: स्वस्थास्वस्थात्ममोचराः / समस्तु धातुभिः स्वस्वविषमैरित रैर्मता / तथ्या स्युः स्वस्थसंहष्टा मिथ्या स्वप्नो विपर्ययात् / जगत्प्रतीतमेतद्धि विद्धि स्वप्नविमर्शनम / / ----महापुराण 41-59/60 75. वही सर्ग 41/61 76. स्थानांग-५ 77. भगवती-१६-६ 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन भारतीय स्वप्नशास्त्रियों ने स्वप्नों के नौ कारण बतलाये है७८. (1) अनुभूत स्वप्न (अनुभव की हुई वस्तु का) (2) श्रुत स्वप्न (3) दृष्ट स्वप्न (4) प्रकृतिविकारजन्य स्वप्न (वात, पित्त, कफ की अधिकता और न्यूनता से) (5) स्वाभाविक स्वप्न (6) चिन्ता-समुत्पन्न स्वप्न (जिस पर पुनः पुनः चिन्तन किया हो) (7) देव प्रभाव से उत्पन्न होने वाला स्वप्न (8) धर्मक्रिया प्रभावोत्पादित स्वप्न और (9) पापोदय से आनेवाला स्वप्न / इसमें छह स्वप्न निरर्थक होते हैं और अन्त के तीन स्वप्न शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी विशेषावश्यक भाष्य में उनका उल्लेख किया है। हम जो स्वप्न देखते है इनमें कोई-कोई सत्य होते हैं। हम पूर्व में बता चुके हैं कि जब इन्द्रियाँ प्रसुप्त होती हैं और मन जाग्रत होता है तो उसके परदे पर भविष्य में होनेवाली घटनाओं का प्रतिविम्ब गिरता है। मन उन अज्ञात घटनों का साक्षात्कार करता है। वह सुषुप्ति और अर्ध-निद्रावस्था में भावी के कुछ प्रस्पष्ट संकेतों को ग्रहण कर लेता है और वे स्वप्न रूप में दिखायी देते हैं। स्वप्नशास्त्रियों ने यह भी बताया है कि किस समय देखा गया स्वप्न उत्तम और मध्यम होता है। रात्रि के प्रथम प्रहर में जो स्वप्न दीखते हैं उन का शुभ-अशुभ परिणाम बारह महीने में प्राप्त होता है। द्वितीय प्रहर के स्वप्नों का फल छह महीने में, तृतीय प्रहर के स्वप्नों का फल तीन महीने और चतुर्थ प्रहर में जब मुहूर्त भर रात्रि अवशेष रहती है उस समय जो स्वप्न दिखाई देता है उसका फल दस दिनों में मिलता है। सूर्योदय के समय के स्वप्न का फल बहुत ही शीघ्र मिलता है / जो स्वप्नपंक्ति देखते हैं या दिन में स्वप्न देखते हैं या मल-मूत्र प्रादि की व्याधि के कारण जो स्वप्न देखते हैं, वे स्वप्न सार्थक नहीं होते / पश्चिम रात्रि में शुभ स्वप्न देखने का एक ही कारण यह भी हो सकता है कि थका हुआ मन तीन प्रहर तक गहरी निद्रा पाने के कारण प्रशान्त हो जाता है। उसकी चंचलता मिट जाती है। ताजगी उसमें होती है और स्थिरता भी। अत: उस समय देखे गये स्वप्न शीघ्र फल प्रदान करते हैं। शुभ स्वप्न देखने के बाद स्वप्नद्रष्टा को नहीं सोना चाहिए। क्योंकि स्वप्नदर्शन के पश्चात नींद लेने से उस स्वप्न का फल नष्ट हो जाता है। जो अशुभ स्वप्न हों उनको देखने के बाद मो सकते हैं, जिससे उनका अशुभ फल नष्ट हो जाय / शुभ स्वप्न पाने के पश्चात् धर्मचिन्तन करना चाहिए। रात्रि में सोते समय प्रसन्न होना चाहिए / मन में किसी प्रकार की वासनाएँ या उत्तेजना नहीं होनी चाहिए / नमस्कार महामंत्र जपते हुए या प्रभुस्मरण करते हुए जो निद्रा पाती है, उसमें अशुभ स्वप्न नहीं पाते, उसे अच्छी निद्रा पाती है और श्रेष्ठ स्वप्न दिखलायी पड़ते हैं। प्राचीन आचार्यों ने शुभ और अशुभ स्वप्न की एक सूची८० दी है / पर वह सूची पूर्ण हो एसी बात नहीं है। उनके अतिरिक्त भी कई तरह के स्वघ्न पाते हैं। उन स्वप्नों का सही अर्थ जानने के लिए परिस्थिति, वातावरण और व्यक्ति की अवस्था देखकर ही निर्णय करना चाहिये। 78. अनुभूतः श्रुतो दृष्ट: प्रकृतेश्च विकारजः / स्वभावतः समुद्भूत: चिन्तासंततिसंभवः / / देवताद्यपदेशोत्थो धर्मकर्मप्रभावजः / पापोद्रेकसमुत्थश्च स्वप्न: स्यान्नवधा नृणाम् / / प्रकाररादिमः षड्भि-रशुभश्चाशुभोपि वा। दृष्टो निरर्थको स्वप्नः सत्यस्तु विभिरुत्तरः / / 79. विशेषावश्यक भाष्य गाथा 1703 80. भगबती सूत्र 16-6 28 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट व्यक्तियों को माताएँ जो स्वप्न निहारती हैं उनके अन्तर्मानस की उदात्त प्राकांक्षाएं उसमें रहती हैं / वे सोचती हैं कि मेरे ऐसा दिव्य भव्य पुत्र हो जो दिग्दिगन्त को अपनी यशोगाथा से गौरवान्वित करे। उसकी पवित्र भावना के कारण इस प्रकार के पुत्र प्राते भी हैं / यह अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि स्वप्न वस्तुतः स्वप्न ही है / स्वप्न पर अत्यधिक विश्वास कर यथार्थता से मुंह नहीं मोड़ना चाहिये / केवल स्वप्नद्रष्टा नहीं यथार्थद्रष्टा बनना चाहिए। यह तो केवल सूचना प्रदान करनेवाला है। दोहद : एक अनुचिन्तन प्रस्तुत अध्ययन में मेघकुमार की माता धारिणी को यह दोहद उत्पन्न होता है कि आकाश में उमड़-घुमड़ कर घटाएं पायें, हजार-हजार धारा के रूप में वह बरस पड़ें। आकाश में चारु चपला की चमक हो। चारों ओर हरियाली लहलहा रही हो, रंगबिरंगे फल महक रहे हों, मेघ की गंभीर गर्जना को सुनकर मयूर केकारव के साथ नृत्य कर रहे हों और कलकल और छलछल करते हए नदी-नाले बह रहे हों, मेंढकों की टर-टर ध्वनि हो रही हो। उस समय मैं अपने पति सम्राट् श्रेणिक के साथ हस्ती-रत्न पर प्रारूढ होकर राजगह नगर के उपवन वैभारगिरि मे पहुँचकर आनन्द क्रीडा करूं। पर वह ऋतु वर्षा की नहीं थी, जिससे दोहद को पूति हो सके। दोहद की पूर्ति न होने से महारानी मुरझाने लगी। महाराजा श्रेणिक उसके मुरझाने के कारण को समझकर अभयकुमार के द्वारा महारानी के दोहद की पूर्ति करवाते हैं। दोहद को इस प्रकार की घटनाएं प्रागम साहित्य 81 में अन्य स्थलों पर भी आई हैं। जैनकथासाहित्य बौद्ध जातकों में 82 और वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में दोहद का अनेक स्थलों पर वर्णन है। यह ज्ञातव्य है कि जब महिला गर्भवती होती है तब गर्भ के प्रभाव से उसके अन्तर्मानस में विविध प्रकार की इच्छाएँ उदबद्ध होती हैं। वे विचित्र और असामान्य इच्छाएँ 'दोहद' 'दोहला' कही जाती हैं / दोहद के लिए संस्कृत भी पाया है। 'द्विहृद' का अर्थ है दो हृदय को धारण करनेवाली / गर्भावस्था में मां की इच्छानों पर गर्भस्थ शिशु का भी प्रभाव होता है। यद्यपि शिशु की इच्छाएँ जिस रूप में चाहिए उस रूप में व्यक्त नहीं होती, किन्तु उसका प्रभाव मां की इच्छात्रों पर अवश्य ही होता है / मैंने स्वयं अनुभव किया है कि कंजस से कंजस महिला भी गर्भस्थ शिशु के प्रभाव के कारण उदार भावना से दान देती हैं, धर्म की साधना करती है और धर्मसाधना करनेवाली महिलाएं भी शिशु के प्रभाव से धर्म-विमुख बन जाती हैं / इसलिए यह स्पष्ट है कि गर्भस्थ शिशु का प्रभाव मां पर होता है और माँ की विचारधारा का असर शिशु पर भी होता है। जीजाबाई आदि के ऐतिहासिक उदाहरण हमारे सामने हैं, जिन्होंने अपने मर्भस्थ शिशु पर शौर्य के संस्कार डाले थे। दोहद के समय महिला की स्थिति विचित्र बन जाती है / उस समय उसकी भावनाएँ इतनी तीव्र होती हैं कि यदि उसकी भावनाओं की पूर्ति न की जाये तो वह रुग्ण हो जाती है। कई बार तो दोहद की पूर्ति के अभाव में महिलाएं अपने प्राणों का त्याग भी कर देती हैं। सुश्रुत भारतीय आयुर्वेद का एक शीर्षस्थ ग्रंथ है। उसमें लिखा 81. विपाक सूत्र-३; कहाकोसु सं. 16; गाहा सतसई प्र. शतक गा 1-15, ---3-902 5-72; श्रेणिक चरित्र; उत्तरा. टीका 132, पावश्यक-चूणि 2 10 166 निरियावालिका 1, पृ० 9-11, पिण्ड नियुक्ति 80 ; ज्यवहारभाष्य 1, 3, पृ० 16; 82. सिसुमार जातक एवं वानर जातक; सूपत्त जातक: थूस जातक, छवक जातकः निदान कथा; 83. रघुवंश--स० 14; कथासरित्सागर भ० 22; 35; तिलकमंजरी पृ. 75; वेणीसंहार / Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है-दोहद के पूर्ण न होने पर जो सन्तान उत्पन्न होती है उसका अवयव विकृत होता है। या तो वह कुबड़ा होगा, लुज-पुंज, जड़, बौना, बाड़ा या अंधा होगा, अष्टावक्र की तरह कुरूप होगा। किन्तु दोहद पूर्ण होने पर सन्तान सर्वांगसुन्दर होती है। आचार्य हेमचन्द्र के समय तक दोहला माता की मनोरथ-पूर्ति के अर्थ में प्रचलित था। राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और दक्षिण भारत के कर्नाटक, प्रान्ध्र और तमिलनाडु में सातवें माह में साते, सांधे और सीमन्त के रूप में समारंभ मनाया जाता है। सात महीने में गर्भस्थ शिशु प्रायः शारीरिक पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। ऐसा भी माना जाता है कि यदि सात मास में बालक का जन्म हो जाता है और वह जीवित रहता है तो महान यशस्वी होता है। वासुदेव श्रीकृष्ण को सातवें माह में उत्पन्न हुअा माना जाता है। सुश्रुत प्रादि में चार माह में दोहद पूर्ति का समय बताया है। ज्ञातधर्मकथा,८५ कथा-कोश६ और कहाकोसू 50 ग्रादि ग्रंथों में ऐसे प्रसंग मिलते हैं कि तीसरे, पांचवें और सातवें माह में दोहद की पूर्ति की गई / क्योंकि उसी समय उसको दोहद उत्पन्न हुए थे। आधुनिक शरीर-शास्त्रियों का भी यह अभिमत है कि अवयवनिर्माण की प्रक्रिया तृतीय मास में पूर्ण हो जाती है, उसके पश्चात् भ्रूण के प्रावश्यक अंग-प्रत्यंग में पूर्णता पाती रहती है। अंगविज्जा जैन साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। उस ग्रन्थ में विविध दृष्टियों से दोहदों के संबंध में गहराई से चिन्तन किया है। जितने भी दोहद उत्पन्न होते हैं, उन्हें पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता हैशब्दगत, गंधगत, रूपगत, रसगत और स्पर्शगत / क्योंकि ये ही मुख्य इन्द्रियों के विषय हैं और इन्हीं की दोहदों में पूर्ति की जाती है। प्राचीन साहित्य में जितने भी दोहद आये हैं, उन सभी का समावेश इन पाँचों में हो जाता है। वैदिक वाङमय में, बौद्ध जातक साहित्य में और जैन कथा साहित्य में दोहद उत्पत्ति और उसकी पूर्ति के अनेक प्रसंग मिलते हैं / चरक आदि में भी इस पर विस्तार से चर्चा है / प्राचीन ग्रंथों के प्राधार से पाश्चात्य चिन्तक डा० बलमफील्ड आदि ने दोहद के सम्बन्ध में कुछ चिन्तन किया है। कला : एक विश्लेषण व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के सर्वांगीण विकास हेतु शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक माना गया था। प्राचीन शिक्षापद्धति का उद्देश्य था चरित्र का संगठन, व्यक्तित्वनिर्माण, संस्कृति की रक्षा, सामाजिक 84. दौहदविमानात कुब्ज कुणि खजं जडं वामनं विकृताक्षमनक्षं वा नारी सुतं जनयति / तस्मात् सा यद्यदिच्छेत् तत्तस्य दापयेत / लब्धदौहदा हि वीर्यवन्तं चिरायुषञ्च पुत्र जनयति / -सुश्रुतसंहिता, अ० 3, शरीरस्थानम्-१४ 85. ज्ञाताधर्मकथा-१, पृ० 10 86. कथाकोश पृ० 14 . 87. कहाकोसु-सं-४९ / 88. अंगविद्या अध्याय 36 89. The Dohado or Craving of Pregnant women -Journal of American Oriental Society. Vol IX Part 1st, Page 1-24. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक कर्तव्यों को सम्यक प्रकार से पालन करना / जब मेघकूमार पाठ वर्ष का हो गया तब शुभ नक्षत्र और श्रेष्ठ लग्न में उसे कलाचार्य के पास ले जाया गया। प्राचीन युग में शिक्षा का प्रारम्भ पाठ वर्ष में माना मया, क्योंकि तब तक बालक का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने के योग्य हो जाता था। भगवती और अन्य प्रागमों में भी इसी उम्र का उल्लेख है। कथाकोश-प्रकरण', ज्ञानपंचमी कथा'२, कुवलयमाला' 3 आदि में भी इसी उम्र का उल्लेख है / स्मृतियों में पांच वर्ष की उम्र में शिक्षा देने का उल्लेख है / पर प्रागमों में पाठ वर्ष ही बताया है / उस युग में विविध कलाओं का गहराई से अध्ययन कराया जाता था। पुरुषों के लिए बहत्तर कलाएं और स्त्रियों के लिए चौसठ कलाएँ थी। केवल ग्रन्थों से ही नहीं, उन्हें अर्थ और प्रयोगात्मक रूप से भी सिखलाया जाता था। वे कलाएँ मानव की ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के पूर्ण विकास के लिए अत्यन्त उपयोगी थीं। मानसिक विकास उच्चतम होने पर भी शारीरिक विकास यदि न हो तो उसके अध्ययन में चमत्कृति पैदा नहीं हो सकती। प्रस्तुत प्रागम में बहत्तर कलाओं का उल्लेख हुआ है / बहत्तर कलाओं के नाम समवायांग, राजप्रश्नीय, प्रोपपातिक और कल्पसूत्र सुबोधिका टीका में भी प्राप्त होते हैं। पर ज्ञातासूत्र में ग्राई हुई कलाओं के नामों में और उन प्रागमों में पाये हुए नामों में कुछ अन्तर है / तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने हेतु हम यहाँ दे रहे हैं। -ज्ञातासूत्र के अनुसार 5 (1) लेख (2) गणित (3) रूप (4) नाट्य (5) गीत (6) वादित्र (7) स्वरगत (8) पुष्करगत (9) समताल (10) द्यूत (11) जनवाद (12) पाशक (पासा) (13) अष्टापद (14) पुर:काव्य (15) दकमृत्तिका (16) अन्नविधि (17) पान विधि (18) वस्त्रविधि (19) विलेपनविधि (20) शयनविधि (21) आर्या (22) प्रहेलिका (23) मागधिका (24) गाथा (25) गीति (26) श्लोक (27) हिरण्य युक्ति (28) स्वर्ण युक्ति (29) चूर्णयुक्ति (30) प्राभरणविधि (31) तरुणोप्रतिकर्म (32) स्त्रीलक्षण (33) पुरुषलक्षण (34) हयलक्षण (35) गजलक्षण (36) गोलक्षण (37) कुक्कुटलक्षण (38) छत्रलक्षण (39) दण्डलक्षण (40) असिलक्षण (41) मणिलक्षण (42) काकणीलक्षण (43) वास्तुविद्या (44) स्कन्धावारमान (45) नगरमान (46) व्यूह (47) प्रतिव्यूह (48) चार (49) प्रतिचार (50) चक्रव्यूह (51) गरुडव्यूह (52) शकटव्यूह (53) युद्ध (54) नियुद्ध (55) युद्धनियुद्ध (56) दृष्टियुद्ध (57) मुष्टियुद्ध (58) बाहुयुद्ध (59) लतायुद्ध (60) इषुशास्त्र (61) छरुप्रवाद (62) धनुर्वेद (63) हिरण्यपाक (64) स्वर्णपाक (65) सूत्रखेड (66) वस्त्रखेल (67) नालिकाखेल (68) पत्रच्छेद्य (69) कटच्छेद्य (70) सजीव (71) निर्जीव (72) शकुनिरुत / प्रोपपातिक में पांचवीं कला 'गीत' है, पच्चीसवीं कला 'गीति' और छप्पनवीं कला 'दृष्टियुद्ध' नहीं है। 90. भगवती-अभयदेव वृत्ति 11.11, 429, पृ० 999. 91. कथाकोश प्रकरण पृ० 6. 92. ज्ञानपंचमी कहा 6.92 93. कुवलयमाला 21, 12-13, 94, (क) डी. सी. दासगुप्त 'द जैन सिस्टम आफ एजुकेशल' पृ० 74. (ख) एच. प्रार. कापडिया 'द जैन सिस्टम प्राफ एजुकेशन' पृ० 206. 95. ज्ञातासूत्र पृ. 48 (प्रस्तुत संस्करण) 96. प्रोपपातिक 40 पत्र 185. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके स्थान पर प्रोपपातिक में (36) चक्कलक्खणं, (38) चम्मलक्खणं तथा (46) वत्थुनिवेसन कलाओं का उल्लेख है। रायपसेणिय सूत्र में उन्तीसवीं कला 'चूर्णयुक्ति' नहीं है, (38) वीं कला 'चक्रलक्षण' विशेष है / छप्पनवीं कला 'दृष्टियुद्ध' के स्थान पर 'यष्टियुद्ध' है / अन्य सभी कलाएँ ज्ञाताधर्म के अनुसार ही हैं। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 8 शांतिचन्द्रीयवत्ति, वक्षस्कार-२ पत्र संख्या 136-2, 137-1 में सभी कलाएँ ज्ञातासूत्र की-सी ही हैं, किन्तु संख्या क्रम में किंचित् अन्तर है। ज्ञातासूत्र में पायी हुई बहत्तर कलानों के नामों में और समवायांग में पाई हुई बहत्तर कलाओं के नामों में बहत अन्तर है। समवायांग की कलासूची यहाँ प्रस्तुत है (1) लेह-लेख लिखने की कला (2) गणियं---गणित (3) रूवं रूप सजाने की कला (4) नट्ट-नाट्य करने की कला (5) गीयं-गीत गाने की कला (6) वाइयं-वाद्य बजाने को कला (7) सरगयं-स्वर जानने की कला (8) पुक्खरयं-ढोल प्रादि वाद्य बजाने की कला (9) समतालं-ताल देना। (10) जूयं--जुमा खेलने की कला (11) जणवायं-वार्तालाप की कला (12) पोक्खच्चं--नगर-संरक्षण की कला (13) अट्ठावय-पासा खेलने की कला (14) दगमट्रियं-पानी और मिट्टी के संमिश्रण से वस्तु बनाने की कला (15) अन्नविहिं–अन्न उत्पन्न करने की कला (16) पाणविहिं पानी को उत्पन्न करने तथा शुद्ध करने की कला (17) वत्थविहिं ---वस्त्र बनाने की कला (18) सयणविहि-शय्या निर्माण करने की कला (19) प्रज्ज-संस्कृत भाषा में कवितानिर्माण की कला। (20) पहेलियं प्रहेलिका निर्माण की कला (21) मागहियं-छन्द विशेष बनाने की कला (22) गाह-प्राकृत भाषा में गाथा निर्माण की कला (23) सिलोग-श्लोक बनाने की कला --- - ----- 97. राजप्रश्नीयसूत्र, पत्र 340, 98. समवायांग, समवाय-७२. 99. ज्ञातसूत्र-१. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (24) गंधजुत्ति—सुगंधित पदार्थ बनाने की कला (25) मधुसित्थं-मधुरादि छह रस संबंधी कला (26) प्राभरणविहि-अलंकार निर्माण व धारण की कला (27) तरुणीपडिकम्म---स्त्री को शिक्षा देने की कला (28) इत्थीलक्खणं--स्त्री के लक्षण जानने की कला (29) पुरिसलक्खणं-पुरुष के लक्षण जानने की कला (30) हयलक्खणं- घोड़े के लक्षण जानने की कला (31) गयलक्खणं-हस्ती के लक्षण जानने की कला (32) गोलक्खण --गाय के लक्षण जानने की कला (33) कुक्कुडलक्खणं-कुक्कुट के लक्षण जानने की कला (34) मिढियलक्खणं-मेंढे के लक्षण जानने की कला (35) चक्कलक्खणं-चक्र के लक्षण जानने की कला (36) छत्रलक्वणं- छत्र के लक्षण जानने की कला (37) दण्डलक्खणं--दण्ड के लक्षण जानने की कला (38) असिलक्खणं-तलवार के लक्षण जानने की कला (39) मणिलक्खणं- मणि के लक्षण जानने की कला (40) कागणिलक्खणं- काकिणी-चक्रवर्ती के रत्न विशेष के लक्षण को जानने की कला (41) चम्मलवखणं--- चर्म लक्षण जानने की कला (42) चंदलक्खणं--चन्द्र लक्षण जानने की कला (43) सूरचरियं--सूर्य प्रादि की गति जानने की कला (44) राहुचरिय-राहु आदि की गति जानने की कला (45) गहचरियं-ग्रहों की गति जानने की कला (46) सोभागकरं-सौभाग्य का ज्ञान (47) दोभागकर दुर्भाग्य का ज्ञान (48) विज्जागयं-रोहिणी, प्रज्ञप्ति प्रादि विद्या सम्बन्धी ज्ञान (49) मंतगयं-मन्त्र साधना प्रादि का ज्ञान (50) रहस्सगयं--गुप्त वस्तु को जानने की कला (51) सभासं--प्रत्येक वस्तु के वृत्त का ज्ञान (52) चारं-सैन्य का प्रमाण प्रादि जानना (53) पडिचार----सेना को रणक्षेत्र में उतारने की कला (54) बूहं- व्यूह रचने की कला (55) पडिहंप्रतिव्यूह रचने की कला (56) खंधावारमाणं-सेना के पडाव का प्रमाण जानना (57) नगरमाणं-नगर का प्रमाण जानने की कला (58) वत्थुमाणं-वस्तु का प्रमाण जानने की कला (59) खंधावारनिवेसं-सेना का पडाव आदि डालने का परिज्ञान 33 , Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (60) वत्थुनिवेसं-प्रत्येक वस्तु के स्थापन करने की कला (61) नगरनिवेसं-नगर निर्माण का ज्ञान (62) ईसत्थं-- ईषत् को महत् करने की कला (63) छरुप्पवायं-तलवार आदि की मूठ बनाने की कला (64) प्राससिक्खं-- अश्वशिक्षा (65) हरिथसिक्खं-हस्तिशिक्षा (66) धणुब्वेयं–धनुर्वेद (67) हिरण्यपागं, सुवष्णपागं, मणिपागं, धातुपागं-हिरण्यपाक, सुवर्णपाक, मणिपाक, धातुपाक बनाने की कला (68) बाहुजुद्धं, दंडजुद्धं, मुट्ठिजुद्धं, अट्ठिजुद्धं, जुद्धं, निजुद्धं, जुद्धाइजुद्धं-बाहुयुद्ध, दण्डयुद्ध, मुष्टियुद्ध, यष्टियुद्ध, युद्ध, नियुद्ध, युद्धा तियुद्ध करने की कला (69) सुत्ताखेडं, नालियाखेडं, वट्टखेडं, धम्मखेडं, चम्मखेडं-सूत बनाने की कला, नली बनाने की, गेंद खेलने की, वस्तु के स्वभाव जानने की, चमड़ा बनाने प्रादि की कला (70) पत्रच्छेज्ज-कडगच्छेज्ज-पत्रछेदन, वृक्षांग विशेष छेदने की कला (71) सजीवं, निज्जीवं-सजीवन, निर्जीवन-संजीवनी विद्या (72) सउणरुयं--पक्षी के शब्द से शुभाशुभ जानने की कला कल्पसूत्र की टोकानों१०० में बहत्तर कलानों का वर्णन प्राप्त होता है। वे ज्ञातासूत्र की वहत्तर कलानों से प्रायः भिन्न हैं / वे इस प्रकार हैं-(१) लेखन (2) गणित (3) गीत (4) नृत्य (5) वाद्य (6) पठन (7) शिक्षा (8) ज्योतिष (9) छन्द (10) अलंकार (11) व्याकरण (12) निरुक्ति (13) काव्य (14) कात्यायन (15) निघंटु (16) गजारोहण (17) अश्वारोहण (18) प्रारोहण शिक्षा (19) शस्त्राभ्यास (20) रस (21) यंत्र (22) मंत्र (23) विष (24) खन्ध (25) गन्धवाद (26) प्राकृत (27) संस्कृत (28) पैशाचिका (29) अपभ्रश (30) स्मृति (31) पुराण (32) विधि (33) सिद्धान्त (34) तर्क (35) वैद्यक (36) वेद (37) पागम (38) संहिता (39) इतिहास (40) सामुद्रिक (41) विज्ञान (42) प्राचार्य विद्या (43) रसायन (44) कपट (45) विद्यानुवाद दर्शन (46) संस्कार (47) धूर्त संवलक (48) मणिकर्म (49) तरुचिकित्सा (50) खेचरी कला (51) अमरी कला (52) इन्द्रजाल (53) पाताल सिद्धि (54) यन्त्रक (55) रमवती (56) सर्वकरणी (57) प्रासाद लक्षण (58) पण (59) चित्रोपल' (60) लेप (61) चर्मकर्म (62) पत्रच्छेद (63) नखछेद (64) पत्रपरीक्षा (65) वशीकरण (6) कष्ट घटन (67) देशभाषा (68) गारुड (69) योगांग (70) धातु कर्म (71) केवल विधि (72) शकुनिरुत / प्राचार्य वात्स्यायन ने "कामसूत्र" में 101 चौसठ कलाओं का वर्णन किया है। उन चौसठ कलानों के साथ ज्ञातासूत्र में आई हुई बहत्तर कलाओं की हम सहज तुलना कर सकते हैं। वे बहत्तर कलाएँ चौसठ कलाओं के अन्तर्गत पा सकती हैं। देखिए 100. कल्पसूत्र सुबोधिकाटीका 101. कामसूत्र विद्यासमुद्देश प्रकरण 34 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामसूत्र (5) गीत (6) वादित्र (4) नाट्य ज्ञातासूत्र (7) स्वरगत (8) पुष्करगत (9) समताल (68) पत्रच्छेद्य (20) शयन विधि ? (31) तरुणीप्रतिकर्म (19) विलेपन (38) वस्त्रविधि (20) शयनविधि (1) गीत (2) वादित्र (3) नृत्य (4) पालेख्य (5) विशेषकच्छेद्य (पत्रच्छेद्य) (6) तंडुल कुसुमबलि विकार (7) पुष्पस्तरण (पुष्पशयन) (8) दशनवसनांगराग (9) मणि भूमि कर्म (10) शयन रचन (11) उदक वाद्य (12) उदकघात (13) चित्रयोग (14) माल्यग्रंथन (15) शेखरकापीड योजन (16) नेपथ्य प्रयोग (17) कर्णपत्र भंग (18) मंध युक्ति (19) भूषण योजना (20) इन्द्रजाल (21) कोचुमार योग (22) विचित्र शाक (23) सूचिवान् कर्म (24) वीणा डमरुक वाद्य (25) प्रतिमाला (26) हस्तलाघव (27) पानकरस रागासव योजन (28) सूत्रक्रीडा ((29) प्रहेलिका (30) दुर्वाचक योग (31) पुस्तक वाचक (32) नाटकाख्यायिक दर्शन (33) काव्य समस्या पूर्ति (34) पत्रिका वेत्रवान विकल्प ! (29) चूर्णयुक्ति / (18) प्राभरणविधि (19) अन्नविधि (6) वादित्र (69) कटच्छेद्य (68) पत्रच्छेद्य (17) पानविधि (65) सूत्रखेल (22) प्रहेलिका (67) नालिकाखेल Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामसूत्र ज्ञातासूत्र (35) तक्षकर्म (36) तक्षण (37) वास्तुविधि (38) रूप्य रत्नपरीक्षा (43) वास्तुविद्या (40) मणिलक्षण (27) हिरण्ययुक्ति (63) हिरण्यपाक (70) सजीव (45) नगरमान (51) काकणीलक्षण (28) स्वर्णयुक्ति (64) स्वर्णपाक (71) निर्जीव (39) धातुवाद (40) मणिरागाकर-ज्ञान (41) वृक्षायुर्वेद (42) मेघ कुक्कुट लावक युद्ध विधि (43) शुक सारिका प्रलापन (44) उत्सादन संवाहन केशमार्जन कुशलता (45) अक्षर मुष्टिका कथन (46) म्लेच्छित कलाविकल्प (47) देशभाषा-विज्ञान (48) पुष्पकटिका (49) निमित्तज्ञान (72) शकुनिरत (32) स्त्रीलक्षण (33) पुरुषलक्षण | (34) हयलक्षण (35) गजलक्षण (36) गोलक्षण (37) कुक्कुटलक्षण (38) छत्रलक्षण (29) दण्डलक्षण (40) असिलक्षण (41) मसिलक्षण (42) काकणीलक्षण (50) यंत्रमातृका (51) धारणमातृका (52) संपाठ्य (53) मानसी काव्य क्रिया (54) अभिधानकोश (55) छन्द विज्ञान (24) गाथा (21) आर्या (16) मागधिका (25) गीति (26) श्लोक (१४)पुर: काव्य (56) क्रिया कल्प (57) छलितक योग (58) वस्त्र गोपन (59) द्यूत विशेष (60) आकर्ष क्रीडा (61) बालक्रीडन-- / (10) द्यूत (11) जनवाद (12) पाशक (13) अष्टापद 36 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामसूत्र ज्ञातासूत्र (62) वैनयिका..." (63) वैजयिका... .. (46) व्यूह (47) प्रतिव्यूह (50) चक्रव्यूह (51) गरुडव्यूह (52) शकट व्यूह (53) युद्ध (54) नियुद्ध / (55) युद्धातियुद्ध (56) दृष्टियुद्ध (57) मुष्टियुद्ध (58) बाहुयुद्ध (59) लतायुद्ध (60) इषुशास्त्र (61) छरूप्रवाद (62) धनुर्वेद (44) स्कंधावारमनन (64) व्यायामिकी पुरुषों की भांति महिलाओं की कलाओं का भी प्रस्तुत आगम में उल्लेख है / पर यहाँ उनके नाम नहीं बताये गये हैं। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति१२ में महिलाओं की चौसठ कलाओं के नाम इस प्रकार प्राप्त होते हैं (1) नृत्य (2) प्रौचित्य (3) चित्र (4) वादिन (5) मंत्र (6) तंत्र (7) ज्ञान (8) विज्ञान (9) दम्भ (10) जलस्तंभ (11) गतिमान (12) तालमान (13) मेघवृष्टि (14) फलाकृष्टि (15) पारामरोपण (16) प्राकारगोपन (17) धर्म विचार (18) शकुनसार (19) क्रियाकल्प (20) संस्कृतजल्प (21) प्रासादनीति (22) धर्मनीति (23) वर्णिकावृद्धि (24) सुवर्णसिद्धि (25) सुरभितलकरण (26) लीलासंचरण (27) हयगज-परीक्षण (28) पुरुष-स्त्री लक्षण (29) हेमरत्नभेद (30) अष्टादश लिपि परिच्छेद (31) तत्काल बुद्धि (32) वस्तुसिद्धि (33) काम विक्रिया (34) वैद्यक क्रिया (35) कुम्भभ्रम (36) सारिश्रम (67) अंजनयोग (38) चूर्णयोग (39) हस्तलाधव (40) वचनपाटव (41) भोज्यविधि (42) वाणिज्यविधि (43) मुखमण्डन (44) शालिखण्डन (45) कथाकथन (46) पुष्पग्रन्थन (47) वक्रोक्ति (48) काव्य शक्ति (49) स्फारविधि वेश (50) सर्वभाषा विशेष (51) अभिधान ज्ञान (52) भूषणपरिधान (53) भृत्योपचार (54) गृहाचार (55) व्याकरण (56) परनिराकरण (57) रन्धन (58) केशबन्धन (59) वीणानाद (60) वितण्डावाद (61) अंकविचार (62) लोकव्यवहार (63) अन्त्याक्षरिका (64) प्रश्नप्रहेलिका। . केलदि श्रीबसवराजेन्द्र ने 'शिवतत्त्वरत्नाकर' में भी चौसठ कलाओं का निर्देश किया है। वे इस प्रकार हैं--(१) इतिहास (2) प्रागम (3) काव्य (4) अलंकार (5) नाटक (6) गायकत्व (7) कवित्व (8) कामशास्त्र (9) दरोदर (चत) (10) देशभाषालिपिज्ञान (11) लिपिकर्म (12) बाचन (13) गणक (14) व्यवहार (15) स्वरशास्त्र (16) शकुन (17) सामुद्रिक (18) रत्नशास्त्र (19) गज-प्रश्व-रथ कौशल (20) मल्लशास्त्र (21) सूपकर्म (22) भूरुहदोहद (बागवानी) (23) गंधवाद (24) धातुवाद (25) रस संबंधी (26) खनिवाद (27) बिलवाद (28) अग्निस्तंभ (29) जलस्तंभ (30) वाच:स्तंभन (31) वयःस्तंभन (32) वशीकरण (33) प्राकर्षण (34) मोहन (35) विद्वेषण (36) उच्चाटन (37) मारण (38) कालवंचन (39) परकायप्रवेश (40) पादुकासिद्धि (41) वासिद्धि (42) गुटिकासिद्धि (43) ऐन्द्रजालिक (44) अंजन (45) परदृष्टिवंचन (46) स्वरवंचन (47) मणि मंत्र औषधादि की सिद्धि (48) चोरकर्म (49) चित्रक्रिया (50) लोहक्रिया (51) अश्मक्रिया (52) मृत्क्रिया (53) दारुक्रिया (54) वेणुक्रिया (55) चर्मक्रिया (56) अंबरक्रिया (57) अदृश्यकरण (58) दंतिकरण (59) मृगयाविधि (60) वाणिज्य (61) पाशुपात्य (62) कृषि (63) पासवकर्म (64) मेधादि युद्धकारक कौशल 112 जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृत्ति, वक्षस्कार 2, पत्र 139-2140-1 37 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्राचार्य ने नीतिसार ग्रन्थ 13 में प्रकारान्तर से चौसठ कलाएं बताई हैं। किन्तु विस्तारभय से हम यहां उन्हें नहीं दे रहे हैं / शुक्राचार्य का अभिमत है कि कला वह अद्भुत शक्ति है कि एक गूगा व्यक्ति जो वर्णोञ्चारण नहीं कर सकता है, उसे कर सके।११४ प्राचीन काल में कलाओं के व्यापक अध्ययन के लिए विभिन्न चिन्तकों ने विभिन्न कलानों पर स्वतन्त्र ग्रन्थों का निर्माण किया था। अत्यधिक विस्तार से उन कलाओं के संबंध में विश्लेषण भी किया था। जैसे, भारत का 'नाट्यशास्त्र' वात्स्यायन का 'कामसूत्र' चरक और सुश्रुत की संहिताएँ, नल का 'पाक दर्पण', पालकाप्य का 'हस्यायुर्वेद', नीलकण्ठ की 'मातंगलीला', श्रीकुमार का "शिल्परत्न', रुद्रदेव का 'शयनिक शास्त्र' प्रादि / अतीत काल में अध्ययन बहत ही व्यापक होता था। बहत्तर कलानों में या चौसठ कलाओं में जीवन की संपूर्ण विधियों का परिज्ञान हो जाता था / लिपि और भाषा कलानों के अध्ययन व अध्यापन के साथ ही उस युग में प्रत्येक व्यक्ति को और विशेषकर समृद्ध परिवार में जन्मे हुए व्यक्तियों की बहुभाषाविद् होना भी अनिवार्य था। संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के अतिरिक्त अठारह देशी भाषाओं का परिज्ञान यावश्यक था। प्रस्तुत सूत्र में मेधकुमार के वर्णन में 'अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासा विसारए' यह मूल पाठ है। पर वे अठारह भाषाएँ कौनसी थीं, इसका उल्लेख मूल पाठ में नहीं है। प्रोपपातिक आदि में भी इसी तरह का पाठ मिलता है, किन्तु वहाँ पर भी अठारह देशी भाषाओं का निर्देश नहीं है, नवांगी टीकाकार प्राचार्य अभयदेव ने 15 प्रस्तुत पाठ पर विवेचन करते हए अष्टादश लिपियों का उल्लेख किया है, पर अठारह देशी भाषाओं का नहीं। प्रभयदेव ने विभिन्न देशों में प्रचलित अठारह लिपियों में विशारद लिखा है। समवायांग, प्रज्ञापना विशेषावश्यकभाष्य की टीका और कल्पसुत्रटीका में अठारह लिपियों के नाम मिलते हैं। पर सभी नामों में यत्किचित् भिन्नता है। हम यहाँ तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले जिज्ञासुओं के लिए उनके नाम प्रस्तुत कर रहे हैं। समवायांग११६ के अनुसार (1) ब्राह्मी (2) यावनी (3) दोषउपरिका (4) खरोष्टिका (5) खरशाविका (पुष्करसारि) (6) पाहारातिगा (7) उच्चत्तरिका (8) अक्षरपृष्टिका (9) भोगवतिका (10) वैणकिया (11) निण्हविका (12) अंकलिपि (13) गणितलिपि (14) गंधर्वलिपि (भूतलिपि) (15) प्रादर्शलिपि (16) माहेश्वरी (17) दामिलीलिपि (द्रावडी) (18) पोलिन्दी लिपि प्रज्ञापना के अनुसार (1) ब्राह्मी (2) यावनी (3) दोसापुरिया (4) खरोष्ठी (5) पुखरासारिया (6) भोगवइया (भोगवती) 113. नीतिसार 4-3 114. शक्तो मूकोऽपि यत् कर्तुकलासंज्ञं तु तत् स्मृतम् / / 115. ज्ञातासूत्र 1 टीका 116. समवायांग, समवाय 18 117. प्रज्ञापना 1137 38 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (7) पहराइया (8) अन्तक्खरिया (9) अक्खरपुट्ठिया (10) वैनयिकी (11) अंकलिपि (12) निह्नविकी (13) गणितलिपि (14) गंधर्व लिपि (15) प्रायंसलिपि (16) माहेश्वरी (17) दोमिलीलिपि (18) पोलिन्दी विशेषावश्यक टीका के अनुसार (1) हंस (2) भूत (3) यक्षी (4) राक्षसी (5) उड्डी (6) यवनी (7) तुरुक्की (8) कोरी (9) द्रविडी (10) सिंघवीय (11) मालविनी (12) नडि (13) नागरी (14) लाट (15) पारसो (16) अनिमित्ती (17) चाणक्की (18) मूलदेवी कल्पसूत्र टोका के अनुसार (1) लाटो (2) चौडी (3) डाहली (4) कानडी (5) गृजरी (6) सौरहठी (7) मरहठी (8) खुरासानी (9) कोंकणी (10) मागधी (11) सिंहली (12) हाडो (13) कोडी (14) हम्मीरी (15) परसी (16) मसी (17) मालवी (18) महायोधी चीनी भाषा में रचित “फा युग्रन् चु लिन्" नामक बौद्ध विश्वकोश में तथा "ललित-विस्तरा"१२० के अनुसार (1) ब्राह्मी (2) खरोष्ठी (3) पुष्करसारी (4) अंगलिपि (5) बंगलिपी (6) मगधलिपि (7) मांगल्यलिपि (8) मनुष्यलिपि (5) अंगुलीयलिपि (10) शकारिलिपी (11) ब्रह्मवलीलिपि (12) द्राविडलिपि (13) कनारिलिपि (14) दक्षिणलिपि (15) उग्रलिपि (16) संख्यालिपि (17) अनुलोमलिपि (18) ऊर्ध्वधनुलिपि (19) दरदलिपि (20) खास्यलिपि (21) चीनलिपि (22) हुणलिपि (23) मध्याक्षरविस्तरलिपि (24) पुष्पलिपि (25) देवलिपि (26) नागलिपि (27) यक्षलिपि (28) गंधर्वलिपि (29) किन्नरलिपि (30) महोरगलिपि (31) असुरलिपि (32) गरुडलिपि (33) मृगचक्रलिपि (34) चक्रलिपि (35) वायुमरुलिपि (36) भौवदेवलिपि (37) अंतरिक्षदेवलिपि (38) उत्तरकुरुद्वीपलिपि (39) अपदगोडादिलिपि (40) पूर्वविदेहलिपि (41) उत्क्षेपलिपि (82) निक्षेपलिपि (43) विक्षेपलिपि (44) प्रक्षेपलिपि (45) सागरलिपि (46) वज्रलिपि (47) लेखप्रतिलेखलिपि (88) अनुद्रतलिपि (49) शास्त्रावर्तलिपि (50) गणावर्तलिपि (51) उत्क्षेपावर्तलिपि (52) विक्षेपावतलिपि (53) पादलिखितलिपि (54) द्विरुत्तरपदसंधिलिखितलिपि (55) दशोत्तरपद संधिलिखितलिपि (56) अध्याहारिणीलिपि (57) सर्वरुत्संग्रहिणीलिपि (58) विद्यानुलोमलिपि (59) विमिश्रितलिपि (60) ऋषितपस्तप्तलिपि (61) धरणीप्रेक्षणलिपि (62) सौषधनिस्यदलिपि (63) सर्वसारसंग्रहणलिपि (64) सर्वभूतरुद्र ग्रहणी लिपि / इन लिपियों के सम्बन्ध में प्रागमप्रभाकर पृश्यविजयजी म.१२१ का यह अभिमत था कि इनमें अनेकों नाम कल्पित हैं। इन लिपियों के सम्बन्ध में अभी तक कोई प्राचीन शिलालेख भी उपलब्ध नहीं हुआ है, इससे भी यह प्रतीत होता है कि ये सभी लिपियाँ प्राचीन समय में ही लुप्त हो गई। या इन लिपियों का स्थान ब्राह्मीलिपि ने ले लिया होगा। मेरी बष्टि से अठारह देशीय भाषा और लिपियाँ ये दोनों पृथक-पृथक् होनी चाहिए। 118. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 464 की टीका 119. कल्पसूत्र टीका 120. ललितविस्तरा अध्याय 10 121. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखनकला' पृ. 5 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत१२२ के नाट्यशास्त्र में सात भाषामों का उल्लेख मिलता, है—मागधी, प्रावन्ती, प्राच्या, शौरसेनी, बहिहका, दक्षिणात्य और अर्धमागधी। जिनदासगणिमहत्तर 123 ने निशीथचूणि में मगध, मालवा, महाराष्ट्र, लाट, कर्नाटक, द्रविड, गौड, विदर्भ इन पाठ देशों की भाषाओं को देशी भाषा कहा है। 'बहत्कल्पभाष्य' में प्राचार्य संघदासगणि 124 ने भी इन्हीं भाषाओं का उल्लेख किया है। 'कुवलयमाला१२५ में उद्योतनसूरि ने गोल्ल, मध्यप्रदेश, मगध, अन्तर्वेदि, कोर, ढक्क, सिन्धु, मरू गुर्जर, लाट, मालवा, कर्नाटक, ताइय (ताजिक), कोशल, मरहट्ट और आन्ध्र इन सोलह भाषामों का उल्लेख किया है। साथ ही सोलह गाथाओं में उन भाषाओं के उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं। डा. ए. मास्टर' 26 का सुझाव है कि इन सोलह भाषाओं में प्रौड़ और द्राविडी भाषाएँ मिला देने से अठारह भाषाएँ, जो देशी हैं, हो जाती हैं / प्रथम अध्ययन के अध्ययन से महावीरयुगीन समाज और संस्कृति पर भी विशेष प्रकाश पड़ता है। उस समय की भवन- निर्माणकला, माता-पिता-पुत्र प्रादि के पारिवारिक सम्बन्ध, विवाहप्रथा, बहुपत्नीप्रथा, दहेज, प्रसाधन, आमोद-प्रमोद, रोग और चिकित्सा, धनुर्विद्या, चित्र और स्थापत्यकला, आभूषण, वस्त्र, शिक्षा और विद्याभ्यास तथा शासनव्यवस्था आदि अनेक प्रकार की सांस्कृतिक सामग्री भी इसमें भरी पड़ी हैं। द्वितीय अध्ययन में एक कथा है-धन्ना राजगह का एक लब्धप्रतिष्ठ श्रेष्ठी था। चिर प्रतीक्षा के पश्चात् उसको एक पुत्र प्राप्त होता है / श्रेष्ठी पंथक नाम के एक सेवक को उसकी सेवा में नियुक्त किया। राजगृह के बाहर एक भयानक खंडहर में विजय चोर रहता था। वह तस्करविद्या में निपुण था / पंथक की दृष्टि चुराकर वह श्रेष्ठीपुत्र देवदत्त को प्राभूषणों के लोभ से चुरा लेता है और बालक की हत्या कर देता है। वह चोर पकड़ा गया और कारागह में बन्द कर दिया गया / किसी अपराध में सेठ भी उसी कारागृह में वन्द हो गये, जहाँ पर विजय चोर था / श्रेष्ठी के लिए बढ़िया भोजन घर से प्राता। विजय चोर की जबान उस भोजन को देखकर लपलपाती। पर, अपने प्यारे एकलौते पुत्र के हत्यारे को सेठ एक ग्रास भी कसे दे सकता था ? दोनों एक ही बेड़ी में जकड़े हए थे। जब सेठ की शौचनिवत्ति के लिए भावना प्रबल हुई तो वह एकाकी जा नहीं सकता था / उसने विजय चोर से कहा / उसने साफ इन्कार कर दिया / अन्त में सेठ को विजय चोर की शर्त स्वीकार करनी पड़ी कि प्राधा भोजन प्रतिदिन तुम्हें दूंगा। श्रेष्ठीपत्नी ने सुना तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुई / कारागृह से मुक्त होकर श्रेष्ठी घर पहुँचा तो भद्रा ने कहा कि तुमने महान् अपराध किया है। श्रेष्ठी ने अपनी विवशता बताई। प्रस्तुत कथाप्रसंग को देकर शास्त्रकार ने यह प्रतिपादन किया है कि सेठ को विवशता से पुत्र -घातक को भोजन देना पड़ता था। वैसे साधक को भी संयमनिर्वाह हेतु शरीर को आहार देना पड़ता है, किन्तु उसमें शरीर के प्रति किचित् भी प्रासक्ति नहीं होती। श्रमण की पाहार के प्रति किस तरह से अनासक्ति होनी चाहिए, कथा के माध्यम से इतना सजीव चित्रण किया गया है। श्रेष्ठी ने जो भोजन तस्कर को प्रदान किया था उसे अपना परम स्नेही और हितैषी समझकर नहीं किन्तु अपने कार्य की सिद्धि के लिए। वैसे ही श्रमण भी ज्ञान-दर्शन-चारित्र की उपलब्धि के लिए पाहार ग्रहण करता है। पिण्डनियुक्ति आदि में श्रमण के आहार ग्रहण करने के सम्बन्ध में गहराई से विश्लेषण किया गया है। उस गुरुतम रहस्य को यहाँ पर कथा के द्वारा सरल रूप से प्रस्तुत किया है / 122. भरत 3-17-48 123. निशीथचूणि 124. बृहत्कल्पभाष्य-१, 1231 की वृत्ति 125. 'कुवलयमाला का सांस्कृतिक अध्ययन' पृ. 253-58 126. A. Master-B. SOAS XIII-2, 1950. PP. 41315 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन की कथा का सम्बन्ध चम्पा नगरी से है / चम्पा नगरी महावीर युग की एक प्रसिद्ध नगरी थी। स्थानांग 27 में दस राजधानियों का उल्लेख है और दीघनिकाय में जिन छह महानगरियों का वर्णन है उनमें एक चम्पा नगरी भी है। प्रोपपातिक में विस्तार से चम्पा का निरूपण है। प्राचार्य शय्यंभव ने दशवकालिकसूत्र की रचना चम्पा में ही की थी। सम्राट श्रेणिक के निधन के पश्चात् उसके पुत्र कुणिक ने चम्पा को अपनी राजधानी बनाया था। चम्पा उस युग का प्रसिद्ध व्यापार केन्द्र था। कनिंघम' 28 ने भागलपुर से 24 मील पर पत्थरघाट या उसके प्रासपास चम्पा की अवस्थिति मानी है। फाहियान ने पाटलीपुत्र से अठारह योजन पूर्व दिशा में गंगा के दक्षिण तट पर चम्पा की स्थिति मानी है / महाभारत'२६ में चम्पा का प्राचीन नाम मालिनी या मालिन मिलता है। जैन बौद्ध और वैदिक परम्परा के साहित्य के अनेक अध्याय चम्पा के साथ जुड़े हुए हैं। विनयपिटक (1, 179) के अनुसार भिक्षुत्रों को बुद्ध ने पादुका पहनने की अनुमति यहाँ पर दी थी। सुमंगलविलासिनी के अनुसार महारानी ने नगरापोक्खरिणी नामक विशाल तालाब खुदवाया था, जिसके तट पर बुद्ध विशाल समूह के साथ बैठे थे। (दीघनिकाय 1, 111) राजा चम्प ने इसका नाम चम्पा रखा था। वहाँ के दो श्रेष्ठीपुत्रों में पय-पानीवत् प्रेम था। एक दिन उन्होंने उपवन में मयूरी के दो अण्डे देखे / दोनों ने एक-एक अण्डा उठा लिया ! एक ने बार-बार अण्डे को हिलाया जिससे वह निर्जीव हो गया। दूसरे ने पूर्ण निष्ठा के साथ रख दिया तो मयूर का बच्चा निकला और कुशल मयूरपालक के द्वारा उसे नत्यकला में दक्ष बनाया / एक श्रद्धा के अभाव में मोर को प्राप्त न कर सका, दूसरे ने निष्ठा के कारण मयुर को प्राप्त किया। इस रूपक के माध्यम से यह स्पष्ट किया है--संशयात्मा विनश्यति और दूसरा श्रद्धा के द्वारा सिद्धि प्राप्त करता है----श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् / श्रमणधर्म व श्रावकधर्म की प्राराधना व साधना पूर्ण निष्ठा के साथ करनी चाहिए। और जो निष्ठा के साथ साधना करता है वह सफलता के उच्च शिखर की स्पर्श करता है। श्रद्धा के महत्त्व को बताने के लिए यह रूपक बहुत ही सटीक है। इस कथा के वर्णन से यह भी पता लगता है कि उस युग में पशुनों पक्षियों को भी प्रशिक्षण दिया जाता था, पशु-पक्षी गण प्रशिक्षित होकर ऐसी कला प्रदर्शित करते थे कि दर्शक मंत्र-मुग्ध हो जाता था। ___ चतुर्थ अध्ययन की कथा का प्रारम्भ वाराणसी से होता है। वाराणसी प्रागैतिहासिक काल से ही भारत की एक प्रसिद्ध नगरी रही है। जैन बौद्ध और वैदिक परम्परानों के विकास, अभ्युदय एवं समत्थान के ऐतिहासिक क्षणों को उसने निहारा है। प्राध्यात्मिक, दार्शनिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक चिन्तन के साथ ही भौतिक सुख-सुविधाओं का पर्याप्त विकास वहाँ पर हया था / वैदिक परम्परा में वाराणसी को पावन तीर्थ१3० माना। शतपथब्राह्मण, उपनिषद् और पुराणों में वाराणसी से सम्बन्धित अनेक अनुश्रुतियां हैं। बौद्ध जातकों में वाराणसी के वस्त्र और चन्दन का उल्लेख' 31 है और उसे कपिलवस्तु, बुद्धगया के समान पवित्र स्थान माना है। बुद्ध का और उनकी परम्परा के श्रमणों का वाराणसी से बहुत ही मधुर सम्बन्ध रहा। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग वहाँ बिताया 32 | व्याख्याप्रज्ञप्ति में साढ़े पच्चीस आर्य देशों एवं सोलह महाजनपदों में काशी का उल्लेख 127. स्थानांग 10-717 128. The Ancient Geography of India. Page 546-547. 129. महाभारत XII, 56-7, (ख) मत्स्यपुराण 48, 97 (ग) वायुपुराण 99, 105-6, (घ) हरिवंशपुराण 32,49 130. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज पृ० 468 131. सम्पूर्णानन्द अभिनन्दन ग्रन्थ---"काशी की प्राचीन शिक्षापद्धति और पंडित" 132. विनयपिटक भा० 2, 359-60 (ख) मज्झिम० 1, 170 (ग) कथावत्यु 97, 559, (घ) सौन्दरनन्दकाव्या // श्लो० 10-11 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। 133 भारत की दस प्रमुख राजधानियों में एक राजधानी वाराणसी भी थी / यूवान च प्रांग ने वाराणसी को देश और नगर दोनों माना है। उसने वाराणसी देश विस्तार 4000 ली और नगर का विस्तार लम्बाई में 18 ली, चौड़ाई में 6 ली बतलाया है।३५ / जातक के अनुसार काशी राज्य का विस्तार 300 योजन था / वाराणसी काशी जनपद की राजधानी थी। प्रस्तुत नगर वरुणा और प्रसी इन दो नदियों के बीच में अवस्थित था, अतः इसका नाम वाराणसी पड़ा / यह निरुक्त नाम है। भगवान् पार्श्वनाथ प्रादि का जन्म भी इसी नगर में हुप्रा था। वाराणसी के बाहर मृत-गंगातीर नामक एक द्रह (ह्रद) था जिसमें रंग-बिरंगे कमल के फूल महकते थे / विविध प्रकार की मछलियां और कूर्म तथा अन्य जलचर प्राणी थे। दो कूर्मों ने द्रह से बाहर निकलकर अपने अंगोपांग फैला दिये। उसी समय दो शृगाल प्राहार की अन्वेषणा करते हुए वहाँ पहुँचे। कर्मों ने शृगालों की पदध्वनि सुनी, तो उन्होंने अपने शरीर को समेट लिया। शृगालों ने बहुत प्रयास किया पर बे कूर्मों का कुछ भी न कर सके / लम्बे समय तक प्रतीक्षा करने के बाद एक कर्म ने अपने अंगोपांगों को फैला दिया जिससे उसे शृगालों ने चीर दिया। जो सिकूड़ा रहा उसका बाल भी बांका न हमा। उसी तरह जो साधक अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप से वश में रखता है उसको किचित् भी क्षति नहीं होती / सूत्रकृतांग 37 में भी बहुत ही संक्षेप में कूर्म के रूपक को साधक के जीवन के साथ सम्बन्धित किया है। श्रीमद् भगवद्गीता में भी स्थितप्रज्ञ' के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए कछुए का दृष्टान्त देते हुए कहा, जैसे-वह अपने अंगों को, बाख भय उपस्थित होने पर, समेट लेता हैं वैसे ही साधकों को विषयों से इन्द्रियों को हटा लेना चाहिए / तथागत बुद्ध ने भी साधकजीवन के लिए कूर्म का रूपक प्रयुक्त किया है। इस तरह कर्म का रूपक जैन बौद्ध और वैदिक प्रादि सभी धर्मग्रन्थों में इन्द्रियनिग्रह के लिए दिया गया है / पर यहाँ कथा के माध्यम से देने के कारण प्रत्यधिक प्रभावशाली बन गया है। पाँचवें अध्ययन का सम्बन्ध विश्वविश्रुत द्वारका नगरी से है। श्रमण और वैदिक दोनों ही परम्पराओं के ग्रन्थों में द्वारका की विस्तार से चर्चा है। वह पूर्व-पश्चिम में 12 योजन लम्बी और उत्तर-दक्षिण में नौ योजन विस्तीर्ण थी / कुबेर द्वारा निर्मित सोने के प्राकार वाली थी, जिस पर पांच वर्णवाली मणियों के कंगूरे थे / बड़ी दर्शनीय थी। उसके उत्तर-पूर्व में रैवतक नामक पर्वत था। उस पर नंदवन नामक उद्यान था। कृष्ण वहाँ के सम्राट थे।१38 (ग) दीघनिकाय-महावीरपरिनिव्वाण सुत्त 133. व्याख्याप्रज्ञप्ति 15, पृ० 387 134. -(क) स्थानांग 10 (ख) निशीथ 9-19 135. यूनान, चुांग्स ट्रेवेल्स इन इण्डिया, भा॰ 2, पृ० 46-48 136. धजविहे?जातक-जातक भाग 3 पृ० 454 137. जहा कुम्मेसअंगाई, सए देहे समाहरे / एवं पावाई मेहावी, प्रज्झप्पेण समाहरे // --सूत्रकृतांग 138, यदा संहरते चायं कर्मोगानीय सर्वशः / इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। -श्रीमद्भगवद्गीता 2-58 139. ज्ञातासूत्र 1-5 42 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहतकल्प'४० के अनुसार द्वारका के चारों ओर पत्थर का प्राकार था। त्रिषष्ठिशलाका पुरुष 141 चरित्र में प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि द्वारका 12 योजन प्रायामवाली और नौ योजन विस्तृत थी। वह रलमयी थी। उसके सन्निकट अठारह हाथ ऊँचा, नौ हाथ भूमिगत और बारह हाथ चौड़ा सभी ओर खाई से घिरा हुमा एक सुन्दर किला था। बड़े सुन्दर प्रासाद थे। रामकष्ण के प्रासाद के पास प्रभासा नामक सभा थी। उसके समीप पूर्व में रैवतक गिरि, दक्षिण में माल्यवान शैल, पश्चिम में सौमनस पर्वत और उत्तर में गन्धमादन गिरि थे / प्राचार्य हेमचन्द्र 42 प्राचार्य शीलांक 43 देवप्रभसरि४ प्राचार्य जिनसेन'४५ प्राचार्य गुणभद्र प्रभृति श्वेतांबर व दिगम्बर परम्परा के ग्रंथकारों से और वैदिक हरिबंशपुराण,४७ विष्णुपुराण और श्रीमद्भागवत 46 आदि में द्वारका को समुद्र के किमारे माना है। महाभारत में श्रीकृष्ण ने द्वारकागमन के सम्बन्ध में युधिष्ठिर से कहा-मथुरा को छोड़कर हम कुशस्थली नामक नगरी में पाये जो रैवतक पर्वत से उपशोभित थी। वहाँ दुर्गम दुर्ग का निर्माण किया। अधिक द्वारों वाली होने से द्वारवती कहलाई।" महाभारत जनपर्व की टीका 150 में नीलकंठ ने कुशावर्त का अर्थ द्वारका किया है। प्रभुदयाल मित्तल 152 ने लिखा है-शूरसेन जनपद से यादवों के प्राजाने के कारण द्वारका के उस छोटे से राज्य की अत्यधिक उन्नति हुई / वहाँ पर दुर्भद्य दुर्ग और विशाल नगर का निर्माण कराया गया और अंधकबष्णि संघ के एक शक्तिशाली यादव राज्य के रूप में संगठित किया गया। भारत के समुद्र तट का वह सुदृढ राज्य विदेशी अनार्यों के प्राक्रमण के लिए देश का एक सजग प्रहरी बन गया / गुजराती में 'द्वार' का अर्थ बन्दरगाह है / द्वारका या द्वारावती का अर्थ बन्दरगाहों की नगरी है। उन बन्दरगाहों से यादवों ने समुद्रयात्रा कर विराट सम्पत्ति अजित की थी। हरिवंशपुराण' 53 में लिखा है-द्वारका में निर्धन, भाग्यहीन, निर्बल तन और मलिन मन का कोई भी व्यक्ति नहीं था। वायुपुराण आदि के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि महाराजा रेवत ने समुद्र के मध्य कुशस्थली नगरी वसाई थी। वह मानत जनपद में थी। वह कुशस्थली श्रीकृष्ण के समय द्वारका या द्वारवती के नाम से पहचानी जाने लगी। घटजातक 154 का अभिमत है कि द्वारका के एक प्रोर विराट समुद्र अठखेलियां कर रहा था तो दूसरी पोर गगनचुम्बी पर्वत था / डा. मलशेखर का भी यही मन्तव्य है कि 140. बृहत्कल्प भाग 2, 251 141. त्रिषष्टि शलाका. पर्व 8. सर्ग 5, पृ. 92 142. त्रिषष्ठि. पर्व, 8, सर्ग 5, पृ. 92 143. चउप्पन महापुरिसचरियं 144. पाण्डवचरित्र देवप्रभसूरिरचित 145. हरिवंशपूराण 41/1919 146. उत्तरपुराण 71/20-23, पृ. 376 147. हरिवंशपुराण 2/54 148. विष्णुपुराण 5/23/13 149. श्रीमद्भागवत 10 अ. 50/50 150. महाभारत सभापर्व अ. 14 151. (क) महाभारत जनपर्व प्र. 160 श्लो. 50/ (ख) प्रतीत का अनावरण पृ. 163 152. द्वितीय खंड ब्रज का इतिहास पृ. 47 153. हरिबंशपुराण 2/58/65 154. जातक (चतुर्थ खंड) पृ. 284 43 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेतवत्थ '55 ने द्वारका को कंबोज का एक नगर माना है। डा. मलशेखर 56 ने प्रस्तुत कथन का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि संभव है यह कंबोज ही कंसभोज हो जो कि अंधकवृष्णि के दस पुत्रों का देश था / डा. मोतीचन्द 15. कंबोज को पामीर प्रदेश मानते हैं और द्वारका को बदरवंशा के उत्तर में अवस्थित दरवाजनगर कहते हैं / रायस डेविड्स१५८ ते कंबोज को द्वारका की राजधानी लिखा है। उपाध्याय भरतसिंह' 56 ने लिखा है द्वारका सौराष्ट्र का एक नगर था, संप्रति द्वारका कस्बे से आगे 20 मील की दूरी पर कच्छ की खाड़ी में एक छोटा सा तापू है। वहां एक दूसरी द्वारका है जो बेट द्वारका कही जाती है। बांबे गेजेटियर१६० में कितने ही विद्वानों ने द्वारिका की अवस्थिति पंजाब में मानने की संभावना की है। डॉ. अनन्त सहाशिव अल्तेकर 161 ने लिखा है-प्राचीन द्वारका समुद्र में डूब गई, प्रतः द्वारका की अवस्थिति का निर्णय करना कठिन है।। प्रस्तुत विवेचन से यह स्पष्ट है कि द्वारका एक विशिष्ट नगरी थी। वह लंका के सदश ही स्वर्णपुरी थी। सम्राट श्रीकृष्ण तीन खण्ड के अधिपति थे। उनकी वह राजधानी थी। थावच्चा नामक सेठानी महान् प्रतिभासम्पन्न नारी थी। आधुनिक युग में जिस तरह से नारी नेतृत्व करने के लिए उत्सुक रहती है, वह सर्वतंत्र स्वतन्त्र होकर संचालन करना पसन्द करती है, वैसे ही थावच्चा घर की मालकिन थी / वह संपूर्ण घर की देखरेख करती थी। उसी के नाम का अनुसरण उसके पुत्र के लिए किया गया। भगवान अरिष्टनेमि के पावन प्रवचन को श्रवण कर थावच्चाकुमार के अन्तर्मानस में बैराग्य का पयोधि उछालें मारने लगा। उसने अपनी बत्तीस पत्नियों का परित्याग कर संयमसाधना के कठोर महामार्ग पर बढ़ना चाहा / माता के अनेक प्रकार से समझाने और अनुनय करने पर भी अन्त में पुत्र के वैराग्य की विजय हुई। थावच्चा दीक्षोत्सव मानने के लिए स्वयं सम्राट् कृष्ण के पास पहुँचती है और दीक्षोत्सव के लिए छत्र चामर मांगती है / श्रीकृष्ण ने स्वयं जाकर कुमार की परीक्षा ली। थावच्चाकूमार ने कहा-नाथ, मेरे दो शत्र हैं। पाप यदि उन शत्रयों से मेरी रक्षा कर सकें तो मैं संयम स्वीकार नहीं करूगा। __ श्रीकृष्ण ने पूछा-वे शत्रु कौन हैं जो तुम्हें परेशान कर रहे हैं ? उसने कहा -एक वृद्धावस्था है जो निरन्तर निकट आ रही है और दूसरी मृत्यु है। श्रीकृष्ण ने कहा इन शत्रयों को पराजित करने का सामर्थ्य मुझमें भी नहीं है। कुमार परीक्षा में खरा उतरा / श्रीकृष्ण ने द्वारका में उद्घोषणा करवाई कि जो कोई भी संयमसाधना के पथ पर बढ़ना चाहे उसके परिवार का भरण-पोषण मैं करूमा। इस उद्घोषणा से एक हजार व्यक्ति थावच्चाकुमार के साथ प्रव्रज्या लेने के लिए प्रस्तुत हए / श्रीकृष्ण ने अभिनिष्क्रमण महोत्सव मनाया। प्रस्तुत कथानक में ऐतिहासिक पुरुष श्रीकृष्ण वासुदेव के अन्तर्मानस में अर्हत् धर्म के प्रति कितनी गहरी निष्ठा थी, यह स्पष्ट रूप से व्यक्त होती है। एक महिला भी उनके पास सहर्ष पहुँच सकती थी। और अ की बात उनसे कह सकती थी / वे प्रत्येक प्रजा की बात को शांति से श्रवण करते और समस्याओं का समाधान करते। इसी अध्याय में अनेक दार्शनिक गुत्थियों को भी सुलझाया गया है। शौचधर्म की मान्यताओं का दिग्दर्शन करते हए जैनधर्मसम्मत शौचधर्म का प्रतिपादन किया है। जैनदर्शन ने द्रव्यशौच के स्थान पर भावशौच को महत्त्व दिया 155. पेतवत्थु भाग 2, पृ. 9 156. The Dictionary of Pali proper Names. भाग 1. पृ. 1126 157. Geographical & Economic Studies in Mahabharatha. P. 32-40 158, Buddist India P. 28 159. बौद्धकालीन भारतीय भूगोल पृ. 487 बांबे गेजेटियर भा. 1. पार्ट 1.5.11 का टिप्पण / 161. इण्डियन एण्टिक्वेरी, सन् 1925, सप्लिमेंट पृ. 25 44 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है / यात्रा, यज्ञ, अव्याबाध के संबंध में जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है। शब्दजाल में उलझाने के लिए ऐसे प्रश्न समुपस्थित किये जिनमें सामान्य व्यक्ति उलझ सकता है। किन्तु थावच्चामुनि ने उन शब्दों का सही अर्थ कर पोथीपंडितों की वाणी मक बना दी, धर्म का मूल विनय बताया। इस अध्याय में शैलक राजषि का भी वर्णन है, जो उग्र साधना करते हैं। उत्कृष्ट तप:साधना से उनका शरीर व्याधि से ग्रसित हो गया। उनका पुत्र राजा मण्डूक राजषि के उपचार के लिए प्रार्थना करता है और संपूर्ण उपचार की व्यवस्था करने से वे पूर्ण रूप से रोगमुक्त भी हो जाते हैं। यहाँ पर स्मरणीय है कि रोग परीपह है, उत्सर्ग मार्ग में श्रमण औषध ग्रहण नहीं करता, पर अपवाद मार्ग में वह औषध का उपयोग भी करता है / गहस्थ का कर्तव्य है कि वह श्रमण-श्रमणियों की ऐसे प्रसंग पर सेवा का सुनहरा लाभ ले। जो गृहस्थ उस महान लाभ से वंचित रहता है, वह बहुत बड़ी सेवा की निधि से वंचित रहता है। जब शैलक राजर्षि साधना की दृष्टि से शिथिल हो जाते हैं तब उनके अन्य शिष्यगण अन्यत्र विहार कर जाते हैं किन्त पंथकमनि अपनी अपर्व सेवा से एक आदर्श शिष्य का उत्तरदायित्व निभाते हैं। शिष्य के द्वारा चरणस्पर्श करते ही गुरु की प्रसूप्त अात्मा जग जाती है। बड़ा ही सुन्दर विश्लेषण है और वह अत्यन्त प्रेरणदायी छठे अध्ययन का संबंध राजगह नगर से है। इस अध्ययन में कर्मवाद जैसे गुरु गंभीर विषय को रूपक के द्वारा स्पष्ट किया है। गणधर गौतम की जिज्ञासा के समाधान में भगवान ने तंबे के उदाहरण से इस बात पर प्रकाश डाला कि मिट्टी के लेप से भारी बना हा तंबा जल में मग्न हो जाता है और लेप हटने से वह पुनः तैरने लगता है। वैसे ही कर्मों के लेप से प्रात्मा भारी बनकर संसार-सागर में डुबता है और उस लेप से मुक्त होकर ऊर्ध्वगति करता है। सातवें अध्ययन में धन्ना सार्थवाह की चार पुत्रवधुओं का उदाहरण है / श्रेष्ठी अपनी चार पुत्रवधुनों की परीक्षा के लिए पांच शालि के दाने उन्हें देता है। प्रथम पुत्रवधु ने फेंक दिये / दूसरी ने प्रसाद समझकर खा लिये। तीसरी ने उन्हें संभालकर रखा और चौथी ने खेती करवाकर उन्हें खूब बढ़ाया / श्रेष्ठी ने चतुर्थ रोहिणी को महस्वामिनी बनाया। वैसे ही गुरु पंच दाने रूप महाव्रत-शाली के दाने शिष्यों को प्रदान करता है। कोई उसे नष्ट कर डालता है, दूसरा उसे खान-पान का साधन बना लेता है। कोई उसे सुरक्षित रखता है और कोई उसे उत्कृष्ट साधना कर अत्यधिक विकसित करता है। प्रो. टाइमन ने अपनी जर्मन पुस्तक-"बुद्ध और महावीर" में बाइबिल की मैथ्यू और लक की कथा के साथ प्रस्तुत कथा की तुलना की है। वहाँ पर शालि के दानों के स्थान पर 'टेलेण्ट' शब्द पाया है। टेलेण्ट उस युग में प्रचलित एक सिक्का था / एक व्यक्ति विदेश जाते समय अपने दो पुत्रों को दस-दस टेलेण्ट दे गया था। एक ने व्यापार द्वारा उसकी प्रत्यधिक वृद्धि की / दूसरे ने उन्हें जमीन में रख लिए / लौटने पर पिता प्रथम पुत्र पर बहत प्रसन्न हुआ। पाठवें अध्ययन में तीर्थंकर मल्ली भगवती का वर्णन है, जिन्होंने पूर्व भव में माया का सेवत किया। माया के कारण उनका आध्यात्मिक उत्कर्ष जो साधना के द्वारा हा था, उसमें बाधा उपस्थित हो गई। तीर्थकर सभी पुरुष होते हैं, पर मल्ली भगवती स्त्री हुई / इसे जैन साहित्य में एक आश्चर्यजनक घटना माना है। मल्ली भगवती ने अपने पर मुग्ध होने वाले छहों राजाओं को, शरीर की अशुचित्ता दिखा कर प्रतिबुद्ध किया। उन्हीं के साथ दीक्षा ग्रहण की। केवलज्ञान प्राप्त किया। तीर्थ स्थापना कर तीर्थंकर बनीं। 45 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्ली भगवती का जन्म मिथिला में हना था। मिथिला उस युग की एक सुप्रसिद्ध नगरी थी। जातक की दृष्टि से मिथिला राज्य का विस्तार 300 योजन था। उसमें 16 सहस्र गाँव थे / सुरुचि जातक से भी मिथिला के विस्तार का पता चलता है। वाराणसी के राजा ने यह निश्चय किया था कि वह अपनी पुत्री का विवाह उसी राजकुमार के साथ करेगा जो एक पत्नीव्रत का पालन करेगा। मिथिला के राजकुमार सुरुचि के साथ विवाह की चर्चा चल रही थी। एक पत्नीव्रत की बात को श्रवण कर वहां के मंत्रियों ने कहा-मिथिला का विस्तार 7 योजन है और समुच्चय राष्ट्र का विस्तार 300 योजन है / हमारा राज्य बड़ा है, अत: राजा के अन्तःपुर में 1600 रानियां होनी'६३ चाहिए। रामायण में मिथिला को जनकपुरी कहा है। विविध तीर्थकल्प४ में इस हुत्ति कहा है और मिथिला को जगती'६५ कहा है। महाभारत वनपर्व (254) महावस्तु (प्र. 172) दिव्यावदान (प्र. 424) और रामायण प्रादिकाण्ड के अनुसार तीरभक्ति नाम है। यह नेपाल की सीमा पर स्थित है, वर्तमान में यह जनकपुर के नाम से प्रसिद्ध है, इसके उत्तर में मुजफ्फरपुर और दरभंगा के जिले हैं, (लाहा, ज्याग्रेफी प्राव प्री बुद्धिज्म पृ. 31, कनिंघम ऐश्येंट ज्याग्रेफी ऑव इण्डिया, एस. एस. मजुमदार संस्करण पृ. 71) इसके पास ही महाराजा जनक के भ्राता कनक थे। उनके नाम से कनकपुर बसा हुमा है। मिथिला से ही जैन श्रमणों की शाखा मैथिलिया'६६ निकली है / यहाँ पर भगवान महावीर ने छह वर्षावास संपन्न किये थे। प्राठवें गणधर प्रकंपित की भी यह जन्मस्थली है / यहीं पर प्रत्येकबुद्ध नमी को कंकण की ध्वनि को श्रवण कर वैराग्य उत्पन्न हुअा था।१६ इन्द्र ने नमि राजर्षि को कहा-मिथिला जल रही है और प्राप साधना को प्रोर मुस्तैदी से कदम उठा रहे हैं, तब नमि ने इन्द्र से कहा-इन्द्र 'महिलाए डज्झमाणीए' ण मे डझइ किंचणं' (उत्तरा. 9/14) उत्तराध्ययन की भांति महाभारत में भी जनक के सम्बन्ल में एक कथा आती है। प्रवल अन्निदाह के कारण भस्मीभूत होते हए मिथिला को देखकर अनासक्ति से जनक ने कहा---इस जलती हुई नगरी में मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है 'मिथिलायाम् प्रदीप्तायाम न मे दहति किञ्चन / ' (महाभारत 12, 17, 18-19) महाजनक जातक में भी इसी प्रकार का वर्णन मिलता है। 'मिथिलायाम् दह्यमानाय न मे किञ्चि अदपथ (जातक 6, 54-55) / भगवान महावीर और बुद्ध के समय मिथिला में गणराज्य था। चतुर्थ निहव ने सामुच्छेदिकवाद का यहाँ प्रवर्तन किया था।९७० दशपूर्वधारी आर्य महागिरि का यह मुख्य रूप से विहारस्थल था११ / वाणगंगा और गंडक ये दो नदियां प्रस्तुत नगर को घेरकर बहती हैं / 172 मिथिला एक समृद्ध राष्ट्र था। जिनप्रभसूरि के समय वहाँ पर प्रत्येक धर कदलीवन से शोभित था। खीर वहाँ का प्रिय भोजन था। स्थान-स्थान पर वापी, कुप और तालाब थे। वहां की जनता धर्मनिष्ठ और धर्मशास्त्र 162. जातक (सं 406) भाग 4, पृ. 27 163. जातक (सं 488) भाग 4 पृ. 4,521-22 164. संपइकाले तिरहुत्ति देसोत्ति भण्णई-विविध तीर्थकल्प, पृ. 32 165. वही. पृ. 32 166. वही पृ. 32 167. कल्पसूत्र 213. पृ. 298 168. प्रावश्यकनियुक्ति गा. 644 169. उत्तराध्ययन सुखबोधा, पत्र 136-143 170. आवश्यकभाष्य गा. 131 171. प्रावश्यकनियुक्ति मा. 782 172. विविध तीर्थकल्प पृ. 32 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाता थी।७३ जातक के अनुसार मिथिला के चार प्रवेशद्वारों में प्रत्येक स्थान पर बाजार थे। (जातक VI पृ. 330) नगर वास्तुकला की दृष्टि से अत्यन्त कलात्मक था। वहां के निवासी बहुमूल्य वस्त्र धारण करते थे। (जातक 46 महाभारत 206) रामायण के अनुसार यह एक मनोरम व स्वच्छ नगर था / सुन्दर सड़कें थीं। व्यापार का बड़ा केन्द्र था / (परमत्थदीपकी प्रान' द थेरगाथा सिंहली संस्करण // 277-8) यह नगर विज्ञों का केन्द्र था। (आश्वलायन श्रोतसूत्र x 3, 14) अनेक तार्किक यहाँ पर हुए हैं जिन्होंने तर्कशास्त्र को नई दिशा दी। महान् तार्किक गणेश मण्डन मिश्र और वैष्णव कवि विद्यापति भी यहीं के थे। विदेह राज्य की सीमा उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पश्चिम में गंडकी और पूर्व में मही नदी तक थी। वर्तमान में नेपाल की सीमा के अन्तर्गत यहाँ मुजफ्फरपुर और दरभंगा के जिले हैं। वहां छोटे नगर जनकपुर को प्राचीन मिथिला कहते हैं। कितने ही विद्वान् सीतामढी के सप्टिकट 'महिला'१०४ नामक स्थान को प्राचीन मिथिला का अपभ्रंश मानते हैं। जैन आगमों में दस राजधानियों में मिथिला भी एक है। प्रस्तुत अध्ययन में उत्कृष्ट चित्रकला का भी रूप देखने को मिलता है। कलाकार इतने निष्णात होते थे कि किसी व्यक्ति के एक अंग को देखकर ही उनका हबह चित्र उटैंकित कर देते थे। राजा-महाराजा और श्रेष्ठीमणों को चित्रकला अधिक प्रिय थी जिसके कारण विविध प्रकार की चित्रशालाएँ बनाई जाती थीं। प्रस्तुत अध्ययन में कुछ अवान्तर कथाएं भी आई हैं। जब परिवाजिका चोक्खा राजा जितशत्रु के पास जाती है, परिव्राजिका से कहता है कि क्या आपने मेरे जैसे अन्तःपुर को कहीं निहारा है ? परिवाजिका ने मुस्कराते हुए कहातुम कूपमंडूक जैसे हो और फिर कूपमंडूक की मनोरंजक कथा मूल पाठ में दी गई है। प्रस्तुत अध्ययन में अहन्नक श्रावक को सुदृढ़ धर्मनिष्ठा का उल्लेख है। उस युग में समुद्रयात्रा की जाती थी / ध्यापारीगण विविध प्रकार की सामग्री लेकर एक देश से दूसरे देश में पहुँचते थे। इसमें छह राजामों का परिचय भी दिया गया है। मल्ली भगवती के युग में राज्यव्यवस्था किस प्रकार थी, इसकी भी स्पष्ट जानकारी मिलती है। नौवें अध्ययन में माकन्दीपुत्र जिनपालित और जिनरक्षित का वर्णन है। उन्होंने अनेक बार समुद्रयात्रा की थी। जब मन में प्राता तब वे यात्रा के लिए चल पड़ते / बारहवीं बार माता-पिता नहीं चाहते थे कि वे विदेशयात्रा के लिए जायें, पर वे प्राज्ञा की अवहेलना कर चल दिये। किन्तु भयंकर तूफान से उनकी नौका टूट गई और वे रत्नद्वीप में रत्नदेवी के चुगल में फंस गये। शैलक यक्ष ने उनका उद्धार करना चाहा। जिनरक्षित ने वासना से चलचित्त होकर अपने प्राण गंवा दिये और जिनपालित विचलित न होने से सुरक्षित स्थान पर पहुंच गया। इसी प्रकार जो साधक अपनी साधना से विचलित नहीं होता है वही लक्ष्य को प्राप्त करता है। प्रस्तुत कथानक से मिलता-जुलता कथानक बौद्ध साहित्य के बलाहस जातक में हैं और दिव्यावदान में भी मिलता है / तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि कथानकों में परम्परा के भेद से कुछ अन्तर अवश्य आता है पर कथानक के मूल तत्त्व प्राय: काफी मिलते-जुलते हैं। प्रस्तुत कथानक से यह भी पता चलता है कि समुद्रयात्रा सरल और सुमम नहीं थी। अनेक प्रापत्तियाँ उस यात्रा में रही हुई थीं। उन आपत्तियों से बचने के लिए वे लोग स्तुतिपाठ और मंगलपाठ भी करते थे। विदेशयात्रा के लिए राजा की प्राज्ञा भी प्रावश्यक थी। इष्ट स्थान पर पहुंचने पर वे उपहार लेकर वहाँ के राजा के पास पहुंचते और राजा उनके कर को माफ कर देता था / प्रार्थिक व्यवस्था में विनियम का महत्त्वपूर्ण हाथ है। इसलिए व्यापारी व्यापार के विकास हेतु समुद्रयात्रा करता थे। 173. वही० पृ० 22 174. The Ancient Geogrphy of India, पृ० 718 175. स्थानांग 10/117 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकुन: प्रस्तुत अध्ययन में जब जिनपालित और जिनरक्षित समुद्रयात्रा के लिए प्रस्थित होते हैं तब वे शकुन देखते हैं / शकुन का अर्थ 'सूचित करनेवाला' है। जो भविष्य में शुभाशुभ होनेवाला है उसका पूर्वाभास शकुन के द्वारा होता है। आधुनिक विज्ञान की हष्टि से भी प्रत्येक घटनाओं का कुछ न कुछ पूर्वाभास होता हैं / शकुन कोई अन्धविश्वास या रूढ परम्परा नहीं है / यह एक तथ्य है / अतीत काल में स्वप्नविद्या अत्यधिक विकसित थी। शकुनदर्शन की परम्परा प्रागैतिहासिक काल से चलती प्रां रही है। कथा-साहित्य का अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि जन्म, विवाह, बहिर्गमन, गृहप्रवेश और अन्यान्य मांगलिक प्रसंगों के अवसर पर शकून देखने का प्रचलन था / गृहस्थ तो शकुन देखते ही थे। श्रमण भी शकुन देखते थे। सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि गहस्थों की तो अनेक कामनाएँ होती हैं और उन कामनाओं की पूर्ति के लिए वह शकुन देखें यह उचित माना जा सकता है, पर श्रमण शकुन देखें, यह कहाँ तक उचित है ? उत्तर में निवेदन है कि श्रमण के शकुन देखने का केवल इतना ही उद्देश्य रहा है कि मुझे ज्ञान, दर्शन, चारित्र व तप की विशेष उपलब्धि होगी या नहीं? मैं जिस गृहस्थ को प्रतिबोध देने जा रहा है.--उस में मुझे सफलता मिलेगी या नहीं? शकुन को देखकर कार्य की सफलता का सहज परिज्ञान हो जाता है और अपशकुन को देखकर उसमें आनेवाली बाधाएं भी ज्ञात हो जाती हैं। इसलिए श्रमण के शकुन देखने का उल्लेख पाया है / वह स्वयं के लिए उसका उपयोग करे पर गृहस्थों को न बतावे / विशेष जिज्ञासु बृहत्कल्पभाष्य,* निशीथभाष्य**, अावश्यकचूणि*** प्रादि में श्रमणों के शकुव देखने के प्रसंग देख सकते हैं। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार एक वस्तु शुभ मानी जाती है और वही वस्तु दूसरी परिस्थितियों में अशुभ भी मानी जाती है। एतदर्थ शकुन विवेचन करनेवाले ग्रन्थों में मान्यता-भेद भी हम्गोचर होता है / जैन और जनेतर साहित्य में शकुन के संबंध में विस्तार से विवेचन है, पर हम यहाँ उतने विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही प्राचीन ग्रन्थों के पालोक में शुभ और अशुभ शकुन का वर्णन प्रस्तुत कर रहे हैं। बाहर जाते समय यदि निम्न शकुन होते हैं तो अशुभ माना जाता है(१) पथ में मिलनेवाला पथिक अत्यन्त गन्दे वस्त्र धारण किये हो। 176 (2) सामने मिलनेवाले व्यक्ति के सिर पर काष्ठ का भार हो। (3) मार्ग में मिलनेवाले व्यक्ति के शरीर पर तेल मला हा हो। (4) पथ में मिलनेवाला पथिक वामन या कूब्ज हो। (5) मार्ग में मिलनेवाली महिला वृद्धा कुमारी हो। शुभ शकुन इस प्रकार हैं(१) घोड़ों का हिनहिनाना (2) छत्र किये हुए मयूर का केकारव१७७ (3) बाईं ओर यदि काक पंख फड़फड़ाता हुअा शब्द करे। * (ख) बृहत्कल्प-१.१९२१-२४; 1.2810-31 ** (ग) निशीथभाष्य-१९.७०५४-५५; 19.6078-6095; *** (घ) आवश्यकचूर्णि-२ पृ. 218 176. प्रोधनियुक्ति 177. (क) पद्मचरित्र 54, 57, 69, 70, 72, 81, 73 48 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) दाहिनो ओर चिघाड़ते हुए हाथी का शब्द करना और पृथ्वी को प्रताड़ना / (5) सूर्य के सम्मुख बैठे हुए कौए द्वारा बहुत तीक्ष्ण शब्द करना / (6) दाहिनी ओर कौए का पंखों को ढीला कर व्याकूल रूप में बैठना / (7) रीछ द्वारा भयंकर शब्द / (8) गीध का पंख फड़फड़ाना। (9) गर्दभ द्वारा दाहिनी ओर मुड़कर रेंकना। (10) सुगंधित हवा का मंद-मंद रूप से प्रवाहित होना / 178 (11) निर्धम अग्नि की ज्वाला दक्षिणावर्त प्रज्वलित होना / (12) नन्दीउर, पूर्णकलश, शंख, पटह, छत्र, चामर, ध्वजा-पताका का साक्षात्कार होना ! 176 प्रकीर्णक गणिविद्या 180 में लिखा है कि शकुन मुहूर्त से भी प्रबल होता है / जंबूक, चास (नीलकंठ), मयूर, भारद्वाज, नकुल यदि दक्षिण दिशा में दिखलाई दें तो सर्वसंपत्ति प्राप्त होती है।१८१ दसवें अध्ययन में चन्द्र के उदाहरण से प्रतिपादित किया है कि जैसे कृष्णपक्ष में चन्द्र की चारु चंद्रिका मंद और मंदतर होती जाती है और शुक्लपक्ष में वही चंद्रिका अभिवृद्धि को प्राप्त होती है वैसे ही चन्द्र के सदृश कमों की अधिकता से प्रात्मा की ज्योति मंद होती है और कर्म की ज्यों-ज्यों न्यूनता होती है त्यों-त्यों उसकी ज्योति अधिकाधिक जगमगाने लगती है / रूपक बहत ही शानदार है / दार्शनिक गहन विचारधारा को रूपक के द्वारा बहुत ही सरल व सुगम रोति से उपस्थित किया है / यह जिज्ञासा भी गणधर गौतम ने राजगृह में प्रस्तुत की थी और भगवान् ने समाधान दिया था। ग्यारहवें अध्ययन में समुद्र के सन्निकट दावद्रव नामक वृक्ष होते हैं / उनका उदाहरण देकर पाराधक और विराधक' का निरूपण किया गया है। जिस प्रकार वह वृक्ष अनुकूल और प्रतिकूल पवन को सहन करता है वैसे ही श्रमणों को अनुकूल और प्रतिकूल वचनों को सहन करना चाहिए / जो सहता है वह पाराधक बनता है। बारहवें अध्ययन में कलुषित जल को शुद्ध बनाने की पद्धति पर प्रकाश डाला है / गटर के गंदे पानी को साफ करने की यह पद्धति अाधुनिक युग की फिल्टर पद्धति से प्रायः मिलती है। आज से 2500 वर्ष पूर्व भी यह पद्धति ज्ञात थी / संसार का कोई भी पदार्थ एकान्त रूप से न शुभ है और न अशुभ ही है / प्रत्येक पदार्थ शुभ से अशुभ रूप में और अशुभ से शुभ रूप में परिवर्तित हो सकता है / अतः किसी से घृणा नहीं करनी चाहिए। यहां पर ध्यान देने योग्य है भगवान् ऋषभदेव और महावीर के अतिरिक्त बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया। यह चातुर्याम धर्म श्रमणों के लिए था, किन्तु गृहस्थों के लिए तो पंच अणुव्रत ही थे। वहां पर चार अणव्रत का उल्लेख नहीं है। किन्तु पाँच अणुव्रत का उल्लेख है।१८ इस कथानक का संबंध चंपानगरी से है। 178. पद्मचरित–७२, 84, 85/2, 91, 94, 95, 96 179. बृहत् कल्पलघुभाष्य-८२-८४ 180. गह दिणा उ मुहुत्ता मुहत्ता उ सउणावली। -प्रकीर्णक गणिविद्या श्लो०८ 181. प्रोपनियुक्ति भाष्य 108 182. "विचित्तं केवलिपन्नत्तं चाउज्जामं धम्म परिकहेइ, तमाइक्खइ जहा जीवा बझंति जाव पंच अणुब्बयाई।" Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवें अध्ययन में दर्दूर का उदाहरण है। नंद मणिकार राजगृह का निवासी था। सत्संग के प्रभाव में व्रत-नियम की साधना करते हुए मी वह चलित हो गया। उसने चार शालाओं के साथ एक वापिका का निर्माण कराया। उसकी वापिका के प्रति अत्यन्त ग्रासक्ति थी। आसक्ति के कारण प्रार्तध्यान में वह मृत्यू को वरण करता है और उसी वापी में दर्दुर बनता है। कुछ समय के बाद भगवान महावीर के प्रागमन की बात सुनकर जातिस्मरण प्राप्त करके वह वन्दन करने के लिए चला / पर घोड़े की टाप से घायल हो गया। वहीं पर अनशन पूर्वक प्राणों का परित्याग कर वह स्वर्ग का अधिकारी देव बना / इस अध्ययन में पुष्करिणी-वापिका का सुन्दर वर्णन है। वह वापिका चतुष्कोण थी और उसमें विविध प्रकार के कमल खिल रहे थे। उस पुष्करिणी के चारों ओर उपवन भी थे। उन उपवनों में प्राधुनिक युग के 'पाक' के सदृश स्थान-स्थान पर विविध प्रकार की कलाकृतियाँ निर्मित की गई थीं। वहाँ पर सैर-सपाटे के लिए जो लोग आते थे उनके लिए नाटक दिखाने की भी व्यवस्था की गई थी। चिकित्सालय का भी निर्माण कराया था। वहाँ पर कुशल निकित्सक नियुक्त थे। उन्हें वेतन भी मिलता था। उस युग में सोलह महारोग प्रचलित थे--- (1) श्वास (2) कास-खाँसी (3) ज्वर (4) दाह जलन (5) कुक्षिशूल (6) भंगदर (7) अर्श-बवासीर (8) अजीर्ण (9) नेत्रशूल (10) मस्तकशूल (12) भोजन विषयक अरुचि (12) नेत्रबेदना (13) कणवेदना (14) कडूखाज (15) दकोदर----जलोदर (16) कोढ / प्राचारांग१८3 में 16 महारोगों के नाम दूसरे प्रकार से मिलते हैं। विपाक,८४, निशीथ भाष्य'८५ आदि में भी 16 प्रकार की व्याधियों के उल्लेख हैं, पर नामों में भिन्नता है। चरकसंहिता१८६ में पाठ महारोगों का वर्णन है।। इस प्रकार इस अध्ययन में सांस्कृतिक दृष्टि से विपुल सामग्री है, जिसका ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। चौदहवें अध्ययन में तेतलीपुत्र का वर्णन है। मानव जिस समय सुख के सागर पर तैरता हो उस समय उसे धार्मिक साधना करना पसन्द नहीं होता पर जिस समय दुःख की दावाग्नि में झुलस रहा हो, उस समय धर्म-क्रिया करने के लिए भावना उद्बुद्ध होती है। जब तेतली प्रधान का जीवन बहुत ही सुखी था, उस समय उसे धर्म-क्रिया करने की भावना ही नहीं जागृत हुई। पर पोट्टिल देव, जो पूर्वभव में पोट्टिला नामक उसकी धर्मपत्नी थी, उमने वचनबद्ध होने से तेतलीपुत्र को समझाने का प्रयास किया, पर जब वह नहीं समझा तो राजा कनकध्वज के अन्तर्मानस के विचार परिवर्तित कर दिये और प्रजा के भी। वह अपमान को सहन न कर सका। फांसी डालकर मरना चाहा, पर मर न सका। गर्दन में बड़ी शिला बाँधकर जल में कद कर, सूखी घास के ढेर में आग लगाकर, मरने का प्रयास किया, पर मर न सका / अन्त में देव ने प्रतिबोध देकर उसे संयममार्ग ग्रहण करने के लिए उत्प्रेरित किया। संयम ग्रहण कर उसने उत्कृष्ट संयम साधना की। इस अध्ययन में राजा कनकरथ की अत्यन्त निष्ठुरता का वर्णन है। वह स्वयं ही राज्य का उपभोग करना चाहता है और उसके मानस में यह क्रूर विचार उदबद्ध होता है कि कहीं मेरे पुत्र मुझसे राज्य छीन न लें। इसलिए वह अपने पुत्रों को विकलांग कर देता था। एक पिता राज्य के लोभ में इतना अमानवीय कृत्य 183. प्राचारांग--६-१-१७३ 184. विपाक-१, पृ० 7 185. निशीषभाष्य-११/३६४६ 186. वातव्याधिरपस्मारी, कुष्ठी शोफी तथोदरी। गूल्मी च मधुमेही च, राजयक्ष्मी च यो नरः / --चरकसंहिता इन्द्रियस्थान-९ 50 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर सकता है यह इतिहास का एक काला पृष्ठ है और इस पृष्ठ को एक बार नहीं अनेक बार पुनरावृत्ति होती रही है / कभी पिता के द्वारा तो कभी पुत्र के द्वारा और कभी भाई के द्वारा / वस्तुतः लोभ का दानव जिसके सिर पर सवार हो जाता है वह उचित अनुचित के विवेक से विहीन हो जाता है। पन्द्रहवें अध्ययन में नंदीफल का उदाहरण है / नंदीफल विषले फल थे जो देखने में सुन्दर, मधुर और सुवासित. पर उनकी छाया भी बहत जहरीली थी। धन्य सार्थवाह ने अपने सभी व्यक्तियों को सूचित किया कि वे नंदीफल से बचें, पर जिन्होंने सूचना की अवहेलना की वे अपने जीवन से हाथ धो बैठे / धन्य सार्थवाह की तरह तीर्थकर हैं / विषय-भोग रूपी नंदीफल हैं जो तीर्थंकरों की आज्ञा की अवहेलना कर उन्हें ग्रहण करते हैं, वे जन्म-मरण को प्राप्त करते हैं किन्तु मूक्ति को वरण नहीं कर सकते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में धन्य सार्थवाह अपने साथ उन सभी व्यक्तियों को ले जाते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति नाजुक थी, जो स्वयं व्यापार आदि हेतु जा नहीं सकते थे। इसमें पारस्परिक सहयोग की भावना प्रमुख है, सार्थसमूह में अनेक मतों के माननेवाले परिव्राजक भी थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय विविध प्रकार के परिव्राजक अपने मत का प्रचार करने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान भी जाते थे। उनके नाम इस प्रकार हैं १.चरक जो जूथ बन्द घूमते हुए भिक्षा ग्रहण करते थे और खाते हुए चलते थे। व्याख्याप्रज्ञप्ति में चरक परिव्राजक धायी हई भिक्षा ग्रहण करते और लंगोटी लगाते थे / प्रज्ञापना में 188 चरक आदि परिव्राजकों को कपिल का पुत्र कहा है / प्राचारांग चणि में लिखा 86 है—सांख्य चरक के भक्त थे। वे परिव्राजक प्रातः काल उठकर स्कन्द प्रादि देवतामों के गृह का परिमार्जन करते, देवताओं पर उपलेपन करते और उनके सामने धूप आदि करते थे। बहदारण्यक उपनिषद् 160 में भी चरक का उल्लेख मिलता है। पं.बेचरदास जी दोशी ने चरक को त्रिदण्डी, कच्छतीधारी या कौपीनधारी तापस माना है। 2. चोरिक--पथ में पड़े हए वस्त्रों को धारण करने वाला या वस्त्रमय उपकरण रखने वाला। 3, चर्मखंडिक-चमड़े के वस्त्र और उपकरण रखने वाला। 4. भिच्छुड - (भिक्षोंड) केवल भिक्षा से ही जो जीवन निर्वाह करते हैं, किन्तु गोदुग्ध आदि रस ग्रहण नहीं करते / कितने ही स्थलों पर बुद्धानुयायी को भिण्ड कहा है। 5. पण्डुरंग-जो शरीर पर भस्म लगाते हैं। निशीथचूणि 161 में गोशालक के शिष्यों को पंडुरभिक्खु लिखा है। अनुयोगद्वारचूणि'६२ में पंडुरंग को ससरक्ख भिक्खुओं का पर्यायवाची माना है / शरीर पर श्वेत भस्म लगाने के कारण इन्हें पंडुरंग या पंडरभिक्ष कहा जाता था / उद्योतनसरि की दष्टि से गाय के दही, दूध, गोबर, घी आदि को मांस की भांति समझकर नहीं खाना पंडरभिक्षयों का धर्म था। 187, व्याख्याप्रज्ञप्ति १-२-पृ. 49 188. प्रज्ञापना 20. ब. 1214 189. (क) प्राचारांगचूणि ८-पृ. 265 (ख) प्रावश्यक मलयगिरि वृत्ति भा. 1, पृ. 87 190. बहद्. उप. 191. निशीयचूणि 13, 4420 (ख) 2, 1085 192. अनुयोगद्वारणि. पृ. 12 (1) जर्नल आफ द प्रोरियण्टल इन्सटीट्यूट पूना 26, नं. 2 प. 920 (2) कुवलयमाला 206/11 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. गौतम ६3-अपने साथ बैल रखने वाले। बैल को इस प्रकार की शिक्षा देते जो विविध तरह की करामात दिखाकर जन-जन के मन को प्रसन्न करते / उससे प्राजोविका चलाने वाले। 7. गो-वती१६४.-.-"रघुवंश" में राजा दिलीप का वर्णन है कि जब गाय खाये तो खाना, पानी पिये तो पानी पीना, वह जब नींद ले तब नींद लेना और वह जब चले तब चलना / इस प्रकार व्रत रखने वाले। 8. गृहि-धर्मी-गृहस्थधर्म को ही सर्वश्रेष्ठ मानने वाला और सतत गृहस्थधर्म का चिन्तन करने वाला। 9. धर्मचिन्तक-सतत् धर्मशास्त्र का अध्ययन करने वाला। 10. अविरुद्ध १६५—किसी के प्रति विरोध न रखने वाला। अंगुत्तरनिकाय में भी अविरुद्धकों का उल्लेख है। प्रस्तुत मत के अनुयायी अन्य बाह्य क्रियाओं के स्थान पर मोक्ष, हेतु, विनय को प्रावश्यक 67 मानते हैं। वे देवगण, राजा, साधु, हाथी, घोड़े, गाय-भैसबकरी, गीदड़, कौमा, बगुले आदि को देखकर उन्हें भी प्रणाम करते थे / सूत्रकृतांग की टीका'६६ में विनयवादी के बत्तीस भेद किये हैं। आगम साहित्य में विनयवादी परिव्राजकों का अनेक स्थलों पर उल्लेख है। वैश्यायन जिसने गोशालक पर तेजोलेश्या का प्रयोग किया था२०० और मौर्यपुत्र तामली भी विनयवादी था। वह जीवनपर्यंत छठ-छठ तप करता था और सूर्याभिमुख होकर आतापना लेता था / काष्ठ का पात्र लेकर भिक्षा के लिए जाता और भिक्षा में केवल चावल ग्रहण करता था / वह जिसे भी देखता उसे प्रणाम करता था / पूरण तापसी भी विनयवादी ही था। बौद्ध साहित्य में पूरण कश्यप को महावीरकालीन छह धर्मनायकों में एक माना२०१ है। पर हमारी दृष्टि से वह पूर्ण काश्यप से पृथक होना चाहिये / क्योंकि बौद्ध साहित्य का पूर्ण कश्यप प्रक्रियावादी भी था और वह नग्न था और उसके अस्सी हजार अनुयायी थे / 202 11. विरुद्ध----परलोक और अन्य सभी मत-मतान्तरों का विरोध करनेवाला। प्रक्रियावादियों को 'विरुद्ध' कहा है, क्योंकि उनका मन्तव्य अन्य मतवादियों से विरुद्ध 203 था। इनके चौरासी भेद भी मिलते हैं 204 // 193. प्राचाराँगचूणि २-२-पृ. 346 194. गावी हि समं निग्गमपवेससयणासणाइ पक रेंति / भुजंति जहा गावी तिरिक्खवासं विहविन्ता / -पोपपातिक टीका पृ. 169 195. प्रोपपातिक 38, पृ. 169 196. अंगुत्तरनिकाय, 3, पृ. 176 197. सूत्रकृतांग 1-12-2 और उसकी टीका 198. उत्तराध्ययन टीका 18 पृ. 230 191. सूत्रकृतांग टीका 1-12- पृ. 209 (अ) 200. (क) प्रावश्यकनियुक्ति 494, (ख) आवश्यकचूणि पृ. 298 (ग) भगवती सूत्र शतक 14 तृतीय खण्ड, पृ. 373-74 201. व्याख्याप्रज्ञप्ति 3-1 202. वही. 3-2 203. दीघनिकाय-सामयफल सूत्र, 2 204. बौद्ध पर्व (मराठी) प्र. 10, पृ. 127 52 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञानवादी मोक्षप्राप्ति के लिए ज्ञान को निष्फल मानते थे / बौद्ध ग्रन्थों में 'पकुध कच्चायन' को प्रक्रियावादी कहा है। 205 / (12) वृद्धवद्धावस्था में संन्यास ग्रहण करने में विश्वास वाले / ऋषभदेव के समय में उत्पन्न होने के कारण ये सभी लिगियों में प्रादिलिंगी कहे जाते हैं / इसलिए उन्हें वृद्ध कहा है। (13) श्रावक-धर्मशास्त्र श्रवण करने वाला ब्राह्मण / 'श्रावक' शब्द जैन और बौद्ध दोनों ही परम्परागों में विशेष रूप से प्रचलित रहा है। वह वर्तमान में भी जैन और बौद्ध उपासकों के अर्थ में व्यवहत होता है / यह वैदिक परम्परा के ब्राह्मणों के लिए कब प्रयुक्त हुना, यह चिन्तनीय है। श्रमण भगवान महावीर के समय तीन सौ तिरेसठ पाखण्ड-मत प्रचलित थे। उन अन्य तीर्थों में वृद्ध' और 'श्रावक' ये शब्द प्रयुक्त हुए हैं / 208 प्रोपपातिक में विशिष्ट साधना में लगे हए अन्य तीथिकों का वर्णन करते हुए लिखा है कि कितने ही साधक दो पदार्थ खाकर, कितने 3-4.5 पदार्थ खाकर जीवन निर्वाह करते थे। उनमें वृद्ध और श्रावक का भी उल्लेख२०६ है। अंगुत्तरनिकाय१० में भी बद्ध, श्रावक का वर्णन है। उस वर्णन से भी यह परिज्ञात होता है कि वह प्रति जो उद्गार व्यक्त किये गये हैं वह चिन्तन करने के लिए उत्प्रेरित करते हैं / जो हिंसा करने वाला, चोरी, अब्रह्म का सेवन करने वाला, असत्यप्रलापी, सुरा, मेरय प्रभति मादक वस्तुएँ ग्रहण करने वाला होता है उस निगण्ठ वृद्ध श्रावक----देवधम्मिक में ये पांच बातें होती हैं / वह इसी प्रकार होता है जैसे नरक में डाल दिया गया हो। चरक, शाक्य आदि के साथ वृद्ध श्रावक का उल्लेख है, जिससे यह ज्ञात होता है कि उस समय का कोई विशिष्ट सम्प्रदाय होना चाहिए। पर प्रश्न यह है वृद्ध श्रावक यह श्रमण संस्कृति का उपजीवी है या ब्राह्मण संस्कृति का? प्राचीन ग्रन्थों में केवल नाम का उल्लेख हुमा है, पर उस सम्बन्ध में कोई स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। जैन साहित्य के पर्यवेक्षण से यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि बद्ध श्रावक का उत्स जैन परम्परा में है। बाद में चलकर वह ब्राह्मण परम्परा में अंतनिहित हो गया। वृद्ध श्रावक का अर्थ दो तरह से चिन्तन करते हैंपहले में वृद्ध और श्रावक इस तरह पदच्छेद कर वृद्ध और श्रावक दोनों को पृथक्-पृथक् माना है / दूसरे में वृद्ध श्रावक को एक ही मानकर एक ही सम्प्रदाय का स्वीकार किया है / औपपातिक 211 सूत्र की वृत्ति में वृद्ध अर्थात् तापस श्रावक-- ब्राह्मण, तापसों को वृद्ध कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान ऋषभदेव ने चार सहस्र व्यक्तियों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। किन्तु आहार के अभाव में वे श्रमण धर्म से च्युत होकर तापस बने / भगवान ऋषभदेव के तीर्थप्रवर्तन के पूर्व ही तापस परम्परा प्रारम्भ हो गई थी। इसलिए उन्हें वृद्ध कहते हैं / वैदिक परम्परा में प्राश्रम-व्यवस्था थी। उसमें पचहत्तर वर्ष के पश्चात् संन्यास ग्रहण करते थे। यद्धावस्था में संन्यास ग्रहण करने के कारण भी वे वृद्ध कहलाते थे। 205. (क) अनुयोगद्वार सूत्र 20 (ख) प्रौपपातिक सूत्र 37, पृ. 69 (ग) ज्ञाताधर्मकथा टीका, 15, पृ. 194 206. सूत्रकृतांग नियुक्ति गा. 119 207. हिस्टारिकल कलीनिग्स, B. C. La ha. 208. अण्णतीथिकाश्चरक-परिव्राजक-शाक्याजीविक-वृद्धश्रावकप्रभृतयः / -निशीथभाष्य चूणि, भाग 2, पृ.११८ 209. औपपातिक सूत्र 3 / 210. अंगुत्तरनिकाय (हिन्दी अनुवाद) भाग 2, पृ. 452 / 211. वृद्धाः तापसा वृद्धकाल एव दीक्षाभ्युपगमात् प्रादिदेवकालोत्पन्नत्वेन च सकललिगिनामाद्यत्वात्, श्रावका- धर्मशास्त्रश्रवणाद् ब्राह्मणाः अथवा बद्ध-श्रावका बाह्मणाः / ___-औपपातिक सू. 38 वृत्ति .. 53 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मणों को श्रावक इसीलिए कहते हैं कि वे पहले श्रावक ही थे। बाद में ब्राह्मण की संज्ञा से सन्निहित हुए। प्राचारांग 211 चूर्णि आदि में लिखा है कि भगवान् ऋषभदेव जब श्रमण बन गये और भरत का राज्याभिषेक हो गया, श्रावकधर्म की जब उत्पत्ति हुई तो श्रावक बहुत ही ऋजु स्वभाव के धर्मप्रिय थे, किसी को भी हिंसा करते देखते तो उनका हृदय दया से द्रवित हो उठता और उनके मुख से स्वर फूट पड़ते--इन जीवों को मत मारो, मत मारो, "मा हन" इस उपदेश के प्राधार से 'माहण' ही बाद में 'ब्राह्मण' हो गये।। सम्भव है पहले श्रमण और श्रावक दोनों के लिए "माहण" शब्द का प्रयोग होता रहा हो। एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि वृद्ध श्रावक का अर्थ ब्राह्मण क्यों किया जाय / भगवान् महावीर के समय हजारों की संख्या में पाश्र्वापत्य श्रावक विद्यमान थे। वे बद्ध श्रावक कहे जा सकते हैं। पर उत्तर में निवेदन है कि प्रागमसाहित्य में जहाँ पर भी 'बुड्ढ सावय' शब्द व्यवहृत हपा है वहां 'निगण्ठ' शब्द भी पाया है। निर्ग्रन्थपरम्परा दोनों के लिए व्यवहृत होती थी। इसलिए वृद्ध श्रावक पृथक कहने की आवश्यकता नहीं। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि वद्ध श्रावक केवल गृहस्थों के लिए ही नहीं पाया है, साधु संन्यासी व गृहस्थ दोनों के लिए पाया है। जैसे 'शाक्य' शब्द उस परम्परा के संन्यासी व गृहस्थ दोनों के लिए आता है, वैसे ही निर्ग्रन्थ शब्द भी दोनों के लिए आता है, एक के लिए उपासक के साथ में आता है / अागम साहित्य के मंथन से२१३ यह भी स्पष्ट है कि वृद्ध श्रावक भगवान महावीर के समय पूर्ण रूप से वैदिक परम्परा की क्रियाओं का पालन करते थे। उनकी कोई भी क्रिया जैन परम्परा की धार्मिक क्रिया से मेल नहीं खाती थी। आज भले ही श्रावक शब्द ब्राह्मण परम्परा में प्रचलित न हो पर अतीत काल में था। भगवान ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत उन श्रावकों से प्रतिदिन "जितो भवान् वद्धते भीस्तस्मात् माहन माहन"= "आप पराजित हो रहे हैं, भय बढ़ रहा है, अतः प्रात्मगुणों का हनन न हो। अत: सावधान रहो।" इसे श्रवण कर अन्तमुखी होकर चिन्तन के सागर में डुबकी लगाने लगते / निरन्तर ऊर्ध्वमुखी चिन्तन होने से अनासक्ति की भावना निरन्तर बढ़ती रहती। माहन का उच्चारण करने वाले वे महान् माहन थे। सम्राट् भरत चक्रवर्ती ने उन श्रावकों के स्वाध्याय हेतु (1) संसारदर्शन, (2) संस्थानपरामर्शन (3) तत्त्वबोध (4) विद्याप्रबोध२१४ इन चार आर्यवेदों का निर्माण किया। वे वेद नौवें तीर्थंकर सुविधिनाथ तक चलते रहे / उसके पश्चात् सुलस और याज्ञवल्क्य प्रभति ऋषियों के द्वारा अन्य वेदों की रचना की गई। "वृद्ध श्रावक" शब्द ब्राह्मण परम्परा का ही सूचक है। यद्यपि इसका प्रादुर्भाव श्रमण परम्परा में हमा, किन्तु बाद में चलकर वह वैदिक परम्परा के सम्प्रदायविशेष के लिए व्यवहृत होने लगा। मेरी दृष्टि से वृद्ध और श्रावक ये दो पृथक न होकर एक ही होना चाहिए। (14) रक्तपट-लाल वस्त्रधारी परिव्राजक / इस प्रकार ये शब्द इतिहास और परम्परा के संवाहक हैं। कितने ही शब्द अतीत काल में अत्यन्त गरिमामय रहे हैं और उनका बहुत अधिक प्रचलन भी था, किन्तु समय की अनगिनत परतों के कारण उसकी अर्थ-व्यंजना दूर होती चली गई और वे शब्द आज रहस्यमय बन गये हैं। इसलिए उन शब्दों के अर्थ के अनुसन्धान की आवश्यकता है। सोलहवें अध्ययन में पाण्डवपत्नी द्रौपदी को पद्मनाभ अपहरण कर हस्तिनापुर से अमरकंका ले प्राता है। हस्तिनापुर कुरुजांगल जनपद की राजधानी थी। हस्तिनापुर के अधिपति श्रेयांस ने ऋषभदेव को सर्वप्रथम पाहार दान दिया 215 था। महाभारत के२१६ अनुसार सुहोत्र के पुत्र राजा हस्ती ने इस नगर को 212. प्राचारांग चूणि पृ. 5 / 213. अनुयोगद्वार 20, और 26 / 214. त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र 1-6-247-253 / 215. ऋषभदेव एक परिशीलन, पृ. 169 (ख) आवश्यक नियुक्ति. (गा०) 345 / 216. महाभारत, प्रादि पर्व 95-34-243 / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसाया था। अत: उसका नाम हस्तिनापुर पड़ा। महाभारत काल में वह कौरवों की राजधानी थी / 210 अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को वहां का राजा बनाया था।१८ विविध तीर्थ कल्प के अभिमतानुसार ऋषभदेव के पुत्र कुरु थे। उनके एक पुत्र हस्ती थे, उन्होंने हस्तिनापुर बसाया२१६ था / विष्णुकुमार मुनि ने बलि द्वारा हवन किये जाने बाले 700 मुनियों की यहाँ रक्षा की थी। सनत्कुमार, महापद्म, सुभौम और परशुराम का जन्म इसी नगर में हुआ था। इसी नगर में कार्तिक श्रेष्ठी ने मुनिसुव्रत स्वामी के पास संयम लिया था और सौधर्मेन्द्र पद प्राप्त किया था। शांतिनाथ, कथनाथ और अरनाथ इन तीनों तीर्थंकरों और चक्रवत्तियों की जन्मभूमि होने का गौरण भी इसी नगर को है। पौराणिक दृष्टि से इस नगर का अत्यधिक महत्व रहा है। वसुदेवहिण्डी में इसे ब्रह्मस्थल कहा२२५ है / इसके अपर नाम गजपुर और नागपुर भी थे / वर्तमान में हस्तिनापुर गंगा के दक्षिण तट पर मेरठ से 22 मील दूर उत्तर-पश्चिम कोण में तथा दिल्ली से छप्पन मील दूर दक्षिण-पूर्व में विद्यमान है। पाली साहित्य में इसका नाम हस्तीपुर या हस्तिनापुर आता है / जैनाचार्य श्री नंदिषेण रचित "अजितशांति" नामक स्तवन में इस नगरी के लिए गयपुर, गजपुर, नागाह्वय, नागसाह्वय नागपुर, हस्थिणउर, हस्थिणाउर, हत्थिणार, हस्तिनीपुर प्रादि पर्यायवाचक शब्दों का उल्लेख किया गया है। इसी हस्तिनापुर नगर से द्रोपदी को धातकीखंड क्षेत्र की प्रमरकंका नगरी में ले जाया जाता है। श्रीकृष्ण पांडवों के साथ वहाँ पहुँचते हैं और द्रौपदो को, पद्मनाभ को पराजित कर पुन: ले आते हैं। श्रीकृष्ण पांडवों की एक हरकत से अप्रसन्न होकर कुन्ती की प्रार्थना से समुद्र तट पर नवीन मथुरा बसा कर वहाँ रहने की अनुमति देते हैं / इसमें पांडवों की दीक्षा और मुक्ति लाभ का वर्णन है। प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में द्रौपदी के पूर्व भव का वर्णन है, जिसमें उसने नागधी के भव में धर्मरुचि अनगार को कड़वे तूंबे का आहार दिया था और जिसके फलस्वरूप अनेक भवों में उसे जन्म लेना पड़ा। इसमें कच्छुल नारद की करतूतों का भी परिचय है। इस अध्ययन में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दुर्भावना के साथ जहर का दान देने से बहुत लम्बी भवपरम्परा बढ़ गई। दान सद्भावना के साथ और ऐसे पदार्थ का देना चाहिए जो हितप्रद हो / दूसरी बात, निदान साधक-जीवन का शल्य है। सुवती होने के लिए शल्यरहित होना चाहिए। एतदर्थ ही उमास्वति ने निःशल्यो व्रती२२२ लिखा है। माया, निदान और मिथ्यादर्शन ये तीन शल्य हैं जिनके कारण व्रतों के पालन में एकाग्रता नहीं पा पाती। ये शल्य अन्तर में पीड़ा उत्पन्न करते हैं। वह साधक को व्याकुल और बेचैन बनाता है। इन शल्यों से तीव्र कर्मबन्ध होता है। सुकुमालिका साध्वी ने अपनी उत्कृष्ट साधना को भौतिक पदार्थों को प्राप्त करने के लिए नष्ट कर दिया। इस अध्ययन में सांस्कृतिक दृष्टि से यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि उस युग में मर्दन के लिये ऐसे तेल तैयार किये जाते थे जिन के निर्माण में सौ स्वर्ण मुद्राएं और हजार स्वर्ण मुद्राएं व्यय होती थीं। शतपाक तेल में सौ प्रकार की ऐसी जड़ी-बूटियों का उपयोग होता था और सहस्रपाक में हजार औषधियों का। ये शारीरिक स्वास्थ्य के लिए प्रत्यन्त लाभप्रद होते थे। स्नान के लिए उष्णोदक, शीतोदक और गंधोदक प्रादि का उपयोग होता था। प्रस्तुत अध्ययन में गंगा महानदी को नौका के द्वारा पार करने का उल्लेख हैं। गंगा भारत की सबसे 217. महाभारत, पादिपर्व 100-12-244 / 218. महाभारत, प्रस्थान पर्व 1-8-245 / 219. विविध तीर्थकल्प में हस्तिनापुर कल्प, पृ. 27 / 220. जयवाणी पृ. 283-94 / 221. वसुदेव हिण्डी पृ. 165 / 222. तत्त्वार्थसूत्र 7-13 55 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ी नदी है। उसे देवताओं की नदी माना है। 223 जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार वह देवाधिष्ठित 224 है। प्रागमों में अनेक स्थलों पर गंगा को महानदी माना है। 225 स्थानांग आदि में गंगा को महार्णव कहा है / 226 प्राचार्य अभय देव ने महार्णव शब्द को उपमावाचक माना है। 227 विशाल जलराशि के कारण वह समुद्र के समान है / पुराणकार ने गंगा को समुद्ररूपिणी कहा२२८ है / वैदिक दृष्टि से गंगा में नौ सौ नदियाँ मिलती हैं२२६ और जैन दृष्टि से चौदह हजार30 जिनमें यमुना, सरयू, कोशी, मही, गंडकी ब्रह्मपुत्र आदि बड़ी नदियाँ भी सम्मिलित हैं। प्राचीन युग में गंगा अत्यन्त विशाल थी / समुद्र में प्रवेश करते समय गंगा पाट साढे बासठ योजन चौड़ा था और वह पाँच कोस गहरी थी। आज गंगा उतनी विशाल नहीं है। गंगा और उसकी सहायक नदियों से अनेक विशालकाय नहरें निकल चुकी हैं। आधुनिक सर्वेक्षण के अनुसार गंगा 1557 मील लम्बे मार्ग को तयकर बंग सागर में मिलती है। वह वर्षाकालीन बाढ़ से 17,00,000 घन फुट पानी का प्रति सेकण्ड प्रस्ताव करती है 232 / इस अध्ययन के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण, पाण्डव, द्रौपदी आदि जैन और वैदिक प्रादि परम्परा के बहचचित और पादरणीय व्यक्ति रहे हैं, जिनके जीवन प्रसंगों से सम्बन्धित अनेक विराट काय ग्रंथ विद्यमान हैं / प्रस्तूत अध्ययन में श्रीकृष्ण के नरसिंह रूप का भी वर्णन है। नरसिहावतार की चर्चा श्रीमद् भागवत में है जो विष्ण के एक अवतार थे, पर श्रीकृष्ण ने कभी नरसिंह का रूप धारण किया हो, ऐसा प्रसंग वैदिक परंपरा के ग्रंथों में देखने में नहीं पाया, यहाँ पर उसका सजीव चित्रण हुअा है। सत्रहवें अध्ययन में जंगली अश्वों का उल्लेख है / कुछ व्यापारी हस्तिशीर्ष नगर से व्यापार हेतु नौकानों में परिभ्रमण करते हुए कालिक द्वीप में पहुँचते हैं / वहाँ वे चांदी, स्वर्ण और हीरे की खदानों के साथ श्रेष्ठ न के घोड़े देखते हैं। इसके पूर्व अध्ययनों में भी समुद्रयात्रा के उल्लेख पाये हैं / ज्ञाता में पोतपट्टन और जलपत्तन शब्द व्यवहृत हुए हैं जो समुद्री बन्दरगाह के अर्थ में हैं, वहाँ पर विदेशी माल उतरता था। कहीं-कहीं पर बेलातट और पोतस्थान शब्द मिलते हैं। पोतवहन शब्द जहाज के लिए प्राया है। उस युग में जहाज दो तरह के होते थे। एक माल ढोनेवाले, दूसरे यात्रा के लिए / बन्दरगाह तक हाथी या शकट पर चढ़कर लोग जाते थे। समुद्रयात्रा में प्रायः तुफान आने पर जहाज डगमगाने लगते / किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते, क्योंकि उस समय नौकानों में दिशासूचक यंत्र नहीं थे। इसलिए प्रासन्न संकट से बचने के लिए इन्द्र, स्कंद आदि देवताओं का स्मरण भी करते थे। पर यह स्पष्ट है कि भारतीय व्यापारी अत्यन्त कुशलता के साथ समुद्री व्यापार करना जानते थे। उन्हें सामुद्रिक मार्गों का भी परिज्ञान था / वाहन अल्प थे और आजकल की तरह सुद्ध और विराटकाय भी नहीं थे। इसलिए हवाओं 228. स्कंदपुराण काशीखंड 29 ग्र० 229. हारीत 1/7 230. जम्बू० 4 वक्षस्कार 231. वही० 232. हिन्दी विश्वकोप, नागरी प्रचारिणी सभा। 223. (क) स्कंदपुराण, काशीखण्ड 19 अध्याय (ख) अमरकोष 1/10/31 224. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 4 वक्षस्कार 225. (क) स्थानांग 5/3 (ख) समवायांग 24 वां समवाय (ग) जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति 4 बक्षस्कार (घ) निशीथसूत्र 12/42 (ङ) वृहत्कल्पसूत्र 4/32 226. (क) स्थानांग 5/2/1 (ख) निशीथ 12/42 (ग) बृहत्कल्प 4/32 227. (क) स्थानांग वृत्ति 5/2/1 (ख) बृहत्कल्पभाष्य टीका 56/16 6 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्रतिकूलता से जहाजों को अत्यधिक खतरा रहता था। तथापि दे निर्भीकता से एक देश से दूसरे देश में घूमा करते थे। ये व्यापारी भी बहुमूल्य पदार्थों को लेकर हस्तिशीर्ष नगर पहुंचे और राजा को उन श्रेष्ठ अश्वों के सम्बन्ध में बताया। राजा अपने अनुचरों के साथ घोड़ों को लाने का वणिकों को आदेश देता है। व्यापारी अश्वों को पकड़ लाने के लिए वल्लको, भ्रामरी, कच्छभी, बंभा, षभ्रमरी विविध प्रकार की वीणाएँ, विविध प्रकार के चित्र, सुगंधित पदार्थ, गुडिया-मत्स्यंका शक्कर, मत्यसंडिका, पुष्पोत्तर और पद्मोत्तर प्रकार की शर्कराएं पौर विविध प्रकार के वस्त्र प्रादि के साथ पहँचे और उन लुभावने पदार्थों से उन घोड़ों को अपने अधीन किया / स्वतन्त्रता से घूमनेवाले घोड़े पराधीन बन गये। इसी तरह जो साधक विषयों के अधीन होते हैं वे भी पराधीनता के पंक में निमग्न हो जाते हैं। विषयों की प्रासक्ति साधक को पथभ्रष्ट कर देती है। प्रस्तुत अध्ययन में गद्य के साथ पद्य भी प्रयुक्त हुए है। बीस गाथाएं हैं। जिनमें पुनः उसी बात को उद्बोधन के रूप में दुहराया गया है। अठारहवें अध्ययन में सुषमा श्रेष्ठी-कन्या का वर्णन है। वह धन्ना सार्थवाह की पुत्री थी। उसकी देखभाल के लिए चिलात दासीपुत्र को नियुक्त किया गया। वह बहुत ही उच्छ खल था / अतः उसे निकाल दिया गया / वह अनेक व्यसनों के साथ तस्कराधिपति बन गया। सुषमा का अपहरण किया / श्रेष्ठी और उसके पुत्रों ने उसका पीछा किया / उन्हें अटवी में चिलात द्वारा मारी गई सुषमा का मृत देह प्राप्त हुप्रा / वे अत्यंत क्षुधा-पिपासा से पीड़ित हो चुके थे / अत: सुषमा के मृत देह का भक्षण कर अपने प्राणों को बचाया / सुषमा के शरीर का मांस खाकर उन्होंने अपने जीवन की रक्षा की। उन्हें किंचिनमात्र भी उस आहार के प्रति राग नहीं था। उसी तरह षटकाय के रक्षक श्रमण-श्रमणियां भी संयमनिर्वाह के लिए प्राहार का उपयोग करते हैं, रसास्वादन हेतु नहीं। असह्य क्षुधा वेदना होने पर प्रहार ग्रहण करना चाहिए / आहार का लक्ष्य संयम-साधना है। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी इसी प्रकार मृत कन्या के मांस को भक्षण कर जीवित रहने का वर्णन प्राप्त होता है। 33 / विशुद्धि मग और शिक्षा समुच्चय में भी श्रमण को इसी तरह पाहार लेना चाहिये यह बताया गया है। मनुस्मृति प्रापस्तम्बधर्म सूत्र (2.4.9.13) वासिष्ठ (6.20.21) बोधायन धर्म सूत्र (2.7.31 32) में संन्यासियों के प्राहार संबंधी चर्चा इसी प्रकार मिलती है। प्रस्तुत अध्ययन के अनुसार तस्करों के द्वारा ऐसी मंत्रशक्ति का प्रयोग किया जाता था, जिससे संगीन ताले अपने आप खुल जाते थे। इससे यह भी ज्ञात होता है कि महावीरयुग में ताले प्रादि का उपयोग धनादि की रक्षा के लिए होता था। विदेशी यात्री मेगास्तनीज, हनसांग, फाहियान, प्रादि ने अपने यात्राविवरणों में लिखा है कि भारत में कोई भी ताला आदि का उपयोग नहीं करता था, पर पागम साहित्य में ताले के जो वर्णन मिलते हैं वे अनुसं धित्सुनों के लिए अन्वेषण की अपेक्षा रखते हैं। उन्नीसवें अध्ययन में पुण्डरीक और कण्डरीक की कथा है। जब राजा महापद्म श्रमण बने तब उनका ज्येष्ठपूत्र पुण्डरीक राज्य का संचालन करने लगा और कण्डरीक युवराज बना। पुन: महापद्म मुनि वहां पाये तो कण्डरीक ने श्रमणधर्म स्वीकार किया। कुछ समय बाद कण्डरीक मुनि वहां आये। उस समय वे दाहज्वर से ग्रसित थे / महाराजा पुण्डरीक ने औषधि-उपचार करवाया। स्वस्थ होने पर भी जब कंडरीक मुनि वहीं जमे रहे तब राजा ने निवेदन किया कि श्रमणमर्यादा की दष्टि से अापका विहार करना उचित है। किन्तु कण्डरीक के मन में भोगों के प्रति प्रासक्ति उत्पन्न हो चकी थी। वे कुछ समय परिभ्रमण कर पुन: वहाँ प्रा गये / पुण्डरीक के समझाने पर भी वे न समझे तब कण्डरीक को राज्य सौपकर पुण्डरीक ने कण्डरीक का श्रमणवेष स्वयं धारण कर 233. संयुक्तनिकाय, 2, पृ. 97 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लियदा। तीन दिन की साधना से पुण्डरीक तेतीस सागर की स्थिति का उपभोग करने वाला सर्वार्थसिद्धि विमान में देव बना और कण्डरीक भोगों में प्रासक्त होकर तीन दिन में प्रायु पूर्ण कर तेतीस सागर की स्थिति में सातवें नरक का मेहमान बना। जो साधक वर्षों तक उत्कृष्ट साधना करते रहे किन्तु बाद में यदि वह साधना से च्युत हो जाता है तो उसकी दुर्गति हो जाती है और जिसका अन्तिम जीवन पूर्ण साधना में गुजरता है वह स्वल्प काल में भी सद्गति को वरण कर लेता है। इस तरह प्रथम श्रुतस्कंध में विविध दृष्टान्तों के द्वारा अहिंसा, अस्वाद, श्रद्धा, इन्द्रियविजय प्रभति प्राध्यात्मिक तत्त्वों का बहुत ही संक्षेप व सरल शैली में वर्णन किया गया है। कथावस्तु की वर्णनशैली अत्यन्त चित्ताकर्षक है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी जो शोधार्थी शोध करना चाहते हैं, उनके लिए पर्याप्त सामग्री है। उस समय की परिस्थिति, रीति-रिवाज, खान-पान सामाजिक स्थितियां और मान्यतामों का विशद विश्लेषण भी इस पागम में प्राप्त होता है। शैली की दृष्टि से धर्मनायकों का यह आदर्श रहा है। भाषा और रचना शैली की अपेक्षा जीवननिर्माण की शैली का प्रयोग करने में वे दक्ष रहे हैं / आधुनिक कलारसिक पागम की धर्मकथाओं में कला को देखना अधिक पनन्द करते हैं। आधुनिक कहानियों के तत्त्वों से और शैली से उनकी समता करना चाहते हैं / पर वे भूल जाते हैं कि ये कथाएं बोधकथाएँ हैं। इनमें जीवन निर्माण की प्रेरणा है, न कि कला के लिए कलाप्रदर्शन / यदि वे बोध प्राप्त करने की दृष्टि से इन कथाओं का पारायण करेंगे तो उन्हें इनमें बहुत कुछ मिल सकेगा। रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि दूध में जामन डालने के पश्चात् उस दूध को छूना नहीं चाहिए और न कुछ समय तक उस दूध को हिलाना चाहिए। जो दूध जामन डालने के पश्चात् स्थिर रहता है वही बढिया जमता है / इसी तरह साधक को साधना में पूर्ण विश्वास रखना चाहिए। दो अण्डेवाले रूपक में यह स्पष्ट की गई है और यह भी बाताया गया है कि साधक को शीघ्रता भी नहीं करनी चाहिए / शीघ्रता करने से उसी तरह हानि होती है जैसे कर्म की कथा में बताया गया है। उत्कृष्ट साधना के शिखर पर आरूढ व्यक्ति जरा-सी प्रसावधानी से नीचे गिर सकता है, जैसे शैलक राजषि। इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि शिष्य का क्या कर्तव्य होना चाहिए ? गुरु साधना से स्खलित हो जाये तथापि शिष्य को स्वयं जागृत रहकर गुरु की शुश्रूषा करनी चाहिए, जैसे पंथक ने स्वयं का उद्धार किया और गुरु का भी। मल्ली भगवती ने भोग के कंटकाकीर्ण पथ पर बढ़ने वाले और रूप लावण्य के पीछे दीवाने बने हए राजानों को विशुद्ध सदाचार का मार्ग प्रदर्शित किया। शरीर के अन्दर में रही हई गन्दगी को बताया और उनके हृदय का परिवर्तन किया / बौद्ध भिक्षुणी शुभा पर एक कामुक व्यक्ति मुग्ध हो गया था। भिक्षुणी ने अपने नाखुनों से अपने नेत्र निकालकर उसके हाथ में थमा दिये और कहा--जिन नेत्रों पर तुम मुग्ध हो वे नेत्र तम्हें समर्पित कर रही हैं। पर उस कथा से भी मल्ली भगवती की कथा अधिक प्रभावशाली है। प्रस्तुत आगम में जो कथाएं आई हैं, उनमें कहीं पर भी सांप्रदायिकता या संकुचितता नहीं है / यद्यपि ये कथाएं जैन श्रमणश्रमणियों को लक्ष्य में लेकर कही गई हैं, पर ये सार्वभौमिक हैं। सभी धर्म और सम्प्रदायों के अनुयायियों के लिए परम उपयोगी हैं। सभी धर्म सम्प्रदायों का अंतिम लक्ष्य षडरिपुत्रों को जीतना और मोक्ष प्राप्त करना है और मोक्ष प्राप्त करने के लिए ऐश्वर्य के प्रति विरक्ति, इन्द्रियों का दमन व शमन आवश्यक है। यही इन कथाओं का हार्द है। हम पूर्व ही लिख चुके हैं कि झातासूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में धर्मकथाएँ हैं / इसमें चमरेन्द्र, बलीन्द्र, धरणेन्द्र, पिशाचेन्द्र, महाकालेन्द्र, शकेन्द्र, ईशानेन्द्र श्रादि की अग्रमहिषियों के रूप में उत्पन्न होनेवाली साध्वियों की कथाएं हैं। इनमें से अधिकांश साध्वियों भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षित हुई थीं / ऐतिहासिक दष्टि से इन साध्वियों का अत्यधिक महत्त्व है। इस श्रुतस्कंध में पार्श्वकालीन श्रमणियों के नाम उपलब्ध हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) काली (2) राजी (3) रजनी (4) विद्युत (5) मेघा, ये प्रामलकप्पा नगर की थीं और इन्होंने Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्या पुष्पचूला के पास दीक्षा ग्रहण को थी। (6) शुंभा (7) निशुंभा (8) रंभा (9) निरंभा और (10) मदना ये श्रावस्ती की थीं और पार्श्वनाथ के उपदेश से दीक्षा ग्रहण की थी। (11) इला (12) सतेरा (13) सौदामिनी (14) इन्द्रा (15) घना और (16) विद्यता ये वाराणसी की थीं और श्रेष्ठियों की लडकियां थीं। इन्होंने भी पार्श्वनाथ के उपदेश से दीक्षा ग्रहण की थी। (17) रुचा (18) सुरुचा (19) रुचांशा (20) रुचकावती (21) रुचकान्ता (22) रुचप्रभा ये चम्पा नगरी की थीं। इन्होंने भी पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षा ग्रहण की थी। (23) कमला (24) कमलप्रभा (25) उत्पला (26) सुदर्शना (27) रूपवती (28) बहुरूपा (29) सुरूपा (30) सुभगा (31) पूर्णा (32) बहुपुत्रिका (33) उत्तमा (34) भारिका (35) पद्मा (36) वसुमती (37) कनका (38) कनकप्रभा (39) अवतंसा (40) केतुमती (41) वज्रसेना (42) रतिप्रिया (43) रोहिणी (44) नोमिका (45) ह्री (46) पुष्पवती (47) भुजगा (48) भुजंगवती (49) माकच्छा (50) अपराजिता (51) सुघोषा (52) विमला (53) सुस्वरा (54) सरस्वती ये बत्तीस कुमारिकाएं नागपुर की थीं। भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश से साधना के पथ पर अपने कदम बढ़ाये थे। एक बार भगवान पार्श्व साकेत नगरी में पधारे। वहाँ बत्तीस कुमारिकाओं ने दीक्षा ग्रहण की। भगवान् पार्श्व अरुक्खुरी नगरी में पधारे। उस समय (87) सूर्यप्रभा (88) प्रातपा (89) अचिमाली (90) प्रभंकरा आदि ने त्याममार्ग को ग्रहण किया। एक बार भगवान् पार्श्व मथुरा पधारे / उस समय (91) चन्द्रप्रभा (92) दोष्णाभा (93) अचिमाली और (94) प्रभंकरा ने दीक्षा ग्रहण की। भगवान श्रावस्ती पधारे जहाँ पर (95) पद्मा और (96) शिवा ने संयम मार्ग की पोर कदम बढ़ाया। भगवान पार्श्व हस्तिनापुर पधारे। उस समय (97) सती और (98) अंजू ने श्रमणधर्म स्वीकार किया। भगवान् कांपिल्यपुर पधारे, वहाँ पर (99) रोहिणी और (100) नवमिका ने प्रबज्वा ग्रहण की। भगवान साकेत नगर में पुनः पधारे तो बहाँ पर (101) अचला और (102) अप्सरा ने दीक्षा ग्रहण की। एक बार भगवान वाराणसी पधारे / उस समय (103) कृष्ण (104) कृष्णराजि, ने और राजगह में (105) रामा और (106) रामरक्षिता ने श्रावस्ती में (107) वसु.और (108) वसुगुप्ता ने कोशांबी में (109) वसुमित्रा (110) वसंधरा ने दीक्षा ग्रहण की थी। ये सभी साध्वियों चारित्र की विराधक हो गई थीं। विराधना के कारण सभी देवियों के रूप में उत्पन्न हुई, पर देवियों का प्रायुष्य पूर्ण कर वे महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगी और वहां से विशुद्ध चारित्र का पाराधन कर मोक्ष जाएंगी। व्याख्यासाहित्य ज्ञातासूत्र कथाप्रधान आगम होने से यह बहुत सरल माना गया, यद्यपि इस पागम की भाषा बहुत ही क्लिष्ट, साहित्यिक और समासबहल है। तथापि विषय सरल होने से इस पर व्याख्याएं बहुत कम लिखी गई हैं। इस पर न नियुक्ति लिखी गई, न भाष्य का निर्माण किया गया और न चूणि ही लिखी गई। सर्वप्रथम इस पर प्राचार्य अभयदेव ने संस्कृत भाषा में बत्ति लिखी / यह वृत्ति मूलसूत्र को स्पर्श कर लिखी हुई है। इस वृत्ति में शब्दार्थ की प्रधानता है। प्रारंभ में भगवान महावीर को नमस्कार किया गया है। उसके पश्चात् चम्पा नगरी का परिचय देकर पूर्णभद्र चैत्य का परिचय दिया है। श्रेणिक सम्राट के पुत्र कोणिक का उल्लेख करके गणधर सुधर्मा का परिचय दिया गया है। प्रस्तुत सुत्र के नाम का स्पष्टीकरण किया गया है। प्रथम श्रुतस्कंध में उन्नीस ही अध्ययनों के कठिन शब्दों के अर्थ स्पष्ट करके प्रत्येक अध्ययन के अन्त में होने वाले विशेष अर्थ को प्रकट किया है। वृत्तिकार ने प्रथम अध्ययन का सार बताते हुए लिखा-प्रविधिपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले शिष्य को सही मार्ग पर लाने के लिए समय पर उपालंभ भी देना चाहिए। द्वितीय अध्ययन के प्रान्त में लिखा—बिना आहार के मोक्ष की साधना के लिए प्रवत्ति नहीं हो सकती। इसलिए शरीर को आहार देना चाहिए। तृतीय अध्ययन का 59 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार प्रस्तुत किया है कि विजों को जिन-वचन के प्रति किंचित मात्र भी संदेह नहीं करना चाहिए। संदेह अनर्थ का मूल है। जिनके अन्तर्मानस में शंकाएं होती हैं वे सदा निराशा के सागर में झूलते रहते हैं। उन्हें सफलता देवी के दर्शन नहीं होते / इसी तरह सभी अध्ययनों का व्यंजनार्थ प्रस्तुत किया गया है। द्वितीय श्रुतस्कंध में धर्मकथानों से ही धर्मार्थ का प्रतिपादन किया है। वत्तिकार ने इसका विवेचन प्रस्तुत नहीं किया। सर्व सुगम और शेषं सूत्रसिद्धम् इतना ही लिखा गया है। इस वृत्ति का श्लोक प्रमाण 3800 है। यह वृत्ति सं० 1120 में विजयादशमी को अणहिलपुर पाटन में पूर्ण हई / प्राचार्य अभयदेव ने अपने गुरु का नाम जिनेश्वर बताया है और यह भी बताया है कि इस वृत्ति का संशोधन द्रोणाचार्य ने किया है। वृत्ति की प्रशस्ति से यह भी पता चलता है कि इसकी अनेक वाचनाएं वत्तिकार के समय प्रचलित थीं। लक्ष्मीकल्लोल गणि ने वि० सं० 1596 में ज्ञाताधर्मकथा बृत्ति का निर्माण किया था। प्राधुनिक युग में पूज्य श्री घासीलालजी म. ने संस्कृत में सविस्तार टीका लिखी है। ज्ञातासूत्र पर प्राचीन टब्बे भी मिलते हैं। वे टब्बे धर्मसिंह मुनि के लिखे हए हैं। ज्ञातासूत्र पर सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद प्राचार्य श्री अमोलकऋषि म. का प्राप्त होता है। पं० शोभाचन्द्रजी भारिल का हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हा है। पं० बेचरदासजी दोशी का गुजराती छायानुवाद भी प्रकाशित हुप्रा है / एक से आठ अध्ययन तक गुजराती अनुवाद भावनगर से भी प्रकाशित स्थानकवासी समाज एक जागरूक समाज है / वह प्रायमों के प्रति पूर्ण निष्ठावान् है। समय के अनुसार प्रागमों के विवेचन की ओर उसका लक्ष्य रहा है / जिस समय टब्बा युग पाया उस समय प्राचार्य श्री धर्मसिंहजी ने सत्ताईस आगमों पर बालावबोध टब्बे लिखे, जो टब्बे मूलस्पर्शी और शब्दार्थ को स्पष्ट करनेवाले हैं। जिस समय अनुवाद युग पाया उस समय प्राचार्य श्री अमोलकऋषिजी म. ने प्रागमबत्तीसी का अनुवाद किया। उसके बाद श्रमण संघ के प्रथम प्राचार्य श्री आत्मारामजी म. ने भी अनेक आगमों के हिन्दी अनुवाद और उस पर विस्तृत विवेचन लिखा। पूज्य श्री घासीलालजी म. ने अत्यन्त विस्तार के साथ संस्कृत में टीकाएं लिखीं और वे हिन्दी और गुजराती अनुवाद के साथ प्रकाशित भी हुई और यों अनेक स्थलों से प्रागम साहित्य प्रकाशित हुआ, तथापि प्राधुनिक संस्करण की मांग निरन्तर बनी रही। कितने ही प्रबुद्ध चिन्तकों ने व प्रतिभासम्पन्न मनीषियों ने प्राकाशी उड़ानें बहुत भरी। उन्होंने रूपरेखाएं भी प्रस्तुत की। पर प्रागमों के जैसे चाहिए वैसे उत्कृष्ट जनसाधारणोपयोगी संस्करण प्रकाशित नहीं कर सके / केवल उनकी उड़ान, उड़ान ही रही। परम हर्ष का विषय है कि मेरे परम श्रद्धय सद्गुरुवयं अध्यात्मयोगी राजस्थानकेसरी उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. के स्नेही साथी युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी ने इस भगीरथ कार्य को अपने हाथों में लिया। उन्होंने मुर्धन्य मनीषियों के सहयोग से इस कार्य को सम्पन्न करने का दृढ संकल्प किया, जिसके फलस्वरूप प्राचारांगसूत्र का शानदार संस्करण दो जिल्दों में प्रबुद्ध पाठकों के कर कमलों में पहुंचा। निष्पक्ष विद्वानों ने उसके संपादन और विवेचन की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। उसके पश्चात् उपासकदशांग का भी श्रेष्ठतम प्रकाशन हुआ। उसी ग्रन्थमाला की लड़ी की कड़ी में ज्ञातासूत्र का सर्वश्रेष्ठ संस्करण प्रकाशित हो रहा है। इस संस्करण की यह विशेषता है कि इसमें विभिन्न प्रतियों के आधार से विशुद्ध पाठ लेने का प्रयास किया गया है। मुल पाठ के साथ ही हिन्दी में अनुवाद दिया गया है। जहाँ कहीं आवश्यक हुग्रा वहाँ विषय को स्पष्ट लिए संक्षेप में सार पूर्ण विवेचन भी दिये गये हैं। इस पागम के सम्पादक और विवेचक हैं जैनजगत के तेजस्वी नक्षत्र, साहित्यमनीषी, संपादनकलामर्मज्ञ पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, जिन्होंने अाज तक शताधिक ग्रंथों का संपादन किया है। वे एक यशस्वी संपादक के रूप में जाने माने और पहचाने जाते हैं। संपादन के साथ ही शताधिक साधु-साध्वियों एवं भावदीक्षित व्यक्तियों और विद्यार्थियों को प्रागम, धर्म, दर्शन पढ़ाते रहे हैं। इस रूप में भी 60 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे एक विश्रुत आगममर्मज्ञ हैं। उन्होंने प्रस्तुत मागम का बहुत ही सुन्दर संपादन किया है। अनुबाद और विवेचन की भाषा सरस, सरल व सुबोध है, शैली मन को लुभाने वाली है। विवेचन में ऐसे अनेक रहस्य उद्घाटित किये हैं जो पाठकों को अभिनव चिन्तन प्रदान करने वाले हैं। उनकी विलक्षण प्रतिभा सर्वत्र मुखरित हुई है। श्रद्धेय युवाचार्यश्री के दिशानिर्देशन में यह संपादन हुअा है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस संपादन का मर्वत्र समादर होगा। प्रस्तुत संस्करण की यह विशेषता है कि इसमें अनेक परिशिष्ट दिये गए हैं। विशिष्ट स्थलों एवं व्यक्तियों की अक्षरानुक्रभ से नामावली दी गई है। साथ ही प्रागम में पाये हए 'जाव' शब्द की आवश्यकतानुसार पूर्ति भी की गई है। इस प्रकार अनेक नवीन विशेषतायों को लिए हए यह पागम अवश्य ही जन-जन के मन को मुग्ध करेगा। प्रस्तावना को मैं और भी अधिक विस्तार के साथ लिखना चाहता था, पर अन्य लेखनकार्य में अत्यधिक व्यस्त होने से तथा साधनाभाव से जितना लिखना चाहता था नहीं लिख सका, तथापि जो कुछ लिखा है उससे प्रबुद्ध पाठकों को ज्ञातासूत्र के सम्बन्ध में जानने को कुछ प्राप्त हो सकेगा, ऐसी प्राशा है। आज आवश्यकता है प्रागमसाहित्य पर तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करने की। आगमसाहित्य में भरपूर सामग्री भरी.पड़ी है। उस पर यदि कोई शोधकार्य करना चाहे तो बहुत कुछ किया जा सकता है / शोधार्थियों के लिए यह विषय अभी प्रायः अछता-सा पड़ा है / एक-एक पागम पर अनेक शोधप्रबन्ध तैयार हो सकते हैं। वैदिक और बौद्ध ग्रन्थों के साथ उन सभी प्रसंगों की व स्थितियों की तुलना भी हो सकती है। समय मिला तो कभी यह कार्य करने की मेरी प्रबल भावना है / सुज्ञेषु किं बहुना / -देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय उदयपुर (राज.) दि. 25-11-1980 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात सार : संक्षेप प्रारंभ आर्य सुधर्मा जम्बूस्वामी जम्बूस्वामी की जिज्ञासा सुधर्मास्वामी का समाधान अभयकुमार धारिणी का स्वप्नदर्शन स्वप्न-निवेदन श्रेणिक द्वारा स्वप्नफलकथन स्वप्नपाठकों का आह्वान स्वप्नपाठकों द्वारा फलादेश धारिणी देवी का दोहद धारिणी की चिन्ता दोहद-निवेदन अभयकुमार का प्रागमन अभय का आश्वासन अभय की देवाराधना देव का प्रागमन अकाल-मेघविक्रिया दोहदपूर्ति देव का विसर्जन गर्भ की सुरक्षा मेधकुमार का जन्म जन्मोत्सव अनेक संस्कार नामकरणसंस्कार मेधकुमार का लालन-पालन कलाशिक्षण Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाचार्य को प्रीतिदान मेघकुमार का पाणिग्रहण प्रीतिदान भगवान् का आगमन मेघकुमार की जिज्ञासा कंचुकी का निवेदन मेघ की भगवत्-उपासना भगवान् की देशना प्रवज्या का संकल्प माता-पिता के समक्ष संकल्पनिवेदन माता का शोक माता-पुत्र का संवाद एक दिवस का राज्य राज्याभिषेक संयमोपकरणों की मांग दीक्षा की तैयारी प्रव्रज्याग्रहण मेघकुमार का उद्वेग प्रतिबोध : पूर्वभवकथन हस्तीभव में जातिस्मरण मंडलनिर्माण अनुकम्पा का फल पुनर्जन्म मृदु उपालम्भ पुनः प्रव्रज्या विहार और प्रतिमावहन उग्र तपश्चरण समाधिमरण पुनर्जन्म-निरूपण अन्त में सिद्धि द्वितीय अध्ययन : संघाट सार : संक्षेप श्रीजम्बू की जिज्ञासा श्रीसुधर्मा द्वारा समाधान धन्य सार्थवाह : भद्रा भार्या xxxxxxxxxxxx990 92 101 103 104 107 0 ~ मद 0 ~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 113 114 116 121 122 विजय चोर सन्तान के लिए भद्रा की देवपूजासंबंधी आज्ञा मांगना पति की अनुमति देवों की पूजा पुत्रप्राप्ति पुत्रप्रसव देवदत्त नामकरण पुत्र की हत्या गवेषणा विजय चोर का निग्रह देवदत्त का अन्तिम संस्कार धन्य सार्थवाह का निग्रह धन्य के घर से भोजन भोजन में से विभाग भद्रा का कोप धन्य का छुटकारा धन्य का सत्कार भद्रा के कोप का शमन विजय चोर की अधमगति स्थविर-प्रागमन धन्य की पर्युपासना धन्य की पर्यपासना और स्वर्ग-प्राप्ति उपसंहार 122 123 123 125 126 126 130 तृतीय अध्ययन : अंडक 135 135 सार : संक्षेप जम्बूस्वामी का प्रश्न सुधर्मास्वामी का उत्तर मयूरी के अंडे मित्रों की प्रतिज्ञा गणिका देवदत्ता गणिका के साथ विहार मयूरी का उद्वेग अंडों का अपहरण शंकाशील सागरदत्तपुत्र 135 136 136 Mor Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 शंकाशीलता का कुफल श्रद्धा का सुफल उपसंहार 145 चतुर्थ अध्ययन : कूर्म सार : संक्षेप जम्बू का प्रश्न सुधर्मा का उत्तर कर्मों का निर्गमन पापी शृगाल शृगालों की चालाकी असंयत कूर्म की दुर्दशा निष्कर्ष संयत कूर्म सारांश www . . 152 152 पञ्चम अध्ययन : शैलक 156 xxxxxx >>rry , UU 159 161 162 सार : संक्षेप प्रारंभ द्वारका नगरी रैवतक पर्वत श्रीकृष्ण वर्णन थावच्चा पुत्र अरिष्टनेमि का समवसरण कृष्ण की उपासना थावच्चापुत्र का वैराग्य कृष्ण द्वारा वैराग्यपरीक्षा थावच्चापुत्र की प्रव्रज्या सुदर्शन श्रेष्ठी शुक परिव्राजक शुक की धर्मदेशना थावच्चापुत्र का प्रागमन थावच्चापुत्र-सुदर्शन-संवाद शुक का पुनरागमन शुक-थावच्चापुत्र-संवाद शुक की प्रव्रज्या थावच्चापुत्र की मुक्ति 164 168 168 orror-rror 169 172 174 179 180 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 U शैलक राजा की दीक्षा शैलक का जनपद-बिहार गैलक मुनि की रुग्णता शैलक की चिकित्सा शैलक की शिथिलता साधुनों द्वारा परित्याग शैलक का कोप शैलक का पुनर्जागरण अनगारों का मिलन उपसंहार SVU 15 SU 190 191 191 191 192 षष्ठ अध्ययन : तुम्बक सार : संक्षेप उत्क्षेप राजगह में भगवान का प्रागमन गुरुता-लघुता संबंधी प्रश्न भगवान् का समाधान सप्तम अध्ययन : रोहिणीजात सार : संक्षेप उत्क्षेप धन्य सार्थवाह की परिवारचिन्ता : परीक्षा का विचार वध-परीक्षा परीक्षा-परिणाम उपसंहार 194 197 198 199 203 208 आठवां अध्ययन :मल्ली सार : संक्षेप उत्क्षेप महाबल का जन्म बल राजा की दीक्षा और निर्वाण राजा महाबल महाबल की दीक्षा महाबल का मायाचार तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन महाबल आदि को तपस्या 213 214 214 214 218 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 221 221 225 m mmm rxxx 243 ती, ir 0 समाधिमरण पुनर्जन्म मल्ली कुमारी का जन्म मोहनगृह का निर्माण राजा प्रतिबुद्धि राजा चन्द्रच्छाय अर्हन्नक की सागरयात्रा ताल पिशाच द्वारा अर्हन्त्रक की परीक्षा राजा रुक्मि काशीराज शंख राजा प्रदीनशत्रु राजा जितशत्र दूतों का संदेशनिवेदन दूतों का अपमान युद्ध की तैयारी युद्ध प्रारंभ कुम्भ की पराजय मिथिला का घेराव मल्ली द्वारा चिन्ता संबंधी प्रश्न चिन्तानिवारण का उपाय राजानों को संबोधन मल्ली कुमारी की दीक्षा वर्षीदान इन्द्रों का प्रागमन-दीक्षोत्सव केवलज्ञान की प्राप्ति मल्ली तीर्थकरी की संघसम्पत्ति सिद्धिप्राप्ति 0 0 ir ar "xx rrrrrrix W W 263 263 W 2 274 नवम अध्ययन : माकंदी सार : संक्षेप उत्क्षेप प्रारम्भ माकंदी पत्रों की सागरयात्रा नौका-भंग रत्नद्वीप रत्नद्वीप-देवी 285 285 287 289 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 291 295 देवी द्वारा धमकी देवी का आदेश माकंदीपुत्रों का वन-गमन दक्षिण-वन का रहस्य शैलक यक्ष छुटकारे की प्रार्थना और शर्त छुटकारा जिनरक्षित का वध जिनपालित की सकुशल गृहप्राप्ति जिनपालित की दीक्षा, स्वर्गप्राप्ति 298 299 304 307 309 312 312 दशम अध्ययन :चन्द्र सार : संक्षेप जम्बूस्वामी का प्रश्न सुधर्मा का उत्तर हानि-वृद्धि संबंधी प्रश्न भगवान् का उत्तरहीनता का समाधान वृद्धि का समाधान ग्यारहवाँ अध्ययन : दावद्रव सार : संक्षेप जम्बूस्वामी का प्रश्न सुधर्मास्वामी द्वारा समाधान अाराधक-विराधक देशविराधक देशाराधक सर्वविराधक सर्वाराधक 314 314 316 316 317 बारहवाँ अध्ययन : उदकज्ञात सार : संक्षेप उत्क्षेप राजा जितशत्र द्वारा भोजन की प्रशंसा सुबुद्धि अमात्य का मौन पुद्गल-परिणमन परिखा का गंदा पानी सुबुद्धि द्वारा राजा को तत्त्वबोध कराने का निश्चय 321 322 322 323 324 325 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 325 327 329 गंदे पानी का परिशोधन राजा को पानी का उपहार राजा की तत्त्वजिज्ञासा राजा का श्रावकधर्म स्वीकार करना सुबुद्धि की प्रवघ्या-भावना राजा का कुछ काल का अनुरोध राजा अमात्य की दीक्षा सिद्धिगमन Mmmmmmmmmm 332 332 333 335 337 339 340 340 341 341 342 342 343 तेरहवाँ अध्ययन : दर्दुरज्ञात सार : संक्षेप श्री जम्बू का प्रश्न श्री सुधर्मा का उत्तर गौतम की जिज्ञासा : भगवान् का उत्तर दर्दुर देव का पूर्ववृत्तान्त-नन्द मणियार नन्द की धर्मप्राप्ति नन्द की मिथ्यात्वप्राप्ति नन्द का पुष्करिणी-निर्माण-मनोरथ राजाज्ञाप्राप्ति पुष्करिणीवर्णन वनखंडों का निर्माण चित्रसभा महानसशाला चिकित्साशाला अलंकारसभा नंद की प्रशंसा नंद की रुग्णता नंद मणियार की मृत्यु : पुनर्जन्म मेंढक को जातिस्मरण पुनः श्रावकधर्म-स्वीकार मेंढक की तपश्चर्या भगवत्पदार्पण मेंढक का वन्दनार्थ प्रस्थान मेंढक का कुचलना महावतों का स्वीकार देवपर्याय में जन्म 344 344 344 346 ररर mr m mmm xxx 352 352 352 354 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 355 الملل اس दर्दरदेव का भविष्य उपसंहार चौदहवां अध्ययन : तेतलिपुत्र सार : संक्षेप जम्बूस्वामी का प्रश्न सुधर्मास्वामी का उत्तर तेतलिपुत्र अमात्य तेतलिपुत्र का पोट्टिला के साथ परिणय कनकरथ राजा की राज्यासक्ति सन्तान की अदला-बदली राजकुमार का रहस्य-संगोपन तेतलिपुत्र की पोट्टिला के साथ विरक्ति सुव्रता प्रार्या का प्रागमन पोट्टिला की मंत्र-तंत्रविषयक प्रार्थना पोट्टिला का श्रावकधर्म-स्वीकार दीक्षा की अनुमति-याचना अनुमति की शर्त-स्वीकृति पोटिला प्रार्या की स्वर्गप्राप्ति कनकरथ का निधन कनकध्वज का राज्याभिषेक पोटिल देव द्वारा उद्बोधन का विचार तेतलिपुत्र का प्रात्मघात का निष्फल प्रयत्न पोट्टिल द्वारा उद्बोधन तेतलिपुत्र को जातिस्मरण तेतलिपुत्र की प्रव्रज्या-कैवल्यप्राप्ति कनकध्वज द्वारा क्षमायाचना सिद्धत्वप्राप्ति पन्द्रहवाँ अध्ययन : नन्दीफल सार : संक्षेप जम्बुस्वामी को जिज्ञासा सुधर्मास्वामी द्वारा समाधान धन्य सार्थवाह की घोषणा धन्य का सार्थ के साथ प्रस्थान उपयोगी चेतावनी चेतावनी का पालन Mxx ur rur or or orm99. F. m m mr m mmm rrr m mmm 59 370 371 373 373 375 377 678 379 n 15 mr m N 15 15 387 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , mr m vv r mr m 390 393 393 394 395 395 o उपसंहार धन्य का अहिच्छत्रा पहुंचना माल का क्रय-विक्रय धन्य की प्रव्रज्या-भविष्य निक्षेप सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी सार : संक्षेप जम्बूस्वामी का प्रश्न सुधर्मास्वामी का उत्तर ब्राह्मण-बंधुत्रों का सहभोज का निर्णय नागश्री द्वारा कटुक तुबे का शाक पकाना स्थविर-ग्रागमन धर्मरुचि अनगार का भिक्षार्थगमन कटुक तुंबे का दान स्थविर का आदेश परठने से होने वाली हिंसा--स्वशरीर में प्रक्षेप धर्मरुचि को देवपर्याय की प्राप्ति नागश्री की दुर्दशा सुकुमालिका का कथानक सुकुमालिका का विवाह सुकुमालिका का पति द्वारा परित्याग सुकुमालिका का पुनर्विवाह सुकुमालिका का पुनः परित्याग सुकुमालिका की दानशाला दीक्षाग्रहण सुकुमालिका का निदान सुकुमालिका की बकुशता सुकूमालिका का पृथक् विहार निधन : स्वर्गप्राप्ति द्रौपदी-कथा . द्रौपदी का जन्म नामकरण द्रौपदी का स्वयंवर स्वयंवर के लिए कृष्ण का प्रस्थान हस्तिनापुर को दूतप्रेषण अन्य दूतों का अन्यत्र प्रेषण 0 0 0 0 six 419 Morroror Morn 425 426 72 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 428 430 431 434 435 437 439 440 442 442 444 445 449 स्वयंवरमण्डप का निर्माण आवास-व्यवस्था स्वयंवर : घोषणा स्वयंबर पाण्डवों का वरण विवाह-विधि पाण्डु राजा द्वारा निमंत्रण हस्तिनापुर में कल्याणकरण नारद का आगमन द्रौपदी पर नारद का रोष नारद का अमरकंकागमन : जाल रचना पद्मनाभ की दुर्लालसा द्रौपदी-हरण पद्मनाभ का द्रौपदी को भोग-प्रामंत्रण द्रौपदी की गवेषणा द्रौपदी का उद्धार कृष्ण द्वारा देव का आह्वान पद्मनाभ के पास दूतप्रेषण पद्मनाभ-पाण्डव-युद्ध पाण्डवों की पराजय पद्मनाभ द्रौपदी की शरण में द्रौपदी-समर्पण वासुदेवों का ध्वनि-मिलन श्रीकृष्ण का लौटना : पाण्डवों की शरारत श्रीकृष्ण का पाण्डवों पर रोष : देशनिर्वासन पाण्डुमथुरा की स्थापना पाण्डुसेन का जन्म स्थविर-प्रागमन : धर्मश्रवण प्रवज्याग्रहण भगवान् अरिष्टनेमि का निर्वाण पाण्डवों का निर्वाण प्रार्या द्रौपदी का स्वर्गवास द्रौपदी का भविष्य सत्तरहवाँ अध्ययन : आकीर्ण सार : संक्षेप जम्बूस्वामी की जिज्ञासा 451 453 454 mmxxx Wonढी 464 467 468 470 471 474 73 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 Mmxr 489 495 श्री सुधर्मा द्वारा समाधान नौका-बणिकों का कालिकद्वीप-गमन कालिकद्वीप के पाकर और अश्व अश्वों का अपहरण कथानक का निष्कर्ष विषयलोलुपता का दुष्परिणाम इन्द्रियलोलुपता का दुष्फल इन्द्रियसंवर का सुफल कर्तव्य निर्देश अठारहवाँ अध्ययन : सुसुमा सार : संक्षेप उत्क्षेप चिलात दास चेटक : उसकी शैतानी दासचेटक की शिकायतें दास चेटक का निष्कासन दासचेटक दुर्व्यसनी बना चोर सेनापति की शरण में चिलात चोर-सेनापति बना धन्य सार्थवाह के घर की लूट : धन्य कन्या का अपहरण नगर रक्षकों के समक्ष फरियाद चिलात का पीछा किया सुसुमा का शिरच्छेदन धन्य का शोक पाहार-पानी का प्रभाव धन्य सार्थवाह का प्राणत्याग प्रस्ताव ज्येष्ठ पुत्र की प्राणोत्सर्ग की तैयारी अन्तिम निर्णय राजगह में वापिसी निष्कर्ष 496 496 498 499 502 0 0 0 0 0 CXCCCXCX 0 0 0 0 0 उन्नीसवाँ अध्ययन : पुण्डरीक सार : संक्षेप श्री जम्बू की जिज्ञासा सुधर्मास्वामी द्वारा समाधान महापद्म राजा की दीक्षा : सिद्धिप्राप्ति 513 74 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 516 519 519 521 522 527 कंडरीक की दीक्षा कंडरीक की रुग्णता कंडरीक मुनि की शिथिलता प्रवज्या का परित्याग राज्याभिषेक पुण्डरीक का दीक्षाग्रहण कण्डरीक की पन: रुग्णता मरण एवं नरकगमन पुण्डरीक की उग्र साधना उग्र साधना का सुफल द्वितीय श्रुतस्कन्ध 1-10 वर्ग सार : संक्षेप प्रथम श्रध्ययन-प्रास्ताविक सुधर्मा का आगमन जम्बू का प्रश्न सूधर्मा स्वामी का उत्तर काली देवी की कथा काली देवी का पूर्वभय द्वितीय अध्ययन-राजी देवी तृतीय अध्ययन-रजनी देवी चतुर्थ अध्ययन-विद्युत् देवी पंचम अध्ययन मेधा देवी द्वितीय वर्ग-प्रथम अध्ययन द्वितीय वर्ग 2-5 अध्ययन ततीय वर्ग-प्रथम अध्ययन तृतीय वर्ग 2-6 अध्ययन तृतीय वर्ग 7-12 अध्ययन तृतीय वर्ग 13-54 अध्ययन चतुर्थ वर्ग-प्रथम अध्ययन, रूपा चतुर्थ वर्ग 2-6 अध्ययन चतुर्थ वर्ग 7-54 अध्ययन पंचम वर्ग-प्रथम अध्ययन, कमला पंचम वर्ग शेष 31 अध्ययन षष्ठ वर्ग-१-३२ अध्ययन सप्तम वर्ग-१-४ अध्ययन xxxxxxxxxxx Pr m mm". о 542 543 544 545 545 545 547 548 548 75 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 553 अष्टम वर्ग-१-४ अध्ययन नवम वर्ग-१-८ अध्ययन दशम वर्ग 1-8 अध्ययन परिशिष्ट : (क) उवणयगाहाम्रो (ख) व्यक्तिनामसूची (ग) स्थलविशेषसूची 557 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमगणहर-सिरिसुहम्मसामिविरइयं छठें अंगं नायाधम्मक पंचमगणधर-श्रीमत्सुधर्मस्वामि-विरचितं षष्ठम् अङ्गम् ज्ञाताधर्मकथा-सूत्रम् Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात सार : संक्षेप प्रथम अध्ययन में राजगृह नगर (मगध) के अधिपति महाराज श्रेणिक के सुपुत्र मेघकुमार का आदर्श जोवन अंकित किया गया है, किन्तु इसका नाम 'उक्खित्तणाए' है / यह नाम इस अध्ययन में वणित एवं मेघ के पूर्वभव में घटित एक महत्त्वपूर्ण घटना पर आधारित है। उस घटना ने एक हाथी जैसे पशु को मानव और फिर अतिमानव-सिद्ध परमात्मा के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। आत्मा अनादि-अनन्त चिन्मय तत्त्व है। राग-द्वेष प्रादि विकारों से ग्रस्त होने के कारण वह विभिन्न अवस्थाओं में जन्म-मरण करता है / एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाना ही संसरण या संसार कहलाता है / कभी अधोगति के पाताल में तो कभी उच्चगति के शैल-शिखर पर वह प्रारूढ होता है / इस चढ़ाव-उतार का मूल कारण स्वयं प्रात्मा ही है / सत् संयोग मिलने पर आत्मा जब अपने सच्चे स्वरूप को समझ लेता है तब अनुकूल पुरुषार्थ करके अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त करके अनन्त-असीम आत्मिक वैभव को अधिगत कर लेता है शाश्वत एवं अव्याबाध सुख का स्वामी बन जाता है / मेघकुमार के जीवन में यही घटित हुआ। प्रस्तुत अध्ययन में मेघकुमार के तीन भवों-जन्मों का दिग्दर्शन कराया गया है और दो भावी भवों का उल्लेख है / अतीत तीसरे भव में वह जंगली हाथी था / जंगल में दावानल सुलगता है। प्राणरक्षा के लिए वह इधर-उधर भागता-दौड़ता है। भूखा-प्यासा वह पानी पीने के विचार से कीचड़-भरे तालाब में प्रवेश करता है। पानी तक पहुँचने से पहले ही कीचड़ में फँस जाता है। उबरने का प्रयत्न करता है पर परिणाम विपरीत होता है-अधिकाधिक कीचड़ में धंसता जाता है। विवश, लाचार, असहाय हो जाता है / संयोगवश, उसी समय एक दूसरा तरुण हाथी, जो उसका पूर्व वैरी था, वहाँ आ पहुँचता है और वैर का स्मरण करके अपने तीखे दन्त-शूलों से प्रहार करके उसकी जीवन-लीला समाप्त कर देता है / कलुषित परिणामों-मार्तध्यान-के कारण हाय-हाय करता हुआ वह प्राणत्याग करके पुनः हाथी के रूप में-पशुगति में उत्पन्न होता है। वनचर उसका नाम 'मेरुप्रभ' रखते हैं। संयोग की बात, जंगल में पुनः दावानल का प्रकोप होता है। सारा जंगल धांय-धांय कर ग्राग की लपटों से व्याप्त हो जाता है / मेरुप्रभ फिर अपने यूथ-झुड के साथ इधर-उधर भागतादौड़ता और प्राण रक्षा करता है। किन्तु इस बार दावानल का लोमहर्षक दृश्य देखकर अतीत भव का एक धुंधला-अस्पष्ट-सा चित्र उसके कल्पना-नेत्रों में उभरता है। वह विचारों की गहराई में उतरता है और उसे शुभ अध्यवसाय, लेश्याविशुद्धि एवं ज्ञानावरणकर्म के विशिष्ट क्षयोपशम से जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो जाता है / इस ज्ञान से अपने पूर्वभवों को जाना जा सकता है। मेरुप्रभ हाथी को जातिस्मरण से पूर्व जन्म की घटना विदित हो गई। दावानल का भी स्मरण हो पाया। तब उसने बार-बार उत्पन्न होने वाली इस विपदा से छुटकारा पाने के लिए एक-मंडल-घास-फूस, पेड़-पौधों से रहित, साफ-सफाचट मैदान तैयार किया। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4] [ ज्ञाताधर्मकथा कुछ काल व्यतीत होने पर फिर ग्रीष्मऋतु में दावानल का प्रकोप हुआ / इस वार बचाव का स्थान तैयार था-बनाया हया वह मंडल / मेरुप्रभ उसी ओर भागा। जंगल के सभी प्रकार के र मंडल में ठसाठस भर गए थे। जातिगत वैरभाव त्याग कर शेर, हिरण, भेडिया, शशक अादि सभी एक दूसरे से सटे बैठे थे। मेरुप्रभ भी थोड़ी-सी जगह देख कर खड़ा हो गया। अचानक मेरुप्रभ के शरीर में खुजली उठी / उसने शरीर खुजलाने के लिए पैर ऊपर उठाया हो था कि अन्य बलवान् प्राणियों द्वारा धक्का खाता हुआ एक शशक, पैर उठाने से खाली हुई जगह में पा घुसा। ___ अब मेरुप्रभ हाथी के सामने बड़ी विकट समस्या थी। पैर जमीन पर टेकता है तो शशक की चटनी बन जाती है / पैर उठाये रखे कब तक? दावानल जल्दी शान्त नहीं होता। फिर भारी भरकम शरीर ! उसे तीन पैरों पर कैसे सँभाले ! एक ओर आत्मरक्षा की चिन्ता तो दूसरी ओर जीवदया की प्रबल भावना ! बड़ी असमंजस की स्थिति थी। परन्तु श्रेष्ठ आत्मा अपने हित और सुख का विघात करके भी दूसरे के हित और सुख के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। आखिर आत्मरक्षा के समक्ष भूतदया को विजय हुई / मेरुप्रभ ने स्वयं घोर कष्ट सहन करके भी शशक की अनुकम्पा के लिए अपना पैर अधर ही उठा रखा। इस प्रशस्त अनुकम्पा की बदौलत मेरुप्रभ का संसार परीत हो गया-अनन्त जन्म-मरण का चक्र अति सीमित हो गया और उसने मनुष्यायु का बन्ध किया। मेरुप्रभ ने अढ़ाई अहो-रात्र तक अपना पैर उठाए रखा। जब दावानल जंगल को भस्मसात् करके शान्त हो गया, बुझ गया और दूसरे प्राणी आहार-पानी की खोज में इधर-उधर चले गए, शशक भी चला गया तो मेरुप्रभ ने अपना पैर पृथिवो पर टेकना चाहा / परन्तु अढाई दिन तक एकसा अधर रहने के कारण पैर अकड गया था। अतएव पैर जमाने के प्रयत्न में वह स्वयं ऐसा गिर गया जैसे विद्यत के प्रबल प्राघात से पर्वत का शिखर टूट कर गिर पड़ा हो / उस समय मेरुप्रभ की उम्र सौ वर्ष की थी। जरा से जर्जरित था। भूखा-प्यासा होने से अतिशय दुर्बल, अशक्त और पराक्रम-हीन हो गया था / वह उठ नहीं सका और तीन दिन तक दुस्सह वेदना सहन करके अन्त में प्राण त्याग करके मगधसम्राट श्रेणिक की महारानो धारिणी के उदर में शिशु के रूप में जन्मा। शिशु जब गर्भ में था तब महारानी धारिणी को असमय में पंचरंगी मेघों से युक्त वर्षाऋतु के दृश्य को देखने का दोहद उत्पन्न हुआ। अभयकुमार के प्रयत्न से, दैवी सहायता से, बिक्रिया द्वारा वर्षाऋतु का सर्जन किया गया / प्रस्तुत अध्ययन में वर्षाऋतु का जो शब्दचित्र अंकित किया गया है, वह अतिशय भव्य और हृदयग्राही है / सूक्ष्म प्रकृति-निरीक्षण की गंभीरता का उससे स्पष्ट परिचय मिलता है। वर्षाऋतु का हबह दृश्य नेत्रों के सामने आ खड़ा होता है / उस प्रसंग की भाषा भी धाराप्रवाहमयी, ग्राह्लादजनक और मनोरम है। पढ़ते-पढ़ते ऐसा अनुभव होने लगता है जैसे किसी उत्कृष्ट काव्य का पारायण कर रहे हैं / इस प्रकार के सरस पाठ नागमों में विरले ही मिलते हैं। मेघ संबंधी माता के दोहद के कारण, यथासमय जन्म लेनेवाले बालक का नाम भी मेघ ही रक्खा जाता है। __ सम्राट के पुत्र के लालन-पालन के विषय में कहना ही क्या ! बड़े प्यार से उसका पालनपोषण-संगोपन हुआ / आठ वर्ष की उम्र होने पर उसे कला-शिक्षण के लिए कलाचार्य के सुपुर्द कर Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [5 दिया गया / कलाचार्य ने पुरुष को बहतर कलाओं की शिक्षा दी। उन कलाओं का नामोल्लेख इस प्रसंग में किया गया है। कलाकुशल मेघ के अंग-अंग खिल उठे। वह अठारह देशी भाषाओं में प्रवीण, गीत-नृत्य में निपुण और युद्ध-कला में भी निष्णात हो गया। तत्पश्चात् पाठ राजकुमारियों के साथ एक ही दिन उसका विवाह किया गया। इस प्रकार राजकुमार मेघ उत्तम राजसी भोग-उपभोग भोगने लगा। ___ कुछ काल के पश्चात् जनपद-विहार करते-करते और जगत् के जीवों को शाश्वत एवं पारमार्थिक सुख तथा कल्याण का पथ प्रदर्शित करते हुए भगवान् महावीर का राजगृह नगर में पदार्पण हुआ / राजा-प्रजा सभी धर्मदेशना श्रवण करने के लिए प्रभु की सेवा में उपस्थित हुए। मेघकुमार को जब भगवान के समवसरण का वृत्तान्त विदित हुआ तो वह भी कहाँ पीछे रहने वाला था / प्रात्मा में जब एक बार सच्ची जागृति या जाती है, अपने असीम आन्तरिक वैभव को झांकी मिल जाती है, आत्मा जब एक बार भी स्व-संवेदन के अद्भुत, अपूर्व अमृत-रस का आस्वादन कर लेता है. तब संसार का उत्तम से उत्तम वैभव और उत्कृष्ट से उत्कृष्ट भोग भी उसे वालू के कवल के समान नीरस, निस्वाद और फीके जान पड़ते हैं। राजकुमार मेघ का विवेक जागृत हो चुका था। वह भी भगवान की उपासना के लिए पहुँचा। धर्मदेशना श्रवण की। भगवान का एक-एक वोल मानो अमृत का एक-एक बिन्दु था। उसका पान करते ही उसके ग्राह्लाद की सोमा न रहो / आत्मा लोकोत्तर आलोक से उद्भासित हो उठी / उसने अपने-अापको भगवत्-चरणों में समर्पित कर दिया / सम्राट के लाडले नौजवान पुत्र ने भिक्षु बनने का सुदृढ़ संकल्प कर लिया। मेघ माता-पिता की अनुमति प्राप्त करने उनके पास पहुँचा / दीक्षा की बात सुनते ही माता धारिणी देवी तो बेहोश होकर धड़ाम से धरती पर गिर पड़ी और पिता श्रेणिक सम्राट चकित रह गए। उन्होंने मेघकुमार को प्रथम तो अनेक प्रकार के सांसारिक प्रलोभन देकर ललचाना चाहा / जब उनका कुछ भी असर न हुआ तो साधु-जीवन की कठोरता, भयंकरता एवं दुस्साध्यता का वर्णन किया / यह सब भी जब विफल हुआ तो माता-पिता समझ गए --'सूरदास की कारी कमरिया चढ़े न दूजो रंग / ' आखिर माता-पिता ने अनमने भाव से एक दिन के लिए राज्यासीन होने का आग्रह किया, जिसे मेघ ने मौनभाव से स्वीकार कर लिया। बड़े ठाठ-बाट से राज्याभिषेक हुआ। राजकुमार मेघ अब सम्राट् मेध बन गए / मगर उनका संकल्प कब बदलने वाला था ! तत्काल ही उन्होंने संयम ग्रहण करने की अभिलाषा व्यक्त की और उपकरणों की मांग की / एक लाख स्वर्ण-मोहरों से पात्र एवं एक लाख से वस्त्र खरीदे गए / एक लाख मोहरें देकर शिरोमुडन के लिए नाई बुलवाया गया / बड़े ऐश्वर्य के साथ दीक्षा हो गई ! सम्राट ने स्वेच्छापूर्वक भिक्षुक-जीवन अंगीकार कर लिया। इस प्रकार की महान क्रान्ति करने का सामर्थ्य सिर्फ धर्म में ही है / संसार के अन्य किसी वाद में नहीं। 'समयं गोयम ! मा पमायए' सूत्र अत्यन्त सारपूर्ण है / जीवन का तलस्पर्शी और व्यापक अनुभव इसमें समाया है / मनुष्य एक क्षण के लिए असावधान होता है--गफलत में पड़ता है कि अन्तरतर में छिपे-दबे विकार आक्रमण कर बैठते हैं / बड़ी से बड़ी उंचाई पर से उसे नीचे गिरा देते हैं। मेघमुनि के जीवन में कुछ ऐसा ही घटित हुआ। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जाताधर्मकथा ___ दीक्षा की पहली रात थी / ज्येष्ठानुक्रम-बड़े-छोटे के क्रम से संस्तारक (बिछौने) बिछाए गये। मेघमुनि उस समय सब से छोटे थे। उनका बिस्तर द्वार के पास लगा, जहाँ से मुनियों का आवागमन था। पाते-जाते मुनियों के पैरों की धूल उनके शरीर पर गिरती, कभी पैरों की टक्कर लगती / फूलों की सेज पर सोने वाले मेघमुनि को ऐसी स्थिति में निद्रा कैसी आती ? बड़े-कष्ट में वह रात व्यतीत हुई, मगर उन्होंने प्रातः ही उपाश्रय छोड़कर वापिस राजमहल में लौट जाने का विचार कर लिया। अलवत्ता भगवान् महावीर को अनुमति लेकर ही ऐसा करने का निश्चय किया / प्रातःकाल जब वे अनुमति लेने भगवान् के निकट पहुँचे तो अन्तर्यामी भगवान ने उनके मनोभाव को पहले ही प्रकट कर दिया। साथ ही पूर्व के हाथी के भवों में सहन की गई घोरातिघोर व्यथाओं का विस्तृत वर्णन सुनाया / कहा—'अब तुम इतना-सा कष्ट भी सहन नहीं कर सकते ?' भगवान के वचन सुनते ही मेधमुनि को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया / वे स्पष्ट रूप से अपने पूर्वभवों को देखने-जानने लगे / अपनी स्खलना-दुर्बलता के लिए पश्चात्ताप करने लगे / बोले —'भंते ! आज से दो नेत्र छोड़कर यह समग्र शरीर श्रमण निग्रन्थों की सेवा के लिए समर्पित है।' मेघमुनि ने पुनः दीक्षा अंगीकार करके अपनी स्खलना के लिए प्रायश्चित्त किया। ग्यारह अंगों का अध्ययन किया / भिक्षु-प्रतिमाएँ अंगीकार की, गुणरत्नसंवत्सर तपश्चरण किया / इन तपश्चर्यानों से उनका शरीर निर्बल हो गया, किन्तु आत्मा अतिशय बलशाली बन गई / समाधिपूर्वक शरीर त्याग कर वे विजय नामक अनुत्तर विमान में देव के रूप में जन्मे / वहाँ से च्यवन कर मनुष्यभव धारण करके अन्त में कैवल्य प्राप्त करके वे शाश्वत सुख--मुक्ति के भागी होंगे। विस्तृत विवेचन जानने के लिए पाठक इस अध्ययन का स्वयं अध्ययन करें / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झायन: उक्तित्तजाए प्रारम्भ--- १-तेणं कालेणं तेणं समएणं चम्पा नामं नयरी होत्था, वण्णओ'। उस काल में अर्थात् इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे में और उस समय में अर्थात् कणिक राजा के समय में चम्पा नामक नगरी थी / उसका वर्णन उववाईसूत्र के अनुसार जान लेना चाहिए / २-तीसे णं चम्पाए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे विसीभाए पुण्णभद्दे नामं चेइए होत्था, वण्णओ। उस चम्पा नगरी के बाहर, उत्तरपूर्व दिक्-कोण में अर्थात् ईशानभाग में, पूर्णभद्र नामक चैत्य था / उसका भी वर्णन उववाईसूत्र के अनुसार जान लेना चाहिए। ३-तत्थ गं चम्पाए णयरीए कोणिओ नाम राया होत्था, वण्णओ / चम्पा नगरी में कणिक नामक राजा था। उसका भी वर्णन उववाईसूत्र से जान लेना चाहिए। आर्य सुधर्मा ४--तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मे नाम थेरे जाइसंपन्ने, कुलसंपन्ने, बल-रूप-विणय-णाण-दंसण-चरित्त-लाघव-संपन्ने ओयंसी, तेयंसी, वच्चंसी, जसंसो, जियकोहे, जियमाणे, जियमाए, जियलोहे, जियइंदिए, जियनिद्दे, जियपरिसहे, जीवियास-मरणभयविप्पमुक्के, तवप्पहाणे, गुणप्पहाणे, एवं करण-चरण-निग्गह-णिच्छय-अज्जव-मद्दव-लाघव-खंतिगत्ति-मुत्ति-विज्जा-मंत-बंभ-वेय-नय-नियम-सच्च-सोय-णाण-दसण-चरित्तप्पहाणे घोरव्वए घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छ्ढसरीरे, संखित-विउलतेउलेस्से, चोद्दसपुव्वी, चउनाणोवगए, पंचहि अणगारसएहि द्धि संपरिवुडे पुदवाणुपुटिव चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे, सुहंसुहेणं विहरमाणे, जेणेव चम्पा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हइ; ओगिण्हित्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति / उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के शिष्य आर्य सुधर्मानामक स्थविर थे। वे जातिसम्पन्न-उत्तम मातृपक्ष वाले थे, कुलसम्पन्न-उत्तम पितृपक्ष वाले थे, उत्तम संहनन से उत्पन्न बल से युक्त थे, अनुत्तर विमानवासी देवों की अपेक्षा भी अधिक रूपवान थे. विनयवान.चार ज्ञानवान, क्षायिक सम्यक्त्ववान्, लाघववान् (द्रव्य से अल्प उपधि वाले और भाव से ऋद्धि, रस एवं साता रूप तीन गौरवों से रहित) थे, प्रोजस्वी अर्थात् मानसिक तेज से सम्पन्न या चढ़ते परिणाम वाले, तेजस्वी अर्थात् शारीरिक कान्ति से देदीप्यमान, वचस्वी--सगुण वचन वाले, यशस्वी, क्रोध को जीतने वाले, 1. औपपातिक सूत्र 1, 2. प्रोप० सूत्र 2, 3. प्रौप. सूत्र. 6 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ज्ञाताधर्मकथा मान को जीतने वाले, माया को जीतने वाले, लोभ को जीतने वाले, पाँचों इन्द्रियों को जीतने वाले, निद्रा को जीतने वाले, परीषहों को जीतने वाले, जीवित रहने की कामना और मृत्यु के भय से रहित, तपःप्रधान अर्थात् अन्य मुनियों की अपेक्षा अधिक तप करने वाले या उत्कृष्ट तप करने वाले, गुणप्रधान अर्थात् गुणों के कारण उत्कृष्ट या उत्कृष्ट संयम-गुण वाले, करणप्रधान-पिण्डविशुद्धि आदि करणसत्तरी में प्रधान, चरणप्रधान—महाव्रत आदि चरणसत्तरी में प्रधान,निग्रहप्रधान–अनाचार में प्रवृत्ति न करने के कारण उत्तम, तत्त्व का निश्चय करने में प्रधान, इसी प्रकार प्रार्जवप्रधान, मार्दवप्रधान, लाघवप्रधान, अर्थात् क्रिया करने के कौशल में प्रधान, क्षमाप्रधान, गुप्तिप्रधान, मुक्ति (निर्लोभता) में प्रधान, देवता-अधिष्ठित प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं में प्रधान, मंत्रप्रधान अर्थात् हरिणगमेषी ग्रादि देवों से अधिष्ठित विद्यानों में प्रधान, ब्रह्मचर्य अथवा समस्त कुशल अनुष्ठानों में प्रधान, वेदप्रधान अर्थात् लौकिक एवं लोकोत्तर प्रागमों में निष्णात, नयप्रधान, नियमप्रधान-भाँति-भाँति के अभिग्रह धारण करने में , सत्यप्रधान, शौचप्रधान, ज्ञानप्रधान, दर्शनप्रधान, चारित्रप्रधान, उदार अर्थात अपनी उग्र तपश्चर्या से समीपवर्ती अल्पसत्त्व वाले मनुष्यों को भय उत्पन्न करने वाले, घोर अर्थात परीषहों, इन्द्रियों और कषायों आदि आन्तरिक शत्रुओं का निग्रह करने में कठोर, घोरव्रती अर्थात् महाव्रतों को आदर्श रूप से पालन करने वाले, घोर तपस्वी, उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, शरीरसंस्कार के त्यागी, विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में ही समाविष्ट करके रखने वाले, चौदह पूर्षों के ज्ञाता, चार ज्ञानों के धनी, पाँच सौ साधुनों से परिवृत, अनुक्रम से चलते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरण करते हुए, सुखे-सुखे विहार करते हुए, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, उसी जगह आये। पाकर यथोचित अवग्रह को ग्रहण किया, अर्थात् उपाश्रय की याचना करके उसमें स्थित हुए। अवग्रह को ग्रहण करके संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। ५---तए णं चंपाए नयरीए परिसा निग्गया। कोणिओ निग्गओ। धम्मो कहिओ। परिसा जामेव दिसं पाउन्भूआ, तामेव दिसि पडिगया। तत्पश्चात् चम्पा नगरी से परिषद् (जनसमूह) निकली / कूणिक राजा भी (बन्दना करने के लिए) निकला। सुधर्मा स्वामी ने धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सुनकर परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई। जम्बूस्वामी ६-तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स जेठे अंतेवासी अज्जजंबूणाम अणगारे कासवगोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव [समचउरंस-संठाण-संठिए, वइररिसहनाराय-संघयणे, कणग-पुलगनिधस-पम्हगोरे, उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, उराले, घोरे, घोरगुणे, घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छ्ढसरीरे, संखित्त-विउलतेउलेस्से] अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामंते उद्धृजाणू अहोसिरे झाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति / उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा अनगार के ज्येष्ठ शिष्य आर्य जम्बू नामक अनगार थे, जो काश्यप गोत्रीय और सात हाथ ऊँचे शरीर वाले, [समचौरस संस्थान तथा वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन वाले थे, कसौटी पर खींची हुई स्वर्ण रेखा के सदश तथा कमल के गर्भ के समान गौरवर्ण थे / . उग्र तपस्वी, कर्मवन को दग्ध करने के लिए अग्नि के समान तेजोमय तप वाले, तप्ततपस्वी-अपनी Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात आत्मा को तपोमय बनाने वाले, महातपस्वी-प्रशस्त और दोघं तप वाले, उदार-प्रधान, घोरकषायादि शत्रुओं के उन्मूलन में कठोर, घोरगुण-दूसरों के लिए दुरनुचर मूलोत्तर गुणों से सम्पन्न, उग्रतपस्वी, अन्यों के लिए कठिन ब्रह्मचर्य में लीन, शारीरिक संस्कारों का त्याग करने वाले--शरीर के प्रति सर्वथा ममत्वहीन, सैकड़ों योजनों में स्थित वस्तु को भस्म कर देने वाली विस्तीर्ण तेजोलेश्या को शरीर में ही लीन रखने वाले -[वियुल तेजोलेश्या का प्रयोग न करने वाले] आर्य सुधर्मा से न बहुत दूर, न बहुत समीप अर्थात उचित स्थान पर, ऊपर घुटने और नीचा मस्तक रखकर ध्यानरूपी कोष्ठ में स्थित होकर संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरते थे। जम्बू स्वामी की जिज्ञासा ७-तए णं से अज्जजंबूणामे अणगारे जायसड्ढे, जायसंसए, जायकोउहल्ले, संजातसड्ढे, संजातसंसए, संजातकोउहल्ले, उप्पन्नसड्ढे, उप्पन्नसंसए, उप्पन्नकोउहल्ले, समुप्पन्नसड्ढे, समुप्पन्नसंसए, समुप्पन्नकोउहल्ले उडाए उठेति / उट्ठाए उद्वित्ता जेणामेव अज्जसुहम्मे थेरे तेणामेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता अज्जसुहम्मे थेरे तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेइ / करेत्ता वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता अज्जसुहम्मस्स थेरस्स पच्चासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहं पंजलिउडे विणएणं पज्जुवासमाणे एवं वयासी। तत्पश्चात् आर्य जम्बू नामक अनगार को तत्त्व के विषय में श्रद्धा (जिज्ञासा) हुई, संशय हुअा, कुतूहल हुअा, विशेषरूप से श्रद्धा हुई, विशेष रूप से संशय हुआ और विशेष रूप से कुतूहल हुया / श्रद्धा उत्पन्न हुई, संशय उत्पन्न हुअा और कुतूहल उत्पन्न हुआ। विशेषरूप से श्रद्धा उत्पन्न हुई, विशेष रूप से संशय उत्पन्न हुआ और विशेष रूप से कुतूहल हुा / तब वह उत्थान करके उठ खड़े हुए और उठ करके जहां आर्य सुधर्मा स्थविर थे, वहीं आये / आकर प्रार्य सुधर्मा स्थविर की तीन बार दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा की / प्रदक्षिणा करके वाणी से स्तुति की और काया से नमस्कार किया / स्तुति और नमस्कार करके प्रार्य सुधर्मा स्थविर से न बहुत दूर और न बहुत समीप-उचित स्थान पर स्थित होकर, सुनने की इच्छा करते हुए सन्मुख दोनों हाथ जोड़कर विनयपूर्वक पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले विवेचन–श्रद्धा का अर्थ यहाँ इच्छा है। जम्बूस्वामी को तत्त्व जानने की इच्छा हुई, क्योंकि श्री वर्धमान स्वामी ने जैसे पाँचवें अङ्ग का अर्थ कहा है, उसी प्रकार छठे अङ्ग का अर्थ कहा है या नहीं ? इस प्रकार का संशय उत्पन्न हुमा / संशय उत्पन्न होने का कारण यह था कि 'पंचम अङ्ग में समस्त पदार्थों का स्वरूप बतला दिया गया है तो फिर छठे अङ्ग में क्या होगा?' इस प्रकार का कुतूहल हुग्रा / इस प्रकार श्रद्धा, संशय और कुतूहल में कार्यकारण-भाव है / अर्थात् कुतूहल से संशय का जन्म हुग्रा और संशय ने श्रद्धा-जानने को इच्छा उत्पन्न हुई। जात का अर्थ सामान्य रूप से होना, संजात का अर्थ विशेष रूप से होना, उत्पन्न का अर्थ सामान्य रूप से उत्पन्न होना और समुत्पन्न का अर्थ विशेष रूप से उत्पन्न होना है। ८-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं, आइगरेणं, तित्थयरेणं, सयंसंबुद्धणं, पुरिसुत्तमेणं, पुरिससीहेणं, पुरिसवरपुंडरीएणं, पुरिसवर-गंधहत्थिणा, लोगुत्तमेणं लोगनाहेणं, लोगहिएणं, लोगपईवेणं, लोग-पज्जोयगरेणं, Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [ ज्ञाताधर्मकथा अभयदएणं, सरणदएणं, चक्खुदएणं, मग्गदएणं, बोहिदएणं, धम्मदएणं, धम्मदेसएणं, धम्मनायगेणं, धम्मसारहिणा, धम्मवरचाउरंतचक्कट्टिणा, अप्पडिहयवरनाणदंसणधरेणं, वियट्टछ उमेणं, जिणेणं, जावएणं' तिन्नेणं, तारएणं, मुत्तेणं, मोअगेणं, बुद्धेणं, बोहएणं, सम्वन्नूणं, सम्वदरिसीणं सिवमयलमरुअमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्तिअं सासयं ठाणमुवगएणं, पंचमस्स अंगस्स अयमठे पण्णत्ते, छट्ठस्स णं भंते ! अंगस्स णायाधम्मकहाणं के अट्ठ पण्णत्ते ? श्री जम्बूस्वामी ने श्री सुधर्मास्वामी से प्रश्न किया-भगवन् ! यदि श्रुतधर्म की प्रादि करने वाले, गुरूपदेश के बिना स्वयं ही बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, कर्म-शत्रु का विनाश करने में पराक्रमी होने के कारण पुरुषों में सिंह के समान, पुरुषों में श्रेष्ठ कमल के समान, पुरुषों में गन्धहस्ती के समान, अर्थात् जैसे गन्धहस्ती की गन्ध से ही अन्य हस्ती भाग जाते हैं, उसी प्रकार जिनके पुण्यप्रभाव से ही ईति, भीति आदि का विनाश हो जाता है, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, लोक में प्रदीप के समान, लोक में विशेष उद्योत करने वाले, अभय देने वाले, शरणदाता, श्रद्धारूप नेत्र के दाता, धर्ममार्ग के दाता, बोधिदाता, देशविरति और सर्वविरतिरूप धर्म के दाता, धर्म के उपदेशक, धर्म के नायक, धर्म के सारथी, चारों गतियों का अन्त करने वाले धर्म के चक्रवर्ती अथवा सम्पूर्ण भरतक्षेत्र में धर्म सम्बन्धी चक्रवर्ती--सर्वोत्कृष्ट, कहीं भी प्रतिहत न होने वाले केवलज्ञान-दर्शन के धारक, धातिकर्म रूप छद्म के नाशक, रागादि को जीतने वाले और उपदेश द्वारा अन्य प्राणियों को जिताने वाले, संसार-सागर से स्वयं तिरे हुए और दूसरों को तारने वाले, स्वयं कर्मबन्धन से मुक्त और उपदेश द्वारा दूसरों को मुक्त करने वाले, स्वयं बोध-प्राप्त और दूसरों को बोध देने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव-उपद्रवरहित, अचल-चलन आदि क्रिया से रहित, अरुजशारीरिक व्याधि को वेदना से रहित, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध और अपनरावत्ति-पुनरागमन से रहित सिद्धिगति नामक शाश्वत स्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने पाँचवें अंग का यह (जो आपने कहा) अर्थ कहा है, तो भगवन् ! छठे अंग ज्ञाताधर्मकथा का क्या अर्थ कहा है ? सुधर्मास्वामी का समाधान ९-जंब ति, तए णं अज्जसुहम्मे थेरे अज्जजंबूणामं अणगारं एवं वयासी–एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स दो सुयक्खंधा पण्णत्ता, तंजहा–णायाणि य धम्मकहाओ य। 'हे जम्बू !' इस प्रकार सम्बोधन करके आर्य सुधर्मा स्थविर ने आर्य जम्बू नामक अनमार से इस प्रकार कहा-जम्बू ! यावत् सिद्धि स्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने छठे अङ्ग (ज्ञाताधर्मकथा) के दो श्रुतस्कन्ध प्ररूपण किये हैं / वे इस प्रकार हैं-ज्ञात (उदाहरण) और धर्मकथा / १०–जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छहस्स अंगस्स दो सुयक्खंधा पण्णता, तंजहा—णायाणि य थम्मकहाओ य, पढमस्स णं भंते ! सुयक्खंधस्स समणेणं जाव संपत्तेणं णायाणं कइ अज्झयणा पण्णत्ता? 1. पाठान्तर-जाण एणं (ज्ञायक) २-३--सूत्र 8 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] जम्बूस्वामी पुनः प्रश्न करते हैं भगवन् ! यदि यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने छठे अंग के दो श्रुतस्कन्ध प्ररूपित किये हैं-ज्ञात और धर्मकथा, तो भगवन् ! ज्ञात नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध के यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् ने कितने अध्ययन कहे हैं ? ११-एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव' संपत्तेणं णायाणं एगूणवीसं-अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा उक्खित्तणाए, संघाडे, अंडे कुम्मे य, सेलगे। तुबे य, रोहिणी, मल्ली, माइंदी, चंदिमाइ य // 1 // दावद्दवे, उदगणाए, मंडुक्के, तेयली, वि य / णंदिफले, अमरकंका, आइण्णे, सुसमाइ य // 2 // अवरे य पुंडरीए, णामा एगूणवीसइमे। हे जम्बू ! यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने ज्ञात नामक श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन कहे हैं / वे इस प्रकार हैं (1) उत्क्षिप्तज्ञात (2) संघाट (3) अंडक (4) कूर्म (5) शैलक (6) रोहिणी (7) मल्ली (8) माकंदी (9) चन्द्र (10) दावद्रववृक्ष (11) तुम्ब (12) उदक (13) मंडूक (14) तेतलीपुत्र (15) नन्दीफल (16) अमरकंका (द्रौपदी) (17) पाकीर्ण (18) सुषमा (19) पुण्डरीक-कुण्डरीक, यह उन्नीस ज्ञात अध्ययनों के नाम हैं। १२-जइ शं भंते ! समणेणं जाव' संपत्तेणं णायाणं एगूणवीसं अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा-उक्खित्तणाए जाव पुंडरीए य, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? भगवन् ! यदि श्रमण यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त भगवान् महावीर ने ज्ञात-श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन कहे हैं, यथा-उत्क्षिप्तज्ञात यावत् पुण्डरीक, तो भगवन् ! प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? 13 एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे, भारहे वासे, दाहिणड्डभरहे. रायगिहे णाम णयरे होत्था, वण्णओ' / गुणसीले चेइए वण्णओ / हे जम्बू ! उस काल और उस समय में, इसी जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में, दक्षिणार्ध भरत में राजगह न नगर था। उसका वर्णन उववाईसूत्र में वर्णित चम्पा नगरी के समान जान लेना चाहिए / राजगृह के ईशान कोण में गुणशील नामक उद्यान था / उसका वर्णन भी औपपातिकसूत्र से जान लेना चाहिए। १४--तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए णामं राया होत्था महया हिमवंत० वण्णओ' / तस्स णं सेणियस्स रण्णो णंदा गाम देवी होत्था सुकुमालपाणिपाया वण्णओ। उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था। वह महाहिमवंत पर्वत के समान था, इत्यादि वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए / उस श्रेणिक राजा की नन्दा नामक देवी थी / वह सुकुमार हाथों-पैरों वाली थी, इत्यादि वर्णन भी औपपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए। 1. सूत्र 8, 2. भोप. सूत्र 1, 3. प्रौप. सूत्र 2, 4. औप. सूत्र 6, 5. प्रौप. सूत्र 7 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [ ज्ञाताधर्मकथा अभयकुमार १५–तस्स णं सेणियस्स पुत्ते गंदादेवीए अत्तए अभए णामं कुमारे होत्था; अहोण जाव [अहीण-पडिपुण्ण-पंचिदियसरीरे लक्खण-बंजण-गुणोववेए माणुम्माण-पमाण-पडिपुण्ण-सुजाय-सव्वंगसुदरंगे, ससिसोमाकारे कते पियदसणे सुरूवे, साम-दंड-भेय-उवप्पयाण-णीति-सुप्पउत्तणय-विहष्णू, ईहापोह-मागण-गवेसण-अत्थसत्थमई, विसारए, उष्पत्तियाए, वेणइयाए, कम्मयाए, पारिणामियाए चउविहाए बुद्धीए उववेए, सेणियस्स रण्णो बहुसु कज्जेसु य, कुडुबेसु य, मंतेसु य, गुज्झेसु य, रहस्सेसु य, णिच्छएसु य, आपुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिज्जे, मेढी, पमाणं, आहारे, आलंबभूए, पमाणभूए, आहारभूए, चक्खुभूए, सव्वकज्जेसु य, सवभूमियासु य लद्धपच्चए, विइण्ण वियारे, रज्जधुरचितए यावि होत्था] सेणियस्स रण्णो रज्जं च, रट्टय, कोसं च, कोडागारं च, बलं च, वाहणं च, पुरं च, अंतेउरंच, सयमेव समुपेक्खमाणे-समुपेक्खमाणे विहरइ / __श्रेणिक राजा का पुत्र और नन्दा देवी का आत्मज अभय नामक कुमार था / वह शुभ लक्षणों से युक्त तथा स्वरूप से परिपूर्ण पांचों इंद्रियों से युक्त शरीरवाला था / यावत् (स्वस्तिक चक्र आदि लक्षणों एवं तिलक आदि व्यंजनों के गुणों से युक्त था / मान-उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण तथा सुन्दर सर्वांगों से सुशोभित था / चन्द्रिका के समान सौम्य तथा कमनीय था / देखने वालों को रूप प्रियकर लगता था। वह सरूप था। साम, दंड, भेद एवं उपप्रदान नीति में निष्णात तथा व्यापार नीति की विधि का ज्ञाता था। ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा तथा अर्थशास्त्र में कुशल था / औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी, इन चार प्रकार की बुद्धियों से युक्त था / वह श्रेणिक राजा के लिए बहुत-से कार्यों में, कौटुम्बिक कार्यों में, मंत्रणा में, गुह्य कार्यों में, रहस्यमय मामलों में, निश्चय करने में, एक बार और बार-बार पूछने योग्य था, अर्थात् श्रेणिक राजा इन सब विषयों से अभय कुमार की सलाह लिया करता था / वह सब के लिए मेढ़ी (खलिहान में गाड़ा हुआ स्तंभ, जिसके चारों ओर घूम-घूम कर बैल धान्य को कुचलते हैं) के समान था, पृथ्वी के समान अाधार था, रस्सी के समान पालम्बन रूप था, प्रमाणभूत था, आधारभूत था, चक्षुभूत था, सब और सब स्थानों में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाला था। सब को विचार देने वाला था तथा राज्य की धुरा को धारण करने वाला था / वह स्वयं ही राज्य (शासन) राष्ट्र (देश) कोश, कोठार (अन्नभंडार) बल (सेना) और वाहन--(सवारी के योग्य हाथी अश्व आदि) पुर (नगर) और अन्तःपुर की देखभाल करता रहता था। विवेचन--पानी का एक कुड लबालब भरा हुआ हो और उसमें पुरुष को बिठाने पर एक द्रोण (प्राचीन नाप) पानी बाहर निकले तो वह पुरुष मान-संगत कहलाता है / तराजू पर तोलने पर यदि अर्ध भार प्रमाण तुले तो वह उन्मान-संगत कहलाता है / अपने अंगुल से एक सौ पाठ अंगुल ऊँचा हो तो वह प्रमाण-संगत कहलाता है। अभयकुमार जहाँ शरीरसौष्ठव से सम्पन्न था वहीं अतिशय बुद्धिशाली भी था। सूत्र में उसे चार प्रकार की बुद्धियों से युक्त बतलाया गया है। चार प्रकार की बुद्धियों का स्वरूप इस प्रकार है (1) प्रौत्पत्तिकी बुद्धि-सहसा उत्पन्न होने वाली सूझ-बूझ / पूर्व में कभी नहीं देखे, सुने अथवा जाने किसी विषय को एकदम समझ लेना, कोई विषम समस्या उपस्थित होने पर तत्क्षण Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात] 13 उसका समाधान खोज लेने वाली बुद्धि / (2) वैनयिकी-विनय से प्राप्त होने वाली बुद्धि। (3) कर्मजा--कोई भी कार्य करते-करते, चिरकालीन अभ्यास से जो दक्षता प्राप्त होती है वह कर्मजा, कार्मिकी अथवा कर्मसमुत्था बुद्धि कही जाती है। (4) पारिणामिकी-उम्र के परिपाक से जीवन के विभिन्न अनुभवों से प्राप्त होने वाली वुद्धि। __ मतिज्ञान मूल में दो प्रकार का है---श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित / जो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान के पूर्वकालिक संस्कार के अाधार से---- निमित्त से उत्पन्न होता है किन्तु वर्तमान में श्रुतनिरपेक्ष होता है, वह श्रुतनिश्रित कहा जाता है / जिसमें श्रुतज्ञान के संस्कार की तनिक भी अपेक्षा नहीं रहती वह अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहलाता है / उल्लिखित चारों प्रकार की बुद्धियां इसी विभाग के अन्तर्गत हैं / चारों बुद्धियों को सोदाहरण विस्तृत रूप से समझने के लिए नन्दीसूत्र देखना चाहिए / महारानी धारिणी १६--तस्स णं सेणियस्स रणो धारिणीणामं देवी होत्था सुकुमालपाणि-पाया अहीणपंचि दियसरीरा लक्खण-वंजण-गुणोववेया माणम्माण-प्पमाण-सुजाय-सव्वंगसुदरंगी ससिसोमाकार-कंत पियदसणा सुरुवा करयल-परिमित-तिवलिय-वलियमज्झा कोमुइ-रणियर विमल-पडिपुण्ण-सोमवयणा कुडलुल्लिहिय-गंडलेहा, सिंगारागार चारवेसा संगय-गय-हसिय-भणिय-विहिय-विलास-सललिय-संलाव निउण-जुत्तोवयारकुसला पासादोया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा सेणियस्स रण्णो इट्ठा जाव [कंता पिया मणुण्णा मणामा धेज्जा वेसासिया सम्मया बहुमया अणुमया भंडकरंडगसमाणतेल्लकेला इव सुसंगोबिया चेलपेडा इव सुसंपरिगिहीया रयणकरंडगो विव सुसारक्खिया, मा णं सीयं, मा णं उण्हं, मा णं दंसा, मा गं मसगा मा णं वाला, मा णं चोरा, मा गं वाइय-पित्तिय-सिभिय-सन्निवाइयविविहा रोगायंका फुसंतु ति कटु सेणिएणं रण्णा सद्धि विउलाई भोगभोगाइं पच्चणुभवमाणी विहरइ / उस श्रेणिक राजा की धारिणी नामक देवी (रानी) थी / उसके हाथ और पैर बहुत सूकुमार थे। उसके शरीर में पाँचों इन्द्रियाँ अहीन, शुभ लक्षणों से सम्पन्न और प्रमाणयुक्त थीं। वह शंख-चक्र आदि शुभ लक्षणों तथा मसा-तिल प्रादि व्यंजनों के गुणों से अथवा लक्षणों, व्यंजनों और गुणों से युक्त थी, माप-तोल और नाप से बरावर थी। उसके सभी अंग सुदंर थे, चन्द्रमा के सदृश सौम्म आकृति वाली, कमनीय, प्रियदर्शना और सुरूपवती थी। उसका मध्यभाग इतना पतला था कि मुट्ठी में पा सकता था, प्रशस्त त्रिवली से युक्त था और उसमें वलि पड़े हुए थे / उसका मुख-मंडल कार्तिकी पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान निर्मल, परिपूर्ण और सौम्य था / उसकी गंडलेखा-कपोल-पत्रवल्ली कुडलों से शोभित थी, उसका सुशोभन वेष शृंगाररस का स्थान-सा प्रतीत होता था, उसकी चाल, हास्य, भाषण, शारीरिक और नेत्रों की चेष्टाएं-सभी कुछ संगत था। वह पारस्परिक वार्तालाप करने में भी निपुण थी / दर्शक के चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न करने वाली, दर्शनीय, रूपवती और अतीव रूपवती थी। वह श्रेणिक राजा की वल्लभा थी, यावत् [कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, अतीव मनोहर, धैर्य का स्थान, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत अर्थात् अतीव मान्य, आभूषणों तथा वस्त्रों के पिटारे के समान, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] [ज्ञाताधर्मकथा यत्नपूर्वक सुरक्षित, मृत्तिकापात्र के समान सार-संभालपूर्वक गृहीत, रत्नों की पेटी के समान सम्हाली हुई, इसे सर्दी न लग जाए, गर्मी न लग जाए, डांस-मच्छर कष्ट न पहुँचाएँ, सर्प न डस जाए, चोर न उठा ले जाएँ, वात-पित्त-कफ अथवा सन्निपात जनित विविध प्रकार के रोग या आतंक–सहसा उत्पन्न होने वाले या मारणान्तिक रोग न हो जाएं, इस प्रकार की सावधानी से सार-संभाल की जाती हुई वह महारानी धारिणी श्रेणिक राजा के साथ विपुल भोगों का अनुभव करती हुई सुख भोगती हुई रहती थी। धारिणी का स्वप्नदर्शन १७-तए णं सा धारिणी देवी अण्णया कयाइ तंसि तारिसर्गसि छक्कटुक-लटुमट्ठसंठिय-खंभुग्गयपवरवरसालभंजिय-उज्जलमणिकणगरयण-थूभिय-विडंगजालद्धचंदणिज्जहकंतरकणयालिचंदसालियाविभत्तिकलिए, सरसच्छधाऊलवण्णरइए, बाहिरओ दुमियघटुमठे, अभितरओ पसत्त-सुइलिहियचित्तकम्मे, गाणाविहपंचवण्णमणिरयणकोट्टिमतले, पउमलया-फुल्लवल्लि-वरपुप्फजाइ-उल्लोयचित्तियतले, चंदणवरकणगकलस-सुविणिम्मियपडिपुंजियसरसपउमसोहंतदारभाए, पयरग्गालबंतमणिमुत्तदामसुविरइयदारसोहे, सुगंध-वरकुसुम-मउयपम्हलसयणोक्यारे, मणहिययनिव्वुइकरे, कप्पूर-लवंग-मलयचंदण-कालागुरु-पवरकुदुरुक्क-तुरुक्क-धूवडज्झंतसुरभिमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे, सुगंधवरगंधिए गंधवट्रिभूए, मणिकिरणपणासियंधयारे, कि बहुणा ? जुइगुणहि सुरवरविमाणवेलबियवरघरए, तंसि तारिसगंसि सयणिज्जसि, सालिगणवदिए उभओ विब्बोयणे, दुहओ उन्नए, मज्झेण य गंभीरे, गंगापुलिणवालुयाउद्दालसालिसए, ओयवियखोमदुगुल्लपट्टपडिच्छिन्ने, अत्थरय-मलय-नवतयकुसत्त-लिब-सीहकेसरपच्चुत्थए, सुविरइयरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुए, सुरम्मे, आइणग-रुय-बूर-णवणीयतुल्लफासे; पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सुत्त-जागरा ओहोरमाणी ओहीरमाणी एगं महं सत्तस्सेहं. रययकूडसन्निहं, नहयलंसि सोमं सोमाकारं लीलायंतं जंभायमाणं मुहमइगयं गयं पासित्ता णं पडिबुद्धा। वह धारिणी देवी किसी समय अपने उत्तम भवन में शय्या पर सो रही थी। वह भवन कैसा था ? उसके बाह्य पालन्दक या द्वार पर तथा मनोज्ञ, चिकने, सुदंर आकार वाले और ऊँचे खंभों पर अतीव उत्तम पुतलियाँ बनी हुई थीं। उज्ज्वल मणियों, कनक और कर्केतन आदि रत्नों के शिखर, कपोत-पाली, गवाक्ष, अर्ध-चंद्राकार सोपान, नि! हक (दरवाजे के दोनों ओर निकले हुए काष्ठ) अंतर या नियूहकों के बीच का भाग, कनकाली तथा चन्द्रमालिका (धर के ऊपर की शाला) आदि घर के विभागों की सुन्दर रचना से युक्त थ पक्त था। स्वच्छ गेरु से उसमें उत्तम रंग गा था / बाहर से उसमें सफेदी की गई थी, कोमल पाषाण से घिसाई की गई थी, अतएव वह चिकना था। उसके भीतरी भाग में उत्तम और शुचि चित्रों का आलेखन किया गया था। उसका फर्श तरह-तरह की पंचरंगी मणियों और रत्नों से जड़ा हुआ था। उसका ऊपरी भाग (छत) पद्म के से प्राकार की लतामों से, पुष्पप्रधान बेलों से तथा उत्तम पुष्पजाति-मालती आदि से चित्रित था। उसके द्वार-भागों में चन्दन-चचित, मांगलिक, घट सुन्दर ढंग से स्थापित किए हुए थे। वे सरस कमलों से सुशोभित थे, प्रतरक-स्वर्णमय आभूषणों से एवं मणियों तथा मोतियों की लंबी लटकने वाली मालाओं से उसके द्वार सुशोभित हो रहे थे। उसमें सुगंधित और श्रेष्ठ पुष्पों से कोमल और रुएँदार शय्या का उपचार किया गया था / वह मन एवं हृदय को आनन्दित करने वाला था / कपूर, लौंग, मलयज चन्दन, कृष्ण अगर, उत्तम कुन्दुरुक्क (चीड़ा), तुरुष्क (लोभान) और अनेक सुगंधित द्रव्यों से बने हुए धूप के Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात] [15 जलने से उत्पन्न हुई मघमघाती गंध से रमणीय था / उसमें उत्तम चूर्णों की गंध भी विद्यमान थी। सुगंध की अधिकता के कारण वह गंध-द्रव्य की वट्टी ही जैसा प्रतीत होता था / मणियों की किरणों के प्रकाश से वहाँ का अंधकार गायब हो गया था। अधिक क्या कहा जाय ? वह अपनी चमक-दमक से तथा गुणों से उत्तम देवविमान को भी पराजित करता था। इस प्रकार के उत्तम भवन में एक शय्या बिछी थी। उस पर शरीर-प्रमाण उपधान बिछा था। उसमें दोनों ओर-सिरहाने और पाँयते की जगह तकिए लगे थे। वह दोनों तरफ ऊँची और मध्य में झकी हई थी-गंभीर थी / जैसे गंगा के किनारे की बाल में पाँव रखने से पाँव धंस प्रकार उसमें धस जाता था। कसीदा काढ़हए क्षमिकल का चद्दर बिछाया था / वह प्रास्तरक मलक, नवत, कुशक्त, लिम्ब और सिंहकेसर नामक प्रास्तरणों से प्राच्छादित था। जब उसका सेवन नहीं किया जाता था तब उसपर सुन्दर बना हा रजस्त्राण पडा रहता था--उस पर मसहरी लगी हुई थी, वह अति रमणीय थी। उसका स्पर्श आजिनक (चर्म का वस्त्र), रुई, बूर नामक वनस्पति और मक्खन के समान नरम था। ऐसो सुन्दर शय्या पर मध्यरात्रि के समय धारिणी रानी, जब न गहरी नींद में थी और न जाग हो रही थी, बल्कि बार-बार हल्की-सी नींद ले रही थी, ऊँघ रही थी, तब उसने एक महान, सात हाथ ऊंचा, रजतकुट-चांदी के शिखर के सदृश श्वेत, सौम्य, सौम्याकृति, लीला करते हुए, जंभाई लेते हुए हाथी को आकाशतल से अपने मुख में प्रवेश करते देखा / देखकर वह जाग गई / स्वप्ननिवेदन 18. तए णं सा धारिणी देवो अयमेयारूवं उरालं, कल्लाणं सिवं धन्नं मंगल्लं सस्सिरीयं महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी हट्ठतुट्ठा चित्तमाणंदिया पोइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया धाराहयकलंबपुप्फगंपिव समूससियरोमकूवा तं सुमिणं ओगिण्हइ / ओगिण्हइत्ता सणिज्जाओ उट्ठति, उट्ठ इत्ता पायपीढाओ पच्चोरहइ, पच्चोरहइत्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणामेव से सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता सेणियं रायं ताहि इट्टाहि कंताहि पियाहिं मणुन्नाहि मणामाहिं उरालाहि कल्लाणाहि सिवाहि धन्नाहिं मंगल्लाहि सस्सिरियाहि, हिययगमणिज्जाहि, हिययपल्हाणिज्जाहि मिय-महररिभिय-गंभीर-सस्सिरीयाहि गिराहि संलबमाणी संलवमाणी पडिबोडेड। पडिबोहेत्ता सेणिएणं रन्ना अब्भणुनाया समाणी जाणामणि-कणग-रयण-भत्तिचित्तंसि भद्दासणंसि निसीयइ। निसीइत्ता आसत्था वोसत्था सुहासणवरगया करयलपरिग्गहिअं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु, सेणियं रायं एवं वयासी। ___ तत्पश्चात् वह धारिणी देवी इस प्रकार के इस स्वरूप वाले, उदार प्रधान, कल्याणकारी, शिव-उपद्रव का नाश करने वाले, धन्य-धन प्राप्ति कराने वाले, मांगलिक-पाप विनाशक एवं सुशोभित महास्वप्न को देखकर जागी। उसे हर्ष और संतोष हुआ / चित्त में आनन्द हुा / मन में प्रीति उत्पन्न हुई / परम प्रसन्नता हुई। हर्ष के वशीभूत होकर उसका हृदय विकसित हो गया / मेघ की धाराओं का आधात पाए कदम्ब के फूल के समान उसे रोमांच हो पाया / उसने स्वप्न का विचार किया। विचार करके शय्या से उठी और उठकर पादपीठ से नीचे उतरी। नीचे उतर मानसिक त्वरा से रहित, शारीरिक चपलता से रहित, स्खलना से रहित, विलम्ब-रहित राजहंस जैसी गति से जहाँ श्रेणिक राजा था, वहीं पाई। आकर श्रेणिक राजा को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज, मणाम Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ज्ञाताधर्मकथा (मन को अतिशय प्रिय), उदार-श्रेष्ठ स्वर एवं उच्चार से युक्त, कल्याण-समृद्धि कारक, शिव-निर्दोष होने के कारण निरुपद्रव, धन्य, मंगलकारी, सश्रीक-अलंकारों से सुशोभित, हृदय को प्रिय लगने वाली, हृदय को आह्लाद उत्पन्न करने वाली, परिमित अक्षरों वाली, मधुर-स्वरों से मीठी, रिभित-स्वरों की घोलना वाली, शब्द और अर्थ की गंभीरता वाली और गुण रूपी लक्ष्मी से युक्त वाणी बार-बार बोल कर श्रेणिक राजा को जगाती है। जगाकर श्रेणिक राजा की अनुमति पाकर विविध प्रकार के मणि, सुवर्ण और रत्नों की रचना से चित्र-विचित्र भद्रासन पर बैठती है / बैठ कर आश्वस्त-चलने के श्रम से रहित होकर, विश्वस्त-क्षोभरहित होकर, सुखद और श्रेष्ठ आसन पर बैठी हुई वह दोनों करतलों से ग्रहण की हुई और मस्तक के चारों ओर घूमती हुई अंजलि को मस्तक पर धारण करके श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहती है-- 19. एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! अज्ज तंसि तारिसगंसि सणिज्जंसि सालिगणवट्टिए जाव नियगवयणमइवयंतं गयं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा / तं एयस्स णं देवाणुप्पिया ! उरालस्स जाव[कल्लाणस्स सिवस्स धण्णस्स मंगल्लस्स सस्सिरीयस्स]सुमिणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ? देवानुप्रिय ! आज मैं उस पूर्ववणित शरीर-प्रमाण तकिया वाली शय्या पर सो रही थी, तब यावत् अपने मुख में प्रवेश करते हुए हाथी को स्वप्न में देख कर जागी हूँ / हे देवानुप्रिय ! इस उदार यावत [कल्याणकारी, उपद्रवों का अन्त करने वाले, मांगलिक एवं सश्रीक-सुशोभन] स्वप्न का क्या फल-विशेष होगा? 20. तए णं सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयम8 सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ-जाव [चित्तमाणदिए पोइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवस-विसप्पमाण] हियए धाराहय-नीव-सूरभिकुसुमचंचुमालइयतणू ऊससियरोमकूवे तं सुमिणं उग्गिण्हइ। उग्गिण्हित्ता ईहं पविसति, पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुन्वएणं बुद्धिविन्नाणेणं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहं करेइ / करिता धारिणि देवि ताहिं जाव' हिययपल्हायणिज्जाहि मिउमहुररिभियगंभीरसस्सिरियाहि वहिं अणुवूहेमाणे अणुवूहेमाणे एवं वयासी। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा धारिणी देवी से इस अर्थ को सुनकर तथा हृदय में धारण करके हर्षित हया, सिन्तुष्ट हया, उसका चित्त मानन्दित हो उठा, मन में प्रीति उत्पन्न हई, अतीव सौमनस्य प्राप्त हुना, हर्ष के कारण उसकी छाती फूल गई, मेघ की धाराओं से आहत कदंबवृक्ष के सुगंधित पुष्प के समान उसका शरीर पुलकित हो उठा-उसे रोमांच हो पाया। उसने स्वप्न का अवग्रहण किया--सामान्य रूप से विचार किया। अवग्रहण करके विशेष अर्थ के विचार रूप ईहा में प्रवेश किया। ईहा में प्रवेश करके अपने स्वाभाविक मतिपूर्वक बुद्धिविज्ञान से अर्थात् औत्पत्तिको आदि बुद्धियों से उस स्वप्न के फल का निश्चय किया। निश्चय करके धारिणी देवी से हृदय में पाह्नाद उत्पन्न करने वाली मृदु, मधुर, रिभित, गंभीर और सश्रीक वाणी से बार-बार प्रशंसा करते हुए इस प्रकार कहा। श्रेणिक द्वारा स्वप्नफल-कथन 21. उराले णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणे दिट्ठ, कल्लाणे णं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणे दि8, 1. सूत्र 17 2. सूत्र 15 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [17 सिवे धन्ने मंगल्ले सस्सिरीए णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणे दिठे, आरोग्ग-तुढ़ि-दोहाउय-कल्लाण-मंगल्लकारए णं तुमे देवी सुमिणे दिछे / अत्यलाभो ते देवाणुप्पिए, पुत्तलाभो ते देवाणुप्पिए रज्जलाभो भोगलाभो सोक्खलाभो ते देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुम देवाणुप्पिए नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण य राइंदियाण विइक्कताणं अम्हं कुलकेउं कुलदोवं कुलपब्वथं कुलवडिसयं कुलतिलकं कुलकित्तिकर, कुलवित्तिकर, कुलणंदिकरं, कुलजसकरं, कुलाधारं कुलपायवं कुलविवद्धणकरं सुकुमालपाणिपायं जाव' दारयं पयाहिसि / ___ 'देवानुप्रिये ! तुमने उदार-प्रधान स्वप्न देखा है, देवानुप्रिये ! तुमने कल्याणकारी स्वप्न देखा है, देवानुप्रिये ! तुमने शिव-उपद्रव-विनाशक, धन्य धन की प्राप्ति कराने वाला, मंगलमय-सुखकारी और सश्रीक-सुशोभन स्वप्न देखा है / देवी ! प्रारोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगल करने वाला स्वप्न तुमने देखा है / देवानुप्रिये ! इस स्वप्न को देखने से तुम्हें अर्थ का लाभ होगा, देवानुप्रिये ! तुम्हें पुत्र का लाभ होगा, देवानुप्रिये ! तुम्हें राज्य का लाभ होगा, भोग का तथा सुख का लाभ होगा। निश्चय ही देवानुप्रिये ! तुम पूरे नव मास और साढ़े सात रात्रि-दिन व्यतीत होने पर हमारे कुल की ध्वजा के समान, कुल के लिए दीपक के समान, कुल में पर्वत के समान, किसी से पराभूत न होने वाला, कुल का भूषण, कुल का तिलक, कुल की कीर्ति बढ़ाने वाला, कुल की आजीविका बढ़ाने वाला, कुल को आनन्द प्रदान करने वाला, कुल का यश बढ़ाने वाला, कुल का आधार, कुल में वृक्ष के समान आश्रयणीय प्रौर कुल की वृद्धि करने वाला तथा सुकोमल हाथ-पैर बाला पुत्र (यावत्) प्रसव करोगी।' 22 से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विनायपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुपत्ते सूरे वीरे विक्कंते वित्थिन्नविपुलबलवाहणे रज्जवती राया भविस्सइ / तं उराले णं तुमे देवीए सुमणे दिठे जाव' आरोग्गतुठ्ठिदोहाउकल्लाणकारए णं तुमे देवी ! सुमिणे दिठे ति कटु भुज्जो भुज्जो अणुव्हेइ। 'वह बालक बाल्यावस्था को पार करके, कला आदि के ज्ञान में परिपक्व होकर, यौवन को प्राप्त होकर शूर-वीर और पराक्रमी होगा। वह विस्तीर्ण और विपुल सेना तथा वाहनों का स्वामी होगा। राज्य का अधिपति राजा होगा / अतएव, देवी ! तुमने प्रारोग्यकारी, तुष्टिकारी, दीर्घायुकारी और कल्याणकारी स्वप्न देखा है।' इस प्रकार कहकर राजा बार-बार उसकी प्रशंसा करने लगा। २३--तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा एवं बुत्ता समाणी हठतुट्ठ जाव' हियया करयलपरिग्गहियं जाव सिरसावत्तं मत्थए अजलि कटु एवं वयासो तत्पश्चात् वह धारिणी देवो श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई। उसका हृदय आनन्दित हो गया / वह दोनों हाथ जोड़कर पावर्त करके और मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोली-.. 24--- एवमेयं देवाणुप्पिया! तहमेयं अवितहमेयं असंदिद्धमेयं इच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! पडिच्छियमेयं इच्छियपडिच्छियमेयं, सच्चे णं एसम8 जं णं तुन्भे वयह त्ति कटु तं सुमिणं सम्म 1. प्रौप सूत्र 143 2. प्र.प्र.सूत्र 21 3. प्र.अ.२० Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [ज्ञाताधर्मकथा पडिच्छइ / पडिच्छित्ता सेणिएणं रण्णा अन्भणण्णाया समाणी णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अन्भुठेइ, अब्भुठेत्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयंसि सयणिज्जसि निसीअइ / निसीइत्ता एवं वयासी देवानप्रिय ! आपने जो कहा है सो ऐसा ही है / आपका कथन सत्य है / असत्य नहीं है, यह कथन संशय रहित है / देवानुप्रिय ! आपका कथन मुझे इष्ट है, अत्यन्त इष्ट है, और इष्ट तथा अत्यन्त इष्ट है। आपने मुझसे जो कहा है सो यह अर्थ सत्य है / इस प्रकार कहकर धारिणी देवी स्वप्न को भलीभांति अंगीकार करती है / अंगीकार करके राजा श्रेणिक की आज्ञा पाकर नाना प्रकार के मणि, सुवर्ण और रन्तों की रचना से विचित्र भद्रासन से उठती है। उठकर जिस जगह अपनी शय्या थी, वहीं पाती है। प्राकर शय्या पर बैठती है, बैठकर इस प्रकार (मन ही मन) कहती है सोचती है २५--मा मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुमिणे अन्नेहिं पावसुमिणेहि पडिहम्मिहि ति कटु देवयगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं धम्मियाहिं कहाहि सुमिणजागरियं पडिजागरमाणी विहरइ / ___ 'मेरा यह स्वरूप से उत्तम और फल से प्रधान तथा मंगलमय स्वप्न, अन्य अशुभ स्वप्नों से नष्ट न हो जाय' ऐसा सोचकर धारिणी देवी, देव और गुरुजन संबंधी प्रशस्त धार्मिक कथाओं द्वारा अपने शुभ स्वप्न की रक्षा के लिए जागरण करती हुई विचरने लगी। स्वप्नपाठकों का आह्वान २६-तए णं सेणिए राया पच्चूसकालसमयंसि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बाहिरियं उवट्ठाणसालं अज्ज सविसेसं परमरम्म गंधोदगसित्तसुइय-संमज्जिवलितं पंचवन्न-सरस-सुरभि-मुक्कपुष्फपुंजोवयारकलियं कालागरु-पवरकंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-डज्झंतमधमघंतगंद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह कारवेह य; करित्ता य कारवात्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।। तत्पश्चात् |णिक राजा ने प्रभात काल के समय कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुला कर इस प्रकार कहा--हे देवानुप्रियो ! आज बाहर की उपस्थानशाला (सभाभवन) को शीघ्र ही विशेष रूप से परम रमणीय, गंधोदक से सिंचित, साफ-सुथरी, लोपो हुई, पांच वर्गों के सरस सुगंधित एवं बिखरे हुए फूलों के समूह रूप उपचार से युक्त, कालागुरु, कुदुरुक्क, तुरुष्क (लोभान) तथा धूप के जलाने से महकती हुई, गंध से व्याप्त होने के कारण मनोहर, श्रेष्ठ सुगंध के चूर्ण से सुगंधित तथा सुगंध की गुटिका (वटी) के समान करो और करायो। मेरी ग्राज्ञा वापिम सौंपो अर्थात् प्राज्ञानुसार कार्य हो जाने की सूचना दो ! विवेचन–प्राचीनकाल में सेवकों को समाज में कितना सन्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था, यह बात जैन शास्त्रों से भलीभांति विदित होती है / उन्हें 'कौटुम्बिक पुरुष' अर्थात् परिवार का सदस्य समझा जाता था और महामहिम मगधसम्राट् श्रेणिक जैसे पुरुष भी उन्हें 'देवानुप्रिय' कहकर संबोधन करते थे / यह ध्यान देने योग्य है। ___ 27 तए णं ते कोड बियपुरिसा सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा जाव' पच्चप्पिणंति / 1. प्र.अ. सूत्र 20 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष श्रेणिक राजा द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हर्षित हुए। उन्होंने अाज्ञानुसार कार्य करके प्राज्ञा वापिस सौंपी। 28 - तए णं सेणिए राया कल्लं पाउप्यभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि, अह पंडुरे पभाए, रत्तासोगपगास-किसुय-सुयमुह-गुजद्धराग-बंधुजीवग-पारावयचलण-नयण-परहुयसुरत्तलोयण-जासुमिणकुसुम-जलियजलण-तवणिज्जकलस-हिंगुलनियर-रूवाइरेगरेहन्तसस्सिरीए दिवागरे अहकमेण उदिए, तस्स दिणकरपरंपरावयारपारद्धम्मि अंधयारे, बालातवकुकुमेणं खइए व्व जीवलोए, लोयणविसआणुआस-विगसंत-विसददंसियम्मि लोए, कमलागरसंडबोहए उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते सयणिज्जाओ उट्ठति / ____ तत्पश्चात् स्वप्न वाली रात्रि के बाद दूसरे दिन रात्रि प्रकाशमान प्रभात रूप हुई / प्रफुल्लित कमलों के पत्ते विकसित हुए, काले मृग के नेत्र निद्रारहित होने से विकस्वर हुए / फिर वह प्रभात पाण्डुर-श्वेत वर्ण वाला हुा / लाल अशोक की कान्ति, पलाश के पुष्प, तोते की चोंच, चिरमी के अर्धभाग, दुपहरी के पुष्प, कबूतर के पैर और नेत्र, कोकिला के नेत्र, जासोद के फूल, जाज्वल्यमान अग्नि, स्वर्णकलश तथा हिंगल के समूह की लालिमा से भी अधिक लालिमा से जिसकी श्री सुशोभित हो रही है, ऐसा सूर्य क्रमश: उदित हुना / सूर्य की किरणों का समूह नीचे उतरकर अंधकार का विनाश करने लगा / बाल-सूर्य रूपी कुकुम से मानो जीवलोक व्याप्त हो गया। नेत्रों के विषय का प्रचार होने से विकसित होने वाला लोक स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा / सरोवरों में स्थित कमलों के वन को विकसित करने वाला तथा सहस्र किरणों वाला दिवाकर तेज से जाज्वल्यमान हो गया / ऐसा होने पर राजा श्रेणिक शय्या से उठा / _ विवेचन जब सूर्य उदीयमान होता है और जब उदित हो जाता है तब उसके प्रकाश के स्वरूप में किस-किस प्रकार का परिवर्तन होता है उसके प्रकाश के रंगों में किस क्रम से उलटफेर होता है, प्रस्तत सत्र में उसका चित्र उपस्थित किया गया है। नैसर्गिक वर्णन का यह उत्कृष्ट उदाहरण है। २९-उट्टित्ता जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता अट्टणसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता अणेगवायाम-जोग-वग्गण-वामहण-मल्लजुद्धकरणेहि संते परिस्सन्ते, सयपागेहि सहस्सपागेहि सुगंधवरतेल्लमाइएहि पीणणिज्जेहिं दीवणिज्जेहिं दप्पणिज्जेहि मदणिज्जेहि विहणिज्जेहि, सच्चिदियगायफल्हायणिज्जेहि अन्भंगएहि अभंगिए समाणे, तेल्लचम्मंसि पडिपुण्णपाणिपाय-सुकुमालकोमलतलेहि परिसेहि छेएहि दक्खेहि पटहि कसलेहि मेहावीहिं निउणेहि निउणसिप्पोवगएहि जियपरिस्समेहि अन्भंगण-परिमद्दणुव्वट्टण-करणगुणनिम्माएहि अट्ठिसुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चउम्विहाए संवाहणाए संबाहिए समाणे अवगयपरिस्समे नरिंदे अट्टणसालाओ पडिणिक्खमइ / शय्या से उठकर राजा श्रेणिक जहाँ व्यायामशाला थी, वहीं पाता है। प्राकर-व्यायामशाला में प्रवेश करता है। प्रवेश करके अनेक प्रकार के व्यायाम, योग्य (भारी पदार्थों को उठाना), वल्गन (कूदना), धामर्दन (भुजा आदि अंगों को परस्पर मरोड़ना), कुश्ती तथा करण (बाहुओं को विशेष प्रकार से मोड़ना) रूप कसरत से श्रेणिक राजा ने श्रम किया, और खूब श्रम किया अर्थात् सामान्यत: शरीर का और विशेषतः प्रत्येक अङ्गोपांग का व्यायाम किया। तत्पश्चात् शतपाक तथा सहस्रपाक आदि श्रेष्ठ सुगंधित तेल आदि अभ्यंगनों से, जो प्रोति उत्पन्न करने वाले अर्थात् रुधिर 2 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] [ ज्ञाताधर्मकथा ग्रादि धातुओं को सम करने वाले, जठराग्नि को दीप्त करने वाले, दर्पणीय अर्थात् शरीर का बल बढ़ाने वाले, मदनीय (कामवर्धक), बृहणीय (मांसवर्धक) तथा समस्त इन्द्रियों को एवं शरीर को आह लादित करने वाले थे, राजा श्रेणिक ने अभ्यंगन कराया। फिर मालिश किये शरीर के चर्म को, परिपूर्ण हाथ-पैर वाले तथा कोमल तल वाले, छेक (अवसर के ज्ञाता), दक्ष (चटपट कार्य करने वाले). पट्टे (बलशाली), कुशल (मर्दन करने में चतुर), मेधावी (नवोन कला को ग्रहण करने में समर्थ), निपुण (कोड़ा करने में कुशल), निपुण शिल्पी (मर्दन के सूक्ष्म रहस्यों के ज्ञाता), परिश्रम को जीतने वाले, अभ्यंगन मर्दन उद्वर्तन करने के गुणों से पूर्ण पुरुषों द्वारा अस्थियों को सुखकारी, मांस को सुखकारी त्वचा को सुखकारी तथा रोमों को सुखकारी-इस ह की संबाधना से (मदन से) श्रेणिक के शरीर का मर्दन किया गया। इस मालिश और मर्दन से राजा का परिश्रम दूर हो गया-थकावट मिट गई / वह व्यायामशाला से बाहर निकाला। 30 -पडिणिक्खमित्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता मज्जणधरं अणुपविसइ / अणुपविसित्ता समंतजालाभिरामे विचित्तमणि-रयणकोट्टिमतले रमणिज्जे ण्हाणमंडवंसि णाणामणि-रयणभत्तिचित्तंसि हाणपीढंसि सुहनिसन्ने, सुहोदगेहि फुप्फोदगेहि गंधोदएहि, सुद्धोदएहि य पुणो पुणो कल्लाणगपवरमज्जणविहीए मज्जिए तत्थ कोउयसहिं बहुविहिं कल्लाणगपवरमज्जणावसाणे पम्हल-सुकुमालगंधकासाइयलहियंगे अहतसुमहग्घ-दूसरयणसुसंवए सरससुरभिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइमालावन्नगविलेवणे आविद्धमणिसुबण्णे कप्पियहारद्धहार-तिसर-पालब-पलंबमाणकडिसुत्त-सुकयसोहे पिणद्धगेविज्जे अंगुलेज्जग-ललियंगललियकयाभरणे जाणामणि-कडग-तडिय-थंभियभए अहियरुवसस्सिरीए कुंडलुज्जोइयाणणे मउडदित्तसिरए हारोत्थयसकय-रइयवच्छे पालंब पलंबमाण-सकय-पडउत्तरिज्जे महियापिंगलंगुलीए णाणामणिकणग-रयण-विमलमहरिह - निउणोविय-मिसिमिसंत-विरइय-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-लट्ठ- संठिय-पसस्थआविद्ध-वीरवलए, कि बहुणा ? कप्परुक्खए चेव सुअलंकियविभूसिए नरिंदे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं उभओ चउचामरवालवीइयंगे मंगल-जयसद्दकयालोए अणेगगणनायग-दंडनायग-राईसरतलवर-माडंबिय-कोडुबिय-मंति-महामंति-गणग-दोवारिय--अमच्च--चेड--पीढमद्द--नगर-निगम-से ट्ठिसेणावइ-सत्थवाह-दूय-संधिवालसद्धि संपरिबुडे धवलमहामेहनिग्गए विव गहगणदिपंतरिक्खतारागणाण मज्ञ ससि व्व पियदसणे नरवई मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ / पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाण-साला तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता सोहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे संनिसन्ने। ___ व्यायामशाला से बाहर निकलकर श्रेणिक राजा जहाँ मज्जनगृह (स्नानागार) था, वहाँ प्राता है। आकर मज्जनगृह में प्रवेश करता है। प्रवेश करके चारों ओर जालियों से मनोहर, चित्रविचित्र मणियों और रत्नों के फर्श वाले तथा रमणीय स्नानमंडप के भीतर विविध प्रकार के मणियों और रत्नों की रचना से चित्र-विचित्र स्नान करने के पीठ-बाजौठ-पर सुखपूर्वक बैठा / / उसने पवित्र स्थान से लाए हए शुभ जल से, पुष्पमिश्रित जल से, सुगंध मिश्रित जल से और शुद्ध जल से बार-बार कल्याणकारी-पानन्दप्रद और उत्तम विधि से स्नान किया। उस कल्याणकारी और उत्तम स्नान के अंत में रक्षा पोटली आदि सैंकड़ों कौतुक किये गए / तत्पश्चात् पक्षी के पंख के समान अत्यन्त कोमल, सुगंधित और काषाय (कसैले) रंग से रंगे हुए वस्त्र से शरीर को पोंछा / कोरा, Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] / 21 बहुमूल्य और श्रेष्ठ वस्त्र धारण किया। सरस और सुगंधित गोशोर्ष चन्दन से शरीर पर विलेपन किया। शुचि पुप्पों की माला पहनी। केसर यादि का लेपन किया। मणियों के और स्वर्ण के अलंकार धारण किये / अठारह लड़ों के हार, नौ लड़ों के अर्धहार, तीन लड़ों के छोटे हार तथा लम्बे लटकते हुए कटिसूत्र से शरीर की सुन्दर शोभा बढ़ाई। कंठ में कंठा पहना। उंगलियों में अंगूठियाँ धारण की। सुन्दर अंग पर अन्यान्य सुन्दर प्राभरण धारण किये / अनेक मणियों के बने कटक और त्रुटिक नामक आभूषणों से उसके हाथ स्तंभित से प्रतीत होने लगे। अतिशय रूप के कारण राजा अत्यन्त सुशोभित हो उठा। कुडलों के कारण उसका मुखमंडल उद्दीप्त हो गया / मुकुट से मस्तक प्रकाशित होने लगा / वक्ष-स्थल हार से आच्छादित होने के कारण अतिशय प्रीति उत्पन्न करने लगा। लम्बे लटकते हुए दुपट्टे से उसने सुन्दर उत्तरासंग किया। मुद्रिकानों से उसकी उंगलियाँ पीली दीखने लगीं / नाना भाति की मणियों, सुवर्ण और रत्नों से निर्मल, महामूल्यवान्, निपुण कलाकारों द्वारा निर्मित, चमचमाते हुए, सुरचित, भली-भांति मिली हुई सन्धियों वाले, विशिष्ट प्रकार के मनोहर, सुन्दर प्राकार वाले और प्रशस्त वीर-वलय धारण किए। अधिक क्या कहा जाय ? मुकूट आदि आभूषणों से अलंकृत और वस्त्रों से विभूषित राजा श्रेणिक कल्पवक्ष के समान दिखाई देने लगा। लगा। कोरंट वक्ष के पुष्पों की माला वाला छत्र उसके मस्तक पर धारण किया गया। आजू-बाजू चार चामरों से उसका शरीर बीजा जाने लगा। राजा पर दृष्टि पड़ते ही लोग 'जय-जय' का मांगलिक घोष करने लगे / अनेक गणनायक (प्रजा में बड़े), दंडनायक (कटक के अधिपति), राजा (माङविक राजा), ईश्वर (युवराज अथवा ऐश्वर्यशाली), तलवर (राजा द्वारा प्रदत्त स्वर्ण के पट्ट वाले), मांडलिक (कतिपय ग्रामों के अधिपति), कौटुम्बिक (कतिपय कुटुम्बों के स्वामी), मंत्री, महामंत्री, ज्योतिषी, द्वारपाल, अमात्य, चेट (पैरों के पास रहने वाले सेवक), पीठमर्द (सभा के समीप रहने वाले सेवक मित्र), नागरिक लोग, व्यापारी, सेठ, सेनापति, सार्थवाह, दूत और सन्धिपाल-इन सब से घिरा हुआ, ग्रहों के समूह में देदीप्यमान तथा नक्षत्रों और तारानों के बीच चन्द्रमा के समान प्रियदर्शन राजा श्रेणिक मज्जनगृह से इस प्रकार निकला जैसे उज्ज्वल महामेघों में से चन्द्रमा निकला हो / मज्जनगृह से निकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला (सभा) थी, वहीं आया और पूर्व दिशा की ओर मुख करके श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन हुआ। ३१-तए णं से सेणिए राया अप्पणो अदूरसामंते उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे अठ्ठ भद्दासणाई सेयवत्यपच्चुत्थुयाइं सिद्धत्थमंगलोवयारकयसंतिकम्माई रयावेइ / रयावित्ता णाणामणिरयणमंडियं अहियपेच्छणिज्जरूवं महग्धवरपट्टणुग्गयं सहबहुभत्तिसयचित्तट्ठाणं ईहामिय-उसभ-तुरय-णर-मगरविहग-वालग-किन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुजर-वणलय-पउमलय-भत्तिचित्तं सुखचियबरकणगपवर-पेरंतदेसभागं अभितरियं जवणियं अंछावेइ, अंछावेत्ता अच्छरग-मउअमसूरग-उत्थइयं धवलवत्थपच्चत्युयं विसिट्ठे अंगसुहफासयं सुमउयं धारिणीए देवीए भद्दासणं रयावेइ। रयावेत्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ। सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अलैंगमहानिमित्तसुत्तत्थपाढए * विविहसत्य-कुसले सुविणपाढए सद्दावेह, सद्दावेत्ता एयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा अपने समीप ईशानकोण में श्वेत वस्त्र से आच्छादित तथा सरसों के मांगलिक उपचार से जिनमें शान्तिकर्म किया गया है, ऐसे आठ भद्रासन रखवाता है / रखवा करके नाना मणियों और रत्नों से मंडित, अतिशय दर्शनीय, बहुमूल्य और श्रेष्ठनगर में बनी हुई, कोमल एवं सैकड़ों प्रकार की रचना वाले चित्रों का स्थानभूत, ईहामृग (भेडिया), वृषभ, अश्व, नर, मगर, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] / ज्ञाताधर्मकथा पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु जाति के मृग, अष्टापद, चमरी गाय, हाथी, वनलता और पद्मलता आदि के चित्रों से युक्त, श्रेष्ठ स्वर्ण के तारों से भरे हुए सुशोभित किनारों वाली जवनिका (पर्दा) सभा के भीतरी भाग में बँधवाई / जवनिका बँधवाकर उसके भीतरी भाग में धारिणी देवी के लिए एक भद्रासन रखवाया। वह भद्रासन पास्तरक (खोली) और कोमल तकिया से ढका था / प्रवेत वस्त्र उस पर बिछा हुया था। सुन्दर था। स्पर्श से अगों को सुख उत्पन्न करने वाला था और अतिशय मद् था। इस प्रकार प्रासन बिछाकर राजा ने कोम्बिक पुरुषा को खुलवाया। बुलवाक कहा देवानुप्रियो ! अष्टांग महानिमित्त-ज्योतिष के सूत्र और अर्थ के पाठक तथा विविध शास्त्रों में कुशल स्वप्नपाठकों (स्वप्नशास्त्र के पंडितों) को शीघ्र ही बुलाग्रो और बुलाकर शीघ्र ही इस ग्राज्ञा को वापिस लौटाओ। ३२-तए णं ते कोडुबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट्ठ जाव' हियया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट 'एवं देवो तह त्ति' आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता सेणियस्स रण्णो अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता रायगिहस्स नगरस्स मज्झमझेणं जेणेव सुमिणपाढगगिहाणि तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता सुमिणपाढए सद्दावेति / / तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष श्रेणिक राजा द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हर्षित यावत् ग्रानन्दित हृदय हुए। दोनों हाथ जोड़कर दसों नखों को इकट्ठा करके मस्तक पर घुमा कर अंजलि जोड़कर 'हे देव ! ऐसा ही हो' इस प्रकार कह कर विनय के साथ प्राज्ञा के वचनों को स्वीकार करते हैं और स्वीकार करके श्रेणिक राजा के पास से निकलते हैं / निकल कर राजगह के बीचोंबीच होकर जहाँ स्वप्नपाठकों के घर थे, वहाँ पहुंचते हैं और पहुंच कर स्वप्नपाठकों को बुलाते हैं। ३३-तए णं ते सुमिणपाढगा सेणियस्स रन्नो कोड बियपुरिसेहि सद्दाविया समाणा हतुट्ठ जाव' हियया व्हाया कयबलिकम्मा जाव कयकोउयमंगलपायच्छित्ता अप्प-महग्घाभरणालंकियसरीरा हरियालिय-सिद्धत्थकयमुद्धाणा सहि सरहिं गिहितो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता रायगिहस्स मझमज्ञण जेणेव सेणियस्स रन्नो भवणवडेंसगदुवारे तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता एगयओ मिलन्ति, मिलिता सेणियस्स रन्नो भवणवडेंसगदुवारेणं अणुविसंति, अणपविसित्ता जेणेव बाहिरिया उवठाणसाला जेणेव सेणिये राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेणियं रायं जएणं विजएणं वद्धाति / सेणिएणं रन्ना अच्चिय-वंदिय-पूइय-माणिय-सक्कारिय-सम्माणिया समाणा पत्तेयं पत्तेयं पुवन्नत्येसु भद्दासणेसु निसीयंति / तत्पश्चात् वे स्वप्नपाठक श्रेणिक राजा के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाये जाने पर हष्टतुष्ट यावत् प्रानन्दितहृदय हुए। उन्होंने स्नान किया, कुलदेवता का पूजन किया, यावत् कौतुक (मसी निलक आदि) और मंगल प्रायश्चित्त (सरसों, दही चावल आदि का प्रयोग किया। अल्प किन्तु बहुमूल्य प्राभरणों से शरीर को अलंकृत किया, मस्तक पर दूर्वा तथा सरसों मंगल निमित्त धारण किये / फिर अपने-अपने घरों से निकले / निकल कर राजगृह के बीचोंबीच होकर श्रेणिक राजा के मुख्य महल के द्वार पर पाये। ग्राकर सब एक साथ मिले / एक साथ मिलकर श्रेणिक 1. मूत्र 18 2. सूत्र 18 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 23 प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] राजा के मुख्य महल के द्वार के भीतर प्रवेश किया। प्रवेश करके जहाँ बाहरी उपस्थानशाला थी और जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ आये। आकर श्रेणिक राजा को जय और विजय शब्दों से वधाया / श्रेणिक राजा ने चन्दनादि से उनकी अर्चना की, गुणों की प्रशंसा करके वन्दन किया, पुष्पों द्वारा पूजा की, आदरपूर्ण दृष्टि से देख कर एवं नमस्कार करके मान किया, फल-वस्त्र आदि देकर सत्कार किया और अनेक प्रकार की भक्ति करके सम्मान किया। फिर वे स्वप्नपाठक पहले से बिछाए हुए भद्रासनों पर अलग-अलग बैठे। ३४-तए णं सेणिए राया जवणियंतरियं धारिणि देवि ठवेइ, ठवेत्ता पुप्फ-फल-पडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुमिणपाढए एवं वयासी–एवं खलु देवाणुप्पिया ! धारिणी देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि जाव' महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुद्धा। तं एयस्स णं देवाणुप्यिा! उरालस्स जावसस्सिरीयस्स महासुमिणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने जवनिका के पीछे धारिणी देवी को बिठलाया / फिर हाथों में और फल लेकर अत्यन्त विनय के साथ उन स्वप्नपाठकों से इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! आज उस प्रकार की उस (पूर्ववणित) शय्या पर सोई हई धारिणी देवी यावत महास्वप्न देखकर जागी है। तो देवानुप्रियो ! इस उदार यावत् सश्रीक महास्वप्न का क्या कल्याणकारी फलविशेष होगा? स्वप्नपाठकों द्वारा फलादेश 35. तए णं ते सुमिणपाढगा सेणियस्स रण्णो अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म हट्ठ जाव' हियया तं सुमिणं सम्म ओगिण्हति / ओगिहित्ता ईहं अणुमविसंति, अणुपविसित्ता अन्नमन्नेणं सद्धि संचालेंति, संचालित्ता तस्स सुमिणस्स लद्धट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा सेणियस्स रण्णो पुरओ सुमिणसत्थाई उच्चारेमाणा उच्चारेमाणा एवं वयासी तत्पश्चात् वे स्वप्नपाठक श्रेणिक राजा का यह कथन सुनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट, तुष्ट, पानन्दितहृदय हुए। उन्होंने उस स्वप्न का सम्यक् प्रकार से अवग्रहण किया। अवग्रहण करके ईहा (विचारणा) में प्रवेश किया, प्रवेश करके परस्पर एक-दूसरे के साथ विचार-विमर्श किया। विचार-विमर्श करके स्वप्न का अपने आपसे अर्थ समझा, दूसरों काअभिप्राय जानकार विशेष अर्थ समझा, आपस में उस अर्थ की पूछताछ की, अर्थ का निश्चय किया और फिर तथ्य अर्थ का (अन्तिम रूप से) निश्चय किया / वे स्वप्नपाठक श्रेणिक राजा के सामने स्वप्नशास्त्रों का बार-बार उच्चारण करते हुए इस प्रकार बोले ३६–एवं खलु अम्हं सामी ! सुमिणसत्थंसि बायालीसं सुमिणा, तीसं महासुमिणा बावरि सव्वसुमिणा दिट्ठा / तत्थं णं सामी ! अरहतमायरो वा, चक्कट्टिमायरो वा अरहंतसि वा चक्कवदिसि वा गम्भं वक्कममाणंसि एएसि तीसाए महासुमिणाणं इमे चोद्दस महासुमिणे पासित्ता गं पडिबुज्झन्तितंजहा - गय-उसभ-सीह-अभिसेय-दाम-ससि-दिणयरं झयं कुभं। पउमसर-सागर-विमाण --भवण-रयणुच्चय-सिहि च // १-२.प्र. अ. मूत्र 21 3, प्र. अ. सूत्र 20 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] [ ज्ञाताधर्मकथा 'हे स्वामिन् ! हमारे स्वप्नशास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न–कुल मिलाकर 72 स्वप्न हमने देखे हैं / अरिहंत की माता और चक्रवर्ती की माता, जब अरिहन्त और चक्रवर्ती गर्भ में आते हैं तो तीस महास्वप्नों में से चौदह महास्वप्न देखकर जागती हैं / वे इस प्रकार हैं (1) हाथी (2) वृषभ (3) सिंह (4) अभिषेक (5) पुष्पों की माला (6) चन्द्र (7) सूर्य (8) ध्वजा (9) पूर्ण कुभ (10) पद्मयुक्त सरोवर (11) क्षीरसागर (12) विमान अथवा भवन (13) रत्नों की राशि और (14) अग्नि / विवेचन--तीर्थंकर प्राय: देवलोक से च्यवन करके मनुष्यलोक में अवतरित होते हैं / कोईकोई कभी रत्नप्रभापृथ्वी से निकल कर भी जन्म लेते हैं। स्वर्ग से आकर जन्म लेने वाले तीर्थकर की माता को स्वप्न में विमान दिखाई देता है और रत्नप्रभापृथ्वी से प्राकर जन्मने वाले तीर्थकर की माता भवन देखती है। इसी कारण बारहवें स्वप्न में 'विमान अथवा भवन' ऐसा विकल्प बतलाया गया है। ३७-वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गम्भं वक्कममाणंसि एएसि चोदसण्हं महासुमिणाणं अन्नतरे सत्त महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुज्झन्ति / बलदेवमायरो वा बलदेवसि-गब्भं वक्कममाणंसि एएस चोद्दसण्हं महासुमिणाणं अण्णयरे चत्तारि महासुमिणे पसित्ता णं पडिबुज्झंति / मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गम्भं वक्कममाणंसि एएसि चोद्दसण्हं महासुमिणाणं अन्नयरं एगं महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुज्झन्ति / जब वासुदेव गर्भ में आते हैं तो वासुदेव की माता इन चौदह महास्वप्नों में से किन्हीं भी सात महास्वप्नों को देखकर जागृत होती हैं / जब वलदेव गर्भ में आते हैं तो बलदेव की माता इन चौदह महास्वप्नों में से किन्हीं चार महास्वप्नों को देखकर जागृत होती हैं। जब मांडलिक राजा गर्भ में आता है तो मांडलिक राजा की माता इन चौदह महास्वप्नों में से कोई एक महास्वप्न देखकर जागृत होती है। ३८–इमे य णं सामी ! धारिणीए देवीए एगे महासुमिणे दिठे। तं उराले गं सामी ! धारिणीए देवीए सुमिणे दिठे / जाव' आरोग्गतुठ्ठिदोहाउकल्लाणमंगल्लकारए णं सामी ! धारिणीए देवीए सुमिणे दिठे / अत्थलाभो सामी ! सोक्खलाभो सामी ! भोगलाभो सामी ! पुत्तलाभो सामी! रज्जलाभो सामी ! एवं खलु सामी ! धारिणी देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव दारगं फ्याहिसि / से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विन्नायपरिणयमिते जोवणगमणुपत्ते सूरे वोरे विक्कते वित्थिन्नविउलबल-वाहणे रज्जवती राया भविस्सइ, अणगारे वा भावियप्या / तं उराले णं सामी ! धारणीए देवीए सुमिणे दिढे जाव' आरोग्गतुठ्ठि जाव दि→ त्ति कटु भुज्जो भुज्जो अणुबूहेंति / स्वामिन् ! धारिणी देवी ने इन महास्वप्नों में से एक महास्वप्न देखा है; अतएव स्वामिन् ! धारिणी देवी ने उदार स्वप्न देखा है, यावत् प्रारोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगलकारी, स्वामिन् ! धारिणी देवी ने स्वप्न देखा है / स्वामिन् ! इससे आपको अर्थलाभ होगा। स्वामिन् ! सुख का लाभ होगा / स्वामिन् ! भोग का लाभ होगा, पुत्र का तथा राज्य का लाभ होगा। इस प्रकार स्वामिन् ! धारिणी देवी पूरे नौ मास व्यतीत होने पर यावत् पुत्र को जन्म देगी। वह पुत्र बाल-वय को 1.2. प्र. अ. सूत्र 21 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात [25 पार करके, गुरु की साक्षी मात्र से, अपने ही बुद्धिवैभव से समस्त कलात्रों का ज्ञाता होकर, युवावस्था को पार करके संग्राम में शूर, आक्रमण करने में वीर और पराक्रमी होगा। विस्तीर्ण और विपुल बलवाहनों का स्वामी होगा। राज्य का अधिपति राजा होगा अथवा अपनी आत्मा को भावित करने वाला अनगार होगा। अतएव हे स्वामिन् ! धारिणी देवी ने उदार-स्वप्न देखा है यावत् आरोग्यकारक तुष्टिकारक आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाला स्वप्न देखा है। इस प्रकार कह कर स्वप्नपाठक बार-बार उस स्वप्न की सराहना करने लगे। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में स्वप्नपाठकों द्वारा फलादेश में कथित 'रज्जवती राया भविस्सइ, अणगारे वा भावियप्पा' यह वाक्यांश ध्यान देने योग्य है। इससे यह तो स्पष्ट है हो कि अतिशय पुण्यशाली प्रात्मा हो मानवजीवन में अनगार-अवस्था प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकता है / इसके अतिरिक्त इससे यह भी विदित होता है कि बालक के माता-पिता को राजा बनने वाले पुत्र को पाकर जितना हर्ष होता था, मुनि बनने वाले बालक को प्राप्त करके भी उतने ही हर्ष का अनुभव होता था / तत्कालीन समाज में धर्म की प्रतिष्ठा कितनी अधिक थी, उस समय का वातावरण किस प्रकार धर्ममय था, यह तथ्य इस सूत्र से समझा जा सकता है / ३९-तए णं सेणिए राया तेसि सुमिणपाढगाणं अंतिए एयमढं सोच्चा णिसम्म हट्ठ जाव' यिए करयल जाव एवं वयासी तत्पश्चात् श्रेणिक राजा उन स्वप्नपाठकों से इस कथन को सुनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट, तुष्ट एवं प्रानन्दितहृदय हो गया और हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोला ४०-एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव' जन्न तुब्भे वदह त्ति कटु तं सुमिणं सम्म पडिच्छइ / पडिच्छित्ता ते सुमिणपाढए विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-गंध-मल्लालंकारेण य सक्कारेइ संमाणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता विपुलं जीवियारिहं पोतिदाणं दलयइ / दलइत्ता पडिविसज्जेइ / देवानुप्रियो ! जो आप कहते हो सो वैसा ही है आपका भविष्य-कथन सत्य है; इस प्रकार कहकर उस स्वप्न के फल को सम्यक प्रकार से स्वीकार करके उन स्वप्नपाठकों का विपूल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य और वस्त्र, गंध, माला एवं अलंकारों से सत्कार करता है, सन्मान करता है। सत्कार-सन्मान करके जीविका के योग्य-जीवननिर्वाह के योग्य प्रीतिदान देता है और दान देकर विदा करता है। 41 -- तए णं से सेणिए राया सीहासणाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुद्वित्ता जेणेव धारिणी देवी तेणेब उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धारिणि देवि एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुमिणसत्थंसि वायालीसं सुमिणा जाव' एगं महासुमिणं जाव' भुज्जो भुज्जो अणुवूहइ। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा सिंहासन से उठा और जहाँ धारिणी देवी थी, वहां पाया / पाकर धारिणी देवी से इस प्रकार बोला--'हे देवानुप्रिये ! स्वप्नशास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न कहे हैं, उनमें से तुमने एक महास्वप्न देखा है।' इत्यादि स्वप्नपाठकों के कथन के अनुसार सब कहता है और बार-बार स्वप्न की अनुमोदना करता है। 1. प्र. प्र. सूत्र 18 2. प्र. अ. 36-37 3. प्र. अ. सूत्र 36-37 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] [ज्ञाताधर्मकथा ४२-तए णं धारिणी देवी सेणियस्स रन्नो अंतिए एयमटु सोच्चा णिसम्म हट्ठ जाव' हियया तं सुमिणं सम्म पडिच्छइ / पडिच्छित्ता जेणेव सए वासघरे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता व्हाया कयबलिकम्मा जाब विपुलाहिं जाब विहरइ। तत्पश्चात् धारिणी देवी, श्रेणिक राजा का यह कथन सुनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट हुई, यावत् आनन्दित हृदय हुई / उसने उस स्वप्न को सम्यक् प्रकार से अंगीकार किया। अंगीकार करके अपने निवासगृह में आई। आकर स्नान करके तथा बलिकर्म अर्थात् कुलदेवता की पूजा करके यावत् विपुल भोग भोगती हुई विचरने लगी। धारिणी देवी का दोहद ४३–तए णं तोसे धारिणीए देवीए दोसु मासेसु वीइक्कतेसु तइए मासे वट्टमाणे तस्स गम्भस्स दोहलकालसमयंसि अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउन्भवित्था तत्पश्चात दो मास व्यतीत हो जाने पर जब तीसरा मास चल रहा था तब उस गर्भ के दोहदकाल (दोहले का समय-गभिणो स्त्री की इच्छा विशेष का समय) के अवसर पर धारिणी देवी को इस प्रकार का अकाल-मेघ का दोहद उत्पन्न हुा- . ४४–धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, सपुन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ कयपुन्नाओ, कयलक्खणाओ, कयविहवाओ, सुलद्धे तासि माणुस्सए जम्म-जीवियफले, जाओ गं मेहेसु अन्भुग्गएसु अब्भुज्जएसु अन्भुन्नएसु अब्भुटिएसु सगज्जिएसु सविज्जुएसु सफुसिएसु सथणिएसु धंतधोतरुप्पपट-अंक-संख-चंद-कूद-सालि-पिटरासि-समप्पभेस चिउर-हरियालभेय-चंपग-सण-- कोरंट-सरिसय-पउमरय-समप्पभेसु लक्खारस-सरसरकिसुय-जासुमण-रत्तबंधुजीवग-जातिहिंगुलय-सरसकुकुम-उरन्भ-ससरुहिरइंदगोवगसमप्पभेसु, बरहिण-नीलगुलिय-सुग-चास-पिच्छ-भिगपत्त-सासग-नीलुप्पलनियर-नवसिरीस-कुसुम-णवसद्दलसमप्पभेसु, जच्चजण-भिगभेय-रिट्ठग-भभरावलि-गवल-गुलिय-कज्जल-समप्पभेसु, फुरतविज्जयसगज्जिएसु वायवस-विपुलगगणचवलपरिसक्किरेसु निम्मलवर-वारिधारापगलियपयंडमारुयसमाहय-समोत्थरंत उवरि उवरि तुरियवासं पवासिएसु, धारापहकरणिवायनिव्वावियमेइणितले हरियगणकंचुए, पल्लवियपायवगणेसु, वल्लिवियाणेसु पसरिएसु, उन्नएसु सोभग्गमुवागएसु, नगेसु नएसु वा, वेभारगिरिप्पवायतड-कडगविमुक्केसु उज्झरेसु, तुरियपहावियपलोट्टफेणाउलं सकलुसं जलं वहंतोसु गिरिनदीसु, सज्ज-ज्जुण-नीव-कुडय-कंदल-सिलिधलिएसु उववणेसु, मेह-रसिय-हतुट्ठचिट्ठिय-हरिसवसपमुक्ककंठकेकारवं मुयंतेसु बरहिणेसु, उउ-बस-मयजणिय-तरुणसहयरि-पणच्चिएसुसु, नवसुरभिसिलिध-कुडयकंदल-कलंबगंधद्धणि मुयंतेसु उववणेसु, परहुयरुयरिभितसंकुलेसु उद्दायतरत्तइंदगोवयथोवयकारुनविलवितेसु ओणयतणमंडिएसु दद्द रपयंपिएसु संपिडिय-दरिय-भमर-महुकरिपहकरपरिलित-मत्तछप्पय-कुसुमा-सवलोलमधुरगुजंतदेसभाएसु उववणेसु, परिसामियचंद-सूर-गहगणपणठ्ठनक्खत्त-तारगपहे इंदाउहबद्धचिंधपट्टसि अंबरतले उड्डीणबलागयंतिसोभंतमेहविदे, कारंडग१. प्र. अ. सूत्र 18 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [ 27 चक्कवाय-कलहंस-उस्सुयकरे संपत्ते पाउसम्मि काले, व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ताओ, कि ते? __ वरपायपत्त-णेउर-मणिमेहल-हार-रइयउचियकडग-खुड्डय-विचित्तवरवलयर्थभियभुयाओ, कुडलउज्जोयियाणणाओ, रयणभूसियंगाओ, नासानीसासवायवोझं चक्खुहरं वण्णफरिससंजुत्तं हयलालापेलवाइरेयं धवलकणयचियन्तकम्मं आगासफलिहसरिसप्पमं अंसुअं पवरपरिहियाओ, दुगुल्लसुकुमालउत्तरिज्जाओ, सव्वोउयसुरभिकुसुमपवरमल्लसोभितसिराओ, कालागरु-घवधूवियाओ, सिरिसमाणवेसाओ, सेयणगगंधवहत्थिरयणं दुरुढाओ समाणीओ, सकोरिटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं चंदप्पभ-वइर-वेरुलिय-विमलदंडसंख-कुद-दगरय-अमयमहिय-फेणपुंजसंनिगासचउचामर-वालवीजियंगोओ, सेणिएणं रन्ना सद्धि हत्थिखंधवरगएणं, पिठ्ठओ समणुगच्छमाणीओ चउरंगिणीए सेणाए, महया हयाणीएणं, गयाणीएणं रहाणीएणं, पायत्ताणीएणं, सविड्ढीए सव्वज्जुईए जाव [सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वादरेणं सव्वविभूईए सन्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सवपुप्फ-गंध-मल्लालंकारेण सव्वतुडिय-सद्द-सणिणाएणं, महया इड्ढीए महया जुईए महया बलेण महया समुदएण महया वरतुडियजमगसमग-८पवाइएणं संख-पणव-पडह-भेरि-झल्लरि-खरमुहि-हुडुक्क-मुरय-मुइंग-दुदुहि] निग्घोसणादियरवेणं रायगिहं नगरं सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु आसित्तसित्तसुचियसंमज्जिओवलितं जाव पंचवण्ण-सरस-सुरभिमुक्क-पुष्फयुजोवयारकलियं कालागुरु-पवरकुदुरुक्क-तुरुक्कधूव-डज्झंत-सुरभिमघमघंत-गंधुद्ध याभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं अवलोएमाणीओ, नागरजणेणं अभिणंदिज्जमाणीओ, गुच्छ-लया-रुक्ख-गुम्म-वल्लि-गुच्छ-ओच्छाइयं सुरम्मं वेभारगिरिकडगपायमूलं सवओ समंता आहिंडेमाणीओ आहिंडेमाणीओ दोहलं विणियंति / तं जइ णं अहमवि मेहेसु अब्भुवगएसु जाव दोहलं विणिज्जामि। जो माताएँ अपने अकाल-मेघ के दोहद को पूर्ण करती हैं, वे माताएँ धन्य हैं, वे पुण्यवती हैं, वे कृतार्थ हैं / उन्होंने पूर्व जन्म में पुण्य का उपार्जन किया है, वे कृतलक्षण हैं, अर्थात् उनके शरीर के लक्षण सफल हैं। उनका वैभव सफल है, उन्हें मनुष्य संबंधी जन्म और जीवन का फल प्राप्त हुना है, अर्थात् उनका जन्म और जीवन सफल है। आकाश में मेघ उत्पन्न होने पर, क्रमशः वृद्धि को प्राप्त होने पर, उन्नति को प्राप्त होने पर, बरसने की तैयारी होने पर, गर्जना युक्त होने पर, विद्युत् से युक्त होने पर, छोटी-छोटी बरसती हुई बूदों से युक्त होने पर, मंद-मंद ध्वनि से युक्त होने पर, अग्नि जला कर शुद्ध की हुई चांदी के पतरे के समान, अङ्क नामक रत्न, शंख, चन्द्रमा, कुन्द पुष्प और चावल के पाटे के समान शुक्ल वर्ण वाले, चिकुर नामक रंग, हरताल के टुकड़े, चम्पा के फूल, सन के फूल (अथवा सुवर्ण), कोरंट-पुष्प, सरसों के फूल और कमल के रज के समान पीत वर्ण वाले, __ लाख के रस, सरस रक्तवर्ण किशुक के पुष्प, जासु के पुष्प, लाल रंग के बंधुजीवक के पुष्प, उत्तम जाति के हिंगल, सरस ककु, बकरा और खरगोश के रक्त और इन्द्रगोप (सावन की डोकरी) के समान लाल वर्ण वाले, मयूर, नीलम मणि, नीली गुलिका (गोली), तोते के पंख, चाष पक्षी के पंख, भ्रमर के पंख, सासक नामक वृक्ष या प्रियंगुलता, नीलकमलों के समूह ताजा शिरीष-कुसुम और घास के समान नील वर्ण वाले, Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [ ज्ञाताधर्मकथा उत्तम अंजन, काले भ्रमर या कोयला, रिष्ट रत्न, भ्रमरसमूह, भैंस के सींग, काली गोली और कज्जल के समान काले वर्ण वाले, इस प्रकार पाँचों वर्णों वाले मेघ हों, बिजली चमक रही हो, गर्जना की ध्वनि हो रही हो, विस्तीर्ण आकाश में वायु के कारण चपल बने हुए बादल इधर-उधर चल रहे हों, निर्मल श्रेष्ठ जलधाराओं से गलित, प्रचंड वाय से अाहत, पृथ्वीतल को भिगोने वाली वर्षा निरन्तर बरस रही हो, जल-धारा के समूह से भूतल शीतल हो गया हो, पृथ्वी रूपी रमणी ने घास रूपी कंचक को धारण किया हो, वृक्षों का समूह पल्लवों से सुशोभित हो गया हो, बेलों के समूह विस्तार को प्राप्त हुए हों, उन्नत भू-प्रदेश सौभाग्य को प्राप्त हुए हों, अर्थात् पानी से धुलकर साफ-सुथरे हो गए हों, अथवा पर्वत और कुण्ड सौभाग्य को प्राप्त हुए हों, वैभारगिरि के प्रपात तट और कटक से निर्भर निकल कर बह रहे हों, पर्वतीय नदियों में तेज बहाव के कारण उत्पन्न हुए फेनों से युक्त जल बह रहा हो, उद्यान सर्ज, अर्जुन, नीप और कुटज नामक वृक्षों के अंकुरों से और छत्राकार (कुकुरमुत्ता) से युक्त हो गया हो, मेघ की गर्जना के कारण हृष्ट-तुष्ट होकर नाचने की चेष्टा करने वाले मयूर हर्ष के कारण मुक्त कंठ से केकारव कर रहे हों, और वर्षा ऋतु के कारण उत्पन्न हुए मद से तरुण मयूरिया नत्य कर रही हों, उपवन (घर के समीपवर्ती बाग) शिलिंध्र, कुटज, कंदल और कदम्ब वृक्षों के पुष्पों की नवीन और सौरभयुक्त गंध की तृप्ति धारण कर रहे हों, अर्थात् उत्कट सुगंध से सम्पन्न हो रहे हों, नगर के बाहर के उद्यान कोकिलाओं के स्वरघोलना वाले शब्दों से व्याप्त हों और रक्तवर्ण इन्द्रगोप नामक कीड़ों से शोभायमान हो रहे हों, उनमें चातक करुण स्वर से बोल रहे हों, वे नमे हुए तृणों (वनस्पति) से सुशोभित हो, उनमे मेढक उच्च स्वर से आवाज कर रहे हो, मदोन्मत्त भ्रमरों और भ्रमरियों के समूह एकत्र हो रहे हों, तथा उन उद्यान-प्रदेशों में पुष्प-रस के लोलुप एवं मधुर गुजार करने वाले मदोन्मत्त भ्रमर लीन हो रहे हों, अाकाशतल में चन्द्रमा, सूर्य और ग्रहों का समूह मेघों से आच्छादित होने के कारण श्यामवर्ण का दृष्टिगोचर हो रहा हो, इन्द्रधनुष रूपी ध्वजपट फरफरा रहा हो, और उसमें रहा हुअा मेघसमूह बगुलों की कतारों से शोभित हो रहा हो, इस भांति कारंडक, चक्रवाक और राजहंस पक्षियों को मानस-सरोवर की ओर जाने के लिए उत्सुक बनाने वाला वर्षाऋतु का समय हो / ऐसे वर्षाकाल में जो माताएँ स्नान करके, बलिकर्म करके, कौतुक मंगल और प्रायश्चित्त करके (वैभारगिरि के प्रदेशों में अपने पति के साथ विहार करती हैं, वे धन्य हैं / ) धारिणीदेवी ने इसके पश्चात क्या विचार किया यह बतलाते हैं - वे माताएं धन्य हैं जो पैरों में उत्तम नपर धारण करती हैं. कमर में करधनी पहनती हैं. वक्षस्थल प हाथों में कडे तथा उंगलियों में अगठियाँ पहनती हैं, अपने बाहनों को विचित्र और श्रेष्ठ बाजबन्दों से स्तंभित करती हैं, जिनका अंग रत्नों से भूषित हो, जिन्होंने ऐसा वस्त्र पहना हो जो नासिका के निश्वास की वायु से भी उड़ जाये अर्थात् अत्यन्त बारीक हो, नेत्रों को हरण करने वाला हो, उत्तम वर्ण और स्पर्श वाला हो, घोड़े के मुख से निकलने वाले फेन से भी कोमल और हल्का हो, उज्ज्वल हो, जिसकी किनारियाँ सुवर्ण के तारों से बुनी गई हों, श्वेत होने के कारण जो अाकाश एवं स्फटिक के समान शुभ्र कान्ति वाला हो और श्रेष्ठ हो। जिन माताओं का मस्तक समस्त ऋतुओं संबंधी सुगंधी पुष्पों और फूलमालाओं से सुशोभित हो, जो कालागुरु आदि की उत्तम धूप से धूपित हों और जो लक्ष्मी के समान वेष वाली हों / इस प्रकार सजधज करके जो सेचनक नामक गंधहस्ती पर पारूढ़ होकर, कोरंट-पुष्पों की माला से सुशोभित छत्र को धारण करती हैं / चन्द्रप्रभ, वज्र और वैडूर्य रत्न Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [ 29 के निर्मल दंड वाले एवं शंख, कुन्दपुष्प, जलकण और अमृत का मंथन करने से उत्पन्न हुए फेन के समूह के समान उज्ज्वल, श्वेत चार चामर जिनके ऊपर ढोरे जा रहे हैं, जो हस्ती-रत्न के स्कंध पर (महावत के रूप में) राजा श्रेणिक के साथ बैठी हों। उनके पीछे-पीछे चतुरंगिणी सेना चल रही हो, अर्थात् विशाल अश्वसेना, गजसेना, रथसेना और पैदलसेना हो। छत्र आदि राजचिह्नों रूप समस्त ऋद्धि के साथ, आभूषणों आदि की कान्ति के साथ, यावत् [समस्त बल, समुदाय, आदर, विभूति, विभूषा एवं संभ्रम के साथ, समस्त प्रकार के पुष्पों के सौरभ, मालाओं और अलंकारों के साथ, समस्त वाद्यों के शब्दों की ध्वनि के साथ, महान ऋद्धि, द्युति, बल तथा समुदाय के साथ, एक ही साथ बजाए जाते हुए वाद्यों के शब्दों के साथ, शंख, पणव, पटह भेरी, झालर, खरमुखी, हुडुक्क, मुरज, मृदंग एवं दुदुभि वाद्यों के निर्घोष-शब्द के साथ, राजगृह नगर के शृगाटक (सिंघाड़े के आकार के मार्ग) त्रिक (जहाँ तीन मार्ग मिले), चतुष्क, (चौक), चत्वर (चबूतरा), चतुर्मुख (चारों ओर द्वार वाले देवकुल आदि), महापथ (राजमार्ग) तथा सामान्य मार्ग में गंधोदक एक बार छिड़का हो, अनेक बार छिड़का हो, शृगाटक आदि को शुचि किया हो, झाड़ा हो, गोबर आदि से लीपा हो, यावत् पाँच वर्षों के ताजा सुगंधमय बिखरे हुए पुष्पों के समूह के उपचार से युक्त किया हो, काले अगर, श्रेष्ठ कुदरु, लोभान तथा धूप को जलाने से फैली हुई सुगंध से मघमघा रहा हो, उत्तम चूर्ण के गंध से सुगंधित किया हो और मानो गंधद्रव्यों की गुटिका ही हो, ऐसे राजगृह नगर को देखती जा रही हो / नागरिक जन अभिनन्दन कर रहे हों। गुच्छों, लताओं, वृक्षों, गुल्मों (झाड़ियों) एवं वेलों के समूहों से व्याप्त, मनोहर वैभारपर्वत के निचले भागों के समीप, चारों ओर सर्वत्र भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करतो हैं (वे माताएँ धन्य हैं।) तो मैं भी इस प्रकार मेघों का उदय आदि होने पर अपने दोहद को पूर्ण करना चाहती हूँ। धारिणी की चिन्ता ४५–तए णं सा धारिणी देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि असंपन्नदोहला असंपुन्नदोहला असंमाणियदोहला सुक्का भुक्खा जिम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा पमइलदुब्बला किलंता ओमंथियवयण-नयणकमला पंडुइयमुही करयलमलिय व्व चंपगमाला णित्तेया दोणविवण्णवयणा जहोचियपुप्फ-गंध-मल्लालंकार-हारं अणभिलसमाणी कोडारमणकिरियं च परिहावेमाणी दोणा दुम्मणा निराणंदा भूमिगयदिट्ठीया ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ। तत्पश्चात् वह धारिणी देवी उस दोहद के पूर्ण न होने के कारण, दोहद के सम्पन्न न होने के कारण, दोहद के सम्पूर्ण न होने के कारण, मेघ आदि का अनुभव न होने से दोहद सम्मानित न होने के कारण, मानसिक संताप द्वारा रक्त का शोषण हो जाने से शुष्क हो गई / भूख से व्याप्त हो गई। मांस रहित हो गई। जीर्ण एवं जीर्ण शरीर वाली, स्नान का त्याग करने से मलीन शरीर वाली, भोजन त्याग देने से दुबली तथा श्रान्त हो गई। उसने मुख और नयन रूपी कमल नीचे कर लिए, उसका मुख फीका पड़ गया / हथेलियों से मसली हुई चम्पक-पुष्पों की माला के समान निस्तेज हो गई / उसका मुख दीन और विवर्ण हो गया, यथोचित पुष्प, गंध, माला, अलंकार और हार के विषय में रुचिरहित हो गई, अर्थात् उसने इन सबका त्याग कर दिया / जल आदि की क्रीडा और चौपड़ आदि खेलों का परित्याग कर दिया / वह दीन, दुःखी मन वाली, आनन्दहीन एवं भूमि की तरफ दृष्टि किये हुए बैठी रही। उसके मन का संकल्प-हौंसला नष्ट हो गया। वह यावत् - प्रार्तध्यान में डूब गई। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 ] [ ज्ञाताधर्मकथा ४६-तए णं तोसे धारिणीए देवीए अंगपडियारियाओ अभितरियाओ दासचेडीयाओ धारिणि देवि ओलुग्गं जाव झियायमाणि पासंति, पासित्ता एवं वयासी-'कि णं तुमे देवाणुप्पिये ! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि ?' तत्पश्चात् उस धारिणी देवी की अंगपरिचारिकाएं शरीर की सेवा-शुश्रूषा करने वाली आभ्यंतर दासियाँ धारणी देवी को जीर्ण-सी एवं जीर्ण शरीर वाली, यावत् प्रार्तध्यान करती हुई देखती हैं। देखकर इस प्रकार कहती हैं—'हे देवानुप्रिये ! तुम जीर्ण जैसी तथा जीर्ण शरीर वाली क्यों हो रही हो? यावत् प्रार्तध्यान क्यों कर रही हो ? ४७–तए णं सा धारिणी देवो ताहि अंगपडियारियाहि अभितरियाहि दासचेडियाहिं एवं वुत्ता समाणो नो आढाति, णो य परियाणाति, अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणीया संचिठ्ठइ / तत्पश्चात् धारिणी देवी अंगपरिचारिका प्राभ्यंतर दासियों द्वारा इस प्रकार कहने पर (अन्यमनस्क होने से) उनका आदर नहीं करती और उन्हें जानती भी नहीं उनकी बात पर ध्यान नहीं देती / न ही अादर करती और न ही जानती हुई वह मौन ही रहती है / ४८-तए णं ताओ अंगपडियारियाओ अभितरियाओ दासचेडियाओ धारिणि देवि दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी—कि णं तुमे देवाणुप्पिये ! ओलुग्गा ओलुग्गसरोरा जाव झियायसि ?' तब वे अंगपरिचारिका प्राभ्यन्तर दासियाँ दूसरी बार और तीसरी बार इस प्रकार कहने लगी हे देवानुप्रिये ! क्यों तुम जीर्ण-सी, जीर्ण शरीर वानी हो रही हो, यहाँ तक कि अार्तध्यान कर रही हो? ४९-तए णं धारिणी देवी ताहि अंगपडियारियाहि अभितरियाहि दासचेडियाहि दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ता समाणी णो आढाइ, णो परियाणाइ, अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणीया संचिठ्ठइ। तत्पश्चात् धारिणी देवी अंगपरिचारिका प्राभ्यन्तर दासियों द्वारा दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर न आदर करती है और न जानती है, अर्थात् उनकी बात पर ध्यान नहीं देती, न अादर करती हुई और न जानती हुई वह मौन रहती है / / ५०-तए णं ताओ अंगपडियारियाओ अभितरियाओ दासचेडियाओ धारिणीए देवीए अणाढाइज्जमाणीओ अपरिजाणिज्जमाणीओ ( अपरियाणमाणीओ) तहेव संभंताओ समाणीओ धारिणीए देवीए अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता करयलपरिगडियं जाव कटट जएणं विजएणं वद्धावेन्ति / वद्धावइत्ता एवं वयासी"एवं खलु सामी ! कि पि अज्ज धारिणो देवो ओलुग्गसरीरा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायति / " तत्पश्चात् वे अंगपरिचारिका आभ्यन्तर दासियाँ धारिणी देवी द्वारा अनादृत एवं अपरिज्ञात की हुई, उसी प्रकार संभ्रान्त (व्याकुल) होती हुई धारिणी देवी के पास से निकलती हैं और निकलकर श्रेणिक राजा के पास आती हैं। दोनों हाथों को इकट्ठा करके यावत् मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय से वधाती हैं और वधा कर इस प्रकार कहती हैं—'स्वामिन् ! आज धारिणी देवी जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर बाली होकर यावत् आर्तध्यान से युक्त होकर चिन्ता में डूब रही हैं।' Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात | ५१-तए णं से सेणिए राया तासि अंगपडियारियाणं अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म तहेव संभंते समाणे सिग्घं तुरिअं चवलं वेइयं जेणेब धारिणी देवी तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता धारिणि देवि ओलुग्गं ओलुग्गसरीरं जाव अट्टज्झाणोवगयं झियायमाणि पासइ / पासित्ता एवं बयासी-कि णं तुमे देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा ओलुग्गसरोरा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायसि ?" ___ तब श्रेणिक राजा उन अंगपरिचारिकाओं से यह सुनकर, मन में धारण करके, उसी प्रकार व्याकुल होता हुआ, त्वरा के साथ एवं अत्यन्त शीघ्रता से जहाँ धारणी देवी थी, वहाँ आता है। ग्राकर धारिणी देवी को जीर्ण-जैसी, जीर्ण शरीर बाली यावत् प्रातध्यान से युक्त-चिन्ता करती देखता है / देखकर इस प्रकार कहता है--'देवानुप्रिये ! तुम जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर वाली यावत् प्रार्तध्यान से युक्त होकर क्यों चिन्ता कर रही हो?' ___५२.-तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणी नो आढाइ, जाव तुसिणीया संचिट्ठति। ___ धारिणी देवी श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर भी आदर नहीं करती-उत्तर नहीं देती, यावत् मौन रहती है। ५३-तए णं से सेणिए राया धारिणि देवि दोच्चं पि तच्चं पि एवं वदासी-'कि णं तुमे देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा जाव झियायसि ?' ___ तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने धारिणी देवी से दूसरी बार और फिर तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा-देवानुप्रिये ! तुम जीर्ण-सी होकर यावत् चिन्तित क्यों हो? ५४---तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा दोच्चं पि तच्चं पि एवं वृत्ता समाणी गो आढाति, णो परिजाणाति, तुसिणीया संचिट्ठई। तत्पश्चात् धारिणी देवी श्रेणिक राजा के दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर आदर नहीं करती और नहीं जानती-मौन रहती है। ५५---तए णं सेणिए राया धारिणि देवि सवहसावियं करेइ, करित्ता एवं वयासी-कि णं तुमं देवाणुप्पिए ! अहमेयस्स अट्ठस्स अणरिहे सवणयाए ? ता गं तुमं ममं अयमेयारूवं मणोमाणसियं दुक्खं रहस्सीकरेसि?' तब श्रेणिक राजा धारिणी देवी को शपथ दिलाता है और शपथ दिलाकर कहता है'देवानुप्रिये ! क्या मैं तुम्हारे मन की बात सुनने के लिए अयोग्य हूँ, जिससे तुम अपने मन में रहे हुए मानसिक दुःख को छिपाती हो ?' दोहद-निवेदन ५६-तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा सवहसाविया समाणी सेणियं रायं एवं वदासी-- 'एवं खलु सामी ! मम तस्स उरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउन्भूए–'धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, जाव' वेभारगिरिपायमूलं आहिडमाणीओ डोहलं विणिन्ति। तं जइ णं अहमवि जाव 1. प्र.अ. सूत्र 44 , Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] [ज्ञाताधर्मकथा डोहलं विणिज्जामि / तए णं हं सामो ! अयमेयारूबंसि अकाल-दोहसि अविणिज्जमाणंसि ओलुग्गा जाव अट्ट ज्झाणोवगया झियायामि / एएणं अहं कारणेणं सामी ! ओलुग्गा जाव अज्झाणोवगया झियायामि। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा द्वारा शपथ सुनकर धारिणी देवी ने श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहा--स्वामिन् ! मुझे वह उदार आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाला महास्वप्न पाया था। उसे आए तान मास पूरे हो चुके हैं, अतएव इस प्रकार का अकाल-मेघ संबंधी दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएँ धन्य हैं और वे माताएँ कृतार्थ हैं, यावत् जो वैभार पर्वत की तलहटी में भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं / अगर मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करू तो धन्य होऊँ। इस कारण हे स्वामिन् / मैं इस प्रकार के इस दोहद के पूर्ण न होने से जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर वाली हो गई हूँ; यावत् पार्तध्यान करती हुई चिन्तित हो रही हूँ / स्वामिन् ! जीर्ण-सी--यावत् प्रार्तध्यान से युक्त होकर चिन्ताग्रस्त होने का यही कारण है। ५७.--तए णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म धारिणि देवि एवं बदासी--'मा णं तुमं देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा जाव झियाहि, अहं णं तहा करिस्सामि जहा णं तुम्भं अयमेयारूवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सई' त्ति कट्ट धारिणि देवि इहाहि कंताहिं पियाहि मणुन्नाहि मणामाहिं वग्गहि समासासेइ। समासासित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता सोहासणवरगए पुरत्याहिमुहे सन्निसन्ने। धारिणीए देवीए एयं अकालदोहलं बहूहि आएहि य उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य पारिणामियाहि य चउविहाहि बुद्धीहि अणुचितेमाणे अणुचितेमाणे तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा ठिई वा उप्पत्ति वा अविदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने धारिणी देवी से यह बात सुनकर और समझ कर, धारिणी देवी से इस प्रकार कहा---'देवानुप्रिये ! तुम जीर्ण शरीर वाली मत होमो, यावत् चिन्ता मत करो। मैं वैसा करूंगा अर्थात् कोई ऐसा उपाय करूगा जिससे तुम्हारे इस अकाल-दोहद की पूर्ति हो जाएगी। इस प्रकार कहकर श्रेणिक ने धारिणी देवी को इष्ट (प्रिय), कान्त (इच्छित), प्रिय-प्रीति उत्पन्न करने वाली, मनोज्ञ (मनोहर) और मणाम (मन को प्रिय) वाणी से आश्वासन दिया। अाश्वासन देकर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी, वहाँ आया / प्राकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठा। धारिणी देवी के इस अकाल-दोहद की पूर्ति करने के लिए बहुतेरे प्रायों (लाभों) से, उपायों से, औत्पत्तिकी बुद्धि से, वैनयिक बुद्धि से, कार्मिक बुद्धि से, पारिणामिक बुद्धि से इस प्रकार चारों तरह की बुद्धि से बार-बार विचार करने लगा / परन्तु विचार करने पर भी उस दोहद के लाभ को, उपाय को, स्थिति को और निष्पत्ति को समझ नहीं पाता, अर्थात दोहदपति का कोई उपाय नहीं सूझता। अतएव श्रेणिक राजा के मन का संकल्प नष्ट हो गया और वह भी यावत् चिन्ताग्रस्त हो गया। अभयकुमार का आगमन ५८-तयाणंतरं अभए कुमारे व्हाए कयबलिकम्मे जाव सव्वालंकारविभूसिए पायवंदए पहारेत्थ गमणाए। तदनन्तर अभयकुमार स्नान करके, बलिकर्म (गृहदेवता का पूजन) करके, यावत् [कौतुक, मंगल एवं प्रायश्चित्त करके] समस्त अलंकारों से विभूषित होकर श्रेणिक राजा के चरणों में वन्दना Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] करने के लिये जाने का विचार करता है-रवाना होता है। ५९-तए णं से अभयकुमारे जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सेणियं रायं ओहयमणसंकप्पं जाव शियायमाणं पासइ / पासइत्ता अयमेयारूवे अज्झथिए चितिए (पत्थिए) मणोगते संकप्पे समुप्पज्जित्था। / तत्पश्चात् अभयकुमार श्रेणिक राजा के समीप आता है। आकर श्रेणिक राजा को देखता है कि इनके मन के संकल्प को आघात पहुँचा है / यह देखकर अभयकुमार के मन में इस प्रकार का यह आध्यात्मिक अर्थात् आत्मा संबंधी, चिन्तित, प्रार्थित (प्राप्त करने को इष्ट) और मनोगत-मन में रहा हुअा संकल्प उत्पन्न होता है ६०–अन्नया य ममं सेणिए राया एज्जमाणं पासति, पासइत्ता आढाति, परिजाणाति, सक्कारेइ, सम्माणेइ, आलवति, संलवति, अद्धासणेणं उवणिमंतेति मत्थयंसि अग्घाति, इयाणि ममं सेणिए राया णो आढाति, गो परियाणाइ, णो सक्कारेइ, णो सम्माणेइ, गो इटाहिं कंताहि पियाहि मणुन्नाहि ओरालाहि वम्यूहि आलवति, संलवति, नो अद्धासणेणं उवणिमंतेति, णो मत्थयंसि अग्धाति य, कि पि ओहयमणसंकप्पे झियायति / तं भवियव्वं एत्थ कारणेणं / तं सेयं खलु मे सेणियं रायं एयमट्ठ पुच्छित्तए / एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं बद्धावेइ, वद्धावइत्ता एवं वयासी 'अन्य समय श्रेणिक राजा मुझे आता देखते थे तो देखकर आदर करते, जानते, वस्त्रादि से सत्कार करते, प्रासनादि देकर सम्मान करते तथा पालाप-संलाप करते थे, प्राधे आसन पर बैठने के लिए निमंत्रण करते और मेरे मस्तक को सूघते थे। किन्तु आज श्रेणिक राजा मुझे न आदर दे रहे हैं, न पाया जान रहे हैं, न सत्कार करते हैं, न इष्ट कान्त प्रिय मनोज्ञ और उदार वचनों से आलापसंलाप करते हैं, न अर्ध आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करते हैं और न मस्तक को सूघते हैं। उनके मन के संकल्प को कुछ आघात पहुँचा है, अतएव चिन्तित हो रहे हैं। इसका कोई कारण होना चाहिए। मुझे श्रेणिक राजा से यह बात पूछना श्रेय (योग्य) है।' अभयकुमार इस प्रकार विचार करता है और विचार कर जहाँ श्रेणिक राजा थे, वहीं आता है। आकर दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर आवर्त करके, अंजलि करके जय-विजय से वधाता है / वधाकर इस प्रकार कहता है-- ६१-तुम्भे णं ताओ ! अन्नया ममं एज्जमाणं पासित्ता आढाह, परिजाणह जाव मत्थयंसि अग्धायह, आसणेणं उणिमंतेह, इयाणि ताओ! तुम्भे ममं नो आढाह जाव नो आसणेणं उवणिमंतेह / कि पि ओहयमणसंकष्पा जाव झियायह / तं भवियव्वं ताओ! एत्थ कारणेणं / तओ तुम्भे मम ताओ! एयं कारणं अगृहेमाणा असंकेमाणा अनिण्हवेमाणा अपच्छाएमाणा जहाभूतमवितहमसंदिद्धं एयमट्ठमाइक्खह / तए णं हं तस्स कारणस्स अंतगमणं गमिस्सामि / हे तात ! आप अन्य समय मुझे प्राता देखकर आदर करते, जानते, यावत् मेरे मस्तक को सूघते थे और ग्रासन पर बैठने के लिए निमंत्रित करते थे, किन्तु तात ! आज आप मुझे आदर नहीं दे रहे हैं, यावत् आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित नहीं कर रहे हैं और मन का संकल्प नष्ट Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 ] [ ज्ञाताधर्मकथा होने के कारण कुछ चिन्ता कर रहे हैं तो इसका कोई कारण होना चाहिए / तो हे तात ! आप इस कारण को छिपाए विना, इष्टप्राप्ति में शंका रक्खे बिना, अपलाप किये विना, दबाये विना, जैसा का तैसा, सत्य एवं संदेहरहित कहिए / तत्पश्चात् मैं उस कारण का पार पाने का प्रयत्न करूंगा, अर्थात् आपकी चिन्ता के कारण को दूर करूंगा। ६२-तए णं सेणिए राया अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे अभयं कुमारं एवं वयासीएवं खलु पुत्ता ! तव चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए तस्स गम्भस्स दोसु मासेसु अइक्कतेसु तइयमासे वट्टमाणे दोहलकालसमयसि अयमेयारूवे दोहले पाउभवित्था-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ तहेव निरवसेसं भाणियध्वं जाव विणिति / तए णं अहं पुत्ता ! धारिणीए देवीए तस्स अकालदोहलस्स बहि आएहि य उवाएहिं जाव उप्पत्ति अविदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायामि, तुमं आगयं पिन याणामि / तं एतेणं कारणेणं अहं पुत्ता ! ओहयमणसंकप्पे जाव झियामि। अभयकुमार के इस प्रकार कहने पर श्रेणिक राजा ने अभयकुमार से इस प्रकार कहापुत्र ! तुम्हारी छोटी माता धारिणी देवी की गर्भस्थिति हुए दो मास बीत गए और तीसरा मास चल रहा है / उसमें दोहद-काल के समय उसे इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ है. वे माताएँ धन्य हैं, इत्यादि सब पहले की भांति ही कह लेना चाहिए, यावत् जो अपने दोहद को पूर्ण करती हैं / तब है पुत्र ! मैं धारिणी देवी के उस अकाल-दोहद के प्रायों (लाभ), उपायों एवं उपपत्ति को अर्थात् उसकी पूर्ति के उपायों को नहीं समझ पाया हूँ। इससे मेरे मन का संकल्प नष्ट हो गया है और मैं चिन्तायुक्त हो रहा हूँ। इसी से मुझे तुम्हारा पाना भी नहीं जान पड़ा / अतएव पुत्र ! मैं इसी कारण नष्ट हुए मनः संकल्प वाला होकर चिन्ता कर रहा हूँ। अभय का आश्वासन ६३-तए णं से अभयकुमारे सेणियस्स रन्नो अंतिए एयमलैं सोच्चा णिसम्म हठ जाव' हियए सेणियं रायं एवं वयासो-'मा णं तब्भे ताओ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह / अहं गं तहा करिस्सामि, जहा णं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सइ' ति कटु सेणियं रायं ताहि इट्ठाहि कंताहि जाव [पियाहिं मणुन्नाहि मणामाहि वहिं] समासासेइ। तत्पश्चात् वह अभयकुमार, श्रेणिक राजा से यह अर्थ सुनकर और समझ कर हृष्ट-तुष्ट और ग्रानन्दित-हृदय हुआ / उसने श्रेणिक राजा से इस भाँति कहा हे तात ! आप भग्न-मनोरथ होकर चिन्ता न करें / मैं वैसा (कोई उपाय) करूंगा, जिससे मेरी छोटी माता धारिणी देवी के इस अकाल-दोहद के मनोरथ की पूर्ति होगी। इस प्रकार कह (अभयकुमार ने) इष्ट, कांत [यावत् प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोहर वचनों से] श्रेणिक राजा को सान्त्वना दी। 64 -तए णं सेणिए राया अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हतुट्टे जाव अभयकुमार सक्कारेति संमाणेति, सक्कारित्ता संमाणित्ता पडिविसज्जेति / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात | [ 35 श्रेणिक राजा, अभयकुमार के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुअा। वह अभयकुमार का सत्कार करता है, सन्मान करता है / सत्कार-सन्मान करके विदा करता है। ६५-तए णं से अभयकुमारे सक्कारिय-सम्माणिए पडिविसज्जिए समाणे सेणियस्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमइ / पडिनिक्खमित्ता जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणे निसन्ने। तब (थेणिक राजा द्वारा सत्कारित एवं सन्मानित होकर विदा किया हुअा अभयकुमार श्रेणिक राजा के पास से निकलता है / निकल कर जहाँ अपना भवन है, वहाँ अाता है / आकर वह सिंहासन पर बैठ गया / अभय की देवाराधना ६६-तए णं तस्स अभयकुमारस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव [चितिए, पत्थिए मणोगए संकप्पे] समुप्पज्जित्था-नो खलु सक्का माणुस्सएणं उवाएणं मम चुल्लमाउयाए धारिणोए देवीए अकालडोहलमणोरहसंपत्ति करेत्तए, गन्नत्य दिवेणं उवाएणं / अस्थि णं मज्झ सोहम्मकप्पवासी पुव्वसंगतिए देवे महिड्डीए जाव [महज्जुइए महापरक्कमे महाजसे महब्बले महाणुभावे] महासोक्खे / तं सेयं खलु मम पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स उम्मुक्कमणि-सुवण्णस्स ववगयमाला-वन्तगविलेवणस्स निक्खतसत्थ-मुसलस्स एगस्स अबीयस्स दभसंथारोवगयस्स अट्टमभत्तं परिगिण्हित्ता पुव्वसंगतियं देवं मणसि करेमाणस्स विहरित्तए / तते णं पुथ्वसंगतिए देवे मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालमेहेसु डोहलं विणिहिइ / तत्पश्चात् अभयकुमार को इस प्रकार यह प्राध्यात्मिक (आंतरिक) विचार, चिन्तन, प्रार्थित या मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ—दिव्य अर्थात् दैवी संबंधी उपाय के विना केवल मानवीय उपाय से मेरी छोटो माता धारिणी देवी के अकाल-दोहद के मनोरथ की पूर्ति होना शक्य नहीं है। सौधर्म कल्प में रहने वाला देव मेरा पूर्व का मित्र है, जो महान् ऋद्धिधारक यावत् (महान् द्युतिवाला, महापराक्रमी, महान यशस्वी महान, बलशाली, महानुभाव) महान सुख भोगने वाला है। तो मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं पौषधशाला में पौषध ग्रहण करके, ब्रह्मचर्य धारण करके, मणि-सुवर्ण आदि के अलकारों का त्याग करके, माला वर्णक और विलेपन का त्याग करके, शस्त्रमूसल आदि अर्थात् समस्त प्रारम्भ-समारम्भ को छोड़ कर, एकाकी (राग-द्वेष से रहित) और अद्वितीय (सेवक आदि की सहायता से रहित) होकर, डाभ के संथारे पर स्थित होकर, अष्टमभक्ततेला की तपस्या ग्रहण करके, पहले के मित्र देव का मन में चिन्तन करता हुअा स्थित रहे। ऐस। करने से वह पूर्व का मित्र देव (यहाँ पाकर) मेरी छोटी माता धारिणी देवी के अकाल-मेघों संबंधी दोहद को पूर्ण कर देगा। ६७-एवं संपेहेइ, संपेहिता जेणेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जति, पमज्जिता उच्चार-पासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहिता दम्भसंथारगं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहिता अट्ठमभत्तं परिगिण्हइ, परिगिण्हिता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव पुव्वसंगतियं देवं मणसि करेमाणे करेमाणे चिटुइ / Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36] [ ज्ञाताधर्मकथा अभयकुमार इस प्रकार विचार करता है। विचार करके जहां पौषधशाला है, वहाँ जाता है / जाकर पौषधाशाला का प्रमार्जन करता है / उच्चार-प्रस्रवण की भूमि (मल-मूल त्यागने के स्थान) का प्रतिलेखन करता है। प्रतिलेखन करके डाभ के संथारे का प्रतिलेखन करता है / डाभ के संथारे का प्रतिलेखन करके उस पर आसीन होता है। यासीन होकर अष्टमभक्त तप ग्रहण करता है। ग्रहण करके पौषधशाला में पौषधयुक्त होकर, ब्रह्मचर्य अंगीकार करके पहले के मित्र देव का मन में पुन: पुन: चिन्तन करना है। विवेचन--तेले की तपस्या अष्टमभक्त कहलाती है, क्योंकि पूर्ण रूप से इसे सम्पन्न करने के लिए आठ वार का भक्त-पाहार त्यागना आवश्यक है / अष्टमभक्त प्रारंभ करने के पहले दिन एकाशन करना, तीन दिन के छह वार के आहार का त्याग करना और फिर अगले दिन भी एकाशन करना, इस प्रकार पाठ वार का आहार त्यागना चाहिए / उपवास और बेला आदि के संबंध में भी यही समझना चाहिए। तभी चतुर्थभक्त, पष्ठभक्त आदि संज्ञाएं वास्तविक रूप में सार्थक होती हैं। देव का आगमन ६५–तए णं तस्स अभयकुमारस्स अट्ठमभत्ते परिणममाणे पुव्वसंगतिअस्स देवस्स आसणं चलति / तते णं पुब्वसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे आसणं चलियं पासति, पासित्ता ओहिं पजति / तते णं तस्स पुव्वसंगतियस्स देवस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव' समुप्पज्जित्था--'एवं खलु मम पुवसंगतिए जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्भरहे वासे रायगिहे नयरे पोसहसालाए अभए नामं कुमारे अट्ठमभत्तं परिगिहित्ता णं मम मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठति / तं सेयं खलु मम अभयस्स कुमारस्स अंतिए पाउन्भवित्तए / ' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसौभागं अवक्कमति, अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणति, समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दंडं निसिरति / तंजहा-- जब अभयकुमार का अष्टमभक्त तप प्रायः पूर्ण होने पाया, तब पूर्वभव के मित्र देव का आसन चलायमान हुआ। तब पूर्वभव का मित्र सौधर्मकल्पवासी देव अपने आसन को चलित हुआ देखता है और देखकर अवधिज्ञान का उपयोग लगाता है / तब पूर्वभव के मित्र देव को इस प्रकार का यह आन्तरिक विचार उत्पन्न होता है—'इस प्रकार मेरा पूर्वभव का मित्र अभयकुमार जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, दक्षिणार्ध भरत में, राजगृह नगर में, पौषधशाला में अष्टमभक्त ग्रहण करके मन में बार-बार मेरा स्मरण कर रहा है / अतएव मुझे अभयकुमार के समीप प्रकट होना (जाना) योग्य है।' देव इस प्रकार विचार करके उत्तरपूर्व दिग्भाग (ईशानकोण) में जाता है और वैक्रियसमुद्घात करता है, अर्थात् उत्तर वैक्रिय शरीर बनाने के लिए जीव-प्रदेशों को बाहर निकलता है / जीव-प्रदेशों को बाहर निकाल कर संख्यात योजनों का दंड बनाता है / वह इस प्रकार. ६९-रयणाणं 1 बइराणं 2 वेरुलियाणं 3 लोहियक्खाणं 4 मसारगल्लाणं 5 हंसगम्भाणं 6 पुलगाणं 7 सोगंधियाणं 8 जोइरसाणं 9 अंकाणं 10 अंजणाणं 11 रययाणं 12 जायरूवाणं 13 अंजणपुलयाणं 14 फलिहाणं 15 रिट्ठाणं 16 अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ, परिसाडित्ता 1. प्र. अ. सूत्र 66 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [ 37 अहासुहमे पोग्गले परिगिण्हति, परिगिण्हइत्ता अभयकुमारमणुकंपमाणे देवे पुन्वभवजणियनेह-पीइबहुमाग-जायसोगे, तओ विमाणवरपुण्डरियाओ रयणुत्तमाओ धरणियलगमणतुरियसंजणितगयणपयारो वाघुणित-विमल-कणग-पयरग-डिसग-मउडुक्कडाडोवदंसणिज्जो, अणेगमणि-कणग-रयण-पहकरपरिमंडित-भत्तिचित्त-विणिउत्तमणुगुणजणियहरिसे, खोलमाण-वरललित-कुडलुज्जलियवयणगुणजनितसोमरूवे, उदितो विव कोमुदीनिसाए सणिच्छरंगारउज्जलियमज्झभागत्थे णयणाणंदो, सरयचंदो, दिवोसहिपज्जलुज्जलियदसणाभिरामो उउलच्छिसमत्तजायसोहे पइटठगंधद्ध याभिरामो मेहरिव नगवरो, विगुम्वियविचित्तवेसे, दीवसमुद्दाणं असंखपरिमाणनामधेज्जाणं मझंकारेणं वीइवयमाणो, उज्जोयंतो पभाए विमलाए जीवलोगं, रायगिहं पुरवरं च अभयस्स य पासं ओवयति दिव्वरूवधारी। (1) कर्केतन रत्न (2) वज्र रत्न (3) वैडूर्य रत्न (4) लोहिताक्ष रत्न (5) मसारगल्ल रत्न (6) हंसगर्भ रत्न (7) पुलक रत्न (4) सौगंधिक रत्न (9) ज्योतिरस रत्न (10) अंक रत्न (11) अंजन रत्न (12) रजत रत्न (13) जातरूप रत्न (14) अंजनपुलक रत्न (15) स्फटिक रत्न और (16) रिष्ट रत्न-इन रत्नों के यथा-बादर अर्थात असार पूदगलों का परित्याग करता है। परित्याग करके यथासूक्ष्म अर्थात् सारभूत पुद्गलों को ग्रहण करता है / ग्रहण करके (उत्तर वैक्रिय शरीर बनाता है।) फिर अभयकुमार पर अनुकंपा करता हुआ, पूर्वभव में उत्पन्न हुई स्नेहजनित प्रीति और गुणानुराग के कारण (वियोग का विचार करके) वह खेद करने लगा। फिर उस देव ने उत्तम रचना वाले अथवा उत्तम रत्नमय विमान से निकलकर पृथ्वीतल पर जाने के लिए शीघ्र ही गति का प्रचार किया, अर्थात् वह शीघ्रतापूर्वक चल पड़ा / उस समय चलायमान होते हुए, निर्मल स्वर्ण के प्रतर जैसे कर्णपूर और मुकुट के उत्कट प्राडम्बर से वह दर्शनीय लग रहा था / अनेक मणियों सुवर्ण और रत्नों के समूह से शोभित और विचित्र रचना वाले पहने हुए कटिसूत्र से उसे हर्ष उत्पन्न हो रहा था / हिलते हुए श्रेष्ठ और मनोहर कुण्डलों से उज्ज्वल हुई मुख की दीप्ति से उसका रूप बड़ा ही सौम्य हो गया। कार्तिकी पूर्णिमा की रात्रि में, शनि और मंगल के मध्य में स्थित और उदयप्राप्त शारदनिशाकर के समान वह देव दर्शकों के नयनों को पानन्द दे रहा था / तात्पर्य यह कि शनि और मंगलग्रह के समान चमकते हुए दोनों कुण्डलों के बीच उसका मुख शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान शोभायमान हो रहा था / दिव्य औषधियों (जड़ी-बूटियों) के प्रकाश के समान मुकुट आदि के तेज से देदीप्यमान, रूप से मनोहर, समस्त ऋतुओं की लक्ष्मी से वृद्धिगत शोभा वाले तथा प्रकृष्ट गंध के प्रसार से मनोहर मेरुपर्वत के समान वह देव अभिराम प्रतीत होता था। उस देव ने ऐसे विचित्र वेष की विक्रिया को / असंख्य-संख्यक और असंख्य नामों वाले द्वीपों और समुद्रों के मध्य में होकर जाने लगा। अपनी विमल प्रभा से जोवलोक को तथा नगरवर राजगह को प्रकाशित करता हुआ दिव्य रूपधारी देव अभयकुमार के पास प्रा पहुंचा। ७०-तए णं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने दसद्धवन्नाइं सखिखिणियाइं पवरवत्थाइं परिहिए(एक्को ताव एसो गमो, अण्णो वि गमो-) ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सीहाए उद्ध याए जइणाए छेयाए दिव्वाए देवगतीए जेणामेव जंबुद्दोवे दीवे, भारहे वासे, जेणामेव दाहिणड्ढभरए रायगिहे नगरे पोसहसालाए अभए कुमारे तेणामेव उबागच्छति, उवागच्छिता अंतरिक्खपडिवन्ने दसद्धवन्नाइं सखिखिणियाई पवरवत्थाई परिहिए-अभयं कुमारं एवं वयासी-- Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् दस के प्राधे अर्थात् पाँच वर्ण वाले तथा घुघरू वाले उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुंए वह देव आकाश में स्थित होकर (अभयकुमार से इस प्रकार बोला-] यह एक प्रकार का गम-पाठ है / इसके स्थान पर दूसरा भी पाठ है / वह इस प्रकार है वह देव उत्कृष्ट, त्वरा वाली, चपल-कायिक, चपलता वाली, अति उत्कर्ष के कारण चंडभयानक, दृढ़ता के कारण सिंह जैसी, गर्व को प्रचुरता के कारण उद्धत, शत्रु को जीतने से जय करने वाली, छेक अर्थात् निपुणता वाली और दिव्य देवगति से जहां जम्बूद्वीप था, भारतवर्ष था और जहाँ दक्षिणार्धभरत था, उसमें भी राजगृह नगर था और जहां पौषधशाला में अभयकुमार था, वहीं आता है पाकर के आकाश में स्थित होकर पांच वर्ण वाले एवं घुघरू वाले उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए वह देव अभयकुमार से इस प्रकार कहने लगा-- ७१----'अहं णं देवाणुप्पिया ! पुव्वसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे महड्डिए, जं णं तुम पोसहसालाए अट्टमभत्तं पगिण्हित्ता णं ममं मणसि करेमाणे चिट्ठसि, तं एस गं देवाणुप्पिया! अहं इहं हध्वमागए / संदिसाहि णं देवाणुप्पिया ! कि करेमि ? कि दलामि ? कि पयच्छामि ? किं वा ते हिय-इच्छितं ?' 'हे देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारा पूर्वभव का मित्र सौधर्मकल्पवासी महान् ऋद्धि का धारक देव हूँ।' क्योंकि तुम पौषधशाला में अष्टमभक्त तप ग्रहण करके मुझे मन में रखकर स्थित हो अर्थात् मेरा स्मरण कर रहे हो, इसी कारण हे देवानुप्रिय ! मैं शीघ्र यहाँ पाया हूँ / हे देवानुप्रिय ! बतायो तुम्हारा क्या इष्ट कार्य करूँ ? तुम्हें क्या हूँ ? तुम्हारे किसी संबंधी को क्या हूँ ? तुम्हारा मनोवांछित क्या है ? ७०-तए णं से अभए कुमारे तं पुव्वसंगतियं देवं अंतलिक्खपडिवन्न पासइ / पासित्ता हटुतुट्ठ पोसहं पारेइ, पारिता करयल० अंजलि कटु एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम चुल्लमाउयाए धारिणोए देवीए अयमेयारूवे अकालडोहले पाउन्भूते-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ! तहेव पुवगमेणं जाब विणिज्जामि / तं गं तुमं देवाणुप्पिया! मम चुल्लमाउयाए धारिणीए अयमेयारूवं अकालदोहलं विणेहि / तत्पश्चात अभयकुमार ने प्रकाश में स्थित पूर्वभव के मित्र उस देव को देखा / देखकर वह हृष्ट-तुष्ट हुा / पौषध को पारा-पूर्ण किया। फिर दोनों हाथ मस्तक पर जोड़कर इस प्रकार कहा'हे देवानुप्रिय ! मेरी छोटी माता धारिणी देवी को इस प्रकार का अकाल-दोहद उत्पन्न हुना है कि वे माताएँ धन्य हैं जो अपने अकाल मेघ-दोहद को पूर्ण करतो हैं यावत् मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करूं।' इत्यादि पूर्व के समान सब कथन यहाँ समझ लेना चाहिए / सो हे देवानुप्रिय ! तुम मेरी छोटी माता धारिणी देवी के इस प्रकार के दोहद को पूर्ण कर दो।' अकाल-मेघविक्रिया ७३–तए णं से देवे अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हट्टतुटुं अभयकुमारं एवं वयासी-- 'तुम णं देवाणुप्पिया ! सुणिन्यवोसत्थे अच्छाहि / अहं गं तव चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] अयमेयारूवं डोहलं विणेमोति' कट्ट अभयस्स कुमारस्स अंतियायो पडिणिक्खमति, पडिणिक्खमित्ता उत्तरपुरच्छिमे णं वेभारपन्चए वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णति, समोहण्णइत्ता संखेज्जाई जोयणाई दंडं निसिरति, जाव दोच्चं पि वेउब्बियसमुग्धाएणं समोहण्णति, समोहणित्ता खिम्मामेव सगज्जियं सविज्जयं सफुसियं तं पंचवण्णमेहणिणाओवसोहियं दिव्वं पाउससिरि विउवेइ / विउव्वेइत्ता जेणेव अभए कुमारे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अभयं कुमारं एवं वयासी तत्पश्चात् वह देव अभयकुमार के ऐसा कहने पर हर्षित और संतुष्ट होकर अभय कुमार से बोला--देवानुप्रिय ! तुम निश्चिन्त रहो और विश्वास रक्खो। मैं तुम्हारी लघु माता धारिणी देवी के इस प्रकार के इस दोहद की पूर्ति किए देता हूँ। ऐसा कहकर अभय कुमार के पास से निकलता है। निकलकर उत्तरपूर्व दिशा में, वैभारगिरि पर जाकर वैक्रियसमुद्घात करता है। समुद्धात करके संख्यात योजन प्रमाण वाला दंड निकालता है, यावत् दूसरी बार भी वैक्रियसमुद्घात करता है और गर्जना से युक्त, बिजली से युक्त और जल-बिन्दुओं से युक्त पाँच वर्ण वाले मेघों की ध्वनि से शोभित दिव्य वर्षा ऋतु की शोभा की विक्रिया करता है / विक्रिया करके जहाँ अभयकुमार था, वहाँ आता है / प्राकर अभयकुमार से इस प्रकार कहता है ७४–एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए तव पियट्टयाए सज्जिया सफुसिया सविज्जया दिव्वा पाउससिरी विउविया / तं विणेउ णं देवाणुप्पिया ! तव चुल्लमाउया धारिणी देवी अयमेयास्वं अकालडोहलं / देवानुप्रिय ! मैंने तुम्हारे प्रिय के लिए प्रसन्नता की खातिर गर्जनायुक्त, बिन्दुयुक्त और विद्युत्युक्त दिव्य वर्षा-लक्ष्मी की विक्रिया की है। अतः हे देवानुप्रिय ! तुम्हारी छोटी माता धारिणी देवी अपने दोहद की पूर्ति करे। दोहपूति ७५-तए णं से अभयकुमारे तस्स पुव्वसंगतियस्स देवस्स सोहम्मकप्पवासिस्स अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठ सयाओ भवणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमिता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल० अंजलि कटु एवं वयासी तत्पश्चात् अभयकुमार उस सौधर्मकल्पवासी पूर्व के मित्र देव से यह बात सुन-समझ कर हर्षित एवं संतुष्ट होकर अपने भवन से बाहर निकलता है / निकलकर जहाँ श्रेणिक राजा बैठा था, वहां पाता है / पाकर मस्तक पर दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहता है--- ७६---‘एवं खलु ताओ ! मम पुब्वसंगतिएणं सोहम्मकप्पवासिणा देवेणं खिप्पामेव सगज्जिया सविज्जुया (सफुसिया) पंचवन्नमेहनिनाओवसोहिआ दिव्वा पाउससिरी विउव्विया। तं विणेउ णं मम चुल्लमाउया धारिणी देवी अकालदोहलं / ' हे तात ! मेरे पूर्वभव के मित्र सौधर्मकल्पवासी देव ने शीघ्र ही गर्जनायुक्त, बिजली से युक्त और (दों सहित) पाँच रंगों के मेघों की ध्वनि से सुशोभित दिव्य वर्षाऋतु की शोभा की विक्रिया की है / अतः मेरी लघु माता धारिणी देवी अपने अकाल-दोहद को पूर्ण करें। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40] [ ज्ञाताधर्मकथा ७७-तए णं से सेणिए राया अभयस्स कुमारस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्टतुट जाव कोडुबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! रायगिहं नयरं सिंघाडग-तिय चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु आसित्तसित्त जाव सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह / करित्ता य मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / ' तते गं ते कोडुबियपुरिसा जाव पच्चप्पिणन्ति / तत्पश्चात् श्रेणिक राजा, अभयकुमार से यह बात सुनकर और हृदय में धारण करके हर्षित व संतुष्ट हुा / यावत् उसने कौटुम्बिक पुरुषों (सेवकों) को बुलवाया / बुलवाकर इस भांति कहा -देवानुप्रियो ! शीघ्र ही राजगृह नगर में शृगाटक (सिंघाड़े की प्राकृति के मार्ग), त्रिक (जहाँ तीन रास्ते मिलें वह मार्ग), चतुष्क (चौक) और चबूतरे आदि को सींच कर, यावत् उत्तम सुगंध से सुगंधित करके गंध की बट्टी के समान करो / ऐसा करके मेरी अाज्ञा वापिस सौंपो / तत्पश्चात् वे कोटुम्बिक पुरुष प्राज्ञा का पालन करके यावत् उस प्राज्ञा को वापिस सौंपते हैं, अर्थात् आज्ञानुसार कार्य हो जाने की सूचना देते हैं / ७८--तए णं से सेणिए राया दोच्चं : पि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हयगय-रह-जोहपवरकलितं चाउरंगिणि सेन्न सन्नाहेह, सेयणयं च गंधहत्थि परिकप्पेह। ते वि तहेव जाव पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् श्रेणिक राजा दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाता है और बुलवाकर इस प्रकार कहता है--'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही उत्तम अश्व, गज, रथ तथा योद्धाओं (पदातियों) सहित चतुरंगी सेना को तैयार करो और सेचनक नामक गंधहस्ती को भी तैयार करो।' वे कौटुम्बिक पुरुष भी प्राज्ञा पालन करके यावत् आज्ञा वापिस सौंपते हैं। ७९-तए णं से सेणिए राया जेणेव धारिणी देवी तेणामेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता धारिणि देवि एवं वयासी- 'एवं खलु देवाणुप्पिए ! सगज्जिया जाव [सविज्जया सफुसिया दिब्वा] पाउससिरी पाउन्भूता, तं गं तुमं देवाणुप्पिए / एयं अकालदोहलं विणेहि / ' तत्पश्चात् श्रेणिक राजा जहाँ धारिणी देवी थी, वहीं आया / आकर धारिणी देवी से इस प्रकार बोला-'हे देवानुप्रिये ! इस प्रकार तुम्हारी अभिलाषा अनुसार गर्जना को ध्वनि, बिजली तथा बूदाबादी से युक्त दिव्य वर्षा ऋतु की सुषमा प्रादुर्भूत हुई है। अतएव देवानुप्रिये ! तुम अपने अकाल-दोहद को सम्पन्न करो।' ८०-तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणी हट्टतुटु, जेणामेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता मज्जणघरं अणपविसइ। अणपविसित्ता अंतो अंतेउरंसि व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता किं ते वरपायपत्तणेउर जाव (मणिमेहल-हार-रइय-ओवियकडग-खुड्डय-विचित्त-वरवलयभियभुया) आगासफलिहसमप्पभं अंसुयं नियत्था, सेयणयं गंधहत्थि दुरुढा समाणी अमयमहियफेणपुजसण्णिगासाहि सेयचामरवालवीयणीहि वीइज्जमाणी वीइज्जमाणी संपत्थिया। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] तत्पश्चात् वह धारिणी देवी श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुई और जहाँ स्नानगृह था, उसी पोर आई / प्राकर स्नानगृह में प्रवेश किया / प्रवेश करके अन्तःपुर के अन्दर स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया। फिर क्या किया? सो कहते हैं-पैरों में उत्तम नपुर पहने, (कमर में मणिजटित करधनी, वक्षस्थल पर हार, हाथों में कड़े, उंगलियाँ में अंगूठियाँ धारण की, बाजूबंधों से उसकी भुजाएं स्तब्ध हो गईं,) यावत् आकाश तथा स्फटिक मणि के समान प्रभा वाले वस्त्रों को धारण किया / वस्त्र धारण करके सेचनक नामक गंधहस्ती पर आरूढ़ होकर, अमृतमंथन से उत्पन्न हुए फेन के समूह के समान श्वेत चामर के बालों रूपी बीजने से बिजाती हुई रवाना हुई। 81-- तए णं से सेणिए राया पहाए कयबलिकम्मे जाव (कयकोउय-मंगल-पायाच्छित्ते अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरे) सस्सिरीए हथिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं चउचामराहिं वोइज्जमाणे धारिणि देवि पिट्ठओ अणुंगच्छइ। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त किया, अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को सुशोभित किया / सुसज्जित होकर, श्रेष्ठ गंधहस्ती के स्कंध पर आरूढ़ होकर, कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को मस्तक पर धारण करके, चार चामरों से बिजाते हुए धारिणी देवी का अनुगमन किया / 82 - तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा हस्थिखंधवरगएणं पिद्रुतो पिट्ठतो समणुगम्ममाणमग्गा, हय-गय-रह-जोह-कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिधुडा महया भड-चडगर-वंदपरिक्खित्ता सव्विड्डीए सव्वजुईए जाव' दुदुभिनिग्धोसनादितरवेणं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिगचउक्क-चच्चर जाव (चउम्मुह) महापहपहेसु नागरजणेणं अभिनंदिज्जमाणा अभिनंदिज्जमाणा जेणामेव वेभागिरिपव्वए तेणामेब उवागच्छइ / उवाच्छित्ता वेभारगिरिकडगतडपायमूले आरामेसु य उज्जाणेसु य, काणणेसु य, वणेसु य, वणसंडेसु य, रुक्खेसु य, गुच्छेसु य, गुम्मेसु य, लयासु य, वल्लीसु य, कंदरासु य, दरीसु य, चुढीसु य, दहेसु य, कच्छेसु य, नदीसु य, संगमेसु य, विवरएसु य, अच्छमाणी य, पेच्छमाणी य, मज्जमाणीय, पत्ताणि य. पप्फाणि य, फलाणि य, पल्लवाणि गिण्हमाणी य, माणेमाणी य, अग्घायमाणी य, परिभुजमाणी य, परिभाएमाणी य, वेभारगिरिपायमूले दोहलं विणेमाणी सव्वओ समंता आहिंडति / तए णं धारिणी देवी विणीतदोहला संपुन्नदोहला संपन्नदोहल्ला जाया यावि होत्था। . श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर बैठे हुए श्रेणिक राजा धारिणी देवी के पीछे-पीछे चले / धारिणीदेवी अश्व, हाथी, रथ और योद्धानों की चतुरंगी सेना से परिवृत थी। उसके चारों ओर महान सुभटों का समूह घिरा हुआ था। इस प्रकार सम्पूर्ण समृद्धि के साथ, सम्पूर्ण द्युति के साथ, यावत् दुदुभि के निघोंष के साथ राजगढ़ क निर्घोष के साथ राजगृह नगर के श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क और चत्वर आदि में होकर यावत चतुर्मुख राजमार्ग में होकर निकली। नागरिक लोगों ने पुनः पुनः उसका अभिनन्दन किया। तत्पश्चात् वह जहाँ वैभारगिरि पर्वत था, उसी ओर आई / पाकर वैभारगिरि के कटकतट में और 1. प्र.अ. गूत्र 44 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] [ज्ञाताधर्मकथा तलहटी में, दम्पतियों के क्रीड़ास्थान प्रारामों में, पुष्प-फल से सम्पन्न उद्यानों में, सामान्य वृक्षों से युक्त काननों में, नगर से दूरवर्ती वनों में, एक जाति के वृक्षों के समूह वाले वनखण्डों में, वृक्षों में, वृन्ताकी आदि के गुच्छाओं में, बांस की झाड़ी आदि गुल्मों में, अाम्र प्रादि की लताओं अर्थात् पौधों में, नागरवेल आदि को वल्लियों में, गुफाओं में, दरी (शगाल आदि के रहने के गडहों में), चण्डी बिना खोदे आप ही बनी जल की तलैया) में, ह्रदों-तालाबों में, अल्प जल वाले कच्छों में, नदियों में, नदियों के संगमों में और अन्य जलाशयों में, अर्थात् इन सबके आसपास खड़ी होती हुई, वहाँ के दृश्यों को देखती हुई, स्नान करती हुई, पत्रों, पुष्पों, फलों और पल्लवों (कौंपलों) को ग्रहण करती हुई स्पर्श करके उनका मान करती हुई, पुष्पादिक को सूघती हुई, फल आदि का भक्षण करती हुई और दूसरों को बाँटती हुई, वैभारगिरि के समीप की भूमि में अपना दोहदपूर्ण करती हुई चारों ओर परिभ्रमण करने लगी। इस प्रकार धारिणी देवी ने दोहद को दूर किया, दोहद को पूर्ण किया और दोहद को सम्पन्न किया। ८३-तए णं सा धारिणी देवी सेयणगगंधहत्थि दुरूढा समाणी सेणिएणं हत्थिखंधवरगएणं पिट्ठओ पिटुओ समणुगम्ममाणमग्गा हयगय जाव' रहेणं जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता रायगिहं नगरं मज्झं मज्झेणं जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता विउलाई माणुस्साई भोगभोगाइं जाव (पच्चणुभवमाणी) विहरति / तत्पश्चात् धारिणी देवी सेचनक नामक गंधहस्ती पर आरूढ हई / श्रेणिक राजा श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर बैठकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे। अश्व हस्ती आदि से घिरी हुई वह जहाँ राजगृह नगर है, वहाँ आती है। राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर जहाँ अपना भवन है, वहाँ आती है। वहाँ आकर मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोग भोगती हुई विचरती है। देव का विसर्जन ८४-तए णं से अभयकुमारे जेणामेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छइत्ता पुव्वसंगतियं देवं सक्कारेइ, सम्माणेइ / सक्कारित्ता सम्माणित्ता पांडविसज्जेति / __ तत्पश्चात् वह अभयकुमार जहाँ पौषधशाला है, वहीं आता है / आकर पूर्व के मित्र देव का सत्कार-सम्मान करके उसे विदा करता है। ८५-तए णं से देवे सगज्जियं पंचवण्णं महोवसोहियं दिव्वं पाउससिरि पडिसाहरति, पडिसाहरित्ता जामेव दिसि पाउब्भूए, तामेव दिसि पडिगए। तत्पश्चात् अभयकुमार द्वारा विदा किया हुआ वह देव गर्जना से युक्त पंचरंगी मेघों से सुशोभित दिव्य वर्षा-लक्ष्मी का प्रतिसंहरण करता है, अर्थात् उसे समेट लेता है। प्रतिसंहरण करके जिस दिशा से प्रकट हुआ था उसी दिशा में चला गया, अर्थात् अपने स्थान पर गया। गर्भ की सुरक्षा ८६-तए णं सा धारिणी देवी तंसि अकालदोहलंसि विणीयंसि संमाणिडयोहला तस्स 1. प्र. अ. सूत्र 82 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात [43 गब्भस्स अणुकंपणट्टाए जयं चिट्ठति, जयं आसयति, जयं सुवति, आहारं पि य णं आहारेमाणी माइतित्तं णातिकडुयं णातिकसायं णातिअंबिलं णातिमहुरं जं तस्स गब्भस्स हियं मियं पत्थयं देसे य काले य आहारं आहारेमाणी णाचितं, णाइसोगं, णाइदेण्णं, णाइमोहं, गाइभयं, गाइपरितासं, बवगचिता-सोय-मोह-भय-परित्तासा उदु-भज्जमाण-मुहेहि भोयण-च्छायण-गंध-मल्लालंकारेहिं तं गन्भं सुहंसुहेणं परिवहति / तत्पश्चात् धारिणी देवी ने अपने उस अकाल दोहद के पूर्ण होने पर दोहद को सम्मानित किया। वह उस गर्भ की अनुकम्पा के लिए, गर्भ को बाधा न पहुँचे इस प्रकार यतना-सावधानी से खड़ी होती, यतना से बैठती और यतना से शयन करती। आहार करती तो ऐसा आहार करती जो अधिक तीखा न हो, अधिक कटुक न हो, अधिक कसैला न हो, अधिक खट्टा न हो और अधिक मोठा भी न हो। देश और काल के अनुसार जो उस गर्भ के लिए हितकारक (बुद्धि-पायुष्य आदि का कारण) हो, मित (परिमित एवं इन्द्रियों के अनुकूल) हो, पथ्य (ग्रारोग्यकारक) हो। वह अति चिन्ता न करती, अति शोक न करतो, अति दैन्य न करतो, अति मोह न करती, अति भय न करती और अति त्रास न करती / अर्थात चिन्ता, शोक, दैन्य, मोह, भय और त्रास से रहित होकर सब ऋतुओं में सुखप्रद भोजन, वस्त्र, गंध, माला और अलंकार आदि से सुखपूर्वक उस गर्भ को वहन करने लगी। मेघकुमार का जन्म ८७–तए णं सा धारिणो देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण राइंदियाणं विइक्कताणं अद्धरत्तकालसमयंसि सुकुमालपाणिपायं जाव' सव्वंगसुदरंगं दारयं पयाया / तत्पश्चात् धारिणी देवी ने नौ मास परिपूर्ण होने पर और साढ़े सात रात्रि-दिवस बीत जाने पर, अर्धरात्रि के समय, अत्यन्त कोमल हाथ-पैर वाले यावत् परिपूर्ण इन्द्रियों से युक्त शरीर वाले, लक्षणों और व्यंजनों से सम्पन्न, मान-उन्मान-प्रमाण से युक्त एवं सर्वांगसुन्दर शिशु का प्रसव किया। ८५-तए णं ताओ अंगपडियारियाओ धारिणि देवि नवण्ह मासाणं जाव' दारयं पयायं पासंति / पासित्ता सिग्धं तुरियं चवलं वेइयं, जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेणियं रायं जएणं विजएणं वद्धाति / वद्वावित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी तत्पश्चात दासियों ने देखा कि धारिणी देवी ने नौ मास पूर्ण हो जाने पर यावत् पुत्र को जन्म दिया है। देख कर हर्ष के कारण शीघ्र, मन से त्वरा वाली, काय से चपल एवं वेग वाली वे दासियाँ श्रेणिक राजा के पास आती हैं। प्राकर श्रेणिक राजा को जय-विजय शब्द कह कर बधाई देती हैं। बधाई देकर, दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर पावर्तन करके, अंजलि करके इस प्रकार कहती हैं ८९-एवं खल देवाणुप्पिया ! धारिणी देवी णवण्हं मासाणं जाव' दारगं पयाया। तं गं अम्हे देवाणुप्पियाणं पियं णिवेएमो, पियं भे भवउ / 1. सूत्र 15 2. सूत्र 87 3. सूत्र 87 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ज्ञाताधर्मकथा तए णं से सेणिए राया तासि अंगपडियारियाणं अंतिए एयमहूँ सोच्चा णिसम्म हदुतु४० ताओ अंगपडियारियाओ महुरेहि वयहिं विपुलेण य पुष्फगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेति, सम्माति, सक्कारिता सम्माणित्ता मत्थयधोयाओ करेति, पुत्ताणुपुत्तियं वित्ति कप्पेति, कपित्ता पडिविसज्जेति। हे देवानुप्रिय ! धारिणी देवी ने नौ मास पूर्ण होने पर यावत् पुत्र का प्रसव किया है। सो हम देवानुप्रिय को प्रिय (समाचार) निवेदन करती हैं / आपको प्रिय हो ! तत्पश्चात् श्रेणिक राजा उन दासियों के पास से यह अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट हुआ / उसने उन दासियों का मधुर वचनों से तथा विपुल पुष्पों, गंधों, मालाओं और आभूषणों से सत्कार-सन्मान किया। सत्कार-सन्मान करके उन्हें मस्तकधौत किया अर्थात् दासीपन से मुक्त कर दिया। उन्हें ऐसी आजीविका कर दी कि उनके पौत्र आदि तक चलती रहे। इस प्रकार आजीविका करके विपुल द्रव्य देकर विदा किया / विवेचन-प्राचीन काल में इस देश में दासप्रथा और दासीप्रथा प्रचलित थी। दास-दासियों की स्थिति लगभग पशुओं जैसी थी। उनका क्रय-विक्रय होता था / बाजार लगते थे। जीवन-पर्यन्त उन्हें गुलाम होकर रहना पड़ता था। उनका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था। कोई विशिष्ट हर्ष का प्रसंग हो और स्वामी प्रसन्न हो जाये तभी दासता अथवा दासीपन से उनको मुक्ति मिलती थी / राजा श्रेणिक का प्रसन्न होकर दासियों को दासीपन से मुक्त कर देना इसी प्रथा का सूचक है। जन्मोत्सव ९०-तए णं से सेणिए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेति / सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्यिया ! रायगिहं नगरं आस त्ति जाव (सम्मज्जिओवलितं सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चरचउम्मुह-महापह-पहेसु आसित्त-सित्त-सुइ-सम्मटु-रत्यंतरावण-वीहियं मंचाइमंचकलियं गाणाविहरागअसिय-ज्य-पडागाइपडाग-मंडियं लाउल्लोइयमहियं गोसीस-सरस-रत्तचंदण-दहर-दिग्णपंचगलितलं उचियचंदणकलसं चंदणघड-सुकय-तोरण-पडिदुवारदेसभायं आसित्तो-सित्तविउल-बट्ट-वग्घारिय-मल्लदाम-कलावं पंचवण्ण-सरस-सुरभिमुक्क-पुष्फपुजोवयार-कलियं कालागुरु-पवर-कुदुरुक्कतुरुक्क-धूव-डज्झंत-मघमघेत-गंधुद्ध याभिरामं सुगंधवर-गंधियं गंधवट्टिभूयं नड-नटग-जल्ल-मल्ल-मुट्टियवेलंवग-कहकहग-पवग-लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तुबवीणिय-अणेगतालायर)-परिगीयं करेह कारवेह य / करिता चारगपरिसोहणं करेह / करित्ता माणुम्माण-बद्धणं करेह / करित्ता एयमाणत्तियं पच्चपिणह / जाव पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् श्रेणिक राजा कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाता है। बुलाकर इस प्रकार प्रादेश देता है—देवानुप्रियो ! शीघ्र ही राजगृह नगर में सुगन्धित जल छिड़को, यावत् उसका सम्मार्जन एवं लेपन करो, शृङ्गाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख और राजमार्गों में सिंचन करो, उन्हें शुचि करो, रास्ते, बाजार, वीथियों को साफ करो, उन पर मंच और मंचों पर मंच बनायो, तरह-तरह की ऊँची ध्वजाओं, पताकाओं और पताकाओं पर पताकाओं से शोभित करो, लिपा-पुता करो, गोशीर्ष चन्दन तथा सरस रक्तचन्दन के पाँचों उंगलियों वाले हाथे लगाओ, चन्दन-चचित कलशों से उपचित करो, स्थान-स्थान पर. द्वारों पर चन्दन-घटों के तोरणों का निर्माण करायो, विपूल गोलाकार मालाएं लटकानो, पांचों रंगों के ताजा और सुगंधित फूलों को बिखेरो, काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दरुक, लोभान Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात | [ 45 तथा धूप इस प्रकार जलायो कि उनकी सुगंध से सारा वातावरण मधमघा जाय, श्रेष्ठ सुगंध के कारण नगर सुगंध की गुटिका जैसा बन जाय, नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक (मुक्केवाज), विडंवक (विदूषक), कथाकार, प्लवक (तैराक), नृत्यकर्ता, प्राइक्खग-शुभाशुभ फल बताने वाले, बांस पर चढ़ कर खेल दिखाने वाले, चित्रपट दिखाने वाले, तूणा-वीणा बजाने वाले, तालियां पीटने वाले आदि लोगों से युक्त करो एवं सर्वत्र (मंगल) गान करायो / कारागार से कैदियों को मुक्त करो / तोल और नाप को वृद्धि करो। यह सब करके मेरी प्राज्ञा वापिस सौंपो। यावत् कौटुम्बिक पुरुष राजाज्ञा के अनुसार कार्य करके प्राज्ञा वापिस देते हैं। ९१-तए णं से सेणिए राया अट्ठारससेणीप्पसेणोओ सद्दावेति / सहावित्ता एवं वदासी'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! रायगिहे नगरे अभितरबाहिरिए उस्सुक्कं उक्करं अभडप्पवेसं अदंडिमकुडंडिमं अधरिमं अधारणिज्जं अणु यमुइंगं अमिलायमल्लदामं गणियावरणाडइज्जकलियं अणेगतालायराणुचरितं पमुइयपक्कीलियाभिरामं जहारिहं ठिइवडियं दसदिवसियं करेह कारवेह य / करित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।' / ते वि करेन्ति, करित्ता तहेव पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात श्रेणिक राजा कुभकार आदि जाति रूप अठारह श्रेणियों को और उनके उपविभाग रूप अठारह प्रश्रेणियों को बुलाता है / बुलाकर इस प्रकार कहता है--देवानुप्रियो ! तुम जागो और राजगृह नगर के भीतर और बाहर दस दिन की स्थितिपतिका (कुलमर्यादा के अनुसार होने वाली पुत्रजन्मोत्व को विशिष्ट रीति) कराओ। वह इस प्रकार है-दस दिनों तक शुल्क (चुगी) लेना बंद किया जाय, गायों वगैरह का प्रतिवर्ष लगने वाला कर माफ किया जाय, कुटवियोंकिसानों आदि के घर में बेगार लेने आदि के लिए राजपुरुषों का प्रवेश निषिद्ध किया जाय, दंड (अपराध के अनुसार लिया जाने वाला द्रव्य) न लिया जाय, किसी को ऋणी न रहने दिया जाय, अर्थात् राजा की तरफ से सबका ऋण चुका दिया जाय, किसी देनदार को पकड़ा न जाय, ऐसी घोषणा कर दो तथा सर्वत्र मृदंग आदि बाजे बजवानो। चारों ओर विकसित ताजा फूलों की मालाएँ लटकायो / गणिकाएँ जिनमें प्रधान हों ऐसे पात्रों से नाटक करवायो। अनेक तालाचरों क्षाकारियों) से नाटक करवाओ। ऐसा करो कि लोग हर्षित होकर क्रीड़ा करें। इस प्रकार यथायोग्य दस दिन की स्थितिपतिका करो-करायो और मेरी यह प्राज्ञा मुझे वापिस सौंपो / राजा श्रेणिक का यह आदेश सुनकर वे इसी प्रकार करते हैं और राजाज्ञा वापिस करते हैं / ९२--तए णं से सेणिए राया बाहिरियाए उवढाणसालाए सोहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने सइएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि य जाहि दाएहिं भागेहि दलयमाणे दलयमाणे पडिच्छमाणे पडिच्छेमाणे एवं च णं विहरति / तत्पश्चात श्रेणिक राजा बाहर की उपस्थानशाला (सभाभवन) में पूर्व की ओर मुख करके, श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठा और सैकड़ों हजारों और लाखों के द्रव्य से याग (पूजन) किया एवं दान दिया। उसने अपनी आय में से अमुक भाग दिया और प्राप्त होने वाले द्रव्य को ग्रहण करता हुना विचरने लगा। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 / [ ज्ञाताधर्मकथा अनेक संस्कार ९३–तए णं तस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे जातकम्मं करेन्ति, करित्ता बितियदिवसे जागरियं करेन्ति, करित्ता ततियदिवसे चंदसूरदंसणियं करेन्ति, करित्ता एवामेव निव्वत्ते असुइजातकम्मकरणे संपत्ते बारसाहदिवसे विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेन्ति, उवक्खडावित्ता मित्त-णाइणियग-सयण-संबंधि-परिजणं बलं च बहवे गणणायग-दंडणायग जाव (राईसर-तलवर-माइंबियकोड बिय -मंति-महामंति-गणग-दोवारिय-अमच्च-चेड-पोठमद्द-नगर-निगम-सेटि-सेणावइ.सत्थवाह-दूयसंधिवाले) आमंतेति / / तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने पहले दिन जातकर्म (नाल काटना ग्रादि) किया। दूसरे दिन जागरिका (रात्रि-जागरण) किया। तीसरे दिन चन्द्र-सूर्य का दर्शन कराया। इस प्रकार अशुचि जातकर्म की क्रिया सम्पन्न हुई / फिर बारहवां दिन पाया तो विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम वस्तुएँ तैयार करवाई / तैयार करवाकर मित्र, वन्धु अादि ज्ञाति, पुत्र प्रादि निजक जन, काका आदि स्वजन, श्वसुर आदि सम्बन्धी जन, दास आदि परिजन, सेना और बहुत से गणनायक, दंडनायक यावत् (राजा, राजकुमार, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, मंत्री, महामंत्री, गणक, दौवारिक, अमात्य, चेट, पीठमर्द, नगरवासी, निगमवासी, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत और संधिपाल इन सब) को आमंत्रण दिया। 94 तओ पच्छा व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सव्वालंकार-विभूसिया महइमहालयंसि भोयणमंडवंसि तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्ताणाइ.' गणणायग जाव सद्धि आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परिभुजेमाणा एवं च णं विहरइ। उसके पश्चात् स्नान किया, बलिकर्म किया, मसितिलक प्रादि कौतुक किया, यावत् समस्त अलंकारों से विभूषित हए। फिर वहत विशाल भोजन-मंडप में उस अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन का मित्र, ज्ञाति आदि तथा गणनायक प्रादि के साथ प्रास्वादन, विस्वादन, परस्पर विभाजन और परिभोग करते हुए विचरने लगे। नामकरण संस्कार ९५-जिमियभुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया तं मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरिजण०२ गणणायग०' विपुलेणं पुष्फ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेंति, संमाणेति, सक्कारित्ता सम्माणित्ता एवं वयासो-'जम्हा णं अम्हं इमस्स दारगस्स गब्भत्थस्स चेव समाणस्स अकालमेहेसु डोहले पाउन्भूए, तं होउ णं अम्हं दारए मेहे नामेणं मेहकुमारे / ' तस्स दारगस्स अम्मापियरो अयमेयारूबं गोण्णं गुणनिप्फन्नं नामधेज्ज करेन्ति / / इस प्रकार भोजन करने के पश्चात् शुद्ध जल से पाचमन (कुल्ला) किया। हाथ-मुख धोकर स्वच्छ हुए परम शुचि हुए। फिर उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धीजन, परिजन आदि तथा गणनायक आदि का विपुल वस्त्र, गंध, माला और अलंकार से सत्कार किया, सम्मान किया / सत्कार-सन्मान करके इस प्रकार कहा—क्योंकि हमारा यह पुत्र जब गर्भ में स्थित था, तब इसकी 1-2-3. सूत्र 93 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [47 माता को अकाल-मेघ सम्बन्धी दोहद हुआ था / अतएव हमारे इस पुत्र का नाम मेघकुमार होना चाहिए / इस प्रकार माता-पिता ने गौण अर्थात् गुणनिष्पन्न नाम रक्खा / मेधकुमार का लालन-पालन ९६-तए णं से मेहकुमारे पंचधाईपरिग्गहिए। तंजहा-खीरधाईए, मंडणधाईए, मज्जणधाईए, कोलावणधाईए, अंकधाईए / अन्नाहि य बहुहि खुज्जाहि चिलाइयाहि वामणि-वडभि-बबरि-वउसि. जोणियाहि पल्हविय-ईसिणिय-धोरुगिणि-लासिय-लउसिय-दमिलि-सिंहलि-आरबि-पुलिदि-पक्कणिबहलि-मुरु डि-सबरि-पारसीहि जाणादेसीहि विदेसपरिमंडियाहि इंगित-चितिय-पत्थिय-वियाणियाहिं सदेसनेवत्थगहियवेसाहिं निउणकुसलाहि विणीयाहि चेडियाचक्कवाल-वरिसधर-कंचुइअ-मह्यरगवंदपरिक्खित्ते हत्याओ हत्थं संहरिज्जमाणे, अंकाओ अंकं परिभुज्जमाणे, परिगिज्जमाणे, चालिज्जमाणे, उवलालिज्जमाणे, रम्मंसि मणिकोट्टिमतलंसि परिमिज्जमाणे परिमिज्जमाणे णिव्वायणिव्वाघायंसि गिरिकन्दरमल्लीणे व चंपगपायवे सुहंसुहेणं वड्डइ। तत्पश्चात मेघकुमार पाँच धायों द्वारा ग्रहण किया गया-पाँच धाएँ उसका लालन-पोषण करने लगीं / वे इस प्रकार थीं--(१) क्षीरधात्री-दूध पिलाने वाली धाय, (2) मंडनधात्री-वस्त्राभूषण पहनाने वाली धाय, (3) मज्जनधात्री-स्नान कराने वाली धाय, (4) क्रीड़ापनधात्री-खेल खिलाने वाली धाय और (5) अंकधात्री---गोद में लेने वाली धाय / इनके अतिरिक्त वह मेघकुमार अन्यान्य कुब्जा (कुबड़ी), चिलातिका (चिलात-किरात नामक अनार्य देश में उत्पन्न), वामन (बोनी), वडभी (बड़े पेट वाली), बर्बरी (बर्बर देश में उत्पन्न), बकुश देश की, योनक देश की, पल्हविक देश की, ईसिनिक, धोरुकिन, ल्हासक देश की, लकुस देश की, द्रविड देश की, सिंहल देश की, अरब देश की, पुलिंद देश की, पक्कण देश की, पारस देश की, बहल देश की, मुरुड देश की, शबर देश की, इस प्रकार नाना देशों की, परदेश-अपने देश से भिन्न राजगृह को सुशोभित करने वाली, इंगित (मुख आदि की चेष्टा), चिन्तित (मानसिक विचार) और प्राथित (अभिलषित) को जानने वाली, अपने-अपने देश के वेष को धारण करने वाली, निपुणों में भी प्रतिनिपूण, विनययुक्त दासियों के द्वारा तथा स्वदेशीय दासियों द्वारा और वर्षधरों (प्रयोग द्वारा नपुसक बनाए हुए पुरुषों), कंचुकियों और महत्तरकों (अन्तःपुर के कार्य की चिन्ता रखने वालों) के समुदाय से घिरा रहने लगा। वह एक के हाथ से दूसरे के हाथ में जाता, एक की गोद से दूसरे को गोद में जाता, गा-गाकर बहलाया जाता, उंगलो पकड़कर चलाया जाता, क्रीडा आदि से लालन-पालन किया जाता एवं रमणीय मणिजटित फर्श पर चलाया जाता हुआ वायुरहित और व्याघातरहित गिरिगुफा में स्थित चम्पक वृक्ष के समान सुखपूर्वक बढ़ने लगा। ९७–तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो अणुपुट्वेणं नामकरणं च पज्जेमणं च एवं चंकमणगं च चोलोवणयं च महया महया इड्डीसक्कारसमुदएणं करिसु / / तत्पश्चात् उस मेघकुमार के माता-पिता ने अनुक्रम से नामकरण, पालने में सुलाना, पैरों से चलाना, चोटी रखना, आदि संस्कार बड़ी-बड़ी ऋद्धि और सत्कारपूर्वक मानवसमूह के साथ सम्पन्न किए। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] [ ज्ञाताधर्मकथा कलाशिक्षण ९८-तए णं तं मेहकुमारं अम्मापियरो सातिरेगट्ठवासजायगं चेव (गभटुमे वासे) सोहणंसि तिहिकरणमुहत्तंसि कलायरियस्स उवणेन्ति / तते णं से कलायरिए मेहं कुमारं लेहाइयाओ गणितप्पहाणाओ सउणरुतपज्जवसाणाओ बावरि कलाओ सुत्तओ अ अत्थओ अ करणओ य सेहावेति, सिक्खावेति। तत्पश्चात मेघकूमार जब कुछ अधिक पाठ वर्ष का हया अर्थात गर्भ से आठ वर्ष का हा तब माता-पिता ने शुभ तिथि, करण और मुहूर्त में कलाचार्य के पास भेजा। तत्पश्चात् कलाचार्य ने मेघकुमार को गणित जिनमें प्रधान है ऐसी, लेखा आदि शकुनिरुत (पक्षियों के शब्द) तक की बहत्तर कलाएँ सूत्र से, अर्थ से और प्रयोग से सिद्ध करवाई तथा सिखलाईं। ९९-तंजहा-(१) लेहं (2) गणियं (3) रूवं (4) नट्ट (5) गीयं (6) वाइयं (7) सरगयं (8) पोक्खरगयं (9) समतालं (10) जयं (11) जगवायं (12) पासयं (13) अट्ठावयं (14) पोरेकच्चं (15) दगमट्टियं (16) अन्नविहिं (17) पाणविहिं (18) वत्थविहिं (19) विलेवणविहिं (20) सयणविहि (21) अज्ज (22) पहेलियं (23) मागहियं (24) गाहं (25) गोइयं (26) सिलोयं (27) हिरण्णजुत्ति (28) सुवन्नत्ति (29) चुन्नत्ति (30) आभरणविहिं (31) तरुणीपडिकम्म (32) इथिलक्खणं (33) पुरिसलक्खणं (34) हयलक्खणं (35) गयलक्खणं (36) गोणलक्खणं (37) कुक्कुडलक्खणं (38) छत्तलक्खणं (39) डंडलक्खणं (40) असिलक्खणं (41) मणिलक्खणं (42) कागणिलक्खणं (43) वत्थुविज्ज (44) खंधारमाणं (45) नगरमाणं (46) वूहं (47) पडिवूह (48) चारं (49) पडिचारं (50) चक्कवूह (51) गरुलवूहं (52) सगडवूहं (53) जुद्धं (54) निजुद्धं (55) जुद्धातिजुद्धं (56) अट्ठिजुद्धं (57) मुठ्ठिजुद्धं (58) बाहुजुद्धं (59) लयाजुद्धं (60) ईसत्थं (61) छरुप्पवायं (62) धणुव्वेयं (63) हिरन्नपागं (64) सुवन्नपागं (65) सुत्तखेडं (66) वट्टखेडं (67) नालियाखेडं (68) पत्तच्छेज्ज (69) कडगच्छेज्जं (70) सज्जीवं (71) निज्जीवं (72) सउणरुअमिति / वे कलाएँ इस प्रकार हैं---(१) लेखन, (2) गणित, (3) रूप बदलना, (4) नाटक, (5) गायन, (6) वाद्य बजाना, (7) स्वर जानना, (8) वाद्य सुधारना, (9) समान ताल जानना, (10) जुना खेलना, (11) लोगों के साथ वाद-विवाद करना, (12) पासों से खेलना, (13) चौपड़ खेलना, (14) नगर की रक्षा करना, (15) जल और मिट्टी के संयोग से वस्तु का निर्माण करना, (16) धान्य निपजाना, (17) नया पानी उत्पन्न करना, पानी को संस्कार करके शुद्ध करना एवं उष्ण करना, (18) नवीन वस्त्र बनाना, रंगना, सीना और पहनना, (19) विलेपन की वस्तु को पहचानना, तैयार करना, लेप करना आदि, (20) शय्या बनाना, शयन करने की विधि जानना आदि, (21) आर्या छंद को पहचानना और बनाना, (22) पहेलियाँ बनाना और बूझना, (23) मागधिका अर्थात् मगध देश की भाषा में गाथा आदि बनाना, (24) प्राकृत भाषा में गाथा आदि, बनाना (25) गीति छंद बनाना, (26) श्लोक (अनुष्टुप् छंद) बनाना, (27) सुवर्ण बनाना, उसके आभूषण बनाना, पहनना आदि (28) नई चांदी बनाना, उसके आभूषण बनाना, पहनना आदि, (29) चूर्ण-गुलाव अबीर आदि Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात | बनाना और उनका उपयोग करना (30) गहने घड़ना, पहनना आदि (31) तरुणी की सेवा करनाप्रसाधन करना (32) स्त्री के लक्षण जानना (33) पुरुष के लक्षण जनना (34) अश्व के लक्षण जानना (35) हाथी के लक्षण जानना (36) गाय-बैल के लक्षण जानना (37) मुर्गों के लक्षण जानना (38) छत्र-लक्षण जानना (39) दंड-लक्षण जानना (40) खड्ग-लक्षण जानना (41) मणि के लक्षण जानना (42) काकणीरत्न के लक्षण जानना (43) वास्तुविद्या-मकान-दुकान आदि इमारतों की विद्या (44) सेना के पड़ाव के प्रमाण आदि जानना (45) नया नगर बसाने आदि की कला (46) व्यूह-मोर्चा बनाना (47) विरोधी के व्यूह के सामने अपनी सेना का मोर्चा रचना (48) सैन्यसंचालन करना (४९)प्रतिचार-शत्रसेना के समक्ष अपनी सेना को चलाना (50) चक्रव्यूह-चाक के आकार में मोर्चा बनाना (51) गरुड़ के आकार का व्यूह बनाना (52) शकटव्यूह रचना (53) सामान्य युद्ध करना (54) विशेषयुद्ध करना (55) अत्यन्त विशेष युद्ध करना (56) अट्टि (यष्टि या अस्थि) से युद्ध करना (57) मुष्टियुद्ध करना (58) बाहुयुद्ध करना (59) लतायुद्ध करना (60) बहुत को थोड़ा और थोड़े को बहुत दिखलाना (61) खड्ग की मूठ आदि बनाना (62) धनुष-बाण संबंधी कौशल होना (63) चाँदी का पाक बनाना (64) सोने का पाक बनाना (65) सूत्र का छेदन करना (66) खेत जोतना (67) कमल के नाल का छेदन करना (68) पत्रछेदन करना (69) कुडल आदि का छेदन करना (70) मृत (मूछित) को जीवित करना (71) जीवित को मृत (मृततुल्य) करना और (72) काक धूक आदि पक्षियों की बोली पहचानना। विवेचन--भारतवर्ष की प्रमुख तीनों धर्मपरम्पराओं के साहित्य में कलाओं के उल्लेख उपलब्ध होते हैं / वैदिक परम्परा के रामायण, महाभारत, शुक्रनीति, वाक्यपदीय आदि प्रधान ग्रन्थों में, बौद्ध परम्परा के ललितविस्तर में कलाओं का वर्णन किया गया है। किन्तु इनकी संख्या सर्वत्र समान नहीं है / कहीं कलाओं की संख्या 64 बतलाई गई है तो क्षेमेन्द्र ने अपने कलाविलास ग्रन्थ में सौ से भी अधिक का वर्णन किया है / बौद्ध साहित्य में इनकी संख्या 86 कही गई है / जैनसाहित्य में भी कलाओं का संख्या यद्यपि सर्वत्र समान नहीं है तथापि प्रायः पुरुषों के लिए 72 और महिलाओं के लिए 64 कलाओं का ही उल्लेख मिलता है। संख्या में यह जो भिन्नता है वह कोई आश्चर्य का विषय नहीं है, क्योंकि कलाओं का संबंध शिक्षण के साथ है और एक का दूसरी में समावेश हो जाना साधारण बात है। ध्यान देने योग्य तो यह है कि कलाओं का चयन कितनी दूरदृष्टि से किया गया है / कलाओं के नामों को ध्यानपूर्वक देखने से स्पष्ट विदित हो जाता है कि इनको अध्ययन सत्र से, अर्थ के साथ तथा अभ्यासपूर्वक करने से जीवन में किस प्रकार की जागति उत्पन्न हो जाती है। ये कलाएँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को स्पर्श करती हैं, इनके अध्ययन से जीवन को परिपूर्णता प्राप्त होती है / इनमें शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास की क्षमता निहित है। गीत, नृत्य जैसे मनोरंजन के विषयों की भी उपेक्षा नहीं की गई है। कारीगरी संबंधी समस्त शाखाओं का समावेश किया गया है तो युद्ध संबंधी बारीकियां भी शामिल की गई हैं। इनमें गणित विषय को प्रधान माना गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल की शिक्षापद्धति जीवन के सर्वांगीण विकास में अत्यन्त सहायक थीं। इन कलाओं के स्वरूप को सन्मुख रखकर ग्राज की शिक्षानीति निर्धारित की जाए तो वह बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 ] [ ज्ञाताधर्मकथा उस युग में कलाशिक्षक का कितना सन्मान समाज में था, यह तथ्य भी प्रस्तुत सूत्र से प्रकट होता है। कलाचार्य को प्रीतिदान १००-तए णं से कलायरिए मेहं कुमारं लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणिरुअपज्जवसाणाओ बावरि कलाओ सुसओ य अत्थओ य करणओ य सिहावेति, सिक्खावेति, सिहावेत्ता सिक्खावेत्ता अम्मापिऊणं उवणेति / तए णं मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो तं कलायरियं मधुरेहि वयणेहि विपुलेणं वत्थ-गंधमल्लालंकारेणं सक्कारेंति, सम्माति, सवकारिता सम्माणित्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति, दलइत्ता पडिविसज्जेन्ति। तत्पश्चात् वह कलाचार्य, मेधकुमार को गणित-प्रधान, लखन से लेकर शकुनिरुत पर्यन्त बहत्तर कलाएँ सूत्र ( मूल पाठ ) से, अर्थ से और प्रयोग से सिद्ध कराता है तथा सिखलाता है। सिद्ध करवाकर और सिखलाकर माता-पिता के पास वापिस ले जाता है। तब मेघकुमार के माता-पिता ने कलाचार्य का मधुर वचनों से तथा विपुल वस्त्र, गंध, माला और अलंकारों से सत्कार किया, सन्मान किया। सत्कार-सन्मान करके जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान दिया। प्रीतिदान देकर उसे विदा किया। __१०१-तए णं मेहे कुमारे बावत्तरिकलापंडिए णवंगसुत्तपडिबोहिए अट्ठारस-विहिप्पगारदेसीभासा-विसारए गोइरई गंधव्वनट्टकुसले हयजोहो गयजोही रहजोही बाहुजोहो बाहुप्पमद्दी अलं भोगसमत्थे साहसिए वियालचारी जाए यावि होत्था। तब मेधकुमार बहत्तर कलाओं में पंडित हो गया / उसके नौ अंग- दो कान, दो नेत्र, दा नासिका, जिह्वा, त्वचा और मन वाल्यावस्था के कारण जो सोये-से थे अर्थात अव्यक्त चेतना वाले थे, वे जागृत से हो गये / वह अठारह प्रकार की देशी भापात्रों में कुशल हो गया। वह गीति में प्रीति वाला, गीत और नृत्य में कुशल हो गया / वह अश्वयुद्ध रथयुद्ध और वाहुयुद्ध करने वाला बन गया। अपनी बाहनों से विपक्षी का मर्दन करने में समर्थ हो गया। भोग भोगने का सामर्थ्य उसमें ग्रा गया। साहसी होने के कारण विकालचारी-आधी रात में भी चल पड़ने वाला बन गया। मेघकुमार का पाणिग्रहण 102 ---तए णं तस्स मेहकुमारस्स अम्मापियारो मेहं कुमारं बावत्तरिकलापंडितं जाव वियालचारी जायं पासंति / पासित्ता अट्ठ पासायडिसए कारेन्ति अन्भुग्गयमुसियपहसिए विव मणि-कणगरयण-भत्तिचित्ते, वाउद्धृतविजयजयंती-पडागा-छत्ताइच्छत्तकलिए, तुगे, गगणतलमभिलंघमाणसिहरे, जालंतररयणपंजरुम्मिल्लियव मणिकणगभियाए, वियसियसयपत्तपुडरीए, तिलयरयणद्धचंदच्चिए नानामणिमयदामालंकिए, अंतो बर्बाह च सण्हे तवणिज्जरुइलवालुयापत्थरे, सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासाईए जाव (दरिसणिज्जे अभिरूवे) पडिरूवे / Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [51 तत्पश्चात् मेघकुमार के माता-पिता ने मेघकुमार को बहत्तर कलानों में पंडित यावत् विकालचारी हुअा देखा / देखकर पाठ उत्तम प्रासाद बनवाए / वे प्रासाद बहुत ऊंचे थे / अपनी उज्ज्वल कान्ति के समूह से हँसते हुए से प्रतीत होते थे। मणि, सुवर्ण और रत्नों की रचना से विचित्र थे / वायु से फहराती हुई और विजय को सूचित करने वाली वैजयन्ती पताकानों से तथा छत्रातिछत्रों (एक दूसरे के ऊपर रहे हुए छत्रों) से युक्त थे / वे इतने ऊँचे थे कि उनके शिख र अाकाशतल का उल्लंघन करते थे। उनकी जालियों के मध्य में रत्ना के पंजर ऐसे प्रतीत होते थे, मानो उनके नेत्र हो / उनमें मणियों और कनक की भूमिकाएँ (स्तूपिकाएं) थीं। उनमें साक्षात् अथवा चित्रित किये हए शतपत्र और पुण्डरीक कमल विकसित हो रहे थे। वे तिलक रत्नों एवं अर्द्ध चन्द्रों--एक प्रकार के सोपानों से युक्त थे, अथवा भित्तियों में चन्दन आदि के आलेख (हाथे) चचित थे। नाना प्रकार की मणिमय मालाओं से अलंकृत थे। भीतर और बाहर से चिकने थे। उनके प्रांगन में सुवर्णमय रुचिर वालुका विछी थी। उनका स्पर्श सुखप्रद था / रूप बड़ा ही शोभन था / उन्हें देखते ही चित्त में प्रसन्नता होती थी। तावत् [वे महल दर्शनीय सुन्दर एवं] प्रतिरूप थे-अत्यन्त मनोहर थे। 103 –एगं च णं महं भवणं कारेंति--अणेगखंभसयसन्निविट्ठ लीलटिठय-सालभंजियागं अब्भुग्गय-सुकय--वइरवेइया-तोरण-वररइय--सालभंजिया-सुसिलिट्ठ--विसिह-लट्ठ--संठित-पसत्थ-वेरुलिय-खंभ-नाणामणि-कणग-रयणखचितउज्जलं बहुसम-सुविभत्त-निचिय-रमणिज्ज-भूमिभागं ईहामिय० जाव' भत्तिचित्तं खंभुग्गय-वइरवेइयापरिगयाभिरामं विज्जाहरजमलजुयलजुत्तं पिव अच्चीसहस्स-मालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं सुहफासं सस्सिरोयरूवं कंचण-रयणथभियागं नाणाविहपंचवन्नघंटा-पडाग-परिमंडियन्गसिरं धवलमरीचिकवयं विणिम्मुयंत लाउल्लोइयमहियं जाव' गंधवट्टिभूयं पासाईयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं। और एक महान् भवन (मेधकुमार के लिए) बनवाया गया। वह अनेक सैकड़ों स्तंभों पर वना हया था / उसमें लीलायुक्त अनेक पुतलियाँ स्थापित की हुई थी। उसमें ऊँची और सुनिमित वज्ररत्न की वेदिका थी और तोरण थे / मनोहर निर्मित पुतलियों सहित उत्तम, मोटे एवं प्रशस्त बैडर्य रत्न के स्तंभ थे, बे विविध प्रकार के मणियों सुवर्ण तथा रत्नों से खचित होने के कारण उज्ज्वल दिखाई देते थे। उनका भूमिभाग बिलकुल सम, विशाल, पक्का और रमणीय था / उस भवन में ईहामग, वषभ, तुरग, मनुष्य, मकर आदि के चित्र चित्रित किए हुए थे। स्तंभों पर बनी बज्ररत्न की वेदिका से युक्त होने के कारण रमणीय दिखाई पड़ता था / समान श्रेणी में स्थित विद्याधरों के यूगल यंत्र द्वारा चलते दीख पड़ते थे। वह भवन हजारों किरणों से ब्याप्त और हजारों चित्रों से युक्त होने से देदीप्यमान और अतीव देदीप्यमान था। उसे देखते ही दर्शक के नयन उसमें चिपक-से जाते थे। उसका स्पर्श सुखप्रद था और रूप शोभासम्पन्न था। उसमें सुवर्ण, मणि एवं रत्नों की स्तुपिकाएँ वनी हुई थीं। उसका प्रधान शिखर नाना प्रकार को, पांच वर्षों की एवं घंटाओं सहित पताकारों से सुशोभित था। वह चहँ सोर देदीप्यमान किरणों के समूह को फैला रहा था / वह लिया था, धुला था और चंदेवा गे युक्त था / यावत् वह भवन गंध की वी जैसा जान पड़ता था / वह चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था-अतीव मनोहर था। 1-2. प्र. अ. सूत्र 31 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52] [ ज्ञाताधर्मकथा १०४----तए णं तस्स मेहकुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्तमुहुत्तंसि सरिसियाणं सरिसब्वयाणं सरिसत्तयाणं सरिसलावन्न-रूव-जोवण-गुणोववेयाणं सरिसएहिन्तो रायकुलेहिन्तो आणिल्लियाणं पसाहणटुंग-अविहवबहु-ओवयणमंगल-सुजंपियाहि अहिं रायवरकण्णाहिं सद्धि एगदिवसेणं पाणि गिहाविसु / तत्पश्चात् मेघकुमार के माता-पिता ने मेघकुमार का शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में शरीरपरिमाण से सदश, समान उम्र वाली, समान त्वचा (कान्ति) बाली, समान लावण्य वाली, समान रूप (प्राकृति) वाली, समान यौवन और गुणों वाली तथा अपने कल के समान राजकूलों से लाई हुई आठ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ, एक ही दिन—एक ही साथ, आठों अंगों में अलंकार धारण करने वाली सुहागिन स्त्रियों द्वारा किये मंगलगान एवं दधि अक्षत आदि मांगलिक पदार्थों के प्रयोग द्वारा पाणिग्रहण करवाया। प्रीतिवान १०५-तए णं तस्स मेहस्स अम्मापियरो इमं एयारूवं पोइदाणं दलयइ-अठ्ठ हिरण्णकोडोओ, अट्ठ सुवण्णकोडीओ, गाहानुसारेण भाणियव्वं जाव' पेसणकारियाओ, अन्नं च विपुलं धण-कणगरयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयण-संतसारसावतेज्जं अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तु पकामं परिभाएउं / तत्पश्चात् मेघकुमार के माता-पिता ने (उन आठ कन्याओं को) इस प्रकार प्रीतिदान दियाआठ करोड़ हिरण्य (चांदो), पाठ करोड़ सुवर्ण, आदि गाथाओं के अनुसार समझ लेना चाहिए, यावत् पाठ-पाठ प्रेक्षणकारिणी (नाटक करने वाली) अथवा पेषणकारिणी (पीसने वाली) तथा और भी विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, मूगा, रक्त रत्न (लाल) आदि उत्तम सारभूत द्रव्य दिया, जो सात पीढ़ी तक दान देने के लिये, भोगने के लिए, उपयोग करने के लिए और बँटवारा करके देने के लिए पर्याप्त था। १०६-तए णं से मेहे कुमारे एगमेगाए भारियाए एगमेगं हिरण्णकोडि दलयति, एगमेगं सुवन्नकोडि दलयति, जाव एगमेगं पेसणकारि दलयति, अन्ननं च विपुलं धणकणग जाव परिभाएउं दलयति / तत्पश्चात् उस मेघकुमार ने प्रत्येक पत्नी को एक-एक करोड़ हिरण्य दिया, एक-एक करोड़ सुवर्ण दिया, यावत् एक-एक प्रेक्षणकारिणी या पेषणकारिणी दी। इसके अतिरिक्त अन्य विपुल धन कनक आदि दिया, जो यावत् दान देने, भोगोपभोग करने और बँटवारा करने के लिए सात पीढ़ियों तक पर्याप्त था। विवेचन--इस विवाह-प्रसंग पर दी गई वस्तुओं की सूची को देखने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि गृहस्थी के उपयोग में आने वाली समस्त वस्तुएँ दी गई थीं, जिससे वे बिना किसी परेशानी के अपना काम चला सकें, उन्हें परमुखप्रेक्षी नहीं होना पड़े। १०७-तए णं से मेहे कुमारे उप्पि पासायवरगए फुट्टमार्गाह मुइंगमस्थएहि वरतरुणिसंप१. टीकाकार के मतानुसार ये गाथाएँ उपलब्ध नहीं हैं। अन्य ग्रन्थों से दूसरी गाथाएँ उन्होंने उदधृत की हैं / देखिए टीका पृ. 47 (सिद्धचक्रसाहित्यप्रचारकसमिति-संस्करण)। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] उत्तेहि बत्तीसइबद्धएहि नाडएहि उवगिज्जमाणे उगिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे उवलालिज्जमाण सद्द-फरिस-रस-रूव-गंध-विउले माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विहरति / तत्पश्चात् मेघकुमार श्रेष्ठ प्रासाद के ऊपर रहा हुअा, मानो मृदंगों के मुख फूट रहे हों, इस प्रकार उत्तम स्त्रियों द्वारा किये हुए, बत्तीसबद्ध नाटकों द्वारा गायन किया जाता हुअा तथा क्रीड़ा करता हुआ, मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध की विपुलता वाले मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगता हुआ रहने लगा। भगवान का आगमन १०८-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए जाव' विहरति / उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर अनुक्रम से चलते हुए, एक गांव से दूसरे गांव जाते हुए, सुखे-सुखे विहार करते हुए, जहां राजगृह नगर था और जहां गुणशील नामक चैत्य था, यावत् [वहाँ पधारे / पधार कर यथोचित स्थान ग्रहण किया / ग्रहण करके] ठहरे / १०९-तए णं से रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु महया बहुजणसद्देति वा (जणवूहे ति वा, जणबोले ति वा, जणकलकले ति वा, जणुम्मीति वा, जणुक्कलिया ति वा, जणसन्निवाए ति वा,) जाव' बहवे उग्गा भोगा जाव रायगिहस्स नगरस्स मज्झमझेणं एगदिसि एगाभिमुहा निग्गच्छति / इमं च णं मेहे कुमारे उप्पि पासायवरगए फुट्टमाहिं मुयंगमस्थएहिं जाव माणुस्सए कामभोगे भुजमाणे रायमगं च आलोएमाणे एवं च णं विहरति / / तत्पश्चात् राजगह नगर में शृगाटक-सिंघाड़े के आकार के मार्ग, तिराहे, चौराहे, चत्वर, चतुर्मुख, पथ, महापथ आदि में बहुत से लोगों का शोर होने लगा / यावत् [लोग इकट्ठे होने लगे, लोग अव्यक्त और व्यक्त वाणी में बातें करने लगे, भीड़ हो गई, लोग इधर-उधर से प्रा स्थान पर जमा होने लगे,] बहुतेरे उग्रकुल के, भोगकुल के तथा अन्य सभी लोग यावत् राजगृह नगर के मध्य भाग में होकर एक ही दिशा में, एक ही योर मुख करके निकलने लगे। उस समय मेघकुमार अपने प्रासाद पर था। मानों मृदंगों का मुख फूट रहा हो, इस प्रकार गायन किया जा रहा था / यावत् मनुष्य संबंधी कामभोग भोग रहा था और राजमार्ग का अवलोकन करता-करता विचर रहा था। मेघकुमार को जिज्ञासा ११०–तए णं से मेहे कुमारे ते बहवे उग्गे भोगे जाव' एगदिसाभिमुहे पासति पासित्ता कंचुइज्जपुरिसं सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी-कि भो देवाणुप्पिया! अज्ज रायगिहे नगरे इंदमहेति वा, खंदमहेति वा, एवं रुद्द-सिव-वेसमण-नाग-जक्ख-भूय-नई-तलाय-रुक्ख-चेतिय-पव्वय-उज्जाण-गिरिज. ताइवा? जओ णं बहवे उग्गा भोगा जाव' एगदिसि एगाभिमुहा णिग्गच्छंति ?' तब वह मेधकुमार उन बहुतेरे उग्रकुलीन भोगकुलीन यावत् सब लोगों को एक ही दिशा में 1. प्र. अ. सूत्र 4 2-3-4-5. प्रौप. सूत्र 27 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 ] | ज्ञाताधर्मकथा मूख किये जाते देखता है। देखकर कंचुकी पुरुष को बुलाता है और बुलाकर इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रिय ! क्या आज राजगृह नगर में इन्द्र-महोत्सव है ? स्कंद (कात्तिकेय) का महोत्सव है ? या रुद्र, शिव, वैश्रमण (कुबेर), नाग, यक्ष, भूत, नदी, तड़ाग, वृक्ष, चैत्य, पर्वत, उद्यान या गिरि (पर्वत) की यात्रा है ? जिससे बहुत से उग्र-कुल तथा भोग-कुल आदि के सब लोग एक ही दिशा में और एक ही ओर मुख करके निकल रहे हैं ?' कंचुकी का निवेदन १११-तए णं से कंचुइज्जपुरिसे समणस्स भगवओ महावीरस्स गहियागमणपवित्तीए मेहं कुमारं एवं वयासी–नो खलु देवाणुप्पिया! अज्ज रायगिहे नयरे इंदमहेति वा जाव गिरिजत्ताओ वा, जं णं एए उग्गा जाव ' एगदिसि एगाभिमुहा निग्गच्छंति, एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थयरे इहमागते, इह संपत्ते, इह समोसढे, इह चेव रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए अहापडि० जाव विहरति / तब उस कंचुकी पुरुष ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रागमन का वृत्तान्त जानकर मेधकुमार को इस प्रकार कहा–देवानुप्रिय ! आज राजगृह नगर में इन्द्रमहोत्सव या यावद् गिरियात्रा आदि नहीं है कि जिसके निमित्त यह उग्रकुल के, भोगकुल के तथा अन्य सब लोग एक ही दिशा में, एकाभिमुख होकर जा रहे हैं। परन्तु देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर धर्म-तीर्थ की प्रादि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले यहाँ आये हैं, पधार चुके हैं, समवसृत हुए हैं और इसी राजगह नगर में, गुणशील चैत्य में यथायोग्य अवग्रह की याचना करके विचर रहे हैं / ११२----तए णं से मेहे कंचुइच्जपुरिसस्स अंतिए एयमलैं सोच्चा णिसम्म हठतुळे कोडुबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासो-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंटं आसरह जुत्तामेव उवट्ठवेह / ' तह ति उवणेति / तत्पश्चात् मेघकुमार कंचुकी पुरुष से यह बात सुनकर एवं हृदय में धारण करके, हृष्ट-तुष्ट होता हया कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाता है और वुलवाकर इस प्रकार कहता है-हे देवान प्रियो ! शीघ्र ही चार घंटाओं वाले प्रश्वरथ को जोत कर उपस्थित करो! वे कौटुम्बिक पुरुप 'बहुत अच्छा' कह कर रथ जोत लाते हैं / मेघ की भगवत्-उपासना ११३--तए णं मेहे हाए जाव' सवालंकारविभूसिए चाउग्घंटं आसरहं दुरूढे समाणे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भड-चडगर-विद-परियाल-संपरिवुडे रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं निग्गच्छति / निग्गच्छित्ता जेणामेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्तातिछत्तं पडागातिपडागं विज्जाहरचारणे जंभए य 1-2. ग्रौप. सूत्र 27 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [55 देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासति / पासित्ता चाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहति / पच्चोरुहित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति / तंजहा[१] सचित्ताणं दव्वाणं विसरणयाए। अचित्ताणं दव्वाणं अविउसरणयाए। [3] एगसाडियउत्तरासंगकरणेणं / [4] चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं / [5] मणसो एगत्तीकरणेणं / जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति / करित्ता वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता गमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स णच्चासन्ने णाइद्दूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे पंजलियउडे अभिमुहे विणएणं पज्जुवासइ / तत्पश्चात् मेघकुमार ने स्नान किया। कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त आदि किया] सर्व अलंकारों से विभूषित हुया / फिर चार घंटा वाले अश्व रथ पर आरूढ हुा / कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को धारण किया / सुभटों के विपुल समूह वाले परिवार से घिरा हुआ, राजगृह नगर के बीचों-बीच होकर निकला / निकलकर जहाँ गुणशील नामक चैत्य था, वहाँ पाया। पाकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के छत्र पर छत्र और पताकानों पर पताका अादि अतिशयों को देखा तथा विद्याधरों, चारण मुनियों और जू भक देवों को नीचे उतरते एवं ऊपर चढ़ते देखा / यह सब देखकर चर घंटा वाले अश्वरथ से नीचे उतरा / उतर कर पाँच प्रकार के अभिगम करके श्रमण भगवान् महावीर के सन्मुख चला / वह पाँच अभिगम इस प्रकार हैं - (1) पुष्प, पान आदि सचित्त द्रव्यों का त्याग / (2) वस्त्र, आभूषण आदि अचित्त द्रव्यों का अत्याग / (3) एक शाटिका (दुपट्ट) का उत्तरासंग। (4) भगवान पर दष्टि पड़ते ही दोनों हाथ जोड़ना / (5) मन को एकाग्र करना। यह अभिग्रह करके जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ पाया। पाकर श्रमण भगवान् महावीर को दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके (तीन बार) प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके भगवान् को स्तुति रूप वन्दन किया और काय से नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके श्रमण भगवान् महावीर के अत्यन्त समीप नहीं और अति दूर भी नहीं, ऐसे समुचित स्थान पर बैठकर धर्मोपदेश सुनने की इच्छा करता हुआ, नमस्कार करता हुया, दोनों हाथ जोड़े, सन्मुख रह कर विनयपूर्वक प्रभु की उपासना करने लगा। भगवान की देशना ११४--तए णं समणे भगवं महावीरे मेहकुमारस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए मज्झगए विचित्तं धम्ममाइक्खइ, जहा जीवा बज्झंति, मुच्चंति, जह य संकिलिस्संति / धम्मकहा भाणियव्वा, जाव' परिसा पडिगया। 1. प्रौप. 71-79 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने मेघकुमार को और उस महती परिषद् को, परिषद् के मध्य में स्थित होकर विचित्र प्रकार के श्रुतधर्म और चारित्रधर्म का कथन किया। जिस प्रकार जीव कर्मों से बद्ध होते हैं, जिस प्रकार मुक्त होते हैं और जिस प्रकार संक्लेश को प्राप्त होते हैं, यह सब धर्मकथा औपपातिक सूत्र के अनुसार कह लेनी चाहिए / यावत् धर्मदेशना सुनकर परिषद् अर्थात् जन-समूह वापिस लौट गया / प्रवज्या का संकल्प ११५---तए णं मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हठ्ठतुढे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करिता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--'सद्दहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, एवं पत्तयामि णं, रोएमि णं, अब्भुठेमि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! से जहेव तं तुब्भे वदह / जं नवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तओ पच्छा मुंडे भवित्ता गं पब्वइस्सामि / ' 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / ' तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के पास से मेघ कुमार ने धर्म श्रवण करके और उसे हृदय में धारण करके, हृष्ट-तुष्ट होकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा--भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, उसे सर्वोत्तम स्वीकार करता हूँ, मैं उस पर प्रतीति करता है। मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन रुचता है, अर्थात जिनशासन के अनुसार प्राचरण करने की अभिलाषा करता हूँ, भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन को अंगीकार करना चाहता हूँ, भगवन् ! यह ऐसा ही है (जैसा आप कहते हैं), यह उसी प्रकार का है, अर्थात् सत्य है / भगवन् ! मैंने इसकी इच्छा की है, पुनः-पुन: इच्छा को है, भगवन् ! यह इच्छित और पुनः-पुनः इच्छित है / यह वैसा ही है जैसा आप कहते हैं। विशेष बात यह है कि हे देवानुप्रिय ! मैं अपने माता-पिता की आज्ञा ले लू, तत्पश्चात् मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करूगा।' भगवान् ने कहा- 'देवानुप्रिय ! जिससे तुझे सुख उपजे वह कर, उसमें विलम्ब न करना।' विवेचन-धर्म मुख्यतः श्रवण का नहीं किन्तु आचरण का विषय है। अतएव धर्मश्रवण का फल तदनुकूल आचरण होना चाहिए। राजकुमार मेघ ने पहली बार धर्मदेशना श्रवण की और उसमें उसके आचरण की बलवती प्रेरणा जाग उठी / बड़े ही भावपूर्ण एवं दृढ़ शब्दों में बह निम्रन्थधर्म के प्रति अपनी प्रान्तरिक श्रद्धा निवेदन करता है, सामान्य पाठक को उसके उद्गारों में पुनरुक्ति का आभास हो सकता है, किन्तु यह पुनरुक्ति दोष नहीं है, उसकी तीव्रतर भावना, प्रगाढ श्रद्धा और धर्म के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की गहरी लालसा की अभिव्यक्ति है / मेघ जब भगवान से प्रव्रज्या ग्रहण करने का विचार प्रकट करता है तो भगवान् उसी मध्यस्थ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] भाव का परिचय देते हैं जो उनके जीवन में निरन्तर परिव्याप्त रहता था। एक राजकुमार और वह भी मगध का राजकुमार शिष्यत्व अंगीकार करने को लालायित है, इससे भी भगवान् का समभाव अखंडित ही रहता है। गुरु के लिए शिष्य बनाने का प्रयोजन क्या है ? शिष्य बनाने से गुरु की एकान्त और एकाग्र साधना में कुछ न कुछ व्याघात ही उत्पन्न हो सकता है, फिर भी साधु दो कारणों से किसी व्यक्ति को शिष्य रूप में दीक्षित और स्वीकृत करते हैं (1) साधु विचार करता है कि यह भव्य आत्मा संसार-सागर से तिरने का अभिलाषी है / इसे पथप्रदर्शन की आवश्यकता है / पथप्रदर्शन के विना बेचारा भटक जाएगा। इस प्रकार के विचार से करुणापूर्वक अपनी साधना में विक्षेप सहन करके भी उसे शिष्य रूप में ग्रहण कर लेते हैं / (2) दूसरा कारण है शासन की निरन्तर प्रवृत्ति / गुरु-शिष्य की परम्परा चालू रहने से भगवान् का शासन चिरकाल तक चालू रहता है, इस परम्परा के विना शासन चालू नहीं रह सकता। यही कारण है कि भगवान् ने प्रथम तो 'जहासुहं देवाणुप्पिया' कहकर मेघकुमार की इच्छा पर ही दीक्षित होना छोड़ दिया, फिर 'मा पडिबंधं करेह' कह कर दीक्षित होने के लिए हल्का संकेत भी कर दिया। माता-पिता के समक्ष संकल्पनिवेदन 116-- तए णं से मेहे कुमारे समणं भगवं महावीरं वंदति, नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता जेणामेव चाउग्धंटे आसरहे तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता चाउग्घंटे आसरहं दुरुहइ, दुरूहित्ता महया भडचडगरपहकरेणं रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं जेणेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहइ / पच्चोरुहिता जेणामेव अम्मापियरो तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं पायवडणं करेइ। करिता एवं वयासी–‘एवं खलु अम्मयाओ ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए।' तत्पश्चात् मेघकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन किया, अर्थात् उनकी स्तुति की, नमस्कार किया, स्तुति-नमस्कार करके जहाँ चार घंटाओं वाला अश्वरथ था, वहाँ आया। आकर चार घंटाओं वाले अश्व-रथ पर आरूढ हुअा। आरूढ होकर महान् सुभटों और बड़े समूह वाले परिवार के साथ राजगृह के बीचों-बीच होकर अपने घर आया। चार घंटाओं वाले अश्व-रथ से उतरा / उतरकर जहाँ उसके माता-पिता थे, वहीं पहुंचा। पहुंचकर माता-पिता के पैरों में प्रणाम किया / प्रणाम करके उसने इस प्रकार कहा-'हे माता-पिता ! मैंने श्रमण भगवान महावीर के समीप धर्म श्रवण किया है और मैंने उस धर्म की इच्छा की है, बार-बार इच्छा की है। वह मुझे रुचा है।' ११७–तए णं तस्स मेहस्स अम्मापियरो एवं वयासी---'धन्नो सि तुमं जाया ! संपुन्नो सि तुम जाया ! कयत्थो सि तुम जाया ! जं णं तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते, से वि य ते धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए।' तब मेघकुमार के माता-पिता इस प्रकार बोले- 'पुत्र ! तुम धन्य हो, पुत्र ! तुम पूरे पुण्यवान् हो, हे पुत्र ! तुम कृतार्थ हो कि तुमने श्रमण भगवान् महावीर के निकट धर्म श्रवण किया है और वह धर्म तुम्हें इष्ट, पुनः पुनः इष्ट और रुचिकर भी हुआ है।'' Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] [ ज्ञाताधर्मकथा ११८-तए णं से मेहे कुमारे अम्मापियरो दोच्चं पि तच्च पि एवं वयासी-एवं खलु अम्मयाओ ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते। से वि य णं मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए / तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुम्भेहि अब्भणुन्नाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता णं आगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। तत्पश्चात् मेघकुमार माता-पिता से दूसरी बार और तीसरी बार इस प्रकार कहने लगा--- 'हे माता-पिता ! मैंने श्रमण भगवान महावीर से धर्म श्रवण किया है / उस धर्म को मैंने इच्छा की है, बार-बार इच्छा की है, वह मुझे रुचिकर हुआ है / अतएव हे माता-पिता ! मैं आपकी अनुमति प्राप्त करके श्रमण भगवान महावीर के समीप मुण्डित होकर, गहवास त्याग कर अनगारिता की प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ-मुनिदीक्षा लेना चाहता हूँ। माता का शोक ११९-तए णं सा धारिणी देवी तमणिठं अकंतं अप्पियं अमान्नं अमणामं अस्सुयपुवं फरुसं गिरं सोच्चा णिसम्म इमेणं एयारवेणं मणोमाणसिएणं महया पुत्तदुक्खेणं अभिभूता समाणी सेयागयरोमकूव-पगलंत-विलीणगाया सोयभरपवेवियंगी णित्तेया दीणविमणबयणा करयल-मलिय व्व कमलमाला तक्खण-ओलुग्ग-दुब्बलसरीरा लावन्नसुन्न-निच्छाय-गसिरीया पसिढिलभूसणपडतखुम्मिय-संचुन्नियधवलवलय-पन्भट्ठउत्तरिज्जा सूमालविकिन्नकेसहत्था मुच्छावसणठ्ठचेयगरुई परसुनियत्त व्व चंपगलया निव्वत्तमहिम ब्व इंदलट्ठी विमुक्कसंधिबंधणा कोट्टिमतलंसि सन्चंगेहि धसत्ति पडिया। तब धारिणी देवी इस अनिष्ट (अनिच्छित), अप्रिय, अमनोज्ञ (ग्रप्रशस्त) और अमणाम (मन को न रुचने वाली), पहले कभी न सुनी हुई, कठोर वाणी को सुनकर और हृदय में धारण करके महान् पुत्र-वियोग के मानसिक दुःख से पीड़ित हुई / उसके रोमकूपों में पसीना पाकर अंगों से पसीना झरने लगा / शोक की अधिकता से उसके अंग कांपने लगे / वह निस्तेज हो गई / दीन और विमनस्क हो गई। हथेली से मली हुई कमल की माला के समान हो गई / 'मैं प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ' यह शब्द सुनने के क्षण में ही वह दुःखी और दुर्बल हो गई। वह लावण्यरहित हो गई, कान्तिहीन हो गई, श्रीविहीन हो गई, शरीर दुर्बल होने से उसके पहने हए अलंकार अत्यन्त ढीले हो गये, हाथों में पहने हए उत्तम वलय खिसक कर भूमि पर जा पडे और चर-चर हो गये। उसका उत्तरीय वस्त्र खिसक गया / सुकुमार केशपाश बिखर गया / मूर्छा के वश होने से चित्त नष्ट हो गया-वह बेहोश हो गई / परशु से काटी हुई चंपकलता के समान तथा महोत्सव सम्पन्न हो जाने के पश्चात् इन्द्रध्वज के समान (शोभाहीन) प्रतीत होने लगी / उसके शरीर के जोड़ ढीले पड़ गये। ऐसी अवस्था होने से वह धारिणी देवी सर्व अंगों से धस्-धड़ाम से पृथ्वीतल (फर्श पर गिर पड़ी। माता-पुत्र का संवाद १२०-तए णं सा धारिणी देवी ससंभमोवत्तियाए तुरियं कंचभिगार-मुहविणिग्गयसीयलजल-विमलधाराए परिसिंचमाणा निव्वावियगायलट्ठी उक्खेवण-तालविट-वीयणग-जणियवाएणं सफुसिएणं अंतेउरपरिजणेणं आसासिया समाणी मुत्तावलिसन्निगासपवडतअंसुधाराहि सिंचमाणी Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [ 59 पओहरे कलुणविमणदीना रोयमाणो कंदमाणी तिप्पमाणी सोयमाणी विलवमाणी मेहं कुमारं एवं वयासी-- __तत्पश्चात् वह धारिणी देवी, संभ्रम के साथ शीघ्रता से सुवर्णकलश के मुख से निकली हुई शीतल जल को निर्मल धारा से सिंचन की गई अर्थात् उस पर ठंडा जल छिड़का गया। अतएव उसका शरीर शीतल हो गया। उत्क्षेपक (एक प्रकार के बांस के पंखे) से, तालवृन्त (ताड़ के पत्ते के पंखे) से तथा वीजनक (जिसकी डंडी अंदर से पकड़ी जाय, ऐसे बांस के पंखे) से उत्पन्न हुई तथा जलकणों से युक्त वायु से अन्तःपुर के परिजनों द्वारा उसे ग्राश्वासन दिया गया। तब वह होश में आई / तब धारिणी देवी मोतियों की लड़ी के समान अश्रुधार से अपने स्तनों को सींचने-भिगोने लगी। वह दयनीय, विमनस्क और दीन हो गई / वह रुदन करती हुई. क्रन्दन करती हुई, पसीना एवं लार टपकाती हुई, हृदय में शोक करती हुई और विलाप करती हुई मेघकुमार से इस प्रकार कहने लगी-~ १२१-तुमं सि णं जाया! अम्हं एगे पुत्ते इठे कते पिए मणुन्ने मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए जीवियउस्सासए, हिययाणंदजणणे उंबरपुप्फ व दुल्लभे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए ? णो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो खणमवि विप्पओगं सहित्तए / तं भुजाहि ताव जाया ! विपुले माणुस्सए कामभोगे जाव ताव वयं जीवामो। तओ अच्छा अम्हेहि कालगएहिं परिणयबए वड्डिय- कुलवंस-तंतु-कज्जम्मि निरावयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्ससि / 'हे पुत्र ! तू हमारा इकलौता बेटा है। तू हमें इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है, मणाम है तथा धैर्य और विश्राम का स्थान है / कार्य करने में सम्मत (माना हुआ) है, बहुत कार्य करने में बहत माना हुआ है और कार्य करने के पश्चात् भी अनुमत है / आभूषणों की पेटी के समान (रक्षण करने योग्य) है / मनुष्यजाति में उत्तम होने के कारण रत्न है। रत्न रूप है। जीवन के उच्छ्वास के समान है / हमारे हृदय में ग्रानन्द उत्पन्न करने वाला है / गूलर के फूल के समान तेरा नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है तो फिर दर्शन की तो बात ही क्या है / हे पुत्र ! हम क्षण भर के लिए भी तेरा वियोग नहीं सहन करना चाहते / अतएव हे पुत्र ! प्रथम तो जब तक हम जीवित हैं, तब तक मनुष्य सम्बन्धी विपुल काम-भोगों को भोग / फिर जब हम कालगत हो जाएँ और तू परिपक्व उम्र का हो जाय-तेरी युवावस्था पूर्ण हो जाय, कुल-वंश (पुत्र-पौत्र आदि) रूप तंतु का कार्य वृद्धि को प्राप्त हो जाय, जव सांसारिक कार्य की अपेक्षा न रहे, उस समय तू श्रमण भगवान् महावीर के पास मुण्डित होकर, गहस्थी का त्याग करके प्रव्रज्या अंगीकार कर लेना।' १२२--तए णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापियरं एवं क्यासी'तहेव णं तं अम्मयाओ ! जहेव णं तुम्हे ममं एवं वदह--तुमं सि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते, तं चेव जाव निरावयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पवइस्ससि-एवं खलु अम्मयाओ माणुस्सए भवे अधुवे अणियए असासए वसणसउवद्दवाभिभूते विज्जुलयाचंचले अणिच्चे जलबुब्बुयसमाणे कुसग्गजलबिन्दुसन्निभे संझभराग-सरिसे सुविणदंसणोवमे सडण-पडण-विद्धंसणधम्मे पच्छा पुरं च Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 ] [ ज्ञाताधर्मकथा णं अवस्सविप्पजहणिज्जे से के णं जाणइ अम्मयाओ! के पुटिव गमणाए ? के पच्छा गमणाए ? तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुहिं अब्भणुन्नाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पब्वइत्तए। तत्पश्चात् माता-पिता के इस प्रकार कहने पर मेघकुमार ने माता-पिता से कहा-'हे मातापिता ! आप मुझसे यह जो कहते हैं कि हे पुत्र ! तुम हमारे इकलौते पुत्र हो, इत्यादि सब पूर्ववत् कहना चाहिए, यावत् सांसारिक कार्य से निरपेक्ष होकर श्रमण भगवान् महावीर के समीप प्रवजित होना–सो ठीक है, परन्तु हे माता-पिता ! यह मनुष्यभव ध्र व नहीं है अर्थात् सूर्योदय के समान नियमित समय पर पुनः पुन: प्राप्त होने वाला नहीं है, नियत नहीं है अर्थात् इस जीवन में उलटफेर होते रहते हैं, यह अशाश्वत है अर्थात् क्षण-विनश्वर है, तथा सैकड़ों व्यसनों एवं उपद्रवों से व्याप्त है, विजली की चमक के समान चंचल है. अनित्य है, जल के बुलबुले के समान है, दुब की नोक पर लटकने वाले जलबिन्द के समान है, सन्ध्यासमय के बादलों की लालिमा के सदश है, स्वप्नदर्शन के समान है-अभी है और अभी नहीं है, कुष्ठ आदि से सड़ने, तलवार आदि से कटने और क्षीण होने के स्वभाव वाला है तथा आगे या पीछे अवश्य ही त्याग करने योग्य है / हे माता-पिता ! इसके अतिरिक्त कौन जानता है कि कौन पहले जाएगा (मरेगा) और कौन पीछे जाएगा? अतएव हे माता-पिता ! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त करके श्रमण भगवान् महावीर के निकट यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ।' १२३--तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो एवं वयासो-'इमाओ ते जाया ! सरिसियाओ सरिसत्तयाओ सरिसव्वयाओ सरिसलावन्तरूवजोवणगुणोववेयाओ सरिसेहिन्तो रायकुलेहिन्तो आणियल्लियाओ भारियाओ, तं भुजाहि णं जाया! एताहिं सद्धि विपुले माणुस्सए कामभोगे, तओ पच्छा भुत्तभोगे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि / ' तत्पश्चात् माता-पिता ने मेघकुमार से इस प्रकार कहा-'हे पुत्र ! यह तुम्हारी भार्याएँ समान शरीर वाली, समान त्वचा वाली, समान वयं वाली, समान लावण्य, रूप, यौवन और गुणों से सम्पन्न तथा समान राजकुलों से लाई हुई हैं / अतएव हे पुत्र ! इनके साथ विपुल मनुष्य संबंधी कामभोगों को भोगो / तदनन्तर भुक्तभोग होकर श्रमण भगवान् महावीर के निकट यावत् दीक्षा ले लेना। १२४-तए णं से मेहे कुमारे अम्मापियरं एवं वयासी-'तहेव गं अम्मयाओ ! जंगं तब्भे ममं एवं वयह- 'इमाओ ते जाया ! सरिसियाओ जाव समणस्स भगवओ महावीरस्स पव्वइस्ससि'एवं खलु अम्मयाओ! माणुस्सगा कामभोगा असुई असासया वंतासवा पित्तासवा खेलासवा सुक्कासवा सोणियासवा दुरुस्सासनीसासा दुरुयमुत्त-पुरीस-पूय-बहुपडिपुन्ना उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाणगवंत-पित्त-सुक्क-सोणितसंभवा अधुवा अणियया असासया सडण-पडण-विद्धंसणधम्मा पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जा / से के णं अम्मयाओ! जाणंति के पुब्वि गमणाए ? के पच्छा गमणाए ! तं इच्छामि णं अम्मयाओ! जाव पव्वइत्तए।' तत्पश्चात् मेघकुमार ने माता-पिता से इस प्रकार कहा-'हे माता-पिता ! आप मुझे यह जो कहते हैं कि–'हे पुत्र ! तेरी ये भार्याएँ समान शरीर वाली हैं इत्यादि, यावत् इनके साथ भोग भोगकर श्रमण भगवान महावीर के समीप दीक्षा ले लेना; सो ठीक है, किन्तु हे माता-पिता ! मनुष्यों Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] के ये कामभोग अर्थात् कामभोग के आधारभूत नर-नारियों के शरीर अशुचि हैं, अशाश्वत हैं, इनमें से वमन झरता है, पित्त झरता है, कफ झरता है, शुक्र झरता है तथा शाणित (रुधिर) झरता है / ये गंदे उच्छ्वास-निःश्वास वाले हैं, खराब मूत्र, मल और पीव से परिपूर्ण हैं, मल, मूत्र, कफ, नासिकामल, वमन, पित्त, शुक्र और शोणित से उत्पन्न होने वाले हैं / यह ध्र व नहीं, नियत नहीं, शाश्वत नहीं हैं, सड़ने, पड़ने और विध्वंस होने के स्वभाव वाले हैं और पहले या पीछे अवश्य ही त्याग करने योग्य हैं / हे माता-पिता ! कौन जानता है कि पहले कौन जायगा और पीछे कौन जायगा ? अतएव हे माता-पिता ! मैं यावत् अभी दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ।' १२५–तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो एवं क्यासी --'इमे ते जाया! अज्जय-पज्जयपिउपज्जयागए सुबहु हिरन्ने य सुवन्नेय कसे य दूसे य मणिमोत्तिए य संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयणसंतसारसावतिज्जे य अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पगामं दाउं, पगामं भोत्तु, पगामं परिभाए, तं अणुहोहि ताव जाव जाया ! विपुलं माणुस्सगं इडिसक्कारसमुदयं, तओ पच्छा अणुभूयकल्लाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पब्वइस्ससि / तत्पश्चात् माता-पिता ने मेघकुमार से इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! तुम्हारे पितामह, पिता के पितामह और पिता के प्रपितामह से आया हुआ यह बहुत-सा हिरण्य, सुवर्ण, कांसा, दूष्य-वस्त्र, मणि, मोती, शंख, सिला, मूगा, लाल-रत्न ग्रादि सारभूत द्रव्य विद्यमान है। यह इतना है कि सात पीढ़ियों तक भी समाप्त न हो / इसका तुम खूब दान करो, स्वयं भोग करो और बांटो। हे पुत्र ! यह जितना मनुष्यसम्बन्धी ऋद्धि-सत्कार का समुदाय है, उतना सब तुम भोगो / उसके बाद अनुभूतकल्याण होकर तुम श्रमण भगवान् महावीर के समक्ष दीक्षा ग्रहण कर लेना। १२६–तए णं से मेहे कुमारे अम्मापियरं एवं वयासो-'तहेव णं अम्मयाओ ! जं णं तं वदह–'इमे ते जाया ! अज्जग-पज्जग-पिउपज्जयागए जाव तो पच्छा अणुभूयकल्लाणे पव्वइस्ससि' एवं खलु अम्मयाओ ! हिरन्ने य सुवण्णे य जाव सावतेज्जे अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए दाइयसाहिए मच्चसाहिए अग्गिसामन्ने जाव मच्चुसामन्ने सडण-पडण-विद्धंसणधम्मे पच्छा पुरं च णं स्सविष्पजहणिज्जे, से के णं जाणइ अम्मयाओ ! के जाव गमणाए? तं इच्छामि णं जाव पव्वइत्तए / __ तत्पश्चात् मेघकुमार ने माता-पिता से कहा---'हे माता-पिता ! आप जो कहते हैं सो ठीक है कि-'हे पुत्र ! यह दादा, पड़दादा और पिता के पड़दादा से पाया हुअा यावत् उत्तम द्रव्य है, इसे भोगो और फिर अनुभूत-कल्याण होकर दीक्षा ले लेना'.----परन्तु हे माता-पिता ! यह हिरण्य सुवर्ण यावत् स्वापतेय (द्रव्य) सब अग्निसाध्य है-इसे अग्नि भस्म कर सकती है, चोर चुरा सकता है, राजा अपहरण कर सकता है, हिस्सेदार बंटवारा कर सकते हैं और मृत्यु आने पर वह अपना नहीं रहता है / इसी प्रकार यह द्रव्य अग्नि के लिए समान है, अर्थात् जैसे द्रव्य उसके स्वामी का है, उसी प्रकार अग्नि का भी है और इसी तरह चोर, राजा, भागीदार और मृत्यु के लिए भी सामान्य है / यह सड़ने, पड़ने और विध्वस्त होने का स्वभाव वाला है। (मरण के पश्चात या पहले अवश्य त्याग कर है। हे माता-पिता ! किसे ज्ञात है कि पहले कौन जायगा और पीछे कौन जायगा? अतएव मैं यावत् दीक्षा अंगीकार करना चाहता हूँ।' Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62] [ ज्ञाताधर्मकथा 127 तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे नो संचाएइ मेहं कुमारं बहूहि विसयाणुलोमाहि आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विन्नवणाहि य, आवित्तए वा पन्नवित्तए वा, सन्नवित्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभउब्वेयकारियाहिं पन्नवाहि पन्नवेमाणा एवं वयासी तत्पश्चात् मेधकुमार के माता-पिता जब मेघकुमार को विषयों के अनुकूल पाख्यापना (सामान्य रूप से प्रतिपादन करने वाली वाणी) से, प्रज्ञापना (विशेष रूप से प्रतिपादन करने वाली वाणी) से, संज्ञापना (संबोधन करने वाली वाणी) से, विज्ञापना (अनुनय-विनय करने वाली वाणी) से समझाने, बुझाने, संबोधित करने और मनाने में समर्थ नहीं हुए, तब विषयों के प्रतिकूल तथा संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने वाली प्रज्ञापना से इस प्रकार कहने लगे. १२८-एस णं जाया ! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुतरे केलिए पडिपुन्ने णेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निज्जाणमग्गे निव्वाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे, अहीव एगंतदिट्ठीए, खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया इव जवा चावेयव्वा, वालुयाकवले इव निर-स्साए, गंगा इव महानदी पडिसोयगमणाए, महासमुद्दो इव भुयाहि दुत्तरे, तिक्खं चक्कमियन्वयं गरुअं लंबेयव्वं, असिधार व्व संचरियव्वं। हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन सत्य (सत्पुरुषों के लिए हितकारी) है, अनुत्तर (सर्वोत्तम) है, कैवलिक-सर्वज्ञकथित अथवा अद्वितीय है, प्रतिपूर्ण अर्थात् मोक्ष प्राप्त कराने वाले गुणों से परिपूर्ण है, नैयायिक अर्थात् न्याययुक्त या मोक्ष की ओर ले जाने वाला है, संशुद्ध अर्थात् सर्वथा निर्दोष है, शल्यकर्त्तन अर्थात् माया आदि शल्यों का नाश करने वाला है, सिद्धि का मार्ग है, मुक्तिमार्ग (पापों के नाश का उपाय) है, निर्याण का (सिद्धिक्षेत्र का) मार्ग है, निर्वाण का मार्ग है और समस्त दुःखों को पूर्णरूपेण नष्ट करने का मार्ग है / जैसे सर्प अपने भक्ष्य को ग्रहण करने में निश्चल दृष्टि रखता है, उसी प्रकार इस प्रवचन में दृष्टि निश्चल रखनी पड़ती है। यह छुरे के समान एक धार वाला है, अर्थात् इसमें दूसरी धार के समान अपवाद रूप क्रियायों का अभाव है। इस प्रवचन के अनुसार चलना लोहे के जो चबाना है / यह रत के कवल के समान स्वादहीन है-विषय-सूख से राहत है। इसका पालन करना गंगा नामक महानदी के सामने पूर में तिरने के समान कटि जाओं से महासमुद्र को पार करना है, तीखी तलवार पर आक्रमण करने के समान है, महाशिला जैसी भारी वस्तुओं को गले में बाँधने के समान है, तलवार की धार पर चलने के समान है। १२९-णो खलु कप्पइ जाया ! समणाणं निग्गंथाणं आहाकम्मिए वा, उद्देसिए वा, कीयगडे वा, ठवियए वा, रइयए वा, दुब्भिक्खभत्ते वा, कंतारभत्ते वा, वद्दलियाभत्ते वा, गिलाणभत्ते वा, मूलभोयणे वा, कंदभोयणे वा, फलभोयणे वा, बीयभोयणे वा, हरियभोयणे वा भोत्तए वा पायए वा / तुमं च णं जाया ! सुहसमुचिए पो चेव णं दुहसमुचिए / णालं सीयं, णालं उण्हं, णालं खह, णालं पिवासं, णालं वाइयपित्तियसिभियसन्निवाइयविविहे रोगायंके उच्चावए गामकंटए बावीसं परीसहोवसग्गे उदिन्ने सम्म अहियासित्तए / भुजाहि ताव जाया! माणस्सए कामभोगे, तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि / हे पुत्र ! निर्ग्रन्थ श्रमणों को प्राधाकर्मी, औद्देशिक, क्रीतकृत (खरीद कर बनाया हुआ), Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] स्थापित (साधु के लिए रख छोड़ा हुआ), रचित (मोदक आदि के चूर्ण को पुनः साधु के लिए मोदक आदि रूप में तैयार किया हुआ), दुर्भिक्षभक्त (साधु के लिए दुर्भिक्ष के समय बनाया हुआ भोजन), कान्तारभक्त (साधु के निमित्त अरण्य में बनाया आहार), वर्दलिका भक्त (वर्षा के समय उपाश्रय में आकर बनाया भोजन), ग्लानभक्त (रुग्ण गृहस्थ नीरोग होने की कामना से दे, वह भोजन), आदि दूषित पाहार ग्रहण करना नहीं कल्पता है / इसी प्रकार मुल का भोजन, कंद का भोजन, फल का भोजन, शालि आदि बीजों का भोजन अथवा हरित का भोजन करना भी नहीं कल्पता है। इसके अतिरिक्त हे पुत्र ! तू सुख भोगने योग्य है, दुःख सहने योग्य नहीं है / तू सर्दी सहने में समर्थ नहीं, गर्मी सहने में समर्थ नहीं है / भूख नहीं सह सकता, प्यास नहीं सह सकता, वात, पित्त, कफ और सन्निपात से होने वाले विविध रोगों (कोढ़ आदि) को तथा अातंकों (अचानक मरण उत्पन्न करने वाले शूल आदि) को, ऊँचे-नीचे इन्द्रिय-प्रतिकुल वचनों को, उत्पन्न हुए बाईस परीषहों को और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार सहन नहीं कर सकता / अतएव हे लाल ! तू मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोग / बाद में भुक्तभोग होकर श्रमण भगवान महावीर के निकट प्रव्रज्या अंगीकर करना / १३०–तए णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वृत्ते समाणे अम्मापियरं एवं वयासो-तहेव णं तं अम्मयाओ ! जंणं तुन्भे ममं एवं वयह–'एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे० पुणरवि तं चेव जाव तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि / ' एवं खलु अम्मयाओ! निग्गथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिबद्धाणं परलोगनिप्पिवासाणं दुरणुचरे पाययजणस्स, णो चेव णं धीरस्स / निच्छियवसियस्स एत्थं कि दुक्कर करणयाए ? तं इच्छामि गं अम्मयाओ ! तुबभेहि अब्भन्नाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइत्तए। / तत्पश्चात् माता-पिता के इस प्रकार कहने पर मेधकुमार ने माता-पिता से इस प्रकार कहा--हे माता-पिता ! आप मुझे यह जो कहते हैं सो ठीक है कि--हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन सत्य है, सर्वोत्तम है, आदि पूर्वोक्त कथन यहाँ दोहरा लेना चाहिए; यावत् बाद में भुक्तभोग होकर प्रव्रज्या अंगीकार कर लेना / परन्तु हे माता-पिता ! इस प्रकार यह निर्ग्रन्थ प्रवचन क्लीब-हीन संहनन वाले, कायर-चित्त की स्थिरता से रहित, कुत्सित, इस लोक सम्बन्धी विषयसुख की अभिलाषा करने वाले, परलोक के सुख की इच्छा न करने वाले सामान्य जन के लिए ही दुष्कर है। धीर एवं दृढ संकल्प वाले पुरुष को इसका पालन करना कठिन नहीं है। इसका पालन करने में कठिनाई क्या है ? अतएव हे माता-पिता ! आपकी अनुमति पाकर मैं श्रमण भगवान् महावीर के निकट प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ। एक दिवस का राज्य 131- तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो जाहे नो संचाइंति बहूहि विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकुलाहि य आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विन्नवणाहाहि य आघवित्तए वा, पन्नवित्तए वा सन्नवित्तए वा विन्नवित्तए वा, ताहे अकामए चेव मेहं कुमारं एवं वयासी- 'इच्छामो ताव जाया ! एगदिवसमवि ते रायसिरि पासित्तए।' Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा / तत्पश्चात् जब माता-पिता मेघकुमार को विषयों के अनुकूल और विषयों के प्रतिकूल बहुतसी पाख्यापना, प्रज्ञापना और विज्ञापना से समझाने, बुझाने, सम्बोधन करने और विज्ञप्ति करने में समर्थ न हुए, तब इच्छा के विना भी मेघकुमार से इस प्रकार बोले---'हे पुत्र ! हम एक दिन भी तुम्हारी राज्यलक्ष्मी देखना चाहते हैं / अर्थात् हमारी इच्छा है कि तुम एक दिन के लिए राजा बन जाओ।' १३२-तए णं से मेहे कुमारे अम्मापियरमणुवत्तमाणे तुसिणीए संचिट्ठइ / तब मेधकुमार माता-पिता (की इच्छा) का अनुसरण करता हुआ मौन रह गया। राज्याभिषेक १३३–तए णं सेणिए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं क्यासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! मेहस्स कुमारस्स महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायाभिसेयं उवट्ठवेह / तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव (महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायाभिसेयं) उवट्ठवेन्ति / तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों-सेवकों को बुलवाया और बुलवा कर ऐसा कहा-'देवानुप्रियो ! मेघकुमार का महान् अर्थ वाले, बहुमूल्य एवं महान् पुरुषों के योग्य विपुल राज्याभिषेक (के योग्य सामग्री) तैयार करो।' तत्पश्चात् कौटुन्बिक पुरुषों ने यावत् (महार्थ, बहुमूल्य, महान् पुरुषों के योग्य, विपुल) राज्याभिषेक की सव सामग्री तैयार की। १३४–तए णं सेणिए राया बहूहि गणणायग-दंडणायगेहि य जाव' संपरिवडे मेहं कुमार अट्ठसएणं सोनियाणं कलसाणं, रुप्पमयाणं कलसाणं, सुवण्ण-रुप्पमयाणं कलसाणं, मणिमयागं कलसाणं, सुवन्न-मणिमयाणं कलसाणं, रुप्प-मणिमयाणं कलसाणं, सुवन्न-रुप्प-मणिमयाणं कलसाणं, भोमेज्जाणं कलसाणं सवोदएहिं सव्वमट्टियाहिं सवपुप्फेहि सव्वगंधेहिं सव्वमल्लेहि सव्वोसहिहि य, सिद्धत्थएहि य, सब्बिड्डीए सव्वजुईए सव्वबलेणं जाव दुंदुभि-निग्घोस-णादियरवेणं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचइ, अभिसिंचित्ता करयल जाव परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी --- ___ तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने बहुत से गणनायकों एवं दंडनायकों आदि से परिवृत होकर मेघकुमार को, एक सौ पाठ सुवर्ण कलशों, इसी प्रकार एक सौ आठ चाँदी के कलशों, एक सौ पाठ स्वर्ण-रजत के कलशों, एक सौ आठ मणिमय कलशों, एक सौ आठ स्वर्ण-मणि के कलशों, एक सौ पाठ रजत-मणि के कलशों, एक सौ आठ स्वर्ण-रजत-मणि के कलशों और एक सौ आठ मिट्टी के कलशों--इस प्रकार आठ सौ चौसठ कलशों में सब प्रकार का जल भरकर तथा सब प्रकार की मृत्तिका से, सब प्रकार के पुष्पों से, सब प्रकार के गंधों से, सब प्रकार की मालाओं से, सब प्रकार की औषधियों से तथा सरसों से उन्हें परिपूर्ण करके, सर्व समृद्धि, द्युति तथा सर्व सैन्य के साथ, दुदुभि के निर्घोष की प्रतिध्वनि के शब्दों के साथ उच्चकोटि के राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया। अभिषेक करके श्रेणिक राजा ने दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर अंजलि घुमाकर यावत् इस प्रकार कहा १३५-'जय जय गंदा ! जय जय भद्दा ! जय णंदा भई ते, अजियं जिणेहि, जियं पालयाहि, 1. प्र. सूत्र 30 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात] जियमज्झे वसाहि, अजियं जिणेहि सत्तुपक्खं, जियं च पालेहि मित्तपयखं, जाव इंदो इव देवाणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, चंदो इव ताराणं, भरहो इव मणुयाणं रायगिहस्स नगरस्स अग्नेसि च बहूणं गामागरनगर जाव खेड-कब्बड-दोणमुह-मडंव-पट्टण-आसम-निगम-संवाह-संनिवेसाणं आहेवच्चं जाव पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेगावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाय-नट्ट-गीत-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुइंग-पडुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहराहि' त्ति कटु जयजयसई पउंजंति / / तए णं से मेहे राया जाए महया जाव' विहरइ / 'हे नन्द ! तुम्हारी जय हो, जय हो / हे भद्र ! तुम्हारी जय हो, जय हो / हे जगन्नन्द (जगत् को आनन्द देने वाले) ! तुम्हारा भद्र (कल्याण) हो / तुम न जीते हुए को जीतो और जीते हुए का पालन करो। जितों-प्राचारवानों के मध्य में निवास करो / नहीं जीते हुए शत्रुपक्ष को जीतो। जीते हुए मित्रपक्ष का पालन करो / यावत् देवों में इन्द्र, असुरों में चमरेन्द्र, नागों में धरण ताराओं में चन्द्रमा एवं मनुष्यों में भरत चक्री की भांति राजगृह नगर का तथा दूसरे बहुतेरे ग्रामों, आकरों, नगरों यावत् खेट, कर्वट, द्रोणमुख, मडंब, पट्टन, आश्रम, निगम, संवाह और सन्निवेशों का आधिपत्य यावत् नेतृत्व आदि करते हुए विविध वाद्यों, गीत, नाटक आदि का उपयोग करते हुए विचरण करो।' इस प्रकार कहकर श्रेणिक राजा ने जय-जयकार किया। तत्पश्चात् मेघ राजा हो गया और पर्वतों में महाहिमवन्त की तरह शोभा पाने लगा। 136. तए णं तस्स मेहस्स रण्णो अम्मापियरो एवं वयासी—'भण जाया ! कि दलयामो ? किं पयच्छामो ? किं वा ते हियइच्छिए सामत्थे (मते) ? तत्पश्चात् माता-पिता ने राजा मेघ से इस प्रकार कहा---'हे पुत्र ! बतानो, तुम्हारे किस अनिष्ट को दूर करें अथवा तुम्हारे इष्ट-जनों को क्या दें ? तुम्हें क्या दें ? तुम्हारे चित्त में क्या चाहविचार है ? संयमोपकरण की मांग 137. तए णं से मेहे राया अम्मापियरं एवं क्यासी-'इच्छामि णं अम्मयाओ ! कुत्तियावणाओ रयहरणं पडिग्गहं च उवणेह, कासवयं च सद्दावेह / ' तब राजा मेघ ने माता-पिता से इस प्रकार कहा---'हे माता-पिता! मैं चाहता हूँ कि कुत्रिकापण (जिसमें सब जगह की सब वस्तुएं मिलती हैं, उस अलौकिक देवाधिष्ठित दुकान) से रजोहरण और पात्र मंगवा दीजिए और काश्यप-नापित को बुलवा दीजिए। 138. तए णं से सेगिए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ / सदाबेत्ता एवं बयासो—'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सिरिघराओ तिन्नि सयसहस्साइं गहाय दोहिं सयसहस्सेहि कुत्तियावणाओ रयहरणं पडिग्गहगं च उवणेह, सयसहस्सेणं कासवयं सद्दावेह / ' तए णं ते कोडुबियपुरिसा सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा सिरिघराओ तिन्नि 1. प्रोपपातिक सूत्र 14 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66] [ ज्ञाताधर्मकथा सयसहस्साई गहाय कुत्तियावणाओ दोहि सयसहस्सेहि रयहरणं पडिग्गहं च उवणेन्ति, सयसहस्सेणं कासवयं सद्दावेन्ति / तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाया / बुलवाकर इस प्रकार कहा---'देवानुप्रियो ! तुम जानो, श्रीगृह (खजाने) से तीन लाख स्वर्ण-मोहरें लेकर दो लाख से कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र ले आओ तथा एक लाख देकर नाई को बुला लायो। तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष, राजा श्रेणिक के ऐसा कहने पर हृष्ट-तुष्ट होकर श्रीगृह से तीन लाख मोहरे लेकर कुत्रिकापण से, दो लाख से रजोहरण और पात्र लाये और एक लाख मोहरें देकर उन्होंने नाई को बुलवाया। वीक्षा की तैयारी 139. तए णं से कासवए तेहिं कोडुबियपुरिसेहि सहाविए समाणे हठे जाव (हद्वतुट्ठ-चित्तमाणदिए जाव हरिसवसविसप्पमाणहियए) हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाइं वत्थाई मंगलाई पवरपरिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे जेणेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता सेणियं रायं करयलमंजलि कटु एवं वयासी—'संदिसह णं देवाणुप्पिया ! जं मए करणिज्ज / ' तए णं से सेणिए राया कासवयं एवं वयासी-'गच्छाहि णं तुमं देवाणुप्पिया ! सुरभिणा गंधोदएणं णिक्के हत्थपाए पक्खालेह / सेयाए चउप्फालाए पोत्तीए मुहं बंधेत्ता मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवज्जे णिक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे कप्पेहि / ' तत्पश्चात् कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाया गया वह नाई हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् उसका हृदय आनन्दित हुआ। उसने स्नान किया, बलिकर्म (गृहदेवता का पूजन) किया, मषी-तिलक आदि कौतुक, दही दुर्वा आदि मंगल एवं दुःस्वप्न का निवारण रूप प्रायश्चित्त किया। साफ और राजसभा में प्रवेश करने योग्य मांगलिक और श्रेष्ठ वस्त्र धारण किये। थोड़े और बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को विभूषित किया। फ़िर जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ आया / प्राकर, दोनों हाथ जोड़कर श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहा--'हे देवानुप्रिय ! मुझे जो करना है, उसकी आज्ञा दीजिए।' __ तब श्रेणिक राजा ने नाई से इस प्रकार कहा--'देवानुप्रिय ! तुम जाओ और सुगंधित गंधोदक से अच्छी तरह हाथ पैर धो लो। फिर चार तह वाले श्वेत वस्त्र से मुंह बाँधकर मेघकुमार के बाल दीक्षा के योग्य चार अंगुल छोड़कर काट दो।' 140. तए णं से कासवए सेणिएणं रण्णा एवं वृत्ते समाणे हद्वतुट्ठ जाव हियए जाव पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता सुरभिणा गंधोदएणं हत्थपाए पक्खालेइ, पक्खालित्ता सुद्धवत्थेणं मुहं बंधति, बंधित्ता परेणं जत्तेणं मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवज्जे णिक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे कप्पइ / ___ तत्पश्चात् वह नापित श्रेणिक राजा के ऐसा कहने पर हृष्ट-तुष्ट और पानन्दितहृदय हुआ | उसने यावत श्रेणिक राजा का आदेश स्वीकार किया। स्वीकार करके सुगंधित गंधोदक से हाथ-पैर धोए / हाथ-पैर धोकर शुद्ध वस्त्र से मुह बाँधा / बाँधकर बड़ी सावधानी से मेघकुमार के चार अंगुल छोड़कर दीक्षा के योग्य केश काटे / Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [ 67 १४१-तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया महरिहेणं हंसलक्खणेणं पडसाडएणं अम्गकेसे पडिच्छइ / पडिच्छित्ता सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेति, पक्खालिता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चाओ दलयति, दलइत्ता सेयाए पोत्तीए बंधेद, बंधित्ता रयणसमग्गयंसि पक्खिवड, पक्खिवित्ता मंजसाए पविखवइ, पक्खिवित्ता हार-वारिधार-सिन्दवार-छिन्नमृत्तावलि-पगासाई अंसई विणिम्मयमाणी विणिम्मुयमाणी रोयमाणी रोयमाणी कंदमाणी कंदमाणी विलवमाणी विलवमाणी एवं क्यासी-'एस णं अम्हं मेहस्स कुमारस्स अब्भुदएसु य उस्सवेसु य पसवेसु य तिहीसु य छणेसु य जन्तेसु य पव्वणीसु य अपच्छिमे दरिसणे भविस्सइ त्ति कटु उस्सीसामूले ठवेइ / उस समय मेघकुमार की माता ने उन केशों को बहुमूल्य और हंस के चित्र वाले उज्ज्वल वस्त्र में ग्रहण किया। ग्रहण करके उन्हें सुगंधित गंधोदक से धोया / फिर सरस गोशीर्ष चन्दन उन पर छिडका / छिड़क कर उन्हें श्वेत वस्त्र में बाँधा / बाँध कर रत्न की डिबिया में रखा। रख उस डिबिया को मंजूषा (पेटी) में रखा। फिर जल की धार, निर्गुडी के फूल एवं टूटे हुए मोतियों के हार के समान अश्रुधारा प्रवाहित करती-करती, रोती-रोती, अाक्रन्दन करती-करती और विलाप करती-करती इस प्रकार कहने लगी-'मेधकुमार के केशों का यह दर्शन राज्यप्राप्ति आदि अभ्युदय के अवसर पर, उत्सव (प्रियसमागम) के अवसर पर, प्रसव (पुत्रजन्म आदि) के अवसर पर, तिथियों के अवसर पर, इन्द्रमहोत्सव आदि के अवसर पर, नागपूजा आदि के अवसर पर तथा कार्तिकी पूर्णिमा आदि पों के अवसर पर हमें अन्तिम दर्शन रूप होगा। तात्पर्य यह है कि इन केशों का दर्शन, केशरहित मेधकुमार का दर्शन रूप होगा। इस प्रकार कहकर धारिणी ने वह पेटी अपने सिरहाने के नीचे रख ली। १४२–तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो उत्तरावक्कमणं सोहासणं रयावन्ति / मेहं कुमारं दोच्चं पि तच्चं पि सेयपीयहि कलसेहिं व्हावेन्ति, व्हावेत्ता पम्हलसुकुमालाए गंधकासाइयाए गायाई लहेन्ति, लहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिपति, अणुलिपित्ता नासानीसासवायवोझंजाव [वरपट्टणुग्गयं कुसलणरपसंसितं अस्सलालापेलवं छेयायरियकणगखचियंतकम्मं] हंसलक्खणं पडगसाडगं नियंसेन्ति, नियंसित्ता हारं पिणद्धति, पिणद्धित्ता अद्धहारं पिणद्धति, पिणद्वित्ता एगावलि मुत्तालि कणगावलि रयणालि पालंबं पायपलंबं कडगाई तुडिगाई केऊराई अंगयाई दसमुद्दियार्णतयं कडिसुत्तयं कुडलाई चूडामणि रयणुक्कडं मउडं पिणद्धंति, पिणद्वित्ता दिव्वं सुमणदाम पिणद्धति, पिणद्वित्ता दद्दरमलयसुगंधिए गंधे पिणद्धति / तत्पश्चात् मेघकुमार के माता-पिता ने उत्तराभिमुख सिंहासन रखवाया। फिर मेघकुमार को दो-तीन बार श्वेत और पीत अर्थात् चाँदी और सोने के कलशों से नहलाया। नहला कर रुएँदार और अत्यन्त कोमल गंधकाषाय (सुगंधित कषायले रंग से रंगे) वस्त्र से उसके अंग पोंछे / पोंछकर सरस गोशीर्ष चन्दन से शरीर पर विलेपन किया। विलेपन करके नासिका के निश्वास की वायु से भी उड़ने योग्य-अति बारीक [श्रेष्ठ पट्टन में निर्मित, कुशल जनों द्वारा प्रशंसित, अश्व के मुख से निकलने वाले फेन के समान कोमल, कुशल कारीगरों ने जिनके किनारे स्वर्ण-खचित किये हैं] तथा हंस-लक्षण वाला (हंस के चिह्न वाला अथवा हंस के सदृश श्वेत) वस्त्र पहनाया। पहनाकर अठारह लड़ों का हार पहनाया, नौ लड़ों का अर्द्धहार पहनाया, फिर एकावली, मुक्तावली, कनकावली, , Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68] [ ज्ञाताधर्मकथा रत्नावली, प्रालंब (कंठी) पादप्रलम्ब (पैरों तक लटकने वाला प्राभूषण), कड़े, तुटिक (भुजा का आभूषण), केयूर, अंगद, दसों उंगलियों में दस मुद्रिकाएँ, कंदोरा, कुडल, चूडामणि तथा रत्नजटित मुकुट पहनाये / यह सब अलंकार पहनाकर पुष्पमाला पहनाई। फिर दर्दर में पकाए हुए चन्दन के सुगन्धित तेल की गंध शरीर पर लगाई। विवेचन-दर्दर-मिट्टी के घड़े का मुह कपड़े से बाँध कर अग्नि की ग्रांच से तपाकर तैयार किया गया तेल अत्यन्त सुगंधयुक्त होता है और उसका गुणकारी तन्व प्रायः सुरक्षित रहता है। १४३–तए णं तं मेहं कुमारं गठिम-वेढिम-पूरिम-संधाइमेणं चउठिवहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिव अलंकियविभूसियं करेन्ति / तत्पश्चात् मेघकुमार को सूत से गूथी हुई, पुष्प आदि से बेढ़ी हुई, बांस की सलाई प्रादि से पूरित की गई तथा वस्तु के योग से परस्पर संघात रूप की हुई--इस तरह चार प्रकार की पुष्पमालाओं से कल्पवृक्ष के समान अलंकृत और विभूषित किया। २४४–तए णं से सेणिए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणेगखंभसयसन्निविट्ठ लीलठ्ठियसालभंजियागं ईहाभिग-उसभ-तुरय-नर-मगरवहग-बालग-किन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुंजर-वणलय-पउमलय-भत्तिचित्तं घंटावलिमहर-मणहरसरं सुभकंत-दरिसणिज्जं निउणोचियमिसिमिसंतमणि-रयणघंटियाजालपरिक्खित्तं खंभुग्गयवइरबेइयापरिगयाभिरामं विज्जाहरजमलजंतजुत्तं पिव अच्चीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिभिसमाणं चक्खुल्लोयणलेस्सं सुहफासं सस्सिरीयरूवं सिग्धं तुरियं चवलं वेइयं पुरिससहस्सवाहिणि सीयं उवठ्ठवेह / ' तत्पश्चात् राजा श्रेणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा-देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही एक शिविका तैयार करो जो अनेक सैकड़ों, स्तंभों से बनी हो, जिसमें क्रीड़ा करती हुई पुतलियाँ बनी हों, ईहामृग (भेड़िया), वृषभ, तुरग-घोड़ा, नर, मगर, विहम, सर्प, किन्नर, रुरु (काले मृग), सरभ (अष्टापद), चमरी गाय, कुञ्जर, वनलता और पद्मलता आदि के चित्रों की रचना से युक्त हो, जिससे घंटियों के समूह के मधुर और मनोहर शब्द हो रहे हों, जो शुभ, मनोहर और दर्शनीय हो, जो कुशल कारीगरों द्वारा निमित्त देदीप्यमान मणियों और रत्नों की घघरुओं के समुह से व्याप्त हो, स्तंभ पर बनी हुई वेदिका से युक्त होने के कारण जो मनोहर दिखाई देती हो, जो चित्रित विद्याधर-युगलों से शोभित हो, चित्रित सूर्य की हजार किरणों से शोभित हो, इस प्रकार हजारों रूपों वाली, देदीप्यमान, अतिशय देदीप्यमान, जिसे देखते नेत्रों की तृप्ति न हो, जो सुखद स्पर्श वाली हो, सश्रीक स्वरूप वाली हो, शीघ्र त्वरित चपल और अतिशय चपल हो, अर्थात् जिसे शीघ्रतापूर्वक ले जाया जाये और जो एक हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाती हो। १४५-तए णं ते कोडुबियपुरिसा हट्ठतुट्ठा जाव उवट्ठवेन्ति / तए णं से मेहे कुमारे सीयं दुरूहइ, दुरूहित्ता सौहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने। वे कौटुम्बिक पुरुष हृष्ट-तुष्ट होकर यावत् शिविका (पालकी) उपस्थित करते हैं / तत्पश्चात् Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात 1 मेघकुमार शिविका पर प्रारूढ हुमा और सिंहासन के पास पहुँचकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ गया। 146. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया व्हाया कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा सीयं दुरूहति / दुरूहित्ता मेहस्स कुमारस्स दाहिणे पासे भद्दासणंसि निसीयति / __ तए णं मेहस्स कुमारस्स अंबधाई रयहरणं च पडिग्गहं च गहाय सोयं दुरूहइ, दुरूहिता मेहस्स कुमारस्स वामे पासे भद्दासणंसि निसोयति / तत्पश्चात् जो स्नान कर चुकी है, बलिकर्म कर चुकी है यावत् अल्प और बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत कर चुकी है, ऐसी मेघकुमार की माता उस शिविका पर आरूढ हुई / प्रारूढ होकर मेघकुमार के दाहिने पार्श्व में भद्रासन पर बैठी। तत्पश्चात् मेघकुमार की धायमाता रजोहरण और पात्र लेकर शिविका पर प्रारूढ होकर मेघकुमार के बायें पार्श्व में भद्रासन पर बैठ गई / 147. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिटूओ एगा वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा संगय-गयहसिय-भणिय- चेट्ठिय-विलास-संलावुल्लाव-निउणजुत्तोवयारकुसला, आमेलग-जमल-जुयल-वट्टियअन्भुन्नय-पीण-रइय-संठियपओहरा, हिम-रययकुन्देन्दुपगासं सकोरंटमल्लदामधवलं आयवत्तं गहाय सलीलं ओहारेमाणी ओहारेमाणी चिट्ठा। तत्पश्चात् मेधकुमार के पीछे शृगार के आगार रूप, मनोहर वेष वाली, सुन्दर गति, हास्य, वचन, चेष्टा, विलास, संलाप (पारस्परिक वार्तालाप), उल्लाप (वर्णन) करने में कुशल, योग्य उपचार करने में कुशल, परस्पर मिले हुए, समश्रेणी में स्थित, गोल, ऊँचे, पुष्ट, प्रीतिजनक और उत्तम आकार के स्तनों वाली एक उत्तम तरुणी, हिम (बर्फ), चाँदी, कुन्दपुष्प और चन्द्रमा के समान प्रकाश वाले, कोरंट के पुष्पों की माला से युक्त धवल छत्र को हाथों में थामकर लोलापूर्वक खड़ी हुई। 148. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स दुवे वरतरुणोओ सिंगारागारचारुवेसाओ जाव कुसलाओ सीयं दुरूहति, दुरूहित्ता मेहस्स कुमारस्स उभओ पासं नाणामणि-कणग-रयण-महरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तदंडाओ चिल्लियाओ सुहमवरदीहवालाओ संख-कुद-दग-रयअ-महियफेणपुंजसन्निगासाओ चामराओ गहाय सलीलं ओहारेमाणीओ ओहारेमाणीओ चिट्ठति / तत्पश्चात् मेघकुमार के समीप शृगार के प्रागार के समान, सुन्दर वेष वाली, यावत् उचित उपचार करने में कुशल दो श्रेष्ठ तरुणियां शिविका पर आरूढ हुईं / आरूढ होकर मेधकुमार के दोनों पाश्वों में, विविध प्रकार के मणि सुवर्ण रत्न और महान् जनों के योग्य, अथवा बहुमूल्य तपनीयमय (रक्तवर्ण स्वर्ण वाले) उज्ज्वल एवं विचित्र दंडी वाले, चमचमाते हुए, पतले उत्तम और लम्बे बालों वाले, शंख कुन्दपुष्प जलकण रजत एवं मंथन किये हुए अमृत के फेन के समूह सरीखे (श्वेत वर्ण वाले) दो चामर धारण करके लीलापूर्वक वींजती-वींजती हुई खड़ी हुई। 149. तए णं तस्स मेहकुमारस्स एगा वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा जाव कुसला सीयं Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 ] [ज्ञाताधर्मकथा जाव दुरूहइ / दुरूहित्ता मेहस्स कुमारस्स पुरतो पुरथिमेणं चंदप्पभ-वइर-वेरुलिय-विमलदंडं तालावट गहाय चिट्ठइ। तत्पश्चात् मेघकुमार के समीप शृगार के प्रागार रूप यावत् उचित उपचार करने में कुशल एक उत्तम तरुणो यावत् शिविका पर आरूढ हुई। आरूड होकर मेघकुमार के पास पूर्व दिशा के सन्मुख चन्द्रकान्त मणि वज्ररत्न और वैडूर्यमय निर्मल दंडी वाले पंखे को ग्रहण करके खड़ी हुई / 150. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स एगा वरतरुणी जाव सुरूवा सीयं दुरूहइ, दुहिता मेहस्स कुमारस्स पुव्वदक्खिणेणं सेयं रययामयं विमलसलिलपुन्नं मत्तगयमहामुहाकिइसमाणं भिगारं गहाय चिट्ठइ। तत्पश्चात् मेधकुमार के समीप एक उत्तम तरुणी यावत् सुन्दर रूप वाली शिविका पर आरूढ हुई / प्रारूढ होकर मेधकुमार से पूर्वदक्षिण-आग्नेय-दिशा में श्वेत रजतमय निर्मल जल से परिपूर्ण, मदमाते हाथी के बड़े मुख के समान प्राकृति वाले भगार (झारी) को ग्रहण करके खड़ी हुई। 151. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-- 'खिप्पामेव भो देवाणु पिया ! सरिसयाणं सरिसत्तयाणं सरिसव्वयाणं एगाभरणगहियनिज्जोयाणं कोडुबियवरतरुणाणं सहस्सं सद्दावेह / ' जाव सद्दावेन्ति / तए णं कोडुबियवरतरुणपुरिसा सेणियस्स रन्नो कोडुबियपुरिसेहि सद्दाविया समाणा हट्ठा व्हाया जाव एगाभरणगहियनिज्जोया जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छति / उवाच्छित्ता सेणियं रायं एवं वयासी-'संदिसह णं देवाणुप्पिया ! जं णं अम्हेहि करणिज्ज / तत्पश्चात् मेघकुमार के माता-पिता ने कौटुम्विक पुरुषों को बुलाया / बुला कर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही एक सरीखे, एक सरीखी त्वचा (कान्ति) वाले, एक सरीखी उम्र वाले तथा एक सरीखे आभूषणों से समान वेष धारण करने वाले एक हजार उत्तम तरुण कौटुम्बिक पुरुषों को बुलायो।' यावत् उन्होंने एक हजार पुरुषों को बुलाया। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाये गये वे एक हजार श्रेष्ठ तरुण सेवक हृष्ट-तुष्ट हुए / उन्होंने स्नान किया, यावत् एक से आभूषण पहन कर समान पोशाक पहनी। फिर जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ आये। प्राकर श्रेणिक राजा से इस प्रकार बोले हे देवानुप्रिय ! हमें जो करने योग्य है, उसके लिए प्राज्ञा दीजिए। 152. तए णं से सेणिए तं कोडुबियवरतरुणसहस्सं एवं वयासी—'गच्छह णं देवाणुप्पिया ! मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणि सीयं परिवहेह / तए णं तं कोडुबियवरतरुणसहस्सं सेणिएणं रण्णा एवं वुत्तं संतं हढं तुळं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणि सीयं परिवहति / तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने उन एक हजार उत्तम तरुण कौटुम्बिक पुरुषों से कहा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात] [71 देवानुप्रियो ! तुम जानो और हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य मेघकुमार की पालकी को वहन करो। तत्पश्चात् वे उत्तम तरुण हजार कौटुम्बिक पुरुष श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए और हजार पुरुषों द्वारा बन करने योग्य मेघकुमार की शिविका को वहन करने लगे। 153. तए गं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरुढस्स समाणस्स इमे अट्ठट्ठमंगलया तप्पढमयाए पुरतो अहाणुपुवीए संपट्ठिया / तंजहा--(१) सोस्थिय (2) सिरिवच्छ (3) नंदियावत्त (4) वद्धमाणग (5) भद्दासण (6) कलस (7) मच्छ (8) दप्पणया जाव' बहवे अत्यत्थिया जाव कामत्थिया भोगस्थिया लाभत्थिया किब्बिसिया कारोडिया कारवाहिया संखिया चक्किया नंगलिया मुहमंगलिया बद्धमाणा पूसमाणया खंडियगणा ताहि इटाहि जाव' अणवरयं अभिणंदता य एवं वयासी तत्पश्चात् पुरुषसहस्रवाहिनी शिविका पर मेघकुमार के प्रारूढ होने पर, उसके सामने सर्वप्रथम यह पाठ मंगलद्रव्य अनुक्रम से चले अर्थात् चलाये गये / वे इस प्रकार हैं-(१) स्वस्तिक (2) श्रीवत्स (3) नंदावर्त (4) वर्धमान (सिकोरा या पुरुषारूढ पुरुष या पाँच स्वस्तिक या विशेष प्रकार का प्रासाद) (5) भद्रासन (6) कलश (7) मत्स्य और (8) दर्पण / बहुत से धन के अर्थी (याचक) जन, कामार्थी, भोगार्थी, लाभार्थी, भांड यादि, कापालिक अथवा ताम्बूलवाहक, करों से पीडित, शंख बजाने वाले, चाक्रिक-चक्र नामक शस्त्र हाथ में लेने वाले या कुभार.तेली आदि लांगलिक-गले में हल के आकार का स्वर्णाभूषण पहनने वाले, मुखमांगलिक-मीठी-मीठी बातें करने वाले, वर्धमान-अपने कंधे पर पुरुष को बिठाने वाले, पूष्यमानव-मागध- स्तुतिपाठक, खण्डिक - गण- छात्रसमुदाय उसका इष्ट प्रिय मधुर वाणी से अभिनन्दन करते हुए कहने लगे-- 154. 'जय जय गंदा ! जय जय भद्दा ! जयणंदा ! भई ते, अजियाइं जिणाहि इंदियाई, जियं च पालेहि समणधम्मं, जियविग्धोऽवि य साहितं देव ! सिद्धिमज्झे, निहणाहि रागबोसमल्ले तवेणं धिइधणियबद्धकच्छे, महाहि य अट्ठकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं अप्पमत्तो, पावय वितिमिरमणुत्तरं केवलं नाणं, गच्छ य मोक्खं परमपयं सासयं च अयलं हंता परीसहचमु णं अभीओ परोसहोवसग्गाणं, धम्मे ते अविग्धं भवउ' त्ति कट्ठ पुणो पुणो मंगलजयजयसई पउंजति / हे नन्द ! जय हो, जय हो, हे, भद्र जय हो, जय हो! हे जगत् को आनन्द देने वाले ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम नहीं जीती हुई पाँच इन्द्रियों को जीतो और जीते हुए (प्राप्त किये) साधुधर्म का पालन करो। हे देव ! विघ्नों को जीत कर सिद्धि में निवास करो। धैर्यपूर्वक कमर कस कर, तप के द्वारा राग-द्वेष रूपी मल्लों का हनन करो। प्रमादरहित होकर उत्तम शक्लध्यान के द्वारा पाठ कर्म रूपी शत्रुओं का मर्दन करो। अज्ञानान्धकार से रहित सर्वोत्तम केवलज्ञान को प्राप्त करो। परीषह रूपी सेना का हनन करके, परीषहों और उपसर्गों से निर्भय होकर शाश्वत एवं अचल परमपद रूप मोक्ष को प्राप्त करो। तुम्हारे धर्मसाधन में विघ्न न हो। इस प्रकार कह कर वे पुनः पुनः मंगलमय 'जयजय' शब्द का प्रयोग करने लगे। 1. औप 64-68, 2. प्र. अ. 18. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] [ज्ञाताधर्मकथा 155. तए णं से मेहे कुमारे रायगिहस्स नगरस्स मझमझेणं निम्गच्छइ / निग्गच्छित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सोयाओ पच्चोरुहइ। तत्पश्चात् मेघकुमार राजगृह के बीचों-बीच होकर निकला। निकल कर जहाँ गुणशील चैत्य था, वहां आया / आकर पुरुषसहस्रवाहिनी पालकी से नीचे उतरा / 156. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं पुरओ कटटु जेणामेब समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेन्ति / करित्ता वंदंति, नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी 'एस णं देवाणुप्पिया ! मेहे कुमारे अम्हं एके पुत्ते (इ8 कंते जाव पिये मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए) जीवियऊसासए हिययणंदिजणए उंबरपुप्फमिव दुल्लहे सवणयाए किमंग पुण दरिसणयाए ? से जहानामए उप्पलेइ वा, पउमेइ वा, कुमुदेइ वा, पंके जाए जले संवढिए नोवलिप्पइ पंकरएणं, गोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव मेहे कुमारे कामेसु जाए भोगेसु संवुड्ढे, नोवलिप्पइ कामरएणं, नोवलिप्पइ भोगरएणं, एस णं देवाणुप्पिया ! संसारभउविग्गे, भीए जम्मणजरमरणाणं, इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए / अम्हे णं देवाणुप्पियाणं सिस्सभिक्खं दलयामो / पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सभिक्खं / ___ तत्पश्चात् मेधकुमार के माता-पिता मेघकुमार को आगे करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ आते हैं / आकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार दक्षिण तरफ से प्रारंभ करके प्रदक्षिणा करते हैं / करके वन्दन करते हैं, नमस्कार करते हैं / वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहते हैं हे देवानुप्रिये ! यह मेघकुमार हमारा इकलौता पुत्र है। (यह हमें इष्ट है, कान्त है, प्रिय, मनोज्ञ, मणाम-विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत, आभूषणों के पिटारे के समान, रत्न, रत्न जैसा) प्राणों के समान और उच्छ्वास के समान है। हृदय को आनन्द प्रदान करने वाला है। गूलर के पुष्प के समान इसका नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है तो दर्शन की बात क्या है ? जैसे उत्पल (नील कमल), पद्म (सूर्यविकासी कमल) अथवा कूमद (चन्द्रविकासी कमल) कीच में उत्पन्न होता है और जल में वृद्धि पाता है, फिर भी पंक की रज से अथवा जल की रज (कण) से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार मेघकुमार कामों में उत्पन्न हुआ और भोगों में वृद्धि पाया है, फिर भी काम-रज से लिप्त नहीं हुआ, भोगरज से लिप्त नहीं हुमा / हे देवानुप्रिय ! यह मेधकुमार संसार के भय से उद्विग्न हुया है और जन्म जरा मरण से भयभीत हुआ है। अत: देवानुप्रिय (ग्राप) के समीप मुडित होकर, गहत्याग करके साधुत्व की प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता है। हम देवानुप्रिय को शिष्यभिक्षा देते हैं / हे देवानुप्रिय ! आप शिष्यभिक्षा अंगीकार कीजिए। 157. तए णं से समणे भगवं महावीरे मेहस्स कुमारस्स अम्मापिहिं एवं वुत्ते समाणे एयमट्ठ सम्म पडिसुणेइ। तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवक्कमइ / अवक्कमित्ता सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुयइ / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [73 तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने मेघकुमार के माता-पिता द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर इस अर्थ (बात) को सम्यक् प्रकार से स्वीकार किया। तत्पश्चात् मेघकुमार श्रमण भगवान् महावीर के पास से उत्तरपूर्व अर्थात् ईशान दिशा के भाग में गया / जाकर स्वयं ही प्राभूषण, माला और अलंकार (वस्त्र) उतार डाले / 158. तए णं से मेहकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरण-मल्लालंकारं पडिच्छइ / पडिच्छित्ता हार-वारिधार-सिंदुवार-छिन्नमुत्तावलिपगासाइं अंसूणि विणिम्मुयमाणो विणिम्मु यमाणी रोयमाणी रोयमाणी कंदमाणी कंदमाणी विलवमाणी विलवमाणी एवं वयासी 'जइयव्वं जाया ! घडियव्वं जाया! परक्कमियव्वं जाया ! अस्सि च णं अट्ठे नो पमाएयव्वं / अम्हं पि णं एसेव मग्गे भवउ' त्ति कटु मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीरं वदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसि पाउब्भूया तामेव दिसि पडिगया। तत्पश्चात् मेघकुमार की माता ने हंस के लक्षण वाले अर्थात् धवल और मृदुल वस्त्र में आभूषण, माल्य और अलंकार ग्रहण किये। ग्रहण करके हार, जल की धारा, निर्गुडी के पुष्प और टूटे हुए मुक्तावली-हार के समान अश्रु टपकाती हुई, रोती-रोती, प्राक्रन्दन करती-करती और विलाप करती-करती इस प्रकार कहने लगी 'हे लाल ! प्राप्त चारित्रयोग में यतना करना, हे पुत्र ! अप्राप्त चारित्रयोग के लिए घटना करना--प्राप्त करने का यत्न करना, हे पुत्र ! पराक्रम करना। संयम-साधना में प्रमाद न करना, 'हमारे लिए भी यही मार्ग हो', अर्थात् भविष्य में हमें भी संयम अंगीकार करने का सुयोग प्राप्त हो / इस प्रकार कह कर मेघकुमार के माता-पिता ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन नमस्कार किया। वन्दन नमस्कार करके जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में लौट गये। प्रव्रज्याग्रहण 159 --तए णं से मेहे कुमारे सयमेब पंचमुठियं लोयं करेइ / करित्ता जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ / करित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी __ 'आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, आलित्तपलिते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य। से जहानामए केई गाहावई आगारंसि झियायमाणंसि जे तत्थ भंडे भवइ अप्पभारे मोल्लगुरुए, तं गहाय आयाए एगंतं अवक्कमइ, एस मे णिस्थारिए समाणे पच्छा पुरा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ। एवामेव मम वि एगे आयाभंडे इठे कंते पिए मणुन्ने मणामे, एस मे णिस्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सइ / तं इच्छामि गं देवाणुप्पियाहिं सयमेव पवावियं, सयमेव मुंडावियं, सेहावियं, सिक्खावियं, सयमेव आयार-गोयर-विणय-वेणइय-चरण-करण-जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं / ' तत्पश्चात् मेघकुमार ने स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया / लोच करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ आया। पाकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा की / फिर वन्दन-नमस्कार किया और कहा Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74] [ज्ञाताधर्मकथा भगवन ! यह संसार जरा और मरण से (जरा-मरण रूप अग्नि से) प्रादीप्त है, यह संसार प्रदीप्त है / हे भगवन् ! यह संसार प्रादीप्त-प्रदीप्त है / जैसे कोई गाथापति अपने घर में आग लग जाने पर, उस घर में जो अल्प भार वाली और बहुमूल्य वस्तु होती है उसे ग्रहण करके स्वयं एकान्त में चला जाता है / वह सोचता है कि 'अग्नि में जलने से बचाया हुआ यह पदार्थ मेरे लिए आगेपीछे हित के लिए, सुख के लिए, क्षमा (समर्थता) के लिए, कल्याण के लिए और भविष्य में उपयोग के लिए होगा / इसी प्रकार मेरा भी यह एक आत्मा रूपी भांड (वस्तु) है, जो मुझे इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है और अतिशय मनोहर है। इस आत्मा को मैं निकाल लूगा-जरा-मरण की अग्नि में भस्म होने से बचा लुगा, तो यह संसार का उच्छेद करने वाला होगा / अतएव मैं चाहता हूँ कि देवानुप्रिय (आप) स्वयं ही मुझे प्रवजित करें-मुनिवेष प्रदान करें, स्वयं ही मुझे मुडित करेंमेरा लोच करें, स्वयं ही प्रतिलेखन आदि सिखावें, स्वयं ही सूत्र और अर्थ प्रदान करके शिक्षा दें, स्वयं ही ज्ञानादिक आचार, गोचरी, विनय, वैनयिक (विनय का फल), चरणसत्तरी, करणसत्तरी, संयमयात्रा और मात्रा (भोजन का परिमाण) आदि स्वरूप वाले धर्म का प्ररूपण करें। विवेचन-मूलपाठ में आये चरणसत्तरी और करणसत्तरी का तात्पर्य है चरण के सत्तर भेद और करण के सत्तर भेद / साधु जिन नियमों का निरन्तर सेवन करते हैं, उनको चरण या चरणगुण कहते हैं और प्रयोजन होने पर जिनका सेवन किया जाता है, वे करण या करणगुण कहलाते हैं / चरण से सत्तर भेद इस प्रकार हैं वय-समणधम्म-संजम-वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तव-कोहनिग्गहाइ चरणभेयं / / -- प्रोपनियुक्तिभाष्य, गाथा 2. अर्थात् पाँच महाव्रत, दस प्रकार का क्षमा आदि श्रमणधर्म, सतरह प्रकार का संयम, आचार्य आदि का दस प्रकार का वैयावृत्य, नौ ब्रह्मचर्यगुप्तियाँ, तीन ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना, बारह प्रकार का तप, चार प्रकार का कषायनिग्रह / करण के सत्तर भेद इस प्रकार हैं--- पिंडविसोही समिई, भावण-पडिमा य इंदियनिरोहो। पडिलेहण-गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु // -अोधनियुक्तिभाष्य, गाथा 3. आहार, वस्त्र, पात्र और शय्या (उपाश्रय) की विशुद्ध गवेषणा, पाँच समितियाँ, अनित्यता आदि बारह भावनाएँ, बारह प्रतिमाएँ, पाँच इन्द्रियनिग्रह, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना,तीन गुप्तियां और चार प्रकार के अभिग्रह / १६०--तए णं समणं भगवं महावीरे सयमेव पवावेइ, सयमेव आयार जाव धम्ममाइक्खइ'एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं चिठ्यिव्वं णिसीयब्वं तुट्टियन्वं भुजियव्वं भासियव्वं, एवं उठाए उठाय पाणेहि भूएहिं जीवेहि सत्तेहि संजमेणं संजमियध्वं, अस्सि च णं अट्ठे णो पमाएयव्वं / ' तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उबएस Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [75 णिसम्म सम्म पडिवज्जइ / तमाणाए तह गच्छइ, तह चिट्ठा, जाव उट्ठाए ऊट्ठाय पार्णाहं भूएहि जोवेहि सत्तेहिं संजमइ / नत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने मेधकुमार को स्वयं ही प्रव्रज्या प्रदान की और स्वयं ही यावत् प्राचार-गोचर आदि धर्म की शिक्षा दी / वह इस प्रकार हे देवानुप्रिय ! इस प्रकारपृथ्वी पर युग मात्र दृष्टि रखकर चलना चाहिए, इस प्रकार-निर्जीव भूमि पर खड़ा होना चाहिए, इस प्रकार-भूमि की प्रमार्जना करके बैठना चाहिए, इस प्रकार--सामायिक का उच्चारण करके शरीर की प्रमार्जना करके शयन करना चाहिए, इस प्रकार वेदना प्रादि कारणों से निर्दोष आहार करना चाहिए, इस प्रकार--हित-मित और मधुर भाषण करना चाहिए / इस प्रकार--अप्रमत्त एवं सावधान होकर प्राण (विकलेन्द्रिय), भूत (वनस्पतिकाय), जीव (पंचेन्द्रिय) और सत्त्व (शेष एकेन्द्रिय) की रक्षा करके संयम का पालन करना चाहिए / इस विषय में तनिक भी प्रमाद नहीं करना चाहिए / तत्पश्चात् मेघकुमार ने श्रमण भगवान महावीर के निकट इस प्रकार का धर्म सम्बन्धी यह उपदेश सुनकर और हृदय में धारण करके सम्यक् प्रकार से उसे अंगीकार किया / वह भगवान की प्राज्ञा के अनुसार गमन करता, उसी प्रकार बैठता यावत् उठ-उठ कर अर्थात् प्रमाद और निद्रा त्याग करके प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की यतना करके संयम का पाराधन करने लगा। मेघकुमार का उद्वेग १६१–जं दिवसं च णं मेहे कुमारे मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तस्स णं दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि समणाणं निग्गंथाणं अहाराइणियाए सेज्जासंथारएसु विभज्जमाणेसु मेहकुमारस्स दारमूले सेज्जासंथारए जाए यावि होत्था / तए णं समणा निग्गंथा पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोगचिताए य उच्चारस्स य पासवणस्स य अइगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगइया मेहं कुमारं हत्थेहि संघटॅति, एवं पाहि, सीसे पोट्ट कायंसि, अप्पेगइया ओलंडेन्ति, अप्पेगइया पोलंडेन्ति, अप्येगइया पायरयरेणुगुडियं करेन्ति / एवं महालियं च णं रणि मेहे कुमारे णो संचाएइ खणमवि अच्छि निमोलित्तए। जिस दिन मेघकुमार ने मुडित होकर गृहवास त्याग कर चारित्र अंगीकार किया, उसी दिन के सन्ध्याकाल में रात्निक क्रम से अर्थात् दीक्षापर्याय के अनुक्रम से, श्रमण निर्ग्रन्थों के शय्यासंस्तारकों का विभाजन करते समय मेघकुमार का शय्या-संस्तारक द्वार के समीप हुआ। तत्पश्चात् श्रमण निर्ग्रन्थ अर्थात् अन्य मुनि रात्रि के पहले और पिछले समय में वाचना के लिए, पच्छना के लिए, परावर्तन (श्रुत की आवृत्ति) के लिए, धर्म के व्याख्यान का चिन्तन करने के लिए, उच्चार (बड़ी नीति) के लिए एवं प्रस्रवण (लघु नीति) के लिए प्रवेश करते थे और बाहर निकलते थे। उनमें से किसी-किसी साधु के हाथ का मेघकुमार के साथ संघट्टन हुअा, इसी प्रकार किसी के पैर की मस्तक मे और किसी के पैर की पेट से टक्कर हुई। कोई-कोई मेघकुमार को लांघ कर निकले और किसी-किसी ने दो-तीन बार लांघा / किसी-किसी ने अपने पैरों की रज से उसे भर दिया या पैरों के वेग से उड़ती हुई रज से वह भर गया। इस प्रकार लम्बी रात्रि में मेघकुमार क्षण भर भी आँख बन्द नहीं कर सका। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा १६२-तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव [चितिए पत्थिए मणोगते संकप्पे] समप्पज्जित्था एवं खल अहं सेणियस्स रन्नो प्रत्ते, धारिणीए देवीए अत्तए मेहे जाव' सवणयाए, तं जया णं अहं अगारमज्झे वसामि, तया णं मम समणा निग्गंथा आढायंति, परिजाणंति, सक्कारेंति, संमाणेति, अट्ठाई हेऊई पसिणाइं कारणाई वागरणाई आइक्खंति, इठ्ठाहिं कंताहिं वग्गूहिं आलवेन्ति, संलवेन्ति, जप्पभिई च णं अहं मुंडे भवित्ता अगाराणो अणगारियं पव्वइए, तप्पभियं च णं मम समणा नो आढायंति जाव नो संलवन्ति / अदुत्तरं च णं मम समणा निग्गंथा राओ पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए जाव महालियं च णं रत्ति नो संचाएमि अच्छि निमिलावेत्तए / तं सेयं खलु मज्झं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जावतेयसा जलंते समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमज्झे वसित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ / संपेहित्ता अट्टदुहट्टवसट्टमाणसगए णिरयपडिरूवियं च णं तं रणि खवेइ, खवित्ता कल्लं पाउप्पभायाए सुविमलाए रयणीए' जाव तेयसा जलते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ / करित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जाव' पज्जुवासइ / तब मेघकुमार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय चिन्तन, प्रार्थित एवं मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ 'मैं श्रेणिक राजा का पुत्र और धारिणी देवी का आत्मज(उदरजात) मेघकुमार हूँ / अर्थात् [इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ मणाम हूँ, मेरा दर्शन तो दूर] गूलर के पुष्प के समान मेरा नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है / जब मैं घर में रहता था, तब श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे, 'यह कुमार ऐसा है' इस प्रकार जानते थे, सत्कार-सन्मान करते थे, जीवादि पदार्थों को, उन्हें सिद्ध करने वाले हेतुओं को, प्रश्नों को, कारणों को और व्याकरणों (प्रश्न के उत्तरों) को कहते थे और बार-बार कहते थे / इष्ट और मनोहर वाणी से मेरे साथ पालाप-संलाप करते थे। किन्तु जब से मैंने मुडित होकर, गृहवास से निकलकर साधु-दीक्षा अंगीकार की है, तब से लेकर साधु मेरा आदर नहीं करते, यावत् पालापसंलाप नहीं करते / तिस पर भी वे श्रमण निर्ग्रन्थ पहली और पिछली रात्रि के समय वाचना, पृच्छना आदि के लिए जाते-आते मेरे संस्तारक को लांघते हैं और मैं इतनी लम्बी रात भर में आँख भी न मीच सका / अतएव कल रात्रि के प्रभात रूप होने पर यावत् तेज से जाज्वल्यमान होने पर (सूर्योदय के पश्चात्) श्रमण भगवान् महावीर से प्राज्ञा लेकर पुनः गृहवास में वसना ही मेरे लिए अच्छा है।' मेधकुमार ने ऐसा विचार किया। विचार करके आर्तध्यान के कारण दुःख से पीड़ित और विकल्प क्त मानस को प्राप्त होकर मेघकूमार ने वह रात्रि नरक की भाँति व्यतीत की। रात्रि व्यतीत करके प्रभात होने पर, सूर्य के तेज से जाज्वल्यमान होने पर, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ पाया। पाकर तीन वार आदक्षिण प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके भगवान् को वन्दन किया, नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके यावत् (न बहुत निकट, न बहुत दूर-समुचित स्थान पर स्थित होकर विनय-पूर्वक) भगवान की पर्युपासना करने लगा। विवेचन साधु-संस्था साम्यवाद की सजीव प्रतीक है। उसमें गहस्थावस्था की सम्पन्नताअसम्पन्नता के प्राधार पर किसी भी प्रकार का भेद नहीं होता / आगमों में उल्लेख मिलता है कि चक्रवर्ती सम्राट के दास का भी दास यदि पहले दीक्षित हो चुका है और उसके पश्चात् स्वयं चक्रवर्ती दीक्षित होता है तो वह उस पर्यायज्येष्ठ पूर्वावस्था के दास के दास को भी उसी प्रकार 1. प्र. अ. सूत्र 156 2. प्र. अ. सूत्र 161 3-4 प्र.अ. सूत्र 28, 5. प्र. अ. सूत्र 113, Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [77 वन्दन-नमस्कार करता है जैसे अन्य ज्येष्ठ मुनियों को। इस प्रकार साधु की दृष्टि में भौतिक सम्पत्ति का मूल्य नहीं होता, केवल यात्मिक वैभव-रत्नत्रय का ही महत्व होता है। इसी नीति के अनुसार मेघ मुनि को सोने के लिए स्थान दिया गया था / १६३--तए णं 'मेहा' इ समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं एवं बयासी--'से पूणं तुम मेहा! राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि समणेहिं निग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए जाव' महालियं च णं राई णो संचाएमि मुहत्तमवि अच्छि निमीलावेत्तए' तए णं तुम्भं मेहा ! इमे एयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था—'जया णं अहं अगारमझे वसामि तया णं मम समणा निग्गंथा आढायंति जाब' परियाणति, जम्पभिई च णं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वयामि, तप्पभिई च णं मम समणा णो आढायंति, जाव नो परियाणंति / अदुत्तरं च णं समणा निग्गंथा राओ अप्पेगइया वायणाए जाव पाय-रय-रेणुगुडियं करेन्ति / तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए समणं भगवं महावीर आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमज्झे आवसित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेसि / संपेहित्ता अट्टदुहट्टवसट्टमाणसे जाव णिरयपडिरूवियं च णं तं रणि खवेसि / खवित्ता जेणामेव अहं तेणामेव हन्दमागए। से नणं मेहा ! एस अट्ठे समठे ?' 'हंता अढे समझें / ' तत्पश्चात् 'हे मेघ' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने मेघकुमार से इस प्रकार कहा–'हे मेघ ! तुम रात्रि के पहले और पिछले काल के अवसर पर, श्रमण निर्ग्रन्थों के वाचना पृच्छना आदि के लिए आवागमन करने के कारण, लम्बी रात्रि पर्यन्त थोड़ी देर के लिए भी आँख नहीं मीच सके / मेघ ! तब तुम्हारे मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हया-जब मैं गहवास में निवास करता था, तब श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा अादर करते थे यावत मझे जानते थे: परन्त जब से मैंने मुडित होकर, गृहवास से निकल कर साधुता की दीक्षा ली है, तब से श्रमण निर्ग्रन्थ न मेरा आदर करते हैं, न मुझे जानते हैं। इसके अतिरिक्त श्रमण रात्रि में कोई वाचना के लिए यावत् (पृच्छना आदि के लिए) आते-जाते मेरे बिस्तर को लांघते हैं यावत् मुझे पैरों की रज से भरते हैं। अतएव मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि कल प्रभात होने पर श्रमण भगवान् महावीर से पूछ कर मैं पुनः गहवास में बसने लगूं।' तुमने इस प्रकार का विचार किया है। विचार करके प्रार्तध्यान के कारण दुःख से पीडित एवं संकल्प-विकल्प से युक्त मानस वाले होकर नरक की तरह (वेदना में) रात्रि व्यतीत की है / रात्रि व्यतीत करके शीघ्रतापूर्वक मेरे पास आए हो। हे मेघ ! यह अर्थ समर्थ है--- मेरा यह कथन सत्य है ?' मेघकुमार ने उत्तर दिया-जी हाँ, यह अर्थ समर्थ है-प्रभो ! आपका कथन यथार्थ है / प्रतिबोध : पूर्वभवकथन १६४-एवं खलु मेहा ! तुम इओ तच्चे अईए भवग्गहणे वेयड्ढगिरिपायमूले वणयरेहि णिव्वत्तियणामधेज्जे सेए संखदलउज्जल-विमल-निम्मल-दहिघण-गोखीरफेण-रयणियर (दगरयरययणियर )प्पयासे सतुस्सेहे णवायए दसपरिणाहे सत्तंगपइटिठए सोमे समिए सुरुवे पुरतो उदग्गे समूसियसिरे सुहासणे पिट्ठओ वराहे अयाकुच्छो अच्छिद्दकुच्छी अलंबकुच्छी पलंबलंबोदराहरकरे 1. प्र. अ. सूत्र 161 2-3 प्र.अ.सूत्र 161, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78] [ ज्ञाताधर्मकथा धणुपट्ठागिइ-विसिट्ठपुळे अल्लोण-पमाणजुत्त-वट्टिया-पीवर-गत्तावरे अल्लोण-पमाणजुत्तपुच्छे पडिपुन्न-सुचारु-कुम्मचलणे पंडुर-सुविसुद्ध-निद्ध-णिरुवहय-विसतिनहे छइंते सुमेरुप्पभे नामं हत्थिराया होत्था। भगवान् बोले हे मेघ ! इससे पहले अतोत तीसरे भव में वैताढय पर्वत के पादमूल में (तलहटी में) तुम गजराज थे / वनचरों ने तुम्हारा नाम 'सुमेरुप्रभ' रक्खा था / उस सुमेरुप्रभ का वर्ण श्वेत था। संख के दल (चूर्ण) के समान उज्ज्वल, विमल, निर्मल, दही के थक्के के समान, गाय के दूध के फेन के समान (या गाय के दूध और समुद्र के फेन के समान) और चन्द्रमा के समान (या जलकण और चाँदी के समूह के समान) रूप था। वह सात हाथ ऊँचा और नौ हाथ लम्बा था। मध्यभाग दस हाथ के परिमाण वाला था / चार पैर, सूड, पूछ और जननेन्द्रिय. ... यह सात अंग प्रतिष्ठित अर्थात् भूमि को स्पर्श करते थे। सौम्य, प्रमाणोपेत अंगों वाला, सुन्दर रूप वाला, आगे से ऊँचा, ऊँचे मस्तक वाला, शुभ या सुखद आसन (स्कन्ध आदि) वाला था। उसका पिछला भाग वराह (शूकर) के समान नीचे झुका हुआ था। इसकी कूख बकरी की कूख जैसी थी और वह छिद्रहीन थी-उसमें गड़हा नहीं पड़ा था तथा लम्बी नहीं थी। वह लम्बे उदर वाला, लम्बे होठ वाला और लम्बी सूड वाला था। उसकी पीठ खींचे हुए धनुष के पृष्ठ जैसी आकृति वाली थी। उसके अन्य अवयव भलीभाँति मिले हुए, प्रमाणयुक्त, गोल एवं पुष्ट थे। पूछ चिपकी हुई तथा प्रमाणोपेत थी। पैर कछुए जैसे परिपूर्ण और मनोहर थे। बीसों नाखुन श्वेत, निर्मल, चिकने और निरुपहत थे / छह दाँत थे। १६५--तत्थ णं तुम मेहा ! बाहिं हत्थीहि य हस्थिणोहि य लोट्टएहि य लोट्टियाहि य कलभेहि य कलभियाहि य सद्धि संपरिवुड़े हथिसहस्सणायए देसए पागट्ठी पठ्ठवए जूहवई वंदपरिवड्ढए अन्नेसि च बहूणं एकल्लाणं हथिकलभाणं आहेबच्चं जाव पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहरसि / हे मेघ ! वहां तुम बहुत से हाथियों, हथनियों, लोट्टको (कुमार अवस्था वाले हाथियों), लोटिकाओं, कलभों (हाथी के बच्चों) और कलभिकाओं से परिवृत होकर एक हजार हाथियों के नायक, मार्गदर्शक, अगुवा, प्रस्थापक (काम में लगाने वाले), यूथपति और यूथ की वृद्धि करने वाले थे। इनके अतिरिक्त अन्य बहुत-से अकेले हाथी के बच्चों का आधिपत्य करते हुए, स्वामित्व, नेतृत्व करते हुए एवं उनका पालन-रक्षण करते हुए विचरण कर रहे थे। १६६-तए णं तुम मेहा ! णिच्चप्पमत्ते सई पललिए कंदप्परई मोहणसीले अवितण्हे कामभोगतिसिए बहहि हत्थीहि य जाव संपरिबुडे वेयगिरिपायमूले गिरीसु य, दरीसु य, कुहरेसु य, कंदरासु य, उज्झरेसु य, निज्झरेसु य, वियरएसु य, गड्डासु य, पल्ललेसु य, चिल्ललेसु य, कडएसु य, कडयपल्ललेसु य, तडीसु य, वियडीसु य, टंकेसु य, कूडेसु य, सिहरेसु य, पब्भारेसु य, मंचेसु य, मालेसु य, काणणेसु य, वणेसु य, वणसंडेसु य, वणराईसु य, नदीसु य, नदीकच्छेसु य, जूहेसु य, संगमेसु य, बावीसु य, पोक्खरिणोसु य, दीहियासु य, गुंजालियासु य, सरेसु य, सरपंतियासु य, सरसरपंतियासु य, वणयरेहि दिन्नवियारे बहूहि हत्थोहि य जाव सद्धि संपरिवुडे बहुविहतरुपल्लवपउरपाणियतणे निब्भए निरुव्विग्गे सुहंसुहेणं विहरसि। हे मेध ! तुम निरन्तर मस्त, सदा क्रीडापरायण, कंदर्प रति-क्रीडा करने में प्रीति वाले, Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [79 प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] मैथुनप्रिय, कामभोग से अतृप्त और कामभोग की तृष्णा वाले थे / बहुत से हाथियों वगैरह से परिवृत होकर वैताढ्य पर्वत के पादमूल में, पर्वतों में, दरियों (विशेष प्रकार की गुफाओं) में, कुहरों (पर्वतों के अन्तरों) में, कंदराओं में, उज्झरों (प्रपातों) में, झरनों में, विदरों (नहरों) में, गड़हों में, पल्पलों (तलैयों) में, चिल्ललों (कीचड़ वाली तलैयों) में, कटक (पर्वतों के तटों) में, कटपल्लवों (पर्वत की समीपवर्ती तलैयों) में, तटों में, अटवी में, टंकों (विशेष प्रकार के पर्वतों) में, कूटों (नीचे चौड़े और ऊपर सँकड़े पर्वतों) में, पर्वत के शिखरों पर, प्राग्भारों (कूछ के हुए पर्वतों के भागों) में, मंचों (नदी ग्रादि को पार करने के लिए पाटा डाल कर बनाए हुए कच्चे पुलों) पर, काननों में, वनों (एक जाति के वृक्षों वाले बगीचों) में, वनखंडों (अनेक जातीय वृक्षों वाले प्रदेशों) में, वनों की श्रेणियों में, नदियों में, नदीकक्षों (नदी के समीपवर्ती वनों) में, यूथों (वानर आदिकों के निवास स्थानों) में, नदियों के संगमस्थलों में, वापियों (चौकोर बावड़ियों) में, पुष्करणियों (गोल या कमलों वाली बावड़ियों) में, दीधिकारों (लम्बी वावड़ियों) में, गुजालिकानों (वक बावड़ियों) में, सरोवरों में, सरोवरों की पंक्तियों में, सरः-सर पंक्तियों (जहाँ एक सर से दूसरे सर में पानी जाने का मार्ग बना हो ऐसे सरों की पंक्तियों) में, वनचरों द्वारा तुम्हें विचार (विचरण करने की छूट) दी गई थी। ऐसे तुम बहुसंख्यक हाथियों आदि के साथ, नाना प्रकार के तरुपल्लवों, पानी और घास का उपयोग करते हुए निर्भय, और उद्वेगरहित होकर सुख के साथ विचरते थे-रहते थे। १६७-तए ण तुम मेहा ! अन्नया कयाई पाउस-वरिसारत्त-सरय-हेमंत-वसंतेसु कमेण पंचसु उउसु समइक्कतेसु, गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलमासे, पायवघंससमुट्टिएणं सुक्कतण-पत्त-कयवरमारुत-संजोगदीविएणं महाभयंकरेणं हुयवहेणं वणदवजालासंपलितेसु वणंतेसु, घूमाउलासु दिसासु, महावायवेगेणं संघट्टिएसु, छिन्नजालेसु आवयमाणेसु, पोल्लरुक्खेसु अंतो अंतो झियायमाणेसु, मयकुहियविणिविटुकिमियकद्दमनदीवियरगजिण्णपाणीयंतेसु वर्णतेसु भिंगारक-दीण-कंदिय-रवेसु, खरफरुस-अणि?-रिद्ववाहित-विदुमग्गेसु दुमेसु, तण्हावस-मुक्क-पक्ख-पयडियजिब्भ-तालुयअसंपुडिततुंडपक्खिसंघेसु ससंतेसु, गिम्ह-उम्ह-उण्हवाय-खरफरुसचंडमारुय-सुक्कतण-पत्तकयरवाउलि-भमंतदित्तसंभंतसावयाउल-मिगतण्हाबद्धचिण्हपट्टेसु गिरिवरेसु, संवट्टिएसु तत्थ-मिय-पसव-सिरीसवेसु, अवदालियवयणविवरणिल्लालियग्गजीहे, महंततुबइयपुन्नकन्ने, संकुचियथोर-पीवरकरे, ऊसियलंगूले, पीणाइयविरसरडियसद्देणं फोडयंतेव अंबरतलं, पायदद्दरएणं कंपयंतेव मेइणितलं, विणिम्मुयमाणे य सीयार, सव्वओ समंता वल्लिवियाणाइं छिदमाणे, रुक्खसहस्साई तत्थ सुबहूणि णोल्लायंते विणट्टरछे ब्व गरवरिन्दे, वायाइद्धे व्व पोए, मंडलवाए व्व परिन्भमंते, अभिक्खणं अभिक्खणं लिडणियरं पमुचमाणे पच्चमाणे, बहूहि हत्थीहि य जाव' सद्धि दिसोदिसि विप्पलाइत्था / तत्पश्चात् एक बार कदाचित् प्रावृट, वर्षा, शरद्, हेमन्त और वसन्त, इन पांच ऋतुओं के क्रमश: व्यतीत हो जाने पर ग्रीष्म ऋत का समय आया। तब ज्येष्ठ मास में, वक्ष की पापस की रगड़ से उत्पन्न हुई तथा सूखे घास, पत्तों और कचरे से एवं वायु के वेग से प्रदीप्त हुई अत्यन्त भयानक अग्नि से उत्पन्न वन के दावानल की ज्वालाओं से बन का मध्य भाग सुलग उठा / दिशाएँ धुएँ से व्याप्त हो गई / प्रचण्ड वायु-वेग से अग्नि की ज्वालाएँ टूट जाने लगी और चारों ओर गिरने लगीं। पोले वृक्ष भीतर ही भीतर जलने लगे। वन-प्रदेशों के नदी-नालों का जल मृत मृगादिक के शवों से १.प्र. अ.१६५ . Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] [ ज्ञाताधर्मकथा सड़ने लगा-खराब हो गया। उनका कीचड़ कीड़ों से व्याप्त हो गया / उनके किनारों का पानी सूख गया / भृगारक पक्षी दीनता पूर्वक प्राक्रन्दन करने लगे / उत्तम वृक्षों पर स्थित काक अत्यन्त कठोर और अनिष्ट शब्द कांव-कांव करने लगे। उन वृक्षों के अग्रभाग अग्निकणों के कारण मूगे के समान लाल दिखाई देने लगे / पक्षियों के समूह प्यास से पीड़ित होकर पंख ढीले करके, जिह्वा एवं तालु को बाहर निकाल करके तथा मुह फाड़कर सांसें लेने लगे / ग्रीष्मकाल की उष्णता, सूर्य के ताप, अत्यन्त कठोर एवं प्रचंड वायु तथा सूखे घास के पत्तों और कचरे से युक्त बवंडर के कारण भाग-दौड़ करने वाले, मदोन्मत्त एवं घबराए सिंह आदि श्वापदों के कारण पर्वत आकुल-व्याकुल हो उठे / ऐसा प्रतीत होने लगा मानो उन पर्वतों पर मृगतृष्णा रूप पट्टबंध बंधा हो / त्रास को प्राप्त मृग, अन्य पशु और सरीसृप इधर-उधर तड़फने लगे। ___ इस भयानक अवसर पर, हे मेघ ! तुम्हारा अर्थात् तुम्हारे पूर्वभव के सुमेरुप्रभ नामक हाथी का मुख-विवर फट गया। जिह्वा का अग्रभग बाहर निकल पाया। बड़े-बड़े दोनों कान भय से स्तब्ध और व्याकुलता के कारण शब्द ग्रहण करने में तत्पर हुए। बड़ी और मोटी सूड सिकुड़ गई / उसने पूछ ऊँची करली / पीना (मड्डा) के समान विरस अर्राटे के शब्द-चीत्कार से वह आकाशतल को फोड़ता हुआ सा, सीत्कार करता हुग्रा, चहुँ अोर सर्वत्र बेलों के समूह को छेदता हुआ, त्रस्त और बहुसंख्यक सहस्रों वृक्षों को उखाड़ता हुअा, राज्य से भ्रष्ट हुए राजा के समान, वायु से डोलते हुए जहाज के समान और बवंडर (वगडूरे) के समान इधर-उधर भ्रमण करता हुआ एवं बार-बार लींड़ी त्यागता हुआ, बहत-से हाथियों (हथनियों, लोटकों, लोदिकायों, कलभों तथा कलभिकानों) के साथ दिशाओं और विदिशानों में इधर-उधर भागदौड़ करने लगा। १६८-तत्थ णं तुम मेहा ! जुन्ने जराजज्जरियदेहे आउरे झंझिए पिवासिए दुब्बले किलते नट्ठसुइए मूढदिसाए सयाओ जूहाओ विप्पहूणे वणदवजालापारद्धे उण्हेण य, तण्हाए य, छुहाए य परभाहए समाणे भीए तत्थे तसिए उद्विग्गे संजायभए सव्वओ समंता आधावमाणे परिधावमाणे एगं च णं महं सरं अप्पोदयं पंकबहुलं अतित्थेणं पाणियपाए उइन्नो। हे मेघ ! तुम वहाँ जीर्ण, जरा से जजरित देह वाले, व्याकुल, भूखे, प्यासे, दुबले, थके-मांदे, बहिरे तथा दिङ मूढ होकर अपने यूथ (झुड) से बिछुड़ गये। वन के दावानल की ज्वालाओं से गर्मी से, प्यास से और भख से पीडित होकर भय से घबडा गए, त्रस्त हए। तुम्हारा आनन्द-रस शुष्क हो गया। इस विपत्ति से कैसे छुटकारा पाऊँ, ऐसा विचार करके उद्विग्न हुए। तुम्हें पूरी तरह भय उत्पन्न हो गया / अतएव तुम इधर-उधर दौड़ने और खूब दौड़ने लगे / इसी समय अल्प जलवाला और कीचड़ की अधिकता वाला एक बड़ा सरोवर तुम्हें दिखाई दिया / उसमें पानी पीने के लिए बिना घाट के ही तुम उतर गये। १६९-तत्थ णं तुम मेहा ! तीरमइगए पाणियं असंपत्ते अंतरा चेव सेयंसि विसन्ने / तत्थ गं तुम मेहा ! पाणियं पाइस्सामि त्ति कटु हत्थं पसारेसि, से वि य ते हत्थे उदगं न पावेइ / तए णं तुम मेहा ! पुणरवि कार्य पच्चद्धरिस्सामि त्ति कटु बलियतरायं पंकसि खुत्ते। हे मेघ ! वहाँ तुम किनारे से तो दूर चले गये, परन्तु पानी तक न पहुँच पाये और बीच ही में कीचड़ में फंस गये। पराभ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ! [81 हे मेघ ! 'मैं पानी पीऊँ' ऐसा सोचकर वहाँ तुमने अपनी सूड फैलाई, मगर तुम्हारी सूड भी पानी न पा सकी / तब हे मेघ ! तुमने पुनः 'शरीर को कीचड़ से बाहर निकालू' ऐसा विचार कर जोर मारा तो कीचड़ में और गाढ़े फँस गये। १७०--तए णं तुम मेहा ! अन्नया कयाइ एगे चिरनिज्जूढे गयवरजुवाणए सयाओ जूहाओ कर-चरण-दंतमुसल-प्पहारेहि विप्परद्धे समाणे तं चेव महद्दहं पाणीयं पाएउं समोयरेइ / ___तए णं से कलभए तुम पासति, पासित्ता तं पुत्ववेरं समरइ / समरित्ता आसुरुत्ते रु? कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे जेणेव तुमं तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता तुमं तिखेहि दंतमुसलेहि तिक्खुत्तो पिट्ठओ उच्छुभइ / उच्छुभित्ता पुग्ववेरं निज्जाएइ / निज्जाइत्ता हतुळे पाणियं पियइ / पिइत्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडगए। तत्पश्चात् हे मेघ ! एक बार कभी तुमने एक नौजवान श्रेष्ठ हाथी को सूड, पैर और दाँत रूपी मूसलों से प्रहार करके मारा था और अपने झुड में से बहुत समय पूर्व निकाल दिया था / वह हाथी पानी पीने के लिए उसी सरोवर में उतरा। __ उस नौजवान हाथी ने तुम्हें देखा / देखते ही उसे पूर्व वैर का स्मरण हो पाया। स्मरण आते ही उसमें क्रोध के चिह्न प्रकट हुए / उसका क्रोध बढ़ गया। उसने रौद्र रूप धारण किया और वह क्रोधाग्नि से जल उठा / अतएव वह तुम्हारे पास आया / प्राकर तीक्ष्ण दाँत रूपो मूसलों से तीन बार तुम्हारी पीठ वींध दी और बींध कर पूर्व वैर का बदला लिया / बदला लेकर हृष्ट-तुष्ट होकर पानी पीया / पानी पीकर जिस दिशा से प्रकट हुअा था-पाया था, उस दिशा में वापिस लौट गया। १७१-तए णं तव मेहा ! सरीरगंसि वेयणा पाउभवित्था उज्जला विउला तिउला कक्खडा जाव [पगाढा चंडा दुक्खा] दुरहियासा, पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि विहरित्था। तए णं तुम मेहा ! तं उज्जलं जाव [विउलं कक्खडं पगाढं चंडं दुक्खं] दुरहियासं सत्तराइंदियं वेयणं वेएसि; सवीसं वाससयं परमाउं पालइत्ता अट्टवसट्टदुहट्ट कालमासे कालं किच्चा इहेव जंबुद्दोवे भारहे वासे दाहिणड्डभरहे गंगाए महाणदीए दाहिणे कूले विझगिरिपायमूले एगेणं मत्तवरगंधहत्थिमा एगाए गयवरकरेणूए कुच्छिसि गयकलभए जणिए / तए णं सा गयकलभिया णवण्हं मासाणं वसंतमासम्मि तुमं पयाया। तत्पश्चात् है मेध ! तुम्हारे शरीर में वेदना उत्पन्न हुई / वह वेदना ऐसी थी कि तुम्हें तनिक भी चैन न थी, वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त थी और त्रितुला थी (मन वचन काय की तुलना करने वाली थी, अर्थात् उस वेदना में तुम्हारे तीनों योग तन्मय हो रहे थे)। वह वेदना कठोर यावत् बहुत ही प्रचण्ड थी, दुस्सह थी। उस वेदना के कारण तुम्हारा शरीर पित्त-ज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में दाह उत्पन्न हो गया / उस समय तुम इस बुरी हालत में रहे। तत्पश्चात् हे मेध ! तुम उस उज्ज्वल-बेचैन बना देने वाली यावत् [विपुल, कर्कश, प्रगाढ, प्रचंड, दुःखमय एवं दुस्सह वेदना को सात दिन-रात पर्यन्त भोग कर, एक सौ बीस वर्ष की आयु भोगकर, आर्तध्यान के वशीभूत एवं दुःख से पीड़ित हुए / तुम कालमास में (मृत्यु के अवसर पर) काल Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] [ ज्ञाताधर्मकथा करके, इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, दक्षिणार्ध भरत में, गंगा नामक महानदी के दक्षिणी किनारे पर, विन्ध्याचल के समीप एक मदोन्मत्त श्रेष्ठ गंधहस्ती से, एक श्रेष्ठ हथिनी की कूख में हाथी के बच्चे के रूप में उत्पन्न हुए / तत्पश्चात् उस हथिनी ने नौ मास पूर्ण होने पर वसन्त मास में तुम्हें जन्म दिया। १७२-तए णं तुम मेहा ! गम्भवासाओ विप्पमुक्के समाणे गयकलभए यावि होत्था, रत्तुप्पलरत्तसूमालए जासुमणा-रत्तपारिजत्तय-लक्खारस-सरसकुकुम-संझब्भरागवन्ने इठे णियस्स जूहवइणो गणियायारकणेरु-कोत्थ-हत्थी अणेगहत्थिसयसंपरिबुडे रम्मेसु गिरिकाणणेसु सुहंसुहेणं विहरसि / तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम गर्भावास से मुक्त होकर गजकलभक (छोटे हाथी) भी हो गए / लाल कमल के समान लाल और सुकुमार हुए / जवाकुसुम, रक्त वर्ण पारिजात नामक वृक्ष के पुष्प, लाख के रस, सरस कुकुम और सन्ध्याकालीन बादलों के रंग के समान रक्तवर्ण हुए। अपने यूथपति के प्रिय हुए / गणिकाओं जैसी युक्ती हथिनियों के उदर-प्रदेश में अपनी सूड डालते हुए काम-क्रीडा में तत्पर रहने लगे / इस प्रकार सैकड़ों हाथियों से परिवृत होकर तुम पर्वत के रमणीय काननों में सुखपूर्वक विचरने लगे। १७३-तए णं तुम मेहा ! उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमणुपत्ते जूहवइणा कालधम्मुणा संजुत्तेणं तं जूहं सयमेव पडिवज्जसि। हे मेघ ! तुम बाल्यावस्था को पार करके यौवन को प्राप्त हुए। फिर यूथपति के कालधर्म को प्राप्त होने पर-मर जाने पर, तुम स्वयं ही उस यूथ को वहन करने लगे अर्थात् यूथपति हो गये। १७४--तए णं तुमं महा ! वणयरेहि निव्वत्तियनामधेज्जे जाव' चउदंते मेरुप्पमे हस्थिरयणे होत्था / तत्थ णं तुम मेहा ! सत्तगपइट्ठिए तहेव जाव' पडिरूवे / तत्थ णं तुमं मेहा सत्तसइयस्स जूहस्स आहेवच्चं जाव अभिरमेत्था / ___ तत्पश्चात् हे मेघ ! वनचरों ने तुम्हारा नाम मेरुप्रभ रखा / तुम चार दाँतों वाले हस्तिरत्न हुए / हे मेध ! तुम सात अगों से भूमि का स्पर्श करने वाले, अादि पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त यावत् सुन्दर रूप वाले हुए। हे मेघ ! तुम वहां सात सौ हाथियों के यूथ का अधिपतित्व, स्वामित्व, नेतृत्व आदि करते हुए तथा उनका पालन करते हुए अभिरमण करने लगे। हस्ती-भव में जातिस्मरण १७५--तए णं तुम अन्नया कयाइ गिम्हकालसमयंसि जेठामूले वणदव-जालापलितेसु वर्णतेसु सुधूमाउलासु दिसासु जाव मंडलवाए व्व परिब्भमंते भीए तत्थे जाव' संजायभए बहूहि हत्थीहि य जाव कलभियाहि य सद्धि संपरिवुडे सव्वओ समंता दिसोदिसि विप्पलाइत्था / 2. प्र.अ. 164 3. प्र. अ. 165 4. प्र. अ. 167 1. प्र. अ. सूत्र 164 5. प्र.प्र. 168 / Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [83 तए णं तव मेहा! तं वणदवं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झथिए जाव' समुप्पज्जित्था—'कहि णं मन्ने मए अयमेयारूवे अग्गिसंभवे अणभूयपुग्वे / ' तए णं तव मेहा ! लेस्साहि विसुज्झमाणीहि, अज्झवसाणेणं सोहणेणं, सुभेणं परिणामेणं, तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं, ईहापोह-मग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्निपुटवे जाइसरणे समुप्पज्जित्था। ___ तब एक बार कभी ग्रीष्मकाल के अवसर पर ज्येष्ठ मान में, वन के दावानल की ज्वालाओं से वन-प्रदेश जलने लगे। दिशाएँ धूम से व्याप्त हो गई। उस समय तुम बवण्डर की तरह इधर-उधर भागदौड़ करने लगे। भयभीत हुए, व्याकुल हुए और बहुत डर गए। तब बहुत से हाथियों यावत् हथिनियों आदि के साथ, उनसे परिवृत होकर, चारों ओर एक दिशा से दूसरी दिशा में भागे / हे मेघ ! उस समय उस वन के दावानल को देखकर तुम्हें इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन एवं मानसिक विचार उत्पन्न हुअा.---'लगता है जैसे इस प्रकार की अग्नि की उत्पत्ति मैंने पहले भी कभी अनुभव को है।' तत्पश्चात् हे मेघ ! विशुद्ध होती हुई लेश्याओं, शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम और जातिस्मरण को प्रावृत करने वाले (मतिज्ञानावरण) कर्मों का क्षयोपशम होने से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए तुम्हें संज्ञी जीवों को प्राप्त होने वाला जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ। १७६-तए णं तुम मेहा ! एयमढें सम्मं अभिसमेसि--'एवं खलु मया अईए दोच्चे भवग्गहणे इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयड्ढगिरिपायमूले जाव तत्थ णं मया अयमेयारूवे अग्गिसंभवे समणभूए / ' तए णं तुम मेहा ! तस्सेव दिवसस्स पच्चावरण्हकाल-समयंसि नियएणं जूहेणं सद्धि समन्नागए यावि होत्था। तए णं तुमं मेहा ! सत्तुस्सेहे जाव' सन्निजाइस्सरणे चउदंते मेरुप्पभे नाम हत्थी होत्था। तत्पश्चात् मेघ ! तुमने यह अर्थ-वृत्तान्त सम्यक् प्रकार से जान लिया कि-'निश्चय हो मैं व्यतीत हुए दूसरे भव में, इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरतक्षेत्र में, वैताढय पर्वत की तलहटी में सुखपूर्वक विचरता था। वहाँ इस प्रकार का महान् अग्नि का संभव-प्रादुर्भाव मैंने अनुभव किया है।' तदनन्तर हे मेघ ! तुम उस भव में उसी दिन के अन्तिम प्रहर तक अपने यूथ के साथ विचरण करते थे। हे मेघ ! उसके बाद शत्रु हाथी की मार से मृत्यु को प्राप्त होकर दूसरे भव में सात हाथ ऊँचे यावत् जातिस्मरण से युक्त, चार दाँत वाले मेरुप्रभ नामक हाथी हुए। १७७--तए णं तुझं मेहा ! अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था --'तं सेयं खलु मम इयाणि गंगाए महानदीए दाहिणिल्लंसि कूलंसि विझगिरिपायमूले दवम्गिसंजायकारणट्टा सएणं जूहेणं महालयं मंडलं घाइत्तए' ति कट्ट एवं संपेहेसि / संपेहित्ता सुहं सुहेणं विहरसि / / तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम्हें इस प्रकार का अध्यवसाय-चिन्तन, संकल्प उत्पन्न हुआ कि --'मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि इस समय गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे पर विन्ध्याचल की तलहटी में दावानल से रक्षा करने के लिए अपने यूथ के साथ बड़ा मंडल बनाऊँ।' इस प्रकार विचार करके तुम सुखपूर्वक विचरने लगे। 1. प्र. प्र. 162 2. प्र. अ. 166 3. प्र.अ. 164 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84] [ ज्ञाताधर्मकथा मंडल निर्माण 178 तए णं तुम मेहा ! अन्नया पढमपाउसंसि महादिकायंसि सन्निवइयंसि गंगाए महानदीए अदूरसामंते बहूहिं हत्थीहि जाव' कलभियाहि य सत्तहि य हत्थिसएहि संपरिवडे एगं महं जोयणपरिमंडलं महइमहालयं मंडलं घाएसि / जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कळं वा कंटए वा लया वा वल्ली वा खाणु वा रुक्खे वा खुवे वा, तं सव्वं तिक्खुत्तो आहुणिय आहुणिय पाएण उट्ठवेसि, हत्येणं गेहसि, एगते पाडेसि / तए णं तुम मेहा ! तस्सेव मंडलस्स अदूरसामंते गंगाए महानईए दाहिणिल्ले कूले विझगिरिपायमूले गिरिसु य जाव' विहरसि। तत्पश्चात् हे मेघ ! तुमने एक बार कभी प्रथम वर्षाकाल में खूब वर्षा होने पर गंगा महानदी के समीप बहुत-से हाथियों यावत् हथिनियों से अर्थात् सात सौ हाथियों से परिवत होकर एक योजन परिमित बड़े घेरे वाला विशाल मंडल बनाया। उस मंडल में जो कुछ भी घास, पत्ते, काप्ठ, कांटे, लता, बेलें, ठूठ, वृक्ष या पौधे प्रादि थे, उन सबको तीन बार हिला कर पैर से उखाड़ा, सूड से पकड़ा और एक ओर ले जाकर डाल दिया / हे मेघ ! तत्पश्चात् तुम उसी मंडल के समीप गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे, विन्ध्याचल के पादमूल में, पर्वत आदि पूर्वोक्त स्थानों में विचरण करने लगे। १७९-तए णं मेहा ! अन्नया कयाइ मज्झिमए वरिसारत्तंसि महावुटिकायंसि संनिवइयंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि / उवागच्छित्ता दोच्चं पि मंडलं घाएसि / एवं चरिमे वासारत्तंसि महावट्रिकार्यसि सन्निवइयमाणंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि; उवाच्छित्ता तच्चं पि मंडलघायं करेसि / जं तत्थ तणं वा जाव' सुहंसुहेणं विहरसि / तत्पश्चात हे मेघ ! किसी अन्य समय मध्य वर्षा ऋतु में खूब वर्षा होने पर तुम उस स्थान पर गए जहाँ मंडल था / वहाँ जाकर दूसरी बार उस मंडल को ठीक तरह साफ किया। इसी प्रकार अन्तिम वर्षा-रात्रि में भी घोर वष्टि होने पर जहाँ मंडल था, वहाँ गए। जाकर तीसरी बार उस मंडल को साफ किया / वहाँ जो भी घास, पत्ते, काष्ठ, कांटे, लता, बेलें ठूठ, वृक्ष या पौधे उगे थे, उन सबको उखाड़क वचरण करने लगे। १८०--अह मेहा ! तुम गइंदभावम्मि वट्टमाणो कमेणं नलिणिवविवहणगरे हेमंते कुद लोद्ध-उद्धत-तुसारपउरम्मि अइक्कते, अहिणवे गिम्हसमयंसि पत्ते, वियट्टमाणो वणेसु वणकरेणविविह-दिण्ण-कयपसवघाओ तुम उउय-कुसुम कयचामर-कन्नपूर-परिमंडियाभिरामो मयवस-विगसंतकड-तडकिलिन्न-गंधमदवारिणा सुरभिजणियगंधो करेणुपरिवारिओ उउ-समत्त-जणियसोभो काले दिणयरकरपयंडे परिसोसिय-तरुवर-सिहर-भीमतर-दंसणिज्जे भिगाररवंतभेरवरवे गाणाविहपत्तकट्ठ-तण-कयवरुद्धत-पइमारुयाइद्धनयल-दुमगणे वाउलियादारुणयरे तण्हावस-दोससिय-भमंतविविह-सावय-समाउले भीमदरिसणिज्जे वट्टते दारुणम्मि गिम्हे मारुयवसपसर-पसरियवियंभिएणं अन्भहिय-भीम-भेरव-रव-प्पगारेणं महुधारा-पडिय-सित्त-उद्घायमाण-धगधगंत-सदुद्धएणं दित्ततरसफु१. प्र. अ. 1652. प्र. अ. 166 3. प्र. अ. 178 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ! [85 लिगेणं घूममालाउलेणं सावय-सपंतकरणेणं अमहियवदवेणं जालालोबियनिरुद्धधूमंधकारभीओ आयवालोयमहंततुबइयपुन्नकन्नो आकुचिययोर-पोवरकरो भयवस-भयंतदित्तनयणो वेगेण महामेहो व्व पवणोल्लियमहल्लरूवो, जेणेव कओ ते पुरा दवग्गिभयभीहिययेणं अवगयतणप्पएसरुक्खो रुक्खोइसो दवग्गिसंताणकारणट्ठाए जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए / एक्को ताव एस गमो। हे मेघ ! तुम गजेन्द्र पर्याय में वर्त्त रहे थे कि अनुक्रम से कमलिनियों के बन का विनाश करने वाला, कुद और लोध्र के पुष्पों की समृद्धि से सम्पन्न तथा अत्यन्त हिम वाला हेमन्त ऋतु व्यतीत हो गया और अभिनव ग्रोप्म काल या पहँचा / उस समय तुम वनों में विचरण कर रहे थे। वहाँ क्रीडा करते समय बन की हथिनियाँ तुम्हारे ऊपर विविध प्रकार के कमलों एवं पुष्पों का प्रहार करती थीं / तुम उस ऋतु में उत्पन्न पुष्पों के वने चामर जैसे कर्ण के आभूषणों से मंडित और मनोहर थे। मद के कारण विकसित गंडस्थलों को आर्द्र करने वाले तथा झरते हुए सुगन्धित मदजल से तुम सुगन्धमय बन गये थे। हथनियों से घिरे रहते थे / सब तरह से ऋतु सम्बन्धी शोभा उत्पन्न हुई थी। उस ग्रीष्मकाल में सूर्य की प्रखर किरणें पड़ रही थीं। उस ग्रीष्म ऋतु ने श्रेष्ठ वृक्षों के शिखरों को अत्यन्त शुष्क बना दिया था। वह बड़ा ही भयंकर प्रतीत होता था। शब्द करने वाले भंगार नामक पक्षी भयानक शब्द कर रहे थे / पत्र, काष्ठ, तृण और कचरे को उड़ाने वाले प्रतिकूल पवन से प्राकाशतल और वक्षों का समूह व्याप्त हो गया था। वह बवण्डरों के कारण भयानक दीख पड़ता था। प्यास के कारण उत्पन्न वेदनादि दोषों से ग्रस्त हुए और इसी कारण इधर-उधर भटकते हुए श्वापदों (शिकारी जंगली पशुयों) से युक्त था / देखने में ऐसा भयानक ग्रीष्मऋतु, उत्पन्न हुए दावानल के कारण और अधिक दारुण हो गया। वह दावानल वायु के संचार के कारण फैला हुआ और विकसित हुआ था। उसके शब्द का प्रकार अत्यधिक भयंकर था / वृक्षों से गिरने वाले मधु की धाराओं से सिञ्चित होने के कारण वह अत्यन्त वद्धि को प्राप्त हया था, धधकने की ध्वनि से परिव्याप्त था। वह अत्यन्त चमकती हई चिनगा गों से युक्त और धम की कतार से व्याप्त था। सैंकड़ों श्वापदों के प्राणों का अन्त करने वाला था / इस प्रकार तीव्रता को प्राप्त दावानल के कारण वह ग्रीष्मऋतु अत्यन्त भयंकर दिखाई देती थी। हे मेघ ! तुम उस दावानल की ज्वालायों से ग्राच्छादित हो गये, रुक गये- इच्छानुसार गमन करने में असमर्थ हो गये। धुएँ के कारण उत्पन्न हुए अन्धकार से भयभीत हो गये। अग्नि के ताप को देखने से तुम्हारे दोनों कान अरघट्ट के तुब के समान स्तब्ध रह गये / तुम्हारी मोटी और बड़ी सुड सिकूड गई। तुम्हारे चमकते हए नेत्र भय के कारण इधर-उधर फिरते-देख --देखने लगे। जैसे वायु के कारण महामेघ का विस्तार हो जाता है, उसी प्रकार वेग के कारण तुम्हारा स्वरूप विस्तृत दिखाई देने लगा। पहले दावानल के भय से भीतहृदय होकर दावानल से अपनी रक्षा करने के लिए, जिस दिशा में तृण के प्रदेश (मूल आदि) और वृक्ष आदि हटाकर सफाचट प्रदेश बनाया था और जिधर वह मंडल बनाया था, उधर ही जाने का तुमने विचार किया। वहीं जाने का निश्चय किया / यह एक गम है; अर्थात् किसी-किसी प्राचार्य के मतानुसार इस प्रकार का पाठ है / (दूसरा गम इस प्रकार है, अर्थात् अन्य प्राचार्य के मतानुसार पूर्वोक्त पाठ के स्थान पर यह पाठ है जो प्रागे दिया जा रहा है-) Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ज्ञाताधर्मकथा १८१-तए णं तुम मेहा ! अन्नया कयाई कमेणं पंचसु उउसु समइक्कतेसु गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले मासे पायव-संघस-समुट्ठिएणं जाव संवट्टिएसु मिय-पसु-पक्खि-सिरोसिवेसु दिसोदिसि विप्पलाय. माणेसु तेहिं बहूहि हत्थीहि य सद्धि जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए। हे मेघ ! किसी अन्य समय पाँच ऋतुएँ व्यतीत हो जाने पर ग्रीष्मकाल के अवसर पर, ज्येष्ठ मास में, वृक्षों की परस्पर को रगड़ से उत्पन्न हुए दावानल के कारण यावत् अग्नि फैल गई और मृग, पशु, पक्षी तथा सरीसृप ग्रादि भाग-दौड़ करने लगे। तब तुम बहुत-से हाथियों आदि के साथ जहाँ वह मंडल था, वहाँ जाने के लिए दौड़े। १८२-तत्थ णं अण्णे बहवे सीहा य, वग्धा य, विगया, दीविया, अच्छा य, रिछतरच्छा य, पारासरा य, सरभा य, सियाला, विराला, सुणहा, कोला, ससा, कोकंतिया, चित्ता, चिल्लला, पुव्वपविट्ठा, अग्गिभयविद्या एगयओ बिलधम्मेणं चिट्ठति / / तए णं तुम मेहा ! जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छिसि, उवागच्छित्ता तेहि बहूहि सोहेहि जाव चिल्ललएहि य एगयओ बिलधम्मेणं चिट्ठसि / उस मंडल में अन्य बहुत से सिंह, बाघ, भेड़िया, द्वीपिक (चीते), रीछ, तरच्छ, पारासर, शरभ, शृगाल, विडाल, श्वान, शूकर, खरगोश, लोमड़ी, चित्र और चिल्लल आदि पशु अग्नि के भय से घबरा कर पहले ही आ घुसे थे और एक साथ बिलधर्म से रहे हुए थे अर्थात् जैसे एक बिल में बहुत से मकोड़े ठसाठस भरे रहते हैं, उसी प्रकार उस मंडल में भी पूर्वोक्त प्राणी ठसाठस भरे थे। तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम जहाँ मंडल था, वहाँ पाये और पाकर उन बहुसंख्यक सिंह यावत् चिल्लल आदि के साथ एक जगह बिलधर्म से ठहर गये। अनुकम्पा का फल १८३-तए णं तुम मेहा ! पाएणं गत्तं कंडुइस्सामि ति कटु पाए उक्खित्ते, तंसि च णं अंतरंसि अन्नेहि बलवंतेहि सत्तेहि पणोलिज्जमाणे पणोलिज्जमाणे ससए अणुपविट्ठ। तए णं तुम मेहा ! गायं कंडुइत्ता पुणरवि पायं पडिनिक्खमिस्सामि त्ति कटु तं ससयं अणुपविट्ठ पाससि, पासित्ता पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए जीवाणुकंपयाए सत्ताणुकंपयाए से पाए अंतरा चेव संधारिए, नो चेव णं णिक्खित्ते / तए णं मेहा ! ताए पाणाणुकंपयाए जाव सत्ताणुकंपयाए संसारे परित्तीकए, माणस्साउए निबद्धे / तत्पश्चात् हे मेघ ! तुमने 'पैर से शरीर खुजाऊँ ऐसा सोचकर एक पैर ऊपर उठाया। इसी समय उस खाली हुई जगह में, अन्य बलवान् प्राणियों द्वारा प्रेरित-धकियाया हुआ एक शशक प्रविष्ट हो गया। तब हे मेघ ! तुमने पैर खुजा कर सोचा कि मैं पैर नीचे रख, परन्तु शशक को पैर की जगह में घुसा हुआ देखा / देखकर द्वीन्द्रियादि प्राणों को अनुकम्पा से, वनस्पति रूप भूतों की अनुकम्पा से, पंचेन्द्रिय जीवों की अनुकम्पा से तथा वनस्पति के सिवाय शेष चार स्थावर सत्त्वों की अनुकम्पा से वह पैर अधर ही उठाए रखा, नीचे नहीं रखा। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात] [87 हे मेघ ! तब उस प्राणानुकम्पा यावत् (भूतानुकम्पा, जीवानुकम्पा तथा) सत्त्वानुकम्पा से तुमने संसार परीत किया और मनुष्यायु का बन्ध किया। विवेचन-साधारणतया प्राण, भूत, जीव और सत्त्व शब्द एकार्थक हैं तथापि प्रत्येक शब्द की एक विशिष्ट प्रकृति होती है और उस पर गहराई से विचार करने पर एकार्थक शब्द भी भिन्नभिन्न अर्थ वाले प्रतीत होने लगते हैं। इसके अतिरिक्त कहीं-कहीं रूढि अथवा परिभाषा के अनुसार भी शब्दों का विशिष्ट अर्थ नियत होता है। प्राण, भूत आदि शब्दों का यहाँ जो विशिष्ट अर्थ किया गया है वह शास्त्रीय रूढ़ि के आधार पर समझना चाहिए। ऐसा न किया जाय तो सूत्र में प्रयुक्त 'भूयानुकप्पाए' आदि तीन शब्द निरर्थक हो जाएंगे। किन्तु यह भी स्मरण रखना चाहिए कि प्रागमों में क्वचित विभिन्न देशीय शिष्यों की सुगमता के लिए पर्यायवाचक शब्दों का प्रयोग भी उपलब्ध होता है। जीवानुकम्पा एक शुभ भाव है—पुण्य रूप परिणाम है। वह शुभकर्म के बन्ध का कारण होता है। यही कारण है, जिससे मेरुप्रभ हाथी ने मनुष्यायु का बन्ध किया जो एक शुभ कर्मप्रकृति है। शशक एक कोमल काया वाला छोटे कद का प्राणी है—भोला और भद्र / उसे देखते ही सहज रूप में प्रीति उपजती है। प्रागमोक्त विभाजन के अनुसार शशक पंचेन्द्रिय होने से जीव की गणना में ग्राता है। उसकी अनुकम्पा जीवानुकम्पा कही जा सकती है। हाथी के चित्त में उसी के प्रति अनुकम्पा उत्पन्न हुई थी। फिर मूल पाठ में प्राणानुकम्पा, भूतानुकम्पा और सत्त्वानुकम्पा के उत्पन्न होने का उल्लेख कैसे आ गया ? इस प्रश्न का समाधान यह प्रतीत होता है कि शशक के निमित्त से अनुकम्पा का जो भाव उत्पन्न हुआ, वह शशक तक ही सीमित नहीं रहा-विकसित हो गया, व्यापक बनता गया और समस्त प्राणियों तक फैल गया / उसी व्यापक दया-भावना की अवस्था में हाथी ने मनुष्यायु का बंध किया / १८४–तए णं से वणदवे अड्डाइज्जाई राइंदियाई तं वणं झामेइ, झामेत्ता निट्ठिए, उवरए, उवसंते, विज्झाए यावि होत्था / तत्पश्चात् वह दावानल अढ़ाई अहोरात्र पर्यन्त उस धन को जला कर पूर्ण हो गया, उपरत हो गया, उपशान्त हो गया और बुझ गया / 185- तए णं ते बहवे सीहा य जाब चिल्लला य तं वणदवं निट्ठियं जाव विज्झायं पासंति, पासित्ता अग्गिभयविप्पमुक्का तण्हाए य छुहाए य परब्भाहया समाणा तओ मंडलाओ पडिनिक्खमंति / पडिनिक्खमित्ता सव्वओ समंता विप्पसरित्था। तब उन बहुत से सिंह यावत् चिल्ललक आदि पूर्वोक्त प्राणियों ने उन वन-दावानल को पूरा हुया यावत् वुझा हुआ देखा और देखकर वे अग्नि के भय से मुक्त हुए। वे प्यास एवं भूख से पीड़ित होते हुए उस मंडल से बाहर निकले और निकल कर सब दिशाओं और विदिशाओं में फैल गये। 186 तए णं तुम मेहा ! जुन्ने जराजज्जरियदेहे सिढिलवलितयापिणिद्धगत्ते दुब्बले किलते Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88] [ज्ञाताधर्मकथा जुजिए पिवासिए अत्थामे अबले अपरक्कमे अचंकमणे वा ठाणुखंडे वेगेण विप्पसरिस्सामि त्ति कटु पाए पसारेमाणे विज्जुहए विव रययगिरिपन्भारे धरणियलंसि सवंगेहि य सन्निवइए। हे मेध ! उस समय तुम जीर्ण, जरा से जर्जरित शरीर वाले, शिथिल एवं सलों वाली चमड़ी से व्याप्त गात्र वाले दुर्बल, थके हुए, भूखे-प्यासे, शारीरिक शक्ति से हीन, सहारा न होने से निर्बल, सामर्थ्य से रहित और चलने-फिरने की शक्ति से रहित एवं ठूठ की भाँति स्तब्ध रह गये / 'मैं वेग से चल” ऐसा विचार कर ज्यों ही पैर पसारा कि विद्युत् से आघात पाये हुए रजतगिरि के शिखर के समान सभी अंगों से तुम धड़ाम से धरती पर गिर पड़े। पुनर्जन्म १८७-तए णं तव मेहा ! सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव (विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा / पित्तज्जरपरिगयसरोरे) दाहवक्कंतीए यावि विहरसि / तए णं तुम मेहा! तं उज्जलं जाव दुरहियासं तिन्नि राइंदियाई वेयणं वेएमाणे विहरित्ता एगं वाससयं परमाउं पालइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दोवे भारहे वासे रायगिहे नयरे सेणियस्स रन्नो धारिणीए देवीए कुच्छिसि कुमारत्ताए पच्चायाए / तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम्हारे शरीर में उत्कट [विपुल, कर्कश-कठोर, प्रगाढ़, दुःखमय और दुस्सह] वेदना उत्पन्न हुई / शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में जलन होने लगी / तुम ऐसी स्थिति में रहे। तब हे मेघ ! तुम उस उत्कट यावत दस्सह वेदना को तीन रात्रि-दिवस पर्यन्त भोगते रहे। अन्त में सौ वर्ष की पूर्ण प्राय भोगकर इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में राजगृह नगर में श्रेणिक राजा की धारिणी देवी की कूख में कुमार के रूप में उत्पन्न हुए। मृदु उपालंभ १८८-तए णं तुम मेहा ! आणुपुत्वेणं गब्भवासाओ निक्खंते समाणे उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमणुपत्ते मम अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए / तं जई जाव तुम मेहा ! तिरिक्खजोणिय-भावमुवागएणं अप्पडिलद्ध-सम्मत्तरयणलंभेणं से पाए पाणाणुकंपयाए जाव अंतरा चेव संधारिए, नो चेव णं णिक्खित्ते, किमंग पुण तुमं मेहा ! इयाणि विपुलकुलसमुब्भवे णं निरुवहयसरीर-दंतलद्धपंचिदिए णं एवं उट्ठाण-बल-वीरिय-पुरिसगार-परक्कम-संजुत्ते णं मम अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइए समाणे समणाणं निग्गंथाणं राओ पुन्वरत्तावरत्तकालसमयसि वायणाए जाव धम्माणुओर्गाचताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणाण य निग्गच्छमाणाण य हत्थसंघट्टणाणि य पायसंघट्टणाणि य जाव रयरेणुगुडणाणि य नो सम्म सहसि खमसि, तितिक्खिसि, अहियासेसि ? तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम अनुक्रम से गर्भवास से बाहर आये--तुम्हारा जन्म हुआ / बाल्यावस्था से मुक्त हुए और युवावस्था को प्राप्त हुए। तब मेरे निकट मुडित होकर गहवास से (मुक्त हो) अनगार हुए। तो हे मेघ ! जब तुम तिर्यंचयोनि रूप पर्याय को प्राप्त थे और जब तुम्हें सम्यक्त्व-रत्न का लाभ भी नहीं हुआ था, उस समय भी तुमने प्राणियों की अनुकम्पा से प्रेरित होकर Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [89 यावत् अपना पैर अधर ही रखा था, नीचे नहीं टिकाया था, तो फिर हे मेघ ! इस जन्म में तो तुम विशाल कुल में जन्मे हो, तुम्हें उपघात से रहित शरीर प्राप्त हुआ है / प्राप्त हुई पाँचों इन्द्रियों का तुमने दमन किया है और उत्थान (विशिष्ट शारीरिक चेष्टा), बल (शारीरिक शक्ति), वीर्य (आत्मबल) पुरुषकार (विशेष प्रकार का अभिमान) और पराक्रम (कार्य को सिद्ध करने वाले पुरुषार्थ) से युक्त हो और मेरे समीप मुडित होकर गृहवास का त्याग कर अगेही बने हो, फिर भी पहली और पिछली रात्रि के समय श्रमण निर्ग्रन्थ वाचना के लिए यावत् धर्मानुयोग के चिन्तन के लिए तथा उच्चार-प्रस्रवण के लिए आते-जाते थे, उस समय तुम्हें उनके हाथ का स्पर्श हुआ, पैर का स्पर्श हुअा, यावत् रजकणों से तुम्हारा शरीर भर गया, उसे तुम सम्यक् प्रकार से सहन न कर सके ! बिना क्षुब्ध हुए सहन न कर सके ! अदीनभाव से तितिक्षा न कर सके ! और शरीर को निश्चल रख कर सहन न कर सके ! १८९-तए णं तस्स मेहस्स अणगारस्स, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म सुभेहि परिणामेहि, पसत्थेहि अज्झवसाहिं, लेस्साहिं विसुज्झमाणीहि, तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोह-मम्गण-गवेसणं करेमाणस्स सन्निपुत्वे जाइसरणे समुप्पन्ने / एयमढें सम्मं अभिसमेइ। / तत्पश्चात् मेघकुमार अनगार को श्रमण भगवान् महावीर के पास से यह वृत्तान्त सुन-समझ कर, शुभ परिणामों के कारण, प्रशस्त अध्यवसायों के कारण, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के कारण और जातिस्मरण को प्रावृत करने वाले ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम के कारण, ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए, संज्ञी जीवों को प्राप्त होने वाला जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुया / उससे मेघ मुनि ने अपना पूर्वोक्त वृत्तान्त सम्यक् प्रकार से जान लिया। पुनः प्रव्रज्या १९०-तए णं से मेहे कुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुव्वभवे दुगुणाणीयसंवेगे आणंदसुपुन्नमुहे हरिसवसेणं धाराहयकदंबकं पिव समुस्ससियरोमकूवे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी-'अज्जप्पभिई णं भंते ! मम दो अच्छीणि मोत्तूणं अवसेसे काए समणाणं निग्गंथाणं निसठे' त्ति कट्ठ पुणरवि समणं भगवं महावीरं बंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी- 'इच्छामि णं भंते ! इयाणि सयमेव दोच्चं पि पवावियं, सयमेव मुंडावियं जाव' सयमेव आयारगोयरं जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं / ' तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के द्वारा मेघकुमार को पूर्व वृत्तान्त स्मरण करा देने से दुगुना संवेग प्राप्त हुआ। उसका मुख अानन्द के अाँसुग्रों से परिपूर्ण हो गया। हर्ष के कारण मेघधारा से आहत कदंबपुष्प की भाँति उसके रोम विकसित हो गये। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन किया, नमस्कार किया / वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भंते ! आज से मैंने अपने दोनों नेत्र छोड़ कर शेष समस्त शरीर श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए समर्पित किया। इस प्रकार कह कर मेघकुमार ने पुनः श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया / वन्दन१. सूत्र प्र. अ. 159 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 [ज्ञाताधर्मकथा नमस्कार करके इस भाँति कहा-'भगवन् ! मेरी इच्छा है कि अब आप स्वयं ही दूसरी बार मुझे प्रव्रजित करें, स्वयं ही मुडित करें, यावत् स्वयं ही ज्ञानादिक प्राचार, गोचर-गोचरी के लिए भ्रमण यात्रा-पिण्डविशुद्धि आदि संयमयात्रा तथा मात्रा-प्रमाणयुक्त आहार ग्रहण करना, इत्यादि स्वरूप वाले श्रमणधर्म का उपदेश दें।' १९१--तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमार सयमेव पवावेइ जाव जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खइ–'एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं, एवं चिट्टियव्वं एवं णिसीयव्वं, एवं तुट्टियव्वं, एवं भुजियव्वं, एवं भासियव्वं, उट्ठाय उट्ठाय पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमियव्वं / ' तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने मेघकुमार को स्वयमेव पुनः दीक्षित किया, यावत् स्वयमेव यात्रा-मात्रा रूप धर्म का उपदेश दिया। कहा—'हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार गमन करना चाहिए अर्थात् युगपरिमित भूमि पर दृष्टि रख कर चलना चाहिए। इस प्रकार अर्थात् पृथ्वी का मार्जन करके खड़ा होना चाहिए, इस प्रकार अर्थात भमि का प्रमार्जन करके बैठना चाहिए, इस प्रकार अर्थात् शरीर एवं भूमि का प्रमार्जन करके शयन करना चाहिए, इस प्रकार अर्थात् निर्दोष आहार करना चाहिए और इस प्रकार अर्थात भाषासमितिपूर्वक बोलना चाहिए / सावधान रह-रह कर प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की रक्षा रूप संयम में प्रवृत्त रहना चाहिए। तात्पर्य यह है कि मुनि को प्रत्येक क्रिया यतना के साथ करना चाहिए। 192- तए णं से मेहे समणस्स भगवओ महावीरस्स अयमेयारूवं धम्मियं उवएसं सम्म पडिच्छइ, पडिच्छित्ता तह चिट्ठइ जाव संजमेणं संजमइ / तए णं से मेहे अणगारे जाए इरियासमिए, अणगारवन्नओ भाणियल्वो। तत्पश्चात् मेघ मुनि ने श्रमण भगवान महावीर के इस प्रकार के इस धामिक उपदेश को गीकार किया। अंगीकार करके उसी प्रकार बर्ताव करने लगे यावत संयम में उद्यम करने लगे। तब मेध ईर्यासमिति आदि से युक्त अनगार हुए / यहाँ औपपातिकसूत्र के अनुसार अनगार का समस्त वर्णन कहना चाहिए / विवेचन-औपपातिकसूत्र में वर्णित अनगार के स्वरूप का संक्षिप्त सार इस प्रकार है 'ईर्या आदि पांचों समितियों के अतिरिक्त मनसमिति, वचनसमिति, कायसमिति से युक्त, तीन गुप्तियों से गुप्त, इन्द्रियों का गोपन करने वाला-इन्द्रियविषयों में राग-द्वेषरहित, गुप्तियों (नव वाड़ों) सहित ब्रह्मचर्यपालक, त्यागी, लज्जाशील, धन्य, क्षमाशील, जितेन्द्रिय, शोभित (शोधित), निदानविहीन, उत्कंठा-कुतूहल की वृत्ति से रहित, अक्रोधी, श्रमणधर्म में सम्यक् प्रकार से रत, दान्त और निर्ग्रन्थप्रवचन को सन्मुख रख कर विचरने वाला जो होता है, वही सच्चा साधु है।' १९३--तए णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयाख्वाणं थेराणं सामाइयमाइयाणि एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जिता बहूहि चउत्थ-छट्ठ-ट्ठम-दसम-दुवालसेहि मास-द्धमासखमहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [91 तत्पश्चात् उन मेघ मुनि ने श्रमण भगवान् महावीर के निकट रह कर तथा प्रकार के स्थविर मुनियों से सामायिक से प्रारम्भ करके ग्यारह अंगशास्त्रों का अध्ययन किया। अध्ययन करके बहुत से उपवास, बेला, तेला, चौला, पंचौला आदि से तथा अर्धमासखमण एवं मासखमण आदि तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए वे विचरने लगे। विहार और प्रतिमावहन १९४–तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ / पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ / तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर से, गुणसिलक चैत्य से निकले / निकल कर बाहर जनपदों में विहार करने लगे---विचरने लगे। १९५-तए णं से मेहे अणगारे अन्नया कयाइ समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी—'इच्छामि णं भंते ! तुन्भेहि अन्भणुनाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / ' तत्पश्चात् उन मेघ अनगार ने किसी अन्य समय श्रमण भगवान् महावीर की वन्दना की, नमस्कार किया / वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा—'भगवन् ! मैं आपकी अनुमति पाकर एक मास की मर्यादा वाली भिक्षुप्रतिमा को अंगीकार करके विचरने की इच्छा करता हूँ।' भगवान् ने कहा-'देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसे सुख उपजे वैसा करो। प्रतिबन्ध, अर्थात् इच्छित कार्य का विधात न करोविलम्ब न करो।' १९६-तए णं से मेहे समणेणं भगवया महावीरेणं अन्भणुनाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उपसंपज्जिता णं विहरइ। मासियं भिक्खुपडिमं अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं कारणं फासेइ, पालेइ, सोहेइ, तीरेइ, किट्टेइ, सम्मं काएण फासित्ता पालित्ता सोहेत्ता तोरेत्ता किट्टेत्ता पुणर्राव समणं भगवं महाबोरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर द्वारा अनुमति पाए हुए मेघ अनगार एक मास की भिक्ष. प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगे / एक मास की भिक्षुप्रतिमा को यथासूत्र-सूत्र के अनुसार, कल्प (आचार) के अनुसार, मार्ग (ज्ञानादि मार्ग या क्षायोपशमिक भाव) के अनुसार सम्यक प्रकार से काय से ग्रहण किया, निरन्तर सावधान रहकर उसका पालन किया, पारणा के दिन गुरु को देकर शेष बचा भोजन करके शोभित किया, अथवा अतिचारों का निवारण करके शोधन किया, प्रतिमा का काल पूर्ण हो जाने पर भी किंचित् काल अधिक प्रतिमा में रहकर तीर्ण किया, पारणा के दिन प्रतिमा सम्बन्धी कार्यों का कथन करके कीर्तन किया। इस प्रकार समीचीन रूप से काया से स्पर्श करके, पालन करके, शोभित या शोधित करके, तीर्ण करके एवं कीर्तन करके पुनः श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया / वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-- Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92] [ज्ञाताधर्मकथा १९७--'इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहि अब्भणुनाए समाणे दोमासियं भिक्खुपडिम उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / ' जहा पढमाए अभिलावो तहा दोच्चाए तच्चाए चउत्थाए पंचमाए छम्मासियाए सत्तमासियाए पढमसतराइंदियाए दोच्चसतराइंदियाए तइयसत्तराईदियाए अहोराइंदियाए वि एगराइंदियाए वि। 'भगवन् ! आपकी अनुमति प्राप्त करके मैं दो मास की भिक्षुप्रतिमा अंगीकार करके विचरना चाहता हूँ।' ‘भगवान् ने कहा—'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो / प्रतिबन्ध मत करो।' जिस प्रकार पहली प्रतिमा में पालापक कहा है, उसी प्रकार दूसरी प्रतिमा दो मास की, तीसरी तीन मास की, चौथी चार मास की. पांचवीं पाँच मास की. छठी छह मास की, सातवीं सात मास की, फिर पहली अर्थात् आठवीं सात अहोरात्र की, दूसरी अर्थात् नौवीं भी सात अहोरात्र की, तीसरी अर्थात् दसवीं भी सात अहोरात्र की और ग्यारहवीं तथा बारहवीं प्रतिमा एक-एक अहोरात्र की कहना चाहिए / (मेघमुनि ने इन सब प्रतिमाओं का यथाविधि पालन किया / ) उग्र तपश्चरण १९८-तए णं से मेहे अणगारे बारस भिक्खुपडिमाओ सम्म काएणं फासेत्ता पालेता सोहेत्ता तीरेत्ता किट्टत्ता पुणरवि वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'इच्छामि णं भंते ! तुभेहि अब्भणुन्नाए समाणे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्म उवसंपज्जिता णं विहरित्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / ' तत्पश्चात् मेघ अनगार ने बारहों भिक्षुप्रतिमाओं का सम्यक् प्रकार से काय से स्पर्श करके, पालन करके, शोधन करके, तीर्ण करके और कीर्तन करके पुनः श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भगवन् ! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त करके गुणरत्नसंवत्सर नामक तपश्चरण अंगीकार करना चाहता हूँ।' भगवान् बोले-'हे देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो। प्रतिबन्ध मत करो।' विवेचन-गुणरत्नसंवत्सर नामक तप में तेरह मास और सत्तरह दिन उपवास के होते हैं और तिहत्तर दिन पारणा के / इस प्रकार सोलह मास में इस तप का अनुष्ठान किया जाता है / तपस्या का यंत्र इस प्रकार है-- मास तप तपोदिन पारणादिवस कुल दिन उपवास बेला तेला 24 चौला mr mmm 24 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [93 पंचोला छह उपवास . सात उपवास पाठ उपवास नौ उपवास दस उपवास ग्यारह उपवास बारह उपवास तेरह उपवास चौदह उपवास पंद्रह उपवास सोलह उपवास ir norr mm in in n mm | WwWww.w.w.wec NYMmm Mr Yor m mm 34 407 73 480 जिस मास में जितने दिन कम हैं, उसमें अगले मास में से उतने दिन अधिक समझ लेने चाहिए। इसी प्रकार जिस मास में अधिक हैं, उसके दिन अगले मास में सम्मिलित कर देने चाहिए। १९९---तए णं से मेहे अणगारे पढमं मासं चउत्थं च उत्थेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्ति वीरासणेणं अवाउडएणं / दोच्चं मासं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रति वीरासणेणं अवाउडएणं / तच्चं मासं अट्ठमं-अट्ठमेण अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं, दिया ठाणुक्कुडए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्ति वीरासणेणं उवाउडएणं। चउत्थं मासं दसमंदसमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमूहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्ति बीरासणेणं अवाउडएणं / पंचमं मासं दुवालसमंदुवालसमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्ति वीरासणेणं अवाउडएणं / एवं खलु एएणं अभिलावेणं छठे चोद्दसमंचोद्दसमेणं, सत्तमे सोलसमंसोलसमेणं, अढमे अट्ठारसमं अट्ठार. समेणं, नवमे वीसतिमंवीसतिमेणं, दसमे बावोसइमंबावीसइमेणं, एक्कारसमे चउवीसइमंचउवीसइमेणं, बारसमे छन्वीसइमंछब्बीसइमेणं, तेरसमे अट्ठावीसइमंअट्ठावीसइमेणं, चोद्दसमे तीसइमंतीसइमेणं, पंचदसमे बत्तीसइमबत्तीसइमेणं, सोलसमे मासे चउत्तीसइमंचउत्तीसइमेणं अणिक्खित्तणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुएणं सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे राई वीरासणेण य अवाउडएण य / तत्पश्चात् मेघ अनगार पहले महीने में निरन्तर चतुर्थभक्त अर्थात् एकान्तर उपवास की तपस्या के साथ विचरने लगे। दिन में उत्कट (गोदोहन) आसन से रहते और आतापना लेने की भूमि में सूर्य के सन्मुख अातापना लेते / रात्रि में प्रावरण (वस्त्र) से रहित होकर वीरासन से स्थित रहते थे। इसी प्रकार दूसरे महीने निरन्तर षष्ठभक्त तप-बेला, तीसरे महीने अष्टमभक्त (तेला) तथा चौथे मास में दशमभक्त (चौला) तप करते हुए विचरने लगे। दिन में उत्कट प्रासन से स्थित रहते, सूर्य के सामने अातापना भूमि में प्रातापना लेते और रात्रि में प्रावरण रहित होकर वीरासन से रहते। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा पाँचवें मास में द्वादशम- द्वादशम (पंचोले-पंचोले) का निरन्तर तप करने लगे। दिन में उकडू अासन से स्थिर होकर, सूर्य के सन्मुख आतापनाभूमि में प्रातापना लेते और रात्रि में प्रावरणरहित होकर वीरासन से रहते थे। इसी प्रकार के पालापक के साथ छठे मास में छह-छह उपवास का, सातवें मास में सात-सात उपवास का, आठवें मास में आठ-आठ उपवास का, नौवें मास में नौ-नौ मास का, दसवें मास में दस-दस उपवास का, ग्यारहवें मास में ग्यारह-ग्यारह उपवास का, बारहवें मास में बारह-बारह उपवास का, तेरहवें मास में तेरह-तेरह उपवास का, चौदहवें मास में चौदह-चौदह उपवास का, पन्द्रहवें मास में पन्द्रह-पन्द्रह उपवास का और सोलहवें मास में सोलह-सोलह उपवास का निरन्तर तप करते हुए विचरने लगे। दिन में उकडू आसन से सूर्य के सन्मुख आतापनाभूमि में प्रातापना लेते थे और रात्रि में प्रावरणरहित होकर वीरासन से स्थित रहते थे। विवेचन-दोनों पैर पृथ्वी पर टेक कर सिंहासन या कुर्सी पर बैठ जाये और बाद में सिंहासन या कुर्सी हटा ली जाये तो जो आसन बनता है वह वीरासन कहलाता है / २००-तए णं से मेहे अणगारे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं अहासुत्तं जाव' सम्म काएण फासेइ, पालेइ, सोहेइ, तोरेइ, किट्टेइ, अहासुत्तं अहाकप्पं जाव किट्टेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमंसइ, बंदित्ता नमंसित्ता बहूहि छट्ठट्ठमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। इस प्रकार मेघ अनगार ने गुणरत्नसंवत्सर नामक तपःकर्म का सूत्र के अनुसार, कल्प के अनुसार तथा मार्ग के अनुसार सम्यक् प्रकार से काय द्वारा स्पर्श किया, पालन किया, शोधित या शोभित किया तथा कीर्तित किया / सूत्र के अनुसार और कल्प के अनुसार यावत् कीर्तन करके श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन किया, नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके बहुत से षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त आदि तथा अर्धमासखमण एवं मासखमण आदि विचित्र प्रकार के तपश्चरण करके प्रात्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। २०१--तए णं से मेहे अणगारे तेणं उरालेणं विपूलेणं सस्सिरीएणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं उदग्गेणं उदारएणं उत्तमेणं महाणुभावेणं तवोकम्मेणं सुक्के भक्खे लुक्खे निम्मंसे निस्सोणिए किडिकिडियाभूए अट्ठिचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्या। जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता गिलायइ, भासं भासमाणे गिलायइ, भासं भासिस्सामि त्ति गिलायइ। तत्पश्चात मेघ अनगार उस उराल-प्रधान, विपूल-दीर्घकालीन होने के कारण विस्तीर्ण, सश्रीक-शोभासम्पन्न, गुरु द्वारा प्रदत्त अथवा प्रयत्नसाध्य, बहुमानपूर्वक गहीत, कल्याणकारीनोरोगताजनक, शिव-मुक्ति के कारण, धन्य-धन प्रदान करने वाले, मांगल्य-पापविनाशक, उदग्र-तीव, उदार-निष्काम होने के कारण औदार्य वाले, उत्तम-अज्ञानान्धकार से रहित और महान् प्रभाव वाले 1. प्र. प्र. सूत्र 196 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात] [95 तपःकर्म से शुष्क-नीरस शरीर वाले, भूखे, रूक्ष, मांसरहित और रुधिररहित हो गए। उठते-बैठते उनके हाड़ कड़कड़ाने लगे। उनकी हड्डियाँ केवल चमड़े से मढ़ी रह गईं। शरीर कृश और नसों से व्याप्त हो गया। वह अपने जीव के बल से ही चलते एवं जीव के बल से ही खड़े रहते / भाषा बोलकर थक जाते, बात करते-करते थक जाते, यहाँ तक कि 'मैं बोलूगा' ऐसा विचार करते ही थक जाते थे / तात्पर्य यह है कि पूर्वोक्त उग्र तपस्या के कारण उनका शरीर अत्यन्त ही दुर्बल हो गया था। २०२--से जहानामए इंगालसगडियाइ वा, कसगडियाइ वा, पत्तसगडियाइ वा, तिलसगडियाइ वा, एरंडकट्ठसगडियाइ वा, उण्हे दिन्ना सुक्का समाणी ससई गच्छइ, ससई चिट्ठइ, एवामेव मेहे अणगारे ससई गच्छइ, ससई चिट्ठइ, उचिए तवेणं, अवचिए मंससोगिएणं, हुयासणे इव भासरासिपरिच्छन्ने, तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अईव अईव उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठइ। जैसे कोई कोयले से भरी गाड़ी हो, लकड़ियों से भरी गाड़ी हो, सूखे पत्तों से भरी गाड़ी हो, तिलों (तिल के डंठलों) से भरी गाड़ी हो, अथवा एरंड के काष्ठ से भरी गाड़ी हो, धूप में डाल कर सुखाई हुई हो, अर्थात् कोयला, लकड़ी, पत्ते आदि खूब सुखा लिये गये हों और फिर गाड़ी में भरे गये हों, तो वह गाड़ी खड़खड़ की आवाज करती हुई चलती है और आवाज करती हुई ठहरती है, उसी प्रकार मेघ अनगार हाड़ को खड़खड़ाहट के साथ चलते थे और खड़खड़ाहट के साथ खड़े रहते थे। वह तपस्या से तो उपचित-वृद्धिप्राप्त थे, मगर मांस और रुधिर से अपचितह्रास को प्राप्त हो गये थे। वह भस्म के समूह से आच्छादित अग्नि की तरह तपस्या के तेज से देदीप्यमान थे / वह तपस्तेज की लक्ष्मी से अतीव शोभायमान हो रहे थे। २०३-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थयरे जाव' पुव्वाणयुटिव चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे, जेणामेव रायगिहे नगरे जेणामेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले, यावत् अनुक्रम से चलते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम को पार करते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए, जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील चैत्य था, उसी जगह पधारे। पधार कर यथोचित अवग्रह (उपाश्रय) की प्राज्ञा लेकर संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हए विचरने लगे। समाधिमरण २०४–तए णं तस्स मेहस्स अणगारस्स राओ पुधरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव (चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे) समुप्पज्जित्था __'एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं तहेव जाव भासं भासिस्सामि त्ति गिलामि, तं अत्थि ता मे 1. प्र. अ. सूत्र 8. 2. प्र. अ. सूत्र 201. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96] [ज्ञाताधर्मकथा उहाणे कम्मे बले बीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे सद्धा धिई संवेगे तं जाव ता मे अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले वोरिए पुरिसक्कार-परक्कमे सद्धा धिई संवेगे जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ, ताव ताव मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव' तेयसा जलंते सूरे समणं भगवं महावीरं बंदित्ता नमंसित्ता समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुन्नायस्स समाणस्स सयमेव पंच महन्वयाई आरुहिता गोयमाइए समणे निग्गंथे निग्गंथीओ य खामेत्ता तहारूवेहि कडाईहिं थेरेहि द्धि विउलं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहित्ता सयमेव मेहघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहित्ता संलेहणाझूसणाए झूसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स पाओवगयस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए। / तत्पश्चात उन मेघ अनगार को रात्रि में, पूर्व रात्रि और पिछली रात्रि के समय अर्थात मध्य रात्रि में धर्म-जागरण करते हुए इस प्रकार का अध्यवसाय [चिन्तन, प्राथित एवं मानसिक संकल्प] उत्पन्न हुअा ___ 'इस प्रकार मैं इस प्रधान तप के कारण, इत्यादि पूर्वोक्त सब कथन यहाँ कहना चाहिए, यावत् 'भाषा बोलगा' ऐसा विचार आते ही थक जाता हूँ.' तो अभी मुझ में उठने की शक्ति है, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग है, तो जब तक मुझ में उत्थान, कार्य करने की शक्ति, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग है तथा जब तक मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर गंधहस्ती के समान जिनेश्वर विचर रहे हैं, तब तक, कल रात्रि के प्रभात रूप में प्रकट होने पर यावत् सूर्य के तेज से जाज्वल्यमान होने पर अर्थात् सूर्योदय होने पर मैं श्रमण भगवान महावीर को वन्दना और नमस्कार करके, श्रमण भगवान महावीर की आज्ञा लेकर स्वयं ही पांच महाव्रतों को पुनः अंगीकार करके गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों तथा निर्ग्रन्थियों से क्षमायाचना करके तथारूपधारी एवं योगवहन आदि क्रियाएँ जिन्होंने की हैं, ऐसे स्थविर साधुओं के साथ धीरे-धीरे, विपुलाचल पर आरूढ होकर स्वयं ही सघन मेघ के सदृश (कृष्णवर्ण के) पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन करके, संलेखना स्वीकार करके, आहार-पानी का त्याग करके, पादपोपगमन अनशन धारण करके मृत्यु की भी आकांक्षा न करता हुआ विचरू। विवेचन-समाधिमरण अनशन के तीन प्रकार हैं-(१) भक्तप्रत्याख्यान, (2) इंगितमरण और (3) पादपोपगमन / जिस समाधिमरण में साधक स्वयं शरीर की सार-संभाल करता है और दूसरों की भी सेवा स्वीकार कर सकता है, वह भक्तप्रत्याख्यान कहलाता है। इंगितमरण स्वीकार करने वाला स्वयं तो शरीर की सेवा करता है किन्तु किसी अन्य की सहायता अंगीकार नहीं करता / भक्तप्रत्याख्यान की अपेक्षा इसमें अधिक साहस और धैर्य की आवश्यकता होती है / किंतु पादपोपगमन समाधिमरण तो साधना की चरम सीमा की कसौटी है। उसमें शरीर की सार-संभाल न स्वयं की जाती है, न दूसरों के द्वारा कराई जाती है / उसे अंगीकार करने वाला साधक समस्त शारीरिक चेष्टानों का परित्याग करके पादप-वृक्ष की कटी हुई शाखा के समान निश्चेष्ट, निश्चल, निस्पंद हो जाता है। अत्यन्त धैर्यशाली, सहनशील और साहसी साधक ही इस समाधिमरण को स्वीकार करते हैं / समाधिमरण साधनामय जीवन की चरम और परम परिणति है, साधना के भव्य प्रासाद १.प्र.अ. सूत्र 28 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] पर स्वर्ण-कलश आरोपित करने के समान है। जीवन-पर्यन्त आन्तरिक शत्रुओं के साथ किए गए संग्राम में अन्तिम रूप से विजय प्राप्त करने का महान अभियान है / इस अभियान के समय वीर साधक मृत्यु के भय से सर्वथा मुक्त हो जाता है-- संसारासक्तचित्तानां मृत्यु त्यै भवेन्नृणाम् / मोदायते पुनः सोऽपि ज्ञान-वैराग्यवासिनाम् // जिनका मन संसार में संसार के राग-रंग में उलझा होता है, उन्हें ही मृत्यु भयंकर जान पड़ती है, परन्तु जिनकी अन्तरात्मा सम्यग्ज्ञान और वैराग्य से वासित होती है, उनके लिए वह आनन्द का कारण बन जाती है। साधक की विचारणा तो विलक्षण प्रकार की होती है / वह विचार करता है-- __ कृमिजालशताकीणे जर्जरे देहपञ्जरे। भिद्यमाने न भेत्तव्यं यतस्त्वं ज्ञानविग्रहः / / सैकड़ों कीड़ों के समूहों से व्याप्त शरीर रूपी पीजरे का नाश होता है तो भले हो। इसके विनाश से मुझे भयभीत होने की क्या आवश्यकता है ! इससे मेरा क्या बिगड़ता है ! यह जड़ शरीर मेरा नहीं है / मेरा असली शरीर ज्ञान है--मैं ज्ञानविग्रह हूँ / वह मुझ से कदापि पृथक् नहीं हो सकता। _समाधिमरण के काल में होने वाली साधक को भावना को व्यक्त करने के लिए कहा गया है एगोऽहं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सइ / एवमदीणमनसो अप्पाणमणुसासइ // एगो मे सासओ अप्पा नाणदसणसंजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा // संजोगमूला जीवेण पत्ता दुक्खपरम्परा / तम्हा संजोगसंबंधं सव्वं तिविहेण वोसरिअं॥ मैं एकाकी हैं। मेरे सिवाय मेरा कोई नहीं है, मैं भी किसी अन्य का नहीं हैं। इस प्रकार के विचार से प्रेरित होकर, दीनता का परित्याग करके अपनी आत्मा को अनुशासित करे / यह भी सोचे-ज्ञान और दर्शनमय एक मात्र शाश्वत आत्मा ही मेरा है। इसके अतिरिक्त संसार के समस्त पदार्थ मुझ से भिन्न हैं—संयोग से प्राप्त हो गए हैं और बाह्य पदार्थों के इस संयोग के कारण ही जीव को दुःखों की परम्परा प्राप्त हुई है-अनादिकाल से एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा जो दुःख उपस्थित होता रहता है, उसका मूल और मुख्य कारण पर पदार्थों के साथ आत्मा का संयोग ही है। अब इस परम्परा का अन्त करने के लिए मैंने मन, वचन, काय से इस संयोग का त्याग कर दिया है। इस प्रकार की आन्तरिक प्रेरणा से प्रेरित होकर साधक समाधिमरण अंगीकार करता है किन्तु मानवजीवन अत्यन्त दुर्लभ है। पागम में चार दुर्लभ उपलब्धियाँ कही गई हैं / मानव Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा जीवन उनमें परिगणित है / देवता भी इस जीवन की कामना करते हैं। अतएव निष्कारण, जब मन में उमंग उठी तभी इसका अन्त नहीं किया जा सकता / संयमशील साधक मनुष्यशरीर के माध्यम से आत्महित सिद्ध करता है और उसी उद्देश्य से इसका संरक्षण भी करता है। परंतु जब ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाय कि जिस ध्येय की पूर्ति के लिए शरीर का संरक्षण किया जाता है, उस ध्येय की पूर्ति उससे न हो सके, बल्कि उस ध्येय की पूर्ति में बाधक बन जाए तब उसका परित्याग कर देना ही श्रेयस्कर होता है। प्राणान्तकारी कोई उपसर्ग आ जाए, दुभिक्ष के कारण जीवन का अन्त समीप जान पड़े, वृद्धावस्था अथवा असाध्य रोग उत्पन्न हो जाय तो इस अवस्था में हाय-हाय करते हुए --मार्तध्यान के वशीभूत होकर प्राण त्यागने की अपेक्षा समाधिपूर्वक स्वेच्छा से शरीर को त्याग देना ही उचित है / शरीर हमें त्यागे इसकी अपेक्षा यही बेहतर है कि हम स्वयं शरीर को त्याग दें। ऐसा करने से पूर्ण शान्ति और अखण्ड' समभाव बना रहता है। . समाधिमरण अंगीकार करने से पूर्व साधक को यदि अवसर मिलता है तो वह उसके लिए तैयारी कर लेता है। वह तैयारी संलेखना के रूप में होती है / काय और कषायों को कृश और कृशतर करना संलेखना है। कभी-कभी यह तैयारी बारह वर्ष पहले से प्रारंभ हो जाती है / ऐसी स्थिति में समाधिमरण को आत्मघात समझना विचारहीनता है। पर-घात की भांति आत्मघात भी जिनागम के अनुसार घोर पाप है-नरक का कारण है / आत्मघात कषाय के तीव्र आवेश में किया जाता है जब कि समाधिमरण कषायों की उपशान्ति होने पर उच्चकोटि के समभाव की अवस्था में ही किया जा सकता है। मेघ मुनि का शरीर जब संयम में पुरुषार्थ करने में सहायक नहीं रहा तब उन्होंने पादपोपगमन समाधिमरण ग्रहण किया और उस जर्जरित देह से जीवन का अन्तिम लाभ प्राप्त किया। २०५-एवं संपेहेइ संपेहिता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव' जलते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करिता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ। मेघ मुनि ने इस प्रकार विचार किया / विचार करके दूसरे दिन रात्रि के प्रभात रूप में परिणत होने पर यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान होने पर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ पहुँचे / पहँचकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वंदना की, नमस्कार किया / वन्दना-नमस्कार करके न बहुत समीप और न बहुत दूर योग्य स्थान पर रह कर भगवान् की सेवा करते हुए, नमस्कार करते हुए, सन्मुख विनय के साथ दोनों हाथ जोड़कर उपासना करने लगे / अर्थात् बैठ गए। __२०६–मेहे त्ति समणे भगवं महावीरे मेहं अणगारं एवं बयासी-'से णूणं तव मेहा ! राओ पुन्धरत्तावरतकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव (चितिए, 1. प्र. अ. सूत्र 28 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [ 99 पत्थिए मणोगए संकप्पे) समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणं जाव जेणेव अहं तेणेव हव्यमागए / से पूर्ण मेहा ! अठे समठे ?' 'हंता अस्थि / ' 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह / ' 'हे मेघ' इस प्रकार संबोधन करके श्रमण भगवान महावीर ने मेघ अनगार से इस भाँति कहा -'निश्चय हो हे मेघ ! रात्रि में, मध्य रात्रि के समय, धर्म-जागरणा जागते हुए तुम्हें इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुया है कि इस प्रकार निश्चय ही मैं इस प्रधान तप के कारण दुर्बल हो गया हूँ, इत्यादि पूर्वोक्त यहाँ कह लेना चाहिए यावत् तुम तुरन्त मेरे निकट आये हो / हे मेध ! क्या यह अर्थ समर्थ है ? अर्थात् यह बात सत्य है ? मेघ मुनि बोले-'जी हाँ, यह अर्थ समर्थ है।' तब भगवान् ने कहा—'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो / प्रतिबंध न करो। 207-- तए णं से मेहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भुणुनाए समाणे हट जाव हियए उट्ठाए उठेइ, उढाए उठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करिता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सयमेव पंच महव्वयाई आरुहेइ, आरुहिता गोयमाइ समणे निग्गंथे निग्गंधीओ य खामेइ, खामेत्ता य ताहारूवेहि कडाईहि थेरेहिं सद्धि विपुलं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहइ, दुरूहित्ता सयमेव मेहघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहिता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहित्ता पुरस्थाभिमहे संपलियंकनिसन्न करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटट वयासी 'नमोऽत्यु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव' संपत्ताणं, णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव' संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स / वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासह मे भगवं तत्थगए इहगयं ति कट्ठ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी तत्पश्चात् मेघ अनगार श्रमण भगवान् महावीर की प्राज्ञा प्राप्त करके हृष्ट-तुष्ट हुए / उनके हृदय में आनन्द हुआ। वह उत्थान करके उठे और उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना. नमस्कार करके स्वयं ही पाँच महावतों का उच्चारण किया और गौतम आदि साधुओं को तथा साध्वियों को खमाया / खमा कर तथारूप (चारित्रवान्) और योगवहन आदि किये हुए स्थविर सन्तों के साथ धीरे-धीरे विपुल नामक पर्वत पर आरूढ हुए। प्रारूढ होकर स्वयं ही सघन मेघ के समान पृथ्वी-शिलापटक की प्रतिलेखना की / प्रतिलेखना करके दर्भ का संथारा बिछाया और उस पर आरूढ हो गये / पूर्व दिशा के सन्मुख पद्मासन से बैठकर, दोनों हाथ जोड़कर और उन्हें मस्तक से स्पर्श करके (अंजलि करके) इस प्रकार बोले 'अरिहन्त भगवन्तों को यावत् सिद्धि को प्राप्त सब तीर्थकरों को नमस्कार हो / मेरे धर्माचार्य 1-2. प्र. अ. सूत्र 28 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100] [ ज्ञाताधर्मकथा यावत् सिद्धिगति को प्राप्त करने के इच्छुक श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार हो। वहाँ (गुणशील चैत्य में) स्थित भगवान् को यहाँ (विपुलाचल पर) स्थित में वन्दना करता हूं / वहाँ स्थित भगवान् यहाँ स्थित मुझको देखें। इस प्रकार कहकर भगवान को वंदना की; नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा २०८-पुब्धि पि य णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए, मुसावाए अदिनादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे माणे माया लोहे पेज्जे दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुन्ने परपरिवाए अरई-रई मायामोसे मिच्छादसणसल्ले पच्चक्खाए। इयाणि पि य णं अहं तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि / सवं असण-पाण-खाइम-साइमं चउन्विहं पि आहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। जंपि य इमं सरीरं इठे कंतं पियं जाव' (मणुण्णं मणामं थेज्जं वेस्सासियं सम्मयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं, मा णं सीयं, मा णं उण्हं, मा णं खुहा, मा गं पिवासा, मा णं चोरा, मा णं बाला, मा णं दंसा, मा णं मसगा, मा णं वाइय-पित्तिय-संभिय-सण्णिवाइय) विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतीति कटु एयं पि य णं चरमेहि ऊसास निस्सासेहि वोसिरामि त्ति कट्ट संलेहणा असणाशूसिए भत्तपाणपडियाइविखए पाओवगए कालं अणवकंखमाणं विहरइ / पहले भी मैंने श्रमण भगवान् महावीर के निकट समस्त प्राणातिपात का त्याग किया है, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान (मिथ्या दोषारोपण करना), पैशुन्य (चुगलो), परपरिवाद (पराये दोषों का प्रकाशन), धर्म में अरति, अधर्म में रति, मायामृषा (वेष बदल कर ठगाई करना) और मिथ्यादर्शनशल्य, इन सब अठारह पापस्थानों का प्रत्याख्यान किया है। अब भी मैं उन्हीं भगवान् के निकट सम्पूर्ण प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ. यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का प्रत्याख्यान करता हूँ तथा सब प्रकार के प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चारों प्रकार के आहार का आजीवन प्रत्याख्यान करता हूँ। और यह शरीर जो इष्ट है, कान्त (मनोहर) है और प्रिय है, यावत् [मनोज्ञ, मणाम (अतोव मनोज्ञ), धैर्यपात्र, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत, आभूषणों का पिटारा जैसा है, इसे शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा, चोर, सर्प डाँस, मच्छर आदि की बाधा न हो, वात पित्त एवं कफ संबंधी] विविध प्रकार के रोग, शलादिक अातंक, बाईस परीषह और उपसर्ग स्पर्श न करें, ऐसे रक्षा की हैं, इस शरीर का भी मैं अन्तिम श्वासोच्छ्वास पर्यन्त परित्याग करता हूँ।' इस प्रकार कहकर संलेखना को अंगीकार करके, भक्तपान का त्याग करके, पादपोपगमन समाधिमरण अंगीकार कर मृत्यु की भी कामना न करते हुए मेघ मुनि विचरने लगे। २०९-तए णं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अणगारस्स अगिलाए वेयावडियं करेन्ति / तब वे स्थविर भगवन्त ग्लानिरहित होकर मेघ अनगार की वैयावृत्य करने लगे। 1. संक्षिप्तपाठ--- पियं जाव विविहा. , Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [101 २१०-तए णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाइं अहिज्जिता बहुपडिपुन्नाई दुवालसवरिसाइं सामनपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता ट्ठि भत्ताई अणसणाए छेएत्ता आलोइयपडिक्कते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते आणुपुत्वेणं कालगए / तत्पश्चात वह मेघ अनगार श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के सन्निकट सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, लगभग बारह वर्ष तक चारित्र पर्याय का पालन करके, एक मास की संलेखना के द्वारा प्रात्मा (अपने शरीर) को क्षीण करके, अनशन से साठ भक्त छेद कर अर्थात् तीस दिन उपवास करके, पालोचना प्रतिक्रमण करके, माया, मिथ्यात्व और निदान शल्यों को हटाकर समाधि को प्राप्त होकर अनुक्रम से कालधर्म को प्राप्त हुए। २११-तए णं थेरा भगवन्तो मेहं अणगारं आणुपुत्वेणं कालगयं पासेन्ति / पासित्ता परिनिव्वाणवत्तियं काउस्सग्गं करेंति, करित्ता मेहस्स आयारभंडयं गेण्हति / गेण्हित्ता विउलाओ पन्वयाओ सणियं सणियं पच्चोरुहंति / पच्चोरहित्ता जेणामेव गुणसिलए चेइए, जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वदंति नमसंति, बंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-- तत्पश्चात् मेघ अनगार के साथ गये हए स्थविर भगवंतों ने मेघ अनगार को क्रमशः कालगत देखा। देखकर परिनिर्वाणनिमित्तक (मुनि के मृत देह को परठने के कारण से किया जाने वाला) कायोत्सर्ग किया / कायोत्सर्ग करके मेघ मुनि के उपकरण ग्रहण किये और विपुल पर्वत से धीरे-धीरे नीचे उतरे। उतर कर जहाँ गुणशील चैत्य था और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे वहीं पहुँचे। पहुँच कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोले-- २१२–एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी मेहे अणगारे पगइभद्दए जाव (पगइउवसंते पगइपतणुकोह-माण माया-लोहे मिउमद्दवसंपण्णे अल्लोणे). विणीए / से णं देवाणुप्पिएहि अब्भन्नाए समाणे गोयमाइए समणे निग्गंथे निग्गंथीओ य खामेत्ता अम्हेहि सद्धि विउलं पध्वयं सणियं सणियं दुरूहइ / दुरूहित्ता सयमेव मेघघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ / पडिलेहित्ता भत्तपाणपडियाइक्खित आणुपुटवेणं कालगए / एस णं देवाणुप्पिया ! मेहस्स अणगारस्स आयारभंडए। आप देवानुप्रिय के अन्तेवासी (शिष्य) मेघ अनगार स्वभाव से भद्र और यावत् [स्वभावतः उपशान्त, स्वभावत: मंद क्रोध, मान, माया, लोभ वाले, अतिशय मृदु, संयमलीन एवं] विनीत थे। वह देवानुप्रिय (आप) से अनुमति लेकर गौतम आदि साधुओं और साध्वियों को खमा कर हमारे साथ विपुल पर्वत पर धीरे-धीरे आरूढ हुए। आरूढ होकर स्वयं ही सघन मेघ के समान कृष्णवर्ण पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन करके भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर दिया और अनुक्रम से कालधर्म को प्राप्त हुए / हे देवानुप्रिय ! यह हैं मेघ अनगार के उपकरण / पुनर्जन्म निरूपण २१३–भंते ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासो-'एवं खलु देवाणुप्पियाणं अन्तेवासी मेहे णामं अणगारे, से थे मेहे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए ? कहिं उववन्ने ? Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] [ ज्ञाताधर्मकथा 'भगवन् !' इस प्रकार कह कर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा–'देवानुप्रिय के अन्तेवासी मेघ अनगार थे। भगवन् ! वह मेघ अनगार काल-मास में अर्थात् मृत्यु के अवसर पर काल करके किस गति में गये ? और किस जगह उत्पन्न हुए? २१४–'गोयमाई' समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-'एवं खलु गोयमा ! मम अन्तेवासी मेहे णाम अणगारे पगइभद्दए जाव' विणीए / से गं तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ / अहिज्जित्ता बारस भिक्खुपडिमाओ गणरयणसंवच्छरं तबोकम्मं काएणं फासेत्ता जाव किट्टेता मए अभणन्नाए समाणे गोयमाइ थेरे खामेइ / खामित्ता तहारूवेहिं जाव (कडाईहिं) विउलं पव्वयं दुल्हइ / दुरूहित्ता दभसंथारगं संथरइ / संथरित्ता दम्भसंथारोवगए सयमेव पंचमहव्वए उच्चारेइ / बारस वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सठ्ठि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कन्ते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उद्धं चंदिम-सूर-गहगण-नक्खत्ततारा-रूवाणं बहूई जोयणाई बहूई जोयणसयाई, बहूई जोयणसहस्साई, बहूइं जोयणसयसहस्साई, बहई जोयणकोडीओ, बहूई जोयणकोडाकोडीओ उड्ढे दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाण-सगंकुमार-माहिदबंभ-लंतग-महासुक्क-सहस्सारा-णय-पाणया-रण-च्चुए तिनि य अट्ठारसुत्तरे गेवेज्जविमाणावाससए बीइवइत्ता विजए महाविमाणे देवत्ताए उववण्णे। 'हे गौतम !' इस प्रकार कह कर श्रमण भगवान महावीर ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा--हे गौतम! मेरा अन्तेवासी मेघ नामक अनगार प्रकृति से भद्र यावत विनीत था। उसने तथारूप स्थविरों से सामायिक से प्रारम्भ करके ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन करके बारह भिक्षु-प्रतिमाओं का और गुणरत्नसंवत्सर नामक तप का काय से स्पर्श करके यावत् कीर्तन करके, मेरी आज्ञा लेकर गौतम आदि स्थविरों को खमाया / खमाकर तथारूप यावत् स्थविरों के साथ विपूल पर्वत पर आरोहण किया / दर्भ का संथारा बिछाया। फिर दर्भ के संथारे पर स्थित होकर स्वयं ही पांच महाव्रतों का उच्चारण किया, बारह वर्ष तक साधुत्व-पर्याय का पालन करके एक मास की संलेखना से अपने शरीर को क्षीण करके, साठ भक्त अनशन से छेदन करके, आलोचनाप्रतिक्रमण करके, शल्यों को निर्मूल करके समाधि को प्राप्त होकर, काल-मास में मृत्यु को प्राप्त करके, ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिषचक्र से बहुत योजन, बहुत सैकड़ों योजन, बहुत हजारों योजन, बहुत लाखों योजन, बहुत करोड़ों योजन और बहुत कोडाकोड़ी योजन लांघकर, ऊपर जाकर सौधर्म ईशान सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोक लान्तक महाशुक्र सहस्रार पानत प्राणत पारण और अच्युत देवलोकों को तथा तीन सौ अठारह नवप्रैवेयक के विमानावासों को लांघ कर वह विजय नामक अनुत्तर महाविमान में देव के रूप में उत्पन्न हुआ है। . २१५-तत्थ णं अत्यंगइयाणं देवाणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / तत्थ णं मेहस्स वि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। 1. प्रअ. सूत्र 212 2. प्र. अ. सूत्र 196 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [103 उस विजय नामक अनुत्तर विमान में किन्हीं-किन्हीं देवों की तेतीस सागरोपम की स्थिति कही है / उनमें मेघ नामक देव की भी तेतीस सागरोपम की स्थिति है। २१६-एस णं भंते ! मेहे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं, ठिइक्खएणं, भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उवज्जिहिइ ? __ गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया--भगवन् ! वह मेघ देव देवलोक से आयु का अर्थात् आयु कर्म के दलिकों का क्षय करके, प्रायकर्म की स्थिति का वेदन द्वारा क्षय करके तथा भव का अर्थात रणभत कर्मों का क्षय करके तथा देवभव के शरीर का त्याग करके अथवा देवलोक से च्यवन करके किस गति में जाएगा? किस स्थान पर उत्पन्न होगा ? अन्त में सिद्धि 217. गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, बुज्झिहिइ, मुच्चिहिइ, परिनिव्वाहिइ, सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ / भगवान् ने उत्तर दिया-हे गौतम ! महाविदेह वर्ष में (जन्म लेकर) सिद्धि प्राप्त करेगा--- समस्त मनोरथों को सम्पन्न करेगा, केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को जानेगा, समस्त कर्मों से मुक्त होगा और परिनिर्वाण प्राप्त करेगा, अर्थात् कर्मजनित समस्त विकारों से रहित हो जाने के कारण स्वस्थ होगा और समस्त दुःखों का अन्त करेगा। २१८-एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थयरेणं जाव संपत्तेणं अप्पोपालभनिमित्तं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमढ़े पन्नत्ते त्ति बेमि // // पढमं अज्झयणं समत्तं // श्री सुधर्मा स्वामी अपने प्रधान शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं--इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने, जो प्रवचन की प्रादि करने वाले, तीर्थ की संस्थापना करने वाले यावत् मुक्ति को प्राप्त हुए हैं, आप्त (हितकारी) गुरु को चाहिए कि अविनीत शिष्य को उपालंभ दे, इस प्रयोजन से प्रथम ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है। ऐसा मैं कहता हूँ अर्थात् तीर्थङ्कर भगवान् ने जैसा फर्माया है, वैसा हो मैं तुमसे कहता हूँ ! // प्रथम अध्ययन समाप्त / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट सार : संक्षेप साधना के क्षेत्र में प्रवल से प्रबल बाधा आसक्ति है / प्रासक्ति वह मनोभाव है, जो आत्मा को पर-पदार्थों की अोर लालायित बनाता है, अाकर्षित करता है और आत्मानन्द की ओर से विमख करता है। साधना में एकाग्रता के साथ तल्लीन रहने के लिए प्रासक्ति को त्याग दे श्यक है, स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द जब इन्द्रियों के माध्यम से प्रात्मा ग्रहण करता अर्थात जानता है, तब मन उस जानने के साथ राग-द्वेष का विष मिला देता है / इस कारण प्रात्मा में 'यह इष्ट है, यह अनिष्ट है' इस प्रकार का विकल्प उत्पन्न होता है / इष्ट प्रतीत होने पर उस विषय को प्राप्त करने के लिए उत्सुक हो जाता है / उसका समत्वयोग खण्डित हो जाता है, समाधिभाव विलीन हो जाता है और वैराग्य नष्ट हो जाता है। ऐसी स्थिति में साधक अपनी मर्यादा से पतित हो जाता है और कभी-कभी उसके पतन की सीमा नहीं रहती। __ आसक्ति के इन खतरों को ध्यान में रख कर शास्त्रकारों ने अनेक प्रकार से आसक्ति-त्याग का उपदेश दिया है। अपने से प्रत्यक्ष पृथक दीखने वाले पदार्थों की बात जाने दीजिए, अपने शरीर के प्रति भी पासक्त न रखने का विधान किया है / कहा है __अवि अप्पणो वि देहमि, नायरंति ममाइयं / मुनिजन अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते / कहा जा सकता है--यदि शरीर के प्रति ममता नहीं है तो आहार-पानी आदि द्वारा उसका पोषण-संरक्षण क्यों करते हैं ? इस प्रश्न के समाधान के लिए ही इस अध्ययन की रचना की गई है और एक सुन्दर उदाहरण द्वारा समाधान किया गया है। दृष्टान्त का संक्षेप इस प्रकार है राजगृह नगर में धन्य सार्थवाह था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। धन्य समृद्धिशाली था, प्रतिष्ठाप्राप्त था किन्तु निस्सन्तान था। उसकी पत्नी ने अनेक देवताओं की मान्यता-मनौती की, तब उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई / देवी कृपा का फल समझ कर उसका नाम 'देवदत्त' रक्खा गया। देवदत्त कुछ बड़ा हुआ तो एक दिन भद्रा ने उसे नहला-धुलाकर और अनेक प्रकार के आभूषणों से सिंगार कर अपने दास-चेटक पंथक को खिलाने के लिए दे दिया। पंथक उसे ले गया और उसे एक स्थान पर बिठलाकर स्वयं गली के बालकों के साथ खेलने लगा / देवदत्त का उसे ध्यान ही न रहा। इस बीच राजगृह का विख्यात निर्दय और नृशंस चोर विजय घूमता-घामता वहाँ जा पहुँचा और आभूषण-सज्जित बालक देवदत्त को उठाकर चल दिया। नगर से बाहर ले जाकर उसके आभूषण उतार लिए और उसे एक कुए में फेंक दिया / बालक के प्राण-पखेरू उड़ गए। जब पंथक को बालक का ध्यान अाया तो वह नदारद था / इधर-उधर ढूढने पर भी वह Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट [105 कैसे मिलता ! रोता-रोता पंथक घर गया / धन्य सार्थवाह ने भी खोज को किन्तु जब बालक का कुछ भी पता न लगा तब वह नगर-रक्षकों ( पुलिस-दल ) के पास पहुँचा। नगर-रक्षक खोजतेखोजते वहीं जा पहुँचे जहाँ वह अन्धकूप था जिसमें बालक का शव पड़ा था। शव को देखकर सब के मुख से अचानक 'हाय-हाय' शब्द निकल पड़ा। पैरों के निशान देखते-देखते नगर-रक्षक आगे बढ़े तो विजय चोर पास के सघन झाड़ियों वाले प्रदेश में (मालूकाकच्छ में) छिपा मिला गया। पकड़ा, खुब मार मारी, नगर में घुमाया और कारागार में डाल दिया। कुछ समय के पश्चात् किसी के चुगली खाने पर एक साधारण अपराध पर धन्य सार्थवाह को भी उसी कारागार में बन्द किया गया। विजय चोर और धन्य सार्थवाह-दोनों को एक साथ बेडी में डाल दिया। सार्थवाहपत्नी भद्रा ने धन्य के लिये विविध प्रकार का भोजन-पान कारागार में भेजा। धन्य सार्थवाह जब उसका उपभोग करने बैठा तो विजय चोर ने उसका कुछ भाग मांगा / किन्तु धन्य अपने पुत्रघातक शत्रु को आहार-पानी कैसे खिला-पिला सकता था? उसने देने से इन्कार कर दिया। कुछ समय पश्चात् धन्य सार्थवाह को मल-मूत्र विसर्जन की बाधा उत्पन्न हुई। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, विजय चोर और धन्य एक साथ बेड़ी में जकड़े थे। एक के विना दूसरा चलफिर नहीं सकता था। मल-मत्र विसर्जन के लिए दोनों का साथ जाना अनिवार्य था / जब सार्थवाह ने विजय चोर से साथ चलने को कहा तो वह अकड़ गया। बोला-तुमने भोजन किया है, तुम्ही जायो / मैं भूखा-प्यासा मर रहा हूँ, मुझे बाधा नहीं है / मैं नहीं जाता। धन्य विवश हो गया / थोड़े समय तक उसने बाधा रोकी, पर कब तक रोकता ? अन्ततः अनिच्छापूर्वक भी उसे विजय चोर को आहार-पानी में से कुछ भाग देने का वचन देना पड़ा / अन्य कोई मार्ग नहीं था / जब दूसरी बार भोजन आया तो धन्य ने उसका कुछ भाग विजय चोर को दिया। दास चेटक पंथक आहार लेकर कारागार जाता था / उसे यह देखकर दुःख हुआ / घर जाकर उसने भद्रा सार्थवाही को यह घटना सुनाई। कहा---'सार्थवाह आपके भेजे भोजन-पान का हिस्सा विजय चोर को देते हैं।' यह जान कर भद्रा के क्रोध का पार न रहा / पुत्र की क्रूरतापूर्वक पापी चोर को भोजन-पान देकर उसका पालन-पोषण करना / माता का हृदय घोर वेदना से व्याप्त हो गया। प्रतिदिन यही क्रम चलने लगा। कुछ काल के पश्चात् धन्य सार्थवाह को कारागार से मुक्ति मिली। जब वह घर पहुँचा तो सभी ने उसका स्वागत-सत्कार किया किन्तु उसकी पत्नी भद्रा ने बात भी नहीं की। वह पीठ फेर कर उदास, खिन्न बैठी रही। यह देखकर सार्थवाह बोला-भद्रे, क्या तुम्हें मेरी कारागार से मुक्ति अच्छी नहीं लगी? क्या कारण है कि तुम विमुख होकर अपनी अप्रसन्नता प्रकट कर रही हो? Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106] [ ज्ञाताधर्मकथा तथ्य से अनजान भद्रा ने कहा- मुझे प्रसन्नता, आनन्द और सन्तोष कैसे हो सकता है जब कि आपने मेरे लाडले बेटे के हत्यारे वैरी विजय चोर को प्राहार-पानी में से हिस्सा दिया है ? धन्य सार्थवाह भद्रा के कोप का कारण समझ गया। समग्र परिस्थिति समझाते हुए उसने स्पष्टीकरण किया--- देवानुप्रिये ! मैंने उस वैरी को हिस्सा तो दिया है मगर धर्म समझ कर, कर्तव्य समझ कर, न्याय अथवा प्रत्युपकार समझ कर नहीं दिया, केवल मल-मूत्र की बाधानिवृत्ति में सहायक बने रहने के उद्देश्य से ही दिया है। यह स्पष्टीकरण सुनकर भद्रा को सन्तोष हुा / वह प्रसन्न हुई। विजय चोर अपने घोर पापों का फल भुगतने के लिए नरक का अतिथि बना / धन्य सार्थवाह कुछ समय पश्चात् धर्मघोष स्थविर से मुनिदीक्षा अंगीकार करके अन्त में स्वर्ग-वासी हुआ / तात्पर्य यह है कि जैसे धन्य सार्थवाह ने ममता या प्रीति के कारण विजय चोर को ग्राहार / नहीं दिया किन्तु शारीरिक बाधा की निवत्ति के लिए दिया, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ मुनि शरीर के प्रति प्रासक्ति के कारण आहार-पानी से उसका पोषण नहीं करते, मात्र शरीर की सहायता से सम्यग्ज्ञान दर्शन और चारित्र को रक्षा एवं वृद्धि के उद्देश्य से ही उसका पालन-पोषण करते हैं। विस्तार के लिए देखिये पूरा अध्ययन / Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीरां अज्झराण : संघाडे श्री जम्बू को जिज्ञासा १-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, बिइयस्स णं भंते ! नायज्झयणस्स के अढे पन्नत्ते ? श्री जम्बू स्वामी, श्री सुधर्मा स्वामी से प्रश्न करते हैं—'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर से प्रथम ज्ञाताध्ययन का यह (आपके द्वारा प्रतिपादित पूर्वोक्त) अर्थ कहा है, तो भगवन् ! द्वितीय ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? श्री सुधर्मा द्वारा समाधान 2-- एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णाम नयरे होत्था, वन्नओ।' तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए राया होत्था महया० वण्णओ। तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए गुणसिलए नाम चेइए होत्था, वन्नओ। श्री सुधर्मा स्वामी, जम्बू स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए, द्वितीय अध्ययन के अर्थ की भूमिका प्रतिपादित करते हैं -हे जम्बू ! उस काल-चौथे आरे के अन्त में और उस समय में जब भगवान् इस भूमि पर विचरते थे, राजगह नामक नगर था। उसका वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार कह लेना चाहिए / उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था। वह महान् हिमवन्त पर्वत के समान था, इत्यादि वर्णन भी औपपातिक सूत्र से समझ लेना चाहिए। उस राजगृह नगर से बाहर उत्तरपूर्व दिशा में- ईशान कोण में-गुणशील नामक चैत्य था / उसका वर्णन भी औपपातिक सूत्र के अनुसार ही कह लेना चाहिए। ३–तस्स गं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते एत्य णं महं एगे पडिय-जिण्णुज्जाणे यावि होत्था, विणट्ठदेवकुले परिसाडियतोरणघरे नाणाविहगुच्छ-गुम्म-लया-वल्लि-वच्छ-च्छाइए अणेगवालसयसंकणिज्जे यावि होत्था / उस गुणशील चैत्य से न बहुत दूर न अधिक समीप, एक भाग में गिरा हुआ जीर्ण उद्यान था। उस उद्यान का देवकुल विनष्ट हो चुका था। उस के द्वारों आदि के तोरण और दूसरे गह भग्न हो गये थे / नाना प्रकार के गुच्छों, गुल्मों (बांस आदि की झाड़ियों), अशोक आदि की लताओं, ककड़ी आदि की बेलों तथा अाम्र आदि के वृक्षों से वह उद्यान व्याप्त था। सैकड़ों सों आदि के कारण वह भय उत्पन्न करता था--भयंकर जान पड़ता था। ४--तस्स गं जिन्नुज्जाणस्य बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भग्गवए यावि होत्था। उस जीर्ण उद्यान के बहुमध्यदेश भाग में बीचों-बीच एक टूटा-फूटा बड़ा कूप भी था / 1. औपपातिकसूत्र, 3. 2. प्रोप० सूत्र 6. 3. श्रीप० 2. ---- - Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 ] [ ज्ञाताधर्मकथा ५-तस्स णं भग्गवस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे मालुयाकच्छए यावि होत्था, किण्हे किण्होभासे जाव [नीले नीलोभासे हरिए हरिओभासे सीए सीओभासे गिद्धे णिद्धोभासे तिब्वे तिव्वोभासे, किण्हे किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए, सीए सीयच्छाए, गिद्धे णिद्धच्छाए, तिव्वे तिव्वच्छाए, घण-कडिअकडिच्छाए] रम्मे महामेहनिउरंबभूए बहूहिं रुक्खेहि य गुच्छेहि य गुम्मेहि य लयाहि य वल्लीहि य तणेहि य कुसेहि य खाणुएहि य संछन्ने पलिच्छन्ने अंतो झुसिरे वाहिं गंभोरे अणेगवालसयसंकणिज्जे यावि होत्था। उस भग्न कूप से न अधिक दूर न अधिक समीप, एक जगह एक बड़ा मालुकाकच्छ था। वह अंजन के समान कृष्ण वर्ण वाला था और कृष्ण-प्रभा वाला था-देखने वालों को कृष्ण वर्ण ही दिखाई देता था, यावत मयर की गर्दन के समान नील था, नील-प्रभा वाला था, तोते की छ के समान हरित और हरित-प्रभा वाला था / वल्ली आदि से व्याप्त होने के कारण शीत स्पर्श वाला था और शीत-स्पर्श वाला ही प्रतीत होता था / वह रूक्ष नहीं बल्कि स्निग्ध था एवं स्निग्ध ही प्रतीत होता था। उसके वर्णादि गुण प्रकर्षवान थे / वह कृष्ण होते हए कृष्ण छाया वाला, इसी प्रकार नील, नील छाया वाला, हरित, हरित छाया वाला, शीत, शीत छाया वाला, तीव्र, तीव्र छाया वाला. और अत्यन्त सघन छाया वाला था] रमणीय और महामेघों के समूह जैसा था / वह बहुत-से वृक्षों, गुच्छों गुल्मों, लताओं, बेलों, तृणों, कुशों (दर्भ) और ठूठों से व्याप्त था और चारों ओर से आच्छादित था। वह अन्दर से पोला अर्थात् विस्तृत था और बाहर से गंभीर था, अर्थात् अन्दर दृष्टि का संचार न हो सकने के कारण सघन था / अनेक सैकड़ों हिंसक पशुओं अथवा सर्षों के कारण शंकाजनक था। विवेचन-मालुक, वृक्ष की एक जाति है / उसके फल में एक ही गुठली होती है। अथवा मालुक का अर्थ ककड़ी, फूटककड़ी आदि भी होता है / उनकी झाड़ी मालुकाकच्छ कहलाती है / कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी वस्तु का असली वर्ण अन्य प्रकार का होता है किन्तु बहुत समीपता अथवा बहुत दूरी के कारण वह वर्ण अन्य-भिन्न प्रकार का भासित-प्रतीत होता है / मालुकाकच्छ के विषय में ऐसा नहीं था। वह जिस वर्ण का था उसी वर्ण का जान पड़ता था। यही प्रकट करने के लिए यहाँ कहा गया है कि वह कृष्ण वर्ण वाला और कृष्णप्रभा वाला था, आदि / ६-तत्थ णं रायगिहे नगरे धण्णे नामं सत्थवाहे अड्ढे दित्ते जाव [वित्थिण्ण-विउल सयणासण-भवण-जाण-वाहणाइण्णे बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलग्गप्पभूए बहुधण-बहुजायरूव-रयए आओग-पओग-संपउत्ते विच्छड्डिय-] विउलभत्तपाणे / तस्स णं धन्नस्स सत्थवाहस्स भद्दा नाम भारिया होत्था, सुकुमालपाणिपाया अहीणपडिपुण्णचिदियसरीरा लक्खण-वंजणगुणोववेया माणुम्माणप्पमाण-पडिपुण्णसुजायसव्वंगसुदरंगी ससिसोमागारा कंता पियदसणा सुरूवा करयलपरिमियतिवलियमज्झा कुंडलुल्लियिगंडलेहा कोमुइरणियरपडिपुण्णसोमवयणा सिंगारागारचारुवेसा जाव [संगय-गय-हसिय-भणिय-विहिय-विलास-सललिय-संलाव-निउण-जुत्तोवयार-कुसला पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा] पडिरूवा वंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाया यावि होत्था / राजगृह नगर में धन्य नामक सार्थवाह था / वह समृद्धिशाली था, तेजस्वी था, उसके यहाँ विस्तीर्ण एवं विपुल शय्या, आसन, यान तथा वाहन थे, बहुसंख्यक दास, दासी, गायें, भैसें तथा Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ] [ 109 बकरियां थी, बहुत धन, सोना एवं चांदी थी, उसके यहाँ खूब लेन-देन होता था] घर में बहुत-सा भोजन-पानी तैयार होता था / उस धन्य सार्थवाह की पत्नी का नाम भद्रा था। उसके हाथ पैर सुकुमार थे / पाँचों इन्द्रियाँ हीनता से रहित परिपूर्ण थीं ! वह स्वस्तिक आदि लक्षणों तथा तिल मसा आदि व्यंजनों के गुणों से युक्त थी। मान, उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण थी। अच्छी तरह उत्पन्न हुए–सुन्दर सब अवयवों के कारण वह सून्दरांगी थी। उसका आकार चन्द्रमा के समान सौम्य था। वह अपने पति के लिए मनोहर थी। देखने में प्रिय लगती थी। सुरूपवती थी। मुट्ठी में समा जाने वाला उसका मध्य भाग (कटिप्रदेश) त्रिवलि से सुशोभित था / कुडलों से उसके गंडस्थलों की रेखा घिसती रहती थी। उसका मुख पूर्णिमा के चन्द्र के समान सौम्य था / वह शृंगार का आगार थी / उसका वेष सुन्दर था / यावत् [उसकी चाल, उसका हँसना तथा बोलना सुसंगत था--मर्यादानुसार था, उसका विलास, बालाप-संलाप, उपचार-सभी कुछ संस्कारिता के अनुरूप था / उसे देखकर प्रसन्नता होती थी। वह वस्तुत: दर्शनीय थी, सुन्दर थी] वह प्रतिरूप थी उसका रूप प्रत्येक दर्शक को नया-नया ही दिखाई देता था / मगर वह वन्ध्या थी, प्रसव करने के स्वभाव से रहित थी। जानु (घुटनों) और कूपर (कोहनी) की ही माता थी, अर्थात् सन्तान न होने से जानु और कूपर ही उसके स्तनों का स्पर्श करते थे या उसकी गोद में जानु और कूर्पर ही स्थित होते थे-पुत्र नहीं। ७-तस्स णं धण्णस्स सत्यवाहस्स पंथए नाम दासचेडे होत्था, सव्वंगसुदरंगे मंसोवचिए बालकोलावणकुसले यावि होत्या। उस धन्य सार्थवाह का पंथक नामक एक दास-चेटक था / वह सर्वांग-सुन्दर था, मांस से पुष्ट था और बालकों को खेलाने में कुशल था। ८-तए णं से धण्णे सत्थवाहे रायगिहे नयरे बहूर्ण नगरनिगमसेट्ठिसत्यवाहाणं अट्ठारसण्ह य सेणिप्पसेणीणं बहुसु कज्जेसु य कुडुबेसु य मंतेसु य जाव' चक्खुभूए यावि होत्था। नियगस्स वि य गं कुडुबस्स बहुसु य कज्जेसु जाव चक्खुभूए यादि होत्था। वह धन्य सार्थवाह राजगृह नगर में बहुत से नगर के व्यापारियों, श्रेष्ठियों और सार्थवाहों के तथा अठारहों श्रेणियों (जातियों) और प्रश्रेणियों (उपजातियों) के बहुत से कार्यों में, कुटुम्बों में-.. कुटुम्ब सम्बन्धी विषयों में और मंत्रणाओं में यावत् चक्षु के समान मार्गदर्शक था और अपने कुटुम्ब में भी बहुत से कार्यों में यावत् चक्ष के समान था। 9 तत्थ णं रायगिहे नगरे विजए नाम तक्करे होत्था, पावे चंडालरूवे भीमतररुद्दकम्मे आरुसिय-दित्त-रत्त-नयणे खर-फरुस-महल्ल-विगय-वीभत्थदाढिए असंपुडियउठे उद्धय-पइन्न-लंबंतमुद्धए भ मर-राहवन्ने निरणुक्कोसे निरणतावे दारुण पइभए निसंसइए निरणकंपे अहिन्द एगंतदिट्रिए, खुरे व एगंतधाराए, गिद्धव आमिसतल्लिच्छे अग्गिमिव सव्वभक्खी, जलमिव सव्वगाही, उक्कंचणमाया-नियडि-कूडकवड-साइ-संपओगबहुले, चिरनगरविणट्ठ-दुट्ठसीलायारचरित्ते, जूयपसंगो, मज्ज 1. प्र. अ. सूत्र 15. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 ] [ ज्ञाताधर्मकथा पसंगी भोजपसंगी, मंसपसंगी, दारुणे, हिययदारए, साहसिए, संधिच्छेयए, उवहिए, विस्संभधाई, आलीयगतित्थभेय-लहुहत्थसंपउत्ते, परस्स दव्वहरणम्मि निच्चं अणुबद्धे, तिव्ववेरे, रायगिहस्स नगरस्स बहूणि अइगमणाणि य निग्गमणाणि य दाराणि य अवदाराणि य छिडिओ य खंडिओ य नगरनिद्धमणाणि य संवट्टणाणि य निव्वदृणाणि य जयखलयाणि य पाणागाराणि य वेसागाराणि य तद्दारट्ठाणाणि (तक्करट्ठाणाणि) य तक्करघराणि य सिंघाडगाणि य तियाणि य चउक्काणि य चच्चराणि य नागधराणि य भूयघराणि य जक्खदेउलाणि य सभाणि य पवाणि य पाणियसालाणि य सुन्नघराणि य आभोएमाणे आभोएमाणे मगमाणे गवेसमाणे, बहुजणस्स छिद्देसु य विसमेसु य विहुरेसु य वसणेसु य अब्भुदएसु य उस्सवेसु य पसवेसु य तिहीसु य छणेसु य जन्नेसु य पव्वणीसु य मत्तपमत्तस्स य वविखत्तस्स य वाउलस्स य सुहियस्स सदुक्खियस्स य विदेसत्थस्स य विष्पवसियस्स य मग्गं च छिद्द च विरहं च अन्तरं च मग्गमाणे गवेसमाणे एवं च णं विहरइ। __उस राजगृह में विजय नामक एक चोर था / वह पाप कर्म करने वाला, चाण्डाल के समान रूप वाला, अत्यन्त भयानक और क्रूर कर्म करने वाला था। क्रुद्ध हुए पुरुष के समान देदीप्यमान और लाल उसके नेत्र थे। उसकी दाढ़ी या दाढ़ें अत्यन्त कठोर, मोटी, विकृत और बीभत्स (डरावनी) थीं। उसके होठ आपस में मिलते नहीं थे, अर्थात् दांत बड़े और बाहर निकले हुए थे और होठ छोटे थे / उसके मस्तक के केश हवा से उड़ते रहते थे, बिखड़े रहते थे और लम्बे थे / वह भ्रमर और राहु के समान काला था / वह दया और पश्चात्ताप से रहित था। दारुण (रौद्र) था और इसी कारण भय उत्पन्न करता था। वह नशंस---नरसंघातक था। उसे प्राणियों पर अनकम्पा नहीं की भाँति एकान्त दृष्टि वाला था, अर्थात किसी भी कार्य के लिए पक्का निश्चय कर लेता था। वह छुरे की तरह एक धार वाला था, अर्थात् जिसके घर चोरी करने का निश्चय करता उसी में पूरी तरह संलग्न हो जाता था / वह गिद्ध की तरह मांस का लोलुप था और अग्नि के समान सर्वभक्षी था अर्थात् जिसकी चोरी करता, उसका सर्वस्व हरण कर लेता था। जल के समान सर्वग्राही था, अर्थात् नजर पर चढ़ी सब वस्तुओं का अपहरण कर लेता था। वह उत्कंचन में (हीन गुण वाली वस्तु को अधिक मूल्य लेने के लिए उत्कृष्ट गुण वाली बनाने में), वंचन (दूसरों को ठगने) में, माया (पर को धोखा देने की बुद्धि) में, निकृति (बगुला के समान ढोंग करने में), कूट में अर्थात् तोल-नाप को कमज्यादा करने में और कपट करने में अर्थात् वेष और भाषा को बदलने में अति निपुण था। सातिसंप्रयोग में अर्थात् उत्कृष्ट वस्तु में मिलावट करने में भी निपुण था या अविश्वास करने में चतुर था / वह चिरकाल से नगर में उपद्रव कर रहा था। उसका शील, आचार और चरित्र अत्यन्त दूषित था। वह चूत से आसक्त था, मदिरापान में अनुरक्त था, अच्छा भोजन करने में गद्ध था और मांस में लोलुप था। लोगों के हृदय को विदारण कर देने वाला, साहसी अर्थात् परिणाम का विचार न करके कार्य करने वाला, सेंध लगाने वाला, गुप्त कार्य करने वाला, विश्वासघाती और आग लगा देने वाला था / तीर्थ रूप देवद्रोणी (देवस्थान) आदि का भेदन करके उसमें से द्रव्य हरण करने वाला और हस्तलाघव वाला था / पराया द्रव्य हरण करने में सदैव तैयार रहता था / तीव्र बैर वाला था। वह विजय चोर राजगृह नगर के बहुत से प्रवेश करने के मार्गों, निकलने के मार्गों, दरवाजों, पीछे को खिड़कियों, छेड़ियों, किलों की छोटी खिड़कियों, मोरियों, रास्ते मिलने की जगहों, रास्ते Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ] [ 111 अलग-अलग होने के स्थानों, जुमा के अखाड़ों, मदिरापान के अड्डों, वेश्या के घरों, उनके घरों के द्वारों (चोरों के अड्डों), चोरों के घरों, शृगाटकों-सिंघाड़े के आकार के मार्गों, तीन मार्ग मिलने के स्थानों, चौकों, अनेक मार्ग मिलने के स्थानों, नागदेव के गृहों, भूतों के गृहों, यक्षगृहों, सभास्थानों, प्याउओं, दुकानों और शून्यगृहों को देखता फिरता था / उनकी मार्गणा करता था-उनके विद्यमान गुणों का विचार करता था, उनकी गवेषणा करता था, अर्थात् थोड़े जनों का परिवार हो तो चोरी करने में सुविधा हो, ऐसा विचार किया करता था / विषम-रोग की तीव्रता, इष्ट जनों के वियोग, व्यसन-राज्य आदि की ओर से आये हुए संकट, अभ्युदय-राज्यलक्ष्मी प्रादि के लाभ, उत्सवों, प्रसवपुत्रादि के लाभ, मदन त्रयोदशी आदि तिथियों, क्षण-बहुत लोकों के भोज आदि के प्रसंगों, यज्ञ-नाग आदि की पूजा, कौमुदी अादि पर्वणी में, अर्थात् इन सब प्रसंगों पर बहुत से लोग मद्यपान से मत्त हो गए हों, प्रमत्त हुए हों, अमुक कार्य में व्यस्त हों, विविध कार्यों में प्राकुल-व्याकुल हों, सुख में हों, दुःख में हों, परदेश गये हों, परदेश जाने की तैयारी में हों, ऐसे अवसरों पर वह लोगों के छिद्र का, विरह (एकान्त) का और अन्तर (अवसर) का विचार करता और गवेषणा करता रहता था। १०-बहिया वि य णं रायगिहस्स नगरस्स आरामेसु य, उज्जाणेसु य वावि-पोखरिणीदीहिया-गुजालिया-सरेसु य सरपंतिसु य सरसरपंतियासु य जिण्णुज्जाणेसु य भग्गकूवएसु य मालुयाकच्छएसु य सुसाणेसु य गिरिकन्दर-लेण-उवट्ठाणेसु य बहुजणस्स छिद्देसु य जाव अन्तरं मग्गमाणे गवेसमाणे एवं च णं विहरइ। वह विजय चोर राजगृह नगर के बाहर भी आरामों में अर्थात् दम्पती के क्रीड़ा करने के लिए माधवीलतागृह आदि जहाँ बने हों ऐसे बगीचों में, उद्यानों में अर्थात् पुष्पों वाले वृक्ष जहाँ हों और लोग जहाँ जाकर उत्सव मनाते हों ऐसे बागों में, चौकोर बावड़ियों में, कमल वाली पुष्करिणियों में, दीपिकाओं (लम्बी बावडियों) में, गुजालिकाओं (बांकी बावडियों) में, सरोवरों में, सरोवरों की पंक्तियों में, सर-सर पंक्तियों (एक तालाब का पानी दूसरे तालाब में जा सके, ऐसे सरोवरों को पंक्तियों) में, जीर्ण उद्यानों में, भग्न कूपों में, मालुकाकच्छों की झाड़ियों में, श्मशानों में, पर्वत की गुफाओं में, लयनों अर्थात् पर्वतस्थित पाषाणगृहों में तथा उपस्थानों अर्थात् पर्वत पर स्थित पाषाणमंडपों में उपर्युक्त बहुत लोगों के छिद्र आदि देखता रहता था। ११-तए णं तीसे भद्दाए भारियाए अन्नया कयाइं पुव्वरत्तावरत्तकाल-समयंसि कुडुबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव (चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे) समुप्पज्जित्था 'अहं धन्नेणं सत्थवाहेण सद्धि बहूणि वासाणि सद्द-फरिस-रस-गंध-रूवाणि माणुस्सयाई कामभोगाई पच्चणुभवमाणी विहरामि / नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयायामि / तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव [ संपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयस्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ, अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयविहवाओ णं ताओ अम्मयाओ] सुलद्धे णं माणुस्सए जम्मजीवियफले तासि अम्मयाणं, जासिं मन्ने णियगकुच्छिसंभूयाई थणदुद्धलुद्धयाई महरसमुल्लावगाइं मम्मणपयंपियाई थणमूला कक्खदेसभागं अभिसरमाणाई मुद्धयाइं थणयं पिबंति / तओ य कोमलकमलोवमेहि हत्थेहि गिहिणं उच्छंगे निवेसियाई देन्ति समुल्लावए पिए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पणिए / Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तं अहं णं अधन्ना अपुन्ना अलक्खणा अकयपुन्ना एत्तो.एगवि न पत्ता।' धन्य सार्थवाह की भार्या भद्रा एक बार कदाचित् मध्यरात्रि के समय कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता कर रही थी कि उसे इस प्रकार का विचार, [चिन्तन, अभिलाष एवं मानसिक संकल्प] उत्पन्न हुअा--- बहुत वर्षों से मैं धन्य सार्थवाह के साथ शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप यह पांचों प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगतो हुई विचर रही हूँ, परन्तु मैंने एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म नहीं दिया / वे माताएँ धन्य हैं, यावत् [वे माताएँ प्रशस्त पुण्य वाली हैं, वे माताएँ कृतार्थ हैं-पूर्ण मनोरथ वाली हैं, वस्तुतः उन माताओं ने पुण्य उपार्जन किया है, उन माताओं के लक्षण सार्थक हुए हैं और वे माताएँ वैभवशालिनी हैं, उन माताओं को मनुष्य-जन्म और जीवन का प्रशस्त-भला फल प्राप्त हुआ है, जो माताएँ, मैं मानती हूँ कि, अपनी कूख से उत्पन्न हुए, स्तनों का दूध पीने में लुब्ध, मीठे वोल बोलने वाले, तुतला-तुतला कर बोलने वाले और स्तन के मूल से काँख के प्रदेश की ओर सरकने वाले मग्ध बालकों को स्तनपान कराती हैं और फिर कमल के समान कोमल हाथों से उन्हें पकड कर अपनी गोद में बिठलाती हैं और बार-बार अतिशय प्रिय वचन वाले मधुर उल्लाप देती हैं। ___ मैं अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ, कुलक्षणा हूँ और पापिनी हूँ कि इनमें से एक भी (विशेषण) न पा सकी। १२-तं सेयं मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव' जलंते धण्णं सत्यवाहं आपुच्छित्ता धणेणं सत्थवाहेणं अब्भणुन्नाया समाणी सुबहुं विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेत्ता सुबहुं पुष्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय बहूहि मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधी-परिजण-महिलाहिं सद्धि संपरिवडा जाई इमाई रायगिहस्स नगरस्स बहिया णागाणि य भूयाणि य जक्खाणि य इंदाणि य खंदाणि य रुद्दाणि य सिवाणि य वेसमणाणि य तत्थ गं बहूणं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य महरिहं पुप्फच्चणियं करेत्ता जाणुपायपडियाए एवं वइत्तए-जइ णं अहं देवाणुप्पिया ! दारगं वा दारिगं वा पायायामि, तो णं अहं तुभं जायं च दायं च भायं च अक्खयहिं च अणुवढेमि त्ति कटु उवाइयं उवाइत्तए। अतएव मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि कल रात्रि के प्रभात रूप में प्रकट होने पर और सूर्योदय होने पर धन्य सार्थवाह से पूछ कर, धन्य सार्थवाह की आज्ञा प्राप्त करके मैं बहुत-सा अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार कराके बहुत-से पुष्प वस्त्र गंधमाला और अलंकार ग्रहण करके, बहुसंख्यक मित्र, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धियों और परिजनों की महिलाओं के साथ- उनसे परिवृत होकर, राजगृह नगर के बाहर जो नाग, भूत, यक्ष, इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव और वैश्रमण आदि देवों के आयतन हैं और उनमें जो नाग की प्रतिमा यावत् वैश्रमण की प्रतिमाएँ हैं, उनकी बहमूल्य पूष्पादि से पूजा करके घटने और पैर झका कर अर्थात उनको नमस्क प्रकार कहूँ—'हे देवानुप्रिय ! यदि मैं एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म दूगी तो मैं तुम्हारी पूजा करूंगी, पर्व के दिन दान दूगी, भाग-द्रव्य के लाभ का हिस्सा दूगी और तुम्हारी अक्षय-निधि की वृद्धि करूंगी।' इस प्रकार अपनी इष्ट वस्तु की याचना करू / १-प्र. अ. सूत्र 18 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ] [113 १३–एवं संपेहेइ, संपेहिता कल्लं जाव' जलते जेणामेव धण्णे सत्यवाहे तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता एवं वयासी–एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! तुन्भेहि सद्धि बहूई वासाई जाव देन्ति समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पणिए / तं णं अहं अहन्ना अपुन्ना अकयलक्खणा, एत्तो एगमवि न पत्ता / तं इच्छामि णं देवाणुप्पिा ! तुम्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणी विउलं असणं 4 जाब अणुवढेमि, उवाइयं करेत्तए। भद्रा ने इस प्रकार विचार किया। विचार करके दूसरे दिन यावत् सूर्योदय होने पर जहाँ धन्य सार्थवाह थे, वहीं आई / आकर इस प्रकार बोली देवानुप्रिय ! मैंने आपके साथ बहुत वर्षों तक कामभोग भोगे हैं, किन्तु एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म नहीं दिया / अन्य स्त्रियाँ बार-बार अति मधुर वचन वाले उल्लाप देती हैं- अपने बच्चों को लोरियाँ गाती हैं, किन्तु मैं अधन्य, पुण्य-होन और लक्षणहीन हूँ, जिससे पूर्वोक्त विशेषणों में से एक भी विशेषण न पा सकी। तो हे देवानुप्रिय ! मैं चाहती हूँ कि आपकी आज्ञा पाकर विपुल अशन प्रादि तैयार कराकर नाग आदि की पूजा करूं यावत् उनकी अक्षय निधि की वृद्धि करू, ऐसी मनौती मनाऊँ / (पूर्व सूत्र के अनुसार यहाँ भी सब कह लेना चाहिए)। पति की अनुमति १४-तए णं धण्णे सत्थवाहे भई भारियं एवं वयासी----'ममं पि य णं खलु देवाणुप्पिए ! एस चेव मणोरहे- कहं णं तुमं दारगं वा दारियं वा पयाएज्जासि ?' भद्दाए सत्यवाहीए एयम? अणुजाणाइ। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने भद्रा भार्या से इस प्रकार कहा---'हे देवानुप्रिये ! निश्चय ही मेरा भी यही मनोरथ है कि किसी प्रकार तुम पुत्र या पुत्री का प्रसव करो जन्म दो।' इस प्रकार कह कर भद्रा सार्थवाही को उस अर्थ को अर्थात् नाग, भूत, यक्ष आदि की पूजा करने की अनुमति दे दी। देवों की पूजा १५-तए णं सा भद्दा सत्यवाही धण्णेणं सत्थवाहेणं अब्भणुन्नाया समाणी हद्वतुट्ठ जाव' हयहियया विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ / उवक्खडावेत्ता सुबहुं पुप्फ-गंध-वत्थ-मल्लालंकारं गेण्हइ। गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ निग्गच्छइ। निग्गच्छित्ता रायगिहं नगरं मज्झमझेणं निग्गच्छइ / निग्गच्छित्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता पुक्खरिणीए तीरे सुबहुं पुष्फ जाव मल्लालंकारं ठवेइ / ठवित्ता पुक्खरिणि ओगाहेइ / ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ, जलकोडं करेइ, करिता व्हाया कयबलिकम्मा उल्लपडसाडिगा जाई तत्थ उप्पलाइं जाव (पउमाइं कुमुयाई लिणाई सुभगाई सोगंधियाई पोंडरीयाई महापोंडरीयाई सयवत्ताई) सहस्सपत्ताई ताई गिण्हइ / गिण्हित्ता पुक्खरिणीओ पच्चोरहइ / पच्चोरुहित्ता तं सुबहुं पुष्फगंधमल्लं गेण्हइ। गेण्हित्ता जेणामेव नागघरए य जाव वेसमगधरए / तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता तत्थ णं नागपडिमाण य जाव 1. प्र. अ. सूत्र 28. 2. द्वि. अ. सूत्र 11. 3. प्र. अ. सूत्र 18. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114] [ ज्ञाताधर्मकथा वेसमणपडिमाण य आलोए पणामं करेइ, ईसि पच्चुन्नमइ / पच्चुन्नमित्ता लोमहत्थगं परामुसइ / परामुसित्ता नागपडिमाओ य जाव वेसमणपडिमाओ य लोमहत्थेणं पमज्जइ, उदगधाराए अब्भुक्खेइ / अभुक्खित्ता पम्हलसुकुमालाए गंधकासाईए गायाई लहेइ / लूहित्ता महरिहं वत्थारुहणं च मल्लारुहणं च गंधारहणं च चुन्नारुहणं च वन्नारुणं च करेइ / करिता धूवं डहइ, डहित्ता जाणुपायवडिया पंजलिउडा एवं वयासी-'जइ णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयायामि तो णं अहं जायं य जाव अणुवढेमि त्ति कट्ट उवाइयं करेइ, करिता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता विपुलं असणपाणखाइमसाइमं आसाएमाणी जाव (विसाएमाणी परिभाएमाणी परिभुजेमाणी एवं च णं) विहरइ / जिमिया जाव (भुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा आयंता चोक्खा परम-) सुइभूया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया। तत्पश्चात् वह भद्रा सार्थवाही धन्य सार्थवाह से अनुमति प्राप्त करके हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्लितहृदय होकर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराती है। तैयार कराकर बहुत-से गंध, वस्त्र, माला और अलंकारों को ग्रहण करती है और फिर अपने घर से बाहर निकलती है / राजगृह नगर के बीचों-बीच होकर निकलती है। निकलकर जहाँ पुष्करिणी थी, वहीं पहुंचती है। वहां पहुँच कर उसने पुष्करिणी के किनारे बहुत से पुष्प, गंध, वस्त्र, मालाएँ और अलंकार रख दिए / रख कर पुष्करिणी में प्रवेश किया, जलमज्जन किया, जलक्रीडा की, स्नान किया और बलिकर्म किया। तत्पश्चात् अोढ़ने-पहनने के दोनों गीले वस्त्र धारण किये हुए भद्रा सार्थवाही ने वहाँ जो उत्पल-कमल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुडरीक, महापुडरीक, शतपत्र और सहस्रपत्र-कमल थे उन सबको ग्रहण किया। फिर पुष्करिणी से बाहर निकली। निकल कर पहले रक्खे हुए बहुत-से पुष्प, गंध माला आदि लिए और उन्हें लेकर जहाँ नागागृह था यावत् वैश्रमणगृह था, वहाँ पहुँची। पहुँच कर उनमें स्थित नाग की प्रतिमा यावत् वैश्रमण की प्रतिमा पर दृष्टि पड़ते ही उन्हें नमस्कार किया। कुछ नीचे झुकी। मोर-पिच्छी लेकर उससे नाग-प्रतिमा यावत् वैश्रमणप्रतिमा का प्रमार्जन किया। जल की धार छोड़कर अभिषेक किया। अभिषेक करके रु एंदार कोमल कषाय-रंग वाले सुगंधित वस्त्र से प्रतिमा के अंग पौंछे। पौंछकर बहुमूल्य वस्त्रों का प्रारोहण किया-वस्त्र पहनाए, पुष्पमाला पहनाई, गंध का लेपन किया, चूर्ण चढ़ाया और शोभाजनक वर्ण का स्थापन किया, यावत् धूप जलाई / तत्पश्चात् घुटने और पैर टेक कर, दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा 'अगर मैं पुत्र या पुत्री को जन्म दूगी तो मैं तुम्हारी याग-पूजा करूगी, यावत् अक्षयनिधि की वृद्धि करूंगी।' इस प्रकार भद्रा सार्थवाही मनौती करके जहाँ पुष्करिणी थी, वहाँ आई और विपुल अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम आहार का आस्वादन करती हुई यावत् विचरने लगी। भोजन करने के पश्चात् शुचि होकर अपने घर आ गई। पुत्र-प्राप्ति १६-अदुत्तरं च णं भद्दा सत्थवाही चाउद्दसट्ठमुद्दिडपुन्नमासिणीसु विउलं असण-पाणखाइम-साइमं उवक्खडेइ, उवक्खडित्ता बहवे नागा य जाव' वेसमणा य उवायमाणी नमसमाणी जाव एवं च णं यिहर। 1. द्वि. अ. सूत्र 12. . Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ] [ 115 तए णं सा भद्दा सत्थवाही अन्नया कयाइ केणइ कालंतरेणं आवन्नसत्ता जाया यावि होत्था / तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन विपुल प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन तैयार करती / तैयार करके बहुत से नाग यावत् वैश्रमण देवों की मनौती करतो-भोग चढ़ाती थी और उन्हें नमस्कार किया करती थी। तत्पश्चात् वह भद्रा सार्थवाही कुछ समय व्यतीत हो जाने पर एकदा कदाचित् गर्भवती हो गई। १७–तए णं तोसे भद्दाए सत्थवाहीए दोसु मासेसु वीइक्कतेसु तइए मासे वट्टमाणे इमेयारूवे दोहले पाउन्भूए-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव' कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, जाओ पं विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं सुबहुयं पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियण-महिलियाहि य सद्धि संपरिवुडाओ रायगिहं नगरं मज्झमझेण निग्गच्छति / निग्गच्छित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता पोक्खरिणि ओगाहिति, ओगाहित्ता पहायाओ कयबलिकम्माओ सव्वालंकारविभूसियाओ विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं आसाएमाणोओ जाव (विसाएमाणीओ परिभाएमाणीओ) पडिजेमाणीओ दोहलं विन्ति / एवं संपेहेह, संपेहित्ता कल्लं जाव' जलते जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता धणं सत्यवाहं एवं वयासी--‘एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम तस्स गन्भस्स जाव (दोसु मासेसु वीइक्कतेसु तइए मासे वट्टमाणे इमेयारूवे दोहले पाउन्भूए-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव दोहलं) विर्णन्ति; तं इच्छामि णं देवाणुपिया ! तुहि अब्भणुन्नाया समाणी जाव विहरित्तए। 'अहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंधं करेह / ' तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही को (गर्भवतो हुए) दो मास बीत गये। तीसरा मास चल रहा था, तब इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुा-'वे माताएँ धन्य हैं, यावत् (पुण्यशालिनी हैं, कृतार्थ हैं) तथा वे माताएँ शुभ लक्षण वाली हैं जो विपुल प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम–यह चार प्रकार का आहार तथा बहुत-सारे पुष्प, वस्त्र, गंध और माला तथा अलंकार ग्रहण करके मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों की स्त्रियों के साथ परिवृत होकर राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर निकलती हैं। निकल कर जहाँ पुष्करिणी है वहाँ आती हैं, पाकर पुष्करिणी में अवगाहन करती हैं, अवगाहन करके स्नान करती हैं, बलिकर्म करती हैं और सब अलंकारों से विभूषित होती हैं / फिर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार का आस्वादन करती हुई, विशेष आस्वादन करती हुई, विभाग करती हुई तथा परिभोग करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं।' इस प्रकार भद्रा सार्थवाहो ने विचार किया। विचार करके कल-दूसरे दिन प्रातः काल सूर्योदय होने पर. धन्य सार्थवाह के पास आई। आकर धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! मुझे उस गर्भ के प्रभाव से ऐसा दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएँ धन्य हैं और सुलक्षणा हैं जो अपने दोहद को पूर्ण करतो हैं, आदि / अतएव हे देवानुप्रिय ! आपकी आज्ञा हो तो मैं भी दोहद पूर्ण करना चाहती हूँ। __ सार्थवाह ने कहा है देवानुप्रिये ! जिस प्रकार सुख उपजे वैसा करो। उसमें ढोल मत करो। 1. द्वि म. सूत्र 11. 2. प्र. प्र. सूत्र 28. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा १५-तए णं सा भद्दा सत्थवाही धण्णणं सत्यवाहेणं अन्भणुन्नाया समाणी हट्ठा जाव विउलं असणपाणखाइमसाइमं जाव उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता व्हाया जाव (कयबलिकम्मा) उल्लपडसाडगा जेणेव णागघरए जाव' धवं दहइ / दहिता पणामं करेइ, पणामं करेत्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ। तए णं ताओ मित्त-नाइ जाव नगरमहिलाओ भई सत्यवाहि सव्वालंकार-विभूसियं करेइ / तए णं सा भद्दा सत्थवाही ताहि मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजण-णगरमहिलियाहि सद्धि तं विउलं असणपाणखाइमसाइमं जाव परिभुजेमाणी य दोहलं विणेइ। विणित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह से प्राज्ञा पाई हुई भद्रा सार्थवाही हृष्ट-तुष्ट हुई / यावत् विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करके यावत् स्नान तथा बलिकर्म करके यावत् पहनने और ओढ़ने का गीला वस्त्र धारण करके जहाँ नागायतन आदि थे, वहाँ आई / यावत् धूप जलाई तथा बलिकर्म एवं प्रणाम किया। प्रणाम करके जहाँ पुष्करिणी थी, वहाँ आई। आने पर उन मित्र, ज्ञाति यावत् नगर की स्त्रियों ने भद्रा सार्थवाही को सर्व आभूषणों से अलंकृत किया। __ तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन एवं नगर की स्त्रियों के साथ विपुल प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम का यावत् परिभोग करके अपने दोहद को पूर्ण किया। पूर्ण करके जिस दिशा से वह पाई थी, उसी दिशा में लौट गई / पुत्र-प्रसव १९-तए णं सा भद्दा सत्यवाही संपुन्नडोहला जाव' तं गम्भं सुहंसुहेणं परिवहइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही गवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अद्धट्ठमाण राईदियाणं सुकुमालपाणि-पायं जाव सव्वंगसुदरंगं दारगं पयायां / तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही दोहद पूर्ण करके सभी कार्य सावधानी से करती तथा पथ्य भोजन करती हुई यावत् उस गर्भ को सुखपूर्वक वहन करने लगी। तत्पश्चात् उस भद्रा सार्थवाही ने नौ मास सम्पूर्ण हो जाने पर और साढ़े सात दिन-रात व्यतीत हो जाने पर सुकुमार हाथों-पैरों वाले बालक का प्रसव किया। देवदत्त-नामकरण २०–तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे जातकम्मं करेन्ति, करिता तहेव जाव' विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावेति, उवक्खडावित्ता तहेव मित्तनाइ० भोयावेत्ता अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिप्फण्णं नामधेज्ज करेंति--'जम्हा णं अम्हं इमे दारए बहूणं नागपडिमाण य जाव' वेसमणपडिमाण य उवाइयलद्धे गं तं होउ णं अम्हं इमे दारए देवदिन्ननामेणं / ' तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो जायं च दायं च भायं च अक्खयनिहिं च अणुवड्ढेन्ति / तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने पहले दिन जातकर्म नामक संस्कार किया। करके उसी प्रकार यावत् (दूसरे दिन जागरण, तीसरे दिन चन्द्र-सूर्यदर्शन, आदि लोकाचार किया / सूतक 1. द्वि. अ. सूत्र 15 2. प्र. प्र. सूत्र 86 3. प्र.अ. सूत्र 93-95 4. द्वि. अ. सूत्र 12. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट] [ 117 सम्बन्धी अशुचि दूर हो जाने पर बारहवें दिन विपुल) अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार करवाया / तैयार करवाकर उसी प्रकार मित्र ज्ञाति जनों आदि को भोजन कराकर इस प्रकार का गौण अर्थात् गुणनिष्पन्न नाम रखा–क्योंकि हमारा यह पुत्र बहुत-सी नाग-प्रतिमाओं यावत् [भूत, यक्ष, इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव तथा वैधमण प्रतिमाओं की मनौती करने से उत्पन्न हुआ है, इस कारण हमारा यह पुत्र 'देवदत्त' नाम से हो, अर्थात् इसका नाम 'देवदत्त' रखा जाय / तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने उन देवताओं की पूजा की, उन्हें दान दिया, प्राप्त धन का विभाग किया और अक्षयनिधि की वृद्धि की अर्थात् भनौती के रूप में पहले जो संकल्प किया था उसे पूरा किया। पुत्र का अपहरण २१-तए णं से पंथए दासचेडए देवदिन्नस्स दारगस्स बालग्गाही जाए। देवदिन्नं दारयं कडीए गेण्हइ, गेण्हित्ता बहूहि डिभएहि य डिभयाहि य दारएहि य दारियाहि य कुमारेहि य कुमारियाहि य द्धि संपरिवुडे अभिरमइ।। तत्पश्चात् वह पंथक नामक दास चेटक देवदत्त बालक का बालग्राही (बच्चों को खेलाने वाला) नियुक्त हुआ / वह बालक देवदत्त को कमर में ले लेता और लेकर बहुत-से बच्चों, बच्चियों, बालकों, बालिकाओं, कुमारों और कुमारिकाओं के साथ, उनसे परिवृत होकर खेलता रहता था। २२-तए णं सा भद्दा सत्यवाही अन्नया कयाइं देवदिन्नं दारयं व्हायं कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं करेइ / पंथयस्स दासचेडयस्स हत्थयंसि दलयइ / तए णं पंथए दासचेडए भद्दाए सत्यवाहीए हत्याओ देवदिन्नं दारयं कडीए गेण्हइ, गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ / पडिणिक्खमित्ता बहूहि डिभएहि य डिभियाहि य जाव (दारएहि दारियाहि कुमारेहि) कुमारियाहि य सद्धि संपरिवुडे जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारगं एगते ठावेइ / ठावित्ता बहूहि डिभएहि य जाव कुमारियाहि य सद्धि संपरिवुडे पमत्ते यावि होत्था विहरइ / तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने किसी समय स्नान किये हुए, बलिकर्म, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित् किये हुए तथा समस्त अलंकारों से विभूषित हुए देवदत्त बालक को दास चेटक पंथक के हाथ में सौंपा। पंथक दास चेटक ने भद्रा सार्थवाही के हाथ से देवदत्त बालक को लेकर अपनी कटि में ग्रहण किया। ग्रहण करके वह अपने घर से बाहर निकला / बाहर निकल कर बहुत-से बालकों, बालिकाओं, बच्चों, बच्चिों , कूमारों और कुमारिकारों से परिवत होकर राजमार्ग में आया। आकर देवदत्त बालक को एकान्त में एक ओर बिठला दिया। बिठला कर बहसंख्यक बालकों यावत कुमारिकानों के साथ, (देवदत्त की ओर से) असावधान होकर खेलने लगा-खेलने में मगन हो गया। हत्या २३-इमं च णं विजए तक्करे रायगिहस्स नगरस्स बहूणि बाराणि य अवदाराणि य तहेव Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] [ ज्ञाताधर्मकथा जाव' आभोएमाणे मग्गेमाणे गवेसेमाणे जेणेव देवदिन्ने दारए तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारगं सव्वालंकारविभूसियं पासइ / पासित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणालंकारेसु मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने पंथयं दासचेड पमत्तं पासह। पासित्ता दिसालोयं करेह / करेत्ता देवदितं दारयं मेण्हइ / गेण्हित्ता कक्खंसि अल्लियावेइ / अल्लियावित्ता उत्तरिज्जेणं पिहेइ / पिहेत्ता सिग्धं तुरियं चवलं वेइयं रायगिहस्स नगरस्स अवदारेणं निग्गच्छइ / निग्गच्छित्ता जेणेव जिण्णुज्जाणे, जेणेव भमाकूयए तेणेव उवागच्छई। उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारयं जीवियाओ ववरोवेइ / ववरोवित्ता आभरणालंकारं गेण्हइ / गेण्हित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरयं निप्पाणं निच्चे? जीवियविप्पजढं भग्गकूबए पक्खिवइ। पक्खिवित्ता जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता मालुयाकच्छयं अणुपविसइ / अणुपविसित्ता निच्चले निष्फंदे तुसिणीए दिवसं खिवेमाणे चिट्ठइ / इसी समय विजय चोर राजगृह नगर के बहुत-से द्वारों एवं अपद्वारों आदि को यावत् पूर्वोक्त कथनानुसार देखता हुग्रा, उनकी मार्गणा करता हुआ, गवेषणा करता हुआ, जहाँ देवदत्त बालक था, वहाँ आ पहुँचा / पाकर देवदत्त बालक को सभी आभूषणों से भूषित देखा / देखकर बालक देवदत्त के प्राभरणों और अलंकारों में भूछित (प्रासक्त-विवेकहीन) हो गया, ग्रथित (लोभ से ग्रस्त हो गया, गृद्ध (आकांक्षायुक्त) हो गया और अध्युपपन्न (उनमें अत्यन्त तन्मय) हो गया। उसने दास चेटक पंथक को बेखबर देखा और चारों ओर दिशाओं का अवलोकन किया--इधर-उधर देखा। फिर बालक देवदत्त को उठाया और उठाकर कांख में दबा लिया। प्रोढ़ने के कपड़े से छिपा लिया-हँक लिया। फिर शीघ्र, त्वरित, चपल और उतावल के साथ राजगृह नगर के अपद्वार से बाहर निकल गया / निकल कर जहाँ पूर्ववणित जीर्ण उद्यान और जहाँ टूटा-फूटा कुआ था, वहाँ पहुँचा / वहाँ पहुँच कर देवदत्त बालक को जीवन से रहित कर दिया / उसे निर्जीव करके उसके सब प्राभरण और अलंकार ले लिये / फिर बालक देवदत्त के प्राणहीन और चेष्टाहीन एवं निर्जीव शरीर को उस भग्न कूप में पटक दिया / इसके बाद वह मालुकाकच्छ मे घुस गया और निश्चल अर्थात् गमनागमन रहित, निस्पन्द-हाथों-पैरों को भी न हिलाता हुअा, और मौन रहकर दिन समाप्त होने की राह देखने लगा। विवेचन--बालक निसर्ग से ही सुन्दर और मनोमोहक होते हैं। उनका निर्विकार भोला चेहरा मन को अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है / मगर खेद है कि विवेकहीन माता-पिता उनके प्राकृतिक सौन्दर्य से सन्तुष्ट न होकर उन्हें प्राभूषणों से सजाते हैं / इसमें अपनी श्रीमंताई प्रकट करने का अहंकार भी छिपा रहता है / किन्तु वे नहीं जानते कि ऊपर से लादे हुए श्राभूषणों से सहज सौन्दर्य विकृत होता है और साथ ही बालक के प्राण संकट में पड़ते हैं। कैसे-कैसे मनोरथों और कितनी-कितनी मनौतियों के पश्चात् जन्मे हुए बालक को ग्राभूषणों की बदौलत प्राण गँवाने पड़े। आधुनिक युग में तो मनुष्य के प्राण हरण करना सामान्य-सी बात हो गई है। प्राभूषणों के कारण अनेकों को प्राणों से हाथ धोना पड़ता है। फिर भी आश्चर्य है कि लोगों का, विशेषतः महिलावर्ग का आभूषण-मोह छूट नहीं सका है। प्रस्तुत घटना का शास्त्र में उल्लेख होना बहुत उपदेशप्रद है। 1. द्वि. अ. सूत्र 9. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 119 द्वितीय अध्ययन : संघाट ] २४---तए णं से पंथए दासचेडे तओ मुहत्तंतरस्स जेणेव देवदिन्ने दारए ठविए तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारयं तंसि ठाणंसि अपासमाणे रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे देवदिन्नदारगस्स सब्बओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ / करिता देवदिन्नस्स दारगस्स कत्थइ सुई वा खुई वा पत्ति वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे, जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता धण्णं सत्थवाहं एवं बयासी—'एवं खलु सामी! भद्दा सत्थवाही देवदिन्नं दारयं बहाय जाव' मम हत्थंसि दलयइ / तए णं अहं देवदिन्नं दारयं कडीए गिण्हामि / गिहित्ता जाव' मग्गणगवेसणं करेमि, तं न गज्जइ णं सामी! देवदिन्ने दारए केणइ गीए वा अवहिए वा अवखित्ते वा / पायवडिए धण्णस्स सत्थवाहस्स एयमट्ठ निवेदेइ / तत्पश्चात् वह पंथक नामक दास चेटक थोड़ी देर बाद जहाँ बालक देवदत्त को बिठलाया था, वहाँ पहुँचा / पहुँचने पर उसने देवदत्त बालक को उस स्थान पर न देखा / तब वह रोता, चिल्लाता, विलाप करता हुआ सब जगह उसकी ढूढ़-खोज करने लगा। मगर कहीं भी उसे बालक देवदत्त की खबर न लगी, छींक वगैरह का शब्द न सुनाई दिया, न पता चला / तब वह जहाँ अपना घर था और जहाँ धन्य सार्थवाह था, वहाँ पहुँचा / पहुँच कर धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहने लगा-स्वामिन् ! भद्रा सार्थवाही ने स्नान किए हुए, बलिकर्म किये हुए, कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त किए हुए और सभी अलंकारों से विभूषित बालक को मेरे हाथ में दिया था। तत्पश्चात् मैंने बालक देवदत्त को कमर में ले लिया / लेकर (बाहर ले गया, एक जगह बिठलाया। थोड़ी देर बाद वह दिखाई नहीं दिया) यावत् सब जगह उसको ढूढ़-खोज की, परन्तु नहीं मालम स्वामिन् ! कि देवदत्त बालक को कोई मित्रादि अपने घर ले गया है, चोर ने उसका अपहरण कर लिया है अथवा किसी ने ललचा लिया है ? इस प्रकार धन्य सार्थवाह के पैरों में पड़कर उसने यह वृत्तान्त निवेदन किया। २५-तए णं से धण्णे सत्यवाहे पंथयदासचेडगस्स एयम8 सोच्चा णिसम्म तेण य महया पुत्तसोएणाभिभूए समाणे परसुणियत्ते व चंपगपायवे धसत्ति धरणीयलंसि सव्वंगेहि सन्निवइए। धन्य सार्थवाह पथक दास चेटक की यह बात सुनकर और हृदय में धारण करके महान् पुत्रशोक से व्याकुल होकर, कुल्हाड़े से काटे हुए चम्पक वृक्ष की तरह पृथ्वी पर सब अंगों से धड़ाम से गिर पड़ा-मूछित हो गया। गोषणा २६-तए णं से धण्णे सत्थवाहे तो मुहत्तरस्स आसत्थे पच्छागयपाणे देवदिन्नस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ / देवदिन्नस्स दारगस्स कत्थइ सुई वा खुइं वा पत्ति वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता महत्थं पाहुडं गेण्हइ / गेण्हित्ता जेणेव नगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता तं महत्थं पाहुडं उवणेइ, उवणइत्ता एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया ! मम पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए देवदिन्ने नामं दारए इ8 जाव उंबरपुष्र्फ पिव दुल्लहे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए ? 1. द्वि. अ. सूत्र 22 2. द्वि. प्र. 22. 3. प्र. भ. सूत्र 121 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] [ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह थोड़ी देर बाद आश्वस्त हुआ होश में आया, उसके प्राण मानों वापिस लौटे, उसने देवदत्त बालक की सब ओर ढूढ़-खोज की, मगर कहीं भी देवदत्त बालक का पता न चला, छींक आदि का शब्द भी न सुन पड़ा और न समाचार मिला / तब वह अपने घर पर पाया / पाकर बहुमूल्य भेंट ली और जहाँ नगररक्षक–कोतवाल आदि थे, वहाँ पहुँच कर वह बहुमूल्य भेंट उनके सामने रखी और इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! मेरा पुत्र और भद्रा भार्या का आत्मज देवदत्त नामक बालक हमें इष्ट है, यावत् (कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोरम है,) गूलर के फूल के समान उसका नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है तो फिर दर्शन का तो कहना ही क्या है ! २७-तए णं सा भद्दा देवदिन्नं व्हायं सव्वालंकारविभूसियं पंथगस्स हत्थे दलयइ, जाव पायवडिए तं मम निवेदेइ / तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया ! देवदिन्नदारगस्स सव्वओ समंता मग्गणगवसणं कयं (करित्तए-करेह)। धन्य सार्थवाह ने आगे कहा--भद्रा ने देवदत्त को स्नान करा कर और समस्त अलंकारों से विभूषित करके पंथक के हाथ में सौंप दिया। यावत् पंथक ने मेरे पैरों में गिर कर मुझसे निवेदन किया। (किस प्रकार पंथक बालक को बाहर ले गया, उसे एक स्थान पर बिठाकर स्वयं खेल में बेभान हो गया, इत्यादि पिछला सब वृत्तान्त यहाँ दोहरा लेना चाहिए) तो हे देवानुप्रियो ! मैं चाहता हूँ कि आप देवदत्त बालक की सब जगह मार्गणा-गवेषणा करें / विवेचन--यहाँ यह उल्लेखनीय है कि धन्य सार्थवाह नगररक्षकों के समक्ष अपने पत्र के गम हो जाने की फरियाद लेकर जाता है तो बहुमूल्य भेंट साथ ले जाता है और नगररक्षकों के सामने वह भेंट रखकर फरियाद करता है / अन्यत्र भी प्रागमिक कथाओं में इसी प्रकार का उल्लेख मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि रिश्वत का रोग आधुनिक युग की देन नहीं है, यह प्राचीन काल में भी था और सभी समयों में इसका अस्तित्व रहा है। अन्यथा ऐसे विषय में भेंट की क्या आवश्यकता थी? गुम हुए बालक को खोजना नगररक्षकों का कर्तव्य है। राजा अथवा शासन की ओर से उनकी नियुक्ति ही इस कार्य के लिए थी। धन्य कोई सामान्य जन नहीं था, सार्थवाह था। सार्थवाह का समाज में उच्च एवं प्रतिष्ठित स्थान होता है / जब उस जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी भेंट (रिश्वत) देनी पड़ी तो साधारण जनों की क्या स्थिति होती होगी, यह समझना कठिन नहीं। २८--तए णं ते नगरगोत्तिया धण्णणं सत्यवाहेणं एवं वुत्ता समाणा सन्नद्धबद्धवम्मियकवया उप्पीलिय-सरासणवट्टिया जाव (पिणद्धगेविज्जा आविद्धविमलवरचिधपट्टा) गहियाउहपहरणा धण्णणं सत्थवाहेणं सद्धि रायगिहस्स नगरस्स बहूणि अइगमणाणि य जाव' पवासु य मग्गणगवेसणं करेमाणा रायगिहाओ नयराओ पडिणिक्खमंति। पडिणिक्खमित्ता जेणेव जिण्णुज्जाणे जेणेव भग्गवए तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता देव दिन्नस्स दारगस्त सरीरगं निप्पाणं निच्चेटु जीवविप्पजढं पासंति / पासित्ता हा हा अहो अकज्जमिति कटु देवदिन्नं दारयं भग्गकूवाओ उत्तारेति / उत्तारित्ता धण्णस्स सत्यवाहस्स हत्थे णं दलयंति / 1. द्वि. अ. सूत्र 9 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 121 द्वितीय अध्ययन : संघाट ] तत्पश्चात् उन नगररक्षकों ने धन्य सार्थवाह के ऐसा कहने पर कवच (बख्तर) तैयार किया, उसे कसों से बाँधा और शरीर पर धारण किया / धनुष रूपी पट्टिका पर प्रत्यंचा चढ़ाई अथवा भुजानों पर पट्टा बाँधा / प्रायुध (शस्त्र) और प्रहरण (दूर से चलाए जाने वाले तीर आदि) ग्रहण किये / फिर धन्य सार्थवाह के साथ राजगृह नगर के बहुत-से निकलने के मार्गों यावत् दरवाजों, पीछे की खिड़कियों, छेड़ियों, किले की छोटी खिड़कियों, मोरियों, रास्ते मिलने की जगहों, रास्ते अलग-अलग होने के स्थानों, जुना के अखाड़ों, मदिरापान के स्थानों, वेश्या के घरों, उनके घरों के द्वारों (चोरों के अड्डों) चोरों के घरों, शृगाटकों-सिंघाड़े के आकार के मार्गों, तीन मार्ग मिलने के स्थानों, चौकों, अनेक मार्ग मिलने के स्थानों, नागदेव के गृहों, भूतों के गृहों, यक्षगृहों, सभास्थानों, प्याउनों आदि में तलाश करते-करते राजगृह नगर से बाहर निकले / निकल कर जहां जीर्ण उद्यान था और जहाँ भग्न कूप था, वहां पाये / आकर उस कूप में निष्प्राण, निश्चेष्ट एवं निर्जीव देवदत्त का शरीर देखा, देख कर 'हाय, हाय' 'अहो अकार्य !' इस प्रकार कह कर उन्होंने देवदत्त कुमार को उस हर निकाला और धन्य सार्थवाह के हाथों में सौंप दिया। विजय चोर का निग्रह २९-तए णं ते नगरगुत्तिया विजयस्स तक्करस्स पयमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मालुयाकच्छयं अणुपविसंति, अणुपविसित्ता विजयं तक्करं ससक्खं सहोडं सगेवेज्जं जीवग्गाहं गिण्हति / गिण्हिता अढि-मुट्ठि-जाणु-कोप्पर-पहारसंभग्गमयिगत्तं करेन्ति / करित्ता अवाउडबंधणं करेन्ति / करिता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणं गेण्हंति / गेण्हित्ता विजयस्स तक्करस्स गीवाए बंधति, बंधित्ता मालुयाकच्छयाओ पडिनिक्खमंति / पडिणिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छति / उवागच्छिता रायगि नगरं अणपविसंति / अणपविसित्त सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-महापह-पहेसू कसय्पहारे य लयप्पहारे य छिवापहारे य निवाएमाणा निवाएमाणा छारं च धूलि च कयवरं च उरि पक्किरमाणा पक्किरमाणा महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं वदंति :--- __ तत्पश्चात् वे नगररक्षक विजय चोर के पैरों के निशानों का अनुसरण करते हुए मालुकाकच्छ में पहुँचे / उसके भीतर प्रविष्ट हुए। प्रविष्ट होकर विजय चोर को पंचों की साक्षीपूर्वक, चोरी के माल के साथ, गर्दन में बाँधा और जीवित पकड़ लिया। फिर अस्थि (हड्डी की लकड़ी), मुष्टि से घुटनों और कोहनियों आदि पर प्रहार करके उसके शरीर को भग्न और मथित कर दिया--ऐसी मार मारी कि उसका सारा शरीर ढीला पड़ गया। उसकी गर्दन और दोनों हाथ पीठ की तरफ बाँध दिए। फिर बालक देवदत्त के प्राभरण कब्जे में किये। तत्पश्चात् विजय चोर को गर्दन से बाँधे और मालकाकच्छ से बाहर निकले / निकल कर जहाँ राजगृह नगर था, वहाँ आये / वहाँ आकर राजगृह नगर में प्रविष्ट हए और नगर के त्रिक, चतुष्क, चत्वर एवं महापथ आदि मार्गों में कोडों के प्रहार, छड़ियों के प्रहार, छिव (कंबा) के प्रहार करते-करते और उसके ऊपर राख, धुल और कचरा डालते हुए तेज आवाज से घोषित करते हुए इस प्रकार कहने लगे ३०–'एस णं देवाणुप्पिया ! विजए नाम तक्करे जाव' गिद्धे विव आमिसभक्खी बालघायए, 1. द्वि. प्रा. सूत्र 9 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122] [ज्ञाताधर्मकथा बालमारए, तं नो खलु देवाणुप्पिया! एयस्स केइ राया वा रायपुत्ते वा रायमच्चे वा अवरज्झइ / एत्यठे अप्पणो सयाई कम्माई अवरज्झंति' ति कटु जेणामेव चारगसाला तेणामेव उवागच्छंति / उवागच्छित्ता हडिबंधणं करेन्ति, करित्ता भत्तपाणनिरोहं करेंति, करित्ता तिसझं कसप्पहारे य जाव' निवाएमाणा निवाएमाणा विहरति / 'हे देवानुप्रियो ! (लोगो !) यह विजय नामक चोर है। यह गीध के समान मांसभक्षी, बालघातक है, बालक का हत्यारा है / हे देवानुप्रियो ! कोई राजा, राजपुत्र अथवा राजा का अमात्य इसके लिए अपराधी नहीं है कोई निष्कारण ही इसे दंड नहीं दे रहा है। इस विषय में इसके अपने किये कुकर्म ही अपराधी हैं। इस प्रकार कहकर जहाँ चारकशाला (कारागार) थी, वहाँ पहँचे, वहाँ पहुँच कर उसे बेड़ियों से जकड़ दिया / भोजन-पानी बंद कर दिया। तीनों संध्याकालों में प्रात:, मध्याह्न और सूर्यास्त के समय, चाबुकों, छड़ियों और कंबा आदि के प्रहार करने लगे। देवदत्त का अन्तिम संस्कार ३१-तए णं से धण्णे सत्थवाहे मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सद्धि रोयमाणे कंदमाणे जाव (विलवमाणे) देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरस्स महया इड्डीसक्कारसमुदएणं नोहरणं करेंति / करित्ता बहूई लोइयाई मयगकिच्चाई करेंति, करित्ता केणइ कालंतरेणं अवगयसोए जाए यावि होत्या। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिवार के साथ रोतेरोते, अाक्रंदन करते-करते, यावत् विलाप करते-करते बालक देवदत्त के शरीर का महान ऋद्धि सत्कार के समूह के साथ नीहरण किया, अर्थात् अग्नि-संस्कार के लिये श्मशान में ले गया / अनेक लौकिक मृतककृत्य-मृतक संबंधी अनेक लोकाचार किये / तत्पश्चात् कुछ समय व्यतीत हो जाने पर वह उस शोक से रहित हो गया। धन्य सार्थवाह का निग्रह ३२-तए णं से धणे सत्यवाहे अन्नया कयाइ लहुसयंसि रायावराहसि संपलत्ते जाए यावि होत्था। तए णं ते नगरगुत्तिया धणं सत्थवाहं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव चारगे तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता चारगं अणुपवेसंति, अणुपवेसित्ता विजएणं तक्करेणं सद्धि एगयओ हडिबंधणं करेंति / तत्पश्चात् किसी समय धन्य सार्थवाह को चुगलखोरों ने छोटा-सा राजकीय अपराध लगा दिया / तब नगररक्षकों ने धन्य सार्थवाह को गिरफ्तार कर लिया / गिरफ्तार करके कारागार में ले गये / ले जाकर कारागार में प्रवेश कराया और प्रवेश कराके विजय चोर के साथ एक ही बेडी में बाँध दिया। 1. वि. अ. सूत्र 29 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ] [ 123 धन्य के घर से भोजन ३३-तए णं सा भद्दा भारिया कल्लं जाव' जलते विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडेइ, उवक्खडित्ता भोयणपिडयं करेइ, करिता भायणाई पक्खिवइ, पक्खिवित्ता लंछियमुद्दियं करेइ / करित्ता एगं च सुरभिवारिपडिपुण्णं दगवारयं करेइ / करित्ता पंथयं दासचेडं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी—'गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं गहाय चारगसालाए धनस्स सत्यवाहस्स उवणेहि।' भद्रा भार्या ने अगले दिन यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन तैयार किया। भोजन तैयार करके भोजन रखने का पिटक (वाँस की छावड़ी) ठीक-ठाक किया और उसमें भोजन के पात्र रख दिये / फिर उस पिटक को लांछित और मुद्रित कर दिया, अर्थात् उस पर रेखा आदि के चिह्न बना दिये और मोहर लगा दी / सुगंधित जल से परिपूर्ण छोटा-सा घड़ा तैयार किया। फिर पंथक दास चेटक को आवाज दी और कहा-'हे देवानुप्रिय ! तू जा। यह विपुल प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम लेकर कारागार में धन्य सार्थवाह के पास ले जा।' ३४-तए णं से पंथए भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ते समाणे हद्वतु8 तं भोयणपिडयं तं च सुरभि-वरवारिपडिपुण्णं दगवारयं गेण्हइ / गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ / पडिनिक्खमित्ता रायगिहे नगरे मझमशेणं जेणेव चारगसाला, जेणेव धन्ने सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता भोयणपिडयं ठावेइ, ठावेत्ता उल्लंछइ, उल्लंछित्ता भायणाई गेण्हइ। गेण्हित्ता भायणाई धोवेइ, धोवित्ता हत्थसोयं दलयइ, दलइत्ता धण्णं सत्यवाहं तेणं वियुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं परिवेसेइ। तत्पश्चात् पंथक ने भद्रा सार्थवाही के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट होकर उस भोजनपिटक को और उत्तम सुगंधित जल से परिपूर्ण घट को ग्रहण किया / ग्रहण करके अपने घर से निकला / निकल कर राजगृह के मध्य मार्ग में होकर जहाँ कारागार था और जहाँ धन्य सार्थवाह था, वहाँ पहुँचा / पहुँच कर भोजन का पिटक रख दिया। उसे लांछन और मुद्रा से रहित किया, अर्थात् उस पर बना हुग्रा चिह्न हटाया और मोहर हटा दी। फिर भोजन के पात्र लिए, उन्हें धोया और फिर हाथ धोने का पानी दिया / तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को वह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन परोसा। भोजन में से विभाग ३५-तए णं से विजए तक्करे धण्णं सस्थवाहं एवं वयासी-'तुमंणं देवाणुप्पिया ! मम एयाओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेहि / ' तए णं से धण्णे सत्थवाहे विजयं तक्करं एवं वयासी–'अवियाई अहं विजया! एवं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं कायाणं वा सुणगाणं वा दलएज्जा, उक्कुरुडियाए वा णं छड्डज्जा, नो चेव णं १.प्र.अ. सूत्र 28 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] [ ज्ञाताधर्मकथा तव पुत्तधायगस्स पुत्तमारगस्स अरिस्स वेरियस्स पडिणीयस्स पच्चामित्तस्स एतो विपुलाओ असणपाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेज्जामि / ' उस समय विजय चोर ने धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! तुम मुझे इस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन में से संविभाग करो--हिस्सा दो।' तब धन्य सार्थवाह ने उत्तर में विजय चोर से इस प्रकार कहा--'हे विजय ! भले ही मैं यह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम काकों और कुत्तों को दे दूगा अथवा उकरड़े में फैक दूंगा परन्तु तुझ पुत्रधातक, पुत्रहन्ता, शत्रु, वैरी (सानुबन्ध वैर वाले), प्रतिकूल आचरण करने वाले एवं प्रत्यमित्र---प्रत्येक बातों में विरोधी को इस अशन, पान, खाद्य और स्वाध में से संविभाग नहीं करूंगा। ३६--तए णं धण्णे सत्थवाहे तं विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं आहारेइ / आहारिता तं पंथयं पडिविसज्जेइ / तए गं से पंथए दासचेडे तं भोयणपिडगं गिण्हइ, गिण्हित्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। इसके बाद धन्य सार्थवाह ने उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का पाहार किया। पाहार करके पंथक को लौटा दिया-रवाना कर दिया। पंथक दास चेटक ने भोजन का वह पिटक लिया और लेकर जिस अोर से पाया था, उसी ओर लौट गया। ३७-तए णं तस्स धण्णस्स सस्थवाहस्स तं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं आहारियस्स समाणस्स उच्चार-पासवणेणं उव्वाहित्था / तए णं से धण्णे सत्थवाहे विजयं तक्करं एवं वयासो-एहि ताव विजया ! एगंतमवक्कमामो, जेण अहं उच्चारपासवणं परिवेमि / तए णं से विजए तक्करे धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-तुभं देवाणुप्पिया! विपुलं असण-पाणखाइम-साइमं आहारियस्स अस्थि उच्चारे वा पासवणे वा, मम णं देवाणुप्पिया! इमेहिं बहूहिं कसम्पहारेहि य जाव लयापहारेहि य तण्हाए य छुहाए य परब्भवमाणस्स णत्थि केइ उच्चारे वा पासवणे वा, तं छंदेणं तुम देवाणपिया! एगते अवक्कमित्ता उच्चारपासवणं परिवहि। विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन करने के कारण धन्य सार्थवाह को मल-मूत्र की बाधा उत्पन्न हुई। तब धन्य सार्थवाह ने विजय चोर से कहा--विजय ! चलो, एकान्त में चलें, जिससे मैं मलमूत्र का त्याग कर सकू। तब विजय चोर ने धन्य सार्थवाह से कहा-देवानुप्रिय ! तुमने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आहार किया है, अतएव तुम्हें मल और मूत्र की बाधा उत्पन्न हुई है। देवानुप्रिय ! मैं तो इन बहुत चाबुकों के प्रहारों से यावत् लता के प्रहारों से तथा प्यास और भूख से पीड़ित हो रहा हूँ। मुझे मल-मूत्र की बाधा नहीं है / देवानुप्रिय ! जाने की इच्छा हो तो तुम्ही एकान्त में जाकर मल-मूत्र का त्याग करो। (मैं तुम्हारे साथ नहीं चलूगा)। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ] [ 125 ३८-तए णं धण्णे सत्थवाहे विजएणं तक्करेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्टइ। तए णं से धण्णे सत्यवाहे मुहत्तंतरस्स बलियतरागं उच्चारपासवणेणं उच्चाहिज्जमाणे विजयं तकरं एवं वयासी-एहि ताव विजया ! जाव अवक्कमामो / तए णं से विजए धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-- 'जइ णं तुम देवाणुप्पिया ! तओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेहि, ततो हं तुम्हेहिं सद्धि एगंतं अवक्कमामि / ' धन्य सार्थवाह विजय चोर के इस प्रकार कहने पर मौन रह गया। इसके बाद, थोड़ी देर में धन्य सार्थवाह उच्चार-प्रस्रवण की अति तीव्र बाधा से पीडित होता हुआ विजय चोर से फिर कहने लगा-विजय, चलो, यावत् एकान्त में चलें। तब विजय चोर ने धन्य सार्थवाह से कहा-'देवानुप्रिय ! यदि तुम उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से संविभाग करो अर्थात् मुझे हिस्सा देना स्वीकार करो तो मैं तुम्हारे साथ एकान्त में चलू। ३९-तए णं से धण्णे सत्थवाहे विजयं एवं क्यासी-~-'अहं णं तुम्भं तओ विउलाओ असणपाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करिस्सामि।' तए णं से विजए धण्णस्स सत्थवाहस्स एयम पडिसुणेइ / तए णं से विजए धण्णणं सद्धि एगते अवक्कमेइ, उच्चारपासवणं परिद्ववेइ, आयंते चोक्खे परमसुइभूए तमेव ठाणं उवसंकमित्ता णं विहरइ / तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने विजय से कहा- मैं तुम्हें उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से संविभाग करूंगा-हिस्सा दूंगा। तत्पश्चात् विजय ने धन्य सार्थवाह के इस अर्थ को स्वीकार किया / फिर विजय, धन्य सार्थवाह के साथ एकान्त में गया / धन्य सार्थवाह ने मल-मूत्र का परित्याग किया। फिर जल से स्वच्छ और परम शुचि हुआ / लौट कर अपने उसी स्थान पर आ गया। ४०-तए णं सा भद्दा कल्लं जाव' जलते विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं जाव' परिवेसेइ / तए णं से धण्णे सस्थवाहे विजयस्स तक्क रस्स तओ विउलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेइ / तए णं से धण्णे सत्थवाहे पंथयं दासचेडं विसज्जेइ। तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने दूसरे दिन सूर्य के देदीप्यमान होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करके (पहले की तरह) पंथक के साथ भेजा। यावत् पंथक ने धन्य को जिमाया। तब धन्य सार्थवाह ने विजय चोर को उस विपल अशन. पान. खादिम और स्वादिम में से भाग दिया। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने पंथक दास चेटक को रवाना कर दिया। भद्रा का कोप ४१–तए णं से पंथए भोयणपिडयं गहाय चारगाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिवखमित्ता रायगिहं नगरं मज्झंमज्झेणं जेणेव सए गेहे, जेणेव भद्दा भारिया, तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता भई 1. प्र. अ. सूत्र 28 2. द्वि. अ. सूत्र 33-34. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 [ज्ञाताधर्मकथा सत्थवाहिं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! धण्णे सत्यवाहे तव पुत्तघायगस्स जाव' पच्चामित्तस्स ताओ विउलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही पंथयस्स दासचेडयस्स अंतिए एयमढं सोच्चा आसुरत्ता रुट्ठा जाव (कुविया) मिसिमिसेमाणा धण्णस्स सत्थवाहस्स पओसमावज्जइ / पंथक भोजन-पिटक लेकर कारागार से बाहर निकला। निकलकर राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर जहाँ अपना घर था और जहाँ भद्रा भार्या थी वहाँ पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसने भद्रा सार्थवाही से कहा-देवानुप्रिये धन्य सार्थवाह ने तुम्हारे पुत्र के. घातक यावत् पुत्रहन्ता, शत्रु, वैरी (सानुबन्ध वैर वाले प्रतिकूल), आचरण करने वाले] दुश्मन को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से हिस्सा दिया है। तब भद्रा सार्थवाही दास चेटक पंथक के मुख से यह अर्थ सुनकर तत्काल लाल हो गई, रुष्ट हुई [कुपित हुई] यावत् मिसमिसाती हुई धन्य सार्थवाह पर प्रद्वेष करने लगी। धन्य का छुटकारा ४२-तए णं धरणे सत्थवाहे अन्नया कयाइं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणेणं सएण य अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पाणं मोयावेइ। मोयावित्ता चारगसालाओ पडिनिक्खमइ / पडिनिक्खमित्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता अलंकारियकम्मं करेइ / करित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता अहधोयमट्टियं गेण्हइ / गेण्हित्ता पोक्खरिणि ओगाहेइ / ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ / करित्ता ण्हाए कयबलिकम्मे जाव (कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए) रायगिहं नगरं अणुपविसइ / अणुपविसित्ता रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को किसी समय मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिवार के लोगों ने अपने (धन्य सार्थवाह के) सारभूत अर्थ से---जुर्माना चुका करके राजदण्ड से मुक्त कराया। मुक्त होकर वह कारागार से बाहर निकला। निकल कर जहाँ पालंकरिक सभा (हजामत बनवाना, नाखून कटवाना आदि शरीर-शृंगार करने की नाई की दुकान) थी, वहाँ पहुँचा / पहुँच कर पालंकरिक—कर्म किया। फिर जहाँ पुष्करिणी थी, वहाँ गया / जाकर नीचे की धोने की मिट्टी ली और पुष्करिणी में अवगाहन किया, जल से मज्जन किया, स्नान किया, बलिकर्म किया, यावत् [कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त किया] फिर राजगृह में प्रवेश किया / राजगृह नगर के मध्य में होकर जहाँ अपना घर था, वहाँ जाने के लिए रवाना हुा / धन्य का सरकार ४३-तए णं धण्णं सत्यवाहं एज्जमाणं पासित्ता रायगिहे नगरे बहवे नियग-सेटि-सत्यवाहपभइओ आढ़ति, परिजाणंति, सक्कारेंति, सम्माणेति, अन्भुट्ठति, सरीरकुसलं पुच्छंति / 1. द्वि अ. सूत्र 35. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट] [ 127 तए णं से धण्णे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता जावि य से तत्य बाहिरिया परिसा भवइ, तंजहा-दासाइ वा, पेस्साइ वा, भियगाइ वा, भाइल्लगाइ वा, से वि य गंधण्णं सत्थवाहं एज्जंतं पासइ, पासित्ता पायवडियाए खेमकुसलं पुच्छति / / तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को आता देखकर राजगृह नगर के बहुत-से आत्मीय जनों, श्रेष्ठी जनों तथा सार्थवाह आदि ने उसका आदर किया, संमान से बुलाया, वस्त्र आदि से सत्कार किया नमस्कार आदि करके समान किया, खड़े होकर मान किया और शरीर की कुशल पूछी। तत्पश्चात् धन्य "सार्थवाह अपने घर पहुँचा। वहाँ जो बाहर की सभा थी, जैसे-दास (दासीपुत्र), प्रेष्य (काम-काज के लिए बाहर भेजे जाने वाले नौकर), भतक (जिनका बाल्यवस्था से पालन-पोषण किया हो) और व्यापार के हिस्सेदार, उन्होंने भी धन्य सार्थवाह को आता देखा। देख कर पैरों में गिर कर क्षेम, कुशल की पृच्छा की। ४४--जावि य से तत्थ अभंतरिया परिसा भवइ, तंजहा-मायाइ वा, पियाइ वा, भायाइ वा, भगिणीइ वा, सावि य णं धण्णं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता आसणाओ अब्भटे / अन्भुट्ठता कंठाकंठियं अवयासिय बाहप्पमोक्खणं करेइ / वहाँ जो आभ्यन्तर सभा थी, जैसे कि माता, पिता, भाई, बहिन आदि, उन्होंने भी धन्य सार्थवाह को आता देखा / देखकर वे आसन से उठ खड़े हुए, उठकर गले से गला मिलाकर उन्होंने हर्ष के आँसू बहाये। और न भद्रा के कोप का उपशमन ४५--तए णं से धण्णे सत्थवाहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छइ / तए णं सा भद्दा सत्थवाही धण्णं सत्यवाहं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता पो आढाइ, नो परियाणाइ, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी तुसिणीया परम्मुही संचिट्ठइ।। ___ तए णं से धण्णे सत्थवाहे भई भारियं एवं वयासी-कि णं तुभं देवाणुप्पिए, न तुट्ठी वा, न हरिसे वा, नाणंदे वा ? जं मए सएणं अस्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पाणं विमोइए। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह भद्रा भार्या के पास गया / भद्रा सार्थवाही ने धन्य सार्थवाह को अपनी ओर ग्राता देखा / देखकर न उसने अादर किया. न मानो जाना / न अादर कर जानती हुई वह मौन रह कर और पीठ फेर कर (विमुख होकर) बैठी रही। उब धन्य सार्थवाह ने अपनी पत्नी भद्रा से इस प्रकार कहा –देवानुप्रिये ! मेरे आने से तुम्हें सन्तोष क्यों नहीं है ? हर्ष क्यों नहीं है ? अानन्द क्यों नहीं है ? मैंने अपने सारभूत अर्थ से राजकार्य (राजदंड) से अपने आपको छुड़ाया है। ४६-तए णं भद्दा धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी—'कहं णं देवाणुप्पिया! मम तुट्टी वा जाव (हरिसे वा) आणंदे वा भविस्सइ, जेणं तुमं मम पुत्तघायगस्स जाव पच्चामित्तस्स तओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेसि ? तब भद्रा ने धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! मुझे क्यों सन्तोष, हर्ष और Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 ] [ज्ञाताधर्मकथा आनन्द होगा, जब कि तुमने मेरे पुत्र के घातक यावत् वैरी तथा प्रत्यमित्र (विजय चोर) को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन में से संविभाग किया--हिस्सा दिया। ४७–तए णं से भदं एवं वयासी--'नो खलु देवाणुप्पिए ! धम्मो त्ति वा, तवो ति वा, कयपडिकयाइ वा, लोगजत्ता इ वा, नायए ति वा, धाडियए ति वा, सहाए ति वा, सुहि त्ति वा, तओ विपुलाओ असणपाणखाइमसाइमाओ संविभागे कए, नन्नत्थ सरीरचिन्ताए। तए णं सा भद्दा धणेणं सत्थवाहेणं एवं बुत्ता समाणी हट्टतुट्ठा--जाव (चित्तमाणंदिया जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया) आसणाओ अब्भुटुइ, कंठाठिं अवयासेइ, खेमकुसलं पुच्छइ, पुच्छित्ता व्हाया जाव पायच्छित्ता विपुलाई भोगभोगाइं भुजमाणी विहरइ। तब धन्य सार्थवाह ने भद्रा से कहा-'देवानुप्रिये ! धर्म समझकर, तप समझ कर, किये उपकार का बदला समझकर, लोकयात्रा-लोक दिखावा ममझकर, न्याय समझकर या उसे अपना नायक समझ कर, सहचर समझकर, सहायक समझकर अथवा सुहृद (मित्र) समझकर मैंने उस विपुल, अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से संविभाग नहीं किया है। सिवाय शरीर चिन्ता (मल-मूत्र की बाधा) के और किसी प्रयोजन से संविभाग नहीं किया। धन्य सार्थवाह के इस स्पष्टीकरण से भद्रा हृष्ट-तुष्ट हुई, [पानन्दितचित्त हुई, हर्ष से उसका हृदय विकसित हो गया] वह अासन से उठी, उसने धन्य सार्थवाह को कंठ से लगाया और उसका कुशल-क्षेम पूछा / फिर स्नान किया, यावत् प्रायश्चित्त (तिलक आदि) किया और पांचों इन्द्रियों के विपुल भोग भोगती हुई रहने लगी। विजय चोर की अधम गति ४८-तए णं से विजयं तक्करे चारगसालाए तेहि बंहिं बहेहि कसप्पहारेहि य जाव' तण्हाए य छुहाए य परज्झवमाणे कालमासे कालं किच्चा नरएसु नेरइयत्ताए उववन्ने / से णं तत्थ नेरइए जाए काले कालोभासे जाव (गंभीरलोमहरिसे भीमे उत्तासणए परमकण्हे वण्णणं / से णं तत्थ निच्च भीए, निच्चं तत्थे, निच्चं तसिए निच्चं परमऽसुहसंबद्धं नरगगति-) वेयणं पच्चणुब्भवमाणे विहरई। से णं तओ उध्वट्टित्ता अणादीयं अणवदग्गं दोहमद्धं चाउरंत-संसारकतारं अणुपरियट्टिस्सइ / तत्पश्चात् विजय चोर कारागार में बन्ध, वध, चाबुकों के प्रहार (लता प्रहार, कंबा प्रहार) यावत् प्यास और भूख से पीड़ित होता हुआ, मृत्यु के अवसर पर काल करके नारक रूप से नरक में उत्पन्न हुआ / नरक में उत्पन्न हुआ वह काला और अतिशय काला दिखता था, [गंभीर, लोमहर्षक, भयावह त्रासजनक एवं वर्ण से काला था / वह नरक में सदैव भयभीत, सदैव त्रस्त और सदैव घबराया हुआ रहता था। सदैव अत्यन्त अशुभ नरक सम्बन्धी] वेदना का अनुभव कर रहा था। वह नरक से निकल कर अनादि अनन्त दीर्घ मार्ग या दीर्घकाल वाले चतुर्गति रूप संसारकान्तार में पर्यटन करेगा। 1. द्वि. म. सूत्र 29 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट [ 129 ४९--एवामेव जंबू! जे णं अम्हं निग्गंथो वा निग्गन्थी वा आयरिय-उवज्झायाणं अन्तिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइए समाणे विपुलमणि-मुत्तिय-धण-कणग-रयण-सारे णं लुब्भइ से वि य एवं चेव / श्री सुधर्मा स्वामी अब तक के कथानक का उपसंहार करते हुए जम्बू स्वामी से कहते हैं---हे जम्बू ! इसी प्रकार हमारा जो साधु या साध्वी प्राचार्य या उपाध्याय के पास मुण्डित होकर, गृहत्याग कर, साधुत्व की दीक्षा अंगीकार करके विपुल मणि मौक्तिक धन कनक और सारभूत रत्नों में लुब्ध होता है, वह भी ऐसा ही होता है उसकी दशा भी चोर जैसी होती है। स्थविर-आगमन 50 तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नाम थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना कुलसंपन्ना जाव' पुब्वानुपुब्धि चरमाणा जाव' गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव गुणसिलए चेइए जाव (तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता) अहापडिरूवं उग्गहं उम्गिम्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरंति / परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ। उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर भगवन्त जाति (मातृपक्ष) से सम्पन्न, कुल (पितृपक्ष) से सम्पन्न, यावत् [बल, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन चारित्र एवं लाघव (द्रव्य और भाव से लघुता) से सम्पन्न, प्रोजस्वी, तेजस्वी, वचस्वी, यशस्वी, क्रोध-मान-माया लोभ के विजेता, निद्रा और परीषहों को जीत लेने वाले, जीवन की कामना और मरण के भय से ऊपर उठे हुए, तपस्वी, गुणवान, चरण-करण तथा यतिधर्मों का सम्पूर्ण रूप से पालन करने वाले, उदार, उग्रवती, उग्रतपस्वी, उग्र ब्रह्मचारी, शरीर के प्रति अनासक्त, विपुल तेजोलेश्या को संक्षिप्त कर अपने अन्दर ही समाये हुए, चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता, चार ज्ञानों के धनी, पाँच सौ अनगारों के साथ अनुक्रम से चलते हुए, [ग्रामानुग्राम विचरते हुए और सुखपूर्वक विहार करते हुए] जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील चैत्य था, वहाँ आये। आकर] यथायोग्य उपाश्रय की याचना करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे-रहे / उनका प्रागमन जानकर परिषद् निकली। धर्मघोष स्थविर ने धर्मदेशना दी। धन्य को पर्युपासना ५१--तए णं तस्स धण्णस्स सस्थवाहस्स बहुजणस्स अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म इमेयारूवे अज्झथिए जाव (चिन्तिए पत्थिए मणोगए संकप्पे) समुप्पज्जित्था--"एवं खलु भगवंतो जाइसंपन्ना इहमागया, इहं संपत्ता, तं गच्छामि गं थेरे भगवंते वदामि नमसामि / ' एवं संपेहेइ, संपेहिता पहाए जाव (कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते) सुद्धप्यावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पचरपरिहिए पायविहार-चारेणं जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव थेरा भगवंतो 1. प्र.अ. 4 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [ ज्ञाताधर्मकथा तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ / तए णं थेरा धण्णस्स विचित्तं धम्ममाइक्खंति / __तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को बहुत लोगों से यह अर्थ (वृत्तान्त) सुनकर और समझकर ऐसा अध्यवसाय, अभिलाष, चिन्तन एवं मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ—'उत्तम जाति से सम्पन्न स्थविर भगवान् यहाँ आये हैं, यहाँ प्राप्त हुए हैं--प्रा पहुँचे हैं / तो मैं जाऊँ, स्थविर भगवान् को वन्दन करू, नमस्कार करू / ' इस प्रकार विचार करके धन्य ने स्नान किया, (बलिकर्म किया, कौतुक मंगल प्रायश्चित्त किया) यावत् शुद्ध-साफ तथा सभा में प्रवेश करने योग्य उत्तम मांगलिक वस्त्र धारण किये / फिर पैदल चल कर जहाँ गुणशील चैत्य था और जहाँ स्थविर भगवान् थे, वहाँ पहुँचा। पहुँच कर उन्हें वन्दना की, नमस्कार किया। तत्पश्चात् स्थविर भगवान् ने धन्य सार्थवाह को विचित्र धर्म का उपदेश दिया, अर्थात् ऐसे धर्म का उपदेश दिया जो जिनशासन के सिवाय अन्यत्र सुलभ नहीं है / धन्य को प्रव्रज्या और स्वर्गप्राप्ति ५२–तए णं से धण्णे सत्यवाहे धम्म सोच्चा एवं क्यासी-सद्दहामि गं भंते ! निग्गथं पावयणं / (पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं / रोएमिणं भंते ! निग्गंथं पावयणं / अब्भुठेमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं / एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते / इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते ! से जहेयं तुब्भे वयहत्ति कटु थेरे भगवंते वंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता) जाव पव्वइए। जाव बहूणि वासाणि सामण्ण-परियागं पाउणित्ता, भत्तं पच्चक्खाइत्ता मासियाए संलेहणाए सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं धण्णस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता / से गं धण्णे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवखएणं अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव' सव्वदुक्खाणमंतं करिहिइ / तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने धर्मोपदेश सुनकर इस प्रकार कहा-'हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा [भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर प्रतीति करता हूं। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर रुचि करता हूं। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन का अनुसरण करने के लिए उद्यत होता हूं। भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन ऐसा ही है, भगवन् ! यह सत्य है, भगवन् ! यह अतथ्य नहीं है। भगवन् ! यह मुझे इष्ट है, भगवन् ! यह मुझे पुनः पुन: इष्ट है, यह मुझे इष्ट और पुनः पुनः इष्ट है। भगवन् ! निम्रन्थप्रवचन ऐसा ही है जैसा आप कहते हैं / इस प्रकार कह कर धन्य सार्थवाह ने स्थविर भगवन्तों को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके] यावत् वह प्रव्रजित हो गया। यावत् बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय पाल कर, आहार का प्रत्याख्यान करके एक मास की संलेखना 1 प्र. अ. 217. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ] [ 131 करके, अनशन से साठ भक्तों को त्याग कर, कालमास में काल करके सौधर्म देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न हुआ। सौधर्म देवलोक में किन्हीं-किन्हीं देवों की चार पल्योपम की स्थिति कही है। धन्य नामक देव की भी चार पल्योपम की स्थिति (आयुष्यमर्यादा) कही है / ___ वह धन्य नामक देव आयु के दलिकों का क्षय करके, प्रायुकर्म की स्थिति का क्षय करके तथा भव (देवभव के कारणभूत गति अादि कर्मों) का क्षय करके, देह का त्याग करके अनन्तर ही अर्थात् बीच में अन्य कोई भव किये विना ही महाविदेह क्षेत्र में (मनुष्य होकर) सिद्धि प्राप्त करेगा यावत् सर्व दु.खों का अन्त करेगा। उपसंहार ५३-जहा णं जंबू ! धण्णेणं सत्यवाहेणं नो धम्मो त्ति वा जाव' विजयस्स तक्करस्स तओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागे कए नन्नत्य सरीरसारक्खणट्टाए, एवामेव जंबू ! जे णं अम्हं निग्गंथे वा निग्गंथी वा जाव पवईए समाणे ववगयण्हाणुम्मद्दण-पुप्फ-गंध-मल्लालंकारविभूसे इमस्स ओरालियसरीरस्स नो वण्णहेउं वा, रूबहेउं वा, विसयहेडं वा असण-पाणखाइम-साइमं आहारमाहारेइ, नन्नत्थ णाण-दसण-चरित्ताणं वहणयाए / से णं इह लोए चेव बहूणं समणाणं समणीणं सावगाण य साविगाण य अच्चणिज्जे जाव (वंदणिज्जे नमसणिज्जे पूयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं) पज्जुवासणिज्जे भवइ / परलोए विय शं नो बहूणि हत्थच्छेयणाणि य कन्नच्छेयणाणि य नासाछयणाणि य एवं हिययउप्पाडणाणि य वसणुप्पाडणाणि य उल्लंबणाणि य पाविहिह / अणाईयं च णं अणवदग्गं दीह जाव (अद्धं चाउरंतं संसारफतारं) वोइवइस्सइ; जहा से धण्णे सत्थवाहे / श्री सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी से कहा-हे जम्बू ! जैसे धन्य सार्थवाह ने 'धर्म है' ऐसा समझ कर या तप, प्रत्युपकार, मित्र आदि मान कर विजय चोर को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से संविभाग नहीं किया था, सिवाय शरीर की रक्षा करने के, अर्थात् धन्य सार्थवाह ने केवल शरीर रक्षा के लिए ही विजय को अपने आहार में से हिस्सा दिया था, धर्म या उपकार आदि समझ कर नहीं। इसी प्रकार हे जम्बू ! हमारा जो साधु या साध्वी यावत् प्रवजित होकर स्नान, उपाम प, गंध, माला, अलंकार प्रादिगार का त्याग करके अशन, पान, खादिम और स्वादिम पाहार करता है, सो इस औदारिक शरीर के वर्ण के लिए, रूप के लिए या विषय-सुख के लिए नहीं करता / ज्ञान, दर्शन और चारित्र को वहन करने के सिवाय उसका अन्य कोई प्रयोजन नहीं होता / वह साधुनों साध्वियों श्रावकों और श्राविकाओं द्वारा इस लोक में अर्चनीय [वन्दनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्करणीय, और सन्माननीय होता है / उसे भव्यजन कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप और चैत्यस्वरूप मानकर वन्दन करते हैं] वह सर्व प्रकार से उपासनीय होता है। परलोक में भी वह हस्तछेदन (हाथों का काटा जाना), कर्णछेदन और नासिकाछेदन को तथा इसी प्रकार हृदय के उत्पाटन (उखाड़ना) एवं वृषणों (अंडकोषों) के उत्पाटन और उद्बन्धन (ऊँचा बांध कर 1 द्वि. अ. 47 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] [ज्ञाताधर्मकथा लटकाना—फांसी) अादि कष्टों को प्राप्त नहीं करेगा / वह अनादि अनन्त दीर्घमार्ग वाले संसार रूपी अटवी को पार करेगा, जैसे धन्य सार्थवाह ने किया। ५४–एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव दोच्चस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि / इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने द्वितीय ज्ञात अध्ययन का यह अर्थ कहा है। विवेचन -व्याख्याकारों ने इस अध्ययन के दृष्टान्त की योजना इस प्रकार की है--- उदाहरण में जो राजगृह नगर कहा है, उसके स्थान पर मनुष्य क्षेत्र समझना चाहिए / धन्य सार्थवाह साधु का प्रतीक है, विजय चौर के समान साधु का शरीर है / पुत्र देवदत्त के स्थान पर अनन्त अनुपम आनन्द का कारणभूत संयम समझना चाहिए। जैसे पंथक के प्रमाद से देवदत्त का घात हया. उसी प्रकार शरीर की प्रमाद रूप अशुभ प्रवृत्ति से संयम का घात होता है / देवदत्त के आभूषणों के स्थान पर इन्द्रिय-विषय समझना चाहिए / इन विषयों के प्रलोभन में पड़ा हुअा मनुष्य संयम का घात कर डालता है। हडिबंधन के समान जीव और शरीर का अभिन्न रूप से रहना समझना चाहिए। राजा के स्थान पर कर्मफल समझना चाहिए। कर्म को प्रकृतियाँ राजपुरुषों के समान हैं। अल्प अपराध के स्थान पर मनुष्यायु के बंध के हेतु समझने चाहिए / उच्चार-प्रस्रवण की जगह प्रत्युपेक्षण आदि क्रियाएँ समझना चाहिए अर्थात् जैसे आहार न देने से विजय चोर उच्चार–प्रस्रवण के लिए प्रवृत्त नहीं हुआ उसी प्रकार यह शरीर पाहार के बिना प्रत्युपेक्षण आदि क्रियाओं में प्रवन नहीं होता। पंथक के स्थान पर मुग्ध साधु समझना चाहिए। भद्रा सार्थवाही को आचार्य के स्थान पर जानना चाहिए / किसी मुग्ध (भोले) साधु के मुख से जब प्राचार्य किसी साधु का अशनादि से शरीर का पोषण करना सुनते हैं, तब वह साधु को उपालंभ देते हैं / जब वह साधु बतलाता है कि मैंने विषयभोग प्रादि के लिए शरीर का षोषण नहीं किया, परन्तु ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना के लिए शरीर को आहार दिया है, तब गुरु को संतोष हो जाता है / कहा भी है-- सिवसाहणेसु आहार-विरहिओ जं न वट्टए देहो। तम्हा धग्णो व्व विजयं, साहू तं तेण पोसेज्जा // अर्थात-निराहार शरीर मोक्ष के कारणों-प्रतिलेखन आदि क्रियाओं में प्रवृत्त नहीं होता, अतएव जिस भाव से धन्य सार्थवाह ने विजय चोर का पोषण किया, उसी भावना से साधु शरीर का पोषण करे। / / द्वितीय अध्ययन समाप्त / / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अंडक पूरा सार-संक्षेप तृतीय अध्ययन का मुख्य स्वर है--जिन-प्रवचन में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा न करना / 'तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं' अर्थात् वीतराग और सर्वज्ञ ने जो तत्त्व प्रतिपादित किया है, वही सत्य है, उसमें शंका के लिए कोई अवकाश नहीं है। कषाय या अज्ञान के कारण ही असत्य बोला जाता है, जिसमें ये दोनों दोष नहीं उसके व वन असत्य हो ही नहीं सकते। इस प्रकार की सुदृढ श्रद्धा के साथ मुक्ति-साधना के पथ पर अग्रसर होने वाले साधक ही अपनी साधना में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकता है। उसकी श्रद्धा उसे अपूर्व शक्ति प्रदान करती है और उस श्रद्धा के बल पर वह सब प्रकार की विघ्न-बाधायों पर विजय प्राप्त करता हया अपने अभीष्ट लक्ष्य की अोर ग्रागे बढ़ता जाता है। यही कारण है कि सम्यग्दर्शन का प्रथम अंग या लक्षण 'निश्शंकितता' कहा गया है। इसके विपरीत जिसके अन्तःकरण में अपने लक्ष्य अथवा लक्ष्यप्राप्ति के साधनों में दृढ विश्वास नहीं होता, जिसका चित्त डांवाडोल होता है, जिसकी मनोवत्ति ढलमल प्रथम तो उसमें आन्तरिक बल उत्पन्न ही नहीं होता और यदि वह हो तो भी वह उसका पु रह उपयोग नहीं कर सकता / इस प्रकार अधूरे बल और अधूरे मनोयोग से कार्य की पूर्ण सिद्धि नहीं हो सकती / लौकिक कार्य हो अथवा लोकोत्तर, सर्वत्र पूर्ण श्रद्धा, समग्र उत्साह और परिपूर्ण मनोयोग को उसमें लगा देना आवश्यक है। सम्पूर्ण सफलता-प्राप्ति की यह अनिवार्य शर्त है। प्रस्तुत तृतीय अध्ययन में यही तथ्य उदाहरण द्वारा और फिर उपसंहार द्वारा साक्षात् रूप से प्रस्तुत किया गया है। दो पात्रों के द्वारा श्रद्धा का सुफल और अश्रद्धा का दुष्परिणाम दिखलाया गया है / संक्षिप्त कथानक इस प्रकार है चम्पा नगरी में दो सार्थवाह-पुत्र रहते थे। जिनदत्तपुत्र और सागरदत्तपुत्र, इन्हीं संज्ञाओं से उनका उल्लेख किया गया है, उनके स्वयं के नामों का कोई उल्लेख नहीं है। दोनों अभिन्नहृदय मित्र थे। प्रायः साथ ही रहते थे। विदेशयात्रा हो या दीक्षाग्रहण, सभी प्रसंगों में साथ रहने का उन्होंने संकल्प किया था / किन्तु चितवृत्ति दोनों की एक दुसरे से विपरीत थी। एक बार दोनों साथी देवदत्ता गणिका को साथ लेकर चम्पा नगरी के सुभूमिभाग उद्यान में गए। वहाँ स्नान करके, भोजन-पानी से निवृत्त होकर, संगीत-नृत्य प्रादि द्वारा मनोरंजन, आमोदप्रमोद करके उद्यान में परिभ्रमण करने लगे। उद्यान से लगा हुआ सधन झाड़ियों वाला एक प्रदेश-- मालुकाकच्छ वहाँ था / वे मालुकाकच्छ की ओर गए ही थे कि एक मयूरी घबराहट और वेचैनी के साथ ऊपर उड़ी और निकट के एक वृक्ष की शाखा पर बैठ कर केका-रव करने लगी। यह दृश्य देखकर सार्थवाहपुत्रों को सन्देह हुया / वे आगे बढ़े तो उन्हें दो अंडे दिखाई दिए। सार्थवाहपुत्रों ने दोनों अंडे उठा लिये और अपने घर ले गए-दोनों ने एक-एक बांट लिया। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134] [ज्ञाताधर्मकथा सागरदत्त का पुत्र शकाशील था। उसने उस अंडे को ले जाकर अपने घर के पहले के अंडों के साथ रख दिया जिससे उसकी मयूरियाँ अपने अंडों के साथ उसका भी पोषण करती रहें। इससे प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में घरों में भी मोर पाले जाते थे। शंकाशीलता के कारण सागरदत्तपुत्र से रहा नहीं गया / वह उस अंडे के पास गया और विचार करने लगा—कौन जाने यह अंडा निपजेगा अथवा नहीं ? इस प्रकार शंका, कांक्षा और विचिकित्सा से ग्रस्त होकर उसने अंडे को उलट, पलट, उलटफेर कर कानों के पास ले गया, उसे बजाया। वारंवार ऐसा करने से अंडा निर्जीव हो गया / उसमें से वच्चा नहीं निकला। इसके विपरीत जिनदत्तपुत्र श्रद्धासम्पन्न था। उसने विश्वास रक्खा / वह अंडा मयूर-पालकों को सौंप दिया / यथासमय बच्चा हुमा / उसे नाचना सिखलाया गया। अनेक सुन्दर कलाएं सिखलाई गई / जिनदत्तपुत्र यह देखकर अत्यन्त हर्षित हुआ। नगर भर में उस मयूर-पोत की प्रसिद्धि हो गई / जिनदत्तपुत्र उसकी बदौलत हजारों-लाखों की बाजियाँ जीतने लगा। यह है अश्रद्धा और श्रद्धा का परिणाम / जो साधन श्रद्धावान रहकर साधना में प्रवृत होता है, उसे इस भव में मान-सन्मान की और परभव में मुक्ति की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत अथद्धालु साधक इस भव में निन्दा-गर्हा का तथा परभवों में अनेक प्रकार के संकटों, दुःखों, पीडायों और व्यथाओं का पात्र बनता है / Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तच्च अज्झायण : अंडे जम्बू स्वामी का प्रश्न १-जह णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं दोच्चस्स अज्झयणस्स णायाधम्मकहाणं अयमठे पन्नत्ते, तइअस्स अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? श्री जम्बू स्वामी अपने गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी ने प्रश्न करते हैं-भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने ज्ञाताधर्मकथा के द्वितीय अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ फर्माया है तो तीसरे अध्ययन का क्या अर्थ फर्माया है ? सुधर्मा स्वामी का उत्तर २-एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था, वन्नओ' / तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुच्छिमे दिसीभाए सुभूमिभाए नामं उज्जाणे होत्था। सवोउय-पुष्फफलसमिद्धे सुरम्मे नंदणवणे इव सुह-सुरभि-सीयल-च्छायाए समणुबद्धे / / श्री सुधर्मा उत्तर देते हैं. हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। उसका वर्णन ग्रोपपातिक सूत्र के अनुसार समझना चाहिए। उस चम्पा नगरी से बाहर उत्तरपूर्व दिशा-ईशान कोण में सुभूमिभाग नामक एक उद्यान था / वह सभी ऋतुओं के फूलों-फूलों से सम्पन्न रहता था और रमणीय था। नन्दन-वन के समान शुभ था या सुखकारक था तथा सुगंधयुक्त और शीतल छाया से व्याप्त था। मयूरी के अंडे 3- तस्स णं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उत्तरओ एगदेसम्मि मालुयाकच्छए होत्था, वण्णओ' / तत्थ णं एगा वणमऊरी दो पुछे परियागए पिटुडी पंडुरे निव्वणे निरुवहए भिन्नमुट्ठिप्पमाणे मऊरीअंडए पसवइ / पसवित्ता सएणं पक्खवाएणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संविठेमाणी विहरइ। उस सुभूमिभाग उद्यान के उत्तर में, एक प्रदेश में, एक मालुकाकच्छ था, अर्थात् मालुका नामक वृक्षों का वनखण्ड था। उसका वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। उस मालुकाकच्छ में एक श्रेष्ठ मयूरी ने पुष्ट, पर्यायागत... अनुक्रम से प्रसवकाल को प्राप्त, चावलों के पिंड के समान श्वेत वर्ण वाले, व्रण अर्थात् छिद्र या घाव से रहित, वायु आदि के उपद्रव से रहित तथा पोली मुट्ठी के बराबर, दो मयूरी के अंडों का प्रसव किया। प्रसव करके वह अपने पांखों की वायु से उनकी रक्षा करती, उनका संगोपन-सारसंभाल करती और संवेष्टन--पोषण करती हुई रहती थी। ४-तत्थ णं चंपाए नयरीए दुवे सत्थवाहदारगा परिवसंति; तंजहा-जिणदत्तपुत्ते य सागरदत्तपुत्ते य सहजायया सहवडियया सहपंसुकीलियया सहदारदरिसी अन्नमन्नमणुरत्तया अन्नमन्नमणु 1. प्रोप. सूत्र 1 2. द्वि. अ. सूत्र 5 3. द्वितीय अध्य. सूत्र 5 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 ] [ ज्ञाताधर्मकथा व्वयया अन्नमण्णच्छंदाणुवत्तया अन्नमन्नहियइच्छियकारया अन्नमन्नेसु गिहेसु किच्चाई करणिज्जाई पच्चणुभवमाणा विहरंति। उस चम्पानगरी में दो सार्थवाह-पुत्र निवास करते थे। वे इस प्रकार थे-जिनदत्त का पुत्र और सागरदत्त का पुत्र / वे दोनों साथ ही जन्मे थे, साथ ही बड़े हुए थे, साथ ही धूल में खेले थे, साथ ही दारदर्शी-विवाहित हुए थे अथवा एक साथ रहते हुए एक-दूसरे के द्वार को देखने वाले थेसाथ-साथ घर में प्रवेश करते थे। दोनों का परस्पर अनुराग था। एक, दुसरे का अनुसरण करता था, एक, दूसरे की इच्छा के अनुसार चलता था। दोनों एक दूसरे के हृदय का इच्छित कार्य करते थे और एक दूसरे के घरों में कृत्य-नित्यकृत्य और करणीय-नैमित्तिक कार्यकभी-कभी करने योग्य कृत्य करते हुए रहते थे। मित्रों को प्रतिज्ञा ५--तए णं तेसि सत्यवाहदारगाणं अन्नया कयाइं एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निसन्नाणं सन्निविट्ठाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था-'जण्णं देवाण प्पिया! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पव्वज्जा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जइ, तण्णं अम्हेहि एगयओ समेच्चा णित्थरियव्वं / ' ति कट्ट अन्नमन्नमेयारूवं संगारं पडिसुणेन्ति / पडिसुणेत्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था। तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र किसी समय इकट्ठे हुए, एक के घर में आये और एक साथ बैठे थे, उस समय उनमें आपस में इस प्रकार वार्तालाप हुया--'हे देवानुप्रिय ! जो भी हमें सुख, दुःख, प्रव्रज्या अथवा विदेश-गमन प्राप्त हो, उस सव का हमें एक दूसरे के साथ ही निर्वाह करना चाहिए।' इस प्रकार कह कर दोनों ने आपस में इस प्रकार की प्रतिज्ञा अंगीकार की 1 प्रतिज्ञा अंगीकार करके अपने-अपने कार्य में लग गये। गणिका देवदत्ता ६-तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामं गणिया परिवसइ, अट्टा जाव पउदित्ता विता वित्थिन्न-विउल-भवण-सयणासण-जाण-वाहणा बहुधण-जायस्व-रयया आओग-पओगसंपत्ता विच्छड्डियपउर-भत्तपाणा चउसटिकलापंडिया चउसहिगणियागुणोववेया अउणत्तीसं विसेसे रममाणी एक्कवीस-रइगुणप्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयार-कुसला गवंगसुत्तपडिबोहिया अट्ठारस-देसीभासाविसारया सिंगारागारचारुवेसा संगय-गय-हसिय-भणिय-विहियविलास-ललियसंलाव-निउणजुत्तोवयारकुसला ऊसियझया सहस्सलंभा विइन्नछत्त-चामर-बालवियणिया कन्नीरहप्पयाया यावि होत्था, बहूणं गणियासहस्साणं आहेवच्चं जाव (पोरेवच्वं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणा-ईसर-सेणावच्चं कारेमाणी पालेमाणी महयाऽऽहय-नट्ट-गोय-वाइय-तंती-तल-तालघण-मुइंग-पटुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुजमाणी) विहरइ। उस चम्पानगरी में देवदत्ता नामक गणिका निवास करती थी। वह समृद्ध थी, [तेजस्विनी थी, प्रख्यात थी। उसके यहाँ विस्तीर्ण और विपुल भवन, शय्या, आसन, रथ आदि यान और अश्व आदि वाहन थे / स्वर्ण और चाँदो आदि धन की बहुतायत थी। लेन-देन किया करती थी। उसके यहाँ इतना बहुत भोजन-पान तैयार होता था कि जीमने के पश्चात् भी बहुत-सा वचा रहता था, Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अंडक ] [ 137 अत: ] वह बहुत भोजन-पान वाली थी 1 चौसठ कलाओं में पंडिता थी। गणिका के चौसठ गुणों से युक्त थी। उनतीस प्रकार की विशेष क्रीडाएँ करने वाली थी। कामक्रीडा के इक्कीस गुणों में कुशल थी। बत्तीस प्रकार के पुरुष के उपचार करने में कुशल थी। उसके सोते हुए नौ अंग (दो कान, दो नेत्र, दो नासिकापुट, जिह्वा, त्वचा और मन) जाग्रत हो चुके थे अर्थात् वह युवावस्था को प्राप्त थी। अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में निपुण थी। वह ऐसा सुन्दर वेष धारण करती थी, मानो श्रृगाररस का स्थान हो। सुन्दर गति, उपहास, वचन, चेष्टा, विलास (नेत्रों की चेष्टा) एवं ललित संलाप (बात-चीत) करने में कुशल थी। योग्य उपचार (व्यवहार) करने में चतुर थी। उसके घर पर ध्वजा फहराती थी / एक हजार देने वाले को प्राप्त होती थी, अर्थात् उसका एक दिन का शुल्क एक हजार रुपया था / राजा के द्वारा उसे छत्र, चामर और बाल व्यजन (विशेष प्रकार का चामर) प्रदान किया गया था। वह कर्णीरथ नामक वाहन पर आरूढ होकर-पाती-जाती थी, यावत एक हजार गणिकाओं का प्राधिपत्य करती हुई रहती थी, (वह उनका नेतृत्व, स्वामित्व, पालकत्व एवं अग्रेसरत्व करती थी। सभी को अपनी आज्ञा के अनुसार चलाती थी। वह उनकी सेनाध्यक्षा थी। उनका पालन-पोषण करती थी / नत्य, गीत और वाद्यों में मस्त रहती थी। तंत्री, तल, ताल, घन, मृदंग आदि बाजों की ध्वनि में डूबी वह देवदत्ता विपुल भोग भोग रही थी)। गणिका के साथ विहार ७-तए णं तेसि सत्थवाहदारगाणं अन्नया कयाइ पुव्वावरण्हकाल-समयसि जिमियभुत्तुत्तरागयाणं समाणाणं आयंताणं चोक्खाणं परमसुइभूयाणं सुहासणवरगयाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था--तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! कल्लं जाव' जलते विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेत्ता तं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं धूव-पुप्फ-गंध-वत्थं गहाय देवदत्ताए गणियाए सद्धि सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणतिर्सार पच्चणुभवमाणाणं विहरित्तए' त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयम8 पडिसुणेन्ति, पडिसुणित्ता कल्लं पाउन्भूए कोड बियपुरिसे सद्दावेन्ति, सद्दावित्ता एवं बयासी तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र किसी समय मध्याह्नकाल में भोजन करने के अनन्तर, आचमन करके, हाथ-पैर धोकर स्वच्छ होकर, परम पवित्र होकर सुखद आसनों पर बैठे / उस समय उन दोनों में आपस में इस प्रकार की बात-चीत हुई–'हे देवानुप्रिय ! अपने लिए यह अच्छा होगा कि कल यावत सूर्य के देदीप्यमान होने पर विपल अशन, पान, खादिम, और स्वादिम तथा धप," गंध और वस्त्र साथ में लेकर देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग नामक उद्यान में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए विचरें।' इस प्रकार-कहकर दोनों ने एक दूसरे की बात स्वीकार की। स्वीकार करके दूसरे दिन सूर्योदय होने पर कौटुम्बिक पुरुषों (सेवकों) को बुलाकर इस प्रकार कहा--- ८-गच्छह णं देवाणुप्पिया ! विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडेह / उवक्खडित्ता तं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं धूव-पुप्फ गहाय जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे, जेणेव णंदा पुक्खरिणी, तेणामेव उवागच्छह / उवच्छित्ता गंदापुक्खरिणीओ अदूरसामंते थूणामंडवं आहणह / आहणित्ता आसित्त-संमज्जिओवलितं जाव (पंचवण्ण-सरससुरभि-मुक्क-पुप्फपुजोवयारकलियं कालागरु-पवर 1. प्र. अ. 28 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] [ ज्ञाताधर्मकथा कुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-उसंत-सुरसि-मघमघंत-गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवर-गंधियं गधवट्टिभूयं) करेह, करित्ता अम्हे पडिवालेमाणा चिट्ठह' जाव चिट्ठति / देवानुप्रियो ! तुम जानो और विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करो / तैयार करके उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम को तथा धूप, पुष्प आदि को लेकर जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान है और जहाँ नन्दा पुष्कारिणी है, वहाँ जायो / जाकर नन्दा पुष्करिणी के समीप स्थणामण्डप (वस्त्र से आच्छादित मंडप) तैयार करो। जल सींच कर, झाड़-बुहार कर, लीप कर यावत् [पाँच वर्गों के सरस सुगंधित एवं बिखरे हुए फूलों के समूह रूप उपचार से युक्त, काले अगर, कुदुरुक्क, तुरुष्क (लोभान) तथा धूप के जलाने से महकती हुई उत्तम गंध से व्याप्त होने के कारण मनोहर, श्रेष्ठ सुगंध के चूर्ण से सुगंधित तथा सुगंध की वट्टी के समान बनायो। यह सब करके हमारी बाट-राह देखना / ' यह सुनकर कौटुम्बिक पुरुष प्रादेशानुसार कार्य करके यावत् उनकी बाट देखने लगे। ९-तए णं सत्यवाहदारगा दोच्चपि कोडुबियपुरिसे सद्दावेति, सहावित्ता एवं वयासी'खिप्पामेव लहुकरणजुत्तजोइयं समखुर-वालिहाण-समलिहियतिक्खग्गसिंगरहि रययामय-सुत्तरज्जुयपवरकंचण-खचिय-णत्यपग्गहोवग्गहिएहि नीलुप्पलकयामेलएहि पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणि-रयणकंचण-घंटियाजालपरिक्खित्तं पवरलक्खणोववेयं जुत्तमेव पवहणं उवणेह।' ते वि तहेव उवणेन्ति / तत्पश्चात् सार्थवाहपुत्रों ने दूसरी बार (दूसरे) कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा-'शीघ्र ही एक समान खुर और पूंछ वाले, एक-से चित्रित तीखे सींगों के अग्रभाग वाले, चाँदी की घंटियों वाले, स्वर्णजटित सूत की डोरी को नाथ से बंधे हुए तथा नीलकमल की कलंगी से युक्त श्रेष्ठ जवान बैल जिसमें जुते हों, नाना प्रकार की मणियों की, रत्नों की और स्वर्ण की घंटियों के समूह से युक्त तथा श्रेष्ठ लक्षणों वाला रथ ले आओ।' वे कौटुम्बिक पुरुष प्रादेशानुसार रथ उपस्थित करते हैं। १०–तए णं ते सत्थवाहदारगा व्हाया जाव (कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता अप्पमहग्घाभरणालंकिय-) सरोरा पवहणं दुरूहंति, दुरूहित्ता जेणेब देवदत्ताए गणियाए गिहं तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता पवहणाओ पच्चोरुहंति, पच्चोरुहित्ता देवदत्ताए गणियाए गिहं अणुपविसेन्ति / तए णं सा देवदत्ता गणिया सत्थवाहदारए एज्जमाणे पासइ, पासित्ता हद्वतुट्ठा आसणाओ अन्भुट्टेइ, अन्भुद्वित्ता सत्तटुपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छिता ते सत्यवाहदारए एवं क्यासी'संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किमिहागमणप्पओयणं ?' तत्पश्चात् उन सार्थवाहपुत्रों ने स्नान किया, यावत् [बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल प्रायश्चित्त किया, थोड़े और बहुमूल्य अलंकारों से शरीर को अलंकृत किया और] वे रथ पर आरूढ़ हुए / रथ पर आरूढ होकर जहाँ देवदत्ता गणिका का घर था, वहाँ आये / प्राकर वाहन (रथ) से नीचे उतरे और देवदत्ता गणिका के घर में प्रविष्ट हुए। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अंडक ] [ 139 उस समय देवदत्ता गणिका ने सार्थवाहपुत्रों को प्राता देखा / देखकर वह हृष्ट-तुष्ट होकर आसन से उठी और उठकर सात-आठ कदम सामने गई / सामने जाकर उसने सार्थवाहपुत्रों से इस प्रकार कहा-- देवानुप्रियो ! आज्ञा दीजिए, आपके यहाँ आने का क्या प्रयोजन है ? ११--तए णं ते सत्यवाहदारगा देवदत्तं गणियं एवं वयासी-'इच्छामो गं देवाणुप्पिए ! तुम्हेहि सद्धि सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरि पच्चणुब्भवमाणा विहरित्तए।' तए णं सा देवदत्ता तेसि सत्यवाहदारगाणं एयमटुं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता व्हाया कयवलिकम्मा जाब सिरिसमाणवेसा जेणेव सत्थवाहदारगा तेणेव समागया / तत्पश्चात् सार्थवाहपुत्रों ने देवदत्ता गणिका से इस प्रकार कहा---'देवानुप्रिये ! हम तुम्हारे साथ सुभूमिभाग नामक उद्यान की श्री का अनुभव करते हुए विचरना चाहते हैं।' गणिका देवदत्ता ने उन सार्थवाहपुत्रों का यह कथन स्वीकार किया। स्वीकार करके स्नान किया, मंगलकृत्य किया यावत् लक्ष्मी के समान श्रेष्ठ वेष धारण किया। जहाँ सार्थवाहपुत्र थे वहाँ आ गई। १२-तए णं ते सत्थवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धि जाणं दुरुहंति, दुरूहितिा चंपाए नयरीए मज्झमज्झेणं जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे, जेणेव नंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता पवहणाओ पच्चोल्हंति, पच्चोरुहित्ता गंदापोक्खरिणि ओगाहिति / ओगाहिता जलमज्जणं करेंति, जलकोडं करेंति, हाया देवदत्ताए सद्धि पच्चुत्तरंति / जेणेव थूणामंडवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता थणामंडवं अणुपविसित्ता सब्बालंकारविभूसिया आसत्था बीसत्था सुहासणवरगया देवदत्ताए सद्धि तं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं धवपप्फगंधवत्थं आसाएमाणा विसाएमाणा प भाएमाणा परिभुजेमाणा एवं च णं विहरति / जिमियभुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा देवदत्ताए सद्धि विपुलाई माणुस्सगाई कामभोगाइं भुजमाणा विहरंति / __ तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र देवदत्ता गणिका के साथ यान पर आरूढ हुए और चम्पानगरी के बीचों-बीच होकर जहाँ सुभूमिभाग उद्यान था और जहाँ नन्दा पुष्करिणी थी, वहाँ पहुँचे / वहाँ पहुँच कर यान (रथ) से नीचे उतरे / उतर कर नंदा पुष्करिणी में अवगाहन किया। अवगाहन करके जल-मज्जन किया, जल-क्रीड़ा की, स्नान किया और फिर देवदत्ता के साथ बाहर निकले / जहाँ स्थूणामंडप था वहाँ आये। पाकर स्थूणामंडप में प्रवेश किया। सब अलंकारों से विभूषित हुए, आश्वस्त (स्वस्थ) हुए, विश्वस्त (विश्रान्त) हुए, श्रेष्ठ आसन पर बैठे / देवदत्ता गणिका के साथ उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तथा धूप, पुष्प, गंध और वस्त्र का उपभोग करते हुए, विशेषरूप से आस्वादन करते हुए, विभाग करते हुए एवं भोगते हुए विचरने लगे। भोजन के पश्चात् देवदत्ता के साथ मनुष्य संबंधी विपुल कामभोग भोगते हुए विचरने लगे। १४–तए णं सत्यवाहदारगा पुवावरण्हकालसमयंसि देवदत्ताए गणियाए सद्धि थूणामंडवाओ पडिणिक्खमंति / पडिणिक्खमित्ता हत्थसंगेल्लीए सुभूमिभागे बहुसु आलिधरएसु य कयलीघरएसु य लयाघरएसु य अच्छणघरएसु य पेच्छणधरएसु य पसाहणघरएसु य मोहणधरएसु य सालघरएसु य जालघरएसु य कुसुमघरएसु य उज्जाणसिरि पच्चणुभवमाणा विहरंति / Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140) [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र दिन के पिछले प्रहर में देवदत्ता गणिका के साथ स्थूणामंडप से बाहर निकलकर हाथ में हाथ डालकर, सुभूमिभाग में बने हुए आलिनामक वृक्षों के गृहों में, कदली - गहों में, लतागहों में, ग्रासन (बैठने के) गहों में, प्रेक्षणगहों में, मंडन करने के गहों में, मोहन (मैथन) गहों में, साल वृक्षों के गृहों में, जाली वाले गृहों में तथा पुष्पगृहों में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए घूमने लगे। मयूरी का उद्वेग 14- तए णं ते सत्यवाहदारगा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं सा वणमऊरी ते सत्थवाहदारए एज्जमाणे पासइ / पासित्ता भीया तत्था महया महया सद्देणं केकारवं विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी मालुयाकच्छाओ पडिणिक्खमइ / पडिणिक्खमित्ता एगंसि रुक्खडालयंसि ठिच्चा ते सत्थवाहदारए मालुयाकच्छयं च अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी चिट्ठइ / तत्पश्चात् वे सार्थवाहदारक जहाँ मालुकाकच्छ था, वहाँ जाने के लिए प्रवृत्त हुए / तब उस वनमयूरी ने सार्थवाहपुत्रों को प्राता देखा / देखकर वह डर गई और घबरा गई / वह जोर-जोर से आवाज करके केकारव करती हुई मालुकाकच्छ से बाहर निकली। निकल कर एक वृक्ष की डाली पर स्थित होकर उन सार्थवाहपुत्रों को तथा मालुकाकच्छ को अपलक दृष्टि से देखने लगी। १५-तए णं सत्यवाहदारगा अण्णमण्णं सद्दावेति, सद्दाविता एवं क्यासी...'जह गं देवाणुप्पिया! एसा वणमऊरी अम्हे एज्जमाणा पासित्ता भीया तत्था तसिया उविग्गा पलाया महया महया सद्देणं जाव' अम्हे मालुयाकच्छयं च पेच्छमाणी पेच्छमाणी चिट्ठइ, तं भवियन्वमेत्थ कारणेणं' ति कटु मालुयाकच्छयं अंतो अणुपविसंति / अणुपविसित्ता तत्थ णं दो पुछे परियागए' जाव पासित्ता अन्नमन्नं सद्दाति, सद्दावित्ता एवं वयासो तब उन सार्थवाहपुत्रों ने आपस में एक दूसरे को बुलाया और इस प्रकार कहा--- 'देवानुप्रिय ! यह वनमयूरी हमें प्राता देखकर भयभीत हुई, स्तब्ध रह गई, त्रास को प्राप्त हुई, उद्विग्न हुई, भाग (उड़) गई और जोर-जोर की अवाज करके यावत् हम लोगों को तथा मालुकाकच्छ को पुनःपुनः देख रही है, अतएव इसका कोई कारण होना चाहिए।' इस प्रकार कह कर वे मालुकाकच्छ के भीतर घुसे / घुस कर उन्होंने वहाँ दो पुष्ट और अनुक्रम से वृद्धि प्राप्त मयूरी-अंडे यावत देखे, देख कर एक दूसरे को आवाज देकर इस प्रकार कहाअंडों का अपहरण १६.-'सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे इमे वणमऊरोअंडए साणं जाइमंताणं कुक्कूडियाणं अंडएसु य पक्खिवावित्तए / तए णं ताओ जातिमंताओ कुक्कुडियाओ एए अंडए सए य अंडए सएणं पक्खवाएणं सारक्खमाणीओ संगोवेमाणीओ विहरिस्संति / तए णं अम्हं एत्थ दो कीलावणगा मऊरीपोयगा भविस्संति / ' त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयम→ पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता सए सए दासचेडे सदाति, सद्दावित्ता एवं वयासो--'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! इमे अंडए गहाय सयाणं जाइमंताणं कुक्कडीणं अंडएसु पक्खिवह / ' जाव ते वि पक्खिति / 1. तृ.अ. मुत्र 14. 2. तृ. अ. सूत्र 3 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अंडक] [ 141 हे देवानप्रिय ! बनमयूरी के इन अंडों को अपनी उत्तम जाति की मुर्गी के अंडों में डलवा देना, अपने लिए अच्छा रहेगा। ऐसा करने से अपनी जातिवन्त मुर्गियाँ इन अंडों का और अपने अंडों का अपने पंखों की हवा से रक्षण करती और सम्भालती रहेंगी तो हमारे दो क्रीडा करने के मयूरी-बालक हो जाएँगे।' इस प्रकार कहकर उन्होंने एक दूसरे की बात स्वीकार की / स्वीकार करके अपने-अपने दासपुत्रों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा हे देवानुप्रियो ! तुम जाम्रो / इन अंडों को लेकर अपनी उत्तम जाति की मुर्गियों के अंडों में डाल (मिला) दो।' उन दासपुत्रों ने उन दोनों अंडों को मुगियों के अंडों में मिला दिया। १७-तए णं ते सत्यवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धि सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरि पच्चणुभवमाणा विहरित्ता तमेव जाणं दुरूढा समाणा जेणेव चंपानयरी जेणेव देवदत्ताए गणियाए गिहे तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता देवदत्ताए गिहं अणुपविसंति / अणुपविसित्ता देवदत्ताए गणियाए विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति / दलइत्ता सक्कारेंति, सक्करिता संमाणेति, सम्माणिता देवदत्ताए गिहाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्ख मित्ता जेणेव सयाई सयाई गिहाइं तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था / तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग उद्यान में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए विचरण करके उसी यान पर आरूढ होकर जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ देवदत्ता गणिका का घर था, वहाँ आये / आकर देवदत्ता गणिका के घर में प्रवेश किया। प्रवेश करके देवदत्ता गणिका को विपुल जीविका के योग्य प्रीतिदान दिया। प्रीतिदान देकर उसका सत्कारसन्मान किया। सत्कार-सन्मान करके दोनों देवदत्ता के घर से बाहर निकल कर जहाँ अपने-अपने घर थे, वहाँ आये / पाकर अपने कार्य में संलग्न हो गये। शंकाशील सागरदत्तपत्र 18. तए णं जे से सागरदत्तपुत्ते सत्यवाहदारए से णं कल्लं जाव' जलते जेणेव से वणमऊरीअंडए तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता तंसि मऊरीअंडयंसि संकिए कंखिए विइगिच्छासमावन्ने भेयसमावन्ने कलुससमावन्ने-कि णं ममं एत्थ कोलावणमऊरीपोयए भविस्सइ, उदाह णो भविस्सइ ?' त्ति कटु तं मऊरीअंडयं अभिक्खणं अभिक्खणं उव्वत्तेइ, परियत्तेई, आसारेइ, संसारेइ, चालेइ, फंदेइ, घट्इ, खोभेइ, अभिक्खणं अभिक्खणं कण्णमूलंसि टिट्टियावेइ। तए णं से मऊरीअंडए अभिक्खणं अभिक्खणं उन्वत्तिज्जमाणे जाव टिद्रियावेज्जमाणे पोच्चडे जाए यावि होत्था। तत्पश्चात् उनमें जो सागरदत्त का पुत्र सार्थवाहदारक था, वह कल (दूसरे दिन) सूर्य के देदीप्यमान होने पर जहाँ वनमयूरी का अंडा था, वहाँ आया / प्राकर उस मयूरी अंडे में शंकित हुआ, अर्थात् वह सोचने लगा कि यह अंडा निपजेगा कि नहीं ? उसके फल की आकांक्षा करने लगा कि कब इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होगी? विचिकित्सा को प्राप्त हुया अर्थात् मयूरी-बालक हो जाने पर भी इससे क्रीडा रूप फल प्राप्त होगा या नहीं, इस प्रकार फल में संदेह करने लगा, भेद को प्राप्त हुआ, अर्थात् सोचने लगा कि इस अंडे में बच्चा है भी या नहीं? कलुषता अर्थात् बुद्धि की मलिनता 1. प्र. अ. 28 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142] [ज्ञाताधर्मकथा को प्राप्त हुआ। अतएव वह विचार करने लगा कि मेरे इस अंडे में से क्रीडा करने का मयूरी-बालक उत्पन्न होगा अथवा नहीं होगा ? इस प्रकार विचार करके वह बार-बार उस अंडे को उद्वर्तन करने लगा अर्थात् नीचे का भाग ऊपर करके फिराने लगा, घुमाने लगा, पासारण करने लगा अर्थात एक जगह से दूसरी जगह रखने लगा, संसारण करने लगा अर्थात बार-बार स्थानान्तरित करने लगा. चलाने लगा. दिलाने लगा, घट्टन -हाथ से स्पर्श करने लगा, क्षोभण--भूमि को खोदकर उसमें रखने लगा और बार-बार उसे कान के पास ले जाकर बजाने लगा। तदनन्तर वह मयूरी-अंडा बार-बार उद्वर्तन करने से यावत् [परिवर्तन करने से, आसारण-संसारण करने से, चलाने, हिलाने, स्पर्श करने से, क्षोभण करने से] बजाने से पोचा हो गया-निर्जीव हो गया। 19 -तए णं से सागरदत्तपुत्ते सत्यवाहदारए अन्नया कयाई जेणेव से मऊरीअंडए तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता तं मऊरीअंडयं पोच्चडमेव पासइ। पासित्ता 'अहो णं मम एस कोलावणए ण जाए' ति कटु ओहयमणसंकरपे करतलपल्हत्यमुहे अट्टज्झाणोवगए। सागरदत्त का पुत्र सार्थवाहदारक किसी समय जहाँ मयूरी का अंडा था वहाँ पाया। पाकर उस मयूरी-अंडे को उसने पोचा देखा / देखकर 'प्रोह ! यह मयूरी का वच्चा मेरी क्रीडा करने के योग्य न हुआ ऐसा विचार करके खेदखिन्नचित्त होकर चिन्ता करने लगा। उसके सब मनोरथ विफल हो गए। शंकाशीलता का कुफल २०-एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए पम्वइए समाणे पंचमहन्वएसु, छज्जीवनिकाएसु, निग्गंथे पावयणे संकिए जाव (कंखिए वितिगिछसमावण्णे)कलुससमावन्ने से णं इह भवे चेव बहूर्ण समणाणं समणीणं बहूणं सावगाणं साविगाणं होलणिज्जे खिसणिज्जे गरिहणिज्जे, परिभवणिज्जे, परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य जाव (बहूणि मुंडणाणि य बहूणि तज्जणाणि य बहूणि तालणाणि य बहूणि अंदुबंधणाणि य बहूणि घोलणाणि य बहणि माइमरणाणि य बहूणि पिइमरणाणि य बहूणि भाइमरणाणि य बहूणि भगिणीमरणाणि य बहूणि भज्जामरणाणि य बहूणि पुत्तमरणाणि य बहूणि धूयमरणाणि य बहूणि सुण्हामरणाणि य, बहुणि दारिदाणं बहूणं दोहग्गाणं बहूणं अप्पियसंवासाणं बहूणं पियविप्पओगाणं बहूणं दुक्खदोमणस्साणं आभागी भविस्सति, अणादियं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकतारं भुज्जो भुज्जो) अणुपरियट्टिस्सइ / अायुष्मन् श्रमणो ! इस प्रकार जो साधु या साध्वी प्राचार्य या उपाध्याय के समीप प्रव्रज्या ग्रहण करके पाँच महाव्रतों के विषय में अथवा षट् जीवनिकाय के विषय में अथवा निर्ग्रन्थ प्रवचन के विषय में शंका करता है [कांक्षा-परदर्शन की या लौकिक फल की अभिलाषा करता है, या क्रिया के फल में सन्देह करता है या कलुषता को प्राप्त होता है, वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, साध्वियों, श्रावकों और श्राविकाओं के द्वारा हीलना करने योग्य-गच्छ से पृथक करने योग्य, मन से निन्दा करने योग्य, लोक-निन्दनीय, समक्ष में ही गह: (निन्दा) करने योग्य और परिभव (अनादर Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अंडक ] [143 के योग्य होता है। पर भव में भी वह बहुत दंड पाता है यावत् [वह बार-बार मूडा जाता है, बारबार तर्जना और ताड़ना का भागी होता है, बार-बार बेडियों में जकड़ा जाता है, बार-बार घोलना पाता है, उसे बार-बार मातृमरण, पितृमरण, भ्रातृमरण, भगिनीमरण, पत्नीमरण, पुत्रमरण, पुत्रीमरण और पुत्रवधूमरण का दुःख भोगना पड़ेगा। वह बहत दरिद्रता, अत्यन्त दुर्भाग्य, अतीव इष्टवियोग, अत्यन्त दुःख एवं दुर्मनर कता का भाजन बनेगा / अनादि अनन्त दीर्घ मार्ग वाले चार गतिरूप संसार-कान्तार में] परिभ्रमण करेगा। . श्रद्धा का सुफल २१-तए णं से जिणदत्तपुत्ते जेणेव से मऊरीअंडए तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता तसि मऊरीअंडयंसि निस्संकिए, 'सुवत्तए णं मम एत्थ कोलावणए मऊरीपोयए भविस्सई' ति कटु तं मऊरीअंडयं अभिक्खणं अभिक्खणं नो उन्बत्तेइ' जाव नो टिट्टियावेइ / तए णं से मऊरीअंडए अणुव्वत्तिज्जमाणे जाव अटिट्टियाविज्जमाणे तेणं कालेणं तेणं समएणं उब्भिन्ने मऊरोपोयए एत्थ जाए। (इससे विपरीत) जिनदत्त का पुत्र जहाँ मयूरी का अंडा था, वहाँ पाया / आकर उस मयूरी के अंडे के विषय में नि:शंक रहा / 'मेरे इस अंडे में से क्रीडा करने के लिए बढ़िया गोलाकार मयूरीबालक होगा' इस प्रकार निश्चय करके, उस मयूरी के अंडे को उसने बार-बार उलटा-पलटा नहीं यावत् बजाया नहीं [हिलाया-डुलाया, छुपा नहीं] अादि / इस कारण उलट-पलट न करने से और न बजाने से उस काल और उस समय में अर्थात् समय का परिपाक होने पर वह अंडा फूटा और मयूरी के बालक का जन्म हुग्रा। २२–तए णं से जिणदत्तपुत्ते तं मऊरोपोययं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्टे मऊरपोसए सद्दावेइ / सद्दावित्ता एवं वयासी--तुब्भे णं देवाणुप्पिया! इमं मऊरपोययं बहूहि मऊरपोसणपाउग्गेहि दव्वेहि अणुपुत्वेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवड्ढेह, नटुल्लगं च सिक्खावेह / तए णं ते मऊरपोसगा जिणदत्तस्स पुत्तस्स एयमट्ठ पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता तं मऊरपोययं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता तं मऊरपोयगं जाव नटुल्लग सिक्खाति। __ तत्पश्चात् जिनदत्त के पुत्र ने उस मयूरी के बच्चे को देखा। देखकर हृष्ट-तुष्ट होकर मयूरपोषकों को बुलाया। वुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! तुम मयूर के इस बच्चे को अनेक मयूर को पोषण देने योग्य पदार्थों से अनुक्रम से संरक्षण करते हुए और संगोपन करते हुए बड़ा करो और नृत्यकला सिखलायो। __ तव उन मयूरपोषकों ने जिनदत्त के पुत्र की यह बात स्वीकार की। उस मयूर-बालक को ग्रहण किया / ग्रहण करके जहाँ अपना घर था वहाँ पाये। आकर उस मयूर-बालक को यावत् नृत्यकला सिखलाने लगे। 1. तु. अ. 18 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [ज्ञाताधर्मकथा २३-तए णं से मऊरपोयए उम्मुक्कबालभावे विनायपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुपत्ते लक्खणवंजणगुणोववेए माणुम्माण-पमाणपडिपुण्ण-पक्ख-पेहुण-कलावे विचित्तपिच्छे सयचंदए नीलकंठए नच्चणसोलए एगाए चप्पुडियाए कयाए समाणीए अणेगाई नटुल्लगसयाई केकारवसयाणि य करेमाणे बिहरई। तत्पश्चात् मयूरी का बच्चा बचपन से मुक्त हुआ। उसमें विज्ञान का परिणमन हुआ। युवावस्था को प्राप्त हुआ / लक्षणों और तिल आदि व्यंजनों के गुणों से युक्त हुा / चौड़ाई रूप मान, स्थूलता रूप उन्मान और लम्बाई रूप प्रमाण से उसके पंखों और पिच्छों (पंखों) का समूह परिपूर्ण हुमा / उसके पंख रंग-बिरंगे हो गए। उनमें सैकड़ों चन्द्रक थे। वह नीले कंठ वाला और नृत्य करने का स्वभाव वाला हुआ / एक चुटकी बजाने से अनेक प्रकार के सैकड़ों केकारव करता हुमा विचरण करने लगा। २४--तए णं ते मऊरपोसगा तं मऊरपोययं उम्मुक्कबालभावं जाव करेमाणं पासित्ता तं मऊरपोयगं गेण्हति / गेण्हित्ता जिणदत्तस्स पुत्तस्स उवणेन्ति। तए णं से जिणदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए मऊरपोयगं उम्मुक्कबालभावं जाव करेमाणं पासित्ता हतुळे तेसि विउलं जीवियारिहं पीइदाणं जाव (दलयइ, दलइत्ता) पडिविसज्जेइ / तत्पश्चात् मयूरपालकों ने उस मयूर के बच्चे को बचपन से मुक्त यावत् केकारव करता हुआ देख कर उस मयूर-बच्चे को ग्रहण किया। ग्रहण करके जिनदत्त के पुत्र के पास ले गये। तब जिनदत्त के पुत्र सार्थवाहदारक ने मयूर-बालक को बचपन से मुक्त यावत् केकारव करता देखकर, हृष्ट-तुष्ट होकर उन्हें जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान दिया। प्रीतिदान देकर विदा किया। २५-तए णं से मऊरपोयए जिणदत्तपुत्तेण एगाए चप्पुडियाए कयाए समाणीय गंगोला (ल) भंगसिरोधरे सेयावंगे अवयारियपइन्नपक्खे उक्खित्तचंदकाइयकलावे केक्काइयसयाणि विमुच्चमाणे णच्चइ। तए णं से जिणदत्तपुत्ते तेणं मऊरपोयएणं चंपाए नयरीए सिंघाडग जाव (तिग-चउक्कचच्चर-चउम्मुह-महापह) पहेसु सइएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि य पणिएहि य जयं करेमाणे विहरइ / तत्पश्चात् वह मयूर-बालक जिनदत्त के पुत्र द्वारा एक चुटकी बजाने पर लांगूल के भंग के समान अर्थात् जैसे सिंह आदि अपनी पूछ को टेढ़ी करते हैं उसी प्रकार अपनी गर्दन टेढ़ी करता था। उसके शरीर पर पसीना या जाता था अथवा उसके नेत्र के कोने श्वेत वर्ण के हो गये थे / वह बिखरे पिच्छों वाले दोनों पंखों को शरीर से जुदा कर लेता था अर्थात् उन्हें फैला देता था। वह चन्द्रक अादि से युक्त पिच्छों के समूह को ऊँचा कर लेता था और सैकड़ों केकाराव करता हुआ नृत्य करता था। तत्पश्चात् वह जिनदत्त का पुत्र उस मयूर-बालक के द्वारा चम्पानगरी के शृगाटकों, (त्रिक, चौक, चत्वर चतुर्मुख राजमार्ग आदि) मार्गों में सैकड़ों, हजारों और लाखों की होड़ में विजय प्राप्त करता था। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अंडक ] [145 उपसंहार २६–एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथो:वा पव्वइए समाणे पंचसु महव्वएसु छसु जीवनिकाएसु निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निक्कंखिए निम्विइगिच्छे से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं समणीणं जाव' वीइवइस्सइ / एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं णायाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमठे पन्नत्ते त्ति बेमि / / हे आयुष्मान् श्रमणो ! इसी प्रकार हमारा जो साधु या साध्वी दीक्षित होकर पाँच महाव्रतों में, षट् जीवनिकाय में तथा निर्ग्रन्थ-प्रवचन में शंका से रहित, कांक्षा से रहित तथा विचिकित्सा से रहित होता है, वह इसी भव में बहुत से श्रमणों एवं श्रमणियों में मान-सम्मान प्राप्त करके यावत् संसार रूप अटवी को पार करेगा। हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के तृतीय अध्ययन का अर्थ फरमाया है / / / तृतीय अध्ययन समाप्त // 1. द्वि. प्र. सूत्र 53. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : कूर्म सार-संक्षेप चतुर्थ अध्ययन का नाम कूर्म-अध्ययन है। इसमें प्रात्मसाधना के पथिकों को इन्द्रियगोपन की आवश्यकता दो कर्मों के उदाहरण के माध्यम से प्रतिपादित की गई है। वाराणसी नगरी में गंगा नदी से उत्तर-पूर्व में एक विशाल तालाब था-निर्मल शीतल जल से परिपूर्ण और विविध जाति के कमलों से व्याप्त / तालाब में अनेक प्रकार के मच्छ, कच्छप, मगर, ग्राह आदि जलचर प्राणी अभिरमण किया करते थे। तालाब को लोग 'मृतगंगातीरहद' कहते थे। ___ एक बार सन्ध्या-समय व्यतीत हो जाने पर, लोगों का आवागमन जब बंद-सा हो गया, तव उस तालाब में से दो कूर्म-कछुए आहार की खोज में निकले / तालाब के आस-पास घूमने लगे। उसी समय वहाँ दो सियार आ पहुँचे / वे भी आहार की खोज में भटक रहे थे / सियारों को देख कर कर्म भयभीत हो गए। आहार की खोज में निकले कूर्मों को स्वयं सियारों का आहार बन जाने का भय उत्पन्न हो गया। परन्तु कूर्मों में एक विशेषता होती है / वे अपने पैरों और गर्दन को अपने शरीर में जब गोपन कर लेते हैं-छिपा लेते हैं, तो सुरक्षित हो जाते हैं, कोई भी प्राघात उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता / कूमों ने यही किया / सियारों ने उन्हें देखा / वे उन पर झपटे / बहुत प्रयत्न किया उनका छेदन-भेदन करने का, किन्तु सफल नहीं हो सके। सियार बहुत चालाक जानवर होता है / उन्होंने देखा कि कर्म अपने अंगों का जब तक गोपन किये रहेंगे तब तक हमारा कोई प्रयत्न सफल नहीं होगा, अतएव चालाकी से काम लेना चाहिए / ऐसा सोच कर दोनों सियार कूर्मों के पास से हट गए, पर निकट ही एक झाड़ी में पूरी तरह शान्त होकर छिप गए। दोनों कूर्मों में से एक चंचल प्रकृति का था। वह अपने अंगों का देर तक गोपन नहीं कर सका। उसने एक पैर बाहर निकाला / उधर सियार इसी को ताक में थे। जैसे ही उन्होंने एक पैर बाहर निकला देखा कि शीघ्रता के साथ वे उस पर झपटे और उस पैर को खा गए / सियार फिर एकान्त में चले गए / थोड़ी देर बाद कूर्म ने अपना दूसरा पैर बाहर निकाला और सियारों ने झपट्टा मार कर उसका दूसरा पैर भी खा लिया। इसी प्रकार थोड़ी-थोड़ी देर में कर्म एक-एक पैर बाहर निकालता और सियार उसे खा जाते / अन्त में उस चंचल कर्म ने गर्दन बाहर निकाली और सियारों ने उसे भी खाकर उसे प्राणहीन कर दिया। इस प्रकार अपने अंगों का गोपन न कर सकने के कारण उस कर्म के जीवन का करुण अन्त हो गया / दूसरा कूर्म वैसा चंचल नहीं था। उसने अपने अंगों पर संयम-नियन्त्रण रक्खा / लम्बे समय तक उसने अंगों को गोपन करके रक्खा और जब सियार चले गए तब वह चारों पैरों को एक साथ बाहर निकाल कर शीघ्रतापूर्वक तालाब में सकुशल सुरक्षित पहुँच गया / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : कूर्म [147 शास्त्रकार कहते हैं- जो साधु या साध्वी अनगार-दीक्षा अंगीकार करके अपनी इन्द्रियों का गोपन नहीं करते उनकी दशा प्रथम कर्म जैसी होती है / वे इह-परभव में अनेक प्रकार के कष्ट पाते हैं, संयम-जीवन से च्युत हो जाते हैं और निन्दा-गर्दा के पात्र बनते हैं। इससे विपरीत, जो साधु या साध्वी इन्द्रियों का गोपन करते हैं, वे इसी भव में सब के वन्दनीय, पूजनीय, अर्चनीय होते हैं और संसार-अटवी को पार करके सिद्धिलाभ करते हैं। तात्पर्य यह है कि साधु हो अथवा साध्वो, उसे अपनी सभी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए, उनका गोपन करना चाहिए / इन्द्रिय-गोपन का अर्थ है-इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त न होने देना / किन्तु सर्वत्र सर्वदा इन्द्रियों की प्रवृत्ति रोकना सम्भव नहीं है। सामने आई वस्तु इच्छा न होने पर भी दृष्टिगोचर हो ही जाती है, बोला हुआ शब्द श्रोत्र का विषय बन ही जाता है। साधु-साध्वी अपनी इन्द्रियों को बंद करके रख नहीं सकते। ऐसी स्थिति में इन्द्रिय द्वारा गृहीत विषय में राग-द्वेष न उत्पन्न होने देना ही इन्द्रियगोपन, इन्द्रियदमन अथवा इन्द्रियसंयम कहलाता है। इस साधना के लिए मन को समभाव का अभ्यासी बनाने का सदैव प्रयास करते रहना अावश्यक है / यही इस अध्ययन का सार-संक्षेप है। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाउत्थं अज्झयण : कुम्मे जंबू स्वामी का प्रश्न १-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं नायाणं तच्चस्स नायज्झयणस्स अयमठे पन्नत्ते, चउत्थस्स णं णायाणं के अढे पन्नत्ते? श्री जम्बू स्वामी अपने गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से प्रश्न करते हैं—'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञात अंग के तृतीय अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ फरमाया है तो चौथे ज्ञातअध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है ?' सुधर्मा स्वामी का उत्तर २–एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नाम नयरी होत्था, वन्नओ'तीसे णं वाणारसीए नयरीए बहिया उत्तर-पुरच्छिमे दिसिभागे गंगाए महानदीए मयंगतीरद्दहे नामं दहे होत्या, अणपुव्व-सुजाय-वप्प-गंभीर-सीयल-जले अच्छ-विमल-सलिल-पलिच्छन्ने संछन्नपत्त-पुप्फ-पलासे बहउष्पल-पउम-कुमुय-नलिस-सुभग-सोगंधिय-पुंडरीय-महापुंडरीय-सयपत्त-सहस्सपत्त-केसर-पुप्फोवचिए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे / श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं-हे जम्बू ! उस काल और उस समय में वाणारसी (बनारस) नामक नगरी थी / यहाँ उसका वर्णन औपपातिक सूत्र के नगरी-वर्णन के समान कहना चाहिए। उस वाणारसी नगरी के बाहर गंगा नामक महानदी के ईशान कोण में मृतगंगातीरहद नामक एक हद था। उसके अनुक्रम से सुन्दर सुशोभित तट थे। उसका जल गहरा और शीतल था। हद स्वच्छ एवं निर्मल जल से परिपूर्ण था / कमलिनियों के पत्तों और फलों की पांखड़ियों से आच्छादित था / बहुत से उत्पलों (नीले कमलों), पद्मों (लाल कमलों), कुमुदों (चन्द्रविकासी कमलों), नलिनों तथा सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि कमलों से तथा केसरप्रधान अन्य पुष्पों से समृद्ध था / इस कारण वह अानन्दजनक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था। ३–तत्थ णं बहूणं मच्छाण य कच्छपाण य गाहाण य मगराण य सुसुमाराण य सइयाण य साहस्सियाण य सयसाहस्सियाण य जूहाई निन्भयाई निरुश्विग्गाई सुहंसुहेणं अभिरममाणाई अभिरममाणाई विहरंति। उस हद में सैकड़ों, सहस्रों और लाखों मत्स्सों कच्छों, ग्राहों, मगरों और सुसुमार जाति के जलचर जीवों के समूह भय से रहित, उद्वेग से रहित, सुखपूर्वक रमते-रमते विचरण करते थे। 1. औपपातिकसून 1. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [149 चतुर्थ अध्ययन : कूर्म] ४-तस्स णं मयंगतीरद्दहस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे मालुयाकच्छए होत्था,' वन्नओ। तत्थ णं दुवे पावसियालगा परिवसंति-पावा चंडा रोद्दा तल्लिच्छा साहसिया लोहियपाणी आमिसत्थी आमिसाहारा आमिसप्पिया आमिसलोला आमिसं गवेसमाणा रत्ति वियालचारिणो दिया पच्छन्नं चावि चिट्ठति / उस मृतगंगातीर ह्रद के समीप एक बड़ा मालुकाकच्छ था। उसका वर्णन द्वितीय अध्ययन के अनुसार यहाँ कहना चाहिए। उस मालुकाकच्छ में दो पापी शृगाल निवास करते थे / वे पाप का आचरण करने वाले, चंड (क्रोधी) रौद्र (भयंकर) इष्ट वस्तु को प्राप्त करने में दत्तचित्त और साहसी थे। उनके हाथ अर्थात् अगले पैर रक्तरंजित रहते थे। वे मांस के अर्थी, मांसाहारी, मांसप्रिय एवं मांसलोलुप थे। मांस की गवेषणा करते हुए रात्रि और सन्ध्या के समय घूमते थे और दिन में छिपे रहते थे। कूर्मों का निर्गमन ५-तए णं ताओ भयंगतीरद्दहाओ अन्नया कयाइं सूरियंसि चिरत्थमियंसि लुलियाए संझाए पविरलमाणुसंसि णिसंतपडिणिसंतंसि समाणंसि दुवे कुम्ममा आहारत्थी आहारं गवेसमाणा सणियं सणियं उत्तरंति / तस्सेव मयंगतीरद्दहस्स परिपेरंतेणं सव्वओ समंता परिघोलेमाणा परिघोलेमाणा वित्ति कप्पेमाणा विहरंति। तत्पश्चात् किसी समय, सूर्य के बहुत समय पहले अस्त हो जाने पर, सन्ध्याकाल व्यतीत हो जाने पर, जब कोई विरले मनुष्य ही चलते-फिरते थे और सब मनुष्य अपने-अपने घरों में विश्राम कर रहे थे अथवा सब लोग चलने-फिरने से विरक्त हो चुके थे, तब मृतगंगातीर ह्रद में से आहार के अभिलाषी दो कछुए बाहर निकले / वे मृतगंगातीर ह्रद के अासपास चारों ओर फिरते हुए अपनी आजीविका करते हए विचरण करने लगे, अर्थात पाहार की खोज में फिरने लगे। पापी शृगाल ६-तयाणंतरं च णं ते पावसियालगा आहारत्थी जाव आहारं गवेसमाणा मालुयाकच्छयाओ पडिणिक्खमंति। पडिणिक्खमित्ता जेणेब मयंगतीरे दहे तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता तस्सेव मयंगतोरद्दहस्स परिपेरतेणं परिघोलेमाणा परिघोलेमाणा वित्ति कप्पेमाणा विहरति / तए णं ते पावसियाला ते कुम्मए पासंति, पासित्ता जेणेव ते कुम्मए तेणेव पहारेत्थ गमणाए / तत्पश्चात् आहार के अर्थी यावत् आहार की गवेषणा करते हुए वे (पूर्वोक्त) दोनों पापी शृगाल मालकाकच्छ से बाहर निकले / निकल कर जहाँ मृतगंगातीर नामक हृद था, वहाँ पाए / पाकर उसी मृतगंगातीर ह्रद के पास इधर-उधर चारों ओर फिरने लगे और आहार की खोज करते हुए विचरण करने लगे-आहार की तलाश करने लगे। तत्पश्चात् उन पापी सियारों ने उन दो कछुओं को देखा / देखकर जहाँ दोनों कछुए थे, वहाँ आने के लिए प्रवृत्त हुए / 1. दि. अ. सूत्र 5 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] / ज्ञाताधर्मकथा 7. तए णं ते कुम्मगा ते पावसियालए एज्जमाणे पासंति / पासिता भोता तत्था तसिया उद्विग्गा संजातभया हत्थे य पाए य गोवाओ य सरहिं सहि काहिं साहरंति, साहरित्ता निच्चला निफंदा तुसिणीया संचिट्ठति / तत्पश्चात् उन कछुओं ने उन पापी सियारों को आता देखा / देखकर वे डरे, त्रास को प्राप्त हुए, भागने लगे, उद्वेग को प्राप्त हुए और बहुत भयभीत हुए / उन्होंने अपने हाथ पैर और ग्रीवा को अपने शरीर में गोपित कर लिया-छिपा लिया, गोपन करके निश्चल, निस्पंद (हलन-चलन से रहित) और मौन–शान्त रह गए। शृगालों को चालाकी ८-तए णं ते पावसियालया जेणेव ते कुम्मगा तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता ते कुम्ममा सव्वओ समंता उन्वत्तेन्ति, परियतेन्ति, आसारेन्ति, संसारेन्ति, चालेन्ति, घट्टेन्ति, फंदेन्ति, खोभेन्ति, नहेहि आलुपंति, दंतेहि य अक्खो.ति, नो चेव णं संचाएंति तेसि कुम्मगाणं सरीरस्स आबाहं वा, पबाहं वा, वाबाहं वा उप्पाएत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए। तए णं ते पावसियालया एए कुम्मए दोच्चं पि तच्चपि सव्वओ समंता उव्वत्तेंति, जाव नो चेव णं संचाएंति करेत्तए / ताहे संता तंता परितंता निस्विन्ना समाणा सणियं सणियं पच्चोसक्कंति, एगंतमवक्कमंति, निच्चला निष्फंदा तुसिणीया संचिट्ठति / तत्पश्चात् वे पापी सियार जहाँ वे कछुए थे, वहाँ पाए / आकर उन कछुओं को सब तरफ से फिराने-घुमाने लगे, स्थानान्तरित करने लगे, सरकाने लगे, हटाने लगे, चलाने लगे, स्पर्श करने लगे, हिलाने लगे, क्षुब्ध करने लगे, नाखूनों से फाड़ने लगे और दांतों से चीथने लगे, किन्तु उन कछुओं के शरीर को थोड़ी बाधा, अधिक बाधा या विशेष बाधा उत्पन्न करने में अथवा उनकी चमड़ी छेदने में समर्थ न हो सके। तत्पश्चात् उन पापी सियारों ने इन कछुओं को दूसरी बार और तीसरी बार सब ओर से घमाया-फिराया, किन्तु यावत् वे उनकी चमड़ी छेदने में समर्थ न हुए। तब वे श्रान्त हो गये-शरीर से थक गए, तान्त हो गए-मानसिक ग्लानि को प्राप्त हुए और शरीर तथा मन दोनों से थक गए तथा खेद को प्राप्त हुए / धीमे-धीमे पीछे लौट गये, एकान्त में चले गये और निश्चल, निस्पंद तथा मूक होकर ठहर गये। असंयत कूर्म की दुर्दशा ९-तत्थ णं एगे कुम्मए ते पावसियालए चिरंगए दूरगए जाणित्ता सणियं सणियं एगं पायं निच्छुभइ। तए णं ते पावसियालया तेणं कुम्मएणं सणियं सणियं एगं पायं नीणियं पासंति / पासित्ता ताए उक्किट्ठाए गईए सिग्धं चवलं तुरियं चंडं जइणं वेगिई जेणेव से कुम्मए तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता तस्स णं कुम्मगस्स तं पायं नहिं आलु पंति दंतेहि अक्खोडेंति, तओ पच्छा मंसं च सोणियं च आहारेंति, आहारिता तं कुम्मगं सवओ समंता उठवत्तेति जाव नो चेव णं संचाइति करेत्तए, ताहे दोच्चं पि अवक्कमंति, एवं चत्तारि वि पाया जाव सणियं सणियं गीवं णोणेइ। तए णं ते पावसियालया तेणं कुम्मएणं गीवं णीणियं पासंति,पासित्ता सिग्धं चवलं तुरियं चंडं नहेहि Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : कूर्म ] [ 151 दंतेहि कवालं विहाडेंति, विहाडित्ता तं कुम्मगं जीवियाओ ववरोति, ववरोवित्ता मंसं च सोणियं च आहारेति / उन दोनों कछुओं में से एक कछुए ने उन पापी सियारों को बहुत समय पहले और दूर गया जान कर धीरे-धीरे अपना एक पैर बाहर निकाला। तत्पश्चात् उन पापी सियारों ने देखा कि उस कछा ने धीरे-धीरे एक पैर निकाला है / यह देखकर वे दोनों उत्कृष्ट गति से शीघ्र, चपल, त्वरित, चंड, जययुक्त और वेगयुक्त रूप से जहाँ वह कछुआ था, वहाँ गये / जाकर उन्होंने कछुए का वह पैर नाखूनों से विदारण किया और दातों से तोड़ा / तत्पश्चात् उसके मांस और रक्त का आहार किया। प्राहार करके वे कछुए को उलट-पुलट कर देखने लगे, किन्तु यावत् उसकी चमड़ी छेदने में समर्थ न हुए। तब वे दूसरी बार हट गए--दूर चले गए / इसी प्रकार चारों पैरों के विषय में कहना चाहिए / तात्पर्य यह है कि शृगालों के दूसरी बार चले जाने पर कछुए ने दूसरा पैर वाहर निकाला। पास ही छिपे शृगालों ने यह देखा तो वे पुनः झपट कर पा गए और कछुया का दूसरा पैर खा गए / शेष दो पैर और ग्रीवा शरीर में छिपी होने से उनका कुछ भी न बिगाड़ सके / तब निराश होकर शृगाल फिर एक अोर चले गए और छिप गए / जब कुछ देर हो गई तो कछुए ने अपना तीसरा पैर बाहर निकाला। शृगालों ने यह देखकर फिर अाक्रमण कर दिया और वह तीसरा पैर भी खा लिया। एक पैर और ग्रीवा फिर भी बची रही। शृगाल उसे न फाड़ सके / तब वे फिर एकान्त में जाकर छिप गये। तत्पश्चात् कछुए ने चोथा पैर बाहर निकाला और तभी शृगालों ने हमला बोल कर वह चौथा पैर भी खा लिया / इसी प्रकार कुछ समय व्यतीत होने पर उस कछए ने ग्रीवा बाहर निकाली। उन प देखा कि कछुए ने ग्रीवा बाहर निकाली है। यह देख कर वे शीघ्र ही उसके समीप अाए / उन्होंने नाखूनों से विदारण करके और दाँतों से तोड़ कर उसके कपाल को अलग कर दिया। अलग करके कछुए को जीवन-रहित कर दिया / जीवन-रहित करके उसके मांस और रुधिर का पाहार किया। निष्कर्ष १०--एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पायरियउवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पंच य से इंदियाई अगुत्ताइं भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं सावगाणं साविगाणं हीलणिज्जे, परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि जाव' अणुपरियट्टइ, जहा कुम्मए अगुतिदिए। इसी प्रकार हे आयुष्मन श्रमणो ! हमारे जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी प्राचार्य या उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर पाँचों इन्द्रियों का गोपन नहीं करते हैं, वे इसी भव में बहुत साधुओं, साध्वियों, थावकों, थाविकानों द्वारा हीलता करने योग्य होते हैं और परलोक में भी बहुत दंड पाते हैं, यावत् अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं, जैसे अपनी इन्द्रियों-अंगों का गोपन न करने वाला वह कछुअा मृत्यु को प्राप्त हुआ / 1. तृ. प्र., 20 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा 152] संयत कूर्म ११-तए णं ते पावसियालया जेणेव से दोच्चए कुम्मए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं कुम्मयं सव्वओ समंता उवर्तेति जाव' दंतेहिं अक्खुडंति जाव' करित्तए। तए णं ते पावसियालया दोच्चं पि तच्चं पि जावं नो संचाएंति तस्स कुम्मगस्स किंचि आबाहं वा पबाहं वा विबाहं वा जाव [उप्पाएत्तए छविच्छेयं वा करित्तए, ताहे संता तंता परितंता निम्विन्ना समाणा जामेव दिसि पाउन्भूआ तामेव दिसि पडिगया। तत्पश्चात् वे पापी सियार जहाँ दूसरा कछुपा था, वहाँ पहुँचे / पहुँच कर उस कछुए को चारों तरफ से, सब दिशाओं से उलट-पलट कर देखने लगे, यावत् दांतों से तोड़ने लगे, परन्तु उसकी चमड़ी का छेदन करने में समर्थ न हो सके। / तत्पश्चात् वे पापी सियार दूसरी बार और तीसरी बार दूर चले गये किन्तु कछुए ने अपने अंग बाहर न निकाले, अतः वे उस कछुए को कुछ भी आबाधा या विबाधा अर्थात् थोड़ी या बहुत या अत्यधिक पीडा उत्पन्न न कर सके / यावत् उसकी चमड़ी छेदने में भी समर्थ न हो सके / तब वे श्रान्त, क्लान्त और परितान्त हो कर तथा खिन्न होकर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए। १२-तए णं से कुम्मए ते पावसियालए चिरंगए दूरगए जाणित्ता सणियं सणियं गीवं नेणेइ, नेणित्ता दिसावलोयं करेइ, करिता जमगसमगं चत्तारि वि पाए नीणेइ, नीणेत्ता ताए उक्किट्ठाए कुम्मगईए बीइवयमाणे वीइवयमाणे जेणेव मयंगतीरहहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छिता मित्त-नाइनियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सद्धि अभिसमन्नागए यावि होत्या। तत्पश्चात् उस कछु ए ने उन पापी सियारों को चिरकाल से गया और दूर गया जान कर धीरे-धीरे अपनी ग्रीवा बाहर निकाली। ग्रीवा निकालकर सब दिशाओं में अवलोकन किया / अवलोकन करके एक साथ चारों पैर बाहर निकाले और उत्कृष्ट कूर्मगति से अर्थात् कछुए के योग्य अधिक से अधिक तेज चाल से दौड़ता-दौड़ता जहां मृतगंगातीर नामक ह्रद था, वहाँ जा पहुंचा। वहाँ आकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों से मिल गया। सारांश १३--एवामेव समणाउसो! जो अम्हं समणो वा समणी वा आयरिय-उवझायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पन्वइए समाणे पंच से इंदियाइं गुत्ताई भवंति, जाव [से गं इहभवे चेव बहूर्ण समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं साविगाण य अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमंसणिज्जे पूयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएण पन्जुवासणिज्जे भवइ। परलोए वि य णं नो बहूणि हत्थछेयणाणि य कण्णच्छेयणाणि य नासाछेयणाणि य एवं हिययउप्पाडणाणि य वसणुप्पाडणाणि य उल्लंबणाणि य पाविहिइ, पुणो अणाइयं च णं अणवदग्गं दोहमद्धं चाउरतं संसारकतारं वीइवइस्सइ] जहा उ से कुम्मए गुत्तिदिए / 1-2. चतुर्थ प्र. 8. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : कूर्म | हे आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो श्रमण या श्रमणी (प्राचार्य या उपाध्याय के निकट मुडित होकर दीक्षित हुआ है,) पांचों इन्द्रियों का गोपन करता है, जैसे उस कछुए ने अपनी इन्द्रियों को गोपन करके रखा था, वह इसी भव में बहुसंख्यक श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय वन्दनीय नमस्करणीय पूजनीय सत्करणीय और सम्माननीय होता है / वह कल्याण मंगल देवस्वरूप एवं चैत्यस्वरूप तथा उपासनीय बनता है। परलोक में उसे हाथों, कानों और नाक के छेदन के दुःख नहीं भोगने पड़ते / हृदय के उत्पाटन, वृषणों-अंडकोषों के उखाड़ने, फांसी चढ़ने आदि के कष्ट नहीं झेलने पड़ते / वह अनादिअनन्त संसार-कांतार को पार कर जाता है / ___१४-एवं खलु जंबू ! समणेणं भगक्या महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते त्ति बेमि। अध्ययन का उपसंहार करते हुए सुधर्मा स्वामी कहते हैं-हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने चौथे ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है, जैसे मैंने भगवान् से सुना है, वैसा ही मैं कहता हूँ। // चतुर्थ अध्ययन समाप्त / / Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक सार : संक्षेप ___ द्वारका नगरी में बाईसवें तीर्थंकर भगवान् अरिष्टनेमि का पदार्पण हुआ। वासुदेव कृष्ण अपने बृहत् परिवार के साथ प्रभु की उपासना और धर्मदेशना श्रवण करने पहुँचे / द्वारका के नरनारी भी पीछे न रहे। साक्षात् तीर्थकर भगवान् के मुख-चन्द्र से प्रवाहित होने वाले वचनामृत से कौन भव्य प्राणी वंचित रहना चाहता? द्वारका में थावच्चा नामक एक सम्पन्न गृहस्थ महिला थी / उसका इकलौता पुत्र थावच्चापुत्र के नाम से ही अभिहित होता था / वह भी भगवान की धर्मदेशना श्रवण करने पहुँचा / धर्मदेशना सुनी और वैराग्य के रंग में रंग गया। माता ने बहुत समझाया, आजीजी की, किन्तु थावच्चापुत्र अपने निश्चय पर अटल रहा। अन्त में विवश होकर माता ने दीक्षा-महोत्सव करने का प्रस्ताव किया, जिसे उसने मौनभाव से स्वीकार किया। थावच्चा छत्र, चामर आदि मांगने कृष्ण महाराज के पास गई तो उन्होंने स्वयं अपनी अोर से महोत्सव मनाने को कहा / थावच्चापुत्र के बैराग्य की परीक्षा करने वे स्वयं उसके घर पर गए। सोलह हजार राजाओं के राजा, अर्द्धभरत क्षेत्र के अधिपति महाराज श्रीकृष्ण का सहज रूप से थावच्चा के घर जा पहुँचना उनकी असाधारण महत्ता और निरहंकारिता का द्योतक है। श्रीकृष्ण को थावच्चापुत्र की परीक्षा के पश्चात् जब विश्वास हो गया कि उसका वैराग्य आन्तरिक है, सच्चा * है तो उन्होंने द्वारका नगरी में ग्राम घोषणा करवा दी-'भगवान् अरिष्टनेमि के निकट दीक्षित होने वालों के आश्रित जनों के पालन-पोषण-संरक्षण का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व वासुदेव वहन करेंगे। जो दीक्षित होना चाहे, निश्चिन्त होकर दीक्षा ग्रहण करे। __ घोषणा सुनकर एक हजार पुरुष थावच्चापुत्र के साथ प्रवजित हुए / कालान्तर में थावच्चापुत्र अनगार, भगवान् अरिष्टनेमि की अनुमति लेकर अपने साथी एक सहस्र मुनियों के साथ देशदेशान्तर में पृथक् विचरण करने लगे। विचरण करते-करते थावच्चापुत्र सौगन्धिका नगरी पहुँचे / वहाँ का नगर-सेठ सुदर्शन यद्यपि सांख्यधर्म का अनुयायी और शुक परिव्राजक का शिष्य था, तथापि वह थावच्चापुत्र की धर्मदेशना श्रवण करने गया। थावच्चापुत्र और सुदर्शन श्रेष्ठी के बीच धर्म के मूल आधार को लेकर संवाद हुआ, जिसका विवरण इस अध्ययन में उल्लिखित है। संवाद से सन्तुष्ट होकर सुदर्शन ने निर्ग्रन्थप्रवचन अर्थात् जिनधर्म को अंगीकार कर लिया। शुक परिव्राजक को जब इस घटना का पता चला तो वह सुदर्शन को पुनः अपना अनुयायी बनाने के विचार से सौगन्धिका नगरी में पाया। सुदर्शन डिगा नहीं / दोनों धर्माचार्यों---शुक और थावच्चापुत्र --में धर्मचर्चा का आयोजन हुआ। शुक अपने शिष्यों के साथ थावच्चापुत्र के समीप पहुँचे / दोनों की चर्चा तो हुई किन्तु उसे कोई तात्त्विक चर्चा नहीं कहा जा सकता / शुक ने शब्दों के चक्कर में थावच्चापुत्र को फँसाने का प्रयास किया मगर थावच्चापुत्र ने उसका गूढ अभिप्राय समझकर Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक ] [ 155 अत्यन्त कौशल के साथ उत्तर दिए / प्रश्नोत्तरों का उल्लेख मूल पाठ में पाया है / अन्त में शुक परिव्राजक, थावच्चापुत्र के शिष्य बन गए / शुक के भी एक हजार शिष्य थे। उन्होंने भी अपने गरु का अनुसरण किया--बे भी साथ ही दीक्षित हो गए / ___ शुक अनगार एक बार किसी समय शैलकपुर पधारे / वहाँ का राजा शैलक पहले ही थावच्चापुत्र के उपदेश से श्रमणोपासक धर्म अंगीकार कर चुका था। इस बार वह अपने पांच सौ मंत्रियों के साथ दीक्षित हो गया / उसका पुत्र मंडुक राजगद्दी पर बैठा / / शैलकमुनि साधुचर्या के अनुसार देश-देशान्तरों में विचरण करने लगे। उनके गुरु शुकमुनि तब विद्यमान नहीं थे-सिद्धिलाभ कर चुके थे / शैलक राजर्षि का सुखों में पला सुकोमल शरीर साधु-जीवन को कठोरता को सहन नहीं कर सका / शरीर में दाद-खाज हो गई, पित्तज्वर रहने लगा, जिसके कारण वे तीव्र वेदना से पीड़ित हो गए। भ्रमण करते-करते शैलकपुर में पधारे / उनका पुत्र मंडुक राजा उपासना के लिए उपस्थित हुा / उसने राजर्षि शैलक के रोगग्रस्त शरीर को देखकर यथोचित चिकित्सा करवाने की प्रार्थना की। शैलक ने स्वीकृति दी / चिकित्सा होने लगी। विस्मय का विषय है कि चिकित्सकों ने इन्हें मद्यपान का परामर्श दिया और वे मद्यपान करने भी लगे। मद्यपान जब व्यसन का रूप ग्रहण कर लेता है तो व्यक्ति कितना ही विवेकशाली और किसी भी पद पर प्रतिष्ठित क्यों न हो, उसका अधःपतन हए बिना नहीं रहता / राजषि मद्यपान के प्रभाव से साधुत्व को भूल गए और सरस भोजन एवं मद्यपान में मस्त रहने लगे। वहाँ से अन्यत्र जाने का विचार तक न आने लगा / तब उनके साथी मुनियों ने एकत्र होकर, एक अनगार पंथक को, जो गृहस्थावस्था में उनका मुख्यमंत्री था, उनकी सेवा में छोड़कर स्वयं विहार कर जाने का निर्णय किया। वे विहार कर गए, राजर्षि वहीं जमे रहे / कात्तिकी चौमासी का दिन था / शैलक आहार-पानी करके खुब मदिरापान करके सुखपूर्वक सोये पड़े थे। उन्हें अावश्यक क्रिया करने का स्मरण तक न था। पंथक मुनि चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करने को उद्यत हए और शैलक के चरणों से अपने मस्तक का स्पर्श किया / शैलक की निद्रा भंग हो गई और वे क्रोध में प्राग बबूला हो उठे। पंथक को कटु और कठोर शब्द कहने लगे। पंथक मुनि ने क्षमा-प्रार्थना करते हुए कात्तिकी चौमासी की बात कही / राजर्षि की धर्म-चेतना जागत हो उठी। सोचा-राज्य का परित्याग करके मैंने साधुत्व अंगीकार किया और अब ऐसा प्रमत्त एवं शिथिलाचारी हो गया हूँ ! साधु के लिए यह सब अशोभन है। दूसरे ही दिन उन्होंने शैलकपुर छोड़ दिया। पंथक मुनि के साथ विहार कर चले गए / यह समाचार जानकर उनके सभी शिष्य-साथी मुनि उनके साथ प्रा मिले / अन्तिम समय में सभी मुनियों ने सिद्धि प्राप्त की। इस अध्ययन में मुनि-जीवन एवं उनके पारस्परिक संबंध कैसे हों, इसके संबंध में गहरी मोमांसा एवं विचारणा करने की सामग्री विद्यमान है / Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं : सेलए प्रारम्भ 1- जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, पंचमस्स णं भंते ! नायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? जम्बू स्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से प्रश्न करते हैं भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने चौथे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो भगवन् ! पाँचवें ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? द्वारका नगरी २-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवती नाम नयरी होत्था, पाईण-पडीणायया उदीण-दाहिणविस्थिन्ना नवजोयणवित्थिना दुवालसजोयणायामा धणवइ-मइ-निम्मिया चामीयर-पवरपायारणाणामणि-पंचवण्ण-कविसीसगसोहिया अलयापुरिसंकासा पमुइय-पक्कोलिया पच्चक्खं देवलोयभूया। श्री सुधर्मा स्वामी उत्तर देते हैं-हे जम्बू ! उस काल और उस समय में द्वारवती (द्वारका) नामक नगरी थी। वह पूर्व-पश्चिम में लम्बी और उत्तर-दक्षिण में चौड़ी थी। नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बो थी / वह कुबेर की मति से निर्मित हुई थी। सुवर्ण के श्रेष्ठ प्राकार से और पंचरंगी नाना मणियों के बने कंगूरों से शोभित थी / अलकापुरी-इन्द्र की नगरी के समान सुन्दर जान पड़ती थी। उसके निवासी जन प्रमोदयुक्त एवं क्रीडा करने में तत्पर रहते थे। वह साक्षात् देवलोक सरीखी थी। रैवतक पर्वत 3- तीसे णं वारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए रेवतगे नाम पव्वए होत्थातुगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे णाणाविहगुच्छ-गुम्म-लया-वहिल-परिगए हंस-मिग मऊर-कोंच-सारसचक्कवाय-मयणसार-कोइलकुलोववेए अणेगतडाग-वियर-उज्झरय-पवाय-पदभार-सिहरपउरे अच्छरगणदेव-संघ-चारण-विज्जाहर-मिहणसंविचिन्ने निच्चच्छणए दसार-वरवीर-परिसतेलोक्कबलबगाणं सोमे सुभगे पियदसणे सुरूवे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। उस द्वारका नगरी के बाहर उत्तरपूर्व दिशा अर्थात् ईशानकोण में रैवतक (गिरनार) नामक पर्वत था / वह बहुत ऊँचा था / उसके शिखर गगन-तल को स्पर्श करते थे / वह नाना प्रकार के गुच्छों, गुल्मों, लताओं और बल्लियों से व्याप्त था ! हंस, मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, चक्रवाक, मदनसारिका (मैना) और कोयल आदि पक्षियों के झंडों से व्याप्त था / उस में अनेक तट और गंडशैल थे / बहुसंख्यक गुफाएं थीं / झरने, प्रपात, प्राग्भार (कुछ-कुछ नमे हुए गिरिप्रदेश) और शिखर थे। वह पर्वत अप्सरानों के समूहों, देवों के समूहों, चारण मुनियों और विद्याधरों के मिथुनों (जोड़ों) Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक ] [ 157 से युक्त था / उसमें दशार वंश के समुद्र विजय प्रादि वीर पुरुष थे, जो कि नेमिनाथ के साथ होने के कारण तीनों लोकों से भी अधिक बलवान् थे, नित्य नये उत्सव होते रहते थे। वह पर्वत गौम्य, सुभग, देखने में प्रिय, सुरूप, प्रसन्नता प्रदान करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप था। विवेचन यद्यपि द्वारवती नगरी, रैवतक गिरि और अगले सूत्रों में वर्णित नन्दनवन यादि सूत्र-रचना के काल में भी विद्यमान थे, तथापि भूतकाल में जिस पदार्थ की जो स्थिति-अवस्था अथवा पर्याय थी वह वर्तमान काल में नहीं रहती / यों तो समय-समय में पर्याय का परिवर्तन होता रहता है किन्तु दीर्धकाल के पश्चात् तो इतना बड़ा परिवर्तन हो जाता है कि वह पदार्थ नवीन-सा प्रतीत होने लगता है। भगवान् नेमिनाथ के समय को द्वारवती और भगवान महावीर के और उनके भी पश्चात् की द्वारवती में ग्रामूल-चूल परिवर्तन हो गया। इसी दृष्टिकोण से सूत्रों में इन स्थानों के लिए भूतकाल की क्रिया का प्रयोग किया गया है। ४-तस्स णं रेवयगस्स अदूरसामंते एत्थ णं णंदणवणे नामं उज्जाणे होत्था सम्बोउय-पुप्फफलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे / तस्स णं उज्जाणस्स बहुमज्झभागे सुरप्पिए नामं जक्खाययणे होत्था दिव्वे, बन्नओ'। उस रैवतक पर्वत से न अधिक दूर और न अधिक समीप एक नन्दनवन नामक उद्यान था। वह सब ऋतुओं संबंधी पुष्पों और फलों से समृद्ध था, मनोहर था। (सुमेरु पर्वत के) नन्दनवन के समान प्रानन्दप्रद, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप था। उस उद्यान के ठीक बीचोंबीच सुरप्रिय नामक दिव्य यक्ष-पायतन था। यहाँ यक्षायतन का वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार कह लेना चाहिए। श्रीकृष्ण-वर्णन ५--तत्थ णं बारवईए नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया परिवसइ / से णं तत्थ समुहविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं पंचण्हं महावीराणं, उम्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं राईसहस्साणं पज्जुण्णपामोक्खाणं अधुट्ठाणं कुमारकोडीणं, संबपामोक्खाणं सट्ठीए दुइंतसाहस्सोणं, वीरसेणपामोक्खाणं एक्कवीसाए वीरसाहस्सीणं, महासेनपामोक्खाणं छप्पन्नाए बलवगसाहस्सोणं, रुप्पिणीपामोक्खाणं बत्तीसाए महिलासाहस्सोणं, अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं, अन्नेसि च बहणं ईसर-तलवर जाव [माडंबिय-कोडुबिय-इभ-सेट्ठि-सेणावइ] सत्यवाहपभिईणं वेयड्ढ-गिरिसायरपेरंतस्स य दाहिणड्ढभरहस्स बारवईए य नयरीए आहेवच्चं जाव [पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसर-सेगावच्चं कारेमाणे ] पालेमाणं विहरइ। उस द्वारका नगरी में महाराज कृष्ण नामक वासुदेव निवास करते थे। वह वासूदेव वहाँ समुद्रविजय प्रादि दश दशारों, बलदेव आदि पाँच महावीरों, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजारों, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ कुमारों, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्त योद्धाओं, बीरसेन अादि इक्कोस हजार पुरुषों---महान् पुरुषार्थ वाले जनों, महासेन आदि छप्पन हजार बलवान् पुरुषों, रुक्मिणी आदि बत्तीस हजार रानियों, अनंगसेना आदि अनेक सहस्र गणिकाओं तथा अन्य बहत-से ईश्वरों 1. प्रौप. सूत्र 2 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 [ ज्ञाताधर्म कथा (ऐश्वर्यवान् धनाढ्य सेठों) तलवरों (कोतवालों) यावत् (माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति) सार्थवाह आदि का एवं उत्तर दिशा में वैताढय पर्वत पर्यन्त तथा अन्यं तीन दिशाओं में लवणसमुद्र पर्यन्त दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र का और द्वारका नगरी का अधिपतित्व [नेतृत्व, स्वामित्व, भट्टित्व, महत्तरत्व] करते हुए और पालन करते हुए विचरते थे / थावच्चापुत्र ६-तत्थ णं बारवईए नयरीए थावच्चा णामं गाहावइणी परिवसइ, अड्ढा जाव [दित्ता वित्ता वित्थिन्न-विउल-भवन-सयणासण-जाण-बाहणा वहुधण-जायरूवरयया आओग-पओगसंपत्ता बहुदासीदास-गो-महिस-गवेलगप्पभूया बहुजणस्स] अपरिभूया। तीसे गं थावच्चाए गाहावइणीए पुत्ते थावच्चापुत्ते णामं सत्यवाहदारए होत्था सुकुमालपाणिपाए' जाव सुरूवे / तए णं सा थावच्चा गाहावइणी तं दारयं साइरेगअठ्ठवासजाययं जाणित्ता सोहणंसि तिहिकरण- नक्खत्त-मुहत्तंसि कलायरियस्स उवणेइ, जाव भोगसमत्थं जाणित्ता बत्तीसाए इभकुलबालियाणं एगदिवसेणं पाणि गेण्हावेइ, बत्तीसओ दाओ जाव बत्तीसाए इब्भकुलबालियाहिं सद्धि विउले सद्दफरिसरसरूववन्नगंधे जाव भुजमाणे विहरइ / / द्वारका नगरी में थावच्चा नामक एक गाथापत्नी (गृहस्थ महिला) निवास करती थी। वह समृद्धि वाली थी यावत् [प्रभावशालिनी थी, विस्तीर्ण और विपुल भवन, शय्या, आसन, यान, वाहन उसके यहाँ थे, वह विपुल स्वर्ण-रजत-धन की स्वामिनी थी, उसके यहाँ लेन-देन होता था, दासियों दासों गायों भैसों एवं बकरियों की प्रचुरता थी] बहुत लोग मिलकर भी उसका पराभव नहीं कर सकते थे। उस थावच्चा गाथापत्नी का थावच्चापुत्र नामक सार्थवाह का बालक पुत्र था। उसके हाथपैर अत्यन्त सुकुमार थे। वह परिपूर्ण पांचों इन्द्रियों से युक्त सुन्दर शरीर वाला, प्रमाणोपेत अंगोपांगों से सम्पन्न और चन्द्रमा के समान सौम्य प्राकृति वाला था। सुन्दर रूपवान् था। __ तत्पश्चात् उस थावच्चा गाथापत्नी ने उस पुत्र को कुछ अधिक आठ वर्ष का हुआ जानकर शुभतिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में कलाचार्य के पास भेजा। फिर भोग भोगने में समर्थ (युवा) हुया जाकर इभ्यकुल की वत्तीस कुमारिकानों के साथ एक ही दिन में पाणिग्रहण कराया। प्रासाद ग्रादि बत्तीस-बत्तीस का दायजा दिया अर्थात् थावच्चापुत्र की बत्तीस पत्नियों के लिए बत्तीस महल ग्रादि सब प्रकार की सामग्री प्रदान की। वह इभ्य कुल की बत्तीस कुमारिकाओं के साथ विपुल शब्द, स्पर्श, रस, रूप, वर्ण और गंध का भोग-उपभोग करता हुअा रहने लगा। अरिष्टनेमि का समवसरण ७-तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिटुनेमी सो चेव वश्णओ, दसधणुस्सेहे, नीलुप्पलगवल-गुलिय-अयसिकुसुमप्पयासे, अट्ठारसहिं समणसाहस्सोहि सद्धि संपरिवडे, चत्तालीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धि संपरिडे, पुन्वाणुन्वि चरमाणे जाव गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव बारवई नयरी, जेणेव रेवयगपचए, जेणेव नंदणवणे उज्जाणे, जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे, जेणेव असोगवरपायवे, तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ / परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ। 1. प्रथम अ. 15 - - - -- --- - Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक ] [159 उस काल और उस समय में अरिहन्त अरिष्टनेमि पधारे / धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले, आदि वर्णन भगवान् महावीर के वर्णन के समान ही यहाँ समझना चाहिए। विशेषता यह है कि भगवान् अरिष्टनेमि दस धनुष ऊँचे थे, नील कमल, भैंस के सींग, नील गुलिका और अलसी के फूल के समान श्याम कान्ति वाले थे / अठारह हजार साधुओं से और चालीस हजार साध्विों से परिवत थे। व भगवान् अरिष्टनेमि अनुक्रम से विहार करते हुए सुखपूर्वक ग्रामानुग्राम पधारते हुए जहाँ द्वारका नगरी थी, जहाँ गिरनार पर्वत था, जहाँ नन्दनवन नामक उद्यान था, जहाँ सुरप्रिय नामक यक्ष का यक्षायतन था और जहाँ अशोक वृक्ष था, वहीं पधारे / संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। नगरी से परिषद् (जनमंडली) निकली / भगवान् ने उसे धर्मोपदेश दिया। कृष्ण की उपासना ८-तए णं से कण्हे वासुदेवे इमोसे कहाए लद्धठे समाणे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी—'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए मेघोघरसियं गंभीरं महुरसई कोमुदियं भेरि तालेह / ' तए णं ते कोडुवियपुरिसा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठ जाव मत्थए अंजलि कटु ‘एवं सामी ! तह' ति जाव पडिसुणेति / पडिसुणित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियाओ पडिणिक्खमंति / पडिणिक्खमित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव कोमुदिया भेरी तेणेब उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं मेघोघरसियं गंभीरं महुरसई भेरि तालेति / तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने यह कथा (वृत्तान्त) सुनकर कौटुम्विक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा--'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही सुधर्मा सभा में जाकर मेघों के समूह जैसी ध्वनि वाली एवं गम्भीर तथा मधुर शब्द करने वाली कौमुदी भेरी बजायो।' तब वे कौटुम्बिक पुरुष, कृष्ण वासुदेव द्वारा इस प्रकार प्राज्ञा देने पर हृष्ट-तुष्ट हुए, पानंदित हुए / यावत् मस्तक पर अंजलि करके 'हे भगवन् ! बहुत अच्छा' ऐसा कहकर उन्होंने ग्राज्ञा अंगीकार की। अंगीकार करके कृष्ण वासुदेव के पास से चले / चलकर जहाँ सुधर्मा सभा थी और जहाँ कौमुदी नामक भेरी थी, वहाँ पाए / पाकर मेघ-समूह के समान ध्वनि वाली तथा गभीर एवं मधुर ध्वनि करने वाली भेरी बजाई / ९-तओ निद्ध-महुर-गंभीरपडिसुएणं पिव सारइएणं बलाहएणं अणुरसियं भेरीए। उस समय भेरी बजाने पर स्निग्ध, मधुर और गंभीर प्रतिध्वनि करता हुआ, शरद्ऋतु के मेघ जैसा भेरी का शब्द हुा / 10 -तए णं तीसे कोमुइयाए भेरियाए तालियाए समाणीए बारवईए नयरोए नवजोयण वित्थिनाए दुवालसजोयणायामाए सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-कंदर-दरी-विवर-कुहर-गिरिसिहरनगर-गोउर-पासाय-दुवार-भवण-देउल-पडिसुयासयसहस्ससंकुलं सदं करेमाणे बारवई नगर सब्भितरबाहिरियं सवओ समंता से सद्दे विप्पसरित्था। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् उस कौमुदी भेरी का ताड़न करने पर नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारका नगरी के शृगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, कंदरा, गुफा, विवर, कुहर, गिरिशिखर, नगर के गोपुर, प्रासाद, द्वार, भवन, देवकुल आदि समस्त स्थानों में, लाखों प्रतिध्वनियों से युक्त होकर, भीतर और बाहर के भागों सहित सम्पूर्ण द्वारका नगरी को शब्दायमान करता हुआ वह शब्द चारों ओर फैल गया। ११-तए णं बारवईए नयरीए नवजोयणवित्थिन्नए बारसजोयणायामाए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव' गणियासहस्साई कोमुईयाए भेरीए सई सोच्चा णिसम्म हतुट्ठा जाव व्हाया आविद्धवग्धारियमल्लदामकलावा अहतवत्थचंदणोक्किन्नगायसरीरा अप्पेगइया हयगया एवं गयगया रह-सीया-संदमाणीगया, अप्पेगइया पायविहारचारेणं पुरिसवग्गुरापरिखित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियं पाउन्भवित्था। तत्पश्चात् नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारका नगरी में समुद्रविजय आदि दस दशार [बलदेव आदि महावीर, उग्रसेन ग्रादि राजा, प्रद्युम्न आदि कुमार, शाम्ब ग्रादि योद्धा, वीरसेन महासेन आदि बलशाली यावत् अनेक हजार गणिकाएँ उस कौमुदी भेरी का शब्द सुनकर एवं हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट, प्रसन्न हुए / यावत् सबने स्नान किया / लम्बी लटकने वाली फूलमालाओं के समूह को धारण किया। कोरे नवीन वस्त्रों को धारण किया / शरीर पर चन्दन का लेप किया / कोई अश्व पर आरूढ हुए, इसी प्रकार कोई गज पर आरूढ हुए, कोई रथ पर कोई पालकी में और कोई म्याने में वैठे। कोई-कोई पैदल ही पुरुषों के समूह के साथ चले और कृष्ण वासुदेव के पास प्रकट हुए-पाए। १२-तए णं कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खे दस दसारे जाव' अंतियं पाउन्भवमाणे पासइ / पासित्ता हट्ठ-तुट्ठ जाव कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-'खिण्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउरंगिण सेणं सज्जेह, विजयं च गंधहत्थि उवट्ठवेह / ' ते वि तह त्ति उवट्ठवेंति, जाव तए णं से कण्हे वासुदेवे व्हाए जाव सवालंकारविभूसिए विजयं गंधहत्थि दुरुढे समाणे सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भड-चडकरवंदपरियाल-संपरिबुडे वारवतीए नयरीए मज्झंमज्झणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव रेवतगपचए जेणेव नंदणवणे उज्जाणे जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणं जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता अरहओ अरिट्रनेमिस्स छत्ताइछत्तं पडागाइपडागं विज्जाहर-चारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासइ, पासित्ता विजयाओ गंधहत्थीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता अरहं अरिठ्ठनेमि पंचविहेणं अभग्गहेणं अभिगच्छइ [तंजहा सचित्ताणं दवाणं विउसरणयाए, अचित्ताणं दवाणं अविउसरणयाए, एगसाडिय-उत्तरासंगकरणेणं, चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं, मणसो एगत्तीकरणणं] जेणामेव अरिठ्नेमी तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिट्ठनेमि तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता अरहओ अरिट्ठनेमिस्स नच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे पंजलिउडे अभिमुहे विनएणं पज्जुवासति। 1-2. पंचम अ. 5 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक | [161 तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने समुद्रविजय वगैरह दस दसारों को तथा पूर्ववणित अन्य सबको यावत् अपने निकट प्रकट हुमा देखा / देखकर वह हृष्ट-तुष्ट हुए, यावत् उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर इस प्रकार कहा--'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चतुरंगिणी सेना सजाओ और विजय नामक गंधहस्ती को उपस्थित करो।' कौटुम्बिक पुरुषों ने 'बहुत अच्छा' कह कर सेना सजवाई और विजय नामक गंधहस्ती को उपस्थित किया / तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने स्नान किया। वे सब अलंकारों से विभूषित हुए / विजय गंधहस्ती पर सवार हुए। कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को धारण किए हुए और भटों के बहुत बड़े समूह से घिरे हुए द्वारका नगरी के बीचोंबीच होकर बाहर निकले / जहाँ गिरनार पर्वत था, जहाँ नन्दनवन उद्यान था, जहाँ सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन था और जहाँ अशोक वृक्ष था, उधर पहुँचे / पहुँचकर अर्हत् अरिष्टनेमि के (अतिशय) छत्रातिछत्र (छत्रों के ऊपर छत्र), पताकातिपताका (पताकानों के ऊपर पताका), विद्याधरों, चारणों एवं ज भक देवों को नीचे उतरते और ऊपर चढ़ते देखा / यह सब देखकर वे विजय गंधहस्ती से नीचे उतर गए / उतरकर पांच अभिग्रह करके अर्हत् अरिष्टनेमि के सामने गये। (पांच अभिग्रह ये हैं—(१) सचित्त वस्तुओं का त्याग (2) अचित्त वस्तुओं का अत्याग (3) एकशाटिक उत्तरासंग (4) भगवान् पर दृष्टि पड़ते ही हाथ जोड़ना और (5) मन को एकाग्र करना / इस प्रकार भगवान् के निकट पहुँच कर तीन बार प्रादक्षिण प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दन-नमस्कार किया। फिर अर्हत् अरिष्टनेमि से न अधिक समीप, न अधिक दूर शुश्रूषा करते हुए, नमस्कार करते हुए, अंजलिबद्ध सन्मुख होकर पयुपासना करने लगे। थावच्चापुत्र का वैराग्य 13 -थावच्चापुत्ते वि निग्गए, जहा मेहे तहेव धम्म सोच्चा णिसम्म जेणेव थावच्चा गाहावइणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, पायग्गहणं करेइ। जहा मेहस्स तहा चेव णिवेयणा / जाहे नो संचाएइ विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकलाहि य बहूहि आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विन्नवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा सन्नवित्तए वा विन्नवित्तए वा, ताहे अकामिया चेव यावच्चापुत्तदारगस्स निक्खमणमणुमन्नित्था। नवरं निक्खमणाभिसेयं पासामो / तए णं से थावच्चायुत्ते तुसिणीए संचिट्ठइ / मेघकुमार की तरह थावच्चापुत्र भी भगवान् को वन्दना करने के लिए निकला। उसी प्रकार धर्म को श्रवण करके और हृदय में धारण करके जहाँ थावच्चा गाथापत्नी थी, वहाँ अाया। पाकर माता के पैरों को ग्रहण किया-चरणस्पर्श किया / जैसे मेघकुमार ने अपने वैराग्य का निवेदन किया था, उसी प्रकार थावच्चापुत्र की भी वैराग्य निवेदना समझनी चाहिए। माता जब विषयों के अनुकूल और विषयों के प्रतिकूल बहुत-सी पाधवना-सामान्य कथन से, पन्नवणा-विशेष कथन से, सन्नवणा-धन-वैभव प्रादि का लालच दिखला कर, विनवणा-आजीजी करके, सामान्य कहने, विशेष कहने, ललचाने और मनाने में समर्थ न हुई, तब इच्छा न होने पर भी माता ने थावच्चापुत्र बालक का निष्क्रमण स्वीकार कर लिया अर्थात् दीक्षा की अनुमति दे दी / विशेष यह कहा कि-'मैं तुम्हारा दीक्षा-महोत्सव देखना चाहती हूँ।' तब थावच्चापुत्र मौन रह गया, अर्थात् उसने माता की दीक्षा-महोत्सव करने की बात मान ली। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 ] [ ज्ञाताधर्मकथा १४–तए णं सा थावच्चा आसणाओ अब्भुढेह, अम्भुट्टिता महत्थं अहग्धं महरिहं रायरिहं पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता मित्त जाव [नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं] सद्धि संपरिवुडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स भवणवर-पडिदुवारदेसभाए तेणेव उवागच्छइ / उवामच्छित्ता पडिहारदेसिएणं मग्गेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता करयल. बद्धावेइ, बद्धावित्ता तं महत्थं महापं महरिहं रायरिहं पाहुडं उवणेइ, उवणित्ता एवं वयासी __ तब गाथापत्नी थावच्चा आसन से उठी / उठकर महान् अर्थवाली, महामूल्य वाली, महान् पुरुषों के योग्य तथा राजा के योग्य भेंट ग्रहण की / ग्रहण करके मित्र ज्ञाति आदि से परिवृत होकर जहाँ कृष्ण वासुदेव के श्रेष्ठ भवन का मुख्य द्वार का देशभाग था, वहाँ पाई। पाकर प्रतीहार द्वारा दिखलाये मार्ग से जहाँ कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ पाई। दोनों हाथ जोड़कर कृष्ण वासुदेव को बधाया / बधाकर वह महान् अर्थवाली, महामूल्य वाली महान् पुरुषों के योग्य और राजा के योग्य भेंट सामने रखी / सामने रख कर इस प्रकार बोली १५--एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम एगे पुत्ते थावच्चापुत्ते नामं दारए इठे' जाव से णं संसारभयउविग्गे इच्छइ अरहो अरिट्टनेमिस्स जाव [अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं] पव्वइत्तए / अहं णं निक्खमणसक्कारं करेमि / इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! थावच्चापुत्तस्स निक्खममाणस्स छत्त-मउड-चामराओ य विदिन्नाओ। हे देवानुप्रिय ! मेरा थावच्चापुत्र नामक एक ही पुत्र है / वह मुझे इष्ट है, कान्त है, यावत् वह संसार के भय से उद्विग्न होकर अरिहन्त अरिष्टनेमि के समीप गृहत्याग कर अनगार-प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता है / मैं उसका निष्क्रमण-सत्कार करना चाहती हूँ। अतएव हे देवानुप्रिय ! प्रवज्या अंगीकार करने वाले थावच्चापुत्र के लिए आप छत्र, मुकुट और चामर प्रदान करें, यह मेरी अभिलाषा है। १६-तए णं कण्हे वासुदेवे थावच्चागाहावइणि एवं वयासी-'अच्छाहि णं तुमं देवाणुप्पिए ! सुनिव्वुया वीसस्था, अहं णं सयमेव थावच्चापुत्तस्स दारगस्स निक्खमणसक्कारं करिस्सामि / ' तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने थावच्चा गाथापत्नी से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिये ! तुम निश्चिन्त और विश्वस्त रहो / मैं स्वयं ही थावच्चापुत्र बालक का दीक्षा-सत्कार करूंगा। कृष्ण द्वारा वैराग्यपरीक्षा १७-तए णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणीए सेनाए विजयं हत्थिरयणं दुरुढे समाणे जेणेव थावच्चाए गाहावइणीए भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासो ___मा णं तुमे देवाणुप्पिया ! मुडे भवित्ता पव्ययाहि, भुजाहि णं देवाणुप्पिया ! विउले माणुस्सए कामभोए मम बाहुच्छायापरिग्गहिए, केवलं देवाणुप्पियस्स अहं णो संचाएमि वाउकायं उवरिमेणं निवारित्तए / अण्णे णं देवाणुप्पियस्स जं किंचि वि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएइ तं सव्वं निवारेमि / 1. प्रथम प्र. 156 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक] [163 तत्तपश्चात् कृष्ण वासुदेव चतुरंगिणी सेना के साथ विजय नामक उत्तम हाथो पर आरूढ होकर जहाँ थावच्चा गाथापत्नी का भवन था वहीं आये। आकर थावच्चापुत्र से इस प्रकार बोले हे देवानुप्रिय ! तुम मुडित होकर प्रवज्या ग्रहण मत करो / मेरी भुजामों की छाया के नीचे रह कर मनुष्य संबंधी विपुल कामभोगों को भोगो / मैं केवल देवानुप्रिय के अर्थात् तुम्हारे ऊपर होकर जाने वाले वायुकाय को रोकने में तो समर्थ नहीं हूँ किन्तु इसके सिवाय देवानुप्रिय को (तुम्हें) जो कोई भी सामान्य पोड़ा या बिशेष पीड़ा उत्पन्न होगी. उस सबका निवारण करूंगा।' १८-तए णं से थावच्चापुत्ते कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-- 'जइ णं तुम देवाणुप्पिया ! मम जीवियंतकरणं मच्चु एज्जमाणं निवारेसि, जरं वा सरीररूवविणासिणि सरीरं अइवयमाणि निवारेसि, तए णं अहं तव बाहुच्छायापरिग्गहिए विउले माणुस्सए कामभोगे भुजमाणे विहरामि। तब कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर थावच्चापुत्र ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-'देवातुप्रिय ! यदि आप मेरे जीवन का अन्त करने वाले प्राते हुए मरण को रोक दें और शरीर पर आक्रमण करने वाली एवं शरीर के रूप-सौन्दर्य का विनाश करने वाली जरा को रोक सकें, तो मैं आपकी भुजाओं की छाया के नीचे रह कर मनुष्य संबंधी विपुल कामभोग भोगता हुआ विचरूं।' १९--तए णं से कण्हे वासुदेवे यावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे थावच्चापुत्तं एवं वयासी-- 'एए णं देवाणुप्पिया ! दुरइक्कमणिज्जा, णो खलु सक्का सुबलिएणावि देवेण वा दाणवेण वा णिवारित्तए णण्णत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं / ' तत्पश्चात् थावच्चापुत्र के द्वारा इस प्रकार कहने पर कृष्ण वासुदेव ने थावच्चापुत्र से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! मरण और जरा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता / अतीव बलशाली देव अथवा दानव के द्वारा भी इनका निवारण नहीं किया जा सकता। हाँ, अपने द्वारा उपाजित पूर्व कर्मों का क्षय ही इन्हें रोक सकता है।' २०--'तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया ! अन्नाण-मिच्छत्त-अविरइ-कसाय-संचियस्स अत्तणो कम्मक्खयं करित्तए।' (कृष्ण वासुदेव के कथन के उत्तर में थावच्चापुत्र ने कहा.-) 'तो हे देवानुप्रिय ! इसी कारण मैं अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरति और कषाय द्वारा संचित, अपने प्रात्मा के कर्मों का क्षय करना चाहता हूँ।' विवेचन-श्रीकृष्ण वासुदेव भगवान् अरिष्टनेमि के परम भक्त और गहस्थावस्था के प्रात्मीय जन भी थे / थावच्चा गाथापत्नी को अपनी ओर से दीक्षासत्कार करने का वचन दे चुके थे। फिर भी वे थावच्चापुत्र को दीक्षा न लेकर अपने संरक्षण में लेने को कहते हैं। इसका तात्पर्य थावच्चापुत्र को मानसिक स्थिति को परखना ही है। वे जानना चाहते थे कि थावच्चापुत्र के अन्तस् में वास्तविक वैराग्य है अथवा नहीं ? किसी गार्हस्थिक उद्वेग के कारण ही तो वह दीक्षा लेने का मनोरथ नहीं कर Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] [ ज्ञाताधर्मकथा है ? मुनिदीक्षा जीवन के अन्तिम क्षण तक उग्र साधना है और सच्चे तथा परिपक्व वैराग्य से ही उसमें सफलता प्राप्त होती है / थावच्चापुत्र परख में खरा सिद्ध हुआ / उसके एक ही वाक्य ने कृष्ण जी को निरुत्तर कर दिया। उन्हें पूर्ण सन्तोष हो गया। 21- तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासो-'गच्छह णं देवाणुप्पिया ! बारवईए नयरीए सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर जाव [महापह-पहेसु] हत्थिखंधवरगया महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा उग्घोसणं करेहएवं खलु देवाणुप्पिया ! थावच्चापुत्ते संसारभउविग्गे, भीए जम्मणमरणाणं, इच्छइ अरहओ अरिठ्ठनेमिस्स अंतिए मुडे भवित्ता पव्वइत्तए / तं जो खलु देवाणुप्पिया! राया वा, जुवराया वा, देवी वा, कुमारे वा, ईसरे वा, तलवरे वा, कोडुबिय-माडंबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहे वा थावच्चापुत्तं पव्वयंत तमणुपन्बयइ, तस्स णं कण्हे वासुदेवे अणुजाणाइ. पच्छातूरस्स बिय से मित्त-नाइ-नियगसंबंधि-परिजणस्स जोगवखेमं वद्रमाणों पडिवहइत्ति कट्ट घोसणं घोसेह।' जाव घोसंति / थावच्चापुत्र के द्वारा इस प्रकार कहने पर कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा---'देवानुप्रियो ! तुम जानो और द्वारिका नगरी के शृगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर (महापथ तथा पथ) आदि स्थानों में, यावत् श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ होकर ऊंची-ऊँची ध्वनि से उद्घोष करते, ऐसी उद्घोषणा करो-'हे देवानुप्रियो ! संसार के भय से उद्विग्न और जन्म-मरण से भयभीत थावच्चापुत्र अर्हन्त अरिष्टनेमि के निकट मुडित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहता है तो हे देवानुप्रिय ! जो राजा, युवराज, रानी, कुमार, ईश्वर, तलवर, कौटुम्बिक, माडंबिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति अथवा सार्थवाह दीक्षित होते हुए थावच्चापुत्र के साथ दीक्षा ग्रहण करेगा, उसे कृष्ण वासुदेव अनुज्ञा देते हैं और पीछे रहे हुए उनके मित्र, ज्ञाति, निजक, संबंधी या परिवार में कोई भी दुःखी होगा तो उसके वर्तमान काल संबंधी योग (अप्राप्त पदार्थ की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त पदार्थ के रक्षण) का निर्वाह करेंगे अर्थात् सर्व प्रकार से उसका पालन, पोषण, संरक्षण करेंगे। इस प्रकार की घोषणा करो।' कौटुम्बिक पुरुषों ने इस प्रकार की घोषणा कर दी। २२-तए णं थावच्चापुत्तस्स अणुराएणं पुरिससहस्सं णिक्खमणाभिमुहं व्हायं सव्वालंकारविभूसियं पत्तेयं पत्तेयं पुरिससहस्सवाहिणीसु सिवियासु दुरूढं समाणं मित्तणाइपरिवूडं थावच्चापत्तस्स अंतियं पाउन्भूयं / तए णं से कण्हे वासुदेवे पुरिससहस्समंतियं पाउब्भवमाणं पासइ, पासित्ता कोड बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासो-जहा मेहस्स निक्खमणाभिसेओ तहेव सेयापोएहि व्हावेइ / तए णं से थावच्चापुत्ते सहस्सपुरिसेहिं सद्धि सिवियाए दुरूढे समाणे जाव रवेणं बारवणार मझमज्झेणं [निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव रेवयगपन्वते जेणेव नंदणवणे उज्जाणे जेणेव सुरपियस्स जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहओ अरिनेमिस्स छत्ताइछत्तं पडागाइपडागं विज्जाहरचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासइ, पासित्ता सिवियाओ पच्चोरहति / Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक ] [165 तत्पश्चात् थावच्चापुत्र पर अनुराग होने के कारण एक हजार पुरुष निष्क्रमण के लिए तैयार हुए। वे स्नान करके सब अंलकारों से विभूषित होकर, प्रत्येक-प्रत्येक अलग-अलग हजार पुरुषों द्वारा बहन की जाने वाली पालकियों पर सवार होकर, मित्रों एवं ज्ञातिजनों आदि से परिवृत होकर थावच्चापुत्र के समीप प्रकट हुए पाये / तब कृष्ण वासुदेव ने एक हजार पुरुषों को आया देखा। देखकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा---(देवानुप्रियो ! जामो थावच्चापुत्र को स्नान करायो, अलंकारों से विभूषित करो और पुरुषसहस्रवाहिनी शिविका पर आरूढ़ करो, इत्यादि) जैसा मेघकुमार के दीक्षाभिषेक का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार यहाँ कहना चाहिए / फिर श्वेत और पीत अर्थात् चाँदी और सोने के कलशों से उसे स्नान कराया यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित किया। ___ तत्पश्चात् थावच्चापुत्र उन हजार पुरुषों के साथ, शिविका पर पारूढ़ होकर, यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ, द्वारका नगरी के बीचों-बीच होकर निकला। निकलकर जहाँ गिरनार नन्दनवन उद्यान, सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन एवं अशोक वृक्ष था, उधर गया / वहाँ जाकर अरिहन्त अरिष्टनेमि के छत्र पर छत्र और पताका पर पताका (आदि अतिशय) देखता है और विद्याधरों एवं चारण मुनियों को और जृभक देवों को नीचे उतरते-चढ़ते देखता है, वहीं शिविका से नीचे उतर जाता है। २३–तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तं पुरओ काउं जेणेव अरिहा अरिट्टनेमी, सव्वं तं चेत्र (तेगेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिटुनेमि तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी—'एस णं देवाणुप्पिया ! थावच्चापुत्ते थावच्चाए गाहावइणीए एगे पुत्ते इठे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए जीवियऊसासए हिययनंदिजणणे उंबरपुष्पं पिव दुल्लहे सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ? से जहानामए उप्पलेति वा, पउमेति वा, कुमदेति वा, पंके जाए जले संवड़िए नोवलिप्पड़ पंकरयेणं नोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव थावच्चापुत्ते कामेसु जाए भोगेसु संवट्टिए नोवलिप्पइ कामरएणं नोवलिप्पइ भोगरएणं / एस णं देवाणुप्पिया ! संसारभउव्विग्गे, भीए जम्मण-जर-मरणाणं, इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। अम्हे णं देवाणुप्पियाणं सिस्सभिक्खं दलयामो / पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया सिस्सभिक्खं / तए णं अरहा अरिटुनेमी कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ते समाणे एयमटु सम्म पडिसुणेइ / तए णं से थावच्चापत्ते अरहओ अरिटुनेमिस्स अंतियाओ उत्तरपुरथिम दिसीभायं अवक्कमइ, सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ।। तए णं से थावच्चा गाहावइणी हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरणमल्लालंकारे पडिच्छइ / पडिच्छित्ता हार-वारिधार-सिंदुवार-छिन्नमुत्तावलिपगासाई अंसूणि विणिम्मुचमाणी विणिम्मुचमाणी एवं बयासी-'जइयव्वं जाया ! घडियव्वं जाया ! परक्कमियव्वं जाया ! अस्सि च णं अट्ठे णो पमाएब्वं' जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव थावच्चापुत्र को आगे करके जहाँ अरिहन्त अरिष्टनेमि थे, वहाँ प्राये, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए। यावत् [अर्थात् भगवान् अरिष्टनेमि को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा'देवानुप्रिय / यह थावच्चापुत्र, थावच्चा गाथापत्नी का एकलौता पुत्र है / यह इष्ट, कान्त, प्रिय. मनोज्ञ, अतिशय मनोहर, स्थिरतासम्पन्न, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत और अनुमत है / रत्नों की पिटारी जैसा है। रत्न है, रत्न जैसा है, जीवन के लिए उच्छ्वास सदृश है / हृदय को प्रमोद उत्पन्न करने वाला है / गूलर के फूल के समान, इसके नाम का श्रवण भी दुर्लभ है, दर्शन की तो बात ही क्या ! जैसे उत्पल, पद्म अथवा कुमुद-चन्द्रविकासी कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है, जल में वृद्धि पाता है किन्तु कीचड़ और जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार थावच्चापुत्र कामों में उत्पन्न हुआ और भोगों में वृद्धि पाया है किन्तु काम-भोगों में लिप्त नहीं हुआ है / देवानुप्रिय ! यह संसार के भय से उद्वेग पाया है, जन्म-जरा-मरण से भयभीत है, अतः देवानुप्रिय (आप) के निकट मुडित होकर गृहत्याग करके अनगार-दीक्षा अंगीकार करना चाहता है। हम आप देवानुप्रिय को शिष्य-भिक्षा प्रदानकर रहे हैं / देवानुप्रिय ! इस शिष्य-भिक्षा को स्वीकार करें।' कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर अर्हत् अरिष्टनेमि ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की। थावच्चापुत्र ने ईशान दिशा में जाकर आभरण, पुष्पमाला और अलंकारों का परित्याग किया / तत्पश्चात् थावच्चा सार्थवाही ने हँस के चिह्न वाले वस्त्र में आभरण, माला और अलंकारों को ग्रहण किया / ग्रहण करके मोतियों के हार, जल की धार, सिन्दुवार के फूलों तथा छिन्न हुई मोतियों की कतार के समान आँसू त्यागती हुई इस प्रकार कहने लगी-हे पुत्र ! इस प्रवज्या के विषय में यत्न करना, हे पुत्र ! शुद्ध क्रिया करने में घटना करना और हे पुत्र ! चारित्र का पालन करने में पराक्रम करना। इस विषय में तनिक भी प्रमाद न करना।' इस प्रकार कहकर वह जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई। २४--तए णं से थावच्चापुत्ते पुरिससहस्सेहि सद्धि सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ, जाव पन्वइए / तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारे जाए इरियासमिए भासासमिए जाव विहरइ / तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने हजार पुरुषों के साथ स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया, यावत् प्रव्रज्या अंगीकार की। उसके बाद थावच्चापुत्र अनगार हो गया। ईर्यासमिति से युक्त, भाषासमिति से युक्त होकर यावत् साधुता के समस्त गुणों से सम्पन्न होकर विचरने लगा। २५-तए णं से थावच्चापुत्ते अरहओ अरिटुनेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई चोद्दसपुवाई अहिज्जइ / अहिज्जित्ता बहूहिं जाव चउत्थेणं विहरइ / तए णं अरिहा अरिटुनेमो थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स तं इन्भाइयं अणगारसहस्सं सोसत्ताए दलयइ / तत्पश्चात् थावच्चापुत्र अरिहन्त अरिष्टनेमि के तथारूप स्थविरों के पास से सामायिक से प्रारम्भ करके चौदह पूर्वो का अध्ययन करके, बहुत से अष्टमभक्त पष्ठभक्त यावत् चतुर्थभक्त (उपवास) आदि करते हुए विचरने लगे / तत्पश्चात् अरिहन्त अरिष्टनेमि ने थावच्चापुत्र अनगार को उनके साथ दीक्षित होने वाले इभ्य आदि एक हजार अनगार शिष्य के रूप में प्रदान किये / Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रचम अध्ययन : शैलक ] २६--तए णं से थावच्चापुत्ते अन्नया कयाई अरहं अरिटुनेमि वंदह नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं पयासी------'इच्छामि णं भंते ! तुडभेहि अभणुनाए समाणे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धि बहिया जणवयविहारं विहरित्तए / ' 'अहासुहं देवाणुप्पिया!' तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने एक बार किसी समय अरिहन्त अरिष्टनेमि की वंदना की और नमस्कार किया / बन्दना और नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भगवन् ! आपकी प्राज्ञा हो तो मैं हजार साधुओं के साथ जनपदों में विहार करना चाहता हूँ।' भगवान् ने उत्तर दिगा—'देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसे सुख उपजे वैसा करो।' २७–तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धि (तेणं उरालेणं उदग्गेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं) बहिया जणवयविहारं विहरइ / भगवान् की अनुमति प्राप्त करके थावच्चापुत्र एक हजार अनगारों के साथ (उस प्रधान, तीव्र प्रयत्न वाले--प्रमादरहित और बहुमानपूर्वक ग्रहण किये हुए चारित्र एवं तप से युक्त होकर) बाहर जनपदों (विभिन्न देशों) में विचरण करने लगे / शैलक राजा श्रावक बना २८-तेणं कालेणं तेणं समएणं सेलगपुरे नाम नयरे होत्था, सुभूमिभागे उज्जाणे, सेलए राया, पउमावई देवी, मंडुए कुमारे जवराया। तस्स णं सेलगस्स पंथगपाभोक्खा पंच मंतिसया होत्था, उप्पत्तियाए वेणइयाए पारिणामियाए कम्मियाए चउविहाए बुद्धीए उववेया रज्जधुचितया वि होत्था / / तए णं थावच्चापुत्ते अणगारे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धि जेणेव सेलगपुरे जेणेव सुभूमिभागे नामं उज्जाणे तेणेव समोसढे / सेलए वि राया विणिग्गए। धम्मो कहिओ। _उस काल और उस समय में शैलकपुर नामक नगर था। उसके बाहर सुभूमिभाग नामक उद्यान था / शैलक वहाँ का राजा था / पद्मावती रानी थी। उनका मंडुक नामक कुमार था। वह युवराज था। उस शैलक राजा के पंथक आदि पाँच सौ मंत्री थे। वे अौत्पत्तिकी वैनयिकी पारिणामिकी और कार्मिकी इस प्रकार चारों तरह की बुद्धियों से सम्पन्न थे और राज्य की धुरा के चिन्तक भी थे--शासन का संचालन करते थे / थावच्चापुत्र अनसार एक हजार मुनियों के साथ जहाँ शैलकपुर था और जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान था, वहाँ पधारे / शैलक राजा भी उन्हें वन्दना करने के लिए निकला / थावच्चापुत्र ने धर्म का उपदेश दिया / २९--धम्म सोच्चा 'जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा भोगा जाव चइत्ता हिरण्णं 1. चार प्रकार की बुद्धियों का स्वरूप जानने के लिए देखें प्रथम अध्ययन, मूत्र 15 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 ] | शाताधर्मकथा जाव पव्वइया, तहा णं अहं नो संचाएमि पव्वइत्तए / तओ णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणु य जाव समणोवासए, जाव अहिगयजीबाजीवे जाब अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया समणोवासया जाया। थावच्चापुत्ते वहिया जणवयविहारं विहरइ / धर्म सुनकर शैलक राजा ने कहा—जैसे देवानुप्रिय (पाप) के समीप बहुत-से उग्रकुल के, भोगकुल के तथा अन्य कुलों के पुरुषों ने हिरण्य सुवर्ण आदि का त्याग करके दीक्षा अंगीकार की है, उस प्रकार मैं दीक्षित होने में समर्थ नहीं हूँ। अतएव मैं देवानुप्रिय से पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को धारण करके श्रावक बनना चाहता हूँ।' इस प्रकार राजा श्रमणोपासक यावत् जीवअजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता हो गया यावत् तप तथा संयम से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा। इसी प्रकार पंथक आदि पाँच सौ मंत्री भी श्रमणोपासक हो गये / तत्पश्चात् थावच्चापुत्र अनगार वहाँ से विहार करके जनपदों में विचरण करने लगे। विवेचन -मध्य के बाईस तीर्थकरों के शासन में चातुर्याम धर्म प्रचलित था, यह प्रसिद्ध हैआगमसिद्ध है / किन्तु यहाँ भगवान् अरिष्टनेमि के शासन में 'पंचाणुव्वइयं' पाठ आया है, जो प्रोष पाठ प्रतीत होता है / वास्तव में 'चाउज्जामियं गिहिधम्म' ऐसा पाठ होना चाहिए। ऐसा होने पर ही अन्य आगमों के साथ इस पाठ का संवाद हो सकता है। ___ आगमों में यत्र-यत्र अोघ पाठ पाये जाते हैं / एक प्रसंग में पाया पाठ उसी प्रकार के दूसरे प्रसंग में भी प्रायोजित कर दिया जाता है / इस शैली के कारण कहीं-कहीं ऐसी असंगति हो जाती है। सुदर्शन श्रेष्ठी 30 तेणं कालेणं तेणं समएणं सोगंधिया नामं नयरी होत्था, वण्णओ'। नीलासोए उज्जाणे, वण्णओ' / तत्थ णं सोगंधियाए नयरोए सुदंसणे नामं नगरसेटी परिवसइ, अड्ढे जाव' अपरिभूए। __उस काल और उस समय में सौगंधिका नामक नगरी थी। उसका वर्णन औपपातिक सूत्र के नगरीवर्णन के अनुसार समझ लेना चाहिए। उस नगरी के बाहर नीलाशोक नामक उद्यान था। उसका भी वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार कह लेना चाहिए। उस सौगंधिका नगरी में सुदर्शन नामक नगरश्रेष्ठी निवास करता था। वह समृद्धिशाली था, यावत् वह किसी से पराभूत नहीं हो सकता था। शुक परिवाजक तेणं कालेणं तेणं समएणं सुए नाम परिव्वायए होत्था-रिउव्वेय-जजुध्वेय-सामवेयअथव्वणवेय-सद्वितंतकुसले, संखसमए लठे, पंचजम-पंचनियमजुत्तं सोयमूलयं दसप्पयारं परिवायगधम्मं दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणे पण्णवेमाणे धाउरत्तवत्थपवरपरिहिए तिदंड-कुडिय-छत्त-छन्नालियंकुस-पवित्तय-केसरोहत्थगए परिव्वायगसहस्सेणं सद्धि संपरिवुडे जेणेव सोगंधिया नयरी जेणेब परिव्वायगावसहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता परिव्वायगावसहसि भंडगनिक्खेवं करेइ, करित्ता संखसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। 1-2. प्रौपपातिक, 3. पंचम अ. सूत्र 6 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक] [ 169 उस काल और उस समय में शुक नामक एक परिव्राजक था / वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वणवेद तथा षष्टितंत्र (सांख्यशास्त्र) में कुशल था। सांख्यमत के शास्त्रों के अर्थ में कुशल था। पाँच यमों (अहिंसा आदि पांच महाव्रतों) और पांच नियमों (शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरध्यान) से युक्त दस प्रकार के शौचमूलक परिव्राजक-धर्म का, दानधर्म का, शौचधर्म का और तीर्थस्नान का उपदेश और प्ररूपण करता था। गेरू से रंगे हुए श्रेष्ठ वस्त्र धारण करता था। त्रिदंड, कुण्डिका-कमंडलु, मयूरपिच्छ का छत्र, छन्नालिक (काष्ठ का एक उपकरण), अंकुश (वक्ष के पत्ते तोड़ने का एक उपकरण) पवित्री (ताम्र धातु की बनी अंगूठी) और केसरी (प्रमार्जन करने का वस्त्रखण्ड), यह सात उपकरण उसके हाथ में रहते थे। एक हजार परिव्राजकों से परिवत वह शुक परिव्राजक जहाँ सौगंधिका नगरी थी और जहाँ परिव्राजकों का आवसथ (मठ) था, वहाँ आया / ग्राकर परिव्राजकों के उस मठ में उसने अपने उपकरण रखे और सांख्यमत के अनुसार अपनी प्रात्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा। ३२–तए णं सोगंधियाए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर (चउम्मुह-महापह-पहेसु) बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ-एवं खलु सुए परिवायए इह हव्वमागए जाव विहरइ / परिसा निग्गया। सुदंसणो निग्गए। तब उस सौगंधिका नगरी के शृगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर चतुर्मुख, महापथ, पथों में अनेक मनुष्य एकत्रित होकर परस्पर ऐसा कहने लगे—'निश्चय ही शुक परिव्राजक यहाँ आये हैं यावत् आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं।' तात्पर्य यह कि शुक परिव्राजक के आगमन की गली-गली और चौराहों में चर्चा होने लगी / उपदेश-श्रवण के लिए परिषद् निकली। सुदर्शन भी निकला / शुक को धर्म देशना ३३-तए णं से सुए परिव्वायए तीसे परिसाए सुदंसणस्स य अन्नेसि च बहूणं संखाणं परिकहेइ--एवं खलु सुदंसणा ! अम्हं सोयमूलए धम्मे पन्नत्ते / से वि य सोए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-- दव्वसोए य भावसोए य / दध्वसोए य उदएणं मट्टियाए य / भावसोए दभेहि य मंतेहि य / जंणं अम्हं देवाणप्पिया ! किचि असई भवड, तं सव्वं सज्जो पढवीए आलिप्पड, तओ पच्छा सर्तण वारिण लिज्जइ, तओ तं असुई सुई भवइ / एवं खलु जीवा जलाभिसेयपूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गच्छति। तए णं से सुदंसणे सुयस्स अंतिए धम्म सोच्चा हट्टे, सुयस्स अंतियं सोयमूलयं धम्म गेण्हइ, गेण्हित्ता परिव्वायए विपुलेण असण-पाण-खाइम-साइम वस्थेणं पडिलाभेमाणे जाव विहरइ / तए णं से सुए परिवायए सोगंधियाओ नयरीओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तत्पश्चात् शुक परिव्राजक ने उस परिषद् को, सुदर्शन को तथा अन्य बहुत-से श्रोताओं को सांख्यमत का उपदेश दिया / यथा-हे सुदर्शन ! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है / यह शौच दो प्रकार का है-द्रव्यशौच और भावशौच / द्रव्यशौच जल से और मिट्टी से होता है / भावाशौच दर्भ से और मंत्र से होता है / हे देवानुप्रिय ! हमारे मत के अनुसार जो कोई वस्तु अशुचि होती है, वह सब तत्काल पृथ्वी (मिट्टी) से मांज दी जाती है और फिर शुद्ध जल से धो ली जाती है / तब अशुचि, शुचि हो जाती है / इसी प्रकार निश्चय ही जीव जलस्नान से अपनी आत्मा को पवित्र करके बिना विध्न के स्वर्ग प्राप्त करते हैं। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् सुदर्शन, शुक परिव्राजक से धर्म को श्रवण करके हर्षित हुआ। उसने शुक से शौचमुलक धर्म को स्वीकार किया। स्वीकार करके परिव्राजकों को विपल प्रशन.. / अशन, पान, खादिम, स्वादिम और वस्त्र से प्रतिलाभित करता हुआ अर्थात् प्रशन प्रादि दान करता हुआ रहने लगा। तत्पश्चात् वह शुक परिव्राजक सौगंधिका नगरी से बाहर निकला / निकल कर जनपद-विहार से विचरने लगा-देश-देशान्तर में भ्रमण करने लगा। यावच्चापुत्र का आगमन 34 तेणं कालेणं तेणं समएणं थावच्चापुत्ते णामं अणगारे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धि पुव्वाणव्वि चरमाणे, गामाणगाम दुइज्जमाणे, सहसुहेणं विहरमाणे जेणेव सोगंधिया नयरी, जेणेव नीलासोए उज्जाणे, तेणेव समोसढे / उस काल और उस समय में थावच्चापुत्र नामक अनगार एक हजार साधुओं के साथ अनुक्रम से विहार करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हुए और सुख-सुखे विचरते हुए जहाँ सौगंधिका नामक नगरी थी और जहाँ नीलाशोक नामक उद्यान था, वहाँ पधारे / यावच्चापुत्र-सुवर्शनसंवाद ३५–परिसा निग्गया / सुदंसणो वि णिग्गए। थावच्चापुत्तं नामं अणगारं आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासो-'तुम्हाणं किंमूलए धम्मे पन्नत्ते ? तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणेणं एवं वुत्ते समाणे सुदंसणं एवं वयासी--'सुदंसणा! विणयमूले धम्मे पण्णत्ते / से वि य विणए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-अगारविणए य अणगारविणए य / तत्थ णं जे से अगारविणए से णं पंच अणुव्वयाई,' सत्तसिक्खावयाई, एक्कारस उवासगपडिमाओ। तत्थ णं जे से अणगारविणए से णं पंच महव्ययाइं पन्नत्ताई, तंजहा-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिनादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं, सम्वाओ राइभोयणाओ वेरमणं, जाव मिच्छादसणसल्लाओ वेरमणं, दसविहे पच्चक्खाणे, बारस भिक्खुपडिमाओ, इच्चेएणं दुविहेणं विणयमूलएणं धम्मेणं अणुपुत्वेणं अट्ठकम्म-पगडीओ खवेत्ता लोयग्गपइटुठाणे भवंति। थावच्चापुत्र अनगार का आगमन जानकर परिषद् निकली / सुदर्शन भी निकला / उसने थावच्चापुत्र अनगार को दक्षिण तरफ से प्रारंभ करके प्रदक्षिणा की / प्रदक्षिणा करके वन्दना की, नमस्कार किया / वन्दना-नमस्कार करके वह इस प्रकार बोला---'आपके धर्म का मूल क्या है ? तब सूदर्शन के इस प्रकार कहने पर थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन से इस प्रकार कहाहे सुदर्शन ! (हमारे मत में) धर्म विनयमूलक कहा गया है। यह विनय (चारित्र) भी दो प्रकार का कहा है--अगार-विनय अर्थात् गृहस्थ का चारित्र और अनगारविनय अर्थात् मुनि का चारित्र / इनमें जो अगारविनय है, वह पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत और ग्यारह उपासक-प्रतिमा रूप है / अनगारविनय पाँच महाव्रत रूप है, यथा समस्त प्राणातिपात (हिंसा) से विरमण, समस्त मृषावाद से विरमण, समस्त अदत्तादान से विरमण, समस्त मैथुन से विरमण और समस्त परिग्रह से विरमण / 1. यह विनयवर्णन भ. महावीर के काल की अपेक्षा से है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक ] [ 171 इसके अतिरिक्त समस्त रात्रि-भोजन से विरमण, यावत् समस्त मिथ्यादर्शन शल्य से विरमण, दस प्रकार का प्रत्याख्यान और बारह भिक्षप्रतिमाएँ / इस प्रकार दो तरह के विनयमूलक धर्म से क्रमशः पाठ कर्मप्रकृतियों को क्षय करके जीव लोक के अग्रभाग में-मोक्ष में प्रतिष्ठित होते हैं। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में व्रतों का जो उल्लेख किया गया है, वह भी महावीर-शासन की अपेक्षा से ही समझना चाहिए जैसा कि पहले कहा जा चुका है। 'अंगसुत्ताणि' में मुनिश्री नथमलजी ने उल्लिखित पाठ के स्थान पर निम्नलिखित पाठ दिया और परम्परागत उल्लिखित सूत्रपाठ का टिप्पणी में उल्लेख किया है 'तत्थ णं जे से अगारविणए से णं चाउज्जामिए गिहिधम्मे, तत्थ णं जे से अणगारविणए से णं चाउज्जामा, तं जहा-सव्वाश्रो पाणाइवायाप्रो वेरमणं सव्वाप्रो मुसाबायानो वेरमणं, सव्वानो अदिण्णादाणाप्रो वे रमणं, सव्वाप्रो बहिद्धादाणाग्रो वेरमणं / ' अरिष्टनेमि के शासन की दृष्टि से यह पाठ अधिक संगत है। प्रस्तुत कथानक का सम्बन्ध भ० अरिष्टनेमि के काल के साथ ही है। सुदर्शन का प्रतिबोध ___ ३६-तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी-'तुम्भे णं सुदंसणा! किंमूलए धम्मे पण्णते ?' 'अम्हाणं देवाणुप्पिया! सोयमूले धम्मे पण्णत्ते, जाव' सगं गच्छति / तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने सुदर्शन से कहा-सुदर्शन ! तुम्हारे धर्म का मूल क्या कहा गया है ? सुदर्शन ने उत्तर दिया-देवानुप्रिय ! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है। वह शौच दो प्रकार का है-द्रव्यशौच और भावशौच / द्रव्यशौच जल और मिट्टी से तथा भाव-शौच दर्भ और मंत्र से होता है / अशुचि वस्तु मिट्टी से माँजने से शुचि हो जाती है और जल से धो ली जाती है / तब अशुचि शुचि हो जाती है / ] इस धर्म से जीव स्वर्ग में जाते हैं। (शुक का पूर्ववणित उपदेश यहाँ पूरा दोहरा लेना चाहिए / ) ३७-तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी--'सुदंसणा! जहानामए कई पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण चेव धोवेज्जा, तए णं सुदंसणा! तस्स रुहिरकयस्स रुहिरेण चेव पक्खालिज्जमाणस्स अस्थि कोइ सोही ? __ 'णो तिणठे समठे।' तब थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा-हे सुदर्शन / जैसे कुछ भी नाम वाला कोई पुरुष एक बड़े रुधिर से लिप्त वस्त्र को रुधिर से ही धोए, तो हे सुदर्शन ! उस रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की कोई शुद्धि होगी? सुदर्शन ने कहा-यह अर्थ समर्थ नहीं, अर्थात् ऐसा नहीं हो सकता-रुधिर से लिप्त वस्त्र रुधिर से शुद्ध नहीं हो सकता / ३८–एवामेव सुदंसणा! तुन्भं पि पाणाइवाएण जाव मिच्छादसणसल्लेणं नत्थि सोही, जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स नत्थि सोही। 1. पंचम अ. सूत्र 31. पंचम अ. सूत्र 35. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172] [ ज्ञाताधर्मकथा 'सुदंसणा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं सज्जियाखारेणं अणुलिया, अलिपित्ता पमणं आरुहेइ, आरुहित्ता उण्हं गाहेइ, गाहित्ता तओ पच्छा सुद्धेणं वारिणा धोवेज्जा से णूणं सुदंसणा! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स सज्जियाखारेणं अणुलित्तस्स पयणं आरुहियस्स उण्हं गाहियस्स सुद्धणं वारिणा पक्खालिज्जमाणस्स सोही भवइ ? 'हंता भवइ / ' एवामेव सुदंसणा ! अम्हं पि पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेण अस्थि सोही, जहा वि तस्स रुहिरकयस्म वत्थस्स जाव सुद्धेणं वारिणा पक्खालिज्जमाणस्स अस्थि सोही / इसी प्रकार हे सुदर्शन ! तुम्हारे मतानुसार भी प्राणातिपात से यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से शुद्धि नहीं हो सकती, जैसे उस रुधिरलिप्त और रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की शुद्धि नहीं होती। हे सुदर्शन ! जैसे यथानामक (कुछ भी नाम वाला) कोई पुरुष एक बड़े रुधिरलिप्त वस्त्र को सज्जी के खार के पानी में भिगोवे, फिर पाकस्थान (चल्हे) पर चढ़ावे, चढ़ाकर उष्णता ग्रहण करावे (उबाले) और फिर स्वच्छ जल से धोवे, तो निश्चय हे सुदर्शन ! वह रुधिर से लिप्त वस्त्र, सज्जीखार के पानी में भीग कर चूल्हे पर चढ़कर, उबलकर और शुद्ध जल से प्रक्षालित होकर शुद्ध हो जाता है ?' (सुदर्शन कहता है-) 'हाँ, हो जाता है।' इसी प्रकार हे सुदर्शन ! हमारे धर्म के अनुसार भी प्राणातिपात के विरमण से यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के विरमण से शुद्धि होती है, जैसे उस रुधिरलिप्त वस्त्र की यावत् शुद्ध जल से धोये जाने पर शुद्धि होती है / ३९---तत्थ णं सुदंसणे संबुद्ध थावच्चापुत्तं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी'इच्छामि णं भंते ! धम्म सोच्चा जाणित्तए, जाव समणोवासए जाए अहिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ / तत्पश्चात् सुदर्शन को प्रतिबोध प्राप्त हुआ। उसने थावच्चापुत्र को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा--'भगवन् ! मैं धर्म सुनकर उसे जानना अर्थात् अंगीकार करना चाहता हूँ।' यावत् (थावच्चापुत्र अनगार ने धर्म का उपदेश किया) वह धर्मोपदेश श्रवण करके श्रमणोपासक हो गया, जीवाजीव का ज्ञाता हो गया, यावत् निर्ग्रन्थ श्रमणों को प्राहार आदि का दान करता हुआ विचरने लगा। शुक का पुनरागमन ४०---तए णं तस्स सुयस्स परिवायगस्स इमोसे कहाए लद्धट्ठस्स समाणस्स अयमेयारूवे जाव [अज्झस्थिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे] समुप्पज्जित्था-एवं खलु सुदंसणेणं सोयधम्म विप्पजहाय विणयमूले धम्मे पडिवन्ने / तं सेयं खलु मम सुदंसणस्स दिठ्ठि वामेत्तए, पुणरवि सोयमूलए धम्मे आघवित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता परिव्वायगसहस्सेणं सद्धि जेणेव सोगंधिया नयरी Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 173 पञ्चम अध्ययन : शैलक ] जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता परिव्वायगावसहंसि भंडनिक्खेवं करेइ, करिता धाउरत्तवत्थपरिहिए पविरलपरिवायगेणं सद्धि संपरिवुडे परिव्वायगावसहाओ पडिणिक्खमा, पडिणिक्खमित्ता सोगंधियाए नयरीए मज्झमज्ञणं जेणेव सुदंसणस्स गिहे, जेणेव सुदंसणे तेणेव उवागच्छ। / तत्पश्चात् शुक परिव्राजक को इस कथा (घटना) का अर्थ अर्थात् समाचार जान कर इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुा-'सुदर्शन ने शौच-धर्म का परित्याग करके विनयमूल धर्म अंगीकार किया है / अतएव सुदर्शन की दृष्टि (श्रद्धा) का वमन (त्याग) कराना और पुनः शौचमूलक धर्म का उपदेश करना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा।' उसने ऐसा विचार किया / विचार करके एक हजार परिव्राजकों के साथ जहाँ सौगंधिका नगरी थी और जहाँ परिव्राजकों का मठ था, वहाँ पाया / आकर उसने परिव्राजकों के मठ में उपकरण रखे / तदनन्तर गेरू से रंगे वस्त्र धारण किये हुए वह थोड़े परिव्राजकों के साथ, उनसे घिरा हुया परिव्राजक-मठ से निकला / निकल कर सौगंधिका नगरी के मध्यभाग में होकर जहाँ सुदर्शन का घर था और जहाँ सुदर्शन था वहाँ पाया। ४१-तए णं सुदंसणे तं सुयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता नो अब्भुठेइ, नो पच्चुग्गच्छइ नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो वंदइ, तुसिणीए संचिट्ठइ / तए णं से सुए परिव्वायए सुदंसणं अणब्भट्टियं पासित्ता एवं वयासो-'तुमं णं सुदंसणा! अन्नया ममं एज्जमाणं पासित्ता अन्भुढेसि जाव (पच्चुम्गच्छसि आढासि) वंदसि, इयाणि सुदंसणा ! तुम मम एज्जमाणं पासित्ता जाव (नो अब्भुढेसि, नो पच्चुग्गच्छसि, नो आढासि) णो वंदसि, तं कस्स णं तुमे सुदंसणा ! इमेयारूवे विणयमूलधम्मे पडिवन्ने ? तब सुदर्शन ने शुक परिव्राजक को प्राता देखा। देखकर वह खड़ा नहीं हुअा, सामने नहीं गया, उसका आदर नहीं किया, उसे जाना नहीं, वन्दना नहीं की, किन्तु मौन रहा / तब शुक परिव्राजक ने सुदर्शन को न खड़ा हुआ देखकर इस प्रकार कहा- हे सुदर्शन ! पहले तुम मुझे आता देखकर खड़े होते थे, सामने आते और आदर करते थे, बन्दना करते थे, परन्तु हे सुदर्शन ! अब तुम मुझे प्राता देखकर [न खड़े हुए, न सामने आए / न आदर किया] न वन्दना की तो हे सुदर्शन ! (शौचधर्म त्याग कर) किसके समीप तुमने विनयमूल धर्म अंगीकार किया है ? ४२–तए णं से सुदंसणे सुएणं परिव्वायएणं एवं वुत्ते समाणे आसणाओ अब्भुठेइ, अब्भुद्वित्ता करयल (परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि क१) सुयं परिव्वायगं एवं वयासी-- 'एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतेवासी थावच्चापुत्ते नामं अणगारे जाव इहमागए, इह चेव नोलासोए उज्जाणे विहरइ, तस्स णं अंतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने / तत्पश्चात् शुक परिव्राजक के इस प्रकार कहने पर सुदर्शन आसन से उठ कर खड़ा हुआ / उसने दोनों हाथ जोड़े मस्तक पर अंजलि की और शुक परिव्राजक से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! अरिहंत अरिष्टनेमि के अन्तेवासी थावच्चापुत्र. नामक अनगार विचरते हुए यावत् यहाँ आये हैं और यहीं नीलाशोक नामक उद्यान में विचर रहे हैं / उनके पास से मैंने विनयमूल धर्म अंगीकार किया है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] [ ज्ञाताधर्मकथा ४३-तए णं से सुए परिव्वायए सुर्वसणं एवं वयासी--'तं गच्छामो णं सुदंसणा! तव धम्मायरियस्स थावच्चापुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामी / इमाई चणं एयारूवाइं अट्ठाई हेऊइं पसिणाई कारणाई वागरणाई पुच्छामो। तं जइ णं मं से इमाइं अट्ठाई जाव घागरइ, तए णं अहं वंदामि नमसामि / अह मे से इमाई अट्ठाई जाव (हेऊई पसिणाइं कारणाई वागरणाई) नो वागरेइ, तए णं अहं एएहि चेव अठेहि हेहि निप्पट्ठपसिणवागरणं करिस्सामि-- तत्पश्चात् शुक परिव्राजक ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा--'हे सुदर्शन ! चलें, हम तुम्हारे धर्माचार्य थावच्चापुत्र के समीप प्रकट हों-चलें और इन अर्थों को, हेतुओं को, प्रश्नों को, कारणों को तथा व्याकरणों को पूछे 1' अगर वह मेरे इन अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों का उत्तर देंगे तो मैं उन्हें वन्दना करूगा, नमस्कार करूगा / और यदि वह मेरे इन अर्थों यावत व्या कहेंगे-इनका उत्तर नहीं देंगे तो मैं उन्हें इन्हीं अर्थों तथा हेतुओं आदि से निरुत्तर कर दूंगा। विवेचन--सूत्र में अर्थ, हेतु, प्रश्न और व्याकरण पूछने का कथन किया गया है / इनमें से 'अर्थ' शब्द अनेकार्थक हैं / कोशकार कहते हैं अर्थः स्याद् विषये मोक्षे, शब्दवाच्य-प्रयोजने। व्यवहारे धने शास्त्रे, वस्तु-हेतु-निवृत्तिषु // अर्थात् अर्थ शब्द इन अर्थों का वाचक है--विषय, मोक्ष, शब्द का वाच्य, प्रयोजन, व्यवहार, धन, शास्त्र, वस्तु, हेतु और निवत्ति / इन अर्थों में से यहाँ अनेक अर्थ घटित हो सकते हैं किन्तु आगे शुक और थावच्चापुत्र के संवाद का जो उल्लेख है, उसके आधार पर 'शब्द का वाच्य' अर्थ विशेषतः संगत लगता है / 'कुलस्था, सरिसवया' प्रादि शब्दों के अर्थ को लेकर ही संवाद होता है / हेतु' दर्शनशास्त्र में प्रयुक्त होने वाला विशिष्ट शब्द है / साध्य के होने पर ही होने वाला और साध्य के बिना न होने वाला हेतु कहलाता है, यथा-अग्नि के होने पर ही होने वाला और अग्नि के विना नहीं होने वाला धूम, अग्नि के अस्तित्व के ज्ञान में हेतु है / किसी कार्य की उत्पत्ति में जो साधन हो वह कारण है / जैसे-धूम (धुआ) कार्य की उत्पत्ति में अग्नि कारण है। व्याकरण का अर्थ है-वस्तुस्वरूप को स्पष्ट करने वाला वचन / यहाँ व्याकरण से अभिप्राय है-उत्तर / शुक-थावच्चापुत्र-संवाद ४४-तए णं से सुए परिव्वायगसहस्सेणं सुदंसणेण य सेठिणा सद्धि जेणेव नीलासोए उज्जाणे, जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासी-. 'जत्ता ते भंते ! जवणिज्जं ते ? अव्वाबाहं पि ते ? फासुयं विहारं ते ? __तए णं से थावच्चापुत्ते सुएणं परिव्वायगेणं एवं वुत्ते समाणे सुयं परिव्वायगं एवं वयासी'सुया ! जत्ता वि मे, जवणिज्जं पि मे, अव्वाबाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे।' तत्पश्चात् वह शुक परिव्राजक, एक हजार परिव्राजकों के और सुदर्शन सेठ के साथ जहां नीलाशोक उद्यान था, और जहाँ थावच्चापुत्र अनगार थे, वहाँ आया / आकर थावच्चापुत्र से कहने . Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक] [ 175 लगा-'भगवन् ! तुम्हारी यात्रा चल रही है ? यापनीय है ? तुम्हारे अव्याबाध है ? और तुम्हारा प्रासुक विहार हो रहा है ? तब थावच्चापुत्र ने शुक परिव्राजक के इस प्रकार कहने पर शुक से कहा हे शुक ! मेरी यात्रा भी हो रही है, यापनीय भी वर्त रहा है, अव्यावाध भी है और प्रासुक विहार भी हो रहा है / ४५-तए णं से सुए थावच्चापुत्तं एवं वयासो-'कि भंते ! जत्ता ? 'सुया ! जंणं मम णाण-दसण-चरित्त-तव-संजममाइएहिं जोएहि जोयणा से तं जत्ता।' 'से कि तं भंते ! जवणिज्जे?' 'सुया ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा--इंदियजवणिज्जे य नोइंदियजवणिज्जे य।' 'से कि तं इंदियजवणिज्जे ?' 'सुया ! जं णं मम सोइंदिय-क्खि दिय-धाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियाई निरुवयाई बसे वटंति, से तं इंदियजवणिज्ज।' 'से किं तं नोइंदियजवणिज्जे ?' 'सुया ! जन्न कोह-माण-माया-लोभा खोणा, उवसंता, नो उदयंति, से तं नोइंदियजवणिज्जे।' तत्पश्चात् शुक ने थावच्चापुत्र से इस प्रकार कहा-'भगवन् ! आपकी यात्रा क्या है ? (थावच्चापुत्र-) हे शुक ! ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, और संयम आदि योगों से षट्काय (पांच स्थावरकाय- पथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और छठे त्रसकायद्वीन्दिय से पंचेन्द्रिय तक) के जीवों की यतना करना हमारी यात्रा है। शुक--भगवन् ! यापनीय क्या है ? थावच्चापुत्र-शुक ! यापनीय दो प्रकार का है--इन्द्रिय-यापनीय और नोइन्द्रिय-यापनीय / शुक--'इन्द्रिय-यापनीय किसे कहते हैं ?' 'शुक ! हमारी श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय विना किसी उपद्रव के वशीभूत रहती है, यही हमारा इन्द्रिय-यापनीय है।' शुक—'नो-इन्द्रिय-यापनीय क्या है ?' 'हे शुक ! क्रोध मान माया और लोभ रूप कषाय क्षीण हो गये हों, उपशांत हो गये हों, उदय में न आ रहे हों, यही हमारा नोइन्द्रिय-यापनीय कहलाता है।' ४६–से कि तं भंते ! अव्वाबाहं ?' 'सुया ! जन्नं मम वाइय-पित्तिय-सिभिय-सन्निवाइया विविहा रोगायंका णो उदीरेंति, ते तं अव्वाबाहं / ' 'से किं तं भंते ! फासुयविहारं ?' _ 'सुया ! जन्नं आरामेसु उज्जाणेसु देवउलेसु सभासु पवासु इत्थि-पसु-पंडगवियज्जियासु बसहीसु पाडिहारियं पीढ-कलग-सेज्जा-संथारयं उग्गिण्हित्ता णं विहरामि, से तं फासुविहारं / ' Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 176] [ ज्ञाताधर्मकथा शुक ने कहा—'भगवन् ! अव्याबाध क्या है ?' 'हे शुक ! जो वात, पित्त, कफ और सन्निपात (दो अथवा तीन का मिश्रण) आदि सम्बन्धी विविध प्रकार के रोग (उपायसाध्य व्याधि) और आतंक (तत्काल प्राणनाशक व्याधि) उदय में न आवें, वह हमारा अव्याबाध है।' शुक-'भगवन् ! प्रासुक विहार क्या है ?' __'हे शुक! हम जो आराम में, उद्यान में, देवकुल में, सभा में, प्याऊ में तथा स्त्री पशु और नपुसक से रहित उपाश्रय में पडिहारी (वापस लौटा देने योग्य) पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि ग्रहण करके विचरते हैं, वह हमारा प्रासुक विहार है।' ४७–सरिसवया ते भंते ! भक्खेया अभक्खेया ?' 'सुया ! सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि।' से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि? 'सुया ! सरिसवया दुविहा पण्णता, तंजहा—मित्तसरिसवया धन्नसरिसक्या य। तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवया ते तिविहा पण्णत्ता, तंजहा- सहजायया, सहड्डियया सहपंसुकीलियया / ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते धन्नसरिसवया ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा--सत्यपरिणया य असत्थपरिणया य / तत्थ णं जे ते असत्थपरिणया तं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा.-फासुगा य अफासुगा य। अफासुगा णं सुया ! नो भक्खेया। तत्थ णं जे ते फासुया ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-जाइया य अजाइया य / तत्थ णं जे ते अजाइया ते अभक्खेया। तत्थ णं जे ते जाइया ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-एसणिज्जा य अणेसणिज्जा य / तत्थ णं जे ते अणेसणिज्जा ते णं अभक्खेया। तत्य णं जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-लद्धा य अलद्धा य / तत्थ णं जे ते अलद्धा ते अभक्खेया। तत्थ णं जे ते लद्धा ते निग्गंथाणं भक्खेया। एएणं अद्रेणं सुया ! एवं वुच्चइ सरिसवया भक्खया वि अभक्खेया वि। शुक परिव्राजक ने प्रश्न किया-'भगवन् ! आपके लिए 'सरिसवया' भक्ष्य हैं या अभक्ष्य हैं ?' थावच्चापुत्र ने उत्तर दिया-'हे शुक ! 'सरिसवया' हमारे लिए भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं।' शुक ने पुनः प्रश्न किया- 'भगवन् ! किस अभिप्राय से ऐसा कहते हो कि 'सरिसवया' भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं ?' थावच्चापुत्र उत्तर देते हैं.---'हे शुक ! 'सरिसवया' दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकारमित्र-सरिसवया (सदृश वय वाले मित्र) और धान्य-सरिसवया (सरसों)। इनमें जो मित्र-सरिसवया हैं, Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक ] [ 177 वे तीन प्रकार के हैं। वे इस प्रकार--(१) साथ जन्मे हुए (2) साथ बढ़े हुए और (3) साथ-साथ धूल में खेले हुए / यह तीन प्रकार के मित्र-सरिसवया श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं / जो धान्य-सरिसवया (सरसों) हैं, वे दो प्रकार के हैं। वे इस प्रकार-शस्त्रपरिणत और प्रशस्त्रपरिणत / उनमें जो प्रशस्त्रपरिणत हैं / अर्थात जिनको अचित्त करने के लिए अग्नि आदि शस्त्रों का प्रयोग नहीं किया गया है, अतएव जो अचित्त नहीं हैं, वे श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। जो शस्त्रपरिणत हैं, वे दो प्रकार के हैं। वे इस प्रकार-प्रासुक और अप्रासुक / हे शुक! अप्रासुक भक्ष्य नहीं हैं। उनमें जो प्रासुक हैं, वे दो प्रकार के हैं। वे इस प्रकार-याचित (याचना किये हुए) और अयाचित (नहीं याचना किये हुए) / उनमें जो अयाचित हैं, वे अभक्ष्य हैं। उनमें जो याचित हैं, वे दो प्रकार के हैं.। यथा—एषणीय और अनेषणीय / उनमें जो अनेषणीय हैं, वे अभक्ष्य हैं / जो एषणीय हैं, वे दो प्रकार के हैं --लब्ध (प्राप्त) और अलब्ध (अप्राप्त)। उनमें जो अलब्ध हैं, वे अभक्ष्य हैं / जो लब्ध हैं वे निर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य हैं। 'हे शुक ! इस अभिप्राय से कहा है कि सरिसवया भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी है / ' ४८-एवं कुलत्था विभाणियव्वा / नवरि इमं नाणत्तं ---इत्थिकुलत्था य धनकुलत्था य। इत्थिकुलत्था तिविहा पन्नत्ता, तंजहा कुलवधुया य, कुलमाउया य, कुलधूया य / धन्नकुलत्था तहेव / इसी प्रकार 'कुलत्था' भी कहना चाहिए, अर्थात् जैसे 'सरिसवया' के सम्बन्ध में प्रश्न और उत्तर ऊपर कहे हैं, वैसे ही 'कुलत्था' के विषय में कहने चाहिए। विशेषता इस प्रकार है-कुलत्था के दो भेद हैं -स्त्री-कुलत्था (कुल में स्थित महिला) और धान्य-कुलत्था अर्थात् कुलथ नामक धान्य / स्त्री-कुलत्था तीन प्रकार को हैं / वह इस प्रकार-कुलवधू, कुलमाता और कुलपुत्री / ये अभक्ष्य हैं। धान्यकुलत्था भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं इत्यादि सरिसवया के समान समझना चाहिए। ४९—एवं मासा वि / नवरि इमं नाणत्तं--मासा तिविहा पण्णता, तंजहा--कालमासा य, अस्थमासा य, धनमासा य / तत्थ णं जे ते कालमासा ते णं दुबालसविहा पण्णता, तं जहा सावणे जाव (भद्दवए आसोए कत्तिए मग्गसिरे पोसे माहे फग्गुणे चेत्ते वइसाहे जेट्ठामूले) आसाढे, ते णं अभक्खेया। अत्थमासा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-हिरनमासा य सुवण्णमासा य / ते णं अभक्खेया। धन्नमासा तहेव। मास सम्बन्धी प्रश्नोत्तर भी इसी प्रकार जानना चाहिए / विशेषता इस प्रकार है---मास तीन प्रकार के कहे गये हैं / वे इस प्रकार हैं--कालमास, अर्थमास और धान्यमास / इनमें से कालमास बारह प्रकार के कहे हैं। वे इस प्रकार हैं-श्रावण यावत् [भाद्रपद, आसौज, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, जेष्ठामूल ग्राषाढ, अर्थात श्रावणमास से आषाढमास तक। वे सब अभक्ष्य हैं / अर्थमास अर्थात् अर्थरूप माशा दो प्रकार के कहे हैं--चाँदी का माशा और सोने का माशा। वे भी अभक्ष्य हैं / धान्यमास अर्थात उड़द भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं; इत्यादि 'सरिसवया' के समान कहना चाहिए। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 ] [ ज्ञाताधर्मकथा ५०-'एगे भवं ? दुवे भवं ? अणेगे भवं? अक्खए भवं? अव्वए भवं ? अवट्ठिए भवं ? अणेगभूयभावभविए वि भवं? 'सुया ! एगे वि अहं, दुवे वि अहं, जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं / ' 'से केणठेणं भंते ! एगे वि अहं जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं ? 'सुया ! दबट्टयाए एगे अहं, नाणदसणट्ठयाए दुवे वि अहं, पएसट्टयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, उवओगट्टयाए अणेगभूयभावविए वि अहं / ' शुक परिव्राजक ने पुनः प्रश्न किया-अाप एक हैं ? आप दो हैं ? अाप अनेक हैं ? श्राप अक्षय हैं ? आप अव्यय हैं ? आप अवस्थित हैं ? आप भूत, भाव और भावी वाले हैं ?' (यह प्रश्न करने का परिव्राजक का अभिप्राय यह है कि अगर थावच्चापुत्र अनगार प्रात्मा को एक कहेंगे तो श्रोत्र आदि इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान और शरीर के अवयव अनेक होने से प्रात्मा की अनेकता का प्रतिपादन करके एकता का खंडन करूगा। अगर वे आत्मा का द्वित्व स्वीकार करेंगे तो 'अहम--मैं' प्रत्यय से होने वाली एकता की प्रतीति से विरोध बतलाऊंगा। इसी प्रकार प्रात्मा की नित्यता स्वीकार करेंगे तो मैं अनित्यता का प्रतिपादन करके उसका खंडन करूगा। यदि अनित्यता स्वीकार करेंगे तो उसके विरोधी पक्ष को अंगीकार करके नित्यता का समर्थन करूगा / मगर परिव्राजक के अभिप्राय को असफल' बनाते हुए, अनेकान्तवाद का आश्रय लेकर थावच्चापुत्र उत्तर देते हैं-) ___ हे शुक ! मैं द्रव्य की अपेक्षा से एक हूँ, क्योंकि जीव द्रव्य एक ही है। (यहाँ द्रव्य से एकत्व स्वीकार करने से पर्याय की अपेक्षा अनेकत्व मानने में विरोध नहीं रहा।) ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से मैं दो भी हूँ। प्रदेशों की अपेक्षा से मैं अक्षय भी हूँ, अव्यय भी हूँ, अवस्थित भी हूँ। (क्योंकि आत्मा के लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेश हैं और उनका कभी पूरी तरह क्षय नहीं होता, थोड़े से प्रदेशों का भी व्यय नहीं होता, उसके असंख्यात प्रदेश सदैव अवस्थित- कायम रहते हैं-उनमें एक भी प्रदेश की न्यूनता या अधिकता कदापि नहीं होती / ) और उपयोग की अपेक्षा से अनेक भूत (अतीत कालीन), भाव (वर्तमान कालीन) और भावी (भविष्यत् कालीन), भी हूँ, अर्थात् अनित्य भी हूँ। तात्पर्य यह है कि उपयोग आत्मा का गुण है, अात्मा से कथंचित् अभिन्न है, और वह भत. वर्तमान और भविष्यत कालीन विषयों को जानता है और सदैव पलटता रहता है। इस प्रकार उपयोग अनित्य होने से उससे अभिन्न आत्मा भी कथंचित् अनित्य है। __विवेचन यहाँ मुख्य रूप से आत्मा का कथंचित् एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व और अनित्यत्व प्रतिपादित किया गया है, किन्तु जैनदर्शन के अनुसार और वास्तविक रूप से जगत् के सभी पदार्थों पर यह कथन छ घटित होता है / 'उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा, यह तीर्थंकरों की मूलवाणी है। इसका अभिप्राय यह है कि समस्त पदार्थों का उत्पाद होता है, विनाश होता है और वे ध्र व-नित्य भी रहते हैं / यही वाचक उमास्वाति कहते हैं—'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' / ' अर्थात् प्रत्येक पदार्थ, जिसकी सत्ता है, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यमय है / ये तीनों जिसमें एक साथ, निरन्तर क्षण-क्षण में न हों ऐसा कोई अस्तित्ववान् पदार्थ हो नहीं सकता। 1. तत्त्वार्थसूत्र प्र. 5. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक ] [ 179 सहज प्रश्न हो सकता है कि नित्यता और अनित्यता परस्पर विरोधी धर्म हैं तो एक साथ एक ही पदार्थ में किस प्रकार रह सकते हैं ? उत्तर इस प्रकार है-प्रत्येक पदार्थ-वस्तु के दो पहल हैं-द्रव्य और पर्याय / ये दोनों मिलकर ही वस्तु कहलाते हैं / द्रव्य के बिना पर्याय और पर्याय के बिना द्रव्य होता नहीं है। उदाहरणार्थप्रात्मा द्रव्य है और वह किसी न किसी पर्याय के साथ ही रहती है। द्रव्य और पर्याय परस्पर भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं। इनमें से वस्तु का द्रव्यांश शाश्वत है, इस दृष्टि से वस्तु नित्य है। पर्यायअंश पलटता रहता है, अतएव पर्याय की दृष्टि से वस्तु अनित्य है। हमारा अनुभव और अाधुनिक विज्ञान इस सत्य का समर्थन करता है। सामान्य और विशेष धर्म प्रत्येक पदार्थ के अभिन्न अंग हैं / इनमें से सामान्य को प्रधान रूप से दृष्टि में रख कर जब पदार्थों का निरीक्षण किया जाता है तो उनमें एकरूपता प्रतीत होती है और जब विशेष को मुख्य करके देखा जाता है तो जिनमें एकरूपता प्रतीत होती थी उन्हीं में अनेकताभिन्नता जान पड़ती है / अत: सामान्य की अपेक्षा एकत्व और विशेष की अपेक्षा अनेकत्व सिद्ध होता है। शुक की प्रव्रज्या ५१-एत्थ णं से सुए संबुद्धे थावच्चापुत्तं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-~~ 'इच्छामि णं भंते ! तुन्भे अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए / धम्मकहा भाणियव्वा। ___ तए णं सुए परिवायए थावच्चापुत्तस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म एवं वयासी-- 'इच्छामि णं भंते ! परिव्वायगसहस्सेणं सद्धि संपरिवुडे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता पव्वइत्तए।' _ 'अहासुहं देवाणुप्पिया!' जाव उत्तरपुरच्छिमे दिसोभागे तिदंडयं जाव' धाउरत्ताओ य एगंते एडेइ, एडित्ता सयमेव सिहं उप्पाडेड, उपाडित्ता जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं अणगारं बंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अन्तिए मुडे भवित्ता जाव पन्वइए / सामाइयमाइयाइं चोहसपुव्वाइं अहिज्जइ / तए णं थावच्चापुत्ते सुयस्स अणगारसहस्सं सीसत्ताए वियरइ / थावच्चापुत्र के उत्तर से शुक परिव्राजक को प्रतिबोध प्राप्त हुआ / उसने थावच्चापुत्र को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना और नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भगवन् ! मैं अापके पास से केवलीप्ररूपित धर्म सुनने की अभिलाषा करता हूँ। यहाँ धर्मकथा का वर्णन प्रौपपातिक सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए। __ तत्पश्चात् शुक परिव्राजक थावच्चापुत्र से धर्मकथा सुन कर और उसे हृदय में धारण करके इस प्रकार बोला-'भगवन् ! मैं एक हजार परिव्राजकों के साथ देवानुप्रिय के निकट मुडित होकर प्रवजित होना चाहता हूँ।' थावच्चापुत्र अनगार बोले-'देवानुप्रिय ! जिस प्रकार सुख उपजे वैसा करो।' यह सुनकर 1. पंचम अ. सूत्र 30 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180] [ ज्ञाताधर्मकथा यावत् उत्तरपूर्व दिशा में जाकर शुक परिव्राजक ने त्रिदंड आदि उपकरण यावत् गेरू से रंगे वस्त्र एकान्त में उतार डाले / अपने ही हाथ से शिखा उखाड़ ली / उखाड़ कर जहाँ थावच्चापुत्र अनगार थे, वहाँ आया / अाकर वन्दन-नमस्कार किया, वन्दन-नमस्कार करके मुडित होकर यावत् थावच्चापुत्र अनगार के निकट दीक्षित हो गया। फिर सामायिक से आरम्भ करके चौदह पूर्वो का अध्ययन किया / तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने शुक को एक हजार अनगार (जो उसके साथ दीक्षित हुए थे), शिष्य के रूप मे प्रदान किये / थावच्चापुत्र की मुक्ति ___५२-तए णं थावच्चापुत्ते सोगंधियाओ नीयरीओ नीलासोयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमिता बहिया जणवयविहारं विहरइ / तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धि संपरिवुडे जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता पुंडरीयं पच्चयं सणियं सणियं दुरूहइ / दुरूहित्ता मेघधणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं जाव (पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता जाव संलेहणा-झूसणाझूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए) पाओवगमणं समणुवन्ने। तए णं से थावच्चापुत्ते बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदिता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्ध बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिबुडे सव्वदुक्खप्पहीणे / तत्पश्चात् थावच्चापुत्र अनगार सौगंधिका नगरी से और नीलाशोक उद्यान से बाहर निकले / निकल कर जनपदविहार अर्थात् विभिन्न देशों में विचरण करने लगे / तत्पश्चात् वह थावच्चापुत्र.(अपना अन्तिम समय सन्निकट समझ कर) हजार साधुओं के साथ जहाँ पुण्डरीकशत्रुजय पर्वत था, वहाँ आये / पाकर धीरे-धीरे पुण्डरीक पर्वत पर आरूढ हुए / आरूढ होकर उन्होंने मेघघटा के समान श्याम और जहाँ देवों का आगमन होता था. ऐसे पथ्वी शलापटक का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन करके संलेखना धारण कर पाहार-पानी का त्याग कर उस शिलापट्टक पर आरूढ होकर यावत् पादपोपगमन अनशन ग्रहण किया। तत्पश्चात् वह थावच्चापुत्र बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय पाल कर, एक मास की संलखना करके साठ भक्तों का अनशन करके यावत् केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त करके सिद्ध हुए, बुद्ध हुए, समस्त कर्मों से मुक्त हुए, संसार का अन्त किया, परिनिर्वाण प्राप्त किया तथा सर्व दुःखों से मुक्त हुए। शैलक राजा की दीक्षा 53 --तए णं सुए अन्नया कयाई जेणेव सेलगपुरे नयरे, जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव समोसरिए। परिसा निग्गया, सेलो निग्गच्छइ / धम्म सोच्चा ज णवरं-'देवाणुप्पिया ! पंथगपामोक्खाइं पंच मंतिसयाई आपुच्छामि, मंडुयं च कुमारं रज्जे ठावेमि, तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पन्वयामि / ' 'अहासुहं देवाणुप्पिया !' Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयामि पञ्चम अध्ययन : शैलक ] [ 181 तत्पश्चात् शुक अनगार किसी समय जहाँ शैलकपुर नगर था और जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान था, वहीं पधारे / उन्हें वन्दना करने के लिए परिषद् निकली। शैलक राजा भी निकला। धर्मोपदेश सुनकर उसे प्रतिबोध प्राप्त हुआ / विशेष यह कि राजा ने निवेदन किया-हे देवानुप्रिय ! मैं पंथक आदि पाँच सौ मंत्रियों से पूछ लू-उनकी अनुमति ले लूं और मंडुक कुमार को राज्य पर स्थापित कर दूं। उसके पश्चात् अाप देवानुप्रिय के समीप मुडित होकर गृहवास से निकलकर अनगार-दीक्षा अंगीकार करूंगा।' यह सुनकर, शुक अनगार ने कहा---'जैसे सुख उपजे वैसा करो।' ५४-तए णं से सेलए राया सेलगपुरं नयरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सए गिहे, व बाहिरिया उवदाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता सीहासणं सन्निसन्ने। तए णं से सेलए राया पंथयपामोक्खे पंच मंतिसए सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए सुयस्स अंतिए धम्मे निसंते, से वि य धम्मे मए इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए / अहं णं देवाणुप्पिया ! संसारभयउविग्गे जाव (भीए जम्म-जर-मरणाणं सुयस्स अणगारस्स अंतिए मुडे 1 अगाराओ अणगा / तुब्भे ण देवाणुप्पिया! कि करेह ? कि वसेह ? कि वा ते हियइच्छिए त्ति? तए णं तं पंथयपामोक्खा सेलगं रायं एवं बयासी... 'जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! संसारभयउविग्गे जाव पन्वयह, अम्हाणं देवाणुप्पिया! किमन्ने आहारे वा आलंबे वा ? अम्हे वि य णं देवाणुप्पिया ! संसारभयउब्विग्गा जाव पव्वयामो, जहा देवाणुप्पिया! अम्हं बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य जाव (कुडुबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे मेढी पमाणं आहारे आलंबणं चक्खू, मेढीभूए पमाणभूए आहारभूए आलंबणभूए चक्खुभूए) तहा गं पव्वइयाण वि समाणाणं बहुसु जाव चवखुभूए। तत्पश्चात् शैलक राजा ने शैलकपुर नगर में प्रवेश किया। प्रवेश करके जहाँ अपना घर था और जहाँ बाहर की उपस्थानशाला (राजसभा) थी, वहाँ पाया / आकर सिंहासन पर आसीन हुअा। तत्पश्चात् शैलक राजा ने पथक आदि पांच सौ मंत्रियों को बुलाया / बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! मैंने शुक अनगार से धर्म सुना है और उस धर्म की मैंने इच्छा की है। वह धर्म मुझे रुचा है / अतएव हे देवानुप्रियो ! मैं संसार के भय से उद्विग्न होकर [जन्म-जरा-मरण से भयभीत होकर, शुक अनगार के समीप मुडित होकर गृहत्याग करके अनगार-] दीक्षा ग्रहण कर रहा हूँ। देवानुप्रियो ! तुम क्या करोगे ? कहाँ रहोगे? तुम्हारा हित और अभीष्ट क्या है ? अथवा तुम्हारी हादिक इच्छा क्या है ? तब वे पंथक आदि मंत्री शैलक राजा से इस प्रकार कहने लगे----'हे देवानुप्रिय ! यदि आप संसार के भय से उद्विग्न होकर यावत् प्रवजित होना चाहते हैं, तो हे देवानुप्रिय ! हमारा दुसरा (पृथ्वी की तरह) आधार कौन है ? हमारा (रस्सी के समान) आलंबन कौन है ? अतएव हे देवानुप्रिय ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न होकर दीक्षा अंगीकार करेंगे / हे देवानुप्रिय ! जैसे आप यहाँ गृहस्थावस्था में बहुत से कार्यों में, कुटुम्ब संबंधी विषयों में, मन्त्रणामों में, गुप्त एवं रहस्यमय बातों में, कोई भी निश्चय करने में एक बार और बार-बार पूछने योग्य हैं, मेढी, प्रमाण, आधार, पालं बन Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] [ ज्ञाताधर्मकथा और चक्षुरूप-मार्गदर्शक हैं, मेढी प्रमाण आधार आलंबन एवं नेत्र समान हैं यावत् पाप मार्गदर्शक हैं, उसी प्रकार दीक्षित होकर भी आप बहुत- से कार्यों में यावत् चक्षुभूत (मार्गप्रदर्शक) होंगे। ५५-तए णं से सेलगे पंथगपामोक्खे पंच मंतिसए एवं वयासो-'जइ णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे ससारभयउव्विगा जाव पव्वयह, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया ! सएसु सएसु कुडुबेसु जेठे पुत्ते कुडुबमज्झे ठावेत्ता पुरिस-सहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउन्भवह' त्ति / तहेव पाउन्भवंति। तत्पश्चात् शैलक राजा ने पंथक प्रभति पांच सौ मंत्रियों से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो! यदि तुम संसार के भय से उद्विग्न हुए हो, यावत् दीक्षा ग्रहण करना चाहते हो तो, देवानुप्रियो ! जाप्रो और अपने-अपने कुटुम्बों में अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को कुटुम्ब के मध्य में स्थापित करके अर्थात् परिवार का समस्त उत्तरदायित्व उन्हें सौंप कर हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिविकाओं पर आरूढ होकर मेरे समीप प्रकट होमो-याओ।' यह सुन कर पांच सौ मंत्री अपने-अपने घर चले गये और राजा के आदेशानुसार कार्य करके शिविकाओं पर प्रारूढ होकर वापिस राजा के पास प्रकट हुए-ग्रा पहुंचे। ५६-तए णं से सेलए राया पंच मंतिसयाई पाउब्भवमाणाई पासइ, पासित्ता हतुठे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! मंडुयस्स कुमारस्स महत्थं जाव' रायाभिसेयं उवट्ठवेह० / ' अभिसिंचइ जाव राया जाए, जाव विहरइ / ___तत्पश्चात् शैलक राजा ने पांच सौ मंत्रियों को अपने पास आया देखा / देखकर हृष्ट-तुष्ट होकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर इस प्रकार कहा- 'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही मंडुक कुमार के महान् अर्थ वाले राज्याभिषेक की तैयारी करो।' कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा ही किया / शैलक राजा ने राज्याभिषेक किया। मंडुक कुमार राजा हो गया, यावत् सुखपूर्वक विचरने लगा। 57 ---तए णं से सेलए मंडुयं रायं आपुच्छइ / तए णं से मंडुए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी—'खिप्पामेव सेलगपुरं नयरं आसित्त जाव' गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करित्ता कारवित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।' तए णं से मंडुए दोच्चं पि कोडु वियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव रण्णो महत्थं जाव निक्खमणाभिसेयं जहेव मेहस्स तहेव, णवरं पउमावई देवी अग्गकेसे पडिच्छइ। सम्वे वि पडिग्गहं गहाय सीयं दुल्हंति, अवसेसं तहेव, जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ जाव छठ्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहि मासद्धमासखमहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तत्पश्चात् शैलक ने मंडुक राजा से दीक्षा लेने की आज्ञा मांगी। तब मंडुक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर इस प्रकार कहा-'शोघ्र ही शैलकपुर नगर को स्वच्छ और सिंचित करके सुगंध की बद्री के समान करो और करायो / ऐसा करके और कराकर यह प्राज्ञा मुझ के वापिस सौंपो अर्थात् आज्ञानुसार कार्य हो जाने की मुझे सूचना दो / 1. प्र.अ. 133 2 . प्र. अ. 77 3. प्र. प्र. 133 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक ] [183 तत्पश्चात् मंडुक राजा ने दुबारा कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर इस प्रकार कहा'शीघ्र ही शैलक महाराजा के महान अर्थ वाले (बहुव्ययसाध्य) यावत् दीक्षाभिषेक की तैयारी करो।' जिस प्रकार मेधकुमार के प्रकरण में प्रथम अध्ययन में कहा था, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / विशेषता यह है कि पद्मावती देवी ने शैलक के अग्रकेश ग्रहण किये / सभी दीक्षार्थी प्रतिग्रह-पात्र आदि ग्रहण करके शिविका पर प्रारूढ हुए। शेष वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए / यावत् राषि शैलक ने दीक्षित होकर सामायिक से प्रारम्भ करके ग्यारह अंगों का अध्ययन किया / अध्ययन करके बहुत से उपवास [बेला, तेला, चौला, पंचोला, अर्धमासखमण, मासखमण आदि तपश्चरण करते हुए विचरने लगे। शलक का जनपदविहार ५८–तए णं से सुए सेलयस्स अणगारस्स ताई पंथयपामोक्खाई पंच अगगारसयाइं सीसत्ताए वियरइ। तए णं से सुए अन्नया कयाई सेलगपुराओ नगराओ सुभूमिभागाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तए णं से सुए अणगारे अन्नया कयाइं तेणं अणगारसहस्सेणं सद्धि संपरिवुडे पुव्वाणुयुटिव चरमाणे गामाणुगामं विहरमाणे जेणेव पुंडरीए पव्वए जाव (तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुंडरीयं पवयं सणियं सणियं दुरूहइ, दुरूहित्ता मेघघणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता जाब संलेहणा-झूसणाझूसिए भत्तपाण-पडियाइक्खिए पाओवगमणंणुबन्ने / तए णं से सुए बहणि वासाणि सामण्णपरियागं पाणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं सित्ता, सट्टि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेता तओ पच्छा सिद्ध (बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिबुडे सव्वदुक्खप्पहीणे)। तत्पश्चात् शुक अनगार ने शैलक अनगार को पंथक प्रभृति पाँच सौ अनगार शिष्य रूप में प्रदान किये। __ फिर शुक मुनि किसी समय शैलकपुर नगर से और सुभूमिभाग उद्यान से बाहर निकले / निकलकर जनपदों में विचरने लगे। ___तत्पश्चात् वह शुक अनगार एक बार किसी समय एक हजार अनगारों के साथ अनुक्रम से विचरते हुए, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए अपना अन्तिस समय समीप पाया जानकर पुंडरीक पर्वत पर पधारे / यावत् [पुंडरीक पर्वत पर पधारकर धीरे-धीरे उस पर आरूढ हुए / सघन मेघों के समान कृष्णवर्ण और देवगण जहाँ उतरते हैं ऐसे पृथ्वी-शिलापट्टक का प्रतिलेखन किया यावत् संलेखनापूर्वक आहार-पानी का परित्याग करके, एक मास की संलेखना से आत्मा को भावित करके साठ भक्तों का छेदन करके केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त करके सिद्ध (बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वत और समस्त दुःखों से रहित) हो गये / शैलक मुनि की रुग्णता ५९---तए णं तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स तेहि अंतेहि य, पंतेहि य, तुच्छेहि य, लूहेहि य अरसेहि Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 / [ज्ञाताधर्मकथा य, विरसेहि य, सीएहि य, उण्हेहि य, कालाइक्कतेहि य, पमाणाइक्कंतेहि य णिच्चं पाणभोयणेहि य पयइसुकुमालस्स सुहोचियस्स सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा) जाव दुरहियासा, कंडयदाहपित्तज्जरपरिगयसरीरे यावि विहरइ / तए णं से सेलए तेणं रोगायंकेणं सुक्के जाए यावि होत्था। तत्पश्चात् प्रकृति से सुकुमार और सुखभोग के योग्य शैलक राजर्षि के शरीर में सदा अन्त (चना प्रादि), प्रान्त (ठंडा या बचाखुचा),तुच्छ (अल्प), रूक्ष (रूखा), अरस (हींग आदि के संस्कार से रहित), विरस (स्वादहीन), ठंडा-गरम, कालातिक्रान्त (भूख का समय बीत जाने पर पर प्राप्त) और प्रमाणातिक्रान्त (कम या ज्यादा) भोजन-पान मिलने के कारण वेदना उत्पन्न हो गई / वह बेदना उत्कट यावत् विपुल, कठोर, प्रगाढ, प्रचंड एवं दुस्सह थी / उनका शरीर खुजली और दाह उत्पन्न करने वाले पित्तज्वर से व्याप्त हो गया / तब वह शैलक राजषि उस रोगातंक से शुष्क हो गये, अर्थात उनका शरीर सूख गया / शैलक की चिकित्सा ६०-तए णं से सेलए अन्नया कयाई पुव्वाणुपुटिव चरमाणे जाव (गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव सेलगपुरे नगरे) जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव विहरइ / परिसा निग्गया, मंडुओ वि निग्गओ, सेलयं अणगारं बंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता पज्जुवासइ / तए णं से मंडुए राया सेलयस्स अणगारस्स सरीरयं सुक्कं भक्कं जाव सव्वाबाहं सरोगं पासइ, पासित्ता एवं वयासी—'अहं णं भंते ! तुम्भं अहापवितहि तिगिच्छएहि अहापवित्तेणं ओसहभेसज्जेणं भत्तपाणेणं तिगिच्छं आउट्टामि, तुडभे णं भंते ! मम जाणसालासु समोसरह, फासुअं एसणिज्जं पीढफलग-सेज्जा-संथारगं ओगिम्हित्ताणं विहरह।। तत्पश्चात् शैलक राजर्षि किसी समय अनुक्रम से विचरते हुए यावत् [सुखपूर्वक ग्रामानुग्राम गमन करते हुए जहाँ शैलकपुर नगर था और] जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान था, वहां आकर विचरने लगे / उन्हें वन्दन करने के लिए परिषद् निकली / मंडुक राजा भी निकला। शैलक अनगार को सब ने वन्दन किया, नमस्कार किया / वन्दना-नमस्कार करके उपासना की / उस समय मंडुक राजा ने शैलक अनगार का शरीर शुष्क, निस्तेज यावत् सब प्रकार की पीडा से आक्रान्त और रोगयुक्त देखा। देखकर इस प्रकार कहा 'भगवन् मैं आपकी साधु के योग्य चिकित्सकों से, साधु के योग्य औषध और भेषज के द्वारा तथा भोजन-पान द्वारा चिकित्सा कराना चाहता हूँ / भगवन् ! आप मेरी यानशाला में पधारिए और प्रासुक एवं एषणीय पोठ, फलक, शय्या तथा संस्तारक ग्रहण करके विचरिए / ' ६१-तए णं से सेलए अणगारे मंडुयस्स रण्णो एयमठें तह त्ति पडिसुणेइ / तए णं से मंडुए सेलथं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए / तए णं से सेलए कल्लं जाव (पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्टियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा) जलते सभंडमत्तोवगरणमायाय पंथगपामोखेहि पंचहि अणगारसएहि सद्धि सेलगपुर Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शलक] [ 185 मणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव मंडुयस्स जाणसाला तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता फासुयं पीढ (फलग-सज्जा-संथारयं) जाव (ओगिण्हित्ता) विहरइ / तत्पश्चात् शैलक अनगार ने मंडुक राजा के इस अर्थ को (विज्ञप्ति को) 'ठीक है' ऐसा कहकर स्वीकार किया और राजा वन्दना-नमस्कार करके जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। तत्पश्चात् वह शैलक राजर्षि कल (दूसरे दिन) प्रभात होने पर, सूर्योदय हो जाने के पश्चात् सहस्ररश्मि सूर्य के देदीप्यमान होने पर भंडमात्र (पात्र) और उपकरण लेकर पंथक प्रभृति पाँच सौ मुनियों के साथ शैलकपुर में प्रविष्ट हुए। प्रवेश करके जहाँ मंडुक राजा को यानशाला थी, उधर आये / आकर प्रासुक पीठ फलक शय्या संस्तारक ग्रहण करके विचरने लगे। ६२--तए णं मंडुए राया चिगिच्छए सद्दावेइ, सद्दाविता एवं वयासो-'तुम्भे गं देवाणुप्पिया ! सेलयस्स फासुय-एसणिज्जेणं जाव (ओसह-भेसज-भत्त-पाणण) तेगिच्छं आउटेह।' तए णं तेगिच्छया मंडुएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा सेलयस्य रायरिसिस्स अहापवितहि ओसहभेसज्जभत्तपाहि तेगिच्छं आउटेति / मज्जपाणयं च से उवदिसंति। तए णं तस्स सेलयस्स अहापवित्तेहि जाव मज्जपाणेणं रोगायके उवसंते होत्था, हठे जाव बलियसरीरे (गलियसरीरे) जाए ववगयरोगायंके / तत्पश्चात् मंडुक राजा ने चिकित्सकों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! तुम शैलक राजर्षि की प्रासुक और एषणीय औषध, भेषज एवं भोजन-पान से चिकित्सा करो।' तब चिकित्सक मंडुक राजा के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए। उन्होंने साधु के योग्य औषध, भेषज एवं भोजन-पान से चिकित्सा को और मद्यपान करने की सलाह दी। / तत्पश्चात् साधु के योग्य औषध, भेषज, भोजन-पान से तथा मद्यपान करने से शैलक राजर्षि का रोग-अातंक शान्त हो गया। वह हृष्ट-पुष्ट यावत् बलवान् शरीर वाले हो गये। उनके रोगातंक पूरी तरह दूर हो गए। शैलक को शिथिलता ६३-तए णं से सेलए तंसि रोगायकसि उवसंतंसि समाणंसि, तंसि विपुलंसि असण-पाणखाइम-साइमंसि मज्जपाणए य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने ओसन्ने ओसन्नविहारी एवं पासत्ये पासत्थविहारी, कुसीले कुसीलविहारी, पमत्ते पमत्तविहारी, संसत्ते संसत्तविहारी, उउबद्धपोढ-फलगसेज्जा-संथारए पिमत्ते यावि विहरइ। नो संचाएइ फासूयं एसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरित्तए। तत्पश्चात् शैलक राजर्षि उस रोगातंक के उपशान्त हो जाने पर विपुल प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम में तथा मद्यपान में मूछित, मत्त, गृद्ध और अत्यन्त आसक्त हो गये / वह अवसन्नपालसी अर्थात् आवश्यक आदि क्रियाएं सम्यक् प्रकार से न करने वाले, अवसन्नविहारी अर्थात् लगातार बहुत दिनों तक आलस्यमय जीवन यापन करने वाले हो गए / इसी प्रकार पार्श्वस्थ (ज्ञानदर्शन-चारित्र को एक किनारे रख देने वाले) तथा पार्श्वस्थविहारी अर्थात् बहुत समय तक ज्ञानादि Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [ ज्ञाताधर्मकथा को एक किनारे रख देने वाले, कुशील अर्थात कालविनय आदि भेद वाले ज्ञान दर्शन और चारित्र के आचारों के विराधक, बहुत समय तक विराधक होने के कारण कुशीलविहारी तथा प्रमत्त (पाँच प्रकार के प्रमाद से युक्त), प्रमत्तविहारी, संसक्त (कदाचित् संविग्न के गुणों और कदाचित् पार्श्वस्थ के दोषों से युक्त तथा तीन गौरव वाले) तथा संसक्तविहारी हो गए / शेष (वर्षा-ऋतु के सिवाय) काल में भी शय्या-संस्तारक के लिए पीठ-फलक रखने वाले प्रमादी हो गए। वह प्रासुक तथा एषणीय पीठ फलक आदि को वापस देकर और मंडुक राजा से अनुमति लेकर बाहर जनपद-विहार करने में असमर्थ हो गए। साधुओं द्वारा परित्याग ६४--तए गं तेसि पंथयवज्जाणं पंचण्हं अणगारसयाणं अन्नया कयाइं एगयओ सहियाणं जाव (समुवागयाणं सण्णिसण्णाणं सन्निविट्ठाणं) पुत्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणाणं अयमेयारूवे अज्झथिए (चितिए पस्थिए मणोगए संकप्पे) जाव समुप्पज्जित्था— 'एवं खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रज्जं जाव पवइए, विपुलं णं असण-पाण-खाइम-साइमे मज्जपाणए य मुच्छिए, नो संचाएइ जाव' विहरित्तए, नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया ! समणाणं जाव (निग्गंथाणं ओसन्नाणं पासत्थाणं कुसीलाणं पमत्ताणं संसत्ताणं उउबद्ध-पीढ-फलग-सज्जा-संथारए) पमत्ताणं विहरित्तए। तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं कल्लं सेलयं रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पंथयं अणगारं वेयावच्चकरं ठवेत्ता बहिया अब्भज्जएणं जाव (जणवयविहारेणं) विहरित्तए।' एवं संपेहेंति, संपेहित्ता कल्लं जेणेव सेलए रायरिसी तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सेलयं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पोढ-फलग-सज्जा-संथारयं पच्चप्पिणंति, पच्चप्पिणित्ता पंथयं अणगारं वेयावच्चकरं ठावेंति, ठावित्ता बहिया जाव (जणवविहारं) विहरंति / तत्पश्चात् पंथक के सिवाय वे पाँच सौ अनगार किसी समय इकट्ठे हुए-मिले, एक साथ बैठे / तब मध्य रात्रि के समय धर्मजागरणा करते हुए उन्हें ऐसा विचार, चिन्तन, मानसिक संकल्प उत्पन्न हुग्रा कि-शैलक राजर्षि राज्य आदि का त्याग करके दीक्षित हुए, किन्तु अब विपुल, अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तथा मद्यपान में मूछित हो गये हैं / वह जनपद-विहार करने में समर्थ नहीं हैं। हे देवानुप्रियो ! श्रमणों को अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील, प्रमत्त, संसक्त, शेष काल में भी एक स्थानस्थायी तथा] प्रमादी होकर रहना नहीं कल्पता है / अतएव देवानुप्रियो ! हमारे लिए यह श्रेयस्कर है कि कल शैलक राजर्षि से अाज्ञा लेकर और पडिहारी पीठ फलग शय्या एवं संस्तारक वापिस सौंपकर, पंथक अनगार को शैलक अनगार का वैयावत्यकारी स्थापित करके अर्थात सेवा में नियुक्त करके बाहर जनपद में अभ्युद्यत अर्थात् उद्यम सहित विचरण करें / ' उन मुनियों ने ऐसा विचार किया। विचार करके, कल अर्थात दूसरे दिन शैलक राषि के समीप जाकर, उनकी प्राज्ञा लेकर, प्रतिहारी पीठ फलक शय्या संस्तारक वापिस दे दिये / वापिस देकर पंथक अनगार को वैयाबृत्यकारी नियुक्त किया--उनकी सेवा में रखा / रखकर बाहर देश-देशान्तर में विचरने लगे। विवेचन राषि शैलक शिथिलाचार के केन्द्र बन गए. यह घटना न असंभव है. न विस्मयजनक / चिकित्सकों से साधुधर्म के अनुसार चिकित्सा करने के लिए कहा गया था, फिर भी उनका 1. पंचम प्र. 63 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक ] [187 मद्यपान करने का परामर्श अटपटा प्रतीत होता है। किन्तु यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात उनके शिष्यों का विनय-विवेक है / उन्होंने जब विहार करने का निर्णय किया तब भी शैलक ऋषि के प्रति उनके मन में दुर्भावना नहीं है, घृणा नहीं है, विरोध का भाव नहीं है। सम्बन्ध-विच्छेद की कल्पना भी नहीं है / वे शैलक की अनुमति लेकर ही विहार करने का निश्चय करते हैं और एक मुनि पंथक को उनकी सेवा में छोड़ जाते हैं। इससे संकेत मिलता है कि अपने को उग्राचारी मान कर अभिमान करने और दूसरे को हीनाचारी होने के कारण घृणित समझने की मनोवृत्ति उनमें नहीं थी / बास्तव में साधू का हृदय विशाल और उदार होना चाहिए। इस उदार व्यवहार का सुफल शैलक ऋषि का पुन: अपनी साधु-मर्यादा में लौटने के रूप में हुआ। ६५--तए णं से पंथए सेलयस्स सेज्जा-संथारय-उच्चार-पासवण-खेल-संघाण-मत्त ओसहभेसज्ज-भत्त-पाणएणं अगिलाए विणएणं वेयावडियं करेइ / तए णं से सेलए अन्नया कयाई कत्तियचाउम्मासियंसि विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं आहारमाहारिए सबहुं मज्जपाणयं पीए पुन्वावरण्हकालसमयंसि सुहप्पसुत्ते / तब वह पंथक अनगार शैलक राजर्षि की शय्या, संस्तारक, उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, संघाण (नासिकामल) के पात्र, औषध, भेषज, पाहार, पानी आदि से विना ग्लानि, विनयपूर्वक वैयावृत्य करने लगे। तत्पश्चात् किसी समय शैलक राजर्षि कार्तिकी चौमासी के दिन विपुल प्रशन, पान, खादिम, और स्वादिम आहार करके और बहुत अधिक मद्यपान करके सायंकाल के समय पाराम से सो रहे थे। शैलक का कोप ६६-तए णं से पंथए कत्तियचाउम्मासियंसि कयकाउस्सग्गे देवसियं पडिक्कमणं पडिक्कते चाउम्मासियं पडिक्कमिउंकामे सेलयं रायरिसिं खामणट्टयाए सोसेणं पाएसु संघट्टेइ / तए णं से सेलए पंथएणं सोसेणं पाएसु संघट्टिए समाणे आसुरुत्ते जाव (रुठे कुविए चंडिक्किए) मिसमिसेमाणे उठेइ, उद्वित्ता एवं वयासी--'से केस णं भो ! एस अपत्थियपत्थिए जाव (दुरंतपंतलक्खणे होणपुण्णचाउद्दसिए सिरि-हिरि-धिइ-कित्ति-) परिवज्जिए जे णं ममं सुहपसुतं पाएसु संघट्टेइ ?' उस समय पंथक मुनि ने कार्तिक की चौमासो के दिन कायोत्सर्ग करके देवसिक प्रतिक्रमण करके, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करने की इच्छा से शैलक राजर्षि को खमाने के लिए अपने मस्तक से उनके चरणों को स्पर्श किया। पंथक के द्वारा मस्तष्क से चरणों का स्पर्श करने पर शैलक राजर्षि एकदम क्रुद्ध हुए, यावत् [रुष्ट हुए, कुपित हुए, अत्यन्त उग्र हो गए,] क्रोध से भिसमिसाने लगे और उठ गये। उठकर बोले'अरे, कौन है यह अप्रार्थित (मौत) की इच्छा करने वाला, यावत् [अत्यन्त अपलक्षण वाला, काली पापी चतुर्दशी का जन्मा, श्री ह्री (लज्जा) धृति और कोति से] सर्वथा शून्य, जिसने सुखपूर्वक सोये हुए मेरे पैरों का स्पर्श किया ? Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188] [ज्ञाताधर्मकथा पंथक की क्षमाप्रार्थना ६७-तए णं से पंथए सेलएणं एवं वुत्ते समाणे भीए तत्थे तसिए करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटट एवं वयासी-.-'अहं णं भंते ! पंथए कयकाउस्सग्गे पडिक्कते, चाउम्मासियं पडिक्कते चाउम्मासियं खामेमाणे देवाणुप्पियं वंदमाणे सोसेणं पाएसु संघट्टेमि / तं खमंतु णं देवाणुप्पिया ! खमंतु मेऽवराह, तुम णं देवाणुप्पिया ! णाइभुज्जो एवं करणयाए' ति कटु सेलयं अणगारं एयमलैंसम्म विणएणं भुज्जो खामेइ / शैलक ऋषि के इस प्रकार कहने पर पंथक मुनि भयभीत हो गये, त्रास को और खेद को प्राप्त हुए। दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके कहने लगे-'भगवन् ! मैं पंथक हूँ। मैंने कायोत्सर्ग करके देवसिक प्रतिक्रमण किया है और चौमासी प्रतिक्रमण करता हूँ। अतएव चौमासी खामणा देने के लिए आप देवानुप्रिय को वन्दना करते समय, मैंने अपने मस्तक से आपके चरणों का स्पर्श किया है / सो देवानुप्रिय ! क्षमा कीजिए, मेरा अपराध क्षमा कीजिए / देवानुप्रिय ! फिर ऐसा नहीं करूंगा।' इस प्रकार कह कर शैलक अनगार को सम्यक् रूप से, विनयपूर्वक इस अर्थ (अपराध) के लिए वे पुनः-पुनः खमाने लगे। शैलक का पुनर्जागरण ६८–तए णं सेलयस्स रायरिसिस्स पंथएणं एवं बुत्तस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुष्पज्जित्था---'एवं खलु अहं रज्जं च जाव ओसन्नो जाव उउबद्धपीढ-फलग-सज्जा-संथारए पमत्ते विहरामि / तं नो खलु कप्पइ समणाणं णिग्गंथाणं पासस्थाणं जाव विहरित्तए / तं सेयं खलु मे कल्लं मंडुयं रायं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीठ-फलग-सज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता पंथएणं अणगारेणं सद्धि बहिया अब्भुज्जएणं जाव जणवयविहारेणं विहरित्तए / ' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव विहरइ / पंथक के द्वारा इस प्रकार कहने पर उन शैलक राजर्षि को इस प्रकार का यह विचार उत्पन्न हुमा-'मैं राज्य आदि का त्याग करके भी यावत् अवसन्न-पालसी आदि होकर शेष काल में भी पीठ, फलक आदि रख कर विचर रहा हूँ-रह रहा हूँ / श्रमण निर्ग्रन्थों को पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी होकर रहना नहीं कल्पता / अतएव कल मंडुक राजा से पूछ कर, पडिहारी पोठ, फलक, शय्या और संस्तारक वापिस देकर, पंथक अनगार के साथ, बाहर अभ्युद्यत (उग्र) विहार से विचरना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है।' उन्होंने ऐसा विचार किया। विचार करके दूसरे दिन यावत् उसी प्रकार करके विहार कर दिया। ६९-एवामेव समणांउसो ! जो निग्गंथो वा निग्गंथी वा ओसन्ने जाव संथारए पमत्ते विहरइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणोणं बहूर्ण साक्याणं बहूणं सावियाणं होलणिज्जे, संसारो भाणियव्वो। हे आयुष्मन् श्रमणो ! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी आलसी होकर, संस्तारक आदि के विषय में प्रमादी होकर रहता है, वह इसी लोक में बहुत-से श्रमणों, बहुत-सी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं की हीलना का पात्र होता है / यावत् वह चिरकाल पर्यन्त संसार-भ्रमण करता है / यहाँ संसार-परिभ्रमण का विस्तृत वर्णन पूर्ववत कह लेना चाहिए। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक] [189 अमगारों का मिलन ७०-तए णं ते पंथगवज्जा पंच अणगारसया इमीसे कहाए लट्ठा समाणा अन्नमन्नं सद्दार्वेति, सद्दावित्ता एवं वयासो—'सेलए रायरिसी पंथएणं बहिया जाव विहरइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सेलयं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए।' एवं संपेहेंति, संपेहित्ता सेलयं रायरिसि उवसंपज्जित्ता णं विहरंति / तत्पश्चात् पंथक को छोड़कर पाँच सौ अनगारों (अर्थात् 499 मुनियों) ने यह वृत्तान्त जाना। तब उन्होंने एक दूसरे को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा- 'शैलक राजर्षि पंथक मुनि के साथ बाहर यावत उग्र विहार कर रहे हैं तो हे देवानुप्रियो ! अब हमें शैलक राजर्षि के समीप चल कर विचरना उचित है / ' उन्होंने ऐसा विचार किया / विचार करके राजर्षि शैलक के निकट जाकर विचरने लगे। 71 -तए णं ते सेलगपामोक्खा पंच अणगारसया बहणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणित्ता जेणेव पोंडरीए पवए तेणेव उवागच्छति / उवागच्छिता जहेव थावच्चापुत्ते तहेव सिद्धा। तत्पश्चात् शैलक प्रभृति पाँच सौ मुनि बहुत वर्षों तक संयमपर्याय पाल कर जहाँ पुंडरीक--- शत्रुजय पर्वत था, वहाँ पाये / पाकर थावच्चापुत्र की भाँति सिद्ध हुए। उपसंहार ७२--एवामेव समणाउसो ! जो निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव विहरिस्सइ०, एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं पंचमस्स नायज्झयणस्स अयमठे पन्नतेत्ति बेमि / / इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो साधु या साध्वी इस तरह विचरेगा वह इस लोक में बहुसंख्यक साधुओं, साध्वियों, श्रावकों और श्राविकाओं के द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, नमनीय, पूजनीय, सत्करणीय और सम्माननीय होगा। कल्याण, मंगल, देव और चैत्य स्वरूप होगा / विनयपूर्वक उपासनीय होगा। परलोक में उसे हाथ, कान एवं नासिका के छेदन के, हृदय तथा वृषणों के उत्पाटन के एवं फाँसी आदि के दु.ख नहीं भोगने पड़ेंगे / अनादि अनन्त चातुर्गतिक संसार-कान्तार में उसे परिभ्रमण नहीं करना पड़ेगा / वह सिद्धि प्राप्त करेगा। हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने पाँचवें ज्ञात अध्ययन का यह अर्थ कहा है / उनके कथनानुसार मैं कहता हूँ। // पंचम अध्ययन समाप्त / / Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन : तुम्बक सार: संक्षेप छठा अध्ययन स्वतः सार-संक्षेपमय है / उसका सार अथवा संक्षिप्त रूप अलग से लिखने की आवश्यकता नहीं है / तथापि जो शैली अपनाई गई है, उसे अक्षुण्ण रखने के लिए किचित् लिखना आवश्यक है। प्रस्तुत अध्ययन में जो प्रश्नोत्तर हैं, वे राजगृह नगर में सम्पन्न हुए / राजगृह नगर भगवान् महावीर के विहार का मुख्य स्थल रहा है। गौतम स्वामी ने जीवों की गुरुता और लघुता के विषय में प्रश्न किया है / व्यवहारनय की दृष्टि से गुरुता अधःपतन का कारण है और लघुता ऊर्ध्वगति का कारण है। किन्तु यहाँ जीव की गुरुता-लघुता का ही विचार किया गया है / भगवान् का उत्तर सोदाहरण है / तुम्बे का उदाहरण देकर समझाया गया है / जीव तुम्बे के समान है / अष्ट कर्मप्रकृतियाँ मिट्टी के पाठ लेपों के समान हैं / संसार जलाशय के समान है। जैसे मिट्टी के आठ लेपों के कारण भारी हो जाने से तुम्बा जलाशय के अधः-तलभाग में चला जाता है और लेप-रहित होकर ऊर्ध्वगति करता है.~ऊपर आ जाता है / इसी प्रकार संसारी जीव आठ कर्म-प्रकृतियों से भारी होकर नरक जैसी अधोगति का अतिथि बनता है और जब संवर एवं निर्जरा की उत्कृष्ट साधना करके इन कर्म-प्रकृतियों से मुक्त हो जाता है, तब अपने स्वयंसिद्ध ऊर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के अग्रभाग पर जाकर प्रतिष्ठित हो जाता है। 'लोयग्गपइदाणा भवति इस वाक्यांश द्वारा जैन परम्परा की मान्यता को द्योतित किया गया है / मोक्ष के विषय में एक मान्यता ऐसी है कि मुक्त जीव अनन्त काल तक, निरन्तर ऊर्ध्वगमन करता ही रहता है, कभी कहीं रुकता नहीं। इस मान्यता का इस वाक्यांश के द्वारा निषेध किया गया है। ___एक मान्यता यह भी है कि मुक्त जीव की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती, एक विराट सत्ता में उसका विलीनीकरण हो जाता है। मुक्त जीव अपनी पृथक् सत्ता गंवा देता है। इस मान्यता का भी विरोध हो जाता है। मुक्त जीव लोकाग्र पर प्रतिष्ठित रहते हैं, उन की पृथक सत्ता रहती है, यही मान्यता समीचीन है / Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठं अज्झयणं : तुंबए उत्क्षेप १–'जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, छट्ठस्स णं भंते ! णायज्झयणस्त समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते ?' श्री जम्बू स्वामी ने सुधर्मा स्वामी से प्रश्न किया-भगवन् ! यदि श्रमण यावत् सिद्धि को प्राप्त भगवान् महावीर ने पांचवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है (जो आपने फर्माया) तो हे भगवन् ! छठे ज्ञाताध्ययन का यावत् सिद्धि को प्राप्त थमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? २–एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं नयरे होत्था। तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए नामं राया होत्या / तस्स णं रायगिहस्स बहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभाए एत्थ णं गुणसिलए नामं चेइए होत्था। श्री सूधर्मा स्वामी ने जम्व स्वामी के प्रश्न के उत्तर में कहा--जम्बू ! उस काल और समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था। उस राजगृह नगर के बाहर उत्तरपूर्वदिशा में--ईशानकोण में गुणशील नामक चैत्य (उद्यान) था। राजगृह में भगवान् का आगमन 3 तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणव्वि चरमाणे जाव जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेब समोसढे / अहापडिरूवं उग्गहं गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / परिसा निम्गया, सेणिओ वि निग्गओ, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् सहावीर अनुक्रम से विचरते हुए, यावत् जहाँ राजगह नगर था और जहाँ गुणशील चैत्य था, वहाँ पधारे / यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके संय और तप से आत्मा को भावित करते हए विचरने लगे / भगवान को वन्दना करने के लिए परिषद निकली / श्रेणिक राजा भी निकला / भगवान् ने धर्मदेशना दी / उसे सुनकर परिषद् वापिस चली गुरुता-लघुता संबंधी प्रश्न 4 तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते जाव' सुक्कज्झाणोवगए विहरइ / तए णं से इंदभूई नाम अणगारे जायसड्ढे जाव एवं क्यासी—'कहं णं भंते ! जीवा गुरुयत्तं वा लहुयत्तं वा हव्वमागच्छंति ?' 1. प्रौपपातिक सूत्र 82 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [ज्ञाताधर्मकथा उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के जेष्ठ (प्रथम) शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार श्रमण भगवान् महावीर से न अधिक दूर और न अधिक समीप स्थान पर रहे हुए यावत् निर्मल उत्तम ध्यान में लीन होकर विचर रहे थे। तत्पश्चात् जिन्हें श्रद्धा उत्पन्न हुई है ऐसे इन्द्रभूति अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से इस प्रकार प्रश्न किया-'भगवन् ! किस प्रकार जीव शीघ्र ही गुरुता अथवा लघुता को प्राप्त होते हैं ?' भगवान् का समाधान ५-'गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं सुक्कं तुबं णिच्छिदं निरुवहयं दम् हिं कुसेहि वेढेइ, वेढिता मट्टियालेवेणं लिपइ, उण्हे दलयइ, दलइता सुक्कं समाणं दोच्चं पि दभेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेदिता मट्टियालेवेणं लिपइ, लिपित्ता उण्हे सुक्कं समाणं तच्चं पि दबभेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेढिसा मट्टियालेवेणं लिपइ। एवं खलु एएणवाएणं अंतरा वेढेमाणे अंतरा लिपेमाणे, अंतरा सक्कवेमाणे जाव अहि मट्रियालेवेहिं आलिपइ, अत्थाहमतारमपोरिसियंसि उदगंसि पक्खिवेज्जा / से णूणं गोयमा ! से तुबे तेसि अटुण्हं मट्टियालेवेणं गुरुययाए भारिययाए गरुयभारिययाए उप्पि सलिलमइवइत्ता अहे धरणियलपइट्ठाणे भवइ / एवामेव गोयमा ! जीवा वि पाणाइवाएणं जाव (मुसावाएणं अदिण्णादाणेणं मेहुणेणं परिग्गहेणं जाव) मिच्छादसणसल्लेणं अणुपुत्वेणं अट्ठकम्मपगडीओ समज्जिणंति / तासि गरुययाए भारिययाए गरुयभारिययाए कालमासे कालं किच्चा धरणियलमइवइत्ता अहे नरगतलपइट्ठाणा भवंति / एवं खलु गोयमा ! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति / गौतम ! यथानामक-कुछ भी नाम वाला, कोई पुरुष एक बड़े, सूखे, छिद्ररहित और अखंडित तुबे को दर्भ (डाभ) से और कुश (दूब) से लपेटे और फिर मिट्टी के लेप से लीपे, फिर धूप में रख दे / सूख जाने पर दूसरी बार दर्भ और कुश से लपेटे और मिट्टी के लेप से लोप दे। लीप कर धूप में सूख जाने पर तीसरी बार दर्भ और कुश से लपेटे और लपेट कर मिट्टी का लेप चढ़ा दे / सुखा ले / इसी प्रकार, इसी उपाय से बीच-बीच में दर्भ और कुश से लपेटता जाये, बीच-बीच में लेप चढ़ाता जाये और बीच-बीच में सुखाता जाये, यावत् आठ मिट्टी के लेप उस तुबे पर चढ़ावे। फिर उसे अथाह, जिसे तिरा न जा सके और अपौरुषिक (जिसे पुरुष की ऊँचाई से नापा न जा सके) जल में डाल दिया जाये। तो निश्चय ही हे गौतम ! वह तुबा मिट्टी के आठ लेपों के कारण गुरुता को प्राप्त होकर, भारी होकर तथा गुरु एवं भारी होकर ऊपर रहे हुए जल को पार करके नीचे धरती के तलभाग में स्थित हो जाता है। इसी प्रकार हे गौतम ! जीव भी प्राणातिपात से यावत् (मृषावाद से, अदत्तादान से, मैथुन और परिग्रह से यावत्) मिथ्यादर्शन शल्य से अर्थात् अठारह पापस्थानकों के सेवन से क्रमशः पाठ कर्म-प्रकृतियों का उपार्जन करते हैं / उन कर्मप्रकृतियों की गुरुता के कारण, भारीपन के कारण और गुरुता के भार के कारण मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त होकर, इस पृथ्वी-तल को लांघ कर नीचे नरक-तल में स्थित होते हैं। इस प्रकार गौतम ! जीव शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [193 षष्ठ अध्ययन : तुम्बक] ६-अह णं गोयमा ! से तुम्बे तंसि पढमिल्लुगंसि मट्टियालेसि तित्तंसि कुहियंसि परिसडियंसि ईसि धरणियलाओ उप्पइत्ता णं चिटुइ। तयाणंतरं च णं दोच्चं पि मट्टियालेवे जाव (तित्ते कुहिए परिसडिए ईसि धरणियलाओ) उप्पइत्ता गं चिट्ठइ। एवं खलु एएणं उवाएणं तेसु अट्ठसु मट्टियालेवेसु जाव विमुक्कबंधणे अहे धरणियलमइवइत्ता उप्पि सलिलतलपट्ठाणे भवइ / अब हे गौतम ! उस तुम्बे का पहला (ऊपर का) मिट्टी का लेप गीला हो जाय, गल जाय और परिशटित (नष्ट) हो जाय तो वह तुम्बा पृथ्वीतल से कुछ ऊपर आकर ठहरता है। तदनन्तर दूसरा मृतिकालेप गीला हो जाय, गल जाय, और हट जाय तो तुम्बा कुछ और ऊपर आ जाता है। इस प्रकार, इस उपाय से उन आठों मृतिकालेपों के गीले हो जाने पर यावत् हट जाने पर तुम्बा निर्लेप, बंधनमुक्त होकर धरणीतल से ऊपर जल की सतह पर आकर स्थित हो जाता है। ७-एवामेव गोयमा ! जीवा पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसण-सल्लवेरमणेणं अणुपुग्वेणं अट्टकम्मपगडीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पइत्ता उप्पि लोयग्गपइट्ठाणा भवंति / एवं खलु गोयमा ! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति / इसी प्रकार, हे गौतम ! प्राणातिपातविरमण यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविरमण से अर्थात् अठारह पापों के त्याग से जीव क्रमश: आठ कर्मप्रकृतियों का क्षय करके ऊपर आकाशतल की ओर उड़ कर लोकाग्र भाग में स्थित हो जाते हैं / इस प्रकार हे गौतम ! जीव शीघ्र लघुत्व को प्राप्त करते हैं। उपसंहार ८-एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं छट्ठस्स नायज्शयणस्स अयमढे पन्नत्ते त्ति बेमि। श्री सुधर्मा स्वामी अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने छठे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है / वही मैं तुमसे कहता हूँ। // छठा अध्ययन समाप्त / / Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : रोहिणीशात सार : संक्षेप राजगृह नगर में सार्थवाह धन्य के चार पुत्र थे-धनपाल, धनदेव, धनगोप और धनरक्षित / चारों विवाहित हो चुके थे। उनकी पत्नियों के नाम अनुक्रम से इस प्रकार थे--उज्झिता या उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी।। धन्य सार्थवाह बहुत दूरदर्शी थे-भविष्य का विचार करने वाले / उनकी उम्र जब परिपक्व हो गई तब एक बार वे विचार करने लगे—मैं वृद्धावस्था से ग्रस्त हो गया हूँ। मेरे पश्चात् कुटुम्ब की सुव्यवस्था कैसे कायम रहेगी ? मुझे अपने जीवन-काल में ही इसकी व्यवस्था कर देनी चाहिए / इस प्रकार विचार कर धन्य ने मन ही मन एक योजना निश्चित कर ली।। योजना के अनुसार उन्होंने एक दिन अपने ज्ञातिजनों, संबंधियों, मित्रों आदि को आमंत्रित किया। भोजनादि से सब का सत्कार-सन्मान किया और तत्पश्चात् अपनी चारों पुत्रवधुओं को सब के समक्ष बुलाकर चावलों के पांच-पांच दाने देकर कहा-'मेरे माँगने पर ये पाँच दाने वापिस सौंपना।' _पहली पुत्रवधू उज्झिता ने विचार किया-बुढ़ापे में श्वसुरजी की मति मारी गई जान पड़ती है। इतना बड़ा समारोह करके यह तुच्छ भेट देने की उन्हें सूझी ! इस पर तुर्रा यह कि माँगने पर वापिस लौटा देने होंगे ! कोठार में चावलों के दानों का ढेर लगा है। माँगने पर उनमें से दे दूंगी।' ऐसा विचार करके उसने वे दाने कचरे में फेंक दिये।। दूसरी पुत्रवधू ने सोचा-'भले ही इन दानों का कुछ मूल्य न हो तथापि श्वसुरजी का यह प्रसाद है / फेंक देना उचित नहीं।' इस प्रकार विचार करके उसने वे दाने खा लिए / तीसरी ने विचार किया 'अत्यन्त व्यवहारकुशल अनुभवी और समृद्धिशाली वृद्ध श्वसुरजी ने इतने बड़े समारोह में ये दाने दिए हैं / इसमें उनका कोई विशिष्ट अभिप्राय होना चाहिए / अतएव इन दानों की सुरक्षा करना, इन्हें जतन से संभाल रखना चाहिए।' इस प्रकार सोच कर उसने उन्हें एक डिबिया में रख लिया और सदा उनकी सार-संभाल रखने लगी। ___ चौथी पुत्रवधू रोहिणी बहुत बुद्धिमती थी। वह समझ गई कि दाने देने में कोई गूढ़ रहस्य निहित है / यह दाने परीक्षा की कसौटी बन सकते हैं। उसने पांचों दाने अपने मायके (पितृगृह-पीहर) भेज दिए / उसकी सूचनानुसार मायके वालों ने उन्हें खेत में अलग वो दिया। प्रतिवर्ष वारंवार बोने से दाने बहुत हो गए-कोठार भर गया / __इस घटना को पांच वर्ष व्यतीत हो गए। तब धन्य सार्थवाह ने पुनः पूर्ववत् समारोह प्रायोजित किया / जिन्हें पहले निमंत्रित किया था उन सब को पुनः निमंत्रित किया। सब का भोजन Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : रोहिणीज्ञात ] [195 पान, गंध-माला आदि से सत्कार किया / तत्पश्चात् पहले की ही भांति पुत्रवधुओं को सबके समक्ष बुला कर पांच-पांच दाने, जो पहले दिए थे, वापिस मांगे। पहली पुत्रवधू ने कोठार में से लाकर पांच दाने दे दिए / धन्य सार्थवाह ने जब पूछा कि क्या . ये वही दाने हैं या दूसरे ? तो उसने सत्य वृत्तान्त कह दिया / सुन कर सेठ ने कुपित होकर उसे घर में झाड़ने-बुहारने आदि का काम सौंपा / कहा- तुम इसी योग्य हो। दूसरी पुत्रवध ने कहा-'आपका दिया प्रसाद समझ कर मैं उन दानों को खा गई है।' सार्थवाह ने उसके स्वभाव का अनुमान करके उसे भोजनशाला संबंधी कार्य सौंपा। तोसरी पुत्रवधू ने पाँचों दाने सुरक्षित रक्खे थे, अतएव उसे कोषाध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया। चौथी पुत्रवधू ने कहा-पिताजी, वे पांच दाने गाड़ियों के विना नहीं आ सकते / उन्हें लाने को कई गाडियां चाहिए। जब धन्य सार्थवाह ने स्पष्टीकरण मांगा तो उसने सारा ब्यौरा सुना दिया / गाड़ियां भेजी गई / दानों का ढेर पा गया / धन्य यह देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए / सब के समक्ष रोहिणी की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसे गृहस्वामिनी के गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित किया। कहा-'तू प्रशंसनीय है बेटी ! तेरे प्रताप से यह परिवार सुखी और समृद्धिशाली रहेगा।' / शास्त्रकार इस उदाहरण को धर्म-शिक्षा के रूप में इस प्रकार घटित करते हैं जो व्रती व्रत ग्रहण करके उन्हें त्याग देते हैं, वे पहली पुत्रवधू उज्झिता के समान इह-परभव में दुःखी होते हैं / सब की अवहेलना के भाजन बनते हैं / जो साधु पाँच महाव्रतों को ग्रहण करके सांसारिक भोग-उपभोग भोगने के लिए उनका उपयोग करते हैं, वे भी निंदा के पात्र बन कर भवभ्रमण करते हैं। जो साधु तीसरी पुत्रवधू रक्षिका के सदृश अंगीकृत पाँच महाव्रतों की भलीभांति रक्षा करते हैं, वे प्रशंसा-पात्र होते हैं और उनका भविष्य मंगलमय होता है। जो साधु रोहिणी के समान स्वीकृत संयम की उत्तरोत्तर वृद्धि करते हैं, निर्मल और निर्मल तर पालन करके संयम का विकास करते हैं, वे परमानन्द के भागी होते हैं / यद्यपि प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार धर्मशिक्षा के रूप में किया गया है और धर्मशास्त्र का उद्देश्य मुख्यतः धर्मशिक्षा देना ही होता है, तथापि उसे समझाने के लिए जिस कथानक की योजना की गई है वह गार्ह स्थिक-पारिवारिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। 'योग्यं योग्येन योजयेत्' यह छोटी-सी उक्ति अपने भीतर विशाल अर्थ समाये हुए है। प्रत्येक व्यक्ति में योग्यता होती है किन्तु उस योग्यता का सुपरिणाम तभी मिलता है जब उसे अपनी योग्यता के अनुरूप कार्य में नियुक्त किया जाए / मूलभूत योग्यता से प्रतिकूल कार्य में जोड़ देने पर योग्य से योग्य व्यक्ति भी अयोग्य सिद्ध होता है। उच्चतम कोटि का प्रखरमति विद्वान बढ़ई-सुथार के कार्य में अयोग्यतम बन जाता है। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196] [ ज्ञाताधर्मकथा मगर 'योजकस्तत्र दुर्लभः' अर्थात् योग्यतानुकूल योजना करने वाला कोई विरला ही होता है / धन्य सार्थवाह उन्हीं विरल योजकों में से एक था। अपने परिवार की सुव्यवस्था करने के लिए उसने जिस सूझ-बूझ से काम लिया वह सभी के लिए मार्गदर्शक है / सभी इस उदाहरण से लौकिक और लोकोत्तर कार्यों को सफलता के साथ सम्पन्न कर सकते हैं। उदाहरण से स्पष्ट है कि प्राचीन काल में संयुक्त परिवार की प्रथा थी। वह अनेक दृष्टियों से उपयोगी और सराहनीय थी। उससे आत्मीयता की परिधि विस्तृत बनती थी और सहनशीलता आदि सद्गुणों के विकास के अवसर सुलभ होते थे। आज यद्यपि शासन-नीति, विदेशी प्रभाव एवं तज्जन्य संकीर्ण मनोवृत्ति के कारण परिवार विभक्त होते जा रहे हैं, तथापि इस प्रकार के उदाहरणों से हम बहुत लाभ उठा सकते हैं। चारों पुत्रवधुओं ने विना किसी प्रतिवाद के मौन भाव से अपने श्वसुर के निर्णय को स्वीकार कर लिया / वे भले मौन रहीं, पर उनका मौन ही मुखरित होकर पुकार कर, हमारे समक्ष अनेकानेक स्पृहणीय संदेश-सदुपदेश सुना रहा है। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झयणं : रोहिणीजाए उत्क्षेप १--जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स नायज्झयणस्य अयमढे पण्णत्ते, सत्तमस्स णं भंते ! नायज्मयणस्स के अट्ठे पण्णते ? श्री जम्बू स्वामी ने सुधर्मा स्वामी से प्रश्न किया---भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान् महावीर ने छठे ज्ञात-अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा है तो भगवन् ! सातवें ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? धन्य सार्थवाह २–एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था। तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए नामं राया होत्था। तस्स णं रायगिहस्स गयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए सुभूमिभागे उज्जाणे होत्था। तत्य णं रायगिहे नयरे धण्णे नामं सत्थवाहे परिवसइ अड्ढे जाव' अपरिभूए। तस्स णं धण्णस्स सस्थवाहस्स भद्दा नाम भारिया होत्था, अहोणचिदियसरीरा जाव' सुरुवा।। श्री सुधर्मा स्वामी उत्तर देते हैं-जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था। राजगृह नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशा-ईशानकोण में सुभूमिभाग उद्यान था। उस राजगृह नगर में धन्य नामक सार्थवाह निवास करता था, वह समृद्धिशाली था, [उसके यहाँ बहत शय्या, प्रासन, भवन, यान, वाहन थे, दास, दासियाँ, गायें, भैंसें थीं, सोना-चाँदी, धन था / वह किसी से पराभूत होने वाला नहीं था। उस धन्य सार्थवाह की भद्रा नामक भार्या थी। उसकी पाँचों इन्द्रियाँ और शरीर के अवयव परिपूर्ण थे, यावत् [उसकी चाल, हास्य, भाषण सुसंगत था, मर्यादानुकूल था, उसे देखकर प्रसन्नता होती थी, अभिरूप एवं प्रतिरूप थी / वह सुन्दर रूप वाली थी। 3 - तस्स गं धण्णस्स सत्यवाहस्स पुत्ता भद्दाए भारियाए अत्तया चत्तारि सस्थवाहदारया होत्था, तंजहा-धणपाले, धणदेवे, धणगोवे, धणरविखए / - तस्स णं धण्णस्स सस्थवाहस्स चउण्हं पुत्ताणं भारियाओ चत्तारि सुण्हाओ होत्था, तंजहा--- उज्झिया, भोगवइया, रक्खिया, रोहिणिया। उस धन्य सार्थवाह के पुत्र और भद्रा भार्या के प्रात्मज (उदरजात) चार सार्थवाह-पुत्र थे। उनके नाम इस प्रकार थे---धनपाल, धनदेव, धनगोप, धनरक्षित / 1. द्वि अ. 6 2. द्वि. अ. 6 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 [ ज्ञाताधर्मकथा उस धन्य सार्थवाह के चार पुत्रों की चार भार्याएँ-सार्थवाह की पुत्रवधुएँ थीं। उनके नाम इस प्रकार हैं-उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी। परिवारचिन्ता : परीक्षा का विचार ४-तए णं तस्स सत्थवाहस्स अन्नया कयाई पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था—‘एवं खलु अहं रायगिहे पयरे बहूणं राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इन्भसेट्ठि-सेणावइ-सत्यवाहपभिईणं सयस्स य कुडुबस्स बहुसु कज्जेसु य, करणिज्जेसु य, कुडुबेसु य, मंतणेसु य, गुज्झेसु य, रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिज्जे, मेढी, पमाणे, आहारे, आलंबणे, चक्खू, मेढीभूए, पमाणभूए, आहारभूए, आलंबणभूए, चक्खूभूए सव्वकज्जवड्ढावए / तं ण णज्जइ जं मए गयंसि वा, चुयंसि वा, मयंसि वा, भग्गंसि वा, लुग्गंसि वा, सडियंसि वा, पडियंसि वा, विदेसत्यंसि वा, विप्पसियंसि वा, इमस्स कुडुबस्स कि मन्ने आहारे वा आलंबे वा पडिबंधे वा भविस्सइ ? त सेयं खलु मम कल्लं जाव जलते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता मित्तगाइ-णियग-सयण-संबंधि-परियणं चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवगं आमंतेत्ता तं मित्त-णाइ-णियग-सयण परियणं चउण्ड य सुण्हाणं कुलघरवम्गं विपलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं धवष्फवस्थगंध(मल्लालंकारेण य) जाव सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्त-णाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवम्गस्स पुरओ चउण्हं सुण्हाणं परिक्खणट्ठयाए पंच पंच सालिअक्खए दलइत्ता जाणामि ताव का किहं वा सारक्खेइ वा, संगोवेइ वा, संवड्ढेइ वा ? धन्य सार्थवाह को किसी समय मध्य रात्रि में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ-'इस प्रकार निश्चय ही मैं राजगृह नगर में राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह प्रादि-आदि के और अपने कुटुम्ब के भी अनेक कार्यों में, करणीयों में, कुटुम्ब सम्बन्धी कार्यों में, मन्त्रणाओं में, गुप्त बातों में, रहस्यमय बातों में, निश्चय करने में, व्यवहारों (व्यापार) में, पूछने योग्य, बारम्बार पूछने योग्य, मेढी के समान, प्रमाणभूत, प्राधार, आलम्बन, चक्ष के समान पथदर्शक, मेढीभूत और सब कार्यों की प्रवत्ति कराने वाला हूँ। अर्थात राजा प्रादि सभी श्रेणियों के लोग सब प्रकार के कार्यों में मुझसे सलाह लेते हैं, मैं सब का विश्वासभाजन है। परन्तु न जाने मेरे कहीं दूसरी जगह चले जाने पर, किसी अनाचार के कारण अपने स्थान से च्यूत हो जाने पर, मर जाने पर, भग्न हो जाने पर अर्थात् वायु आदि के कारण लूला-लंगड़ा कुबड़ा होकर असमर्थ हो जाने पर, रुग्ण हो जाने पर, किसी रोगविशेष से विशीर्ण हो जाने पर, प्रासाद आदि से गिर जाने पर या बीमारी से खाट में पड़ जाने पर, परदेश में जाकर रहने पर अथवा घर से निकल कर विदेश जाने के लिए प्रवृत्त होने पर, मेरे कुटुम्ब का पृथ्वी की तरह आधार, रस्सी के समान अवलम्बन और बुहारू की सलाइयों के समान प्रतिबन्ध करने वाला-सब में एकता रखने वाला कौन होगा? ग्रतएव मेरे लिए यह उचित होगा कि कल यावत् सूर्योदय होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम -यह चार प्रकार का आहार तैयार करवा कर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजनों आदि को तथा चारों वधुओं के कुलगृह (मैके-पीहर) के समुदाय को आमंत्रित Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : रोहिणीज्ञात ] [ 199 करके और उन मित्र ज्ञाति निजक स्वजन आदि तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृह-वर्ग का अशन, पान, खादिम, स्वादिम से तथा धूप, पुष्प, वस्त्र, गंध, माला, अलंकार आदि से सत्कार करके, सन्मान करके, उन्हीं मित्र ज्ञाति आदि के समक्ष तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग (मैके के सभी लोगों) के समक्ष पुत्रवधुओं की परीक्षा करने के लिए पांच-पांच शालि-अक्षत (चावल के दाने) दूं। इससे जान सकूगा कि कौन पुत्रवधु किस प्रकार उनकी रक्षा करती है, सार-सम्भाल रखती है या बढ़ाती है ? वधू-परीक्षा ५--एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव' मित्त-णाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं चउण्हं सुण्हाणं कुलवरवग्गं आमंतेइ, आमंतिता विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ। धन्य सार्थवाह ने इस प्रकार विचार करके दूसरे दिन मित्र, ज्ञाति निजक, स्वजन, संबंधी जनों तथा परिजनों को तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृह वर्ग को आमंत्रित किया / आमंत्रित करके विपुल, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया। ६-तओ पच्छा व्हाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए मित्त-णाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गेणं सद्धि तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसादेमाणे जाव सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारित्ता सम्माणित्ता तस्सेव मित्त-णाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ पंच सालिअक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ता जेठं सुण्हं उज्झिइयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'तुमं णं पुत्ता! मम हत्थाओ इमे पंच सालिअक्खए गेण्हाहि, गेण्हित्ता अणुपुब्वेणं सारक्खेमाणी संगोवेमाणी विहराहि / जया णं अहं पुत्ता ! तुम इमे पंच सालिअक्खए जाएज्जा, तया णं तुम मम इमे पंच सालिअक्खए पडिनिज्जाएज्जासि' त्ति कटु सुण्हाए हत्थे दलयइ, दलइत्ता पडिविसज्जेइ। उसके बाद धन्य सार्थबाह ने स्नान किया / वह भोजन-मंडप में उत्तम सुखासन पर बैठा / फिर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी एवं परिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधुनों के कुलगृह वर्ग के साथ उस विपुल, अशन, पान, खादिम और स्वादिम का भोजन करके, यावत् उन सबका सत्कार किया, सम्मान किया, सत्कार-सन्मान करके उन्हीं मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधूत्रों के कलगहवर्ग के सामने पाँच चावल के दाने लिए। लेकर जेठी कलवध उज्झिका को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-हे पत्री! तम मेरे हाथ से यह पांच चावल के दाने लो। इन्हें लेकर अनुक्रम से इनका संरक्षण और संगोपन करती रहना / हे पुत्री ! जब मैं तुम से यह पांच चावल के दाने मांगू, तब तुम यही पांच चावल के दाने मुझे वापिस लौटाना।' इस प्रकार कह कर पुत्रवधू उज्झिका के हाथ में वह दाने दे दिए / देकर उसे विदा किया। ७-तए णं सा उज्झिया धण्णस्स तह त्ति एयमझें पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ता एगंतमवक्कमइ, एगतमवक्कमियाए इमेयारूवे अज्झथिए जाव (चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे) समुपज्जेत्या-एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि 1. प्र. अ. 28 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 ] [ ज्ञाताधर्मकथा बहवे पल्ला सालीणं पडिपुण्णा चिट्ठति, तं जया णं ममं ताओ इमे पंच सालिअक्खए जाएस्सइ, तया णं अहं पल्लंतराओ अन्ने पंच सालिअक्खए गहाय दाहामि' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता ते पंच सालि-अक्खए एगते एडेइ, एडित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्था / तत्पश्चात् उस उझिका ने धन्य सार्थवाह के इस अर्थ-पादेश को तहत्ति-बहुत अच्छा' इस प्रकार कहकर अंगीकार किया। अंगीकार करके धन्य सार्थवाह के हाथ से पांच शालिनक्षत (चावल के दाने) ग्रहण किये / ग्रहण करके एकान्त में गई / वहाँ जाकर उसे इस प्रकार का विचार, चिन्तन, प्रार्थित एवं मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ-'निश्चय ही पिता (श्वसुर) के कोठार में शालि से भरे हुए बहुत से पल्य (पाला) विद्यमान हैं / सो जब पिता मुझसे यह पांच शालिअक्षत मांगेंगे, तब मैं किसी पल्य से दूसरे शालि-अक्षत लेकर दे दूगी।' उसने ऐसा विचार किया। विचार करके उन पांच चावल के दानों को एकान्त में डाल दिया और डाल कर अपने काम में लग गई। ८-एवं भोगवइयाए वि, गवरं सा छोल्लेइ, छोल्लित्ता अणुगिलइ, अणुगिलित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया / एवं रक्खिया वि, णवरं गेण्हइ, गेण्हित्ता इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जित्थाएवं खलु ममं ताओ इमस्स मित्तनाइ० चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ सद्दावेत्ता एवं वयासीतुमं णं पुत्ता ! मम हत्थाओ जाव पडिनिज्जाएज्जासि' त्ति कटु मम हत्थंसि पंच-सालिअक्खए दलयइ, तं भवियव्वमेत्य कारणेणं ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे बंधइ, बंधित्ता रयणकरंडियाए पक्खिवेइ, पक्खिवित्ता उसीसामूले ठावेइ, ठावित्ता तिसंझं पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ। इसी प्रकार दूसरी पुत्रवधू भोगवती को भी बुलाकर पांच दाने दिये, इत्यादि / विशेष यह है कि उसने वह दाने छीले और छील कर निगल गई। निगल कर अपने काम में लग गई। ___इसी प्रकार तीसरी रक्षिका के सम्बन्ध में जानना चाहिए। विशेषता यह है कि उसने वह दाने लिए / लेने पर उसे यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे पिता (श्वसुर) ने मित्र ज्ञाति आदि के तथा चारों बहुओं के कुलगृहवर्ग के सामने मुझे बुलाकर यह कहा है कि--'पुत्री ! तुम मेरे हाथ से यह पांच दाने लो, यावत् जब मैं मांगू तो लौटा देना / यह कह कर मेरे हाथ में पांच दाने दिए हैं। तो इसमें कोई कारण होना चाहिए।' उसने इस प्रकार विचार किया। विचार करके वे चावल के पांच दाने शुद्ध वस्त्र में बांधे / बांध कर रत्नों की डिविया में रख लिए रख कर सिरहाने के नीचे स्थापित किए / स्थापित करके प्रातः मध्याह्न और सायंकाल-इन तीनों संध्याओं के समय उनकी सार-सम्भाल करती हुई रहने लगी। ९-तए णं से धणे सत्यवाहे तस्सेव मित्त० जाव' चत्थि रोहिणीयं सुण्हं सदावेइ। सद्दावेत्ता जाव' 'तं भवियध्वं एत्य कारणेणं, तं सेयं खलु मम एए पंच सालिअक्खए सारक्खमाणीए संगोवेमाणीए संवड्ढेमाणीए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कुलघरपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं बयासी-- तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने उन्हीं मित्रों आदि के समक्ष चौथी पुत्रवधू रोहिणी को बुलाया। 1. सप्तम अ.४ 2. सप्तम अ. 8 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : रोहिणीज्ञात ] [ 201 'तुब्भे णं देवाणुप्पिया! एए पंच सालिअक्खए गेण्हह, गेण्हित्ता पढमपाउसंसि महावुट्ठिकार्यसि निवइयोस समासि खुड्डाग केयारं सुपरिकम्मियं करेह / करित्ता इमे पंच सालिअवखए वावेह / वावेत्ता दोच्चं पि तच्चपि उक्खयनिक्खए करेह, करेत्ता वाडिपक्खेवं करेह, करित्ता सारक्खेमाणा संगोवेमाणा अणु पुग्वेणं संवड्ढेह / ' तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने उन्हीं मित्रों आदि के समक्ष चौथी पुत्रवधू रोहिणी को बुलाया। बुलाकर उसे भी वैसा ही कहकर पांच दाने दिये / यावत् उसने सोचा-'इस प्रकार पांच दाने देने में कोई कारण होना चाहिए / अतएव मेरे लिए उचित है कि इन पांच चावल के दानों का संरक्षण करूं, संगोपन करूं और इनकी वृद्धि करू / ' उसने ऐसा विचार किया। विचार करके अपने कुलगृह (मैके-पीहर) के पुरुषों को बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा 'देवानुप्रियो ! तुम इन पांच शालि-अक्षतों को ग्रहण करो। ग्रहण करके पहली वर्षा ऋतु में अर्थात वर्षा के प्रारम्भ में जब खब वर्षा हो तब एक छोटी-सी क्यारी को अच्छी साफ करके ये पांच दाने बो देना / बोकर दो-तीन बार उत्क्षेप-निक्षेप करना अर्थात् एक जगह से उखाड़ कर दूसरी जगह रोपना / फिर क्यारी के चारों ओर बाड़ लगाना / इनकी रक्षा और संगोपना करते हुए अनुक्रम से इन्हें बढ़ाना / १०-तए णं ते कोडुबिया रोहिणीए एयमढें पडिसुणेति, पडिसुणित्ता ते पंच सालिअक्खए गेण्हंति, गेण्हित्ता अणुपुट्वेणं संरक्खंति, संगोवंति विहरंति / तए णं ते कोडुबिया पढमपाउसंसि महावुद्विकासि णिवइयंसि समाणंसि खुड्डाय केयारं सुपरिकम्मियं करेंति, करित्ता ते पंच सालिअक्खए ववंति, ववित्ता दोच्चं पि तच्चं पि उक्खयनिक्खए करेंति, करिता वाडिपरिक्खेवं करेंति, करित्ता अणुपुव्वेणं सारक्खेमाणा संगोवेमाणा संवड्ढेमाणा विहरति / तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने रोहिणी के आदेश को स्वीकार किया। स्वीकार करके उन चावल के पांच दानों को ग्रहण किया। ग्रहण करके अनुक्रम से उनका संरक्षण, संगोपन करते हुए रहने लगे। तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने वर्षाऋतु के प्रारम्भ में महावृष्टि पड़ने पर छोटी-सी क्यारी साफ की। पांच चावल के दाने बोये / बोकर दूसरी और तीसरी बार उनका उत्क्षेप-निक्षेप किया, करके बाड़ का परिक्षेप किया-बाड़ लगाई। फिर अनुक्रम से संरक्षण, संगोपन और संवर्धन करते हुए विचरने लगे। ११-तए णं ते सालिअक्खए अणुषुव्वेणं सारक्खिज्जमाणा संगोविज्जमाणा संवट्टिज्जमाणा साली जाया, किण्हा किण्होभासा जाव' निउरंबभूया पासादीया दंसणीया अभिरूवा पडिरूवा। तए णं ते साली पत्तिया वत्तिया (तइया) गब्भिया पसूया आगयगंधा खीराइया बद्धफला पक्का परियागया सल्लइया पत्तइया हरियपत्वकंडा जाया यादि होत्था। 1. द्वि. अ.५ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् संरक्षित, संगोपित और संवधित किए जाते हुए वे शालि-अक्षत अनुक्रम से शालि (के पौधे) हो गये। वे श्याम कान्ति वाले यावत् निकुरंबभूत-समूह रूप होकर प्रसन्नता प्रदान करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हो गये। तत्पश्चात् उन शालि पौधों में पत्ते आ गये, वे वत्तित-गोल हो गये, छाल वाले हो गये, गभित हो गये डौंड़ी लग गई, प्रसूत हुए–पत्तों के भीतर से दाने बाहर आ गये, सुगन्ध दाले हुए, बद्धफल-बंधे हुए फल वाले हुए, पक गए, तैयार हो गये, शल्यकित हुए-पत्ते सूख जाने के कारण सलाई जैसे हो गए, पत्रकित हुए-विरले पत्ते रह गए और हरितपर्वकाण्ड-नीली नाल वाले हो गए / इस प्रकार वे शालि उत्पन्न हुए। १२-तए णं ते कोडुबिया ते सालीए पत्तिए जाव सल्लइए पतइए जाणित्ता तिक्खेहि णवपज्जणएहि असियएहि लुर्णेति / लुणित्ता करयलमलिए करेंति, करित्ता पुणंति, तत्थ णं चोक्खाणं सूयाणं अखंडाणं अफोडियाणं छड्डछड्डापूयाणं सालीणं मागहए पत्थए जाए। तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने वह शालि पत्र वाले यावत् शलाका वाले तथा विरल पत्र वाले जान कर तीखे और पजाये हुए (जिन पर नयी धार चढ़वाई हो ऐसे) हँसियों (दात्रों) से काटे, काटकर उनका हथेलियों से मर्दन किया। मर्दन करके साफ किया। इससे वे चोखे-निर्मल, शुचिपवित्र, अखंड और अस्फुटित-बिना टूटे-फूटे और सूप से झटक-झटक कर साफ किये हुए हो गए। वे मगध देश में प्रसिद्ध एक प्रस्थक प्रमाण हो गये। विवेचन-दो असई की एक पसई, दो पसई की एक सेतिका, चार सेतिका का एक कुड़व और चार कुड़व का एक प्रस्थक होता है। यह मगध देश का तत्कालीन माप है। १३–तए णं ते कोडुबिया ते साली नवएसु घडएसु पक्खिवंति, पविखवित्ता उलिपति, उलिपित्ता लंछियमुदिए करेंति, करित्ता कोट्ठागारस्स एगदेसंसि ठाति, ठावित्ता सारक्खेमाणा संगोवेमाणा विहरति / तत्पश्चात् कौटुम्बिक पुरुषों ने उन प्रस्थ-प्रमाण शालिअक्षतों को नवीन घड़े में भरा / भर कर उसके मुख पर मिट्टी का लेप कर दिया। लेप करके उसे लांछित-मुद्रित किया- उस पर सील लगा दी। फिर उसे कोठार के एक भाग में रख दिया। रख कर उसका संरक्षण और संगोपन करने लगे। १४-तए णं ते कोडुबिया दोच्चम्मि वासारत्तंसि पढमपाउसंसि महावट्रिकार्यसि निवइयंसि खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं करेंति, करिता ते साली ववंति, दोच्चं पितच्चं पि उक्खयनिक्खए जाव लणेति जाव चलणतलमलिए करेंति, करित्ता पुणंति, तत्थ णं सालोणं बहवे कुडए जाए / जाव एगदेसंसि ठावेंति, ठावित्ता सारक्खेमाणा संगोवेमाणा विहरंति / तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने दूसरी वर्षाऋतु में वर्षाकाल के प्रारम्भ में महावृष्टि पड़ने पर एक छोटी क्यारी को साफ किया / साफ करके वे शालि बो दिये। दूसरी बार और तीसरी बार उनका उत्क्षेप-निक्षेप किया, यावत् नुनाई की-उन्हें काटा / यावत् पैरों के तलुवों से उनका . Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : रोहिणीज्ञात ] [203 मर्दन किया, उन्हें साफ किया। अब शालि के बहुत-से कुड़व हो गए, यावत् उन्हें कोठार के एक भाग में रख दिया / कोठार में रख कर उनका संरक्षण और संगोपन करते हुए विचरने लगे। 15- तए णं ते कोडुबिया तच्चसि वासारत्तंसि महावुट्टिकायंसि बहवे केयारे सुपरिकम्मिए करेंति, जाव लुणेति, लुणित्ता संवहंति, संवहित्ता खलयं करेंति, करिता मलेति, जाव बहवे कुंभा जा ____तए णं ते कोडुबिया साली कोट्ठागारंसि पक्खिवंति, जाव विहरति / चउत्थे वासारत्ते बहवे कुंभसया जाया। तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने तीसरी बार वर्षाऋतु में महावृष्टि होने पर बहुत-सी क्यारियाँ अच्छी तरह साफ की / यावत् उन्हें बोकर काट लिया। काटकर भारा बांध कर वह्न किया। वहन करके खलिहान में रक्खा। उनका मर्दन किया / यावत् अब वे बहुत-से कुम्भ प्रमाण शालि हो गये। तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने वह शालि कोठार में रखे, यावत् उनकी रक्षा करने लगे। चौथी वर्षाऋतु में इसी प्रकार करने से सैकड़ों कुम्भ प्रमाण शालि हो गए। परीक्षापरिणाम १६-तए णं तस्स धण्णस्स पंचमयंसि संवच्छरंसि परिणममाणंसि पुस्वरतावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुष्पज्जित्था--एवं खलु मम इओ अईए पंचमे संवच्छरे चउण्हं सुण्हाणं परिक्खणट्टयाए ते पंच सालिअक्खया हत्थे दिन्ना, तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलते पंच सालिअक्खए परिजाइत्तए / जाव जाणामि ताव काए किहं सारक्खिया वा संगोविया वा संवडिया वा ? जाव त्ति कट्ट एवं संपेहेइ, संहिता कल्लं जाव जलते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्तणाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गं जाव सम्माणित्ता तस्सेव मित्तणाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्त पुरओ जेठें उज्झियं सद्दावेइ / सद्दाविता एवं वयासी तत्पश्चात् जब पांचवां वर्ष चल रहा था, तब धन्य सार्थवाह को मध्य रात्रि के समय इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुअा मैंने इससे पहले के-अतीत पांचवें वर्ष में चारों पुत्रवधुओं को परीक्षा करने के निमित्त, पाँच चावल के दाने उनके हाथ में दिये थे / तो कल यावत् सूर्योदय होने पर पाँच चावल के दाने माँगना मेरे लिए उचित होगा। यावत् जानू तो सही कि किसने किस प्रकार उनका संरक्षण, संगोपन और संवर्धन किया है ? धन्य सार्थवाह ने इस प्रकार का विचार किया, विचार करके दूसरे दिन सूर्योदय होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम बनवाया। मित्रों, ज्ञातिजनों आदि तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष जेठी पुत्रवधू उज्झिका को बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा १७-'एवं खलु अहं पुत्ता ! इओ अईए पंचमंसि संवच्छरंसि इमस्स मित्तणाइ० चउण्ह सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ तव हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयामि, जया णं अहं पुत्ता ! एए Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] [ज्ञाताधर्मकथा पंच सालिअक्खए जाएज्जा तया णं तुम मम इमे पंच सालिअक्खए पडिनिज्जाएसि त्ति कटु तं हत्थंसि दलयामि, से नूणं पुत्ता ! अट्ठे समठे ?' 'हंता, अस्थि / ' 'तं णं पुत्ता ! मम ते सालिअक्खए पडिनिज्जाएहि / ' 'हे पुत्री ! अतीत-विगत पांचवें संवत्सर में अर्थात अब से पांच वर्ष पहले इन्हीं मित्रों ज्ञातिजनों आदि तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष मैंने तुम्हारे हाथ में पांच शालि-अक्षत दिये थे और यह कहा था कि–'हे पुत्री ! जब मैं ये पांच शालिअक्षत मांगू, तब तुम मेरे ये पांच शालिअक्षत मुझे वापिस सौंपना / तो यह अर्थ समर्थ है- यह बात सत्य है ?' उझिका ने कहा-'हां, सत्य है।' धन्य सार्थवाह बोले--'तो हे पुत्री ! मेरे वह शालिअक्षत वापिस दो।' १८-तए णं सा उझिया एयमझें धण्णस्स सत्थवाहस्स पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव कोडागारं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पल्लाओ पंच सालिअक्खए गेव्हइ, गेण्हित्ता जेणेव धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता धण्णं. सत्थवाहं एवं क्यासी- 'एए णं ते पंच सालिअक्खए' त्ति कटु, धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थंसि ते पंच सालिअक्खए दलयइ। तए णं धण्णे सत्यवाहे उज्झियं सवहसावियं करेइ, करित्ता एवं वयासी - 'कि णं पुत्ता ! एए चेव पंच सालिअक्खए उदाहु अन्ने ?' तत्पश्चात् उज्झिका ने धन्य सार्थवाह को यह बात स्वीकार की / स्वीकार करके जहाँ कोठार था वहाँ पहुँची / पहुँच कर पल्य में से पांच शालिअक्षत ग्रहण किये और ग्रहण करके धन्य सार्थवाह के समीप पाकर बोली-'ये हैं वे पांच शालिअक्षत / ' यों कहकर धन्य सार्थवाह के हाथ में पांच शालि के दाने दे दिये। तब धन्य सार्थवाह ने उज्झिका को सौगन्ध दिलाई और कहा--'पुत्री ! क्या वही ये शालि के दाने हैं अथवा ये दूसरे हैं ?' १९-तए णं उज्झिया धण्णं सत्यवाहं एवं वयासी- 'एवं खलु तुम्भे ताओ ! इओ अईए पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्तणाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलधरवम्गस्स जाव' विहराहि। तए णं अहं तुम्भं एयमढें पडिसुणेमि / पडिसुणित्ता ते पंच सालिअक्खए गेण्हामि, एंगतमवक्कमामि / तए णं मम इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि० सकम्मसंजुत्ता। तं णो खलु ताओ ! ते चेव पंच सालिअक्खए, एए णं अन्ने / ' तब उज्झिका ने धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा-है तात ! इससे पहले के पांचवें वर्ष में इन मित्रों एवं ज्ञातिजनों के तथा चारों पुत्रवधुनों के कुलगृहवर्ग के सामने पांच दाने देकर 'इनका संरक्षण, संगोपन और संवर्धन करती हुई विचरना' ऐसा आपने कहा था / उस समय मैंने आपकी 1. सप्तम अ. 6 2. सप्तम अ.७ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : रोहिणीज्ञात ] [205 बात स्वीकार की थी / स्वीकार करके वे पाँच शालि के दाने ग्रहण किये और एकान्त में चली गई। तब मुझे इस तरह का विचार उत्पन्न हुआ कि पिताजी (श्वसुरजी) के कोठार में बहुत से शालि भरे हैं, जब मांगेंगे तो दे दूंगी / ऐसा विचार करके मैंने वह दाने फेंक दिये और अपने काम में लग गई / अतएव हे तात ! ये वही शालि के दाने नहीं हैं / ये दूसरे हैं / ' २०--तए णं से धणे उज्झियाए अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म आसुरत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उज्झिइयं तस्स मित-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स चउण्ह सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ तस्स कुलधरस्स छारुज्झियं च छाणुज्झियं च कयवरुज्झियं च संपुच्छियं च सम्मज्जिअं च पाउवदाइयं च ण्हाणावदाइयं च बाहिरपेसणकारिच ठवेइ। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह उज्झिका से यह अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके क्रुद्ध हुए, कुपित हुए, उग्र हुए और क्रोध में आकर मिसमिसाने लगे। उन्होंने उज्झिका को उन मित्रों ज्ञातिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के सामने कुलगृह की राख फेंकने वाली, छाणे डालने या थापने वाली, कचरा झाड़ने वाली, पैर धोने का पानी देने वाली, स्नान के लिए पानी देने वाली और बाहर के दासी के कार्य करने वाली के रूप में नियुक्त किया। २१-एवामेव समणाउसो ! जो अहं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव (आयरिय-उवज्झायाण अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं) पन्चइए पंच य से महत्वयाई उशियाई भवंति, से गं इह भवे चेव बहूणं समणाणं, बहूर्ण समणोणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं हीलणिज्जे जाव' अणुपरियट्टिस्सइ / जहा सा उज्झिया। __इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! जो हमारा साधु अथवा साध्वी यावत् प्राचार्य अवथा उपाध्याय के निकट गृहत्याग करके और प्रवज्या लेकर पांच (दानों के समान पांच) महाव्रतों का परित्याग कर देता है, वह उज्झिका की तरह इसी भव में बहुत-से श्रमणों, बहुत-सी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र बनता है, यावत् अनन्त संसार में पर्यटन करेगा। २२-एवं भोगवइया वि नवरं तस्स कुलघरस्स कंडंतियं कोटतियं पीसंतियं च एवं रुधंतियं च रंधतियं च परिवेसंतियं च परिभायंतियं च अभितरियं पेसणकारि महाणसिणि ठवेइ। इसी प्रकार भोगवती के विषय में जानना चाहिए / (उसने प्रसाद समझ कर दाने खा लेने की बात कही) विशेषता यह कि (वह पांचों दाने खा गई थी, अतएव उसे) खांड़ने वाली, कूटने वाली, पीसने वाली, जांते में दल कर धान्य के छिलके उतारने वाली, रांधने वाली, परोसने वाली, त्यौहारों के प्रसंग पर स्वजनों के घर जाकर ल्हावणी बांटने वाली, घर में भीतर की दासी का काम करने वाली एवं रसोईदारिन का कार्य करने वाली के रूप में नियुक्त किया / २३--एबामेव समणाउसो ! जो अम्हं समणो वा समणी वा पंच य से महव्वयाई फोडियाई भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं जाव 1. तृतीय अ. 20 2. सप्तम अ. 17-20 3. तृतीय अ. 20 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 [ज्ञाताधर्मकथा हीलणिज्जे, जहा व सा भोगवइया / इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! हमारा जो साधु अथवा साध्वी पांच महाव्रतों को फोड़ने वाला अर्थात् रसनेन्द्रिय के वशीभूत होकर नष्ट करने वाला होता है, वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र बनता है, जैसे वह भोगवती। २४–एवं रक्खिया वि। नवरं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता मंजूसं विहाडेइ, विहाडिता रयणकरंडगाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंच सालिअक्खए धण्णस्स सत्यवाहस्स हत्थे दलयइ / ___ इसी प्रकार रक्षिका के विषय में जानना चाहिए। विशेष यह है कि (पांच दाने मांगने पर) वह जहाँ उसका निवासगृह था, वहाँ गई। वहाँ जाकर उसने मंजषा खोली। खोलकर रत्न की डिबिया में से वह पांच शालि के दाने ग्रहण किये / ग्रहण करके जहाँ धन्य सार्थवाह था, वहाँ आई। आकर धन्य सार्थवाह के हाथ में वे शालि के पांच दाने दे दिये। २५–तए णं से धण्णे सत्थवाहे रक्खियं एवं वयासी-कि णं पुत्ता ! ते चेव एए पंच सालिअक्खए, उदाहु अण्णे ?' ति। तए णं रक्खिया धण्णं सत्यवाहं एवं वयासी--'ते चेव ताया ! एए पंच सालिअक्खया, णो अन्ने।' 'कहं णं पुत्ता?' 'एवं खलु ताओ ! तुब्भे इओ पंचमम्मि संवच्छरे जाव' भवियव्वं एत्थ कारणणं ति कट्ट ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे जाव तिसंझं पडिजागरमाणी यावि विहरामि / तओ एएणं कारणेणं ताओ ! ते चेव एए पंच सालिअक्खए, णो अन्ने।' उस समय धन्य सार्थवाह ने रक्षिका से इस प्रकार कहा---'हे पुत्री ! क्या यह वही पांच शालि-अक्षत हैं या दूसरे हैं ?' रक्षिका ने धन्य सार्थवाह को उत्तर दिया-'तात ! ये वही शालिग्रक्षत हैं, दूसरे नहीं हैं।' धन्य ने पूछा-'पुत्री ! कैसे ?' रक्षिका बोली-'तात ! आपने इससे पहले पांचवें वर्ष में शालि के पांच दाने दिये थे / तब मैंने विचार किया कि इस देने में कोई कारण होना चाहिए। ऐसा विचार करके इन पांच शालि के दानों को शुद्ध वस्त्र में बांधा, यावत् तीनों संध्यात्रों में सार-संभाल करती रहती हूँ। अतएव, हे तात ! ये वही शालि के दाने हैं, दूसरे नहीं।' __२६---तए णं से धण्णे सत्यवाहे रविखयाए अंतिए एयमह्र सोच्चा हट्ठतुठे तस्स कुलघरस्स हिरन्नस्स य कंस-दूस-विपुलधण जाव (कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयण संत-सार.) सावतेज्जस्स य भंडागारिणि ठवेइ / 1. सप्तम अ. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : रोहिणीज्ञात [207 तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह रक्षिका से यह अर्थ सुनकर हर्षित और संतुष्ट हुआ। उसे अपने घर के हिरण्य की (प्राभूषणों की), कांसा आदि बर्तनों की, दूष्य-रेशमी आदि मूल्यवान् वस्त्रों की, विपुल धन, धान्य, कनक रत्न, मणि, मुक्ता, शंख, शिला, प्रवाल लाल-रत्न आदि स्वापतेय (सम्पत्ति) की भाण्डागारिणी (भंडारी के रूप में) नियुक्त कर दिया। २७-एवामेव समणाउसो ! जाव पंच य से महत्वयाइं रक्खियाई भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं अच्चणिज्जे, जहा जाव से रक्खिया। इसी प्रकार हे अायुष्मन् श्रमणो ! यावत् (दीक्षित होकर) हमारा जो साधु या साध्वी पांच महाव्रतों की रक्षा करता है, वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं का अर्चनीय (पूज्य) होता है, वन्दनीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, होता है, जैसे वह रक्षिका / २८-रोहिणिया वि एवं चेव / नवरं—'सुब्भे ताओ ! मम सुबहुयं सगडीसागडं दलाहि, जेण अहं तुम्भं ते पंच सालिअक्खए पडिनिज्जाएमि।' तए णं से धण्णे सत्यवाहे रोहिणि एवं वयासी--'कहं णं तुमं मम पुत्ता! ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाइस्ससि ?' तए णं सा रोहिणी धष्णं एवं वयासी-'एवं खलु ताओ ! इओ तुन्भे पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त जाव' बहवे कुभसया जाया, तेणेव कमेणं / एवं खलु ताओ! तुम्भे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाएमि।' रोहिणी के विषय में भी ऐसा ही कहना चाहिए। विशेष यह है कि जब धन्य सार्थवाह ने उससे पांच दाने मांगे तो उसने कहा--'तात ! आप मुझे बहुत-से गाड़े-गाड़ियाँ दो, जिससे मैं आपको वह पांच शालि के दाने लौटाऊँ।' __ तब धन्य सार्थवाह ने रोहिणी से कहा-'पुत्री ! तू मुझे वह पांच शालि के दाने गाड़ा-गाड़ी में भर कर कैसे देगी? तब रोहिणी ने धन्य सार्थवाह से कहा-'तात ! इससे पहले के पांचवें वर्ष में इन्हीं मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के समक्ष आपने पाँच दाने दिये थे / यावत् वे अब सैकड़ों कुम्भ प्रमाण हो गये हैं, इत्यादि पूर्वोक्त दानों की खेती करने, संभालने आदि का वृत्तान्त दोहरा लेना चाहिए। इस प्रकार हे तात ! मैं आपको वह पांच शालि के दाने गाडा-गाड़ियों में भर कर देती हूँ।' २९-तए णं से धण्णे सत्थवाहे रोहिणीयाए सुबहुयं सगडसागडं दलयइ, तए णं रोहिणी सुबहुसगडसागडं गहाय जेणेव सए कुलघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कोट्ठागारे विहाडेइ, विहाडित्ता पल्ले उभिदइ, उभिदित्ता सगडीसागडं भरेइ, भरित्ता रायगिह नगरं मज्झमज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ। तए णं रायगिहे नयरे सिंघाडग जाव (तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु) बहुजणो अन्नमन्नं एवमाइक्खइ--'धन्ने णं देवाणुप्पिया ! धण्णे सत्थवाहे, जस्स णं रोहिणिया सुण्हा, जीए णं 1. सप्तम प्र. 9-15 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 [ ज्ञाताधर्मकथा पंच सालिअक्खए सगडसागडिएणं निज्जाइए। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने रोहिणी को बहुत-से छकड़ा-छकड़ी दिये। रोहिणी उन छकड़ाछकड़ियों को लेकर जहाँ अपना कुलगृह (मैका) था, वहाँ पाई / आकर कोठार खोला / कोठार खोल कर पल्य उघाड़े, उघाड़ कर छकड़ा-छकड़ी भरे / भरकर राजगृह नगर के मध्य भाग में होकर जहाँ अपना घर (ससुराल) था और जहाँ धन्य सार्थवाह था, वहाँ ग्रा पहुँची। तब राजगृह नगर में शृगाटक (चौक, चत्वर, चतुर्मुख, महापथ) आदि मार्गों में बहुत से लोग आपस में इस प्रकार कह कर प्रशंसा करने लगे—'देवानुप्रियो ! धन्य सार्थवाह धन्य है, जिसकी पुत्रवधू रोहिणी है, जिसने पांच शालि के दाने छकड़ा-छकड़ियों में भर कर लौटाये / ' ३०-तए णं से धण्णे सत्यवाहे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाइए पासइ, पासित्ता हतुठे पडिच्छइ / पडिच्छित्ता तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ रोहिणीयं सुण्हं तस्स कुलघरवग्गस्स बहुसु कज्जेसु य जाव [कारणेसु य कुडुबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य ] रहस्सेसु य आपुच्छणिज्जं जाव' वड्डावियं पमाणभूयं ठावेइ / तत्पचात् धन्य सार्थवाह उन पांच शालि के दानों को छकड़ा-छकड़ियों द्वारा लौटाये देखता है / देखकर हृष्ट और तुष्ट होकर उन्हें स्वीकार करता है। स्वीकार करके उसने उन्हीं मित्रों एवं ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, संबंधीजनों तथा परिजनों के सामने तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष रोहिणी पुत्रवधू को उस कुलगृहवर्ग (परिवार) के अनेक कार्यों में यावत् रहस्यों में पूछने योग्य यावत् गृह का कार्य चलाने वाली और प्रमाणभूत (सर्वेसर्वा) नियुक्त किया। ३१-एवामेव समणाउसो ! जाव पंच महन्वया संवड्डिया भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं जाव वीईवइस्सइ जहा व सा रोहिणीया। इसी प्रकार हे यायुष्मन् श्रमणो ! जो साधु-साध्वी प्राचार्य या उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर, अनगार बन कर अपने पांच महाव्रतों में वृद्धि करते हैं---उन्हें उत्तरोत्तर अधिक निर्मल बनाते हैं, वे इसी भव में बहुत से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं के पूज्य होकर यावत् संसार से मुक्त हो जाते हैं जैसे वह रोहिणी बहुजनों की प्रशंसापात्र बनी। उपसंहार ३२–एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयमठे पन्नत्ते त्ति बेमि। हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने सातवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है ! वही मैंने तुमसे कहा है। 11 सप्तम अध्ययन समाप्त / / 1. सप्त म प्र.४ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली सार-संक्षेप प्रस्तुत अध्ययन का कथानक महाविदेह क्षेत्र से प्रारंभ होता है, किन्तु उसकी अन्तिम परिणति भरत क्षेत्र में हुई है। इसमें वर्तमान अवसर्पिणी काल के उन्नीसवें तीर्थंकर, अथवा कहना चाहिए तीर्थंकरी भगवती मल्ली का उद्बोधक जीवन अंकित किया गया है / पाठकों की सुविधा के लिए उसका संक्षिप्त सार-स्वरूप इस प्रकार है--- महाविदेह क्षेत्र की सलिलावती विजय की राजधानी वीतशोका थी। वहाँ के राजा का नाम बल था / किसी समय राजधानी में स्थविरों का आगमन हुा / धर्मदेशना श्रवण करके राजा बल अपना सुखद राज्य और सहस्र राजरानियों की मोह-ममता त्याग कर मुनिधर्म में दोक्षित हो गया। तीव्र तपश्चर्या करके समस्त कर्मों को ध्वस्त कर मुक्त हुना। बल राजा का उत्तराधिकारी उनका पुत्र महाबल हुा / अचल, धरण आदि अन्य छह राजा उसके परम मित्र थे, जो साथ-साथ जन्मे, खेले और बड़े हुए थे। उन्होंने निश्चय किया था कि सुख में, दुःख में, विदेशयात्रा में और दीक्षा में हम एक दूसरे का साथ देंगे / एक बार महाबल संसार से विरक्त होकर मुनि-दीक्षा लेने को तैयार हुए तो उनके साथी भी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तैयार हो गए। सभी ने उत्कृष्ट साधना की-घोर तपश्चर्या की और जयन्त नामक अनुत्तर विमान में देवपर्याय में जन्म लिया। __ इस बीच एक अनहोनी घटना घटित हो गई। साधु-अवस्था में महाबल मुनि के मन में कपटभाव उत्पन्न हो गया / सातों मुनियों का एक-सी तपस्या करने का निश्चय था, मगर छह मुनि चतुर्थभक्त करते तो महाबल मुनि षष्ठभक्त कर लेते / वे षष्ठभक्त करते तो महाबल अष्टमभक्त कर लेते। इस तपस्या का फल यह हुआ कि छह मुनियों को देव-पर्याय में किंचित् न्यून बत्तीस सागरोपम की आयु प्राप्त हुई तो महाबल मुनि को पूर्ण बत्तीस सागरोपम की स्थिति प्राप्त हो गई। साथ ही उन्होंने तीर्थंकर-नामकर्म का बन्ध किया। किन्तु कोई राजा हो या रंक, महामुनि हो या सामान्य गृहस्थ, कर्म किसी का लिहाज नहीं करते / कपट-सेवन के फलस्वरूप महाबल ने स्त्रीनामकर्म का बन्ध कर लिया। जयन्त विमान से जब वे च्युत होकर मनुष्य-पर्याय में अवतरित हुए तो उन्हें इसी भरतक्षेत्र में मिथिला-नरेश कुभ की महारानी प्रभावती के उदर से कन्या के रूप में जन्म लेना पड़ा / उसका नाम 'मल्ली' रक्खा गया / तीर्थंकरों का जन्म पुरुष के रूप में होता है किन्तु मल्ली कुमारी का जन्म महिला के रूप में होना जैन इतिहास की एक अद्भुत और आश्चर्यजनक घटना है। ___ मल्ली कुमारी के छह अन्य साथी इससे पूर्व ही विभिन्न प्रदेशों में जन्म ले कर अपनेअपने प्रदेशों के राजा बन चके थे। उनके नाम इस प्रकार हैं Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] [ ज्ञाताधर्मकथा (1) प्रतिबुद्धि-इक्ष्वाकुराज, (2) चन्द्रच्छाय-अंग देश का राजा, (3) शंख-काशीराज, (4) रुक्मि-कुणालनरेश, (5) अदीनशत्रु-कुरुराज, (6) जितशत्र-पंचालाधिपति / अनेक बार हम देखते हैं कि वर्तमान जीवन में किसी प्रकार का सम्पर्क न होने पर भी किसी प्राणी पर दष्टि पड़ते ही हमारे हृदय में प्रीति या वात्सल्य का भाव उत्पन्न हो जाता है और किसी को देखते ही घृणा उमड़ पड़ती है / इन एक दूसरे से विपरीत मनोभावों का कोई व्यक्त कारण नहीं जान पड़ता, मगर ये भाव निष्कारण भी नहीं होते / वस्तुतः पूर्व जन्मों के संस्कारों को साथ लेकर ही मानव जन्म लेता है / वे संस्कार अप्रकट रूप में अपना प्रभाव उत्पन्न करते हैं / पूर्व जन्म में जिस जीव के प्रति हमारा रागात्मक संबंध रहा है, उस पर दृष्टि पड़ते ही, अनायास ही, हमारे हृदय में प्रीतिभाव उत्पन्न हो जाता है / इसके विपरीत जिसके साथ वैर-विरोधात्मक संबंध रहा है, उसके प्रति सहसा विद्वेष की भावना जागृत हो उठती है। अनेकानेक जैन कथानकों में इस तथ्य की पुष्टि की गई है। भगवान् पार्श्वनाथ और कमठ, महावीर और चरवाहा, समरादित्य ग्रादि इसके प्रसिद्ध उदाहरण हैं। हुआ यह कि मल्ली कुमारी के जीव के प्रति उसके पूर्व-साथियों का जो अनुराग का संबंध था, वह विभिन्न निमित्त पाकर जागत हो गया और संयोगवश छहों राजा एक ही साथ उससे विवाह करने को दल-बल के साथ मिथिला नगरी जा पहुँचे / कौन राजा क्या निमित्त पाकर मल्ली पर अनुरक्त हुआ, इसका विस्तृत वर्णन प्रस्तुत अध्ययन में किया गया है। उधर मल्ली कुमारी ने अवधिज्ञान के साथ जन्म लिया था। अवधिज्ञान के प्रयोग से उन्होंने अपने छहों साथियों की अवस्थिति जान ली थी / भविष्य में घटित होने वाली घटना भी उन्हें विदित हो गई थी। अतएव उसके प्रतीकार की तैयारी भी कर ली थी। तैयारी इस प्रकार की थी मल्ली कुमारी ने हूबहू अपनी जैसी एक प्रतिमा का निर्माण करवाया। अंदर से वह पोली थी और उसके मस्तक में एक बड़ा-सा छिद्र था। उस प्रतिमा को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि यह मल्ली नहीं, मल्ली की प्रतिमा है / मल्ली कुमारी जो भोजन-पान करती उसका एक पिंड मस्तक के छेद में से प्रतिमा में डाल देती थी। वह भोजन-पानी प्रतिमा के भीतर जाकर सड़ता रहता और उसमें अत्यन्त अनिष्ट दुर्गंध उत्पन्न होती। किन्तु ढक्कन होने से वह दुर्गन्ध वहीं को वहीं दबी रहती थी। जहाँ प्रतिमा अवस्थित थी, उसके इर्दगिर्द मल्ली ने जालीदार गृहों का भी निर्माण करवाया था / उन गृहों में बैठ कर प्रतिमा को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था, किन्तु उन गृहों में बैठने वाले एक दूसरे को नहीं देख सकते थे। जब छह राजा एक साथ मल्ली कुमारी का वरण करने के लिए मिथिला जा पहुँचे तो राजा कुभ बहुत असमंजस में पड़ गए। मल्ली की मंगनी पहले छहों ने की थी और कुंभ राजा ने छहों Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [211 / की मंगनी अस्वीकार कर दी थी। अतएव वे सब मिल कर कुम्भ राजा के साथ युद्ध करने के लिए तत्पर थे। परस्पर में परामर्श करके ही वे एक साथ चढ़ पाए थे। कुम्भ ने छहों राजाओं का सामना किया / वीरता के साथ संग्राम किया, मगर अकेला चना क्या भाड़ फोड़ सकता है ? आखिर कुम्भ पराजित हुआ और लौट कर अपने महल में आ गया। वह अत्यन्त गहरे विषाद में डूब गयाकिंकर्त्तव्य-मूढ हो गया / उसी समय राजकुमारी अपने पिता कुम्भराज को प्रणाम करने गई / मगर कुम्भ चिन्ता में ऐसे निमग्न थे कि उन्हें उसके आने का भान ही नहीं हुआ। तब कुमारी मल्ली ने गहरी चिन्ता का कारण पूछा / कुम्भराज ने उसे समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। मल्ली कुमारी ने इसी प्रसंग के लिए अपनी प्रतिमा बनवाकर सारी तैयारी कर रक्खी थी। पिता से कहा---'श्राप चिन्ता त्यागिए और प्रत्येक राजा के पास गुप्त रूप से दूत भेज कर कहला दीजिए कि आपको ही मल्ली कुमारी दी जाएगी। आप गुप्त रूप से सन्ध्या समय राजमहल में आ जाइए / उन सब को जालीदार गृहों में अलग-अलग ठहरा दीजिए। कुम्भ राजा ने ऐसा ही किया। छहों राजा मल्ली कुमारी का वरण करने की लालसा से गर्भगहों में प्रा पहुँचे / प्रभात होने पर सबने मल्ली की प्रतिमा को देखा और समझ लिया कि यही कुमारी मल्ली है। सब उसी की ओर अनिमेष दृष्टि से देखने लगे। तब मल्ली कुमारी वहाँ पहुँची और प्रतिमा के मस्तक के छिद्र को उघाड़ दिया / छिद्र को उघाड़ते ही उसमें से जो दुर्गन्ध निकली वह असह्य हो गई। सभी राजा उससे घबरा उठे। सबने अपनी-अपनी नाक दबाई और मुह बिगाड़ लिया। विषयासक्त राजाओं को उबुद्ध करने का यही उपयुक्त अवसर था / मल्ली कुमारी ने नाक-मुह बिगाड़ने का कारण पूछा / सभी का एक ही उत्तर था- असह्य बदबू ! तब राजकुमारी ने राजाओं से कहा-देवानुप्रियो ! इस प्रतिमा में भोजन-पानी का एक-एक पिण्ड डालने का ऐसा अनिष्ट एवं अमनोज्ञ परिणाम हुआ तो इस औदारिक शरीर का परिणाम कितना अशुभ, अनिष्ट और अमनोज्ञ न होगा ! यह शरीर तो मल, मूत्र, मांस, रुधिर प्रादि की थैली है। इसके प्रत्येक द्वार से गंदे पदार्थ झरते रहते हैं। सड़ना-गलना इस का स्वभाव है / इस पर से चमड़ी की चादर हटा दी जाए तो यह शरीर कितना सुन्दर प्रतीत होगा? यह चीलों-कौवों का भक्ष्य बन जाएगा। इसका असलो बीभत्स रूप प्रकट हो जाएगा। तो मल-मूत्र की इस थैली पर आप क्यों मोहित हो रहे हैं ! इस प्रकार सम्बोधित करके मल्ली कुमारी ने पूर्वजन्मों का वृत्तान्त उन्हें कह सुनाया / किस प्रकार वे सब साथ दीक्षित हुए थे, किस प्रकार उसने कपटाचरण किया था, किस प्रकार वे सब देवपर्याय में उत्पन्न हुए थे, इत्यादि सब कह सुनाया। मल्ली द्वारा पूर्वभवों का वृत्तान्त सुनते ही छहों राजाओं को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया / सब संबुद्ध हो गए / तब गर्भगृहों के द्वार उन्मुक्त कर दिए गए। समग्र वातावरण में अनुराग के स्थान पर विराग छा गया। उसी समय राजकुमारी ने दीक्षा अंगीकार करने का संकल्प किया। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [ ज्ञाताधर्मकथा तोर्थकरों की परम्परा के अनुसार वार्षिक दान देने के पश्चात् मल्ली कुमारी ने जिन-प्रवज्या अंगीकार कर ली। जिस दिन दीक्षा अंगीकार की उसी दिन उन्हें केवलज्ञान-दर्शन की प्राप्ति हो गई। तत्पश्चात् जितशत्रु आदि छहों राजानों ने भी दीक्षा अंगीकार कर ली। अन्त में मुक्ति प्राप्त की। भगवती मल्ली तीर्थकरी ने भी चैत्र शुक्ला चतुर्थी के दिन निर्वाण प्राप्त किया। प्रस्तुत अध्ययन खूब विस्तृत है / इसमें अनेक ज्ञातव्य विषयों का निरूपण किया गया है। उन्हें जानने के लिए पूरे अध्ययन का वाचन करना आवश्यक है / यहाँ अतिसंक्षेप में ही सार मात्र दिया गया है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमं अज्झयण : मल्ली उत्क्षेप १-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, अट्ठमस्स णं भंते ! के अट्ठे पन्नत्ते ? जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से प्रश्न किया—'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने सातवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है (जो आपने मुझे सुनाया), तो पाठवें अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?' २--एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, निसढस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, सीयोयाए महाणईए दाहिणणं, सुहावहस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चस्थिमलवणसमुहस्स पुरच्छिमेणं एत्य णं सलिलावती नामं विजए पन्नत्ते। श्री सुधर्मा स्वामी ने उत्तर देते हुए कहा---'हे जम्बू ! उस काल और उस समय में, इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में महाविदेह नामक वर्ष (क्षेत्र) में, मेरु पर्वत से पश्चिम में, निषध नामक वर्षधर पर्वत से उत्तर में, शीतोदा महानदी से दक्षिण में, सुखावह नामक वक्षार पर्वत से पश्चिम में और पश्चिम लवणसमुद्र से पूर्व में इस स्थान पर, सलिलावती नामक विजय कहा गया है। ३-तत्य णं सलिलावतीविजए वीयसोगा नाम रायहाणी पण्णत्ता-नवजोयणवित्थिन्ना जाव' पच्चक्खं देवलोगभूया। तोसे णं वीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं इंदकुभे नाम उज्जाणे होत्था। तत्थ णं वीयसोगाए रायहाणीए बले नाम राया होत्था। तस्स धारिणीपामोक्खं देविसहस्सं उवरोधे होत्था। उस सलिलावती विजय में वीतशोका नामक राजधानी कही गई है / वह नौ योजन चौड़ी, यावत् (बारह योजन लम्बी) साक्षात् देवलोक के समान थी। उस वीतशोका राजधानी के उत्तरपूर्व (ईशान) दिशा के भाग में इन्द्रकुम्भ नामक उद्यान था। उस वीतशोका राजधानी के बल नामक राजा था / बल राजा के अन्तःपुर में धारिणी प्रभूति एक हजार देवियाँ (रानियाँ) थीं / 1. अ. 5 सूत्र 2 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 [ ज्ञाताधर्मकथा महाबल का जन्म ४--तए णं सा धारिणी देवी अन्नया कयाइ सोहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा जाव' महब्बले नामं दारए जाए, उम्मुक्कबालभावे जाव भोगसमत्थे / तए णं तं महब्बलं अम्मापियरो सरिसियाणं कमलसिरीपामोक्खाणं पंचण्डं रायवरकन्नासयाणं एगदिवसेणं पाणि गेण्हावेति ।पंच पासायसया पंचसओ दाओ जाव विहरइ / वह धारिणी देवी किसी समय स्वप्न में सिंह को देखकर जागृत हुई यावत् यथासमय महाबल नामक पुत्र का जन्म हुआ / वह बालक क्रमशः बाल्यावस्था को पार कर भोग भोगने में समर्थ हो गया। तब माता-पिता ने समान रूप एवं वय वाली कमलश्री आदि पाँच सौ श्रेष्ठ राजकुमारियों के साथ, एक ही दिन में महाबल का पाणिग्रहण कराया। पाँच सौ प्रासाद आदि पाँच-पाँच सौ का दहेज दिया / यावत् महाबल कुमार मनुष्य संबंधी कामभोग भोगता हुअा रहने लगा। ५-तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नाम थेरा पंहि अणगारसएहि सद्धि संपरिवुडे पुव्वाणुव्वि चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे, सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव इंदकुभे नाम उज्जाणे तेणेव समोसढे, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति / ___ उस काल और उस समय में धर्मघोषनामक स्थविर पाँच सौ शिष्यों--अनगारों से परिवत होकर अनुक्रम से विचरते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम गमन करते हुए, सुखे-सुखे विहार करते हुए जहाँ इन्द्रकुम्भ नामक उद्यान था, वहाँ पधारे और संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए वहाँ ठहरे। बल को दीक्षा और निर्वाण ६–परिसा निग्गया, बलो वि राया निग्गओ, धम्म सोच्चा णिसम्म जं नवरं महब्बलं कुमारं रज्जे ठावेइ, ठावित्ता सयमेव बले राया थेराणं अंतिए पव्वइए, एक्कारसअंगविओ, बहूणि वासाणि सामण्णपरियायं पाउणित्ता जेणेव चारुपव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मासिएणं भत्तेणं अपाणणं केवलं पाउणिता जाव सिद्धे / __ स्थविर मुनिराज को वन्दना करने के लिए जनसमूह निकला / बल राजा भी निकला। कर राजा को वैराग्य उत्पन्न हया / विशेष यह कि उसने महाबल कुमार को राज्य पर प्रतिष्ठित किया। प्रतिष्ठित करके स्वयं ही बल राजा ने पाकर स्थविर के निकट प्रव्रज्या अंगीकार की। वह ग्यारह अंगों के वेत्ता हुए / बहुत वर्षों तक संयम पाल कर जहाँ चारुपर्वत था, वहाँ गये / एक मास का निर्जल अनशन करके केवलज्ञान प्राप्त करके यावत् सिद्ध हुए। राजा महाबल ७-तए णं सा कमलसिरी अन्नया कयाइ सोहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, जाव बलभद्दो कुमारो जाओ, जुवराया यावि होत्था। तत्पश्चात् अन्यदा कदाचित् कमलश्री स्वप्न में सिंह को देखकर जागृत हुई / (यथासमय) बलभद्र कुमार का जन्म हुआ / वह युवराज भी हो गया / 1. देखें भगवतीसूत्र में महाबलवर्णन 2. प्र. अ. सूत्र 102-107 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [215 ८--तस्स णं महब्बलस्स रन्नो इमे छप्पिय बालवयंसगा रायाणो होत्था, तंजहा-(१) अयले (2) धरणे (3) पूरणे (4) बसू (5) वेसमणे (6) अभिचंदे, सहजाया सहड्डियया सहपंसुकीलियया सहदारदरिसी अण्णमण्णमणुरत्ता अण्णमग्णमणुव्वयया अण्णमण्णच्छंदाणुवत्तया अण्ण. मण्णहियइच्छियकारया अण्णमण्णेसु रज्जेसु किच्चाई करणिज्जाई पच्चणुभवमाणा विहरति / तए णं तेसि रायाणं अण्णया कयाई एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिसण्णाणं सण्णिविदाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समप्पज्जित्था--जण्ण देवाणप्पिया! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पव्वज्जा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जइ, तण्णं अम्हेहि एगयओ समेच्चा णित्थरियध्वे ति कटु अन्नमन्नस्सेयमझें पडिसुणेति / सुहंसुहेणं विहरति / उस महाबल राजा के यह छह राजा बालमित्र थे। वे इस प्रकार--(१) अचल (2) धरण (3) पूरण (4) वसु (5) वैश्रमण (6) अभिचन्द्र / वे साथ ही जन्मे थे, साथ ही वृद्धि को प्राप्त हुए थे, साथ ही धूल में खेले थे, साथ ही विवाहित हुए थे, एक दूसरे पर अनुराग रखते थे, एक-दूसरे का अनुसरण करते थे, एक-दूसरे के अभिप्राय का आदर करते थे, एक-दूसरे के हृदय की अभिलाषा के अनुसार कार्य करते थे, एक-दूसरे के राज्यों में काम-काज करते हुए रह रहे थे। एक बार किसी समय वे सब राजा इकट्ठे हुए, एक जगह मिले, एक स्थान पर आसीन हुए। तब उनमें इस प्रकार का वार्तालाप हमा-'देवानप्रियो ! जब कभी हमारे लिए सूख का, दुःख प्रव्रज्या-दीक्षा का अथवा विदेशगमन का प्रसंग उपस्थित हो तो हमें सभी अवसरों पर साथ ही रहना चाहिए। साथ ही आत्मा का निस्तार करना-आत्मा को संसार-सागर से तारना चाहिए, ऐसा निर्णय करके परस्पर में इस अर्थ (बात) को अंगीकार किया था / वे सुखपूर्वक रह रहे थे। महाबल को दीक्षा ९--तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा थेरा जेणेव इंदकुभे उज्जाणे तेणेव समोसढा, परिसा निग्गया, महब्बलो वि राया निग्गओ / धम्मो कहिओ। महब्बलेणं धम्म सोच्चा-जं नवरं देवाणुप्पिया ! छप्पिय बालवयंसगे आपुच्छामि, बलभदं च कुमारं रज्जे ठावेमि, जाव छप्पिय बालवयंसए आपुच्छइ। तए णं ते छप्पिय बालवयंसए महब्बलं रायं एवं वयासो-'जइ णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे पव्वयह, अम्हं के अन्ने आहारे वा ? जाव आलंबे वा ? अम्हे वि य णं पव्वयामो। तए णं से महब्बले राया छप्पिय बालवयंसए एवं वयासी-जइ णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे मए सद्धि (जाव) पन्वयह, तओ णं तुम्भे गच्छह, जेट्टपुत्तं सएहि सएहिं रज्जेहिं ठावेह, पुरिससहस्सवाहणीओ सीयाओ दुरुढा समाणा पाउब्भवह / तए णं ते छप्पिय बालवयंसए जाव पाउब्भवंति / उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर जहाँ इन्द्रकुम्भ उद्यान था, वहाँ पधारे / परिषद् वंदना करने के लिए निकली। महाबल राजा भी निकला। स्थविर महाराज ने धर्म कहाधर्मोपदेश दिया। महाबल राजा को धर्म श्रवण करके वैराग्य उत्पन्न हुआ / विशेष यह कि राजा ने कहा-'हे देवानुप्रिय ! मैं अपने छहों बालमित्रों से पूछ लेता हूँ और बलभद्र कुमार को राज्य पर स्थापित कर देता हूँ, फिर दीक्षा अंगीकार करूंगा।' यादत् इस प्रकार कहकर उसने छहों बालमित्रों से Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 ] / ज्ञाताधर्मकथा तब वे छहों बाल-मित्र महाबल राजा से कहने लगे---देवानुप्रिय ! यदि तुम प्रवजित होते हो तो हमारे लिए अन्य कौन-सा आधार है ? यावत् अथवा पालम्बन है, हम भी दीक्षित होते हैं / तत्पश्चात् महाबल राजा ने उन छहों बालमित्रों से कहा-'देवानुप्रियो ! यदि तुम मेरे साथ [यावत् ] प्रवजित होते हो तो तुम जाओ और अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपने-अपने राज्य पर प्रतिष्ठित करो और फिर हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिविकाओं पर आरूढ होकर यहाँ प्रकट होओ।' तब छहों बालमित्र गये और अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को राज्यासीन करके यावत् महाबल राजा के समीप आ गये / १०--तए णं से महब्बले राया छप्पिय बालवयंसए पाउन्भूए पासइ, पासित्ता हट्ठतुझे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी--'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! बलभद्दस्स कुमारस्स महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचेह / ' ते वि तहेव जाब बलभदं कुमार अभिसिचेति / ___ तब महाबल राजा ने छहों बालमित्रों को प्राया देखा / देखकर यह हर्षित और संतुष्ट हुआ। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! जाप्रो और बलभद्र कुमार का महान् राज्याभिषेक से अभिषेक करो।' यह प्रादेश सुनकर उन्होंने उसी प्रकार किया यावत् बलभद्र कुमार का अभिषेक किया। ११-तए णं से महब्बले राया बलभदं कुमारं आपुच्छइ। तओ णं महब्बलपामोक्खा छप्पिय बालवयंसए सद्धि पुरिससहस्सवाहिणि सिवियं दुरुढा वीयसोयाए रायहाणीए मज्झमझेणं णिग्गच्छति / णिग्गच्छित्ता जेणेव इंदकुभे उज्जाणे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति / उवागच्छिता ते वि य सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेंति, करित्ता जाव पव्वयंति, एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता बहहिं चउत्थछट्टट्ठमेहि अप्पाणं भावमाणा जाव विहरंति / तत्पश्चात् महाबल राजा ने बलभद्र कुमार से, जो अब राजा हो गया था, दीक्षा की आज्ञा ली। फिर महाबल अचल आदि छहों बालमित्रों के साथ हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिविका पर आरूढ होकर, वीतशोका नगरी के बीचोंबीच होकर निकले। निकल कर जहाँ इन्द्रकुम्भ उद्यान था और जहाँ स्थविर भगवन्त थे, वहाँ आये। आकर उन्होंने भी स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया / लोच करके यावत् दीक्षित हुए। ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, बहुत से उपवास, बेला, तेला, आदि तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। १२-तए णं तेसि महब्बलपामोक्खाणं सत्तण्हं अणगाराणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था-'जं णं अम्हं देवाणुप्पिया ! एगे तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तं णं अम्हेहि सव्वेहि सद्धि तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं वितरित्तए' ति कट्ट अण्णमण्णस्स एयमठ्ठ पडिसुर्णेति, पडिसुणेत्ता बहूहिं चउत्थ जाव [छट्टट्ठम-दसम-दुवालसेहि मासद्धमासखमहि] विहरति / तत्पश्चात वे महाबल अादि सातों अनगार किसी समय इकटठे हए / उस समय उनमें परस्पर इस प्रकार बातचीत हुई—'हे देवानुप्रियो ! हम लोगों में से एक जिस तप को अंगीकार करके विचरे, हम सब को एक साथ वही तप:क्रिया ग्रहण करके विचरना उचित है।' अर्थात् हम सातों एक ही Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठवां अध्ययन : मल्ली] [217 प्रकार की तपस्या किया करेंगे। इस प्रकार कहकर सबने यह बात अंगीकार की। अंगीकार करके अनेक चतुर्थभक्त, बेला, तेला, चोला, पंचोला, मासखमण, अर्धमासखमण-एक-सी तपस्या करते हुए विचरने लगे। महाबल का मायाचार 13-- तए णं से महब्बले अणगारे इमेण कारणेणं इत्थिणामगोयं कम्मं नित्तिसुजइ णं ते महब्बलवज्जा छ अणगारा चउत्थं उवसंपज्जित्ता गं विहरंति, तओ से महब्बले अणगारे छठें उवसंपज्जित्ता णं विहरइ / जइ णं ते महब्बलवज्जा अणगारा छठें उवसंपज्जित्ता गं विहरंति, तओ से महब्बले अणगारे अट्ठमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ / एवं अट्ठमं तो दसम, अह दसमं तो दुवालसमं / तत्पश्चात् उन महाबल अनगार ने इस कारण से स्त्रीनामगोत्र कर्म का उपार्जन कियायदि वे महाबल को छोड़ कर शेष छह अनगार चतुर्थभक्त (उपवास) ग्रहण करके विचरते, तो महाबल अनगार [उन्हें बिना कहे] षष्ठभक्त (बेला) ग्रहण करके विचरते / अगर महाबल के सिवाय छह अनगार षष्ठभक्त अंगीकार करके विचरते तो महाबल अनगार अष्टमभक्त (तेला) ग्रहण करके विचरते / इसी प्रकार वे अष्टमभक्त करते तो महाबल दशमभक्त करते, वे दशमभक्त करते तो महाबल द्वादशभक्त, कर लेते / (इस प्रकार अपने साथी मुनियों से छिपा कर-कपट करके महाबल अधिक तप करते थे।) तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन १४-इमेहि य वीसाएहि य कारणेहि आसेवियबहुलीकरहिं तित्थयरनामगोयं कम्म नित्तिसु, तंजहा अरिहंत-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर-बहुस्सुए-तवस्सीसु। वल्लभया य तेसि, अभिक्ख गाणोवओगे य॥१॥ दसण-विणए आवस्सए य सोलव्वए निरइयारं / खणलव-तवच्चियाए, वेयावच्चे समाही य // 2 // अपुव्वनाणगहणे, सुयभत्ती पवयणे पभावणया। एहि कारणेहि, तित्थयरत्तं लहइ जीवो // 3 // (महाबल ने) स्त्री नामगोत्र के अतिरिक्त इन कारणों के एक बार और वार-बार सेवन करने से तीर्थकर नामगोत्र कर्म का भी उपार्जन किया / वे कारण यह हैं (1) अरिहंत (2) सिद्ध (3) प्रवचन--श्रुतज्ञान (4) गुरु-धर्मोपदेशक (4) स्थविर अर्थात् साठ वर्ष की उम्र वाले जातिस्थविर, समवायांगादि के ज्ञाता श्रुतस्थविर और बीस वर्ष की दीक्षा वाले पर्यायस्थविर, यह तीन प्रकार के स्थविर साधु (6) बहुश्रुत दूसरों की अपेक्षा अधिक श्रुत के ज्ञाता और (7) तपस्वी-इन सातों के प्रति वत्सलता धारण करना अर्थात् इनका यथोचित सत्कार-सम्मान करना, गुणोत्कीर्तन करना (8) बारंबार ज्ञान का उपयोग करना (9) दर्शन-सम्यक्त्व की विशुद्धता (10) ज्ञानादिक का विनय करना (11) छह आवश्यक करना (12) उत्तरगुणों और मूलगुणों का निरतिचार पालन करना (13) क्षणलव अर्थात् क्षण-एक लव Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] [ ज्ञाताधर्मकथा प्रमाण काल में भी संवेग, भावना एवं ध्यान का सेवन करना (14) तप करना (15) त्याग-मुनियों को उचित दान देना (16) नया-नया ज्ञान ग्रहण करना (17) समाधि--गुरु आदि को साता उपजाना (18) वैयावृत्य करना (19) श्रुत की भक्ति करना और (20) प्रवचन की प्रभावना करना, इन बीस कारणों से जीव तीर्थकरत्व की प्राप्ति करता है। तात्पर्य यह है कि इन बीस कारणों से महाबल मुनि ने तीर्थकर नामकर्म उपार्जन किया / महाबल आदि की तपस्या १५–तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अनगारा मासिअं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति, जाव' एगराइअं भिक्खुपडिम उवसंपज्जित्ता णं विहरति / तत्पश्चात् वे महाबल आदि सातों अनगार एक मास की पहली भिक्षु-प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगे / यावत् बारहवीं एकरात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगे। (यहां यावत् शब्द से बीच की दस भिक्षु-प्रतिमाएँ इस प्रकार समझनी चाहिए-दूसरी दो मास की, तीसरी तीन मास की, चौथी चार मास की. पांचवीं पाँच मास की. छठी छह मास की. सातवीं सात मास की, आठवीं पाठ अहोरात्र को, नौवीं सात अहोरात्र की, दसवीं सात अहोरात्र की और ग्यारहवीं एक अहोरात्र की / इस प्रकार सब मिलकर बारह भिक्षु-प्रतिमाएँ हैं / ) १६--तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा खड्डाग सीहनिक्कोलियं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरंति, तंजहा-चउत्थं करेंति, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेंति, पारित्ता छठें करेंति, करित्ता चउत्थं करेंति, करित्ता अट्टमं करेंति, करित्ता छठें करेंति, करित्ता दसमं करेंति, करिता अट्टमं करेंति, करिता दुवालसमं करेंति, करित्ता दसमं करेंति, करित्ता चाउद्दसमं करेंति, करित्ता दुवालसमं करेंति, करित्ता सोलसमं करेंति, करित्ता चोद्दसमं करेंति, करिता अट्ठारसमं करेंति, करित्ता सोलसमं करेंति, करित्ता वीसइमं करेंति, करिता अट्ठारसमं करेंति, करिता वोसइमं करेंति, करिता सोलसमं करेंति, करित्ता अट्ठारसमं, करेंति, करित्ता चोद्दसमं करेंति, करित्ता सोलसमं करेंति, करित्ता दुवालसमं करेंति, करित्ता चाउद्दसमं करेंति, करित्ता दसमं करेंति, करित्ता दुवालसमं करेंति, करित्ता अट्ठमं करेंति, करित्ता दसमं करेंति, करिता छळं करेंति, करित्ता अट्रमं करेंति, करित्ता चउत्थं करेंति, करित्ता छळं करेंति, करिता चउत्थं करेंति / सव्वत्थ सव्वकामगुणिएणं पारेति / तत्पश्चात वे महाबल प्रति सातों अनगार क्षल्लक सिंहनिष्क्रीडित नामक तपश्चरण अंगीकार करके विचरने लगे / वह तप इस प्रकार किया जाता है-- सर्वप्रथम एक उपवास करे, उपवास करके सर्वकामगुणित ( विगय आदि सभी पदार्थों को ग्रहण करने के साथ) पारणा करे, पारणा करके दो उपवास करे, फिर एक उपवास करे, करके तीन उपवास (अष्टमभक्त) करे, करके दो उपवास करे, करके चार उपवास करे, करके तीन उपवास करे, करके पाँच उपवास करे, करके चार उपवास करे, करके छह उपवास करे, करके पाँच उपवास करे, करके सात उपवास करे, करके छह उपवास करे, करके पाठ उपवास करे, करके सात उपवास करे, . Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली ] [219 करके नौ उपवास करे, करके पाठ उपवास करे, करके नौ उपवास करे, करके सात उपवास करे, करके आठ उपवास करे, करके छह उपवास करे, करके सात उपवास करे, करके पाँच उपवास करे, करके छह उपवास करे, करके चार उपवास करे, करके पांच उपवास करे, करके तीन उपवास करे, करके चार उपवास करे, करके दो उपवास करे, करके. तीन उपवास करे, करके एक उपवास करे, करके दो उपवास करे, करके एक उपवास करे। सब जगह पारणा के दिन सर्वकामगुणित पारणा करके उपवासों का पारणा समझना चाहिए।। विवेचन-सिंह की क्रीडा के समान तप सिंहनिष्क्रीडित कहलाता है / जैसे सिंह चलताचलता पीछे देखता है, इसी प्रकार जिस तप में पीछे के तप की प्रवृत्ति करके प्रागे का तप किया जाता है और इसी क्रम से आगे बढ़ा जाता है, वह सिंहनिष्क्रीडित तप कहलाता है / इस तप की स्थापना अंकों में निम्न प्रकार है १७–एवं खलु एसा खुड्डागसीहनिक्कोलियस्स तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी छहिं मासेहि सत्तहि य अहोरत्तेहिय अहासुत्ता जाव आराहिया भवइ / इस प्रकार इस क्षुल्लक सिंहनिष्क्रीडित तप की पहली परिपाटी छह मास और सात अहोरात्रों में सूत्र के अनुसार यावत पाराधित होती है। (इसमें 154 उपवास और तेतीस पारणा किये जाते हैं।) १८-तयाणंतरं दोच्चाए परिवाडीए चउत्थं करेंति, नवरं विगइवज्जं पारेति / एवं तच्चा वि परिवाडी, नवरं पारणए अलेवाडं पारेति / एवं चउत्था वि परिवाडी, नवरं पारणए आयंबिलेणं पारेंति। तत्पश्चात् दूसरी परिपाटी में एक उपवास करते हैं, इत्यादि सब पहले के समान ही समझ लेना चाहिए / विशेषता यह है कि इसमें विकृति रहित पारणा करते हैं, अर्थात् पारणा में घी, तेल, दूध, दही आदि विगय का सेवन नहीं करते / इसी प्रकार तीसरी परिपाटी भी समझनी चाहिए / इसमें विशेषता यह है कि अलेपकृत (अलेपमिश्रित) से पारणा करते हैं। चौथी परिपाटी में भी ऐसा ही करते हैं किन्तु उसमें आयंबिल से पारणा की जाती है / १९-तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणमारा खुड्डागं सीहनिक्कीलियं तवोकम्मं दोहि संवच्छरेहि अट्ठावीसाए अहोरत्तेहि अहासुत्तं जाव' आणाए आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता थेरे भगवंते बंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी तत्पश्चात् महाबल आदि सातों अनगार क्षुल्लक (लघु) सिंहनिष्क्रीडित तप को (चारों 1. प्र.अ. 196 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 ] [ ज्ञाताधर्मकथा परिपाटी सहित) दो वर्ष और अट्ठाईस अहोरात्र में, सूत्र के कथनानुसार यावत् तीर्थंकर की आज्ञा से अाराधन करके, जहां स्थविर भगवान् थे, वहां आये / प्राकर उन्होंने वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोले २०-इच्छामो णं भंते ! महालयं सोहनिक्कीलियं तवोकम्मं तहेव जहा खुड्डागं, नवरं चोत्तीसइमाओ नियत्तए, एगाए चेव परिवाडीए कालो एगेणं संवच्छरेणं हि मासेहि अट्ठारसे हि य अहोरत्तेहि समप्पेइ / सव्वं पि सोहनिक्कीलियं हि वासेहि, दोहि य मासेहि, बारसेहि य अहोरत्तेहिं समप्पेइ। 'भगवन् ! हम महत् (बड़ा) सिंहनिष्क्रीड़ित नामक तपःकर्म करना चाहते हैं आदि' / यह तप क्षुल्लक सिंहनिष्क्रीडित तप के समान ही जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इसमें चौंतीस भक्त अर्थात् सोलह उपवास तक पहुँचकर वापिस लौटा जाता है / एक परिपाटी एक वर्ष, छह मास और अठारह अहोरात्र में समाप्त होती है / सम्पूर्ण महासिंह निष्क्रीडित तप छह वर्ष, दो मास और बारह अहोरात्र में पूर्ण होता है / (प्रत्येक परिपाटी में 558 दिन लगते हैं, 497 उपवास और 61 पारणा होती हैं / ) २१--तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा महालयं सीहनिक्कोलियं अहासुत्तं जाव' आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता बहूणि चउत्थ जाव विहरति / तत्पश्चात् वे महाबल प्रभृति सातों मुनि महासिंहनिष्क्रीडित तपःकर्म का सूत्र के अनुसार यावत् आराधन करके जहां स्थविर भगवान् थे वहाँ आते हैं। आकर स्थविर भगवान् को वन्दना करते हैं, नमस्कार करते हैं / वन्दना और नमस्कार करके बहुत से उपवास, बेला, तेला आदि करते हुए विचरते हैं। समाधिमरण २२-तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा तेणं उरालेणं तवोकम्मेणं सुक्का भुक्खा जहा खंदओ', नवरं थेरे आपुच्छित्ता चारुपव्वयं (वक्खारपब्वयं) दुरुहंति / दुरूहित्ता जाव' दोमासियाए संलेहणाए सवीसं भत्तसयं अणसणं, चउरासीइं वाससयसहस्साई सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता चुलसीई पुव्वसयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता जयंते विमाणे देवत्ताए उववन्ना। / तत्पश्चात् वे महाबल प्रति अनगार उस प्रधान तप के कारण शुष्क अर्थात् मांस-रक्त से हीन तथा रूक्ष अर्थात् निस्तेज हो गये, भगवतीसूत्र में कथित स्कंदक मुनि (या इसी अंग में वणित मेघ मुनि के सदृश उनका वर्णन समझ लेना चाहिए।) विशेषता यह है कि स्कंदक मुनि ने भगवान महावीर से प्राज्ञा प्राप्त की थी, पर इन सात मुनियों ने स्थविर भगवान् से प्राज्ञा ली। आज्ञा लेकर चारु पर्वत (चारु नामक वृक्षस्कार पर्वत) पर पारूढ़ हुए। आरूढ होकर यावत् दो मास की संलेखना करके-एक सौ बीस भक्त का अनशन करके, चौरासी लाख वर्षों तक संयम का पालन करके, चौरासी लाख पूर्व का कुल आयुष्य भोगकर जयंत नामक तीसरे अनुत्तर विमान में देव-पर्याय से उत्पन्न हुए। 1. प्र.अ. 196 2. प्र.अ.२०१३. भगवती श. 2 4 . प्र. अ. 206 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली ] [ 221 २३-तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ ण महब्बलवज्जाणं छण्हं देवाणं देसूणाई बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई, महम्बलस्स देवस्स पडिपुण्णाई बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। उस जयंत विमान में कितनेक देवों की बत्तीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। उनमें से महाबल को छोड़कर दूसरे छह देवों की कुछ कम बत्तीस सागरोपम की स्थिति और महाबल देव की पूरे बत्तीस सागरोपम की स्थिति हुई। पुनर्जन्म २४–तए णं ते महब्बलवज्जा छप्पिय देवा जयंताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विसुद्धपिइमाइवंसेसु रायकुलेसु पत्तेयं पत्तेयं कुमारत्ताए पच्चायाया। तंजहा पडिबुद्धी इक्खागराया 1, चंदच्छाए अंगराया 2, संखे कासिराया 3, हप्पी कुणालाहिवई 4, अदोणसत्तू कुरुराया 5, जियसत्तू पंचालाहिवई 6 / तत्पश्चात् महाबल देव के सिवाय छहों देव जयन्त देवलोक से, देव संबंधी आयु का क्षय होने से, देवलोक में रहने रूप स्थिति का क्षय होने से और देव संबंधी भव का क्षय होने से, अन्तर रहित, शरीर का त्याग करके अथवा च्युत होकर इसी जम्बूद्वीप में, भरत वर्ष (क्षेत्र) में विशुद्ध माता-पिता के वंश वाले राजकुलों में, अलग-अलग कुमार के रूप में उत्पन्न हुए। वे इस प्रकार (1) प्रतिबुद्धि इक्ष्वाकु वंश का अथवा इक्ष्वाकु देश का राजा हुप्रा / (इक्ष्वाकु देश को कौशल देश भी कहते हैं, जिसकी राजधानी अयोध्या थी)। (2) चंद्रच्छाय अंगदेश का राजा हुया, जिसकी राजधानी चम्पा थी। (3) तीसरा शंख काशीदेश का राजा हुया, जिसकी राजधानी वाणारसी नगरी थी। (4) रुक्मि कुणालदेश का राजा हुया, जिसकी नगरी श्रावस्ती थी। (5) अदीनशत्रु कुरुदेश का राजा हुआ जिसकी राजधानी हस्तिनापुर थी। (6) जितशत्रु पंचाल देश का राजा हुआ, जिसकी राजधानी कांपिल्यपुर थी। मल्ली कुमारी का जन्म २५-तए णं से महब्बले देवे तिहिं णाणेहि समग्गे उच्चट्ठाणट्ठिएसु गहेसु, सोमासु दिसासु वितिमिरासु विसुद्धासु, जइएसु सउणेसु, पयाहिणाणुकूलंसि भूमिसपिसि मारुतंसि पवायंसि, निष्फन्नसस्समेइणीयंसि कालंसि, पमुइयपक्कीलिएसु जणवएसु, अद्धरत्तकालसमयंसि अस्सिणोनक्खत्तेणं Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222] [ ज्ञाताधर्मकथा जोगमुवागएणं, जे से हेमंताणं चउत्थे मासे, अट्ठमे पक्खे फरगुणसुद्धे, तस्स णं फग्गुणसुद्धस्स चउत्थिपक्खेणं जयंताओ विमाणाओ बत्तीससागरोवमद्विइयाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए रायहाणोए कुंभगस्स रन्नो पभावईए देवोए कुच्छिसि आहारवक्कंतीए सरीरवक्कंतीए भववक्कतीए गब्भत्ताए वक्ते / तत्पश्चात् वह महाबल देव तीन ज्ञानों-मति, श्रुत और अवधि से युक्त होकर, जब समस्त ग्रह उच्च स्थान पर रहे थे, सभी दिशायें सौम्य-उत्पात से रहित, वितिमिर--अंधकार से रहित और विशुद्ध-धूल आदि से रहित थीं, पक्षियों के शब्द आदि रूपश कुन विजयकारक थे, वायु दक्षिण की ओर चल रहा था और वायु अनुकूल अर्थात् शीतल मंद और सुगन्ध रूप होकर पृथ्वी पर प्रसार कर रहा था, पृथ्वी पर धान्य निष्पन्न हो गया था, इस कारण लोग अत्यन्त हर्षयुक्त होकर क्रीडा कर रहे थे, ऐसे समय में अर्द्ध रात्रि के अवसर पर अश्विनी नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग होने पर, हेमन्त ऋतु के चौथे मास, आठवें पक्ष अर्थात् फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में, चतुर्थी तिथि के पश्चात् भाग-रात्रिभाग में बतीस सागरोपम की स्थिति वाले जयन्त नामक विमान से, अनन्तर शरीर त्याग कर, इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भरतक्षेत्र में, मिथिला नामक राजधानी में, कुभ राजा की प्रभावती देवी की क ख में देवगति संबंधी आहार का त्याग करके, वैक्रिय शरीर का त्याग करके एवं देवभव का त्याग करके गर्भ के रूप में उत्पन्न हुआ। २६-तं रणि च णं पभावई देवी तंसि तारिसगंसि वासभवणंसि सणिज्जंसि जाव' अद्धरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमेयारूवे उराले कल्लाणे सिवे धण्णे मंगल्ले सस्सिरीए चउद्दसमहासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा / तंजहा गय-वसह-सोह-अभिसेय-दाम-ससि-दिणयर-अय-कुभे। पउमसर-सागर-विमाण-रयणुच्चय-सिहि च // तए णं सा पभावई देवी जेणेव कुभए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव' भत्तारकहणं, सुमिणपाढगपुच्छा जाव' विहरइ / उस रात्रि में प्रभावती देवी उस प्रकार के उस पूर्वणित (प्रथम अध्ययन में कथित) वास भवन में, पूर्ववर्णित शय्या पर यावत् अर्द्ध रात्रि के समय जब न गहरी सोई थी न जाग ही रही थी, बार-बार ऊंघ रही थी, तब इस प्रकार के प्रधान, कल्याणरूप, शिव-उपद्रवरहित, धन्य, मांगलिक और सश्रीक चौदह महास्वप्न देख कर जागी / वे चौदह स्वप्न इस प्रकार हैं--(१) गज (2) वृषभ (3) सिंह (4) अभिषेक (5) पुष्पमाला (6) चन्द्रमा (7) सूर्य (8) ध्वजा (9) कुम्भ (10) पद्मयुक्त सरोवर (11) सागर (12) विमान (13) रत्नों की राशि (14) धूमरहित अग्नि / / ये चौदह स्वप्न देखने के पश्चात् प्रभावती रानी जहाँ राजा कुम्भ थे, वहाँ आई / आकर पति से स्वप्नों का वृत्तान्त कहा / कुम्भ राजा ने स्वप्नपाठकों को बुलाकर स्वप्नों का फल पूछा। यावत् प्रभावती देवी हर्षित एवं संतुष्ट होकर विचरने लगी। 27 –तए णं तोसे पभावईए देवीए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं इमेयारवे डोहले 1. प्र. अ. 17 2-3. देखें प्र. अ. मेघ का गर्भागमन / Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन: मल्ली] [223 पाउन्भूए–'धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं जल-थलयभासुरप्पएणं दसवण्णणं मल्लेणं अत्युय-पच्चत्युयंसि सयणिज्जसि सन्निसन्नाओ सण्णिवन्नाओ य विहरति / एगं च महं सिरीदामगंडं पाडल-मल्लिय-चंपय-असोग-पुन्नाग-मरुयग-दमणग-अणोज्ज-कोज्जय-कोरंट-पत्तवरपउरं परमसुहफासदरिसणिज्ज महया गंधद्धणि मुयंत अग्घायमाणीओ डोहलं विणेति / तत्पश्चात् प्रभावती देवी को तीन मास बराबर पूर्ण हुए तो इस प्रकार का दोहद (मनोरथ) उत्पन्न हुग्रा-वे माताएं धन्य हैं जो जल और थल में उत्पन्न हुए देदीप्यमान, अनेक पंचरंगे पुष्पों से आच्छादित और पुनः पुनः आच्छादित की हुई शय्या पर सुखपूर्वक बैठी हुई और सुख से सोई हुई विचरती हैं तथा पाटला, मालती, चम्पा, अशोक, पुनाग के फूलों, मरुवा के पत्तों, दमनक के फूलों, निर्दोष शतपत्रिका के फूलों एवं कोरंट के उत्तम पत्तों से गूथे हुए, परमसुखदायक स्पर्श वाले, देखने में सुन्दर तथा अत्यन्त सौरभ छोड़ने वाले श्रीदामकाण्ड (सुन्दर माला) के समूह को सू घती हुई अपना दोहद पूर्ण करती हैं। २८--तए णं तीसे पभावईए देवीए इमेयारूवं डोहलं पाउन्भूयं पासित्ता अहासन्निहिया वाणमंतरा देवा खिप्पामेव जलथलय-भासुरप्पभयं दसद्धवन्नमल्लं भग्गसो य भारगिसो य क भग रणो भवणंसि साहरंति / एगं च णं महं सिरिदामगंडं जाव' गंधद्धणि मुयंत उवणेति / तत्पश्चात् प्रभावती देवी को इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुया देख कर-जान कर समीपवर्ती वाण-व्यन्तर देवों ने शीघ्र ही जल और थल में उत्पन्न हुए यावत् पाँच वर्ण वाले पुष्प, कुम्भों और भारों के प्रमाण में अर्थात् बहुत से पुष्प कुम्भ राजा के भवन में लाकर पहुंचा दिये / इसके अतिरिक्त सुखप्रद एवं सुगन्ध फैलाता हुआ एक श्रीदामकाण्ड भी लाकर पहुँचा दिया। विवेचन माता की इच्छा की देवों द्वारा इस प्रकार पूत्ति करना गर्भस्थ तीर्थकर के असाधारण और सर्वोत्कृष्ट पुण्य का प्रभाव है। २९-तए णं सा पभावई देवी जलथलयभासुरप्पभूएणं मल्लेणं डोहलं विणेइ / तए णं सा पभावई देवी पसत्थडोहला जाव विहरइ। तए णं सा पभावई देवी नवव्ह मासाणं अट्ठमाण य रतिदियाणं जे से हेमंताणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे मग्गसिरसुद्धे, तस्स णं मग्गसिरसुद्धस्स एक्कारसोए पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अस्सिणीनक्खत्तेणं जोगमुवागएणं उच्चट्ठाणगएस गहेस जाव' पमुइयपक्कोलिएस् जणवएसु आरोयारोयं एगणवीसइमं तित्थयरं पयाया। तत्पश्चात् प्रभावती देवी ने जल और थल में उत्पन्न देदीप्यमान पंचवर्ण के फूलों की माला से अपना दोहला पूर्ण किया। तब प्रभावती देवी प्रशस्तदोहला होकर विचरने लगी। तत्पश्चात् प्रभावती देवी ने नौ मास और साढ़े सात दिवस पूर्ण होने पर, हेमन्त ऋतु के प्रथम मास में, दूसरे पक्ष में अर्थात् मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष में, मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन. मध्य रात्रि में, अश्विनी नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग होने पर, सभी ग्रहों के उच्च स्थान 1. देखें पूर्व सूत्र 2. प्रष्ट अ.२५ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] ज्ञिाताधर्मकथा पर स्थित होने पर, सभी दिशाएं सौम्य-उत्पातरहित, वितिमिर-अन्धकार से रहित और विशुद्धधूलादि से रहित थीं, वायु दक्षिणावर्त्त-अनुकूल था, विजयकारक शकुन हो रहे थे, जब देश के सभी लोग प्रमुदित होकर क्रीड़ा कर रहे थे, ऐसे समय में, आरोग्य-आरोग्यपूर्वक अर्थात् विना किसी बाधा-पीड़ा के उन्नीसवें तीर्थंकर को जन्म दिया / कहन ३०-तेणं कालेणं तेणं समएणं अहोलोगवत्थवाओ अट्ट दिसाकुमारीओ महयरीयाओ जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए जम्मणं सव्वं भाणियब्दं / नवरं मिहिलाए नयरीए कुभरायस्स भवणंसि पभावईए देवीए अभिलावो संदोए वो जाव नंदीसरवरे दीवे महिमा / उस काल और उस समय में अधोलोक में बसने वाली महत्तरिका दिशा-कुमारिकाएं आई इत्यादि जन्म का जो वर्णन जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में पाया है, वह सब यहां समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि मिथिला नगरी में, कुम्भ राजा के भवन में, प्रभावती देवी का आलापक कहना-नाम हना चाहिए / यावत् देवों ने जन्माभिषेक करके नन्दीश्वर द्वीप में जाकर (अठाई) महोत्सव किया / ३१-तया णं कुभए राया बहूहि भवणवइवाण-वितर-जोइसिय-वेमाणिएहि देवेहि तित्थयरजम्मणाभिसेयं जायकम्म जाव नामकरणं, जम्हा णं अम्हे इमीए दारियाए माउगभंसि वक्कममाणंसि मल्लसयणिज्जसि डोहले विणीए, तं होउ णं णामेणं मल्ली, नाम ठवेइ, जहा महाबले नाम जाव परिवड्डिया। [ सा वडई भगवई, दियालोयचुया अणोपमसिरीया / दासीदासपरिवुडा, परिकिन्ना पीढमहिं // 1 // असियसिरया सुनयणा, बिबोट्ठी धवलदंतपंतीया। वरकमलगभगोरी फुल्लुप्पलगंधनीसासा // 2 // ] तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने एवं बहुत-से भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों ने तीर्थकर का जन्माभिषेक किया, फिर जातकर्म आदि संस्कार किये, यावत नामकरण कियाक्योंकि जब हमारी यह पुत्री माता के गर्भ में आई थी, तब माल्य (पुष्प) की शय्या में सोने का दोहद उत्पन्न हना था और वह पूर्ण हया था, अतएव इसका नाम 'मल्ली' हो / ऐसा कहकर उसका मल्ली नाम रखा / जैसे भगवतीसूत्र में महाबल नाम रखने का वर्णन है, वैसा ही यहां जानना चाहिए / यावत् मल्ली कुमारी क्रमशः वृद्धि को प्राप्त हुई। [देवलोक से च्युत हुई वह भगवती मल्ली वृद्धि को प्राप्त हुई तो अनुपम शोभा से सम्पन्न हो गई, दासियों और दासों से परिवृत हुई और पीठमर्दो (सखायों) से घिरी रहने लगी। उसके मस्तक के केश काले थे, नयन सुन्दर थे, होठ बिम्बफल के समान लाल थे, दांतों की कतार श्वेत थी और शरीर श्रेष्ठ कमल के गर्भ के समान गौरवर्ण वाला था। उसका श्वासोच्छ्वास विकस्वर कमल के समान गंध वाला था।] विवेचन-टीकाकार का कथन है कि प्रायः स्त्रियों के पीठमर्दक नहीं होते, अतः यह विशेषण यहां सम्भव नहीं। या फिर तीर्थकर का चरित्र लोकोत्तर होता है, अतः असम्भव भी नहीं समझना चाहिए। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [ 225 कमल का गर्भ गौरवर्ण होता है, मल्ली का वर्ण प्रियंगु के समान श्याम था / अतः यह विशेषण भी उपयक्त प्रतीत नहीं होता। वस्ततः ये दोनों गाथाएं प्रक्षिप्त हैं। उल्लिखित सब विशेषण मल्ली में घटित नहीं होते। किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में ये विशेषण पाये भी नहीं जाते / अथवा 'वरकमलगभं' का अर्थ कस्तूरी समझना चाहिए / कस्तूरी के वर्ण को उपमा घटित हो सकती है, किन्तु भाषा-शास्त्र की दृष्टि से यह अर्थ चिन्तनीय है / ३२-तए णं सा मल्लो विदेहवररायकन्ता उम्मुक्कबालभावा जाव [विण्णयपरिणयमेत्ता जोव्वणमणुपत्ता] रूवेण य जोवणेण य लावणेण य अईव अईव उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यादि होत्था। तत्पश्चात् विदेहराज की वह श्रेष्ठ कन्या (मल्ली) बाल्यावस्था से मुक्त हुई यावत् (समझदार हुई, यौवनवय को प्राप्त हुई) तथा रूप, यौवन और लावण्य से अतीव-अतीव उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीर वाली हो गई। ३३---तए णं सा मल्ली विदेहवररायकन्ना देसूणवाससयजाया ते छप्पि य रायाणो विपुलेण ओहिणा आभोएमाणी आभोएमाणी विहरइ, तंजहा-पडिबुद्धि जाव [इक्खागरायं, चंदच्छायं अंगरायं रुप्पि कुणालाहिवई संखं कासिरायं अदोणसत्तुं कुरुरायं] जियसत्तुं पंचालाहिवइं। __ तत्पश्चात् विदेहराज की वह उत्तम कन्या मल्ली कुछ कम सौ वर्ष की हो गई, तब वह उन (पूर्व के बालमित्र) छहों राजाओं को अपने विपुल अवधिज्ञान से जानती-देखती हुई रहने लगी। वे इस प्रकार-प्रतिबुद्धि यावत् [इक्ष्वाकुराज, चन्द्रच्छाय अंगराज, शंख काशीराज, रुक्मि कुणालराज, अदीनशत्रु कुरुराज] तथा पंचालदेश के राजा जितशत्रु को बार-बार देखती हुई रहने लगी। मोहनगृह का निर्माण ३४-तए णं सा मल्ली विदेहवररायकन्ना कोडुबियपुरिसे (सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासो'गच्छह णं देवाणुप्पिया ! असोगवणियाए एगं महं मोहणघरं करेह अणेयखंभसयसन्निविटुं। तत्थ णं मोहणघरस्स बहुमज्झदेसभाए छ गम्भधरए करेह / तेसिं णं गब्भघराणं बहुमज्झदेसभाए जालघरयं करेह / तस्स णं जालघरयस्स बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियं करेह / ' ते वि तहेव जाव पच्चप्पिणंति / ___तत्पश्चात् विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया–बुलाकर कहा- 'देवानुप्रियो ! जाओ और अशोकवाटिका में एक बड़ा मोहनगृह (मोह उत्पन्न करने वाला अतिशय रमणीय घर) बनायो, जो अनेक सैकड़ों खम्भों से बना हुआ हो। उस मोहनगृह के एकदम मध्य भाग में छह गर्भगृह (कमरे) बनायो / उन छहों गर्भगृहों के ठीक बीच में एक जालगृह (जिसके चारों ओर जाली लगी हो और उसके भीतर की वस्तु बाहर वाले देख सकते हों ऐसा घर) बनायो / उस जालगृह के मध्य में एक मणिमय पीठिका बनाओ।' यह सुनकर कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार सर्व निर्माण कर प्राज्ञा वापिस सौंपी। ३५-तए णं मल्ली मणिपेढियाए उरि अप्पणो सरिसियं सरिसत्तयं सरिसव्वयं सरिसलावन्न-जोव्वण-गुणोववेयं कणगमई मत्थयच्छिड्डं पउमुप्पलप्पिहाणं पडिमं करेइ, करित्ता जं विपुलं Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 ] [ ज्ञाताधर्मकथा असणं पाणं खाइमं साइमं आहारेइ, तओ मणुन्नाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ कल्लाकल्लि एगमेगं पिंडं गहाय तीसे कणगमईए मत्थयच्छिड्डाए जाव पडिमाए मत्थयंसि पविखवमाणी विहरइ / / तत्पश्चात् उस मल्ली कुमारी ने मणिपीठिका के ऊपर अपनी जैसी, अपनी जैसी त्वचावाली, अपनी सरीखी उम्र की दिखाई देने वाली, समान लावण्य, यौवन और गुणों से युक्त एक सुवर्ण की प्रतिमा बनवाई / उस प्रतिमा के मस्तक पर छिद्र था और उस पर कमल का ढक्कन था / इस प्रकार की प्रतिमा बनवा कर जो विपल अशन. पान.खाद्य और स्वाद्य वह खाती थी. पान, खाद्य और स्वाद्य में से प्रतिदिन एक-एक पिण्ड (कवल) लेकर उस स्वर्णमयी, मस्तक में छेद वाली यावत् प्रतिमा में, मस्तक में से डालती रहती थी। ३६--तए णं तीसे कणगमईए जाव मत्थयछिड़ाए पडिमाए एगमेगंसि पिडे पक्खिप्पमाणे पक्खिप्पमाणे पउमुप्पलपिहाणं पिहेइ / तओ गंधे पाउन्भवइ, से जहानामए अहिमडेइ वा जाव [गोमडे इ वा, सुणहमडे इ वा, मज्जारमडे इ वा, मणुस्समडे इ वा, महिसमडे इ वा, मूसगमडे इ वा, आसमडे इ वा, हत्थिमडे इ वा, सोहमडे इ बा, वग्घमडे इ बा, विगमडे इ वा, दीविगमडे इ वा] मयकुहिय-विण-दुरभिवण्ण-दुब्भिगंधे किमिजालाउलसंसत्ते असुइ-विलोण-विगय-वीभच्छदरिसणिज्जे भवेयारूवे सिया? नो इणठे समढे / एत्तो अणिटुतराए चेव अकंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुण्णतराए चेव अमणामतराए। तत्पश्चात् उस स्वर्णमयी यावत् मस्तक में छिद्र वाली प्रतिमा में एक-एक पिण्ड डाल-डाल कर कमल का ढक्कन ढंक देती थी / इससे उसमें ऐसो दुर्गन्ध उत्पन्न होती थी जैसे सर्प के मृत कलेवर की हो, यावत् [गाय के मृत कलेवर, कुत्ते के मृत कलेवर, मार्जार (विलाव) के मृत कलेवर, मनुष्य के मृत कलेवर, महिष के मृत कलेवर, इसी प्रकार मूषक (चूहे), अश्व, हस्ती, सिंह, व्याघ्र, वृक (भेड़िया)या द्वीपिका के मृत कलेवर की हो] और वह भी मरने के पश्चात् सड़े-गले, दुर्वर्ण एवं दुर्गन्ध वाले, कीड़ों के समूह जिसमें बिलबिला रहे हों, जो अशुचिमय, विकृत तथा देखने में वीभत्स हो / क्या उस प्रतिमा में से ऐसी.-मृत कलेवर को गन्ध के समान दुर्गन्ध निकलती थी? नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं, अर्थात् वह दुर्गन्ध ऐसी नहीं थी वरन् उससे भी अधिक अनिष्ट, उससे भी अधिक अकमनीय, उससे भी अधिक अप्रिय, उसमे भी अधिक अमनोरम और उसमे भी अधिक अनिष्ट गन्ध उत्पन्न होती थी। राजा प्रतिबुद्धि ३७-तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसले नाम जणवए होत्था। तत्थ णं सागेए नाम नयरे होत्था / तस्स णं उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए एत्थ णं महं एगे पागधरए होत्था दिव्वे सच्चे सच्चोवाए संनिहियपाडिहेरे। उस काल और उस समय में कौशल नामक देश था। उसमें साकेत नामक नगर था। उस नगर से उत्तरपूर्व (ईशान) दिशा में एक नागगृह (नागदेव की प्रतिमा से युक्त चैत्य) था / वह प्रधान Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] . [ 227 था, सत्य था अर्थात् नागदेव का कथन सत्य सिद्ध होता था, उसकी सेवा सफल होती थी और वह देवाधिष्ठित था। ३८-तत्थ णं नयरे पडिबुद्धी नाम इक्खागराया परिवसइ, तस्स पउमावई देवी, सुबुद्धी अमच्चे साम-दंड भेद-उपप्पयाण-नीतिसुपउत्त-णयविहण्णू जाव' रज्जधुराचितए होत्था। उस साकेत नगर में प्रतिबुद्धि नामक इक्ष्वाकुवंश का राजा निवास करता था / पद्मावती उसकी पटरानी थी, सुवुद्धि अमात्य था, जो साम, दंड, भेद और उपप्रदान नीतियों में कुशल था यावत् राज्यधुरी की चिन्ता करने वाला था, राज्य का संचालन करता था। ३९-तए णं पउमावईए अन्नया कयाई नागजन्नए यावि होत्था। तए णं सा पउमावई नागजनमुवट्ठियं जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धी राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० जाव [परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट जएणं विजएणं बद्धावेइ ] बद्धावेत्ता एवं वयासी'एवं खलु सामी! मम कल्लं नागजन्नए यावि भविस्सइ, तं इच्छामि णं सामी ! तुहि अब्भणुनाया समाणी नागजन्नयं गमित्तए, तुन्भे वि णं सामी ! मम नागजन्नंसि समोसरह / किसी समय एक बार पद्मावती देवी की नागपूजा का उत्सव आया। तब पद्मावती देवी नागपूजा का उत्सव पाया जानकर प्रतिबुद्धि राजा के पास गई / पास जाकर दोनों हाथ जोड़कर दसों नखों को एकत्र करके, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोली-~-'स्वामिन् ! कल मुझे नागपूजा करनी है। अतएव आपकी अनुमति पाकर मैं नागपूजा करने के लिए जाना चाहती हूँ। स्वामिन् ! अाप भी मेरी नागपूजा में पधारो, ऐसी मेरी इच्छा है / ' ४०–तए णं पडिबुद्धी पउमावईए देवीए एयमलैं पडिसुणेइ / तए णं पउमावई पडिबुद्धिणा रण्णा अब्भणुनाया हट्टतुट्ठा कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम कल्लं नागजन्नए भविस्सइ, तं तुब्भे मालागारे सद्दावेह, सद्दावित्ता एवं वयह-- तब प्रतिबुद्धि राजा ने पद्मावती देवी की यह बात स्वीकार की / पद्मावती देवी राजा को अनुमति पाकर हर्षित और सन्तुष्ट हुई। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा-- 'देवानुप्रियो ! कल यहाँ मेरे नागपूजा होगी, सो तुम मालाकारों को बुलायो और उन्हें इस प्रकार कहो 41 –'एवं खलु पउमावईए देवीए कल्लं नागजन्नए भविस्सइ, तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! जलथलयभासुरप्पभूयं दसद्धवन्नं मल्लं नागघरयंसि साहरह, एगं च णं महं सिरिदामगंडं उवणेह / तए णं जलथलयभासुरप्पभूएणं दसद्धवन्नेणं मल्लेणं णाणाविहभत्तिसुविरइयं करेह / तंसि भत्तिसि हंसमिय-मऊर-कोंच-सारस-चक्कवाय-मयणसाल-कोइलकुलोववेयं ईहामियं जावर भत्तिचित्तं महग्यं महरिहं विपुलं पुप्फमंडवं विरएह / तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एगं महं सिरिदामगंडं जाव' गंधद्धणि मुयंत उल्लोयंसि ओलंबेह। ओलंबित्ता पउमावई देवि पडिवालेमाणा पडिवालेमाणा चिट्ठह / ' तए णं ते कोड बिया जाव चिठ्ठति / 1. प्रथम अ. 15 2. प्र. अ. 31 3. अष्टम अ.१७ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228] [ ज्ञाताधर्मकथा 'निश्चय ही पद्मावती देवी के यहाँ कल नागपूजा होगी। अतएव हे देवानुप्रियो ! तुम जल और स्थल में उत्पन्न हुए पांचों रंगों के ताजा फूल नागगृह में ले जानो और एक श्रीदामकाण्ड (शोभित मालाओं का समूह) बना कर लायो / तत्पश्चात् जल और स्थल में उत्पन्न होने वाले पांच वर्षों के फूलों से विविध प्रकार की रचना करके उसे सजायो / उस रचना में हंस, मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, चक्रवाक, मदनशाल (मैना) और कोकिलों के समूह से युक्त तथा ईहामृग, वृषभ, तुरग आदि की रचना वाले चित्र बनाकर महामूल्यवान्, महान् जनों के योग्य और विस्तार वाला एक पुष्पमंडप बनायो / उस पुष्पमंडप के मध्य भाग में एक महान् और गंध के समूह को छोड़ने वाला श्रीदामकाण्ड उल्लोच (छत) पर लटकायो / लटकाकर पद्मावती देवी की राह देखते-देखते ठहरो।' तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष इसी प्रकार कार्य करके यावत् पद्मावती की राह देखते हुए नागगृह में ठहरते हैं। ४२-तए णं सा पउमावई देवी कल्लं' कोड बियपूरिसे सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-- खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! सागेयं नगरं सब्भितरबाहिरियं आसित्त-सम्मज्जियोवलित्तं जाव' पच्चप्पिणंति। तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही साकेत नगर में भीतर और बाहर पानी सीचो, सफाई करो और लिपाई करो। यावत् (सुगंधित करो, सुगंध की गोली जैसा बना दो।) वे कौटुम्बिक पुरुष उसी प्रकार कार्य करके आज्ञा वपिस लौटाते हैं। ४३--तए णं सा पउमावई देवी दोच्चं पि कोड बियपुरिसे सहावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी'खिप्पामेव देवाणुप्पिया ! लहुकरणजुत्तं जाव' जुत्तामेव उवट्ठवेह / ' तए णं ते वि तहेव उवट्ठति / तए णं सा पउमावई अंतो अंतेउरंसि व्हाया जाव धम्मियं जाणं दुरूढा / तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही लघुकरण से युक्त (द्रुतगामी अश्व बाले) यावत् रथ को जोड़कर उपस्थित करो।' तब वे भी उसी प्रकार रथ उपस्थित करते हैं। तत्पश्चात् पद्मावती देवी अन्तःपुर के अन्दर स्नान करके यावत् [बलिकर्म, कौतुक, मंगल], प्रायश्चित्त करके धार्मिक (धर्मकार्य के लिए काम में आने वाले) यान पर अर्थात् रथ पर आरूढ हुई / ४४–तए णं सा पउमावई नियगपरिवालसंपरिवडा सागेयं नगरं मझमज्झेणं णिज्जइ, णिज्जित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता पुक्खरिणि ओगाहेइ / ओगाहित्ता जलमज्जणं जाव [करेइ, करित्ता जलकोडं करेइ, करेत्ता पहाया कयबलिकम्मा] परम-सुइभूया उल्लपडसाडया जाई तत्थ उप्पलाइं जाव [पउमाई कुमुयाई गलिणाई सुभगाई सोगंधियाइं पोंडरीयाई महापोंडरीयाई सयपत्ताई सहस्सपत्ताई ताई] गेण्हइ / गेण्हित्ता जेणेव नागघरए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। 1. प्र.अ.१४ २.प्र.अ.७७ 3. उपासकदशा 1 4. प्र. अ.८० For Private & Personal use only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [229 तत्पश्चात् पद्मावती देवी अपने परिवार से परिवृत होकर साकेत नगर के बीच में होकर निकली। निकलकर जहाँ पुष्करिणी थी वहाँ आई / आकर पुष्करिणी में प्रवेश किया। प्रवेश करके यावत् [जलक्रीड़ा को, स्नान किया, बलिकर्म किया और अत्यन्त शुचि होकर गीली साड़ी पहनकर वहां जो कमल, (कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र सहस्रपत्र) आदि विभिन्न जाति के कमल) थे, उन्हें यावत् ग्रहण किया / ग्रहण करके जहाँ नागगृह था, वहाँ जाने के लिए प्रस्थान किया। ४५-तए णं पउमावई दासचेडीओ बहूओ पुष्फपडलगहत्यगयाओ धूवकडुच्छगहत्थगयाओ पिट्ठओ समणुगच्छति। तए णं पउमावई सविडोए जेणव पागधरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नागघरयं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता लोमहत्थगं जाब' धूवं डहइ, डहित्ता पडिबुद्धि रायं पडिवालेमाणी पडिवालेमाणी चिट्ठइ। तत्पश्चात् पद्मावती देवी की बहुत-सी दास-चेटियाँ (दासियां) फूलों की छवड़ियाँ तथा धूप की कुडछियां हाथ में लेकर पीछे-पीछे चलने लगीं। तत्पश्चात् पद्मावती देवी सर्व ऋद्धि के साथ--पूरे ठाठ के साथ-जहाँ नागगृह था, वहां आई। आकर नागगृह में प्रविष्ट हुई। प्रविष्ट होकर रोमहस्त (पींछी) लेकर प्रतिमा का प्रमार्जन किया, यावत् धूप खेई / धूप खेकर प्रतिबुद्धि राजा की प्रतीक्षा करती हुई वहीं ठहरी / ४६-तए णं पडिबुद्धी राया पहाए हथिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहि वीइज्जमाणे हय-गय-रह-जोह-महयाभडचडगरपहकरेहि साकेयं नगरं मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छिता जेणेव णागघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरहइ, पच्चोरहित्ता आलोए पणामं करेइ, करिता पुष्फमंडवं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता पासइ तं एगं महं सिरिदामगंडं। तत्पश्चात् प्रतिबुद्धि राजा स्नान करके श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आसीन हुआ। कोरंट के फूलों सहित अन्य पुष्पों की मालाएँ जिसमें लपेटी हुई थीं, ऐसा छत्र उसके मस्तक पर धारण किया गया / यावत् उत्तम श्वेत चामर ढोरे जाने लगे। उसके आगे-आगे विशाल घोड़े, हाथी, रथ और पैदल योद्धा-यह चतुरंगी सेना चली / सुभटों के बड़े समूह के समूह चले / वह साकेत नगर के मध्य भाग में होकर निकला / निकल कर जहाँ नागगृह था, वहां अाया। पाकर हाथी के स्कंध से नीचे उतरा / उतरकर प्रतिमा पर दृष्टि पड़ते ही उसे प्रणाम किया। प्रणाम करके पुष्प-मंडप में प्रवेश किया। प्रवेश करके वहां उसने एक महान् श्रीदामकाण्ड देखा। ४७–तए णं पडिबुद्धी तं सिरिदामगंडं सुदूरं कालं निरिक्खइ, निरिक्खित्ता तसि सिरिदा. मगंडंसि जायविम्हए सुबुद्धि अमच्चं एवं वयासी 'तुमं गं देवाणुप्पिया ! मम दोच्चेणं बहूणि गामागर० जाव संनिवेसाई आहिंडसि, बहूणि 1. द्वि. अ. 15 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 ] [ ज्ञाताधर्मकथा राईसर जाव' गिहाई अणुपविससि, तं अस्थि णं तुमे कहिचि एरिसए सिरिदामगंडे दिट्टपुष्वे, जारिसए णं इमे पउमावईए देवीए सिरिदामगंडे ? तत्पश्चात् प्रतिबुद्धि राजा उस श्रीदामकाण्ड को बहुत देर तक देखता रहा / देख कर उस श्रीदामकाण्ड के विषय में उसे आश्चर्य उत्पन्न हुया. उसे देखकर चकित रह गया / उसने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहा _ हे देवानुप्रिय ! तुम मेरे दौत्य कार्य से दूत के रूप में बहुतेरे ग्रामों, प्राकरों, नगरों यावत् सनिवेशों आदि में घूमते हो और बहुत से राजाओं एवं ईश्वरों [तलवर, माडविक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति आदि के गृहों में प्रवेश करते हो; तो क्या तुमने ऐसा सुन्दर श्रीदामकाण्ड पहले कहीं देखा है, जैसा पद्मावती देवी का यह श्रीदामकाण्ड है ? 48- तए णं सुबुद्धी पडिबुद्धि रायं एवं बयासी-एवं खलु सामी ! अहं अन्नया कयाई तुम्भं दोच्चेणं मिहिलं रायहाणि गए, तत्थ णं मए कुभगस्स रण्णो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहवररायकन्नाए संवच्छरपडिलेहणगंसि दिवे सिरिदामगंडे दिट्टपुटवे / तस्स णं सिरिदामगंडस्स इमे पउमावईए सिरिदामगंडे सयसहस्सइमं पि कलं न अग्घइ / तब सुबुद्धि अमात्य ने प्रतिबुद्धि राजा से कहा-स्वामिन् ! मैं एक बार किसी समय आपके दौत्यकार्य से मिथिला राजधानी गया था। वहां मैंने कुभ राजा की पुत्री और प्रभावती देवी की आत्मजा, विदेह की उत्तम राजकुमारी मल्ली के संवत्सर-प्रतिलेखन उत्सव (जन्मगांठ) के महोत्सव के समय दिव्य श्रीदामकाण्ड देखा था / उस श्रीदामकाण्ड के सामने पद्मावती देवी का यह श्रीदामकाण्ड शतसहस्र -लाखवां अंश भी नहीं पाता-लाख- अंश की भी बराबरी नहीं कर सकता। ___ 49 तए णं पडिबुद्धी राया सुबुद्धि अमच्चं एवं वयासी–केरिसिया णं देवाणुप्पिया ! मल्ली विदेहवररायकन्ना जस्स णं संवच्छरपडिलेहणयंसि सिरिदामगंडस्स पउमावईए देवीए सिरिदामगंडे सयसहस्सइमं पि कलं न अग्घइ ? ___ तए णं सुबुद्धी अमच्चे पडिबुद्धि इवखागुरायं एवं वयासी–एवं खलु सामी ! मल्ली विदेहवररायकन्नगा सपइट्ठियकुम्मुन्नयचारुचरणा, वन्नओ। तत्पश्चात् प्रतिबुद्धि राजा ने सुबुद्धि मंत्री से इस प्रकार कहा–देवानुप्रिय ! विदेह की श्रेष्ठ राजकुमारी मल्ली कैसी है ? जिसकी जन्मगांठ के उत्सव में बनाये गये श्रीदामकाण्ड के सामने पद्मावती देवी का यह श्रीदामकाण्ड लाखवां अंश भी नहीं पाता? ___ तव सुबुद्धि मंत्री ने इक्ष्वाकुराज प्रतिबुद्धि से कहा-स्वामिन् ! विदेह की श्रेष्ठ राजकुमारी मल्ली सुप्रतिष्ठित और कछुए के समान उन्नत एवं सुन्दर चरण वाली है, इत्यादि वर्णन जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि के अनुसार जान लेना चाहिए। ५०–तए णं पडिबुद्धी राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए एयमढें सोच्चा णिसम्म सिरिदा१. पञ्जम अ.५ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] . [231 मगंडजणियहासे दूयं सदावेइ, सद्दाविता एवं वयासी-गच्छाहि णं तुमं देवाणुप्पिया ! मिहिलं रायहाणि, तत्थ णं कुम्भगस्स रणो धूयं पउमावईए देवीए अत्तयं मल्लि विदेहवररायकाणगं मम भारियत्ताए वरेहि, जइ वि णं सा सयं रज्जसु का / तत्पश्चात् प्रतिबुद्धि राजा ने सुबुद्धि अमात्य से यह अर्थ (बात) सुनकर और हृदय में धारण करके और श्रीदामकाण्ड की बात से हर्षित (प्रमुदित-अनुरक्त) होकर दूत को बुलाया / बुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! तुम मिथिला राजधानी जानो। वहाँ कुम्भ राजा की पुत्री, पद्मावती देवी का पात्मजा और विदेह को प्रधान राजकुमारी मल्ली की मेरी पत्नी के रूप में मंगनी करो। फिर भले ही उसके लिए सारा राज्य शुल्क --मूल्य रूप में देना पड़े। विवेचन--इस पाठ से आभास होता है कि प्राचीन काल में कन्या ग्रहण करने के लिए शुल्क देना पड़ता था / अन्य स्थलों में भी अनेक बार ऐसा ही पाठ पाता है / यह कन्याविक्रय का ही एक रूप था जो हमारे समाज में कुछ वर्षों पूर्व तक प्रचलित था / अब पलड़ा पलट गया है और कन्याविक्रय के बदले वर-विक्रय की धणित प्रथा चल पड़ी है। यों यह एक सामाजिक प्रथा है किन्तु धार्मिक जीवन पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ता है। साधारण प्राय से भी मनुष्य अपनी उदरपूर्ति कर सकता है और तन ढंक सकता है। उसके लिए अनीति और अधर्म से अर्थोपार्जन की आवश्यकता नहीं, किन्तु वर खरीदने अर्थात् विवश होकर दहेज देने के लिए अनीति और अधर्म का आचरण करना पड़ता है। इस प्रकार इस कुप्रथा के कारण अनीति और अधर्म की समाज में वृद्धि होती है। ५१–तए णं से दूए पडिबुद्धिणा रण्णा एवं वुते समाणे हद्वतुठे पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता जेणेव सए गिहे, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं पडिकम्पावेइ, पडिकप्पावित्ता दुरूढे जाव हय-गय-[ रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिबुडे ] महयाभडचडगरेणं साएयाओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव विदेहजणवए जेणेव मिहिला रायहाणी तेणेव पहारेत्थ गमणाए / तत्पश्चात् उस दूत ने प्रतिवुद्धि राजा के इस प्रकार कहने पर हर्षित और संतुष्ट होकर उसकी आज्ञा अंगीकार की। अंगीकार करके जहाँ अपना घर था और जहाँ चार घंटों वाला अश्वरथ था, वहाँ पाया। पाकर (ग्रागे, पीछे और अगल-बगल में) चार घंटों वाले अश्व-रथ को तैयार कराया। तैयार करवाकर उस पर पारूढ हना। यावत घोडों, हाथियों (रथों, उत्तम योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना के साथ) और बहुत से सुभटों के समूह के साथ साकेत नगर से निकला। निकल कर जहाँ विदेह जनपद था और जहाँ मिथिला राजधानी थी, वहाँ जाने के लिए प्रस्थान किया-चल दिया। विवेचन-श्रीदामकाण्ड की चर्चा में से मल्ली कुमारी के अनुपम सौन्दर्य की बात निकली। राजा को मल्ली कुमारी के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। इस अनुराग का तात्कालिक निमित्त श्रीदामकाण्ड हो अथवा मल्ली के सौन्दर्य का वर्णन, किन्तु मूल और अन्तरंग कारण पूर्वभव की प्रीति के संस्कार हो समझना चाहिए। मल्ली कुमारी जब महाबल के पूर्वभव में थी तब उनके छह बाल्यमित्रों में इस भव का यह प्रतिबुद्धि राजा भी एक था। मल्ली कुमारी घटित होने वाली इन सब घटनाओं को पहले से ही अपने अतिशय ज्ञान से . Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232] [ ज्ञाताधर्मकथा जानती थी, इसी कारण उन्होंने अपने अनुरूप प्रतिमा का निर्माण करवाया था और छहों मित्रराजाओं को विरक्त बनाने के लिए विशिष्ट प्रायोजन किया था / राजा चन्द्रच्छाय ५२-तेणं कालेणं तेणं समएणं अंगे नाम जणवए होत्था / तत्थ णं चंपानामं णयरी होत्था / तत्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था। उस काल और उस समय में अंग नामक जनपद था। उसमें चम्पा नामक नगरी थी। उस चम्पा नगरो में चन्द्रच्छाय नामक अंगराज-अंग देश का राजा था। ५३-तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहनकपामोक्खा बहवे संजत्ता णावावाणियगा परिवसंति, अड्डा जाव' अपरिभूया। तए णं से अरहन्नगे समणोवासए यावि होत्था, अहिंगयजीवाजीवे, वन्नओ। उस चम्पानगरी में अर्हन्नक प्रभृति बहुत-से सांयात्रिक (परदेश जाकर व्यापार करने वाले) नौवणिक (नौकाओं से व्यापार करने वाले) रहते थे। वे ऋद्धिसम्पन्न थे और किसी से पराभूत होने वाले नहीं थे। उनमें अर्हन्नक श्रमणोपासक (श्रावक) भी था, वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था / यहाँ श्रावक का वर्णन जान लेना चाहिए। ५४-तए णं तेसि अरहन्नगपामोक्खाणं संजत्ताणावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमे एयारूवे मिहो कहासंलावे समुप्पज्जित्था--- 'सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुदं पोयवहणेण ओगाहित्तए ति कटु अन्नमन्नं एयमलैं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गेण्हइ, गेण्हित्ता सगडिसागडियं च सज्जेंति, सज्जित्ता गणिमस्स च धरिमस्स च मेज्जस्स च पारिच्छेज्जस्स च भंडगस्स सगडसागडियं भरेंति, भरित्ता सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्तमुहत्तंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाति, मित्त-णाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं भोयणवेलाए भुजावेंति जाव [भुजावेत्ता] आपुच्छति, आपुच्छिता सगडिसागडियं जोयंति, चंपाए नयरीए मझंमज्झेणं णिग्गच्छंति, णिग्गच्छित्ता जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छति। तत्पश्चात् वे अर्हन्नक आदि सांयात्रिक नौवणिक किसी समय एक बार एक जगह इकट्ठे हुए, तब उनमें आपस में इस प्रकार कथासंलाप (वार्तालाप) हुआ ____ 'हमें गणिम (गिन-गिन कर बेचने योग्य नारियल आदि), धरिम (तोल कर बेचने योग्य घृत आदि), मेय (पायली आदि में माप कर-भर कर बेचने योग्य अनाज आदि) और परिच्छेद्य (काट कर बेचने योग्य वस्त्र आदि), यह चार प्रकार का भांड (सौदा) लेकर, जहाज द्वारा लवणसमुद्र में प्रवेश करना चाहिये।' इस प्रकार विचार करके उन्होंने परस्पर में यह बात अंगीकार की। अंगीकार करके गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड को ग्रहण किया। ग्रहण करके छकड़ा-छकड़ी तैयार किए। तैयार करके गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड से छकड़ी-छकड़े भरे / भर कर शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार बनवाया / बनवाकर 1. द्वि. अ.६ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राठवां अध्ययन : मल्ली ] [ 233 भोजन की वेला में मित्रों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, संबंधीजनों एवं परिजनों को जिमाया, यावत् उनको अनुमति ली / अनुमति लेकर गाड़ी-गाड़े जोते / जोत कर चम्पा नगरी के बीचोंबीच होकर बाहर निकले / निकल कर जहां गंभीर नामक पोतपट्टन (बन्दरगाह) था, वहां आये। ५५–उवागच्छित्ता सगडिसागडियं मोयंति, मोइत्ता पोयवहणं सज्जति, सज्जित्ता गणिमस्स य धरिमस्स य मेज्जस्स य परिच्छेज्जस्स य चउम्विहस्स भंडगस्स भरेंति, भरित्ता तंडुलाण य समियस्स य तेल्लस्स य गुलस्स य घयस्स य गोरसस्स य उदयस्स य उदयभायणाण य ओसहाण य भेसज्जाण य तणस्स य कटुस्स य पावरणाण य पहरणाण य अन्नेसि च बहूणं पोयवहणपाउग्गाणं दवाणं पोयवहणं भरेंति / भरित्ता सोहणंसि तिहि करण-नक्खत्त-मुहत्तंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइम उवक्खडाति, उवक्खडावित्ता मित्त-गाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं आपुच्छंति, आपुच्छित्ता जेणेव पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छति / गंभीर नामक पोतपट्टन में आकर उन्होंने गाड़ी-गाड़े छोड़ दिए। छोड़कर जहाज सज्जित किये। सज्जित करके गणिम. धरिम, मेय और परिच्छेद्य-चार प्रकार का भां उसमें चावल, आटा, तेल, घी, गोरस (दही), पानी, पानी के बरतन, औषध, भेषज़, घास, लकड़ी, वस्त्र, शस्त्र तथा और भी जहाज में रखने योग्य अन्य वस्तुएँ जहाज में भरी / भर कर प्रशस्त तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया / तैयार करवा कर मित्रों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धियों एवं परिजनों को जिमा कर उनसे अनुमति ली / अनुमति लेकर जहाँ नौका का स्थान था, वहाँ (समुद्र किनारे) पाये। ५६-तए गं तेसि अरहन्नगपामोक्खाणं जाव [संजुत्ता-नावा] वाणियगाणं परियणा जाव ताहि [इटाहि कंताहि पियाहिं मणुण्णाहि मणामाहि ओरालाहि] वरहिं अभिनंदता य अभिसंथुणमाणा य एवं क्यासी- 'अज्ज ! ताय ! भाय ! माउल ! भाइणेज्ज! भगवया समुद्देणं अभिरक्खिज्जमाणा अभिरक्खिज्जमाणा चिरं जीवह, भदं च भे, पुणरवि लद्धठे कयकज्जे अणहसमग्गे नियगं घरं हव्वमागए पासामो' त्ति कटु ताहि सोमाहि निद्धाहिं दोहाहि सप्पिवासाहिं पप्पुयाहिं ट्ठिीहि निरिक्खमाणा मुहुत्तमेतं संचिट्ठति / तत्पश्चात् उन अर्हन्नक आदि यावत् नौका-वणिकों के परिजन (परिवार के लोग) यावत् [इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोरम एवं उदार] वचनों से अभिनन्दन करते हुए और उनकी प्रशंसा करते हुए इस प्रकार बोले-- 'हे आर्य (पितामह) ! हे तात ! हे भ्रात ! हे मामा ! हे भागिनेय ! आप इस भगवान् समुद्र द्वारा पुनः पुनः रक्षण किये जाते हुए चिरंजीवी हों। आपका मंगल हो। हम आपको अर्थ का लाभ करके, इष्ट कार्य सम्पन्न करके, निर्दोष-विना किसी विध्न के और ज्यों का त्यों घर पर आया शीघ्र देखें।' इस प्रकार कह कर सोम, स्नेहमय, दीर्घ, पिपासा वाली-सतृष्ण और अश्रुप्लावित दृष्टि से देखते-देखते वे लोग मुहूर्त्तमात्र अर्थात् थोड़ी देर तक वहीं खड़े रहे। ५७-तओ समाणिएसु पुप्फबलिकम्मेसु, दिन्नेसु सरस-रत्तचंदण-दद्दर-पंचंगुलितलेसु, अणुक्खितंसि धूवंसि, पूइएसु समुद्दवाएसु संसारियांसु वलयबाहासु, ऊसिएसु सिएसु झयग्गेसु, पडुप्पवाइएसु Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234] [ ज्ञाताधर्मकथा तूरेसु, जइएसु सव्वसउणेसु, गहिएसु रायवरसासणेसु, महया उक्किट्ठसोहनाय जाव [बोल-कलकल] रवेणं पक्खुभिय-महासमुद्द-रवभूयं पिव मेइणि करेमाणा एगदिसि जाव [एगाभिमुहा अरहन्नग. पामोक्खा संजुत्ता-नावा] वाणियगा णावं दुरूढा / तत्पश्चात् नौका में पुष्पबलि (पूजा) समाप्त होने पर, सरस रक्तचंदन का पांचों उंगलियों का थापा (छापा) लगाने पर, धूप खेई जाने पर, समुद्र की वायु की पूजा हो जाने पर, बलयवाहा (लम्बे काष्ठ-वल्ले) यथास्थान संभाल कर रख लेने पर, श्वेत पताकाएँ ऊपर फहरा देने पर, वाद्यों की मधुर ध्वनि होने पर, विजयकारक सब शकन होने पर, यात्रा के लिए राजा का ग्रादेशपत्र प्राप्त हो जाने पर, महान् और उत्कृष्ट सिंहनाद यावत् [कलकल] ध्वनि से, अत्यन्त क्षुब्ध हुए महासमुद्र की गर्जना के समान पृथ्वी को शब्दमय करते हुए एक तरफ से [एकाभिमुख होकर वे अहन्नक आदि सांयात्रिक नौका वणिक् ] नौका पर चढ़े / ५८-तओ पुस्तमाणवो वक्कमुदाहु-'हं भो ! सव्वेसिमवि अत्थसिद्धी, उडियाई कल्लाणाई, पडिहयाई सव्वपावाई, जुत्तो पूसो, विजओ मुहत्तो अयं देसकालो।' तओ पुस्समाणवेणं वक्कमुदाहिए हट्टतुट्ठा कुच्छिधार-कन्नधार-गन्भिज्जसंजत्ताणावावाणियगा वावारिसु, तं नावं पुन्नुच्छंगं पुण्णमुहिं बंधणेहितो मुचंति / तत्पश्चात् वन्दीजन ने इस प्रकार वचन कहा-'हे व्यापारियो ! तुम सब को अर्थ की सिद्धि हो, तुम्हें कल्याण प्राप्त हुए हैं, तुम्हारे समस्त पाप ( विघ्न ) नष्ट हुए हैं। इस समय पुष्य नक्षत्र चन्द्रमा से युक्त है और विजय नामक मुहूर्त है, अतः यह देश और काल यात्रा के लिए उत्तम है। तत्पश्चात् वन्दीजन के द्वारा इस प्रकार वाक्य कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए कुक्षिधार-नौका की बगल में रहकर बल्ले चलाने वाले, कर्णधार (खिवैया), गर्भज-नौका के मध्य में रहकर छोटे-मोटे कार्य करने वाले और वे सांयात्रिक नौकावणिक अपने-अपने कार्य में लग गये। फिर भांडों से परिपूर्ण मध्य भाग वाली और मंगल से परिपूर्ण अग्रभाग वाली उस नौका को बन्धनों से मुक्त किया। ५९-तए णं सा णावा विमुक्कबंधणा पवणबलसमाया उस्सियसिया विततपक्खा इव गरुडजुवई गंगासलिल-तिक्खसोयवेगेहि संखुब्भमाणी संखुब्भमाणी उम्मी-तरंग-मालासहस्साई समतिच्छमाणी समतिच्छमाणी कइवएहि अहोरत्तेहि लवणसमुददं अणेगाइं जोयणसयाई ओगाढा / तत्पश्चात् वह नौका बन्धनों से मुक्त हुई एवं पवन के बल से प्रेरित हुई। उस पर सफेद कपड़े का पाल चढ़ा हुआ था, अतएव ऐसी जान पड़ती थी जैसे पंख फैलाए कोई गरुड़-युवती हो ! वह गंगा के जल के त व प्रवाह के वेग से क्षुब्ध होती होती, हजारों मोटी तरंगों और छोटी तरंगों के समूह को उल्लंघन करती हुई कुछ अहोरात्रों ( दिन-रातों ) में लवणसमुद्र में कई सौ योजन दूर तक चली गई। ६०---तए णं तेसि अरहन्नगपामोक्णाणं संजत्तानावावाणियगाणं लवणसमुदं अणेगाइं जोयणसयाई ओगाढाणं समाणाणं बहूई उप्पाइयसयाई पाउन्भूयाई / तंजहा-- Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठवां अध्ययन : मल्ली ] [ 235 तत्पश्चात् कई सौ योजन लवण-समुद्र में पहुँचे हुए उन ग्रहन्नक प्रादि सांयात्रिक नौकावणिकों को बहुत से सेकड़ों उत्पात प्रादुर्भूत होने लगे। वे उत्पात इस प्रकार थे / ६१–अकाले गज्जिए, अकाले विज्जुए, अकाले थणियसद्दे, अभिक्खणं आगासे देवताओ णच्चंति, एगं च णं महं पिसायरूवं पासंति / अकाल में गर्जना होने लगी, अकाल में बिजली चमकने लगी, अकाल में मेघों की गंभीर गड़गड़ाहट होने लगी। वार-बार अाकाश में देवता (मेघ) नृत्य करने लगे। इसके अतिरिक्त एक ताड जैसे पिशाच का रूप दिखाई दिया। ६२--तालजंघं दिवं गयाहि बाहाहि मसिमूसगहिसकालगं, भरिय-मेहवन्न, लंबोठें, निम्गयम्गदंतं. निल्लालियजमलजयलजीह, आऊसिय-वयणगंडदेसं, चीणचिपिटनासियं, विगयभग्गभग्गभुमयं, खज्जोयग-दित्तचक्खुरागं, उत्तासणगं, विसालवच्छ, विसालकुच्छि, पलंबकुच्छि, पहसियपलियपयडियगतं, पणच्चमाणं, अष्फोडतं, अभिवयंतं, अभिगज्जंतं, बहुसो बहुसो अट्टहासे विणिम्मुयंतं नोलुप्पलगवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासं खुरधारं असि गहाय अभिमुहमावयमाणं पासंति / वह पिशाच ताड़ के समान लंबी जांघों वाला था और उसकी बाहुएँ आकाश तक पहुँची हुई थी / वह कज्जल, काले चूहे और भैंसे के समान काला था। उसका वर्ण जलभरे मेघ के समान था। उसके होठ लम्बे थे और दांतों के अग्रभाग मुख से बाहर निकले थे। उसने अपनी एक-सी दो जीभ मुह से बाहर निकाल रक्खी थीं / उसके गाल मुह में धंसे हुए थे। उसकी नाक छोटी और चपटी थी / भकुटि डरावनी और अत्यन्त वक्र थी। नेत्रों का वर्ण जुगनू के समान चमकता हुआ लाल था / देखने वाले को घोर त्रास पहुंचाने वाला था। उसकी छाती चौड़ी थी, कुक्षि विशाल और लम्बी थी / हँसते और चलते समय उसके अवयव ढीले दिखाई देते थे / वह नाच रहा था, आकाश को मानो फोड़ रहा था, सामने आ रहा था, गर्जना कर रहा था और बहुत-बहुत ठहाके मार रहा था / ऐसे काले कमल, भैंस के सींग, नील, अलसी के फूल के समान काली तथा छुरे को धार की तरह तीक्ष्ण तलवार लेकर पाते हुए पिशाच को उन वणिकों ने देखा। ६३–तए णं ते अरहण्णगवज्जा संजत्ताणावावाणियगा एगं च णं महं तालपिसायं पासंतितालजंघ, दिवं गयाहि बाहाहि, फुट्टसिरं भमर-णिगर-वरमासरासिमहिसकालगं, भरियमेहवणं, मुप्पणहं, फालसरिसजोह, लंबोळं धवल-बट्ट-असिलिट्ठ-तिक्ख-थिर-पोण-कुडिल-दाढोवगूढवयणं, विकोसिय-धारासिजुयल-समसरिस-तणुयचंचल-गलंतरसलोल-चवल-फुरुफुरंत-निल्लालियग्गजोहं अवयत्थिय-महल्ल-विगय-वीभच्छ-लालपगलंत-रत्ततालुय हिंगुलुय-सगब्भकंदरबिलं व अंजणगिरिस्स, अग्गिजालुग्गिलंतवयणं आऊसिय-अक्खचम्म-उइट्ठगंडदेसं चीण-चिविड-क-भग्गणासं, रोसागय-धमधमेन्त-मारुय-निठुर-खर-फरुसझुसिरं, ओभुग्गणासियपुडं घाडुब्भड-रइय-भोसणमुह, उद्धमुहकन्नसक्कुलिय-महंत-विगय-लोम-संखालग-लंबंत-चलियकन्न, पिंगलदिप्पंतलोयणं, भिउडितडियनिडालं नरसिरमाल-परिणचिद्धं, विचित्तगोणससुबद्धपरिकर अवहोलंत-पुप्फुयायंत सप्पविच्छुय-गोधु दर-नउलसरड-विरइयविचित्तवेयच्छमालियागं, भोगकर-कण्हसप्पधमधमेतलंबंतकन्नपूर, मज्जार-सियाललइयखंध, दित्तघुघुयंतधूयकयकुतलासरं, घंटारवेण भीम, भयंकर, कायरजणहिययफोडणं, दित्तमट्ट Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा हासं विणिम्मुयंत, वसा-रुहिर-पूय-मंस-मलमलिणपोच्चडतणु, उत्तासणयं, विसालवच्छं, पेच्छंता भिन्नणह-मुह-नयण-कन्नं वरवग्घ-चित्तकत्तीणिवसणं, सरस-रुहिर-गयचम्म-वितत ऊसविय-बाहुजुयलं, ताहि य खर-फरुस-असिणिद्ध-अणिट्ठ-दित्त-असुभ-अप्पिय-अकंतवम्गूहि य तज्जयंतं पासंति / (पूर्व वणित तालपिशाच का ही यहां विशेष वर्णन किया गया है / यह दूसरा वर्णन पाठ है) तत्पश्चात् अर्हन्नक के सिवाय दूसरे सांयात्रिक नौकावणिकों ने एक बड़े तालपिशाच को देखा / उसकी जांघे ताड वक्ष के समान लम्बी थीं और बाहएँ आकाश तक पहुँची हई खब लम्बी थीं। उसका मस्तक फटा हा था, अर्थात मस्तक के केश बिखरे थे / वह भ्रमरों के समूह, उत्तम उड़द के ढेर और भैंस के समान काला था। जल से परिपूर्ण मेघों के समान श्याम था। उसके नाखून सूप (छाजले) के समान थे। उसकी जीभ हल के फाल के समान थी-अर्थात् बावन पल प्रमाण अग्नि में तपाए गये लोहे के फाल के समान लाल चमचमातो और लम्बी थी। उसके होठ लम्बे थे। उसका मुख धवल, गोल, पृथक्-पृथक्, तीखी स्थिर, मोटी और टेढ़ी दाढ़ों से व्याप्त था। उसके दो जिह्वानों के अग्रभाग बिना म्यान की धारदार तलवार-युगल के समान थे, पतले थे, चपल थे, उनमें से निरन्तर लार टपक रही थी। वह रस-लोलुप थे, चंचल थे, लपलपा रहे थे और मुख से बाहर निकले हुए थे। मुख फटा होने से उसका लाल-लाल तालु खुला दिखाई देता था और वह बड़ा, विकृत, बीभत्स और लार झराने वाला था। उसके मुख से अग्नि की ज्वालाएं निकल रही थीं। अतएव वह ऐसा जान पड़ता था, जैसे हिंगलू से व्याप्त अंजनगिरि की गुफा रूपी बिल हो / सिकुड़े हए मोठ (चरस) के समान उसके गाल सिकुड़े हुए थे, अथवा उसकी इन्द्रियाँ, शरीर की चमड़ी, होठ और गाल-सब सल वाले थे। उसकी नाक छोटी थी, चपटी थी, टेढी थी और भग्न थी, अर्थात ऐसो जान पड़ती थी जैसे लोहे के धन से कूटपीट दी गई हो। उसके दोनों नथुनों (नासिकापुटों) से क्रोध के कारण निकलता हुअा श्वासवायु निष्ठुर और अत्यन्त कर्कश था। उसका मुख मनुष्य आदि के घात के लिए रचित होने से भीषण दिखाई देता था। उसके दोनों कान चपल और लम्बे थे, उनकी शष्कुली ऊँचे मुख वाली थी, उन पर लम्बे-लम्बे और विकृत बाल थे और वे कान नेत्र के पास की हड्डी (शंख) तक को छूते थे। उसके नेत्र पीले और चमकदार थे। उसके ललाट पर भकुटि चढ़ी थी जो बिजली जैसी दिखाई देती थी। उसको ध्वजा के चारों ओर मनुष्यों के मूडों की माला लिपटी हुई थी। विचित्र प्रकार के गोनस जाति के सर्यों का उसने बख्तर बना रखा था / उसने इधर उधर फिरते और फुफकारने वाले सर्पो, बिच्छुओं, गोहों, चूहों, नकुलों और गिरगिटों की विचित्र प्रकार की उत्तरासंग जैसी माला पहनी हुई थी। उसने भयानक फन वाले और धमधमाते हुए दो काले साँपों के लम्बे लटकते कुडल धारण किये थे। अपने दोनों कंधों पर विलाव और सियार बैठा रखे थे। अपने मस्तक पर देदीप्यमान एवं घू-घू ध्वनि करने वाले उल्लू का मुकुट बनाया था। वह घंटा के शब्द के कारण भीम और भयंकर प्रतीत होता था / कायर जनों के हृदय को दलन करने वालाचीर देने वाला था। वह देदीप्यमान अट्टहास कर रहा था। उसका शरीर चर्बी, रक्त, मवाद, मांस और मल से मलिन और लिप्त था। वह प्राणियों को त्रास उत्पन्न करता था। उसकी छाती चौड़ी थी। उसने श्रेष्ठ व्याघ्र का ऐसा चित्र-विचित्र चमड़ा पहन रखा था, जिसमें (व्याघ्र के) नाखून, (रोम), मुख, नेत्र और कान आदि अवयव पूरे और साफ दिखाई पड़ते थे। उसने ऊपर उठाये हुए दोनों हाथों पर रस और रुधिर से लिप्त हाथी का चमड़ा फैला रखा था / वह पिशाच नौका पर बैठे . Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [237 हुए लोगों की, अत्यन्त कठोर, स्नहहीन, अनिष्ट, उत्तापजनक, स्वरूप स ही अशुभ, अप्रिय तथा अकान्त-अनिष्ट स्वर वाली (अमनोहर) वाणी से तर्जना कर रहा था। ऐसा भयानक पिशाच उन लोगों को दिखाई दिया। विवेचन-उल्लिखित पाठ में तालपिशाच का दिल दहलाने वाला चित्र अंकित किया गया है / पाठ के प्रारम्भ में 'अरहण्णगवज्जा संजत्ताणावावाणियगा' पाठ पाया है / इसका प्राशय यह नहीं है कि अर्हन्नक के सिवाय अन्य वणिकों ने ही उस पिशाच को देखा। वस्तुतः ग्रहन्त्रक ने भी उसे देखा था, जैसा कि आगे के पाठों से स्पष्ट प्रतीत होता है / किन्तु 'अहन्नक के सिवाय' इस वाक्यांश का सम्बन्ध सूत्र संख्या ६४वें के साथ है। अर्थात् अर्हनक के सिवाय अन्य वणिकों ने उस भीषणतर संकट के उपस्थित होने पर क्या किया, यह बतलाने के लिए 'अरहण्णगवज्जा' पद का प्रयोग किया गया है / उस संकट के अवसर पर ग्रहनक ने क्या किया, यह सूत्र संख्या ६५वें में प्रदर्शित किया गया है। अन्य वणिकों से अर्हन्नक की भिन्नता दिखलाना सूत्रकार का अभीष्ट है। भिन्नता का कारण है-अर्हन्नक का श्रमणोपासक होना, जैसा कि सूत्र 53 में प्रकट किया गया है / सच्चे श्रावक में धार्मिक दृढ़ता किस सीमा तक होती है, यह घटना उसका स्पष्ट निदर्शन कराती है / ६४-तं तालपिसायरूवं एज्जमाणं पासंति, पासित्ता भीया संजायभया अन्नमन्नस्स कायं समतुरंगेमाणा बहूणं इंदाण य खंदाण य रुद्द-सिव-वेसमण-णागाणं भूयाण य जवखाण य अज्जकोट्टकिरियाण य बहूणि उवाइयसयाणि ओवाइयमाणा ओवाइयमाणा चिट्ठति / अहन्नक को छोड़कर शेष नौकावणिक तालपिशाच के रूप को नौका की ओर आता देख कर डर गये, अत्यन्त भयभीत हुए, एक दूसरे के शरीर से चिपट गये और बहुत से इन्द्रों की, स्कन्दों (कार्तिकेय) की तथा रुद्र, शिव, वैश्रमण और नागदेवों की, भूतों को, यक्षों की, दुर्गा की तथा कोट्टक्रिया (महिषवाहिनी दुर्गा) देवी की बहुत-बहुत सैकड़ों मनौतियाँ मनाने लगे। ६५-तए णं से अरहन्नए समणोवासए तं दिव्वं पिसायरूवं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता अभीए अतत्थे अचलिए असंभंते अणाउले अणुविग्गे अभिष्णमुहराग-णयणवण्णे अदीणविमणमाणसे पोयवहणस्स एगदेसंमि वत्थतेणं भूमि पमज्जइ, पमज्जित्ता ठाणं ठाइ, ठाइत्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी ___ नमोऽथु णं अरहताणं भगवंताणं जाव' ठाणं संपत्ताणं, जइ णं अहं एत्तो उवसग्गाओ मुचामि तो मे कप्पइ पारित्तए, अह णं एत्तो उवसग्गाओ ण मुचामि तो मे तहा पच्चक्खाएयवे' त्ति कटु सागारं भत्तं पच्चक्खाइ / अर्हनक श्रमणोपासक ने उस दिव्य पिशाचरूप को आता देखा / उसे देख कर वह तनिक भी भयभीत नहीं हुआ, त्रास को प्राप्त नहीं हुग्रा, चलायमान नहीं हुअा, संभ्रान्त नहीं हुआ, व्याकुल नहीं हुप्रा. उद्विग्न नहीं हुआ। उसके मुख का राग और नेत्रों का वर्ण नहीं बदला / उसके मन में दीनता या खिन्नता उत्पन्न नहीं हुई / उसने पोतवहन के एक भाग में जाकर वस्त्र के छोर से भूमि का प्रमार्जन किया। प्रमार्जन करके उस स्थान पर बैठ गया और दोनों हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोला---' Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 ] [ ज्ञाताधर्मकथा 'अरिहन्त भगवंत' यावत् सिद्धि को प्राप्त प्रभु को नमस्कार हो (इस प्रकार 'नमोत्थु णं' का पूरा पाठ उच्चारण किया)। फिर कहा- 'यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त हो जाऊँ तो मुझे यह कायोत्सर्ग पारना कल्पता है और यदि इस उपसर्ग से मुक्त न होऊँ तो यही प्रत्याख्यान कल्पता है, अर्थात् कायोत्सर्ग पारना नहीं कल्पता।' इस प्रकार कह कर उसने सागारी अनशन ग्रहण कर लिया। ६६-तए णं से पिसायरूवे जेणेव अरहन्नए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहन्नगं एवं वयासी 'हं भो अरहन्नगा! अपस्थियपत्थिया ! जाव [दुरंतपंतलक्खणा ! होणपुण्णचाउद्दसिया ! सिरि-हिरि-धिइ-कित्ति] परिवज्जिया ! णो खलु कप्पइ तव सील-व्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाई चालित्तए वा एवं खोभेत्तए वा, खंडित्तए वा, भंजित्तए वा, उज्झित्तए वा, परिच्चइत्तए / तं जइणं तुम सीलब्वयं जाव ण परिच्चयसि तो ते अहं एवं पोयवहणं दोहि अंगुलियाहिं गेण्हामि, गेण्हित्ता सत्तट्टतलप्पमाणमेत्ताई उड्ढे वेहासे उम्विहामि, उविहित्ता अंतो जलसि णिच्छोलेमि, जेणं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे असमाहिपत्ते अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि / ' तत्पश्चात् वह पिशाचरूप वहाँ आया, जहाँ अन्नक श्रमणोपासक था। पाकर पहनक से इस प्रकार कहने लगा 'अरे अप्राथित'-मौत-की प्रार्थना (इच्छा) करने वाले ! यावत् [कुलक्षणी ! अभागिनीकाली चौदस के जन्मे !, लज्जा कीर्ति बुद्धि और लक्ष्मी से] परिवजित ! तुझे शीलव्रत-अणुव्रत,, गुणवत, विरमण-रागादि की विरति का प्रकार, नवकारसी आदि प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से चलायमान होना अर्थात् जिस भांगे से जो व्रत ग्रहण किया हो उसे बदल कर दूसरे भांगे से कर लेना, क्षोभयुक्त होना अर्थात् 'इस व्रत को इसी प्रकार पालू या त्याग हूँ" ऐसा सोच कर क्षुब्ध होना, एक देश से खण्डित करना; पूरी तरह भंग करना, देशविरति का सर्वथा त्याग करना कल्पता नहीं है। परन्तु तू शीलवत आदि का परित्याग नहीं करता तो मैं तेरे इस पोतवहन को दो उंगलियों पर उठाए लेता हूँ और सात-आठ तल की ऊँचाई तक आकाश में उछाले देता हूँ और उछाल कर इसे जल के अन्दर डुबाए देता हूँ, जिससे तू आर्तध्यान के वशीभूत होकर, असमाधि को प्राप्त होकर जीवन से रहित हो जायगा-मौत का ग्रा ६७--तए णं से अरहन्नए समणोवासए तं देवं मणसा चेव एवं वयासो- 'अहं गं देवाणुप्पिया! अरहन्नए णामं समणोवासए अहिगयजीवाजीवे, नो खलु अहं सक्का केणइ देवेण वा जाव [दाणवेण वा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा] निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभेत्तए वा विपरिणामेत्तए वा, तुमं णं जा सद्धा तं करेहि त्ति कटु अभीए जाव' अभिन्नमुहरागणयणवन्ने अदीणविमणमाणसे निच्चले निष्फंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ / तव अर्हन्नक श्रमणोपासक ने उस देव को मन ही मन इस प्रकार कहा - 'देवानुप्रिय ! मैं अर्हन्नक नामक श्रावक हूँ और जड़-चेतन के स्वरूप का ज्ञाता हूँ (मुझे कुछ ऐसा-वैसा अज्ञान या -. -. 2. अ. ग्र 65 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राठवां अध्ययन : मल्ली } कायर मत समझना) / निश्चय ही मुझे कोई देव, दानव [यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग या गन्धर्व--कोई भी देव अथवा दैवी शक्ति निर्ग्रन्थप्रवचन से चलायमान नहीं कर सकता, क्षुब्ध नहीं कर सकता और विपरीत भाव उत्पन्न नहीं कर सकता / तुम्हारी जो श्रद्धा (इच्छा) हो सो करो / ' इस प्रकार कह कर अर्थात उस पिशाच को चनौती देकर अहन्नक निर्भय, अपरिवर्तित मुख के रंग और नेत्रों के वर्ण वाला, दैन्य और मानसिक खेद से रहित, निश्चल, निस्पन्द, मौन और धर्मध्यान में लीन बना रहा। ६८–तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहन्नगं समणोवासयं दोच्चं पि तच्छ पि एवं वयासी'हं भो अरहन्नगा !' जाव अदीणविमणमाणसे निच्चले निप्फंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ / तत्पश्चात् वह दिव्य पिशाचरूप अर्हन्नक श्रमणोपासक से दूसरी बार और फिर तीसरी बार कहने लगा-'अरे अर्हन्नक !' इत्यादि कहकर पूर्ववत् धमकी दी। यावत् अहन्नक ने भी वही उत्तर दिया और वह दीनता एवं मानसिक खेद से रहित, निश्चल, निस्पंद, मौन और धर्मध्यान में लीन बना रहा--उस पर पिशाच की धमकी का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा / 69 --तए णं से दिवे पिसायरूवे अरहन्नगं धम्मज्झाणोवगयं पासइ, पासित्ता बलियतरागं आसुरुत्ते तं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहि गिण्हइ, गिहित्ता सत्तत (ता) लाई जाव अरहन्नगं एवं वयासी—'हं भो अरहन्नगा ! अपस्थियपत्थिया ! णो खलु कप्पद तव सीलव्वय-गुण-बेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं तहेव जाव धम्मज्झाणोवगए विहरइ / तत्पश्चात उस दिव्य पिशाचरूप ने अहन्नक को धर्मध्यान में लीन देखा / देखकर उसने और अधिक कुपित होकर उस पोतवहन को दो उंगलियों से ग्रहण किया। ग्रहण करके सात-आठ मंजिल की या ताड़ के वृक्षों की ऊँचाई तक ऊपर उठाकर अर्हन्त्रक से कहा-'अरे अर्हन्नक ! मौत की इच्छा करने वाले ! तुझे शीलव्रत, गुणवत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पौषध आदि का त्याग करना नहीं कल्पता है, इत्यादि सब पूर्ववत् समझना चाहिए। किन्तु इस प्रकार कहने पर भी अर्हन्त्रक किंचित् भी चलायमान न हुआ और धर्मध्यान में ही लीन बना रहा। ८०-तए णं से पिसायरूवे अरहन्नगं जाहे नो संचाएइ निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे उवसंते जाव निविण्णे तं पोयवहणं सणियं सणियं उरि जलस्स ठवेइ, उविता तं दिव्वं पिसायरूवं पडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता दिव्वं देवरूवं यिउब्वइ, विउब्वित्ता अंतलिक्खपडिवन्ने सखिखिणियाइं जाव [दसद्धवष्णाई वत्थाई पवर] परिहिए अरहन्नगं समणोवासयं एवं वयासी तत्पश्चात् वह पिशाचरूप जब अर्हन्नक को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से चलायमान, क्षुभित एवं विपरिणत करने में समर्थ नहीं हुया, तब वह उपशान्त हो गया, यावत् मन में खेद को प्राप्त हुआ। फिर उसने उस पोतवहन को धीरे-धीरे उतार कर जल के ऊपर रखा / रखकर पिशाच के दिव्य रूप का संहरण किया-उसे समेट लिया और दिव्य देव के रूप की विक्रया की / विक्रिया करके, अधर स्थिर होकर धुधुरुयों की छम्छम् की ध्वनि से युक्त पंचवर्ण के उत्तम वस्त्र धारण करके प्रहनक श्रमणोपासक से इस प्रकार कहा ... Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240] [ ज्ञाताधर्मकथा ___ ७१–'हं भो अरहन्नगा! धन्नोऽसि णं तुम देवाणुप्पिया! जाव जोवियफले, जस्स णं तव निग्गथे पावयणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, एवं खलु देवाणुप्पिया ! सक्के देविदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए वहणं देवाणं मज्झगए महया सद्देणं आइक्खइ—'एवं खलु जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए अरहन्नए समणोवासए अहिगयजीवाजीवे, नो खलु सक्का केणए देवेण वा दाणवेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा जाव [खोभित्तए वा] विपरिणामित्तए वा। तए णं अहं देवाणुप्पिया ! सवकस्स देविंदस्स एयमझें गो सद्दहामि, नो रोययामि / तए णं मम इमेयारूवे अज्झथिए जाव [चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पेगे समुप्पज्जित्था- 'गच्छामि णं अरहन्नयस्स अंतियं पाउब्भवामि, जाणामि ताव अहं अरहन्नगे? कि पियधम्मे ? णो पियधम्मे ? दढधम्मे ? नो दढधम्मे ? सीलव्वयगुणे किं चालेइ जाव [नो चालेइ ? खोभेइ नो खोभेइ ? खंडेइ ? नो खंडेइ ?भंजेइ नो भंजेइ ? उज्झइ नो उज्झइ ?] परिच्चयइ ?णो परिच्चयइ ? त्ति कटु एवं संपेहेमि, संहिता ओहि पउंजामि, पउंजित्ता देवाणप्पिया ! ओहिणा आभोएमि, आभोइत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं उत्तरवेउब्वियं समुग्धामि, ताए उक्किट्ठाए जाव [देवगईए] जेणेव लवणसमुद्दे जेणेव देवाणुप्पिए तेणेव उवागच्छामि। उवागच्छित्ता देवाणुप्पियाणं उसग्गं करेमि / नो चेव णं देवाणुप्पिया भीया वा तत्था वा, तं जं णं सक्के देविदे देवराया वदइ, सच्चे णं एसमठे / तं दिठे णं देवाणुप्पियाणं इड्ढी जुई जसो बलं जाव [वीरियं पुरिसक्कार] परक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए। तं खामेमि णं देवाणप्पिया! खमंतमरहंत णं देवाणप्पिया! णाइ भुज्जो भुज्जो एवं करणयाए।' त्ति कटु पंजलिउडे पायवडिए एयमठे भुज्जो भुज्जो खामेइ, खामित्ता अरहन्नयस्स दुवे कुडलजुयले दलयइ, दलइत्ता जामेव दिसि पाउवभूए तामेव पडिगए। ___हे अर्हन्नक ! तुम धन्य हो। देवानुप्रिय ! [तुम कृतार्थ हो, देवानुप्रिय ! तुम सफल लक्षण वाले हो, देवानुप्रिय! ] तुम्हारा जन्म और तुम्हारा जीवन सफल है कि जिसको अर्थात् तुम को निर्ग्रन्थप्रवचन में इस प्रकार की प्रतिपत्ति (श्रद्धा) लब्ध हुई है, प्राप्त हुई है और आचरण में लाने के कारण सम्यक् प्रकार से सन्मुख आई है। हे देवानुप्रिय ! देवों के इन्द्र और देवों के राजा शक ने सौधर्म कल्प में, सौधर्मावतंसक नामक विमान में और सुधर्मा सभा में, बहुत-से देवों के मध्य में स्थित होकर महान् शब्दों से इस प्रकार कहा था—निस्सन्देह जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरत क्षेत्र में चम्पानगरी में में अहन्नक नामक श्रमणोपासक जीव-अजीव आदि तत्वों का ज्ञाता है। उसे निश्चय ही कोई देव या दानव निर्ग्रन्थप्रवचन से चलायमान करने में यावत् सम्यक्त्व से च्युत करने में समर्थ नहीं है। तब हे देवानुप्रिय ! देवेन्द्र शक की इस बात पर मुझे श्रद्धा नहीं हुई / यह बात रुची नहीं। तब मझे इस प्रकार का विचार. [चिन्तन, अभिलाष एवं संकल्प] उत्पन्न हा कि-'मैं जाऊँ और अन्नक के समक्ष प्रकट होऊँ। पहले जान कि अन्नक को धर्म प्रिय है अथवा धर्म प्रिय नहीं है ? वह दृढ़धर्मा है अथवा दृढ़धर्मा नहीं है ? वह शीलवत और गुणव्रत आदि से चलायमान होता है, यावत् [अथवा चलायमान नहीं होता? क्षुब्ध होता है या नहीं? अपने व्रतों को खंडित करता है अथवा नहीं ? उन्हें त्यागता है या नहीं?] उनका परित्याग करता है अथवा नहीं करता ? मैंने इस प्रकार का विचार किया / विचार करके अवधिज्ञान का उपयोग लगाया। उपयोग लगाकर Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्लो / [ 241 हे देवानुप्रिय ! मैंने जाना। जानकर ईशानकोण में जाकर उत्तर वैक्रियशरीर बनाने के लिए वैक्रियसमुद्घात किया। तत्पश्चात् उत्कृष्ट यावत् शीघ्रता वाली देवगति से जहाँ लवणसमुद्र था और जहाँ देवानुप्रिय (तुम) थे, वहाँ मैं प्राया / आकर मैंने देवानुप्रिय को उपसर्ग किया। मगर देवानुप्रिय भयभीत न हुए, त्रास को प्राप्त न हुए। अत: देवेन्द्र देवराज ने जो कहा था, वह अर्थ सत्य सिद्ध हुआ। मैंने देखा कि देवानुप्रिय को ऋद्धि-गुण रूप समृद्धि, द्यु ति-तेजस्विता, यश, शारीरिक बल यावत पुरुषकार, पराक्रम लब्ध हा है, प्राप्त हना है और उसका ने भली-भाँति सेवन किया है। तो हे देवानुप्रिय! मैं आपको खमाताहूँ। आप क्षमा प्रदान करने योग्य हैं। हे देवानुप्रिय! अब फिर कभी मैं ऐसा नहीं करू गा।' इस प्रकार कहकर दोनों हाथ जोड़कर देव अर्हन्नक के पावों में गिर गया और इस घटना के लिए बार-बार विनयपूर्वक क्षमायाचना करने लगा / क्षमायाचना करके अर्हन्नक को दो कुडल-युगल भेंट किये / भेंट करके जिस दिशा से प्रकट हुआ था, उसी दिशा में लौट गया। ७२-तए णं अरहन्नए निरुवसग्गमित्ति कट्ट पडिम पारेइ। तए णं ते अरहन्नगपामोक्खा जाव [संजत्तानावा] वाणियगा दक्खिणाणकलेणं वाएणं जेणेव गंभीरए पोयफ्टणे यफ्टणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पोयं लंबंति, लंबित्ता सडिसागडं सज्जेति, सज्जित्ता तं गणिमं धरिमं मेज्जं परिच्छेज्ज सगडिसागडं संकामेंति, संकामित्ता सगडिसागडं जोएंति, जोइत्ता जेणेव मिहिला नगरी तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता मिहिलाए रायहाणीए बहिया अग्गुज्जाणंसि सगडिसागडं मोएन्ति, मोइत्ता मिहिलाए रायहाणीए तं महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायरिहं पाहुडं कुडलजुयलं च गेण्हंति, गेण्हित्ता मिहिलाए रायहाणीए अणुपविसंति, अणुपविसित्ता जेणेव कुभए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव [परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि] कटु तं महत्थं दिव्वं कुंडलजुयलं उवणेति जाव पुरओ ठति / तत्पश्चात् अर्हन्नक ने उपसर्ग टल गया जानकर प्रतिमा पारी अर्थात् कायोत्सर्ग पारा / तदनन्तर वे अर्हनक आदि यावत् नौकावणिक् दक्षिण दिशा के अनुकूल पवन के कारण जहां गम्भीर नामक पोतपट्टन था, वहां आये / पाकर उस पोत (नौका या जहाज) को रोका / रोककर गाड़ी-गाड़े तैयार किये। तैयार करके वह गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड को गाड़ी-गाड़ों में भरा / भरकर गाड़ी-गाड़े जोते / जोतकर जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ आये / पाकर मिथिला नगरी के बाहर उत्तम उद्यान में गाड़ी-गाड़े छोड़े / छोड़कर मिथिला नगरी में जाने के लिए वह महान् अर्थ वाली, महामूल्य वाली, महान् जनों के योग्य, विपुल और राजा के योग्य भेंट और कुडलों की जोड़ी ली। लेकर मिथिला नगरी में प्रवेश किया। प्रवेश करके जहाँ कुम्भ राजा था, वहाँ आये / आकर दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि करके वह महान् अर्थ वाली भेंट और वह दिव्य कुडलयुगल राजा के समीप ले गये, यावत् राजा के सामने रख दिया। ७३-तए णं कुभए राया तेसि संजत्तगाणं नावावाणियगाणं जाव' पडिच्छइ, पडिच्छित्ता मल्लि विदेहवररायकन्नं सद्दावेइ, सहावित्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं मल्लीए विदेहवररायकन्नगाए पिणद्धइ, पिणद्धित्ता पडिविसज्जेइ। 1. अ. अ. 72 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् कुभ राजा ने उन नौकावणिकों की वह बहुमूल्य भेंट यावत् अंगीकार की / अंगीकार करके विदेह की उत्तम राजकुमारी मल्ली को बुलाया। बुलाकर वह दिव्य कुडलयुगल विदेह की श्रेष्ठ राजकुमारी मल्ली को पहनाया। पहनाकर उसे विदा कर दिया। ७४-तए णं से कुभए राया ते अरहन्नगपामोक्खे जाव वाणियगे विपुलेणं असण-पाण-खाइमसाइमेण वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं जाव [सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारिता सम्माणित्ता] उस्सुक्कं वियरेइ, वियरित्ता रायमग्गमोगाढे य आवासे वियरइ, वियरित्ता पडिविसज्जेइ / तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने उन अर्हन्नक आदि नौकावणिकों का विपुल प्रशन आदि से तथा वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकार से सत्कार किया। उनका शुल्क माफ कर दिया / राजमार्ग पर उनको उतारा--प्रावास दिया और फिर उन्हें विदा किया। ७५--तए णं अरहन्नगसंजत्तगा जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता भंडववहरणं करेंति, करित्ता पडिभंडं गेहंति, मेण्हित्ता सगडिसागडं भरेंति, जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवहणं सज्जेंति, सज्जित्ता भंडं संकाति, दक्खिणाणुकूलेणं वरएणं जेणेव चपाए पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयं लंबॅति, लंबित्ता सगडिसागडं सज्जेंति, सज्जित्ता तं गणिमं धरिमं मेज्जं पारिच्छेज्ज सगडीसागडं संकाति, संकामेत्ता जाव' महत्थं पाहुडं दिव्वं च कुडलजुयलं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव चंदच्छाए अंगराया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं महत्थं जाव' उवणेति / तत्पश्चात् वे अहन्नक आदि सांयात्रिक वणिक्, जहाँ राजमार्ग पर आवास था, वहाँ आये / आकर भाण्ड का व्यापार करने लगे / व्यापार करके उन्होंने प्रतिभांड (सौदे के बदले में दूसरा दा) खरीदा। खरीद कर उससे गाड़ी-गाड़े भरे / भरकर जहाँ गम्भीर पोतपट्टन था, वहाँ आये। आकर के पोतवहन सजाया-तैयार किया / तैयार करके उसमें सब भांड भरा / भरकर दक्षिण दिशा के अनुकूल वायु के कारण जहां चम्पा नगरी का पोतस्थान (बन्दरगाह) था, वहाँ आये / आकर पोत को रोककर गाड़ी-गाड़े ठीक किये / ठीक करके गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य-चार प्रकार का भांड उनमें भरा / भरकर यावत् बहुमूल्य भेंट और दिव्य कुण्डलयुगल ग्रहण किया। ग्रहण करके जहाँ अंगराज चन्द्रच्छाय था, वहाँ आये / पाकर वह बहुमूल्य भेंट राजा के सामने रखी। ७६-तए णं चंदच्छाए अंगराया तं दिव्वं महत्यं च कुडलजयलं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता ते अरहन्नगपामोक्खे एवं वयासी--'तुब्भे णं देवाणुप्पिया! बहूणि गामागर० जाव सन्निवेसाई आहिडह, लवणसमुदं च अभिक्खणं अभिक्खणं पोयवहहिं ओगाहेह, तं अस्थियाइं भे केइ कहिंचि अच्छेरए दिठ्ठपुग्वे ?' तत्पश्चात् चन्द्रच्छाय अंगराज ने उस दिव्य एवं महामूल्यवान् कुण्डलयुगल (आदि) को स्वीकार किया। स्वीकार करके उन ग्रहन्नक आदि से इस प्रकार कहा–'हे देवानुप्रियो ! आप बहुतसे ग्रामों, आकरों आदि में भ्रमण करते हो तथा बार-बार लवणसमुद्र में जहाज द्वारा प्रवेश करते हो तो आपने पहले किसी जगह कोई भी आश्चर्य देखा है ?' ... 1-2 अ. अ. 72 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [243 77 तए ण ते अरहन्नगपामोक्खा चंदच्छायं अंगरायं एवं वयासो-'एवं खलु सामी ! अम्हे इहेव चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे संजत्तगा णावावाणियगा परिवसामो, तए णं अम्हे अन्नया कयाइं गणिमं च धरिमं च सेज्जं च परिच्छेजं च तहेव अहीणमतिरित्तं जाव कुभगस्स रण्णो उवणेमो। तए णं से कुभए मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तं दिव्वं कुडलजुयलं पिणद्धेइ, पिणद्धित्ता पडिविसज्जेइ / तं एस णं सामो ! अम्हेहि कुभरायभवणंसि मल्ली विदेहरायवरकन्ना अच्छेरए दिळे तं नो खलु अन्ना का वि तारिसिया देवकन्ना वा जाव [असुरकन्ना वा नागकन्ना वा जक्खकन्ना वा गंधवकन्ना वा रायकन्ना वा] जारिसिया णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना। तब उन अर्हन्नक ग्रादि वणिकों ने चन्द्रच्छाय नामक अङ्गदेश के राजा से इस प्रकार कहाहे स्वामिन् ! हम अर्हन्त्रक आदि बहुत-से सांयात्रिक नौकावणिक् इसी चम्पानगरी में निवास करते हैं। एक बार किसी समय हम गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड भर कर--इत्यादि सब पहले की भाँति ही न्यूनता-अधिकता के बिना कहना-यावत् कुम्भ राजा के पास पहुंचे और भेंट उसके सामने रखी / उस समय कुम्भ राजा ने मल्लीनामक विदेह राजा की श्रेष्ठ कन्या को वह दिव्य कुडलयुगल पहनाया। पहना कर उसे विदा कर दिया / तो हे स्वामिन् ! हमने कुम्भ राजा के भवन में विदेह राजा की श्रेष्ठ कन्या मल्ली आश्चर्य रूप में देखी है। मल्ली नामक विदेहराजा की श्रेष्ठ कन्या जैसी सुन्दर है, वैसी दूसरी कोई देवकन्या, असुरकन्या, नागकन्या, यक्षकन्या, गंधर्वकन्या या राजकन्या नहीं है। ७८-तए णं चंदच्छाए ते अरहन्नगपामोक्खे सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारिता, सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ / तए णं चंदच्छाए वाणियगजणियहासे दूतं सदावेइ, जाव' जइ वि य गं सा सयं रज्जसुक्का / तए णं से दूते हठे जाव पहारेत्थ गमणाए। तत्पश्चात् चन्द्रच्छाय राजा ने अर्हन्नक आदि का सत्कार-सम्मान किया / सत्कार-सम्मान करके विदा किया। तदनन्तर वणिकों के कथन से चन्द्रच्छाय को अत्यन्त हर्ष (अनुराग) हुमा / उसने दूत को बुलाकर कहा-इत्यादि कथन सब पहले के समान ही कहना अर्थात् राजकुमारी मल्ली की मेरी पत्नी के रूप में मंगनी करो। भले ही वह कन्या मेरे सारे राज्य के मूल्य की हो, तो भी स्वीकार करना / दूत हर्षित होकर मल्ली कुमारी की मंगनी के लिए चल दिया। राजा रुक्मि ७९-तेणं कालेणं तेणं समएणं कुणाला नाम जणवए होत्था / तत्थ णं सावत्यो नामं नयरो होत्था / तत्थ णं रुप्पी कुणालाहिवई नामं राया होत्या / तस्स णं रुप्पिस्स धूया धारिणीए देवीए अत्तया सुबाहुनामं दारिया होत्था, सुकुमाल० रूवेण य जोव्वणेणं लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यादि होत्था। तीसे णं सुबाहूए दारियाए अन्नया चाउम्मासियमज्जणए जाए यादि होत्था। उस काल और उस समय में कुणाल नामक जनपद था। उस जनपद में श्रावस्ती नामक नगरी थी। उसमें कुणाल देश का अधिपति रुक्मि नामक राजा था / रुक्मि राजा को पुत्री और धारिणीदेवी की फूख से जन्मो सुबाहु नामक कन्या थी। उसके हाथ-पैर प्रादि सब अवयव सुन्दर थे। वय, 1. प्र. प्र. 50-51 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 ] [ ज्ञाताधर्मकथा रूप, यौवन में पीर लावण्य में उत्कृष्ट थी और उत्कृष्ट शरीर वाली थी। उस सुबाहु बालिका का किसी समय चातुर्मासिक स्नान (जलक्रोडा) का उत्सव पाया। 80 - तए णं से रुप्पी कुणालाहिवई सुबाहुए दारियाए चाउम्मासियमज्जणयं उठ्ठिय जाणइ, जाणित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी—'एवं खलु देवाणुप्पिया ! सुबाहूए दारियाए कल्लं चाउम्मासियमज्जणए भविस्सइ, तं कल्लं तुब्भे णं रायमग्गमोगादसि चउक्कंसि (पुष्फमंडवंसि) जलथलयदसद्धवण्णमल्लं साहरेह, जाव [एगं महं सिरिदामगंडं गंधर्वाण मुयंत उल्लोयंसि ओलएह / तेवि तहेव] ओलइंति / ____ तब कुणालाधिपति रुक्मिराजा ने सुबाहु बालिका के चातुर्मासिक स्नान का उत्सव पाया जाना / जानकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा—'हे देवानुप्रिय ! कल सुबाहु बालिका के चातुर्मासिक स्नान का उत्सव होगा। अतएव तुम राजमार्ग के मध्य में, चौक में (पुष्प-मण्डप में) जल और थल में उत्पन्न होने वाले पाँच वर्गों के फल लामो और एक सुगंध छोड़ने वाला श्रीदामकाण्ड (सुशोभित मालाओं का समूह) छत में लटकायो / ' यह आज्ञा सुनकर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार कार्य किया / ८१--तए णं रुप्पी कुणालाहिवई सुबन्नगारसेणि सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी--'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! रायमग्गमोगाढंसि पुष्फमंडवंसि णाणाविहपंचवहिं तंदुलेहि णगरं आलिहह / तस्स बहुमज्झदेसभाए पट्टयं रएह / ' रइत्ता जाब पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् कुणाल देश के अधिपति रुक्मिराजा ने सुवर्णकारों की श्रेणी को बुलाया। उसे बुलाकर कहा-'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही राजमार्ग के मध्य में. पुष्पमंडप में विविध प्रकार के पंचरंगे चावलों से नगर का आलेखन करो नगर का चित्रण करो। उसके ठीक मध्य भाग में एक पाट (बाजौठ) रखो / ' यह सुनकर उन्होंने इसी प्रकार कार्य करके प्राज्ञा वापस लौटाई। 82- तए णं से रुप्पी कुणालाहिवई हस्थिखंधवरगए चाउरंगिणीए सेणाए महया भडचडकर-रह-पहकरविंद-परिक्खित्ते अंतेउरपरियालसंपरिवुडे सुबाहुं दारियं पुरओ कटु जेणेव रायमग्गे, जेणेव पुप्फमंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता पुप्फमंडवं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने। तत्पश्चात् कुणालाधिपति रुक्मि हाथी के श्रेष्ठ स्कन्ध पर आरूढ हुआ। चतुरंगी सेना, बड़ेबड़े योद्धानों और अंत:पुर के परिवार प्रादि से परिवृत होकर सुबाहु कुमारी को आगे करके, जहाँ राजमार्ग था और जहाँ पुष्पमंडप था, वहाँ पाया। आकर हाथी के स्कन्ध से नीचे उतरा। उतर कर पुष्पमंडप में प्रवेश किया। प्रवेश करके पूर्व दिशा की ओर मुख करके उत्तम सिंहासन पर आसीन हुआ। 83 तओ णं ताओ अंतेउरियाओ सुबाहुं दारियं पट्टयंसि दुरूहेंति / दुरूहित्ता सेयपीयरहि कलसेहि पहाणेति, हाणित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेंति, करित्ता पिउणो पायं वंदिउं उवणेति / तए णं सुबाहू दारिया जेणेव रुप्पी राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ / Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राठवां अध्ययन : मल्ली] [ 245 तए णं से रुप्पी राया सुबाहं दारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता सुबाहुए दारियाए स्वेण य जोव्वणेण य लावण्णण य जायविम्हए वरिसधरं सदाबेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी–'तुम णं देवाणुप्पिया ! मम दोच्चेणं बहूणि गामागरनगर जाव सण्णिवेसाइं आहडिसि, बहूण य राईसर जाव सत्यवाहपभिईणं गिहाणि अणुपविससि, तं अत्थियाई से कस्सइ रण्णो वा ईसरस्स वा कहिंचि एयारिसए मज्जणए दिट्टपुव्वे, जारिसए णं इमीसे सुबाहुदारियाए मज्जणए ?' तत्पश्चात् अन्तःपुर की स्त्रियों ने सुबाहु कुमारी को उस पाट पर बिठलाया / बिठला कर श्वेत और पीत अर्थात् चाँदी और सोने आदि के कलशों से उसे स्नान कराया। स्नान करा कर सब अलंकारों से विभूषित किया। फिर पिता के चरणों में प्रणाम करने के लिए लाई। तब सुबाहु कुमारी रुक्मि राजा के पास आई / आकर उसने पिता के चरणों का स्पर्श किया। उस उमय रुक्मि राजा ने सुबाहु कुमारी को अपनी गोद में बिठा लिया / बिठा कर सूबाह कुमारी के रूप, यौवन और लावण्य को देखने से उसे विस्मय हुआ। विस्मित होकर उसने वर्षधर को बुलाया / बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! तुम मेरे दौत्य कार्य से बहुत-से ग्रामों, आकरों, नगरों यावत् सन्निवेशों में भ्रमण करते हो और अनेक राजाओं, राजकुमारों यावत् सार्थवाहों आदि के गृह में प्रवेश करते हो, तो तुमने कहीं भी किसी राजा या ईश्वर (धनवान्) के यहाँ ऐसा मज्जनक (स्नान-महोत्सव) पहले देखा है, जैसा इस सुबाहु कुमारी का मज्जन-महोत्सव है ?'. 14-- तए णं से वरिसधरे प्पि करयलपरिगहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वदासी-एवं खलु सामी ! अहं अन्नया तुब्भे णं दोच्चेणं मिहिलं गए, तत्थ णं मए कुभगस्स रण्णो धूयाए, पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायवरकन्नयाए मज्जणए दिठे, तस्स. णं मज्जणगस्स इमे सुबाहूए दारियाए मज्जणए सयसहस्सइमं पि कलं न अग्घेइ / तत्पश्चात् वर्षधर (अन्तःपुर के रक्षक षंढ-विशेष) ने रुक्मि राजा से हाथ जोड़ कर मस्तक पर हाथ घुमान घुमाकर अंजलिबद्ध होकर इस प्रकार कहा-'हे स्वामिन् ! एक बार मैं आपके दूत के रूप में मिथिला गया था। मैंने वहाँ कुभ राजा की पुत्री और प्रभावती देवी की आत्मजा विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली का स्नान-महोत्सव देखा था। सुवाहु कुमारी का यह मज्जन-उत्सव उस मज्जनमहोत्सव के लाखवें अंश को भी नहीं पा सकता। ...८५-तए णं से रुप्पी राया वरिसधरस्स अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म सेसं तहेव मज्जणगजणियहासे दूतं सदावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-.-जेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तत्पश्चात् वर्षधर से यह बात सुनकर और हृदय में धारण करके, मज्जन-महोत्सव का वृत्तांत सुनने से जनित हर्ष (अनुराग) वाले रुक्मि राजा ने दूत को बुलाया। शेष सब वृत्तांत पहले के भना। दूत को बुलाकर इस प्रकार कहा-(मिथिला नगरी में जाकर मेरे लिए मल्ली कुमारी की मँगनी करो। बदले में सारा राज्य देना पड़े तो उसे भी देना स्वीकार करना, मादि) यह सुनकर दूत मिथिला नगरी जाने को रवाना हो गया। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 ] [ ज्ञाताधर्मकथा काशीराज शंख ८६-तेणं कालेणं तेणं समएणं कासी नामं जणवए होत्या। तत्थ गं वाणारसी नाम नयरी होत्था / तत्थ णं संखे नामं राया कासीराया होत्था / उस काल और उस समय में काशी नामक जनपद था। उस जनपद में वाणारसी नामक नगरी थी। उसमें काशीराज शंख नामक राजा था। ८७---तए णं तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नगाए अन्नया कयाइं तस्स दिव्वस्स कुडलजयलस्स संधी विसंघडिए यावि होत्था। तए णं कुभए राया सुवन्नगारसेणि सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! इमस्स दिव्वस्स कुडलजुयलस्स संधि संघाडेह / ' एक बार किसी समय विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली के उस दिव्य कुण्डल-युगल का जोड़ खुल गया / तब कुम्भ राजा ने सुवर्णकार की श्रेणी को बुलाया और कहा–'देवानुप्रियो ! इस दिव्य कुण्डलयुगल के जोड़ को सांध दो।' ८८-तए णं सा सुवण्णगारसेणी एयमझें तह त्ति पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तं दिव्वं कुडलजयलं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव सुवण्णगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुवण्णगार. भिसियासु गिवेसेइ, णिवेसित्ता बहूहिं आएहि य जाव [उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य पारिणामियाहि य बुद्धीहि) परिणामेमाणा इच्छंति तस्स दिव्वस्स कुडलजुयलस्स संधि घडित्तए, नो चेव णं संचाएंति संघडितए। ___ तत्पश्चात् सुवर्णकारों की श्रेणी ने 'तथा-ठीक है', इस प्रकार कह कर इस अर्थ को स्वीकार किया / स्वीकार करके उस दिव्य कुण्डलयुगल को ग्रहण किया / ग्रहण करके जहाँ सुवर्णकारों के स्थान (औजार रखने के स्थान) थे, वहाँ पाये। आकर के उन स्थानों पर कुण्डलयुगल रखा / रख कर बहुत-से [ यत्नों से, उपायों से, औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी एवं पारिणामिकी बुद्धियों से] उस कुण्डलयुगल को परिणत करते हुए उसका जोड़ साँधना चाहा, परन्तु साँधने में समर्थ न हो सके। ८९-तए णं सा सुवन्नगारसेणी जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल. जाव बद्धावेत्ता एवं वयासी-'एवं खलु सामी! अज्ज तुम्भे अम्हे सद्दावेह / सद्दावेत्ता जाव संधि संघाडेता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / तए णं अम्हे तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हामो। जेणेव सुबन्नगार. भिसियाओ जाव नो संचाएमो संघाडितए / तए णं अम्हे सामी ! एयस्स दिव्वस्स कुडलस्स अन्नं सरिसयं कुडलजयलं घडेमो।' तत्पश्चात् वह सुवर्णकार श्रेणी, कुम्भ राजा के पास पाई। आकर दोनों हाथ जोड़ कर पौर जय-विजय शब्दों से वधा कर इस प्रकार निवेदन किया—'स्वामिन् ! अाज अापने हम लोगों को बुलाया था। बुला कर यह आदेश दिया था कि कुण्डलयुगल की संधि जोड़ कर मेरी आज्ञा वापिस लौटायो। तब हमने वह दिव्य कुण्डलयुगल लिया। हम अपने स्थानों पर गये, बहुत उपाय Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली ] [ 247 किये, परन्तु उस संधि को जोड़ने के लिए शक्तिमान् न हो सके। अतएव (आपकी आज्ञा हो तो) हे स्वामिन् ! हम इस दिव्य कुण्डलयुगल सरीखा दूसरा कुण्डलयुगल बना दें।' ९०–तए णं से कुभए राया तोसे सुवण्णगारसेणीए अंतिए एयमढं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते तिवलियं भिडि निडाले साहटु एवं वयासी _ 'केस णं तुम्भे कलायणं भवह ? जे णं तुम्भे इमस्स कुडलजुयलस्स नो संचाएह संधि संघाडेत्तए ?' ते सुवण्णगारे निन्विसए आणवेइ। सुवर्णकारों का कथन सुन कर और हृदयंगम करके कुम्भ राजा क्रुद्ध हो गया / ललाट पर तीन सलवट डाल कर इस प्रकार कहने लगा--'अरे ! तुम कैसे सुनार हो जो इस कुण्डलयुगल का जोड़ भी सांध नहीं सकते? अर्थात् तुम लोग बड़े मूर्ख हो। ऐसा कहकर उन्हें देशनिर्वासन की आज्ञा दे दी। ९१-तए णं ते सुवण्णगारा कुभेणं रण्णा निव्विसया आणत्ता समाणा जेणेव साइं साइं गिहाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सभंडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाए रायहाणीए मज्झमझेणं निक्खमंति / निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झमझेणं जेणेव कासी जणवए, जेणेव वाणारसी नयरी तेणेव उवागच्छंति / उवागच्छित्ता अगुज्जाणंसि सगडीसागडं मोएंति, मोइत्ता महत्थं जाव पाहुडं गेण्हंति, गेण्हित्ता वाणारसीए नयरीए मज्झमझेणं जेणेव संखे कासीराया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल० जाव बद्धाति, वद्धावित्ता पाहुडं पुरओ ठाति, ठावित्ता संखरायं एवं क्यासी तत्पश्चात् कुम्भ राजा द्वारा देशनिर्वासन की प्राज्ञा पाये हुए वे सुवर्णकार अपने-अपने घर आये / आकर अपने भांड, पात्र और उपकरण आदि लेकर मिथिला नगरी के बीचोंबीच होकर निकले / निकल कर विदेह जनपद के मध्य में होकर जहाँ काशी जनपद था और जहाँ वाणारसी नगरी थी, वहाँ आये। वहाँ आकर अग्र (उत्तम) उद्यान में गाड़ी-गाड़े छोड़े / छोड़ कर महान् अर्थ वाले राजा के योग्य बहमल्य उपहार लेकर, वाणारसी नगरी के बीचोंबीच होकर जहाँ काशीराज शंख था वहाँ आये / प्राकर दोनों हाथ जोड़ कर यावत् जय-विजय शब्दों से बंधाया। वधाकर वह उपहार राजा के सामने रखा / रख कर शंख राजा से इस प्रकार निवेदन किया ९२–'अम्हे णं सामी ! मिहिलाओ नयरीओ कुभएणं रण्णा निव्विसया आणत्ता समाणा इहं हव्वमागया, तं इच्छामो णं सामी! तुभं बाहुच्छायापरिग्गहिया निब्भया निरुविग्गा सुहं सुहेणं परिवसिउं।' तए णं संखे कासीराया ते सुवष्णगारे एवं क्यासी.--"कि णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! कुभएणं रण्णा निव्विसया आणत्ता ?' तए णं ते सुवण्णगारा संखं एवं वयासी—'एवं खलु सामी ! कुंभगस्स रण्णो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए कुडलजुयलस्स संधी विसंघडिए / तए णं से कुभए सुवण्णगारसेणि सद्दावेइ, सद्दावित्ता जाव निव्विसया आणत्ता।' Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 ] [ ज्ञाताधर्मकथा 'हे स्वामिन् ! राजा कुम्भ के द्वारा मिथिला नगरी से निर्वासित हुए हम सीधे यहाँ आये हैं / हे स्वामिन् ! हम अापकी भुजाओं की छाया ग्रहण किये हुए अर्थात् आपके संरक्षण में रह कर निर्भय और उद्धेगरहित होकर सुख-शान्तिपूर्वक निवास करना चाहते हैं।' तब काशीराज शंख ने उन सुवर्णकारों से कहा-'देवानुप्रियो ! कुम्भ राजा ने तुम्हें देशनिकाले की आज्ञा क्यों दी ?' ___तब सुवर्णकारों ने शंख राजा से इस प्रकार कहा-'स्वामिन् ! कुम्भ राजा की पुत्री और प्रभावती देवी की आत्मजा मल्ली कुमारी के कुण्डलयुगल का जोड़ खुल गया था / तब कुम्भ राजा ने सुवर्णकारों की श्रेणी को बुलाया / बुलाकर यावत् (उसे सांधने के लिए कहा / हम उसे अनेक उपाय करके भी सांध नहीं सके, अतः) देशनिर्वासन की आज्ञा दे दी।' ९३-तए णं से संखे सुवन्नगारे एवं वयासी—'केरिसिया णं देवाणुप्पिया ! कुभगस्स धूया पभावईए देवीए अत्तया मल्ली विदेहरायवरकन्ना?' तए णं ते सुवण्णगारा संखरायं एवं वयासी—'णो खलु सामी ! अन्ना काई तारिसिया देवकन्ना वा जाव [असुरकन्ना वा नागकन्ना वा जक्खकन्ना वा गंधव्वकन्ना वा रायकन्ना वा] जारिसिया णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना।' . : तए णं कुंडलजुअलजणियहासे दूतं सद्दावेइ, जाव तहेव पहारेत्थ गमणाए / . तत्पश्चात् शंख राजा ने सुवर्णकारों से कहा- 'देवानुप्रियो ! कुम्भ राजा को पुत्री और प्रभावती की आत्मजा विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली कैसी है ?' तब सुवर्णकारों ने शंखराज से कहा-'स्वामिन् ! जैसी विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली है, वैसी कोई देवकन्या अथवा असुरकन्या, नागकन्या, यक्षकन्या, गन्धर्वकन्या भी नहीं है, कोई राजकुमारी भी नहीं है।' तत्पश्चात् कुण्डल की जोड़ी से जनित हर्ष वाले शंख राजा ने दूत को बुलाया, इत्यादि सब वत्तान्त पूर्ववत जानना अर्थात शंख राजा ने भी मल्ली कमारी की मँगनी के लिए दत भेज दिया और उससे कह दिया कि मल्ली कुमारी के शुल्क रूप में सारा राज्य देना पड़े तो दे देना। दूत मिथिला जाने को रवाना हो गया / राजा अदीनशत्रु 94 तेणं कालेणं तेणं समएणं कुरुजणवए होत्था, हथिणाउरे नयरे, अदीणसत्तू नामं राया होत्था, जाव [रज्जं पसासमाणे] विहरइ। उस काल और उस समय में कुरु नामक जनपद था / उसमें हस्तिनापुर नगर था। अदीनशत्रु नामक वहाँ राजा था / यावत् वह (राज्यशासन करता सुखपूर्वक) विचरता था। ९५-तत्थ णं मिहिलाए कुभगस्स पुत्ते पभावईए अत्तए मल्लीए आणुजायए मल्लदिन्नए नाम कुमारे जाव' जुवराया यावि होत्था। 1. श्री. सूत्र 143 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली ] [ 249 तए णं मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे मम पमदवणंसि एगं महं चित्तसभं करेह अणेगखंभसयसण्णिविठ्ठ, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह, ते वि तहेव पच्चप्पिणंति / उस मिथिला नगरी में कुम्भ राजा का पुत्र, प्रभावती महारानी का आत्मज और मल्ली कुमारी का अनुज मल्लदिन्न नामक कुमार था / वह युवराज था। किसी समय एक बार मल्ल दिन कुमार ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुला कर इस प्रकार कहा-तम जानो और मेरे प्रमदवन (घर के उद्यान) में एक बड़ी चित्रसभा का निर्माण करो, जो सैकड़ों स्तम्भों से युक्त हो, इत्यादि / यावत् उन्होंने ऐसा ही करके, चित्रसभा का निर्माण करके प्राज्ञा वापिस लौटा दी। ९६--तए णं मल्लदिन्ने कुमारे चित्तगरसेणि सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासो--'तुब्भे गं देवाणुप्पिया ! चित्तसभं हाव-भाव-विलास-विब्बोय-कलिएहिं स्वेहिं चित्तेह। चित्तित्ता जाव पच्चप्पिणह। तए णं सा चित्तगरसेणी तह त्ति पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव सयाई गिहाई, तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तूलियाओ वन्नए य गेण्हति, गेण्हित्ता जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता अणुपविसति, अणुपविसित्ता भूभिभागे विरचति (विहिवति), विरचित्ता (विहिवित्ता) भूमि सज्जति, सज्जित्ता चित्तसभं हावभाव जाब चित्तेउं पयत्ता यावि होत्था / तत्पश्चात मल्लदिन्न कुमार ने चित्रकारों की श्रेणी को बलाया। बला कर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! तुम लोग चित्रसभा को हाव, भाव, विलास और बिब्बोक से युक्त रूपों से (चित्रों से) चित्रित करो। चित्रित करके यावत् मेरी प्राज्ञा वापिस लौटायो / ' तत्पचात् चित्रकारों की श्रेणी ने 'तथा-बहुत ठीक' इस प्रकार कह कर कुमार की आज्ञा शिरोधार्य की। फिर वे अपने-अपने घर गये। घर जाकर उन्होंने तूलिकाएँ ली और रंग लिए। लेकर जहाँ चित्रसभा थी वहाँ पाए / पाकर चित्रसभा में प्रवेश किया। प्रवेश करके भूमि के भागों का विभाजन किया। विभाजन करके अपनो-अपनी भूमि को सज्जित किया--तैयार किया--चित्रों के योग्य बनाया / सज्जित करके चित्रसभा में हाव-भाव आदि से युक्त चित्र अंकित करने में लग गये। विवेचन-हाव-भाव आदि साधारणतया स्त्रियों की चेष्टाओं को कहते हैं / उनका परस्पर अन्तर यह है-हाव अर्थात् मुख का विकार, भाव अर्थात् चित्त का विकार, विलास अर्थात् नेत्र का विकार और बिब्बोक अर्थात् इष्ट अर्थ की प्राप्ति से उत्पन्न होने वाला अभिमान का भाव / युवराज मल्लदिन्न ने इन सभी गार रस के भावों को चित्रित करने का आदेश दिया। ९७-तए णं एगस्स चित्तगरस्स इमेयारूवे चित्तगरलद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया-जस्स णं दुपयस्स वा चउपयस्स वा अपयस्स वा एगदेसमवि पासइ, तस्स णं देसाणुसारेणं तयाणुरूवं रूवं निव्वत्तेइ / उन चित्रकारों में से एक चित्रकार को ऐसी चित्रकारलब्धि (असाधारण योग्यता) लब्ध Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 ] [ ज्ञाताधर्मकथा थी, प्राप्त थी और बार-बार उपयोग में आ चुकी थी कि वह जिस किसी द्विपद (मनुष्यादि), चतुष्पद (गाय, अश्व आदि) और अपद (वृक्ष, भवन आदि) का एक अवयव भी देख ले तो उस अवयव के अनुसार उसका पूरा चित्र बना सकता था। ९८--तए णं से चित्तगरदारए मल्लीए जवणियंतरियाए जालंतरेण पायंगुढ़े पासइ / तए णं तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपजित्था सेयं खलु ममं मल्लीए वि पायंगुट्ठाणुसारेणं सरिसगं जाव गुणोववेयं रूवं निस्वत्तित्तए, एवं संपेहेइ, संपेहिता भूमिभागं सज्जेइ, सज्जित्ता मल्लीए वि पायंगुट्ठाणुसारेणं जाव निश्चत्तेइ / उस समय एक बार उस लब्धि-सम्पन्न चित्रकारदारक ने यवनिका-पर्दे की प्रोट में रही हुई मल्ली कुमारी के पैर का अंगूठा जाली (छिद्र) में से देखा, तत्पश्चात् उस चित्रकारदारक को ऐसा विचार उत्पन्न हुआ, यावत् मल्ली कुमारी के पैर के अंगूठे के अनुसार उसका हूबहू यावत् गुणयुक्त-सुन्दर पूरा चित्र बनाना चाहिए / उसने ऐसा विचार किया। विचार करके भूमि के हिस्से को ठीक किया / ठीक करके मल्ली के पैर के अंगूठे का अनुसरण करके यावत् उसका पूर्ण चित्र बना दिया। ९९--तए णं सा चित्तगरसेणी चित्तसभं हाव-भाव-विलास-विव्वोय-कलिएहि, स्वेहि चित्तेइ, चित्तित्ता जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव एयमाणत्तियं पच्चप्पिणति / तए णं मल्लदिन्ने चित्तगरसेणि, सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलेइ, दलइत्ता पडिविसज्जेइ / तत्पश्चात् चित्रकारों की उस मण्डली (जाति) ने चित्रसभा को यावत् हाव, भाव, विलास और बिब्बोक से चित्रित किया / चित्रित करके जहाँ मल्लदिन्न कुमार था, वहाँ गई। जाकर यावत् कुमार की प्राज्ञा वापिस लौटाई-आज्ञानुसार कार्य हो जाने की सूचना दी। तत्पश्चात् मल्लदिन्न कुमार ने चित्रकारों की मण्डली का सत्कार किया, सन्मान किया, सत्कार-सन्मान करके जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान दिया। दे करके विदा कर दिया / १००-तए णं मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया व्हाए अंतेउरपरियालसंपरिबुडे अम्मधाईए सद्धि जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चित्तसभं अणुपविसइ / अणुपविसित्ता हाव-भावविलास-बिब्बोय-कलियाई रुवाइं पासमाणे पासमाणे जेणेव मल्लीए विदेहवररायकन्नाए तयाणुरूवे रूबे निव्वत्तिए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं से मल्लदिन्ने कुमार मल्लीए विदेहवररायकन्नाए तयाणुरुवं रूवं निव्वत्तियं पासइ, पासित्ता इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था---'एस गं मल्ली विदेहवररायकन्न' ति कट्ट लज्जिए वीडिए विअडे सणियं सणियं पच्चोसक्कइ। तत्पश्चात् किसी समय मल्लदिन कुमार स्नान करके, वस्त्राभूषण धारण करके अन्तःपुर एवं परिवार सहित, धायमाता को साथ लेकर, जहाँ चित्रसभा थी, वहाँ अाया। आकर चित्रसभा Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [251 भीतर प्रवेश किया। प्रवेश करके हाव, भाव, विलास और बिब्बोक से युक्त रूपों (चित्रों) को देखता-देखता जहाँ विदेह की श्रेष्ठ राजकन्या मल्ली का, उसी के अनुरूप चित्र बना था, उसी ओर जाने लगा। उस समय मल्लदिन कुमार ने विदेह की उत्तम राजकुमारी मल्ली का, उसके अनुरूप बना हुमा चित्र देखा / देख कर उसे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुअा-'अरे, यह तो विदेहवर-राजकन्या मल्ली है !' यह विचार आते ही वह लज्जित हो गया, वीडित हो गया और व्यदित हो गया, अर्थात् उसे अत्यन्त लज्जा उत्पन्न हुई / अतएव वह धीरे-धीरे वहाँ से हट गया-पीछे लौट गया / १०१-तए णं मल्लिदिन्नं अम्मधाई पच्चोसक्कंतं पासित्ता एवं वयासी-'कि णं तुमं पुत्ता ! लज्जिए वीडिए विअडे सणियं सणियं पच्चोसक्कइ ? तए णं से मल्लदिन्ने अम्मधाई एवं वयासो-'जुत्तं णं अम्मो! मम जेट्टाए भगिणीए गुरुदेवभूयाए लज्जणिज्जाए मम चित्तगरणिवत्तियं सभं अणुपविसित्तए? __तत्पश्चात् हटते हुए मल्लदिन्न को देख कर धाय माता ने कहा-'हे पुत्र ! तुम लज्जित, वीडित और व्यर्दित होकर धीरे-धीरे हट क्यों रहे हो ?' तब मल्ल दिन्न ने धाय माता से इस प्रकार कहा---'माता ! मेरी गुरु और देवता के समान ज्येष्ठ भगिनी के, जिससे मुझे लज्जित होना चाहिए, सामने, चित्रकारों की बनाई इस सभा में प्रवेश करना क्या योग्य है ?' १०२-तए णं अम्मधाई मल्लदिन्ने कुमारे एवं वयासो-'नो खलु पुत्ता! एस मल्ली विदेहवररायकन्ना चित्तगरएणं तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए। तए णं मल्लदिन्ने कुमारे अम्मधाईए एयमझें सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ते एवं क्यासी-'केस णं भो! चित्तयरए अप्पत्थियपत्थिए जाव [दुरंतपंतलक्खणे होणपुण्ण-चाउद्दसीए सिरि-हिरि-धिइ-कित्ति-] परिवज्जिए जेण ममं जेट्ठाए भगिणीए गुरुदेवभूयाए जाव निव्वत्तिए ? ति कटु तं चित्तगरं वज्झं आणवेइ। धाय माता ने मल्लदिन कुमार से इस प्रकार कहा-'हे पुत्र ! निश्चय ही यह साक्षात् विदेह की उत्तम कुमारी मल्ली नहीं है किन्तु चित्रकार ने उसके अनुरूप (हूबहू) चित्रित की है-उसका चित्र बनाया है। __ तब मल्लदिन्न कुमार धाय माता के इस कथन को सुन कर और हृदय में धारण करके एकदम क्रुद्ध हो उठा और बोला-'कौन है वह चित्रकार मौत की इच्छा करने वाला, यावत् [कुलक्षणी, हीन काली चतुर्दशी का जन्मा एवं लज्जा बुद्धि आदि से रहित] जिसने गुरु और देवता के समान मेरी ज्येष्ठ भगिनी का यावत् यह चित्र बनाया है ? इस प्रकार कह कर उसने चित्रकार का वध करने की प्राज्ञा दे दी। १०३-तए णं सा चित्तगरसेणी इमीसे कहाए लट्ठा समाणा जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव वद्धावेइ, बद्धावित्ता एवं वयासी-- ‘एवं खलु सामी ! तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तगरलद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252] [ ज्ञाताधर्मकथा जस्स णं दुपयस्स वा जाव' णिवत्तेति, तं मा णं सामी ! तुम्भे तं चित्तगरं वज्झं आणवेह / तं तुम्भे गं सामी ! तस्स चित्तगरस्स अन्नं तयाणुरूवं दंडं निव्वत्तेह।' / तत्पश्चात् चित्रकारों की वह श्रेणी इस कथा-वृत्तान्त को सुनकर और समझ कर जहाँ मल्लदिन्न कमार था. वहाँ पाई / प्राकर दोनों हाथ जोड कर यावत मस्तक पर अंजलि करके कूमार को वधाया। वधा कर इस प्रकार कहा 'स्वामिन् ! निश्चय ही उस चित्रकार को इस प्रकार की चित्रकारलब्धि लब्ध हुई, प्राप्त हुई और अभ्यास में पाई है कि वह किसी द्विपद आदि के एक अवयव को देखता है, यावत् वह उसका वैसा ही पूरा रूप बना देता है / अतएव हे स्वामिन् ! आप उस चित्रकार के वध की आज्ञा मत दीजिए। हे स्वामिन् ! आप उस चित्रकार को कोई दूसरा योग्य दंड दे दीजिए।' 104 तए णं से मल्लदिन्ने तस्स चित्तगरस्स संडासगं छिदावेइ, निव्विसयं आणवेइ / से तए णं चित्तगरए मल्लदिन्नेणं निविसए आणते समाणे सभंडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाओ नयरीओ णिक्खमइ, णिक्खमित्ता विदेहं जणवयं मज्झमझेण जेणेव हत्थिणाउरे नयरे, जेणेव करुजणवए. जेणेव अदीणसत्तू राया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भंडनिक्खेवं करेइ, करित्ता चित्तफलगं सज्जेइ, सज्जित्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नगाए पायंगुदाणुसारेणं एवं णिवत्तेइ, णिवत्तित्ता कक्खंतरंसि छुब्भइ, छुब्भइत्ता महत्थं जाव पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता हथिणापुरं नयरं मज्झमज्झेणं जेणेव अदीणसत्तू राया तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता तं करयल जाव वद्धावेइ, बद्धावित्ता पाहुडं उवणेइ, उवणित्ता 'एवं खलु अहं सामी! मिहिलाओ रायहाणीओ कुभगस्स रण्णो पुत्तेणं पभावईए देवीए अत्तएणं मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निविसए आणत्ते समाणे इह हब्वमागए, तं इच्छामि णं सामी ! तुभं बाहुच्छायापरिग्गहिए जाव परिवसित्तए।' तत्पश्चात् मल्लदिन्न ने (चित्रकारों की प्रार्थना स्वीकार करके) उस चित्रकार के संडासक (दाहिने हाथ का अंगूठा और उसके पास की अंगुली) का छेदन करवा दिया और उसे देश-निर्वासन की प्राज्ञा दे दी। तब मल्लदिन्न के द्वारा देश-निर्वासन की प्राज्ञा पाया हुआ वह चित्रकार अपने भांड, पात्र और उपकरण प्रादि लेकर मिथिला नगरी से निकला / निकल कर वह विदेह जनपद के मध्य में होकर जहाँ हस्तिनापुर नगर था, जहाँ कुरुनामक जनपद था और जहाँ अदीनशत्रु नामक राजा था, वहाँ पाया / पाकर उसने अपना भांड (सामान) आदि रखा / रख कर चित्रफलक ठीक किया / ठीक करके विदेह की श्रेष्ठ राजकुमारी मल्ली के पैर के अंगूठे के आधार पर उसका समग्र रूप चित्रित किया। चित्रित करके वह चित्रफलक (जिस पर चित्र बना था वह पट) अपनी काँख में दबा लिया। फिर महान् अर्थ वाला यावत् राजा के योग्य बहुमूल्य उपहार ग्रहण किया / ग्रहण करके हस्तिनापुर नगर के मध्य में होकर अदीनशत्र राजा के पास पाया / अाकर दोनों हाथ जोड़ कर उसे वधाया और वधा कर उपहार उसके सामने रख दिया / फिर चित्रकार ने कहा-'स्वामिन् ! मिथिला राजधानी में कुभ राजा के पुत्र और प्रभावती देवी के आत्मज मल्लदिन्न कुमार ने मुझे देश-निकाले 1. अष्टम अ. 96 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [ 253 को आज्ञा दी, इस कारण मैं सोधा यहाँ पाया हूँ / हे स्वामिन् ! आपकी बाहुओं की छाया से परिगृहीत होकर यावत् मैं यहाँ बसना चाहता हूँ।' १०५-तए णं से अदीनसत्तू राया तं चित्तगरदारयं एवं वयासो-'कि णं तुमं देवाणुप्पिया ! मल्लदिन्नेणं निधिसए आणते ?' तत्पश्चात् अदीनशत्रु राजा ने चित्रकारपुत्र से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! मल्लदिन्न कुमार ने तुम्हें किस कारण देश-निर्वासन की आज्ञा दी ?' १०६-तए णं से चित्तयरदारए अदीणसत्तुरायं एवं वयासी-‘एवं खलु सामी ! मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कयाइ चित्तगरसेणि सद्दावेइ, सदावित्ता एवं क्यासी-'तुब्भे गं देवाणुप्पिया ! मम चित्तसभे' तं चेव सवं भाणियव्वं, जाव मम संडासगं छिदावेइ, छिदावित्ता निविसयं आणवेइ, तं एवं खलु सामी! मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निविसए आणत्ते।' तत्पश्चात् चित्रकारपुत्र ने अदीनशत्रु राजा से कहा-'हे स्वामिन् ! मल्लदिन्न कुमार ने एक वार किसी समय चित्रकारों की श्रेणी को बुला कर इस प्रकार कहा था-'हे देवानुप्रियो ! तुम मेरी चित्रसभा को चित्रित करो;' इत्यादि सब वृत्तान्त पूर्ववत् कहना चाहिए, यावत् कुमार ने मेरा संडासक कटवा लिया। कटवा कर देश-निर्वासन की आज्ञा दे दी। इस प्रकार हे स्वामिन ! मल्लदिन्न कुमार ने मुझे देश-निर्वासन की प्राज्ञा दी है।' १०७--तए णं अदोणसत्तू राया तं चित्तगरं एवं क्यासी-से केरिसए णं देवाणुप्पिया ! तुमे मल्लीए तदाणुरूवे रूवे निव्वतिए ?' तए णं से चित्तगरे कक्खंतराओ चित्तफलयं णोणेइ, णोणित्ता अदीणसत्तुस्स उवणेइ, उवणित्ता एवं वयासी-एस णं सामी! मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तयाणुरूवस्स रूवस्स केइ आगार-भावपडोयारे निव्वत्तिए, णो खलु सक्का केणइ देवेण वा जाव [दाणवेण वा जक्खेम वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा] मल्लीए विदेहरायवरकन्नगाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तित्तए।' तत्पश्चात् अदीनशत्रु राजा ने उस चित्रकार से इस प्रकार कहा–'देवानुप्रिय ! तुमने मल्ली कुमारी का उसके अनुरूप चित्र कैसा बनाया था ?' तव चित्रकार ने अपनी काँख में से चित्रफलक निकाला। निकाल कर अदीनशत्रु राजा के पास रख दिया और रख कर कहा-'हे स्वामिन् ! विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली का उसी के अनुरूप यह चित्र मैंने कुछ प्राकार, भाव और प्रतिबिम्ब के रूप में चित्रित किया है / विदेहराज की श्रेष्ठ कुमारी मल्ली का हूबहू रूप तो कोई देव, [यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग तथा गंधर्व] भी चित्रित नहीं कर सकता। १०८-तए णं अदोणसत्तू राया पडिरूवजणियहासे दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासीतहेव जाव पहारेत्थ गमणाए। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् चित्र को देखकर हर्ष उत्पन्न होने के कारण अदीनशत्रु राजा ने दूत को बुलाया। बुला कर इस प्रकार कहा-(अपने लिए मल्ली कुमारी की मँगनी करने के लिए दूत भेजा) इत्यादि सब वृत्तान्त पूर्ववत् कहना चाहिए / यावत् दूत मिथिला जाने के लिए रवाना हो गया। राजा जितशत्रु 109- तेणं कालेणं तेणं समएणं पंचाले जणवए, कंपिल्ले पुरे नयरे होत्था / तत्थ णं जियसत्तू णामं राया होत्था पंचालाहिवई / तस्स णं जियसत्तुस्स धारिणीपामोक्खं देविसहस्सं ओरोहे होत्था। उस काल और उस समय में पंचाल नामक जनपद में काम्पिल्यपुर नामक नगर था / वहाँ जितशत्र नामक राजा था, वही पंचाल देश का अधिपति था / उस जितशत्र राजा के अन्तःपुर में एक हजार रानियाँ थीं। ११०-तत्थ णं मिहिलाए चोक्खा नाम परिव्वाइया रिउव्वेय जाव [यजुव्वेय-सामवेय. अहव्वणवेय-इतिहासपंचमाणं निघंटुछट्ठाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउण्हं वेदाणं सारगा जाव बंभण्णएसु सुपरिणिट्ठिया] यावि होत्था। तए णं साचोक्खा परिवाइया मिहिलाए बहूणं राईसर जाव सत्यवाहपभिईणं पुरओ दाणधम्म च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणी पण्णवेमाणी परूवेमाणी उवदंसेमाणी विहरइ / मिथिला नगरी में चोक्खा (चोक्षा) नामक परिव्राजिका रहती थी। वह चोक्खा परिवाजिका मिथिला नगरी में बहुत-से राजा, ईश्वर (ऐश्वर्यशाली धनाढ्य या युवराज) यावत् सार्थवाह आदि के सामने दानधर्म, शौचधर्म, और तीर्थस्नान का कथन करती, प्रज्ञापना करती, प्ररूपण करती और उपदेश करती हुई रहती थी। १११-तएँ णं सा चोक्खा परिव्वाइया अन्नया कयाई तिदंडं च कुडियं च जाव' धाउरत्ताओ य गिण्हइ, गिरिहत्ता परिव्वाइगावसहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता पविरलपरिवाइया सद्धि संपरिवडा मिहिलं रायहाणि मज्झंमज्झेणं जेणेव कुंभगस्स रणो भवणे, जेणेब कण्णंतेउरे, जेणेव मल्ली विदेहवररायकन्ना, तेणेव उवागच्छई। उवागच्छित्ता उदयपरिफासियाए, दभोवरि पच्चत्थुयाए भिसियाए निसीयति, निसीइत्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पुरओ दाणधम्मं च जाव विहरइ / तत्पश्चात् एक बार किसी समय वह चोक्खा परिवाजिका त्रिदण्ड, कुडिका यावत् धातु (गेरू) से रंगे वस्त्र लेकर परिवाजिकाओं के मठ से बाहर निकली / निकल कर थोड़ी परित्राजिकाओं से घिरी हुई मिथिला राजधानी के मध्य में होकर जहाँ कुम्भ राजा का भवन था, जहाँ कन्याओं का अन्तःपुर था और जहाँ विदेह की उत्तम राजकन्या मल्ली थी, वहाँ पाई। आकर भूमि पर पानी छिड़का, उस पर डाभ बिछाया और उस पर आसन रख कर बैठी / बैठ कर विदेहवर राजकन्या मल्ली के सामने दानधर्म, शौचधर्म, तीर्थस्नान का उपदेश देती हुई विचरने लगी--उपदेश देने लगी। 1. पंचम प्र., 31 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [ 255 ११२-तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना चोक्खं परिवाइयं एवं वयासो-'तुभं णं चोक्खे ! किमूलए धम्मे पन्नत्ते ?' तए णं सा चोक्खा परिवाइया मल्लि विदेहरायवरकन्नं एवं वयासी--अम्हं णं देवाणुप्पिया ! सोयमूलए धम्ले पण्णवेमि, जं णं अम्हं किंचि असुई भवइ, तं णं उदएण य मट्टियाए य जाव' अविग्घेणं सग्गं गच्छामो।' तब विदेहराजवरकन्या मल्ली ने चोक्खा परिवाजिका से पूछा-'चोक्खा ! तुम्हारे धर्म क मूल क्या कहा गया है ?' तब चोक्खा परिव्राजिका ने विदेहराज-वरकन्या मल्ली को उत्तर दिया-'देवानुप्रिय ! मैं शौचमूलक धर्म का उपदेश करती हूँ। हमारे मत में जो कोई भी वस्तु अशुचि होती है, उसे जल से और मिट्टी से शुद्ध किया जाता है, यावत् [पानी से धोया जाता है, ऐसा करने से अशुचि दूर होकर शुचि हो जाती है / इस प्रकार जीव जलाभिषेक से पवित्र हो जाते हैं / ] इस धर्म का पालन करने से हम निविघ्न स्वर्ग जाते हैं। ११३-तए णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना चोक्ख परिव्वाइयं एवं वयासी-चोक्खा ! से जहानामए केइ पुरिसे रुहिरकयं बत्थं रुहिरेण चेव धोवेज्जा, अस्थि णं चोक्खा! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं धोव्वमाणस्स काई सोही ?' 'णो इणठे समठे।' तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने चोक्खा परिवाजिका से कहा-'चोवखा! जैसे कोई अमुक नामधारी पुरुष रुधिर से लिप्त वस्त्र को रुधिर से ही धोवे, तो हे चोक्खा ! उस रुधिरलिप्त और रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की कुछ शुद्धि होती है ?' परिवाजिका ने उत्तर दिया--'नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं, अर्थात् ऐसा नहीं हो सकता।' ११४---'एवामेव चोक्खा ! तुब्भे णं पाणाइवाएणं जाव' मिच्छादसणसल्लेणं नत्थि काई सोही, जहा व तस्स रुहिरकयस्स क्स्थस्स रुहिरेणं धोन्वमाणस्स / ' मल्ली ने कहा-'इसी प्रकार चोक्खा ! तुम्हारे मत में प्राणातिपात (हिंसा) से यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से अर्थात् अठारह पापों के सेवन का निषेध न होने से कोई शुद्धि नहीं है, जैसे रुधिर से लिप्त और रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की कोई शुद्धि नहीं होती। ११५-तए णं सा चोक्खा परिवाइया मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए एवं वुत्ता समाणा संकिया कंखिया विइगिच्छिया भेयसमावण्णा जाया यावि होत्था / मल्लीए णो संचाएइ किंचिवि पामोक्खमाइक्खित्तए, तुसिणीया संचिट्ठइ / तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली के ऐसा कहने पर उस चोक्खा परिवाजिका को शंका उत्पन्न हुई, कांक्षा, (अन्य धर्म की आकांक्षा) हुई और विचिकित्सा (अपने धर्म के फल में शंका) हुई 1. पंचम अ. 31 2. प्रो. सूत्र. 163 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा और वह भेद को प्राप्त हुई अर्थात् उसके मन में तर्क-वितर्क होने लगा। वह मल्ली को कुछ भी उत्तर देने में समर्थ नहीं हो सकी, अतएव मौन रह गई। ११६--तए णं तं चोक्खं मल्लीए बहुओ दासचेडीओ हीलेंति, निदंति, खिसंति, गरहंति, अप्पेगइयाओ, हेरुयालंति, अप्पेगइयाओ मुहमक्कडियाओ करेंति, अप्पेगइयाओ वग्घाडीओ करेंति, अप्पेगइयाओ तज्जेमाणीओ करेंति, अप्पेगइयाओ तालेमाणीओ करेंति, अप्पेगइयाओ निच्छुभंति / तए णं सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए दासचेडियाहि जाव गरहिज्जमाणी होलिज्जमाणी आसुरुत्ता जाब मिसमिसेमाणा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पओसमावज्जइ, भिसियं गेण्हइ, गेण्हित्ता कण्णंतेउराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता, मिहिलाओ निग्गच्छइ, निग्गछित्ता परिवाइयासंपरिवुडा जेणेव पंचालजणवए जेणेव कंपिल्लपुरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहूणं राईसर जाव' परवेमाणी विहरई। तत्पश्चात् मल्ली की बहुत-सी दासियां चोक्खा परिव्राजिका की (जाति आदि प्रकट करके) हीलना करने लगी, मन से निन्दा करने लगी, खिसा (वचन से निन्दा) करने लगीं, गर्दा (उसके सामने ही दोष कथन) करने लगीं, कितनीक दासियाँ उसे क्रोधित करने लगीं—चिढ़ाने लगीं, कोईकोई मुह मटकाने लगीं, कोई-कोई उपहास करने लगीं, कोई उंगलियों से तर्जना करने लगीं, कोई ताड़ना करने लगी और किसी-किसी ने अर्धचन्द्र देकर उसे बाहर कर दिया। तत्पश्चात् विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली की दासियों द्वारा यावत् गर्दा की गई और अवहेलना की गई वह चोक्खा एकदम क्रुद्ध हो गई और क्रोध से मिसमिसाती हुई विदेहराजवरकन्या मल्ली के प्रति द्वेष को प्राप्त हुई / उसने अपना आसन उठाया और कन्याओं के अन्तःपुर से निकल गई / वहाँ से निकलकर मिथिला नगरी से भी निकली और परिव्राजिकाओं के साथ जहाँ पंचाल जनपद था, जहाँ कम्पिल्यपुर नगर था वहाँ आई और बहुत से राजाओं एवं ईश्वरों राजकुमारोंऐश्वर्यशाली जनों आदि के सामने यावत् अपने धर्म की-दानधर्म, शौचधर्म, तीर्थाभिषेक आदि की प्ररूपणा करने लगी। ११७-तए णं से जियसत्तू अन्नया कयाई अंतेउरपरियालसद्धि संपरिवुडे एवं जाव [सोहासणवरगए यावि] विहरइ। तए णं सा चोक्खा परिवाइयासपरिवडा जेणेव जियसत्तुस्स रण्णो भवणे, जेणेव जियसत्तू तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जियसत्तजएणं विजएणं वद्धावेइ / तए णं से जियसत्तू चोक्खं परिवाइयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुद्वित्ता चोक्खं परिव्वाइयं सक्कारेइ, संमाणेइ, सक्कारित्ता संमाणित्ता आसणेणं उवनिमंतेइ / तत्पश्चात् जितशत्रु राजा एक बार किसी समय अपने अन्तःपुर और परिवार से परिवृत होकर सिंहासन पर बैठा था। तत्पश्चात् परिवाजिकाओं से परिवृत वह चोक्खा जहाँ जितशत्रु राजा का भवन था और 1. अष्टम अ. 110 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [ 257 जहाँ जितशत्रु राजा था, वहाँ आई / आकर भीतर प्रवेश किया। प्रवेश करके जय-विजय के शब्दों से जितशत्रु का अभिनन्दन किया-उसे बंधाया। उस समय जितशत्रु राजा ने चोक्खा परित्नाजिका को आते देखा। देखकर सिंहासन से उठा / उठकर चोक्खा परिवाजिका का सत्कार किया / सन्मान किया / सत्कार-सन्मान करके प्रासन के लिए निमंत्रण किया-बैठने को प्रासन दिया। ११८--तए णं सा चोक्खा उदगपरिफासियाए जाव [दब्भोवरि पच्चत्थुयाए] भिसियाए निविसइ, जियसत्त रायं रज्जे य जाव [रठे य कोसे य कोडागारे य बले य वाहणे य पुरे य] अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छइ / तए णं सा चोक्खा जियसत्तुस्स रण्णो दाणधम्मं च जाव' विहरइ / तत्पश्चात् वह चोत्रखा परिव्राजिका जल छिड़ककर यावत् डाभ पर बिछाए अपने प्रासन पर बैठी / फिर उसने जितशत्रु राजा, यावत् [राष्ट्र, कोश, कोठार, बल, वाहन, पुर तथा] अन्त:पुर के कुशल-समाचार पूछे / इसके बाद चोक्खा ने जितशत्रु राजा को दानधर्म आदि का उपदेश दिया। ११९-तए णं से जियसत्तू अपणो ओरोहंसि जाव विम्हिए चोक्खं परिवाइयं एवं वयासी- 'तुमं गं देवाणुप्पिए ! बहूणि गामागर जाव अडसि, बहूण य राईसरगिहाई अणुपविससि, तं अस्थियाई ते कस्स वि रण्णो वा जाव [ईसरस्स वा कहिंचि] एरिसए ओरोहे दिट्ठपुव्वे जारिसए णं इमे मह उवरोहे ?' तत्पश्चात् वह जितशत्रु राजा अपने रनवास में अर्थात् रनवास की रानियों के सौन्दर्य आदि में विस्मययुक्त था, (अपने अन्त:पुर को सर्वोत्कृष्ट मानता था) अत: उसने चोक्खा परिवाजिका से पूछा-'हे देवानुप्रिय ! तुम बहुत-से गांवों, आकरों आदि में यावत् पर्यटन करती हो और बहुत-से राजाओं एवं ईश्वरों के घरों में प्रवेश करती हो तो कहीं किसी भी राजा आदि का ऐसा अन्तःपुर तुमने कभी पहले देखा है, जैसा मेरा यह अन्तःपुर है ?' १२०-तए णं सा चोक्खा परिवाइया जियसत्तुणा एवं वुत्ता समाणी ईसि अवहसियं करेइ, करित्ता एवं क्यासी-'एवं च सरिसए णं तुमे देवाणुप्पिया ! तस्स अगडददुरस्स।' 'केस णं देवाणुप्पिए ! से अगडददुरे ?' 'जियसत्तू ! से जहानामए अगडदद्दुरे सिया, से णं तत्थ जाए तत्थेव वुड्ढे, अई अगडं वा तलागं वा दहं वा सरं वा सागरं वा अपासमाणे एवं मण्णइ - 'अयं चेव अगडे वा जाव सागरे वा।' तए णं तं कूवं अण्णे सामुद्दए दद्दुरे हव्वमागए / तए णं से कूवदद्दुरे तं सामुद्ददद्दूरं एवं वयासी-'से केस गं तुम देवाणुप्पिया ! कत्तो वा इह हव्वमागए?' ____तए णं से सामुद्दए ददुरे तं कूबददुरं एवं क्यासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया! अहं सामुष्टए दद्दुरे।' तए णं से कूवददुरे तं सामुद्दयं ददुरं एवं वयासो--'केमहालए णं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ?' 1. अष्टम न. 110 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 ] - [ज्ञाताधर्मकथा ..' तए णं से सामुंद्दए दद्दुरे तं कूवदुर एवं वासी-'महालए णं देवाणुप्पिया! समुह / ' 2. तए णं से कूवदद्दुरे पाएणं लीहं कडढेइ, कड्डित्ता एवं वयासी–एमहालए णं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ?' 'णो इणठे समठे, महालए णं से समुद्दे / ' तए णं से कूवदद्दुरे पुरच्छिमिल्लाओ तोराओ उम्फिडित्ता णं गच्छइ, गच्छित्ता एवं वयासी- 'एमहालए णं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ?' 'णो इणठे समझें / ' तहेव / तब चोक्खा परिवाजिका जितशत्रु राजा के इस प्रकार कहने पर थोड़ी मुस्कराई। फिर मुस्करा कर बोली- 'देवानुप्रिय ! इस प्रकार कहते हुए तुम उस कूप-मंडूक के समान जान पड़ते हो।' जितशत्रु ने पूछा-- 'देवानुप्रिय ! कौन-सा वह कूपमंडूक ?' चोक्खा बोली-'जितशत्रु ! यथानामक अर्थात् कुछ भी नाम वाला एक कुएँ का मेंढक था। बह मेंढक उसी कूप में उत्पन्न हुअा था, उसी में बढ़ा था। उसने दूसरा कूप, तालाब, ह्रद, सर अथवा समुद्र देखा नहीं था / अतएव वह मानता था कि यही कूप है और यही सागर है-इसके सिवाय और कुछ भी नहीं है। तत्पश्चात् किसी समय उस कप में एक समुद्री मेंढक अचानक पा गया / तब कूप के मेंढक ने कहा- 'देवानुप्रिय ! तुम कौन हो ? कहाँ से अचानक यहाँ आये हो ?' तब समुद्र के मेंढक ने कूप के मेंढक से कहा- 'देवानुप्रिय ! मैं समुद्र का मेंढक हूँ।' तब कूपमंडूक ने समुद्रमंडूक से कहा-'देवानुप्रिय ! वह समुद्र कितना बड़ा है ?' तब समुद्रीमंडूक ने कूपमंडूक से कहा-'देवानुप्रिय ! समुद्र बहुत बड़ा है।' तब कूपमण्डूक ने अपने पैर से एक लकीर खींची और कहा-'देवानुप्रिय ! क्या इतना बड़ा है?' समुद्री मण्डूक बोला -'यह अर्थ समर्थ नहीं, अर्थात् समुद्र तो इससे बहुत बड़ा है / ' तब कूपमण्डूक पूर्व दिशा के किनारे से उछल कर दूर गया और फिर बोला--'देवानुप्रिय ! वह समुद्र क्या इतना बड़ा है ?' समुद्री मेंढक ने कहा--'यह अर्थ समर्थ नहीं, समुद्र तो इससे भी बड़ा है / इसी प्रकार (इससे भी अधिक कूद-कूद कर कूपमण्डूक ने समुद्र की विशालता के विषय में पूछा, मगर समुद्रमण्डूक हर बार उसी प्रकार उत्तर देता गया / ) १२१--एवामेव तुमं पि जियसत्तू ! अन्नेसि वहणं राईसर जाव सत्थवाहपभिईणं भज्जं वा भगिणि वा धूयं वा सुण्हं वा अपासमाणे जाणेसि-जारिसए मम चेव णं ओरोहे तारिसए णो अण्णस्स। तं एवं खलु जियसत्तु ! मिहिलाए नयरीए कुभगस्स धूआ पभावईए अत्तया मल्ली नामं विदेहवररायकण्णा रूवेण य जोव्वणेण जाव [लावणेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा] नो खलु अण्णा काई Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राठवां अध्ययन : मल्ली ] [ 259 देवकन्ना वा जारिसिया मल्ली। विदेहरायवरकण्णाए छिण्णस्स वि पायंगुढगस्स इमे तवोरोहे सयसहस्सइमं पि कलं न अग्घइ त्ति कटु जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया। ___'इसी प्रकार हे जितशत्रु ! दूसरे बहुत से राजानों एवं ईश्वरों यावत् सार्थवाह आदि की पत्नी, भगिनी, पुत्री अथवा पुत्रवधू तुमने देखी नहीं / इसी कारण समझते हो कि जैसा मेरा अन्तःपुर है, वैसा दूसरे का नहीं है / है, जितशत्रु ! मिथिला नगरी में कुभ राजा की पुत्री और प्रभावती की पात्मजा मल्ली नाम की कुमारी रूप और यौवन में तथा लावण्य में जैसी उत्कृष्ट एवं उत्कृष्ट शरीर वाली है, वैसी दूसरी कोई देवकन्या वगैरह भी नहीं है। विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या के काटे हुए पैर के अंगुल के लाखवें अंश के बराबर भी तुम्हारा यह अन्तःपुर नहीं है।' इस प्रकार कह कर वह परिवाजिका जिस दिशा से प्रकट हुई थी-आई थी, उसी दिशा में लौट गई। 122 --तए णं जियसत्तू परिव्वाइयाजणियहासे दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता जाव पहारेथ गमणाए। तत्पश्चात् परिव्राजिका के द्वारा उत्पन्न किये गये हर्ष वाले राजा जितशत्रु ने दूत को बुलाया। बुलाकर पहले के समान ही सब कहा / यावत् वह दूत मिथिला जाने के लिये रवाना हो गया। विवेचनइस प्रकार मल्लि कुमारी के पूर्वभव के साथी छहों राजाओं ने अपने-अपने लिए कुमारी की मँगनी करने के लिए अपने-अपने दूत रवाना किये / दतों का संदेशनिवेदन १२३–तए णं तेसि जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए। ___ इस प्रकार उन जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं के दूत, जहाँ मिथिला नगरी थी वहाँ जाने के लिए रवाना हो गये। १२४–तए गं छप्पि य दूयगा जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मिहिलाए अग्गुज्जाणंसि पत्तेयं पत्तेयं खंधावारनिवेसं करेंति, करित्ता मिहिलं रायहाणि अणुपविसंति / अणुपविसित्ता जेणेव कुभए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पत्तेयं पत्तेयं करयल' परिग्गहियं साणं साणं राईणं वयणाई निवेदेति / तत्पश्चात् छहों दूत जहाँ मिथिला थी, वहाँ पाये / प्राकर मिथिला के प्रधान उद्यान में सब ने अलग-अलग पड़ाव डाले। फिर मिथिला राजधानी में प्रवेश किया। प्रवेश करके कुम्भ राजा के पास आये / पाकर प्रत्येक-प्रत्येक ने दोनों हाथ जोड़े और अपने-अपने राजाओं के वचन निवेदन किये--सन्देश कहे / (मल्ली कुमारी की मांग की। 1. प्रथम प्र.१८ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 ] [ ज्ञाताधर्मकथा दूतों का अपमान १२५--तए णं से कुभए राया तेसि दूयाणं अंतिए एयमढं सोच्चा आसुरुत्ते जाव [रुठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे] तिवलियं भिडि पिडाले साहट्ट एवं वयासी ...'न देमि गं अहं तुम्भं मल्लि विदेहरायवरकन्न' ति कटु ते छप्पि दुते असक्कारिय असंमाणिय अवदारेणं णिच्छुभावेइ। कुम्भ राजा उन दूतों से यह बात सुनकर एकदम क्रुद्ध हो गया / [रुष्ट और प्रचंड हो उठा। दांत पीसते हुए] यावत् ललाट पर तीन सल डाल कर उसने कहा- 'मैं तुम्हें (छह में से किसी भी राजा को] विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली नहीं देता।' ऐसा कह कर छहों दूतों का सत्कारसन्मान न करके उन्हें पीछे के द्वार से निकाल दिया। १२६-तए णं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया कुभएणं रण्णा असक्कारिया असम्माणिया अवदारेणं निच्छुभाविया समाणा जेणेव सगा सगा जणवया, जेणेव सयाइं सयाई गगराई जेणेव सगा सगा रायाणो तेणेव उवागच्छंति / उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं एवं क्यासी कुम्भ राजा के द्वारा असत्कारित, असम्मानित और अपद्वार (पिछले द्वार) से निष्कासित वे छहों राजाओं के दूत जहाँ अपने-अपने जनपद थे, जहाँ अपने-अपने नगर थे और जहाँ अपने-अपने राजा थे, वहाँ पहुँचे / पहुँच कर हाथ जोड़ कर एवं मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहने लगे-- १२७-एवं खलु सामी ! अम्हे जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं या जमगसमगं चेव जेणेव मिहिला जाव अवदारेणं निच्छुभावेइ, तं न देइ णं सामी ! कुभए राया मल्लि विदेहरायवरकन्नं, साणं साणं राईणं एयळं निवेदेति / ___ 'इस प्रकार हे स्वामिन् ! हम जितशत्रु वगैरह छह राजारों के दूत एक ही साथ जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ पहुँचे। मगर यावत् राजा कुम्भ ने सत्कार-सन्मान न करके हमें अपद्वार से निकाल दिया / सो हे स्वामिन् ! कुम्भ राजा विदेहराजवरकन्या मल्ली पाप को नहीं देता।' दूतों ने अपने-अपने राजाओं से यह अर्थ-वृत्तान्त निवेदन किया। युद्ध की तैयारी १२८-तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो तेसि दूयाणं अंतिए एयमझें सोच्चा निसम्म आसुरुत्ता अण्णमणस्स दूयसंपेसणं करेंति, करिता एवं वयासी-- 'एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं छण्हं राईणं या जमगसमगं चेव जाव णिच्छूढा, तं सेयं खलु देवाणुपिया! अम्हं कुभगस्स जत्तं (जुत्तं) गेण्हित्तए' त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता व्हाया सण्णद्धा हस्थिखंधवरगया सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहि वीइज्जमाणा महयाहय-गय-रह-पवरजोह-कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिबुडा सव्विड्डीए जाव दुदुभिनाइयरवेणं सहिंतो सएहितो नगरेहितो निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता एगयओ मिलायति, मिलाइत्ता जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठवां अध्ययन : मल्ली) [261 तत्पश्चात् वे जितशत्रु वगैरह छहों राजा उन दूतों से इस अर्थ को सुनकर और समझकर एकदम कुपित हुए / उन्होंने एक दूसरे के पास दूत भेजे और इस प्रकार कहलवाया-'हे देवानुप्रिय ! हम छहों राजाओं के दूत एक साथ ही (मिथिला नगरी में पहुँचे और अपमानित करके) यावत निकाल दिये गये / अतएव हे देवानुप्रिय ! हम लोगों को कुम्भ राजा की ओर प्रयाण करना (चढ़ाई करना) चाहिए।' इस प्रकार कहकर उन्होंने एक दूसरे की बात स्वीकार की / स्वीकार करके स्नान किया (वस्त्रादि धारण किये) सन्नद्ध हुए अर्थात् कवच आदि पहनकर तैयार हुए। हाथी के स्कन्ध पर प्रारूढ हए। कोरंट वक्ष के फलों की माला वाला छत्र धारण किया। श्वेत चामर उन पर डोरे जाने लगे / बड़े-बड़े घोड़ों, हाथियों, रथों और उत्तम योद्धाओं सहित चतुरंगिणी सेना से परिवत होकर, सर्व ऋद्धि के साथ, यावत् दुदुभि की ध्वनि के साथ अपने-अपने नगरों से निकले / निकलकर एक जगह इकट्ठे हुए / इकट्ठे होकर जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ जाने के लिए तैयार हुए। १२९-तए णं कुंभए राया इमोसे कहाए लद्धठे समाणे बलवाउयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं क्यासी-'खिप्पामेव भो देवाणुष्पिया ! हयगयरहपवरजोहकलियं सेण्णं सन्नाह / ' जाव पच्चप्पिणंति। तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने इस कथा का अर्थ जानकर अर्थात् छह राजाओं की चढ़ाई का समाचार जानकर अपने सैनिक कर्मचारी (सेनापति) को बुलाया / बुलाकर कहा-'हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही घोड़ों, हाथियों, रथों और उत्तम योद्धाओं से युक्त चतुरंगी सेना तैयार करो।' यावत् सेनापति से सेना तैयार करके आज्ञा वापिस लौटाई अर्थात् सेना तैयार हो जाने की सूचना दी। १३०-तए णं कुभए राया म्हाए सण्णद्धे हथिखंधवरगए सकोरेटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहि [बीइज्जमाणे महया हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए सेणाए सद्धि संपरिवुडे सब्बिड्डीए जाव दुंदुभिनाइयरवेणं] मिहिलं रायहाणि मज्झमज्झेणं णिग्गच्छा, णिग्गच्छित्ता विदेहं जणवयं मज्झमझेणं जेणेव देसअंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खंधावारनिवेसं करेइ, करिता जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे पडिचिदाइ / तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने स्नान किया। कवच धारण करके सन्नद्ध हआ। श्रेष्ठ हाथी के स्कन्ध पर आरूढ हुआ। कोरंट के फूलों की माला वाला छत्र धारण किया / उसके ऊपर श्रेष्ठ और श्वेत चामर ढोरे जाने लगे। यावत् [विशाल घोड़ों, हाथियों, रथों एवं उत्तम योद्धाओं से युक्त] चतुरंगी सेना के साथ पूरे ठाठ के साथ एवं दुदुभिनिनाद के साथ] मिथिला राजधानी के मध्य में होकर निकला / निकलकर विदेह जनपद के मध्य में होकर जहाँ अपने देश का अन्त (सीमा-भाग) था, वहाँ आया / पाकर वहाँ पड़ाव डाला। पड़ाव डालकर जितशत्रु प्रभृति छहों राजानों की प्रतीक्षा करता हुआ युद्ध के लिए सज्ज होकर ठहर गया। युद्ध प्रारम्भ 131 --तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता कुभएणं रण्णा सद्धि संपलग्गा यावि होत्था / Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् वे जितशत्रु प्रभृति छहों राजा, जहाँ कुम्भ राजा था, वहाँ आ पहुँचे / पाकर कुम्भ राजा के साथ युद्ध करने में प्रवृत्त हो गये युद्ध छिड़ गया। कुम्भ की पराजय १३२---तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो कुभयं रायं हय-महिय-पवरवीरघाइयनिवडिय-चिधद्धय-प्पडागं-किच्छप्पाणोवगयं दिसो दिसि पडिसेहिति / / तए णं से कुभए राया जियसत्तुपामोहि छहि राईहि हय-महिय जाव पडिसेहिए समाणे अस्थामे अबले अवीरिए जाव [अपुरिसक्कार-परक्कम्मे] अधारणिज्जमिति कटु सिग्धं तुरियं जाव [चवलं चंडं जइणं] वेइयं जेणेव मिहिला गयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मिहिलं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता मिहिलाए दुवाराई पिहेइ, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठइ / तत्पश्चात उन जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं ने कुम्भ राजा का हनन किया अर्थात् उसके सैन्य का हनन किया, मंथन किया अर्थात् मान का मर्दन किया, उसके अत्युत्तम योद्धानों का घात किया, उसकी चिह्न रूप ध्वजा और पताका को छिन्न-भिन्न करके नीचे गिरा दिया। उसके प्रोण संकट में पड़ गये / उसकी सेना चारों दिशाओं में भाग निकली। .. तब वह कुम्भ राजा जितशत्रु आदि छह राजाओं के द्वारा हत, मानमदित यावत् जिसकी सेना चारों ओर भाग खड़ी हुई है ऐसा होकर, सामर्थ्यहीन, बलहीन, पुरुषार्थ-पराक्रमहीन, त्वरा के साथ, यावत् [तेजी से जल्दी-जल्दी एवं] वेग के साथ जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ पाया / मिथिला नगरी में प्रविष्ट हुआ और प्रविष्ट होकर उसने मिथिला के द्वार बन्द कर लिये / द्वार बन्द करके किले का रोध करने में सज्ज होकर ठहरा--किले की रक्षा करने के लिए तैयार हो गया। मिथिला का घेराव : १३३-तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता मिहिलं रायहाणि णिस्संचारं णिरुच्चारं सव्वओ समंता प्रोरु भित्ता णं चिट्ठति / - तए णं कुभए राया मिहिलं रायहाणि रुद्रं जाणित्ता अब्भंतरियाए उवट्ठाणसालाए सीहासणवरगए तेसि जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं छिद्दाणि य विवराणि य मम्माणि य अलभमाणे बहहिं आएहि य उवाएहि य उम्पित्तियाहि य 4 बुद्धीहि परिणामेमाणे परिणामेमाणे किंचि आयं वा उवायं घा अलभमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव [करयलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए] शियायइ / / तत्पश्चात् जितशत्रु प्रभृति छहों नरेश जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ आये / आकर मिथिला राजधानी को मनुष्यों के गमनागमन से रहित कर दिया, यहाँ तक कि कोट के ऊपर से भी आवागमन रोक दिया अथवा मल त्यागने के लिए भी आना-जाना रोक दिया। उन्होंने नगरी को चारों ओर से घेर लिया। तत्पश्चात् कुम्भ राजा मिथिला राजधानी को घिरी जानकर पाभ्यन्तर उपस्थानशाला (अन्दर की सभा) में श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठा / वह जितशत्रु आदि छहों राजारों के छिद्रों को, विवरों को और मर्म को पा नहीं सका। अतएव बहुत से आयों (यत्नों) से, उपायों से तथा औत्पत्तिकी आदि चारों प्रकार की बुद्धि से विचार करते-करते कोई भी आय या उपाय न पा सका / तब उसके मन का Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली] 263 संकल्प क्षीण हो गया, यावत् वह हथेली पर मुख" रेखकर प्रातध्यान करने लगा-चिन्ता में डूब गया। मल्ली कुमारी द्वारा चिन्ता सम्बन्धी प्रश्न १३४-इमं च णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना व्हाया जाव बहूहि खुज्जाहिं परिबुडा जेणेव कुभए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागचिछत्ता कुंभगस्स पायग्गहणं करेइ / तए णं कुभए राया मल्लि विदेहरायवरकन्नं णो आढाइ, नो परियाणाइ, तुसिणीए संचिट्ठइ / इधर विदेहराजवरकन्या मल्ली ने स्नान किया, (वस्त्राभूषण धारण किये) यावत् बहुत-सी कुब्जा आदि दासियों से परिवृत होकर जहाँ कुभ राजा था, वहाँ आई / आकर उसने कुभ राजा के चरण ग्रहण किये-पैर छए / तब कभ राजा ने विदेहराजवरकन्या मल्ली का श्रादर (स्वागत किया, अत्यन्त गहरी चिन्ता में व्यग्र होने के कारण उसे उसका पाना भी मालूम नहीं हुआ, अतएव वह मौन ही रहा। १३५--तए णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना कभयं रायं एवं वयासो! 'तुब्भे णं ताओ ! अण्णया मम एज्जमाणं जाव' निवेसेह, किं णं तुभं अज्ज ओयमणसंकप्पे जाव' झियायह ?' तए णं कुभए राया मल्लि विदेहरायवरकन्नं एवं वयासी—'एवं खलु पुत्ता! तव कज्जे जियसत्तुपामोक्खेहि छहिं राहि दूया संपेसिया, ते णं मए असक्कारिया जाव' णिच्छूढा / तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा तेसिं दूयाणं अंतिए एयमझें सोच्चा परिकुविया समाणा मिहिलं रायहाणि निस्संचारं जाव' चिट्ठन्ति / तए णं अहं पुत्ता! तेसि जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं अंतराणि अलभमाणे जाव' झियामि / ' तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने राजा कुभ से इस प्रकार कहा–'हे तात ! दूसरे / समय मुझे आती देखकर आप यावत् मेरा आदर करते थे, प्रसन्न होते थे, गोद में बिठलाते थे, परन्तु क्या कारण है कि आज आप अवहत मानसिक संकल्प वाले होकर चिन्ता कर रहे हैं ?' तब राजा कुम्भ ने विदेहराजवरकन्या मल्ली से इस प्रकार कहा---'हे पुत्री ! इस प्रकार तुम्हारे लिए-तुम्हारी मँगनी करने के लिए जितशत्रु प्रभृति छह राजाओं ने दूत भेजे थे। मैंने उन दूतों को अपमानित करके यावत् निकलवा दिया। तब वे जितशत्रु वगैरह राजा उन दूतों से यह वृत्तान्त सुनकर कुपित हो गये। उन्होंने मिथिला राजधानी को गमनागमनहीन बना दिया है, यावत् चारों ओर घेरा डालकर बैठे हैं / अतएव हे पुत्री ! मैं उन जितशत्रु प्रभृति नरेशों के अन्तर—छिद्र आदि न पाता हुअा यावत् चिन्ता में डूबा हूँ।' चिन्तानिवारण का उपाय १३६-तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना कुभयं रायं एवं वयासी-मा णं तुब्भे ताओ ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह, तुन्भे णं ताओ ! तेसि जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं पत्तेयं पत्तेयं रहसियं दूयसंपेसे करेह, एगमेगं एवं वयह –'तव देमि मल्लि विदेहरायवरकन्नं, ति कटु संझाकाल१-२. प्रथम अ. 60 3. अष्टम अ. 125 4-5 अष्टम् अ. 133 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264] [ ज्ञाताधर्मकथा समयंसि पविरलमणसंसि निसंतसि पडिनिसंतसि पत्तेयं पत्तेयं मिहिलं रायहाणि अणुप्पवेसेह / अणुप्पवेसित्ता गम्भघरएसु अणुप्पवेसेह, मिहिलाए रायहाणीए दुवाराई पिधेह, पिधित्ता रोहसज्जे चिट्ठह। ___तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने राजा कुम्भ से इस प्रकार कहा-तात ! आप अवहत मानसिक संकल्प वाले होकर चिन्ता न कीजिए। हे तात ! आप उन जितशत्रु आदि छहों राजारों में से प्रत्येक के पास गुप्त रूप से दूत भेज दीजिए और प्रत्येक को यह कहला दीजिए कि 'मैं विदेहराजवरकन्या तुम्हें देता हूँ।' ऐसा कहकर सन्ध्याकाल के अवसर पर जब बिरले मनुष्य गमनागमन करते हों और विश्राम के लिए अपने-अपने घरों में मनुष्य बैठे हों; उस समय अलग-अलग राजा का मिथिला राजधानी के भीतर प्रवेश कराइए / प्रवेश कराकर उन्हें गर्भगृह के अन्दर ले जाइए। फिर मिथिला राजधानी के द्वार बन्द करा दीजिए और नगरी के रोध में सज्ज होकर ठहरिए–नगररक्षा के लिए तैयार रहिए। १३७–तए णं कुभए राया एवं तं चैव जाव पवेसेइ, रोहसज्जे चिट्ठइ / तत्पश्चात् राजा कुम्भ ने इसी प्रकार किया। यावत् छहों राजाओं को मिथिला के भीतर प्रवेश कराया। वह नगरी के रोध में सज्ज होकर ठहरा / राजाओं को सम्बोधन १३८-तए णं जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो कल्लं पाउप्पभायाए जाव' जालंतरेहि कणगमयं मत्थयछिड्ड पउमुप्पलपिहाणं पडिमं पासंति / 'एस णं मल्ली विदेहरायवरकन्न' त्ति कट्ट मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए रूवे य जोव्वणे य लावण्णे य मुच्छिया गिद्धा जाव अज्झोववन्ना अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणा चिठ्ठति / ___ तत्पश्चात् जितशत्रु आदि छहों राजा कल अर्थात् दूसरे दिन प्रातःकाल (उन्हें जिस मकान में ठहराया था उसकी) जालियों में से स्वर्णमयी, मस्तक पर छिद्र वाली और कमल के ढक्कन वाली मल्ली की प्रतिमा को देखने लगे। 'यही विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली है' ऐसा जानकर विदेहराजवरकन्या मल्ली के रूप यौवन और लावण्य में मूच्छित, गृद्ध यावत् अत्यन्त लालायित होकर अनिमेष दृष्टि से बार-बार उसे देखने लगे। १३९---तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना व्हाया जाव पायच्छिता सव्वालंकारविभूसिया बहूहि खुज्जाहिं जाव परिक्खित्ता जेणेव जालघरए, जेणेव कणगपडिमा तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता तोसे कणगपडिमाए मत्थयाओ तं पउमं अवणेइ / तए णं गंधे णिद्धावइ से जहानामए अहिमडे इ वा जावअसुभतराए चेव / तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने स्नान किया, यावत् कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त किया। वह समस्त अलंकारों से विभूषित होकर बहुत-सी कुब्जा आदि दासियों से यावत् परिवृत होकर जहाँ जालगृह था और जहाँ स्वर्ण की वह प्रतिमा थी, वहाँ आई / पाकर उस स्वर्णप्रतिमा के मस्तक से 1. प्र अ. 28 2. अष्टम अ. 36 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राठवां अध्ययन : मल्ली ] [265 वह कमल का ढक्कन हटा दिया। ढक्कन हटाते ही उसमें से ऐसी दुर्गन्ध छूटी कि जैसे मरे साँप की दुर्गन्ध हो, यावत् [मृतक गाय, कुत्ता आदि को दुर्गन्ध हो] उससे भी अधिक अशुभ / १४०-तए णं जियसत्तुपामोक्खा तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सहि सहि उत्तरिज्जेहि आसाई पिहेंति, पिहित्ता परम्मुहा चिट्ठति / ___तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना ते जियसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-किं णं तुम्भं देवाणुप्पिया ! सएहि सहि उत्तरिज्जेहिं जाव परम्मुहा चिट्ठह ?' तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा मल्लि विदेहरायवरकन्नं एवं वयंति-- 'एवं खलु देवाणुप्पिए ! अम्हे इमेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सहि सएहिं जाब चिट्ठामो।' तत्पश्चात् जितशत्रु वगैरह ने उस अशुभ गंध से अभिभूत होकर-घबरा का अपने-अपने उत्तरीय वस्त्रों से मुह ढंक लिया / मुह ढंक कर वे मुख फेर कर खड़े हो गये। तब विदेहराजवर कन्या मल्लो ने उन जितशत्र आदि से इस प्रकार कहा---'देवानुप्रियो ! किस कारण आप अपने-अपने उत्तरीय वस्त्र से मुह ढंक कर यावत् मुह फेर कर खड़े हो गये ?' तब जितशत्रु ग्रादि ने विदेहराजवरकन्या मल्ली से कहा---'देवानुप्रिय ! हम इस अशुभ गंध से घबरा कर अपने-अपने यावत् उत्तरीय वस्त्र से मुख ढंक कर विमुख हुए हैं।' १४१-तए णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना ते जियसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-'जइ ताव देवाणुप्पिया ! इमीसे कणगमईए जाव पडिमाए कल्लाल्लि ताओ मणुण्णाओ असण-पाण-खाइमसाइमाओ एगमेगे पिंडे पक्खिप्पमाणे पक्खिप्पमाणे इमेयारूवे असुभे पोग्गलपरिणामे, इमस्स पुण ओरालियसरीरस्स खेलासवस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स सुक्कसोणियपूयासवस्स दुरूवऊसास-नीसासस्स दुरूव-मूतपूतिय-पुरीस-पुण्णस्स सडण-पडण-छयण-विद्धंसणधम्मस्स केरिसए परिणामे भविस्सइ ?तं मा णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! माणुस्सएसु कामभोगेसु रज्जह, गिज्झह, मुज्झइ, अज्झोववज्जह / ' ___ तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने उन जितशत्रु आदि राजारों से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! इस स्वर्णमयी (यावत्) प्रतिमा में प्रतिदिन मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार में से एक-एक पिण्ड डालते-डालते यह ऐसा अशुभ पुदगल का परिणमन हमा, तो यह औदारिक शरीर तो कफ को झराने वाला है, खराब उच्छ्वास और निश्वास निकालने वाला है, अमनोज्ञ मूत्र एवं दुर्गन्धित मल से परिपूर्ण है, सड़ना, पड़ना, नष्ट होना और विध्वस्त होना इसका स्वभाव है, तो इसका परिणमन कैसा होगा ? अतएव हे देवानुप्रियो ! आप मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों में राग मत करो, गृद्धि मत करो, मोह मत करो और अतीव आसक्त मत होनो।' १४२–एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुम्हे अम्हे इमाओ तच्चे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलिलावइंसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महब्बलपामोक्खा सत्त वि य बालवयंसगा रायाणो होत्था, सह जाया जाव पवइया / तए णं अहं देवाणुप्पिया ! इमेणं कारणेणं इत्थीनामगोयं कम्मं निव्वत्तेमि-जइ णं तुम्भे चउत्थं उवसंपज्जित्ताणं बिहरह, तए णं अहं छठें उवसंपज्जित्ता णं विहरामि / सेसं तहेव सव्वं / Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266] [ज्ञाताधर्मकथा मल्ली कुमारी ने पूर्वभव का स्मरण कराते हुए आगे कहा--'इस प्रकार हे देवानुप्रियो ! तुम और हम इससे पहले के तीसरे भव में, पश्चिम महाविदेहवर्ष में, सलिलावती विजय में, वीतशोका नामक राजधानी में महाबल आदि सातों-मित्र राजा थे। हम सातों साथ जन्मे थे, यावत् साथ ही दीक्षित हुए थे। हे देवानुप्रियो ! उस समय इस कारण से मैंने स्त्रीनामगोत्र कर्म का उपार्जन किया था--- अगर तुम लोग एक उपवास करके विचरते थे, तो मैं तुम से छिपाकर बेला करती थी, इत्यादि सब वृत्तान्त पूर्ववत् समझना चाहिए / १४३-तए णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! कालमासे कालं किच्चा जयंते विमाणे उववण्णा। तत्थ णं तुम्भे देसूणाई बत्तीसाइं सागरोवमाई ठिई। तए णं तुम्भे ताओ देवलोयाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दोवे जाव साइं साइं रज्जाइं उवसंपज्जित्ता णं विहरह / / तए णं अहं देवाणुप्पिया ! ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव दारियत्ताए पच्चायायाकिंथ तयं पम्हुळं, जं थ तया भो जयंत पवरम्मि / वुत्था समयनिबद्धं, देवा! तं संभरह जाई // 1 // तत्पश्चात् हे देवानुप्रियो ! तुम कालमास में काल करके- यथासमय देह त्याग कर जयन्त विमान में उत्पन्न हुए। वहाँ तुम्हारी कुछ कम बत्तीस सागरोपम की स्थिति हुई। तत्पश्चात् तुम उस देवलोक से अनन्तर (सीधे) शरीर त्याग करके--- चय करके—इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्पन्न हुए, यावत् अपने-अपने राज्य प्राप्त करके विचर रहे हो। मैं उस देवलोक से आयु का क्षय होने पर कन्या के रूप में पाई हूँ—जन्मी हूँ। 'क्या तुम वह भूल गये? जिस समय हे देवानुप्रिय ! तुम जयन्त नामक अनुत्तर विमान में वास करते थे ? वहाँ रहते हुए 'हमें एक दूसरे को प्रतिबोध देना चाहिए ऐसा परस्पर में संकेत किया था / तो तुम देवभव का स्मरण करो।' १४४-तए णं तेसि जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं रायाणं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अंतिए एयम→ सोच्चा णिसम्म सुभेणं परिणामेणं, पसत्थेणं अज्झबसाणेणं, लेसाहि विसुज्झमणीहि, तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओबसमेणं ईहा-वूह-मन्गण-गवेसणं करेमाणाणं सणिपुत्वे जाइस्सरणे समुष्पन्ने / एयमद्रं सम्मं अभिसमागच्छंति / तत्पश्चात् विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली से पूर्वभव का यह वृत्तान्त सुनने और हृदय में धारण करने से, शुभ परिणामों, प्रशस्त अध्यवसायों, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं और जातिस्मरण को आच्छादित करने वाले कर्मों के क्षयोपशम के कारण, ईहा--अपोह (सद्भूत-असद्भूत धर्मों की पर्यालोचना) तथा मार्गणा और गवेषणा–विशेष विचार करने से जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं को ऐसा जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ कि जिससे वे संज्ञी अवस्था के अपने पूर्वभव को देख सके / इस ज्ञान के उत्पन्न होने पर मल्ली कुमारी द्वारा कथित अर्थ--वृत्तान्त को उन्होंने सम्यक् प्रकार से जान लिया। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली ] [267 145 -तए णं मल्लो अरहा जियसत्तुपामोक्खे छप्पि रायाणो समुप्पण्णजाइसरणे जाणित्ता गब्भघराणं दाराई विहाडावेइ / तए णं जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति / तए णं महब्बलपामोक्खा सत्त वि य बालवयंसा एगयओ अभिसमन्नागया यावि होत्था / तत्पश्चात् मल्ली अरिहंत ने जितशत्र प्रभृति छहों राजाओं को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया जानकर गर्भगृहों के द्वार खुलवा दिये। तब जितशत्रु वगैरह छहों राजा मल्ली अरिहंत के पास आये / उस समय (पूर्वजन्म के) महाबल आदि सातों बाल मित्रों का परस्पर मिलन हुआ / १४६--तए णं मल्ली अरहा जियसत्तुपामोक्खे छप्पि य रायाणो एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! संसारभयउब्विग्गा जाव पव्वयामि, तं तुझे गं कि करेह ? कि ववसह ? कि भे हियइच्छिए सामत्थे ?' तत्पश्चात् अरिहंत मल्ली ने जितशत्रु वगैरह छहों राजाओं से कहा है देवानुप्रिय ! निश्चित रूप से मैं संसार के भय से (जन्म-जरा-मरण से) उद्विग्न हुई हूँ, यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। तो आप क्या करेंगे? कैसे रहेंगे ? आपके हृदय का सामर्थ्य कैसा है ? अर्थात् भाव या उत्साह कैसा है ? १४७-तए णं जितसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो मल्लि अरहं एवं वयासो-'जइ णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! संसारभयउविगा जाव पव्वयह, अम्हाणं देवाणुप्पिया! के अण्णे आलंबणे वा आहारे वा पडिबंघे वा ? जह चेव णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे अम्हे इओ तच्चे भवग्गहणे बहुसु कज्जेसु य मेढी पमाणं जाव धम्मधुरा होत्था, तहा चेव णं देवाणुप्पिया ! इण्हि पि जाव भविस्सह। अम्हे वि य णं देवाणुप्पिया! संसारभयउविग्गा जाव भीया जम्ममरणाणं, देवाणुप्पियाणं सद्धि मुडा भवित्ता जाव पव्वयामो।' तत्पश्चात् जितशत्रु आदि छहों राजाओं ने मल्ली अरिहंत से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! अगर आप संसार के भय से उद्विग्न होकर यावत् दीक्षा लेती हो, तो हे देवानुप्रिये ! हमारे लिए दूसरा क्या आलंबन, प्राधार या प्रतिबन्ध है ? हे देवानुप्रिये ! जैसे आप इस भव से पूर्व के तीसरे भव में, बहुत कार्यों में हमारे लिए मेढीभूत, प्रमाणभूत और धर्म की धुरा के रूप में थीं, उसी प्रकार हे देवानुप्रिये ! अब (इस भव में) भी होप्रो / हे देवानुप्रिया ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न हैं यावत् जन्म-मरण से भयभीत हैं; अतएव देवानुप्रिया के साथ मुण्डित होकर यावत् दीक्षा ग्रहण करने को तैयार हैं।' 148 --तए णं मल्ली अरहा ते जियसत्तुपामोक्खे एवं वयासो-'जं णं तुम्भे संसारभयउब्विग्गा जाव मए सद्धि पब्वयह, तं गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सएहि सएहि रज्जेहि जेट्ठ पुत्ते रज्जे ठावेह, ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरुहह / दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउम्भवह / तत्पश्चात् अरिहंत मल्ली ने उन जितशत्रु प्रभृति राजाओं से कहा-'अगर तुम संसार के भय से उद्विग्न हुए हो, यावत् मेरे साथ दीक्षित होना चाहते हो, तो जानो देवानुप्रियो ! अपने-अपने Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 ] [ ज्ञाताधर्मकथा राज्य में और अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य पर प्रतिष्ठित करो। प्रतिष्ठित करके हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिविकाओं पर आरूढ होयो / प्रारूढ होकर मेरे समीप आयो / ' १४९-तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा मल्लिस्स अरहओ एयमढें पडिसुर्णेति / तत्पश्चात् उन जितशत्रु प्रभृति राजाओं ने मल्ली अरिहंत के इस अर्थ (कथन) को अंगीकार किया। १५०-तए णं मल्ली अरहा ते जितसत्तुपामोक्खे गहाय जेणेव कुभए राया तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता कुंभगस्स पाएसु पाडेइ / तए णं कुभए राया ते जियसत्तुपामोक्खे विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पुष्फ-वत्थ-गंधमल्ललंकारेणं सक्कारेइ, सम्माणेइ सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ। तत्पश्चात् मल्ली अरिहंत उन जितशत्रु वगैरह को साथ लेकर जहाँ कुम्भ राजा था. वहाँ आई / आकर उन्हें कुम्भ राजा के चरणों में नमस्कार कराया। तब कुम्भ राजा ने उन जितशत्रु वगैरह का विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से तथा पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य और अलंकारों से सत्कार किया, सन्मान किया। सत्कार-सन्मान करके उन्हें विदा किया। १५१–तए णं जियसत्तुपामोक्खा कुभएणं रण्णा विसज्जिया समाणा जेणेव साइं साई रज्जाई, जेणेव नयराइं, तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता सयाई सयाई रज्जाई उवसंपज्जित्ता विहरंति / तत्पश्चात् कुम्भ राजा द्वारा विदा किये हुए जितशत्रु आदि राजा जहाँ अपने-अपने राज्य थे, जहाँ अपने-अपने नगर थे, वहाँ आये / प्राकर अपने-अपने राज्यों का उपभोग करते हुए विचरने लगे। १५२-तए णं मल्ली अरहा 'संवच्छरावसाणे निक्खमिस्सामि' त्ति मणं पहारेइ / तत्पश्चात् परिहन्त मल्ली ने अपने मन में ऐसी धारणा की कि 'एक वर्ष के अन्त में मैं दीक्षा ग्रहण करूगी।' 153 तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्कस्स आसणं चलइ। तए णं सक्के देविदे देवराया आसणं चलियं पासइ, पासित्ता ओहि पउंजइ, पउंजित्ता मल्लि अरहं ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव [चितिए पत्थिए मणोगते संकप्पे] समुप्पज्जित्था-'एवं खलु जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुभगस्स रण्णो (धूआ) मल्ली अरहा निक्खमिस्सामि त्ति मणं पहारेइ / ' उस काल और उस समय में शक्रेन्द्र का आसन चलायमान हुआ / तब देवेन्द्र देवराज शक ने अपना पासन चलायमान हुआ देखा / देख कर अवधिज्ञान का प्रयोग किया-उपयोग लगाया। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठवां अध्ययन : मल्ली | [ 269 उपयोग लगाने पर उसे ज्ञात हुप्रा-तब इन्द्र को मन में ऐसा विचार, चिन्तन, एवं खयाल हुआ कि जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, मिथिला राजधानी में कुम्भ राजा की पुत्री मल्ली अरिहन्त ने एक वर्ष के पश्चात् 'दीक्षा लूगी 'ऐसा विचार किया है / १५४-'तं जीयमेयं तीय-पच्चप्पन्न-मणागयाणं सक्काणं देविदाणं देवरायाणं, अरहताणं भगवंताणं णिक्खममाणाणं इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलित्तए / तं जहा-- तिण्णेव य कोडिसया, अडासोइं च होंति कोडीओ। असिइं च सयसहस्सा, इंदा दलयंति अरहाणं / / (शक्रन्द्र ने आगे विचार किया-) तो अतीत काल, वर्तमान काल और भविष्यत् काल के शक देवेन्द्र देवराजों का यह परम्परागत प्राचार है कि-तीर्थंकर भगवंत जव दीक्षा अंगीकार करने को हों, तो उन्हें इतनी अर्थ-सम्पदा (दान देने के लिए) देनी चाहिए। वह इस प्रकार है ___ 'तीन सौ करोड़ (तीन अरब) अट्ठासी करोड और अस्सी लाख द्रव्य (स्वर्ण मोहरें) इन्द्र अरिहन्तों को देते हैं।' १५५---एवं संपेहेइ, संपेहिता वेसमणं देवं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे जाव असीइं च सयसहस्साई दलइत्तए, तं गच्छह णं देवाणुपिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कुभगभवर्णसि इमेयारूवं अत्थसंपयाणं साहराहि, साहरित्ता खिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि / ' शक्रेन्द्र ने ऐसा विचार किया। विचार करके उसने वैश्रमण देव को बुलवाया और बुला कर कहा--'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, याबत् मिल्ली अरिहंत ने दीक्षा लेने का विचार किया है, अतएव] तीन सौ अट्ठासो करोड और अस्ली लाख स्वर्ण मोहरें देना उचित है / सो हे देवानुप्रिय ! तुम जानो और जम्बुद्वीप में, भारतवर्ष में कुम्भ राजा के भवन में इतने द्रव्य का संहरण करो- इतना धन लेकर पहुंचा दो। पहुंचा करके शीघ्र ही मेरी यह आज्ञा वापिस सौंपो। १५६--तए णं से वेसमणे देवे सक्केणं देविदेणं देवरन्ना एवं वुत्ते समाणे हद्वतुठे करयल जाव' पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जंभए देवे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणि, कुभगस्स रणो भवणंसि तिन्नेब य कोडिसया, अट्ठासीयं च कोडीओ असीइं च सयसहस्साई अयमेयारूवं अस्थसंपयाणं साहरह, साहरिता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।' तत्पश्चात् वैश्रमण देव, शक देवेन्द्र देवराज के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुआ / हाथ जोड़ कर उसने यावत् मस्तक पर अंजलि घुमाकर अाज्ञा स्वीकार की। स्वीकार करके ज़ भकदेवों को बुलाया। बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा–'देवानुप्रियो ! तुम जम्बूद्वीप में भारतवर्ष में और मिथिला राजधानी में जानो और कुम्भ राजा के भवन में तीन सौ अट्ठासी करोड अस्सी लाख अर्थ सम्प्रदान का संहरण करो, अर्थात् इतनी सम्पत्ति वहाँ पहुंचा दो। संहरण करके यह आज्ञा मुझे वापिस लौटायो। 1. प्रथम प्र.१८ - Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 ] [ ज्ञाताधर्मकथा १५७--तए णं ते जंभगा देवा वेसमणेणं जाव [एवं वुत्ता समाणा] पडिसुणेत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसोभागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता जाव [वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणंति, समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दंड निसिरंति जाव] उत्तरवेउम्वियाई रुवाइं विउध्वंति, विउवित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव' वीइवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, जेणेव मिहिला रायहाणी, जेणेव कुभगस्स रण्णो भवणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता कुभगस्स रण्णो भवणंसि तिन्नि कोडिसया जाव साहरंति। साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव पच्चप्पिणंति। ___ तत्पश्चात् वे जृभक देव, वैश्रमण देव की आज्ञा सुनकर उत्तरपूर्व दिशा में गये / जाकर उत्तरवैक्रिय [वक्रिय समुदघात किया, समुदघात करके संख्यात योजन का दंड निकाला, फिर उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा की। विकुर्वणा करके देव सम्बन्धी उत्कृष्ट गति से जाते हुए जहाँ जम्बूद्वीप नामक द्वोप था, भरतक्षेत्र था, जहाँ मिथिला राजधानी थी और जहाँ कुम्भ राजा का भवन था, वहाँ पहुंचे / पहुंच कर कुम्भ राजा के भवन में तीन सौ करोड आदि पूर्वोक्त द्रव्य सम्पत्ति पहुंचा दी। पहुंचा कर वे ज़भक देव, वैश्रमण देव के पास आये और उसकी आज्ञा वापिस लौटाई / विवेचन—पृथ्वी का एक नाम 'वसुन्धरा' भी है / वसुन्धरा का शब्दार्थ है - वसु अर्थात् धन को धारण करने वाली। 'पदे पदे निधानानि' कहावत भी प्रसिद्ध है, जिसका आशय भी यही है कि इस पृथ्वी में जगह-जगह निधान-खजाने भरे पड़े हैं। जृम्भक देव अवधिज्ञानी होते हैं / उन्हें ज्ञान होता है कि कहाँ-कहाँ कितना द्रव्य गड़ा पड़ा है / जिन निधानों का कोई स्वामी नहीं बचा रहता, जिनका नामगोत्र भी निश्शेष हो जाता है, जिनके वंश में कोई उत्तराधिकारी नहीं रहता, जो निधान अस्वामिक हैं, उनमें से जम्भक देव इतना द्रव्य निकाल कर तीर्थंकर के वर्षीदान के लिए उनके घर में पहुंचाते हैं। १५८-तए णं से वेसमणे देवे जेणेव सक्के देविदे देवराया तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता करयल जाव पच्चप्पिणइ / तत्पश्चात् वह वैश्रमण देव जहाँ शक्र देवेन्द्र देवराज था, वहाँ पाया / प्राकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् उसने इन्द्र की आज्ञा वापिस सौंपी। १५९-तए णं मल्लो अरहा कल्लाल्लि जाव मागहओ पायरासो त्ति बहूणं सणाहाण य अणाहाण य पंथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडि अट्ट य अणूणाई सयसहस्साहं इमेयारूवं अत्थसंपदाणं दलयइ। तत्पश्चात् मल्ली अरिहंत ने प्रतिदिन प्रातःकाल से प्रारम्भ करके मगध देश के प्रातराश (प्रातःकालीन भोजन) के समय तक अर्थात् दोपहर पर्यन्त बहुत-से सनाथों, अनाथों पांथिकों-- निरन्तर मार्ग पर चलने वाले पथिकों, पथिकों-राहगीरों अथवा किसी के द्वारा किसी प्रयोजन से भेजे गये पुरुषों, करोटिक-कपाल हाथ में लेकर भिक्षा मांगने वालों, कार्पटिक-कंथा कोपीन या गेरुये वस्त्र धारण करने वालों अथवा कपट से भिक्षा मांगने वालों अथवा एक प्रकार के भिक्षुक विशेषों को पूरी एक करोड़ और आठ लाख स्वर्णमोहरें दान में देना प्रारम्भ किया। 1. प्रथम अ. 70 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली ] [ 271 १६०---तए णं से कुभए राया मिहिलाए रायहाणीए तत्थ तत्थ तहि तहि देसे देसे बहूओ महाणससालाओ करेइ / तत्थ णं बहवे मणुया दिण्णभइ-भत्त-वेयणा विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं उवक्खडेंति / उवक्खडित्ता जे जहा आगच्छंति तंजहा-पंथिया वा, पहिया बा, करोडिया वा, कप्यडिया वा, पासंडत्था वा, गिहत्था वा तस्स य तहा आसत्थस्स वीसत्थस्स सुहासणवरगयस्स. तं विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं परिभाएमाणा परिवेसेमाणा विहरति / तत्पश्चात कुम्भ राजा ने भी मिथिला राजधानी में तत्र तत्र अर्थात विभिन्न मुहल्लों या उपनगरों में, तहिं तहिं अर्थात् महामार्गों में तथा अन्य अनेक स्थानों में, देशे देशे अर्थात् त्रिक, चतुष्क आदि स्थानों-स्थानों में बहुत-सी भोजनशालाएँ बनवाईं। उन भोजनशालाओं में बहुत-से मनुष्य, जिन्हें भृति--धन, भक्त-भोजन और वेतन-मूल्य दिया जाता था, विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनाते थे। बना करके जो लोग जैसे जैसे आते जाते थे जैसे कि-पांथिक (निरन्तर रास्ता चलने वाले ), पथिक (मुसाफिर), करोटिक (कपाल-खोपड़ी लेकर भीख मांगने वाले) कार्पटिक (कंथा, कोपोन या कषाय वस्त्र धारण करने वाले) पाखण्डी (साधु, बाबा, संन्यासी) अथवा गृहस्थ, उन्हें आश्वासन देकर, विश्राम देकर और सुखद आसान पर बिठला कर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य दिया जाता था, परोसा जाता था। वे मनुष्य वहाँ भोजन आदि देते रहते थे। १६१.-तए णं मिहिलाए सिंघाडग जाव' बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ---'एवं खलु देवाणु प्पिया ! कुभगस्स रण्णो भवणंसि सव्वकामगुणियं किमिच्छियं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं बहूणं समणाय य जाय परिवेसिज्जइ।' वरवरिया घोसिज्जइ, किमिच्छियं दिज्जए बहुविहीयं / सुर-असुर-देव-दाणव-नरिदमहियाण निक्खमणे // तत्पश्चात् मिथिला राजधानी में शृगाटक, त्रिक, चौक आदि मार्गों में बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहने लगे—'हे देवानुप्रियो ! कुम्भ राजा के भवन में सर्वकामगुणित अर्थात् सब प्रकार के सुन्दर रूप, रस, गंध और स्पर्श वाला-मनोवाञ्छित रस-पर्याय वाला तथा इच्छानुसार दिया जाने वाला विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम अाहार बहुत-से श्रमणों आदि को यावत् परोसा जाता है / तात्पर्य यह है कि कुम्भ राजा द्वारा जगह-जगह भोजनशालाएँ खुलवा देने और भोजनदान देने की गली-गली में सर्वत्र चर्चा होने लगी। वैमानिक, भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों तथा नरेन्द्रों अर्थात् चक्रवर्ती आदि राजाओं द्वारा पूजित तीर्थंकरों की दीक्षा के अवसर पर वरवरिका की घोषणा कराई जाती है, और याचकों को यथेष्ट दान दिया जाता है / अर्थात् और तुम्हें क्या चाहिए, तुम्हें क्या चाहिए, इस प्रकार पूछ-पूछ कर याचक की इच्छा के अनुसार दान दिया जाता है / १६२-तए णं मल्ली अरहा संवच्छरेणं तिनि कोडिसया अट्ठासीइं च होंति कोडीओ असिई च सयसहस्साई इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलइत्ता निक्खमामि ति मणं पहारेइ / उस समय अरिहंत मल्ली ने तीन सौ अठासी करोड अस्सी लाख जितनी अर्थसम्पदा दान देकर 'मैं दीक्षा ग्रहण करू" ऐसा मन में निश्चय किया। 1. प्रथम प्र. 77 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 ] [ ज्ञाताधर्मकथा १६३-तेणं कालेणं तेणं समएणं लोगंतिया देवा बंभलोए कप्पे रिठे विमाणपत्थडे साह सहि विमाणेहि, सएहि सएहिं पासायडिसएहि, पत्तेयं पत्तेयं चहिं सामाणियसाहस्सीहि, तिहिं परिसाहिं, सतहिं अणिएहि, सतहिं अणियाहिवईहि, सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सोहि, अन्नेहि य बहिं लोगंतिएहिं देवेहि सद्धि संपरिवुडा महयाहयनट्टगीयवाइय जाव [तंती-तल-ताल-तुडिय-घणमुइंग-पडुप्पवाइय-] रवेणं भुजमाणा विहरंति / तंजहा सारस्सयमाइच्चा, वण्ही वरुणा य गद्दतोया य / तुसिया अव्वाबाहा, अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य / / उस काल और उस समय में लौकान्तिक देव ब्रह्मलोक नामक पाँचवें देवलोक-स्वर्ग में, अरिष्ट नामक विमान के प्रस्तट-पाथड़े में, अपने-अपने विमान से, अपने-अपने उत्तम प्रासादों से, प्रत्येक-प्रत्येक चार-चार हजार सामानिक देवों से, तीन-तीन परिषदों से, सात-सात अनीकों से, सातसात अनीकाधिपतियों (सेनापतियों) से, सोलह-सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों से तथा अन्य अनेक लौकान्तिक देवों से युक्त-परिवृत होकर, खूब जोर से बजाये जाते हुए [तन्त्री, तल, ताल, बुटिक, घन, मृदंग आदि वाद्यों] नत्यों गीतों के शब्दों के साथ दिव्य भोग भोगते हुए विचर रहे थे। उन लौकान्तिक देवों के नाम इस प्रकार हैं--(१) सारस्वत (2) वह्नि (3) आदित्य (4) वरुण (5) गर्दतोय (6) तुषित (7) अव्याबाध (8) आग्नेय (9) रिष्ट' / १६४-तए णं तेसि लोयंतियाणं देवाणं पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलंति, तहेव जाव 'अरहंताणं निक्खममाणाणं संबोहणं करेत्तए त्ति तं गच्छामो णं अम्हे वि मल्लिस्स अरहओ संबोहणं करेमो।' ति कटु एवं संपेहेंति, संपेहिता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभायं वेउध्वियसमुग्धाएणं समोहणंति, समोहणित्ता संखिज्जाइं जोयणाई एवं जहा जंभगा जाव' जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुभगस्स रणो भवणे, जेणेव मल्ली अरहा, तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता अंतलिक्खपडिवन्ना सखिखिणियाई जाव [दसद्धवण्णाई] वत्थाई पवरपरिहिया करयल ताहि इट्ठाहि जाव एवं वयासी--- तत्पश्चात् उन लौकान्तिक देवों में से प्रत्येक के आसन चलायमान हुए-इत्यादि उसी प्रकार जानना अर्थात् अासन चलित होने पर उन्होंने अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर मल्ली अर्हत् के प्रव्रज्या के संकल्प को जाना / फिर विचार किया कि-दीक्षा लेने की इच्छा करने वाले तीर्थकरों को मम्बोधन करना हमारा प्राचार है; अतः हम जाएँ और अरहन्त मल्ली को सम्बोधन करें; ऐसा लौकान्तिक देवों ने विचार किया। विचार करके उन्होंने ईशान दिशा में जाकर बैक्रियसमुद्घात ने विक्रिया की--उत्तर वैक्रिय शरीर धारण किया। समुद्घात करके संख्यात योजन उल्लंघन करके, जभक देवों की तरह जहाँ मिथिला राजधानी थी, जहाँ कुम्भ राजा का भवन था और जहाँ मल्ली नामक अर्हत थे, वहाँ आये। प्राकर के-अधर में स्थित रह कर घघरुओं के शब्द सहित यावत 1. लोकान्तिक' देवों के विषय में टीकाकार अभयदेवसूरि ने लिखा है-..'क्वचित दशविधा एते व्याख्यायन्ते, अस्माभिस्तु स्थानाङ्गनुसारेणवमभिहिता: / ' अर्थात् कहीं-कहीं लौकान्तिक देवों के दश भेद कहे हैं, किन्तु हमने स्थानांग सूत्र के अनुसार ही यहाँ भेदों का कथन किया है ।-स्थानाङ्गवत्ति पृ. 160, सिद्धचक्रसाहित्यप्रचारकसमिति-संस्करण / 2. अष्टम अ. 157 3-4. प्र. प्र.१८ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [ 273 [पाँच वर्ण के] श्रेष्ठ वस्त्र धारण करके, दोनों हाथ जोड़कर, इष्ट, [कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, अत्यन्त मनोहर] यावत् वाणी से इस प्रकार बोले १६५–'बुज्झाहि भयवं ! लोगनाहा ! पवत्तेहि धम्मतित्यं, जीवाणं हिय-सुह-निस्सेयसकरं भविस्सई' ति कट्ट दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयंति / वइत्ता मल्लि अरहं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। 'हे लोक के नाथ ! हे भगवन् ! बूझो-बोध पाओ। धर्मतीर्थ को प्रवृत्ति करो। वह धर्मतीर्थ जीवों के लिए हितकारी, सुखकारी और निश्रेयसकारी (मोक्षकारी) होगा।' इस प्रकार कह कर दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहा / कहकर अरहन्त मल्ली को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना और नमस्कार करके जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में लौट गए / विवेचन-तीर्थंकर अनेक पूर्वभवों के सत्संस्कारों के साथ जन्म लेते हैं / जन्म से ही, यहाँ तक कि गर्भावस्था से ही उनमें अनेक विशिष्टताएँ होती हैं। वे स्वयंबुद्ध ही होते हैं / किसी अन्य से बोध प्राप्त करने की आवश्यकता उन्हें नहीं होती। फिर लौकान्तिक देवों के प्रागमन की और प्रतिबोध देने की आवश्यकता क्यों होती है ? इस प्रश्न का उत्तर प्रकारान्तर से मूल पाठ में ही पा गया है / तीर्थकर को प्रतिबोध की आवश्यकता न होने पर भी लौकान्तिक देव अपना परम्परागत आचार समझ कर पाते हैं। उनका प्रतिबोध करना वस्तुतः तीर्थंकर भगवान् के वैराग्य की सराहना करना मात्र है। यही कारण है तीर्थंकर का दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प पहले होता है, लौकान्तिक देव बाद में आते हैं / तीर्थकर के संकल्प के कारण देवों का प्रासन चलायमान होना अब आश्चर्यजनक घटना नहीं रहा है। परामनोविज्ञान के अनुसार, ग्राज वैज्ञानिक विकास के युग में यह घटना सुसम्भव है / इससे तीर्थंकर के अत्यन्त सुदृढ एवं तीव्रतर संकल्प का अनुमान किया जा सकता है / १६६-तए णं मल्ली अरहा तेहिं लोगंतिएहि देवेहि संबोहिए समाणे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल' - 'इच्छामि णं अम्मयाओ! तुहिं अब्भणुण्णाए समाणे मुडे भवित्ता जाव (अगाराओ अणगारियं) पच्वइत्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / ' तत्पश्चात् लौकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधित हुए मल्ली अरहन्त माता-पिता के पास आये। आकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके कहा- "हे माता-पिता ! आपकी आज्ञा प्राप्त करके मुडित होकर गृहत्याग करके अनगार-प्रव्रज्या ग्रहण करने की मेरी इच्छा है।' तब माता-पिता ने कहा---'हे देवानुप्रिये ! जैसे सुख उपजे वैसा करो। प्रतिबन्ध-विलम्ब मत करो।' १६७--तए णं कुभए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव अट्टसहस्सं सोवणियाणं जाव अटुसहस्साणं भोमेज्जाणं कलसाणं ति। अण्णं च महत्वं जाव (महग्धं महरिहं विउलं) तित्थयराभिसेयं उवट्ठवेह / ' जाव उवट्ठवेति / 1. प्र. अ.१८ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर कहा- 'शीघ्र ही एक हजार आठ सुवर्णकलश यावत् [एक हजार आठ रजत-कलश, इतने ही स्वर्ण-रजतमय कलश, मणिमय कलश, स्वर्ण-मणिमय कलश रजत-मणिमय कलश, और स्वर्ण-मणिमय कलश, और एक हजार पाठ मिट्टी के कलश लाओ। उसके अतिरिक्त महान् अर्थ वाली यावत् [महान् मूल्य वाली, महान जनों के योग्य और विपुल ] तीर्थकर के अभिषेक की सब सामग्री उपस्थित करो। यह सुनकर कौटुम्विक पुरुषों ने वैसा ही किया, अर्थात् अभिषेक की समस्त सामग्री तैयार कर दी। १६८--तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे जाव अच्चुयपज्जवसाणा आगया / उस काल और उस समय चमर नामक असुरेन्द्र से लेकर अच्युत स्वर्ग तक के सभी इन्द्र अर्थात् चौंसठ इन्द्र वहाँ आ पहुँचे / १६९-तए णं सक्के देविदे देवराया आभिओगिए देवे सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-- 'खिप्पामेव अट्ठसहस्सं सोवष्णियाणं कलसाणं जाव अण्णं च तं विउलं उवट्ठवेह / ' जाव उवट्ठति / तेवि कलसा ते चेव कलसे अणुपविट्ठा। तब देवेन्द्र देवराज शक्र ने अाभियोगिक देवों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा---'शीघ्र ही एक हजार आठ स्वर्णकलश आदि यावत् दूसरी अभिषेक के योग्य सामग्री उपस्थित करो।' यह सुन कर आभियोगिक देवों ने भी सब सामग्री उपस्थित की। वे देवों के कलश उन्हीं मनुष्यों के कलशों में (दैवी माया से) समा गये।। १७०-तए णं से सक्के देविदे देवराया कुभराया य मल्लि अरहं सोहासणंसि पुरत्याभिमुहं निवेसेइ, अट्ठसहस्सेणं सोवणियाणं जाव अभिसिंचइ।। तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शक्र और कुम्भ राजा ने मल्ली अरहन्त को सिंहासन के ऊपर पूर्वाभिमुख आसीन किया / फिर सुवर्ण आदि के एक हजार आठ पूर्वोक्त कलशों से यावत् उनका अभिषेक किया। १७१–तए णं मल्लिस्स भगवओ अभिसेए वट्टमाणे अप्पेगइया देवा मिहिलं च सभितरं बाहिरियं जाव सव्वओ समंता आधावंति परिधावति / तत्पश्चात् जव मल्ली भगवान् का अभिषेक हो रहा था, उस समय कोई-कोई देव मिथिला नगरी के भीतर और बाहर यावत् सब दिशाओं-विदिशाओं में दौड़ने लगे—इधर-उधर फिरने लगे। १७२-तए णं कुभए राया दोच्चं पि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयावेइ जाव सवालंकारविभूसियं करेइ, करित्ता कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ। सहावित्ता एवं वयासो- 'खिप्पामेव मणोरमं सीयं उवट्ठवेह / ' ते वि उवट्ठति / तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने दूसरी बार उत्तर दिशा में सिंहासन रखवाया यावत् भगवान् मल्ली को सर्व अलंकारों से विभूषित किया / विभूषित करके कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-शीघ्र ही मनोरमा नाम की शिविका (तैयार करके) लायो।' कौटुम्बिक पुरुष मनोरमा शिविका-पालकी ले आए। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अाठवां अध्ययन : मल्ली ] [ 275 १७३–तए णं सक्के देविदे देवराया आभियोगिए सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'खियामेव अणेगखंभं जाव मनोरम सीयं उवट्ठवेह / ' जाव सावि सीया तं चेव सीयं अणुपविट्ठा / तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शक ने पाभियोगिक देवों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा---- शीघ्र ही अनेक खम्भों वाली यावत् मनोरमा नामक शिविका उपस्थित करो।' तब वे देव भी मनोरमा शिविका लाये और वह शिविका भी उसी मनुष्यों की शिविका में समा गई। 174- तए णं मल्ली अरहा सोहासणाओ अब्भुढ्इ, अब्भुद्वित्ता जेणेव मणोरमा सीया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मणोरमं सीयं अणुपयाहिणी करेमाणा मणोरमं सीयं दुरूहइ / दुरूहित्ता सोहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने। तत्पश्चात् मल्ली अरहन्त सिंहासन से उठे / उठकर जहां मनोरमा शिविका थी, उधर आये पाकर मनोरमा शिविका को प्रदक्षिणा करके मनोरमा शिविका पर आरूढ हुए / प्रारूढ होकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके सिंहासन पर विराजमान हुए। १७५-तए णं कुभए राया अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ / सद्दावित्ता एवं वयासी'तुब्भे णं देवाणुप्पिया! व्हाया जाव (कयबलिकम्मा कयकोउअमंगलपायच्छित्ता) सवालंकारविभूसिया मल्लिस्स सीयं परिवहह / ' तेवि जाव परिवहति / तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने अठारह जातियों--उपजातियों को बुलवाया। बुलवा कर कहा'हे देवानुप्रियो ! तुम लोग स्नान करके यावत् [बलिकर्म करके तथा कौतुक, मंगल एवं प्रायश्चित्त करके] तथा सर्व अलंकारों से विभूषित होकर मल्ली कुमारी की शिविका वहन करो।' यावत् उन्होंने शिविका वहन को। १७६–तए णं सक्के देविदे देवराया मणोरमाए दक्खिणिल्लं उवरिल्लं बाहं गेण्हइ, ईसाणे उत्तरिल्लं उवरिल्लं बाहं गेष्हइ, चमरे दाहिणिल्लं हेट्ठिलं, बली उत्तरिल्लं हेछिल्लं / अवसेसा देवा जहारिहं मणोरमं सीयं परिवहति / तत्पश्चात् शक्र देवेन्द्र देवराज ने मनोरमा शिविका की दक्षिण तरफ की ऊपरी वाहा ग्रहण की (वहन की), ईशान इन्द्र ने उत्तर तरफ की ऊपरी बाहा ग्रहण की, चमरेन्द्र ने दक्षिण तरफ की और बली ने उत्तर तरफ की निचली बाहा ग्रहण की। शेष देवों ने यथायोग्य उस मनोरमा शिविका को वहन किया। 177- पुटिव उक्खित्ता माणुस्सेहि, तो हट्ठरोमकूवेहि / पच्छा वहंति सोयं, असुरिंदसुरिंदनागेंदा // 1 // चलचवलकुडलधरा, सच्छंदविउव्वियाभरणधारी / देविददाविदा, वहन्ति सीयं जिणिदस्स // 2 // मनुष्यों ने सर्वप्रथम वह शिविका उठाई। उनके रोमकूप (रोंगटे) हर्ष के कारण विकस्वर हो रहे थे / उसके बाद असुरेन्द्रों, सुरेन्द्रों और नागेन्द्रों ने उसे वह्न किया // 1 // चलायमान चपल कुण्डलों को धारण करने वाले तथा अपनी इच्छा के अनुसार विक्रिया से Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276] [ज्ञाताधर्मकथा बनाये हुए ग्राभरणों को धारण करने वाले देवेन्द्रों और दानवेन्द्रों ने जिनेन्द्र देव की शिविका वहन की। १७८-तए णं मल्लिस्स अरहओ मणोरमं सीयं दुरूढस्स इमे अट्ठमंगलगा अहाणुपुव्वीए एवं निग्गमो जहा जमालिस्स। तत्पश्चात् मल्ली अरहंत जब मनोरमा शिविका पर आरूढ हुए, उस समय उनके आगे आठआठ मंगल अनुक्रम से चले / भगवतीसूत्र में वर्णित जमालि के निर्गमन की तरह यहाँ मल्ली परहंत के निर्गमन का वर्णन समझ लेना चाहिए / विवेचन-सूत्र में जिन आठ मंगलों का उल्लेख है, वे इस प्रकार हैं--(१) स्वस्तिक, (2) श्रीवत्स, (3) नंदिकावर्त (नन्द्यावर्त), (4) वर्द्धमानक, (5) भद्रासन, (6) कलश, (7) मत्स्य और (8) दर्पण / तीर्थकर के वक्षस्थल में उठे हुए अवयव के आकर का विशेष प्रकार का चिह्न श्रीवत्स कहलाता है। प्रत्येक दिशा में नव कोण वाला साथिया नंदिकावर्त्त है। शराव (सिकोरे) को वर्द्धमानक कहते हैं। एक विशेष प्रकार का सुखद सिंहासन भद्रासन है। कलश, मत्स्य और दर्पण प्रासिद्ध हैं। जमालि के निष्क्रमण का वर्णन भगवतीसूत्र में है। प्रस्तुत शास्त्र में प्रथम अध्ययन में वणित मेघकुमार के निष्क्रमण से भी उसे समझा जा सकता है। १७९---तए णं मल्लिस्स अरहओ निक्खममाणस्स अप्पेइगया देवा मिहिलं रायहाणि अभितर-बाहिरं आसियसंमज्जिय-संमट्ठ-सुइ-रत्यंतरावणवीहियं करेंति जाव परिधावति / तत्पश्चात् मल्ली अरहंत जब दीक्षा धारण करने के लिए निकले तो किन्हीं-किन्हीं देवों ने मिथिला राजधानी में पानी सींच दिया, उसे साफ कर दिया और भीतर तथा बाहर की विधि करके यावत् चारों ओर दौड़धूप करने लगे। (यह सर्व वर्णन राजप्रश्नीय आदि सूत्रों से जाने लेना चाहिए।) १८०-तए णं मल्ली अरहा जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे, जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता आभरणालंकारं ओमुयइ / तए णं पभावती हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरणालंकारं पडिच्छइ / तत्पश्चात् मल्ली अरहंत जहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था और जहाँ श्रेष्ठ अशोकवक्ष था, वहाँ आये / आकर शिविका से नीचे उतरे / नीचे उतरकर समस्त प्राभरणों का त्याग किया। प्रभावती देवी ने हंस के चिह्न वाली अपनी साड़ी में वे आभरण ग्रहण किये। १८१-तए णं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ / तए णं सक्के देविदे देवराया मल्लिस्स केसे पडिच्छइ / पडिच्छित्ता खीरोदगसमुद्दे पक्खिवइ / तए णं मल्ली अरहा 'णमोऽत्यु णं सिद्धाणं' ति कट्ट सामाइयचरित्तं पडिवज्जइ / Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [ 277 तत्पश्चात् मल्ली अरहंत ने स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया। तब शक देवेन्द्र देवराज ने मल्ली के केशों को ग्रहण किया / ग्रहण करके उन केशों को क्षीरोदकसमुद्र (क्षीरसागर) में प्रक्षेप कर दिया। __तत्पश्चात् मल्ली अरिहन्त ने 'नमोऽत्थु णं सिद्धाणं' अर्थात 'सिद्धों को नमस्कार हो' इस प्रकार कह कर सामायिक चारित्र अंगीकार किया। १८२-जं समयं च णं मल्लो अरहा चरित्तं पडिवज्जइ, तं समयं च देवाणं मणुस्साण य णिग्धोसे तुरिय-णिणाय-गीत-वाइयनिग्घोसे य सक्कस्स वयणसंदेसेणं णिलुक्के यावि होत्था। जं समयं च णं मल्ली अरहा सामाइयं चरित्तं पडिबन्ने तं समयं च णं मल्लिस्स अरहओ माणसधम्माओ उत्तरिए मणपज्जवनाणे समुप्पन्ने।। जिस समय अरहंत मल्ली ने चारित्र अंगीकार किया, उस समय देवों और मनुष्यों के निर्घोष (शब्द-कोलाहल), वाद्यों की ध्वनि और गाने-बजाने का शब्द शकेन्द्र के आदेश से बिल्लू बन्द हो गया। अर्थात शकेन्द्र ने सब को शान्त रहने का आदेश दिया, अतएव चारित्रग्रहण करते समय पूर्ण नीरवता व्याप्त हो गई। जिस समय मल्ली अरहन्त ने सामायिक चारित्र अंगीकार किया, उसी समय मल्ली अरहंत को मनुष्यधर्म से ऊपर का अर्थात् साधारण अव्रती मनुष्यों को न होने वाला-लोकोत्तर अथवा मनुष्यक्षेत्र संबंधी उत्तम मन:पर्ययज्ञान (मनुष्य क्षेत्र-अढ़ाई द्वीप में स्थित संज्ञी जीवों के मन के पर्यायों को साक्षात् जानने वाला ज्ञान) उत्पन्न हो गया / १८३--मल्लो णं अरहा जे से हेमंताणं दोच्चे मासे चउत्थे पक्खे पोससुद्धे, तस्स णं पोससुद्धस्स एक्कारसीपक्खे णं पुव्वण्हकालसमयंसि अट्ठमेणं भत्तेणं अपाणएणं, अस्सिणीहि नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं तिहि इत्थीसएहि अभितरियाए परिसाए, तिहिं पुरिससएहि बाहिरियाए परिसाए सद्धि मुडे भवित्ता पव्वइए। मल्ली अरहन्त ने हेमन्त ऋतु के दूसरे मास में, चौथे पखवाड़े में अर्थात् पौष मास के शुद्ध (शुक्ल) पक्ष में और पौष मास के शुद्ध पक्ष की एकादशी के पक्ष में अर्थात् अर्द्ध भाग में (रात्रि का भाग छोड़कर दिन में), पूर्वाह्न काल के समय में, निर्जल अष्टम भक्त तप करके, अश्विनी नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग प्राप्त होने पर, तीन सौ ग्राभ्यन्तर परिषद् की स्त्रियों के साथ और तीन सौ बाह्य परिषद् के पुरुषों के साथ मुडित होकर दीक्षा अंगीकार की। १८४-मल्लि अरहं इमे अट्ट णायकुमारा अणुपब्वइंसु, तं जहा शंदे य णंदिमित्ते, सुमित्त बलमित्त भाणुमित्ते य। . अमरवइ अमरसेणे महसेणे चेव अट्ठमए / मल्ली अरहंत का अनुसरण करके इक्ष्वाकुवंश में जन्मे तथा राज्य भोगने योग्य हुए आठ ज्ञातकुमार दीक्षित हुए / उनके नाम इस प्रकार हैं (1) नन्द (2) नन्दिमित्र (3) सुमित्र (4) बलमित्र (5) भानुमित्र (6) अमरपति (7) अमरसेन (8) आठवें महासेन। इन आठ ज्ञातकुमारों (इक्ष्वाकुवंशी राजकुमारों) ने दीक्षा अंगीकार की। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278] [ ज्ञाताधर्मकथा १८५-तएणं भवणवइ-वाणमन्तर-जोइसिय-वेमाणिया देवा मल्लिस्स अरहओ निक्खमणमहिम करेंति, करित्ता जेणेव नंदीसरवरे दीवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अट्टाहियं करेंति, करित्ता जाव पडिगया। तत्पश्चात् भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक-इन चार निकाय के देवों ने मल्ली अरहन्त का दीक्षा-महोत्सव किया। महोत्सव करके जहाँ नन्दीश्वर द्वीप था, वहाँ गये। जाकर अष्टाह्निका महोत्सव किया / महोत्सव करके यावत् अपने-अपने स्थान पर लौट गये / १८६-तए णं मल्ली अरहा जं चेव दिवसं पवइए तस्सेव दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहासणवरगयस्स सुहेणं परिणामेणं, पसत्थेहि अज्झवसाणेणं, पसत्याहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहि, तयावरणकम्मरयविकरणकरं अपव्वकरणं अणपविट्रस्स अणते जाव (अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे) केवलनाणदंसणे समुष्पन्ने। तत्पश्चात् मल्ली अरहन्त ने, जिस दिन दीक्षा अंगीकार की, उसी दिन के प्रत्यपराह्नकाल के समय अर्थात् दिन के अन्तिम भाग में, श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक के ऊपर विराजमान थे, उस समय शुभ परिणामों के कारण, प्रशस्त अध्यवसाय के कारण तथा विशुद्ध एवं प्रशस्त लेश्याओं के कारण, तदावरण (ज्ञानावरण और दर्शनावरण) कर्म की रज को दूर करने वाले अपूर्वकरण (आठवें गुणस्थान) को प्राप्त हुए। तत्पश्चात् अरहन्त मल्ली को अनन्त अर्थात् अनन्त वाला और सदाकाल स्थायी, अनत्तर-सर्वोत्कृष्ट, नियाघात-सब प्रकार के व्याघातों से रहित-जिसमें देश या काल सम्बन्धी दूरी आदि कोई बाधा उपस्थित नहीं हो सकती, निरावरण-सब प्रावरणों से रहित, सम्पूर्ण और प्रतिपूर्ण केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन की उत्पत्ति हुई। १८७-तेणं कालेणं तेणं समएणं सव्वदेवाणं आसणाई चलति / समोसढा, धम्म सुणेति, अट्ठाहियमहिमा नंदीसरे, जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। कुभए वि निग्गच्छइ / उस काल और उस समय में सब देवों के प्रासन चलायमान हुए। तब वे सब देव वहाँ पाये, सबने धर्मोपदेश श्रवण किया / नन्दीश्वर द्वीप में जाकर प्राष्टाह्निका महोत्सव किया। फिर जिस दिशा से प्रकट हुए थे, उसी दिशा में लौट गये / कुम्भ राजा भी वन्दना करने के लिए निकला। १८८-तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो जेटुपुत्ते रज्जे ठावित्ता पुरिससहस्सवाहिणीयाओ (सीयाओ) दुरूढा सव्विढिए जाव रवेणं जेणेव मल्ली अरहा जाव पज्जुवासंति / तत्पश्चात् वे जितशत्रु वगैरह छहों राजा अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को राज्य पर स्थापित करके, हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविकानों पर प्रारूढ होकर समस्त ऋद्धि (पूरे ठाठ) के साथ यावत् गीत-वादित्र के शब्दों के साथ जहाँ मल्ली अरहन्त थे, यावत् वहाँ आकर उनकी उपासना करने लगे। १८९--तए णं मल्ली अरहा तोसे महइ महालियाए कुभगस्स रन्नो तेसि च जियसत्तुपामोक्खाणं धम्म कहेइ। परिसा जामेव दिसि पाउन्भूआ तामेव दिसि पडिगया / कुभए समणोवासए जाए, पडिगए, पभावई य समणोवासिया जाया, पडिगया। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [ 279 तत्पश्चात् मल्ली अरहन्त ने उस बड़ी भारी परिषद् को, कुम्भ राजा को और उन जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं को धर्म का उपदेश दिया। परिषद् जिस दिशा से आई थी, उस दिशा में लौट गई / कुभ राजा श्रमणोपासक हुा / वह भी लौट गया। रानी प्रभावती श्रमणोपासिका हुई। वह भी वापिस चली गई। १९०-तए णं जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो धम्म सोच्चा आलित्ते णं भंते [लोए, पलिते णं भंते ! लोए, आलित्तपलित्ते णं भंते ! लोए, जराए मरणेण य] जाव पव्वइया / चोइसपुस्विणो, अणंते केवले, सिद्धा। तत्पश्चात् जितशत्रु अादि छहों राजाओं ने धर्म को श्रवण करके कहा-भगवन् ! यह संसार जरा और मरण से ग्रादीप्त है-~-जल रहा है, प्रदीप्त है- भयंकर रूप से जल रहा है और प्रादीप्तप्रदीप्त है—अत्यन्त उत्कटता से जल रहा है, इत्यादि कहकर यावत् वे दीक्षित हो गये। चौदह पूर्वो के ज्ञानी हुए, फिर अनन्त केवल-ज्ञान-दर्शन प्राप्त करके यावत् सिद्ध हुए। १९१-तए णं मल्ली अरहा सहसंबवणाओ निक्खमइ, निक्खमित्ता बहिया जणवविहारं विहरइ। तत्पश्चात् (किसी समय) मल्ली अरहंत सहस्राम्रवन उद्यान से बाहर निकले / निकलकर जनपदों में विहार करने लगे। १९२--मल्लिस्स णं अरहओ भिसग (किंसुय) पामोक्खा अट्ठावीसं गणा, अट्ठावीसं गणहरा होत्था। मल्लिस्स णं अरहओ चत्तालीसं समणसाहस्सीओ उक्कोसियाओ, बंधुमतीपामोक्खाओ पणपण्णं अज्जियासाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जिया होत्था / मल्लिस्स गं अरहओ सावयाणं एगा सयसाहस्सीओ चुलसीइं च सहस्सा उक्कोसिया सावया होत्था / मल्लिस्स णं अरहओ सावियाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ पण्ण टिठं च सहस्सा संपया होत्था। मल्लिस्स णं अरहओ छस्सया चोद्दसपुवीणं, वोससया ओहिनाणीणं, बत्तीसं सया केवलणाणोणं, पणतीसं सया वेउदिवयाणं, अट्ठसया मणपज्जवणाणीणं, चोइससया वाईणं, वीसं सया अणुत्तरोववाइयाणं (संपया होत्था)। मल्ली अरहंत के भिषक (या किंशुक) आदि अट्ठाईस गण और अट्ठाईस गणधर थे / मल्ली अरहंत की चालीस हजार साधुओं की उत्कृष्ट सम्पदा थी। बंधुमती आदि पचपन हजार प्रायिकाओं की सम्पदा थी। मल्ली अरहन्त को एक लाख चौरासी हजार श्रावकों की उत्कृष्ट सम्पदा थी। मल्ली अरहन्त की तीन लाख पैंसठ हजार श्राविकाओं की उत्कृष्ट सम्पदा थी। मल्ली अरहन्त की छह सौ चौदहपूर्वी साधुनों की, दो हजार अवधिज्ञानी, बत्तीस सौ केवलज्ञानी, पैंतीस सौ वैक्रियलब्धिधारी, आठ सौ मनःपर्यायज्ञानी, चौदह सौ वादी और बीस सौ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 ] [ ज्ञाताधर्मकथा अनुत्तरोपपातिक (सर्वार्थसिद्ध आदि विमानों में जाकर फिर एक भव लेकर मोक्ष जाने वाले) साधुओं की सम्पदा थी। १९३-मल्लिस्स अरहओ दुविहा अंतगडभूमी होत्था। तंजहा-जुगंतकरभूमी, परियायतकरभूमी य / जाव वीसइमाओ पुरिसजुगाओ जयंतकरभूमी, दुवासपरियाए' अंतमकासी। मल्लो अरहन्त के तीर्थ में दो प्रकार को अन्तकर भूमि हुई / वह इस प्रकार ----युगान्तकर भूमि और पर्यायान्तकर भूमि / इनमें से शिष्य-प्रशिष्य आदि बीस पुरुषों रूप युगों तक अर्थात् बीसवें पाट तक युगान्तकर भूमि हुई, अर्थात् बीस पाट तक साधुनों ने मुक्ति प्राप्त की। (बीसवें पाट के पश्चात् उनके तीर्थ में किसी ने मोक्ष प्राप्त नहीं किया / ) और दो वर्ष का पर्याय होने पर अर्थात् मल्ली अरहन्त को केवलज्ञान प्राप्त किये दो वर्ष व्यतीत हो जाने पर पर्यायान्तकर भूमि हुई-भव-पर्याय का अन्त करने वाले–मोक्ष जाने वाले साधु हुए / (इससे पहले कोई जीव मोक्ष नहीं गया)। १९४-मल्ली गं अरहा पणुवीसं धणि उड्ढे उच्चत्तेणं, वण्णेणं पियंगुसमे, समचउरंससंठाणे, वज्जरिसभनारायसंघयणे, मज्झदेसे सुहं सुहेणं विहरित्ता जेणेव संमेए पव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता संमेयसेलसिहरे पाओवगमणमणुववन्ने / मल्ली अरहन्त पच्चीस धनुष ऊँचे थे। उनके शरीर का वर्ण प्रियंगु के समान था। समचतुरस्र संस्थान और वज्रऋषभनाराच संहनन था। वह मध्यदेश में सुख-सुखे विचर कर जहाँ सम्मेद पर्वत था, वहाँ आये / पाकर उन्होंने सम्मेदशैल के शिखर पर पादोपगमन अनशन अंगीकार कर लिया। १९५-मल्ली णं एगं वाससयं आगारवासं पणपण्णं वाससहस्साई वाससयऊणाई केवलिपरियागं पाउणित्ता, पणपण्णं वाससहस्साइं सवाउयं पालइत्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे चित्तसुद्धे, तस्स णं चेत्तसुद्धस्स चउत्थीए भरणीए णक्खत्तेणं अद्धरत्तकालसमयंसि पंहिं अज्जियासएहि अभितरियाए परिसाए. पंहि अणगारसएहि बाहिरियाए परिसाए, मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं, वग्धारियपाणी, खीणे वेयणिज्जे आउए नामे गोए सिद्धे / एवं परिनिव्वाणमहिमा भाणियव्वा जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए, नंदीसरे अट्ठाहियाओ, पडिगयाओ। मल्ली अरहन्त एक सौ वर्ष गृहवास में रहे। सौ वर्ष कम पचपन हजार वर्ष केवली-पर्याय पालकर, इस प्रकार कुल पचपन हजार वर्ष की आयु भोग कर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास, दूसरे पक्ष अर्थात स के शुक्लपक्ष और चैत्र मास के शुक्लपक्ष की चौथ तिथि में, भरणी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, अर्द्धरात्रि के समय, प्राभ्यन्तर परिषद् की पांच सौ साध्वियों और बाह्य परिषद् के पाँच सौ साधुओं के साथ, निर्जल एक मास के अनशनपूर्वक दोनों हाथ लम्बे रखकर, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अघाति कर्मों के क्षीण होने पर सिद्ध हुए। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में वर्णित निर्वाणमहोत्सव यहाँ भी कहना चाहिए। फिर देवों ने नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निक महोत्सव किया / महोत्सव करके अपने-अपने स्थान पर चले गये। विवेचन-टीकाकार द्वारा वर्णित निर्वाणकल्याणक का महोत्सब संक्षेप में इस प्रकार है१. पाठान्तर—चउमासपरियाए Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : मल्ली ] [ 281 जिस समय तीर्थकर भगवान् का निर्वाण हुया तो शक देवेन्द्र का प्रासन चलायमान हुआ। अवधिज्ञान का उपयोग लगाने से उसे निर्वाण की घटना का ज्ञान हुआ। उसी समय वह सपरिवार सम्मेदशिखर पर्वत पर पाया। भगवान के निर्वाण के कारण उसे खेद हना। आँखों लगे / उसने भगवान् के शरीर की तीन प्रदक्षिणाएँ की। फिर उस शरीर से थोड़ी दूर ठहर गया। इसी प्रकार सब इन्द्रों ने किया। तत्पश्चात शक्रेन्द्र ने अपने प्राभियोगिक देवों से वन में से सुन्दर गोशीर्ष चन्दन के काष्ठ मंगवाये / तीन चिताएँ रची गईं। क्षीरसागर से जल मँगवाया गया। उस जल से भगवान् को स्नान कराया गया। हंस जैसा धवल और कोमल वस्त्र शरीर पर ढंक दिया। फिर शरीर को सर्व अलंकारों से अलंकृत किया गया। गणधरों और साधुनों के शरीर का अन्य देवों ने इसी प्रकार संस्कार किया। तत्पश्चात् शक इन्द्र ने आभियोगिक देवों से तीन शिविकाएँ बनवाई। उनमें से एक शिविका पर भगवान् का शरीर स्थापित किया और उसे चिता के समीप ले जाकर चिता पर रखा / अन्य देवों ने गणधरों और साधुओं के शरीर को दो शिविकाओं में रखकर दो चिताओं पर रखा। तत्पश्चात् अग्निकुमार देवों ने शक्रेन्द्र की आज्ञा से तीनों चिताओं में अग्निकाय की विकुर्वणा की और वायुकुमार देवों ने वायु को विकुर्वणा की। अन्य देवों ने तीनों चिताओं में अगर, लोभान, धूप, घी और मधु आदि के घड़े के घड़े डाले / अन्त में जब शरीर भस्म हो चुके, तब मेघकुमार देवों ने उन चिताओं को क्षीरसागर के जल से शान्त कर दिया / तत्पश्चात् शकेन्द्र ने प्रभु के शरीर की दाहिनी तरफ की ऊपर की दाढ़ ग्रहण की। ईशानेन्द्र ने बाँयी अोर की ऊपर की दाढ ली। चमरेन्द्र ने दाहिनी ओर की नीचे की और बलीन्द्र ने बायी पोर की नीचे की दाढ़ ग्रहण की / अन्य देवों ने अन्यान्य अंगोपांगों की अस्थियाँ ले लीं। तत्पश्चात् तीनों चिताओं के स्थान पर बड़े-बड़े स्तूप बनाये और निर्वाणमहोत्सव किया। सब तीर्थंकरों के निर्वाण का अंतिम संस्कार-वर्णन इसी प्रकार समझना चाहिए। १९६-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नते त्ति बेमि। श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं इस प्रकार निश्चय ही, हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने आठवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ प्ररूपण किया है / मैंने जो सुना, वही कहता हूँ। अाठवां अध्ययन समाप्त / / Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम अध्ययन : माकन्दी सार : संक्षेप प्राप्त जनों ने संक्षिप्त सूत्र में साधना का मूलभूत रहस्य प्रकट करते महत्त्वपूर्ण सूचना दी है-'एगे जिए जिया पंच / ' अर्थात् एक मन पर विजय प्राप्त कर ली जाय तो पाँचों इन्द्रियों पर सरलता से विजय प्राप्त की जा सकती है। किन्तु मन पर विजय प्राप्त करना साधारण कार्य नहीं / मन बड़ा ही साहसिक, चंचल और हठीला होता है / उसे जिस ओर जाने से रोकने का प्रयास किया जाता है, उसी ओर वह हठात् जाता है। ऐसी स्थिति में उसे वशीभूत करना बहुत कठिन है। तीव्रतर संकल्प हो, उस संकल्प को बारम्बार दोहराते रहा जाए, निरन्तर सतर्क-सावधान रहा जाए, अभ्यास और वैराग्यवृत्ति का आसेवन किया जाए, धर्मशिक्षा को सदैव जागृत रखा जाए तो उसे वश में किया जा सकता है / शास्त्रों में नाना प्रकार के जिन अनुष्ठानों का, क्रियाकलापों का वर्णन किया गया है, उनका प्रधान उद्देश्य मन को वशीभूत करना ही है। इन्द्रियाँ मन की दासी हैं। जब मन पर आत्मा का पूरा अधिकार हो जाता है तो इन्द्रियाँ अनायास ही काबू में आ जाती हैं। ___ इसके विपरीत मन यदि स्वच्छन्द रहा तो इन्द्रियाँ भी निरंकुश होकर अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं और आत्मा पतन की दिशा में अग्रसर हो जाता है। उसके पतन की सीमा नहीं रहती / 'विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः' वाली उक्ति चरितार्थ हो जाती है। जीवन में जब यह स्थिति उत्पन्न होती है तो इहभव और परभव-दोनों दुःखदायी बन जाते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में इसी तथ्य को सरल-सुगम उदाहरण रूप में प्रकट किया गया है। चम्पा नगरी के निवासी माकन्दी सार्थवाह के दो पुत्र थे--जिनपालित और जिनरक्षित / वे ग्यारह बार लवणसमुद्र में यात्रा कर चुके थे। उनकी यात्रा का उद्देश्य व्यापार करना था। वे जब भी समुद्रयात्रा पर गए, अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करके लौटे / इससे उनका साहस बढ़ गया। उन्होंने बारहवीं बार समुद्रयात्रा करने का निश्चय किया / माता-पिता से अनुमति मांगी। माता-पिता ने उन्हें यात्रा करने से रोकना चाहा / कहा-पुत्रो ! दादा और पड़दादा द्वारा उपार्जित धन-सम्पत्ति प्रचुर परिमाण में अपने पास विद्यमान है। सात पीढ़ियों तक उपभोग करने पर भी वह समाप्त नहीं होगी। समाज में हमें पर्याप्त प्रतिष्ठा भी प्राप्त है। फिर अनेकानेक विघ्नों से परिपूर्ण ससुद्रयात्रा करने की क्या आवश्यकता है ? इसके अतिरिक्त बारहवीं यात्रा अनेक संकटों से परिपूर्ण होती है / अतएव यात्रा का विचार स्थगित कर देना ही उचित है / बहुत समझाने-बुझाने पर भी जवानी के जोश में लड़के न माने और यात्रा पर चल पड़े। समुद्र में काफी दूर जाने पर माता-पिता का कहा सत्य प्रत्यक्ष होने लगा। अकाल में मेघों की भीषण गर्जना होने लगी, आकाश में बिजली तांडव नृत्य करने लगी और प्रलयकाल जैसी भयानक अाँधी ने रौद्र रूप धारण कर लिया। जिनपालित और जिनरक्षित का यान उस आँधी में फंस गया / उस Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : माकन्दी] [283 विकट संकट के समय यान को जो दशा हुई उसका अत्यन्त करुणाजनक और साथ ही आलंकारिक काव्यमय वर्णन मूल पाठ में किया गया है / ऐसे वर्णन आगमों में क्वचित् ही उपलब्ध होते हैं। यान छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गया / व्यापार के लिए जो माल भरा गया था, वह सागर के गर्भ में समा गया। दोनों भाई निराधार और निरवलम्ब हो गए। उन्होंने जीवन की प्राशा त्याग दी। उस समय माता-पिता की बात न मानने और अपने हठ पर कायम रहने के लिए उन्हें कितना पश्चात्ताप हुअा होगा, यह अनुमान करना कठिन नहीं। ___ संयोगवश उन्हें अपने यान का एक पटिया हाथ लग गया। उसके सहारे तिरते-तिरते वे समुद्र के किनारे जा लगे / जिस प्रदेश में वे किनारे लगे वह प्रदेश रत्नद्वीप था। इस द्वीप के मध्यभाग में रत्न देवता नामक एक देवता-देवी निवास करती थी। उसका एक अत्यन्त सुन्दर महल था, जिसकी चारों दिशाओं में चार वनखण्ड थे। रत्नदेवी ने अवधिज्ञान से माकंदीपुत्रों को विपद्ग्रस्त अवस्था में समुद्रतट पर देखा और तत्काल उनके पास आ पहुँची / बोली- यदि तुम दोनों जीवित रहना चाहते हो तो मेरे साथ चलो और मेरे साथ विपुल भोग भोगते हुए आनन्दपूर्वक रहो / अगर मेरी बात नहीं मानते—भोग भोगना स्वीकार नहीं करते तो इस तलवार से तुम्हारे मस्तक काट कर फेंक देती हूँ। बेचारे माकन्दीपुत्रों के सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने देवी की बात मान्य कर ली। उसके प्रासाद में चले गए और उसकी इच्छा तृप्त करने लगे। इन्द्र के आदेश से सुस्थित देव ने रत्नदेवी को लवणसमुद्र की सफाई के लिए नियुक्त कर रखा था। सफाई के लिए जाते समय उसने माकंदीपुत्रों को तीन दिशाओं में स्थित तीन वनखण्डों में जाने एवं घूमने का परामर्श दिया किन्तु दक्षिण दिशा के वनखण्ड में जाने का निषेध किया। कहाउसमें एक अत्यन्त भयंकर सर्प रहता है, वहाँ गए तो प्राणों से हाथ धो बैठोगे। एक बार दोनों भाइयों के मन में पाया-देखें दक्षिण दिशा के वनखण्ड में क्या है ? देवी ने क्यों वहाँ जाने को मना किया है ? और वे उस ओर चल पड़े। वहाँ जाने पर उन्होंने एक पुरुष को शूली पर चढ़ा देखा / पूछने पर पता लगा कि वह भी उन्हीं की तरह देवी के चक्कर में फंस गया था और किसी सामान्य अपराध के कारण देवी ने उसे शूली पर चढ़ा दिया है। उसकी करुण कहानी सुनकर माकंदीपुत्रों का हृदय कांप उठा। अपने भविष्य की कल्पना से वे बेचैन हो गए। तब उन्होंने उस पुरुष से अपने छुटकारे का उपाय पूछा / उपाय उसने बतला दिया। पर्व के वनखण्ड में अश्वरूपधारी शैलक नामक यक्ष रहता था। अष्टमी आदि तिथियों के दिन, एक निश्चित समय पर, वह बुलन्द आवाज में घोषणा किया करता था--'कं तारयामि, कं पालयामि / ' अर्थात् किसे तारू, किसे पालू? एक दिन दोनों भाई वहाँ जा पहुँचे और उन्होंने अपने को तारने और पालने की प्रार्थना की। शैलक यक्ष ने उनकी प्रार्थना स्वीकार तो की किन्तु एक शर्त के साथ / उसने कहा--'रत्नदेवी अत्यन्त पापिनी, चण्डा, रौद्रा, क्षुद्रा और साहसिका है। जब मैं तुम्हें ले जाऊंगा तो वह अनेक उपद्रव करेगी, ललचाएगी, मोठी-मीठी बातें करेगी / तुम उसके प्रलोभन में आ गए तो मैं तत्काल Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284] / ज्ञाताधर्मकथा अपनी पीठ पर से तुम्हें समुद्र में गिरा दूगा / प्रलोभन में न पाए --अपने मन को दृढ रखा तो तुम्हें चम्पा नगरी तक पहुंचा दूंगा।। . शैलक यक्ष दोनों को पीठ पर बिठाकर लवणसमुद्र के ऊपर होकर चला जा रहा था। रत्नदेवी जब वापिस लौटी और दोनों को वहाँ न देखा तो अवधिज्ञान से जान लिया कि वे मेरे चंगुल से निकल भागे हैं / तीव्र गति से उसने पीछा किया। उन्हें पा लिया / अनेक प्रकार से विलाप किया परन्तु जिनपालित शैलक यक्ष की चेतावनी को ध्यान में रखकर अविचल रहा / उसने अपने मन पर पूरी तरह अंकुश रखा। परन्तु जिनरक्षित का मन डिग गया। शृगार और करुणाजनक वाणी सुनकर रत्नदेवी के प्रति उसके मन में अनुराग जागृत हो उठा। ___ अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार यक्ष ने उसे पीठ पर से गिरा दिया और निर्दयहृदया रत्नदेवी ने तलवार पर झेल कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। जिनपालित अपने मन पर नियंत्रण रखकर दृढ रहा और सकुशल चम्पानगरी में पहुंच गया। पारिवारिक जनों से मिला और माता-पिता की शिक्षा न मानने के लिए पछतावा करने लगा। ___ कथा बड़ी रोचक है / पाठक स्वयं विस्तार से पढ़कर उसके असली भाव-लक्ष्य और रहस्य को हृदयंगम करें। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययनः माकन्दी उरक्षेप १-जइ ण भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स णायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते, नवमस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं के अट्ठे पण्णत्ते ? श्री जम्बूस्वामी ने श्री सुधर्मास्वामी से प्रश्न किया-'भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाण को प्राप्त भगवान महावीर ने आठवें ज्ञात-अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा है, तो हे भगवन् ! नौवें ज्ञात-अध्ययन का श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान् महावीर ने क्या अर्थ प्ररूपण किया है ? प्रारम्भ २---एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था। तीसे णं चंपाए नयरीए कोणिए नाम राया होत्था / तत्थ णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए पुण्णभद्दे नामं चेइए होत्था / श्री सुधर्मास्वामी ने उत्तर दिया--'हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी / उस चम्पा नगरी में कोणिक राजा था / चम्पानगरी के बाहर उत्तरपूर्व ईशानदिक्कोण में पूर्णभद्र नामक चैत्य था / माकन्दो पुत्रों को सागर-यात्रा ३-तत्थ णं माकंदी नाम सत्यवाहे परिवसइ, अड्ढे / तस्स णं भद्दा नाम भारिया होत्था / तोसे ण भट्टाए भारियाए अत्तया दवे सत्थवाहदारया होत्था / तंजहा--जिणपालिए य जिणरखिए य। तए णं तेसि मामंदियदारगाणं अण्णया कयाई एगयओ इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था--- चम्पानगरों में माकन्दी नामक सार्थवाह निवास करता था / वह समृद्धिशाली था / भद्रा उसको भार्या थी / उस भद्रा भार्या के आत्मज (कूख से उत्पन्न) दो सार्थवाहपुत्र थे। उनके नाम इस प्रकार थे---जिनपालित और जिनरक्षित / वे दोनों माकन्दीपुत्र एक वार-किसी समय इकट्ठा हुए तो उनमें आपस में इस प्रकार कथासमुल्लाप (वार्तालाप) हुमा-- ४-.-'एवं खलु अम्हे लवणसमुह पोयवहणेणं एक्कारस वारा ओगाढा, सम्वत्थ वि य णं लद्धद्वा कयकज्जा अणहसमग्गा पुणरवि निययघरं हव्वमागया। सेयं खलु अम्हं देवाणुपिया! दुवालसमं पि लवणसमुदं पोयवहणेणं ओगाहित्तए / ' त्ति कटु अण्णमण्णस्सेयमट्ठ पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एवं वयासी 'हम लोगों ने पोतवहन (जहाज) से लवणसमुद्र को ग्यारह बार अवगाहन किया है। सभी वार हम लोगों ने अर्थ (धन) की प्राप्ति की, करने योग्य कार्य सम्पन्न किये और फिर शीघ्र बिना Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 ] [ ज्ञाताधर्मकथा विघ्न के अपने घर आ गये। तो हे देवानुप्रिय ! बारहवीं वार भी पोतवहन से लवणसमुद्र में अवगाहन करना हमारे लिए अच्छा रहेगा।' इस प्रकार विचार करके उन्होंने परस्पर इस अर्थ (विचार) को स्वीकार किया। स्वीकार करके जहाँ माता-पिता थे, वहाँ आये और प्राकर इस प्रकार बोले 5- 'एवं खलु अम्हे अम्मयाओ ! एक्कारस वारा तं चेव जाव' निययं घरं हव्वमागया, तं इच्छामो णं अम्मयाओ ! तुभेहि अब्भणुण्णाया समाणा दुवालसमं लवणसमुइं पोयवहणेणं ओगाहित्तए।' तए णं ते मागंदियदारए अम्मापियरो एवं वयासो---'इमे ते जाया! अज्जग [पज्जगपिउपज्जगागए सुबहु हिरण्णे य सुवण्णे य कसे य मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्त-रयणसंतसार-सावएज्जे य अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पगामं दागं, पगामं भोत्तु पगामं] परिभाएउं, तं अणुहोह ताव जाया ! विउले माणुस्सए इड्डीसक्कारसमुदए। किं भे सपच्चवाएणं निरालंबणेणं लवणसमुद्दोत्तारेणं? एवं खलु पुत्ता ! दुवालसमी जता सोवसग्गा यावि भवइ / तं मा णं तुम्भे दुवे पुत्ता दुवालसमं पि लवणसमुदं जाव (पोयवहणेणं) ओगाहेह, मा हु तुम्भं सरीरस्स वावत्ती भविस्सइ। 'हे माता-पिता ! आपकी अनुमति प्राप्त करके हम बारहवीं बार लवणसमुद्र की यात्रा करना चाहते हैं / हम लोग ग्यारह बार पहले यात्रा कर चुके हैं और सकुशल सफलता प्राप्त करके लौटे हैं।' तब माता-पिता ने उन माकन्दीपुत्रों से इस प्रकार कहा–'हे पुत्रो! यह तुम्हारे बाप-दादा (पड़दादा से प्राप्त बहुत-सा हिरण्य, स्वर्ण, कांस्य, दूष्य, मणि, मुक्ता, शंख, शिला, भूगा, लाल आदि उत्तम सम्पति मौजूद है जो सात पीढ़ी तक खूब देने, भोगने एवं) बंटवारा करने के लिए पर्याप्त है। अतएव पुत्रो ! मनुष्य संबंधी विपुल ऋद्धि सत्कार के समुदाय वाले भोगों को भोगो / विध्नबाधाओं से युक्त और जिसमें कोई आलम्बन नहीं ऐसे लवणसमुद्र में उतरने से क्या लाभ है ? हे पुत्रो ! बारहवीं (बार की) यात्रा सोपसर्ग (कष्टकारी) भी होती है / अतएव हे पुत्रो ! तुम दोनों बारहवीं बार लवणसमुद्र में प्रवेश मत करो, जिससे तुम्हारे शरीर को व्यापत्ति (विनाश या पीड़ा) न हो।' ६-तए णं मागंदियदारगा अम्मापियरो दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी--'एवं खलु अम्हे अम्मयाओ! एक्कारस वारा लवणसमुद्दे ओगाढा / सव्वत्थ वि य णं लट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुणरवि नियघरं हव्वमागया। तं सेयं खलु अम्मयाओ! दुवालसंपि लवणसमुदं ओगाहित्तए। तत्पश्चात् माकन्दीपुत्रों ने माता-पिता से दूसरी बार और तीसरी बार इस प्रकार कहा'हे माता-पिता ! हमने ग्यारह बार लवणसमुद्र में प्रवेश किया है, प्रत्येक बार धन प्राप्त किया, कार्य सम्पन्न किया और निर्विघ्न घर लौटे / हे माता-पिता ! अतः बारहवीं बार प्रवेश करने की हमारी इच्छा है।' ७-तए णं मागंदीदारए अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति बहूहिं आघवणाहि य पन्नवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा, ताहे अकामा चेव एयमझें अणुजाणित्था। 1. देखिये चतुर्थ सूत्र Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : माकन्दी] [287 तत्पश्चात् माता-पिता जब उन माकंदीपुत्रों को सामान्य कथन और विशेष कथन के द्वारा सामान्य या विशेष रूप से समझाने में समर्थ न हुए; तब इच्छा न होने पर भी उन्होंने उस बात कीसमुद्रयात्रा की अनुमति दे दी। ८-तए णं ते मागंदियदारया अम्मापिऊहि अभणुषणाया समाणा गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च जहा अरहण्णगस्स जाव लवणसमुई बहूइं जोयणसयाई ओगाढा / तए णं तेसि मागंदियदारगाणं अणेगाई जोयणसयाई ओगाढाणं समाणाणं अणेगाई उप्पाइयसयाई पाउम्भूयाई। तत्पश्चात् वे माता-पिता की अनुमति पाये हुए माकंदीपुत्र गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य-चार प्रकार का माल जहाज में भर कर अर्हन्नक को भाँति लवणसमुद्र में अनेक सैकड़ों योजन तक चले गये। तत्पश्चात् उन माकंदीपुत्रों के अनेक सैकड़ों योजन तक अवगाहन कर जाने पर सैकड़ों उत्पात (उपद्रव) उत्पन्न हुए। ९-तं जहा--अकाले गज्जियं जाव (अकाले विज्जुए, अकाले) थणियसद्दे कालियवाए तत्थ समुट्ठिए। वे उत्पात इस प्रकार थे--अकाल में गर्जना होने लगी, अकाल में बिजली चमकने लगी, अकाल में स्तनित शब्द (गहरी मेघगर्जना की ध्वनि) होने लगी। प्रतिकूल तेज हवा (आँधी) चलने लगी। नौका-भंग १०–तए णं सा णावा तेणं कालियवाएणं आहणिज्जमाणी आहुणिज्जमाणी संचालिज्जमाणी संचालिज्जमाणी संखोभिज्जमाणी संखोभिज्जमाणी सलिल-तिक्ख-वेगेहि आयट्टिज्जमाणी आयट्टिज्जमाणी कोट्टिमंसि करतलाहते विव तेंदूसए तत्थेव तत्थेव ओवयमाणी य उप्पयमाणी य, उप्पयमाणीविव धरणीयलाओ सिद्धविज्जाविज्जाहरकन्नगा, ओवयमाणीविव गगणतलाओ भविज्जा विज्जाहरकन्नगा, विपलायमाणीविव महागरुलवेगवित्तासिया भयगवरकन्नगा, धावमाणीविव महाजणरसियसद्दवित्तत्था ठाणभट्ठा आसकिसोरी, णिगुंजमाणोविव गुरुजणादिद्वावराहा सुयण-कुलकन्नगा, धुम्ममाणोविव वीची-पहार-सत-तालिया, गलिय-लंबणाविव गगणतलाओ, रोयमाणीविव सलिलगंठिविप्पइरमाणघोरंसुवाएहिं णववहू उबरतभत्तुया, विलवमाणीविव परचक्करायाभिरोहिया परममहब्भयाभिदुयया महापुरवरी, झायमाणोविव कवडच्छोमप्पओगजुत्ता चोगपरिवाइया, णिसासमाणीविव महाकंतार- विणिग्गयपरिस्संता परिणयवया अम्मया, सोयमाणीविव तवचरण-खीणपरिभोगा चयणकाले देववरवह, संचण्णियकटकराव, भग्ग-मेढि-मोडिय.सहस्समाला, सूलाइयवंकपरिमासा, फलहंतर-तडतडेत- फुस-संधिवियलंत-लोहकोलिया, सव्वंग-वियंभिया, परिसडिय-रज्जुविसरंत-सव्वगत्ता, आमगमल्लगभूया, अकयपुण्ण-जणमणोरहो विव चितिज्जमाणागुरुई, हाहाकयकण्णधार-नाविय-वाणियगजण-कम्मगार-विलविया, शाणाविह-रयण-पणिय-संपुष्णा, बहिं पुरिस'सएहि रोयमाणेहि कंदमणेहि सोयमाणेहि तिप्पमाहि विलवमाणेहि एगं महं अंतोजलगयं गिरिसिहरमासायइत्ता संभग्गकूवतोरणा मोडियझयदंडा वलयसयखंडिया करकरस्स तत्थेव विद्दवं उवगया। तत्पश्चात् वह नौका (पोतवहन) प्रतिकूल तूफानी वायु से बार-बार काँपने लगी, बार-बार एक जगह से दूसरी जगह चलायमान होने लगी, वार-बार संक्षुब्ध होने लगी-नीचे डूबने लगी, Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288] [ ज्ञाताधर्मकथा जल के तीक्ष्ण वेग से बार-बार टकराने लगी, हाथ से भूतल पर पछाड़ी हुई गेंद के समान जगहजगह नीची-ऊँची होने लगी। जिसे विद्या सिद्ध हुई है ऐसी विद्याधर-कन्या जैसे पृथ्वीतल से ऊपर उछलती है, उसी प्रकार वह ऊपर उछलने लगी और विद्याभ्रष्ट विद्याधरकन्या जैसे आकाशतल से नीचे गिरती है, उसी प्रकार वह नौका भी नीचे गिरने लगी। जैसे महान् गरुड़ के वेग से त्रास पाई नाग की उत्तम कन्या भय की मारी भागती है, उसी प्रकार वह भी इधर-उधर दौड़ने लगी। जैसे अपने स्थान से बिछड़ी हुई बछेरी बहुत लोगों के (बड़ी भीड़ के) कोलाहल से त्रस्त होकर इधर-उधर भागती है, उसी प्रकार वह भी इधर-उधर दौड़ने लगी। माता-पिता के द्वारा जिसका अपराध (दुराचार) जान लिया गया है, ऐसी सज्जन पुरुष के कुल की कन्या के समान नीचे नमने लगी / तरंगों के सैकड़ों प्रहारों से ताड़ित होकर वह थरथराने लगी / जैसे बिना आलंबन की वस्तु आकाश से नीचे गिरती है, उसी प्रकार वह नौका भी नीचे गिरने लगी। जिसका पति मर गया हो ऐसी नवविवाहिता वधू जैसे आँसू बहाती है, उसी प्रकार पानी से भीगी ग्रंथियों (जोड़ों) में से झरने वाली जलधारा के कारण वह नौका भी अश्रुपात-सा करती प्रतीत होने लगी।परचक्री (शत्रु) राजा के द्वारा अवरुद्ध (घिरी) हुई और इस कारण घोर महाभय से पीड़ित किसी उत्तम महानगरी के समान वह नौका विलाप करती हुई-सी प्रतीत होने लगी। कपट (वेषपरिवर्तन) से किये प्रयोग (परवंचना रूप व्यापार) से युक्त, योग साधने वाली परिवाजिका जैसे ध्यान करती है, उसी प्रकार वह भी कभी-कभी स्थिर हो जाने के कारण ध्यान करती-सी जान पड़ती थी। किसी बड़े जंगल में से चलकर निकली हुई और थकी हुई बड़ी उम्र वाली माता (पुत्रवती स्त्री) जैसे हांफती है, उसी प्रकार वह नौका भी निश्वास-से छोड़ने लगी, या नौकारूढ लोगों के निश्वास के कारण नौका भी निश्वास छोडती-सी दिखाई देने लगी / तपश्चरण के फलस्वरूप प्राप्त स्वर्ग के भोग क्षीण होने पर जैसे श्रेष्ठ देवी अपने च्यवन के समय शोक करती है, उसी प्रकार वह नौका भी शोक-सा करने लगी, अर्थात् नौका पर सवार लोग शोक करने लगे। उसके काष्ठ और मुखभाग चूर-चूर हो गये / उसको मेढ़ी' भंग हो गई और माल' सहसा मुड़ गई, या सहस्रों मनुष्य की आधारभूत माल मुड़ गई / वह नौका पर्वत के शिखर पर चढ़ जाने के कारण ऐसी मालम होने लगी मानो शूली पर चढ़ गई हो / उसे जल का स्पर्श वक्र (बांका) होने लगा, अर्थात नौका बांकी हो गयी। एक दूसरे के साथ जुडे पाटियों में तडहोने लगा-उनके जोड़ टूटने लगे, लोहे की कीलें निकल गईं, उसके सब भाग अलग-अलग हो गये। उसके पटियों के साथ बँधी रस्सियां गीली होकर (गल कर) टूट गईं अतएव उसके सब हिस्से बिखर गये / वह कच्चे सिकोरे जैसी हो गई-पानी में विलीन हो गई / अभागे मनुष्य के मनोरथ के समान वह अत्यन्त चिन्तनीय हो गई। नौका पर आरूढ कर्णधार, मल्लाह, वणिक् और कर्मचारी हाय-हाय करके विलाप करने लगे। वह नाना प्रकार के रत्नों और मालों से भरी हुई थी। इस विपदा के समय सैकड़ों मनुष्य रुदन करने लगे-रुदन शब्द के साथ अश्रुपात करने लगे, आक्रन्दन करने लगे, शोक करने लगे, भय के कारण पसीना झरने लगा, वे विलाप करने लगे, अर्थात् प्रार्तध्वनि करने लगे। उसी समय जल के भीतर विद्यमान एक बड़े पर्वत के शिखर के साथ टकरा कर नौका का मस्तूल और तोरण भग्न हो गया और ध्वजदंड मुड़ गया। नौका के वलय जैसे सैकड़ों टुकड़े हो गये। वह नौका 'कड़ाक' का शब्द करके उसी जगह नष्ट हो गई, अर्थात् डूब गई। 1. एक बड़ा और मोटा लट्ठा जो सब पटियों का प्राधार होता है / 2. मनुष्यों के बैठने का ऊपरी भाग Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : माकन्दी] [ 289 ११–तए णं तोए णावाए भिज्जमाणीए बहवे पुरिसा विपुलपडियभंडमायाए अंतोजलम्मि णिमज्जा यावि होत्था। तए णं मागंदियदारगा छेया दक्खा पत्तट्ठा कुसला मेहावी निउसिप्पोवगया बहुसु पोतवह संपराएसु कयकरणा लद्धविजया अमूढा अमूढहत्था एगं महं फलगखंड आसादेति / तत्पश्चात् उस नौका के भग्न होकर डूब जाने पर बहुत-से लोग बहुत-से रत्नों, भांडों और माल के साथ जल में डूब गये। परन्तु दोनों माकन्दोपुत्र चतुर, दक्ष, अर्थ को प्राप्त, कुशल, बुद्धिमान्, निपुण, शिल्प को प्राप्त, बहुत-से पोतवहन के युद्ध जैसे खतरनाक कार्यों में कृतार्थ, विजयी, मूढतारहित और फुर्तीले थे / अतएव उन्होंने एक बड़ा-सा पटिया का टुकड़ा पा लिया। रत्न-द्वीप १२--जस्सि च णं पदेसंसि पोयवहणे विवन्ने, तंसि च णं पदेसंसि एगे महं रयणद्दीवे णामं दोवे होत्था / अगाई जोअणाई आयामविक्खंभेणं, अणेगाई जोअणाइं परिक्खेवेणं, नानादुमखंड. मंडिउद्देसे सस्सिरीए पासाईए दंसणिज्जे अभिरूवे पडिरूबे / तस्स गं बहुमज्झदेसभाए तत्थ णं महं एगे पासायव.सए होत्था-अन्भुग्गयमूसियपहसिए जाव' सस्सिरीभूयरूवे पासाईए दंसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। जिस प्रदेश में वह पोतवहन नष्ट हुअा था, उसो प्रदेश में उसके पास ही, एक रत्नद्वीप नामक बड़ा द्वीप था / वह अनेक योजन लम्बा-चौड़ा और अनेक योजन के घेरे वाला था। उसके प्रदेश अनेक प्रकार के वक्षों के वनों से मंडित थे। वह द्वीप सुन्दर सुषमा वाला, प्रसन्नता वाला, दर्शनीय, मनोहर और प्रतिरूप था अर्थात् दर्शकों को नए-नए रूप में दिखाई देता था। उसी द्वीप के एकदम मध्यभाग में एक उत्तम प्रासाद था। उसकी ऊँचाई प्रकट थी,-वह बहुत ऊँचा था। वह भी सश्रीक, प्रसन्नताप्रदायो, दर्शनीय, मनोहर रूप वाला और प्रतिरूप था। रत्न-द्वीपदेवी 13- तत्थ णं पासायव.सए रयणद्दीवदेवया नाम देवया परिवसइ पावा, चंडा, रुद्दा, खुद्दा, साहसिया। तस्स णं पासायवडेंसयस्त चउद्दिसि चत्तारि वणसंडा किण्हा, किण्होभासा। उस उत्तम प्रासाद में रत्नद्वीपदेवता नाम की एक देवी रहती थी / वह पापिनी, चंडा-अति पापिनी, भयंकर, तुच्छ स्वभाव वाली और साहसिक थी। (इस देवी के शेष विशेषण विजय चोर के समान जान लेने चाहिए)। उस उत्तम प्रासाद की चारों दिशाओं में चार वनखंड (उद्यान) थे। वे श्याम वर्ण वाले और श्याम कान्ति वाले थे (यहाँ वनखण्ड के पूर्व वणित अन्य विशेषण समझ लेना चाहिए)। १४-तए णं ते मार्गदियदारगा तेणं फलयखंडेणं उबुज्झमाणा उवुज्झमाणा रयणदीवंतेणं संबूढा यादि होत्था। 1. प्र. अ. 103 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् वे दोनों माकन्दीपुत्र (जिनपालित और जिनरक्षित) पटिया के सहारे तिरते-तिरते रत्नद्वीप के समीप आ पहुँचे।। १५---तए णं ते मागंदियदारगा थाहं लभंति, लभित्ता मुहत्तंतरं आससंति, आससित्ता फलगखंडं विसज्जेंति, विसज्जित्ता रयणद्दीवं उत्तरंति, उत्तरित्ता फलाणं मग्गणगवेसणं करेंति, करित्ता फलाइं गेण्हंति, गेण्हित्ता आहारति, आहारित्ता णालिएराणं मग्गणगवेसणं करेंति, करिता नालिएराई फोडेंति, फोडित्ता नालिएरतेल्लेणं अण्णमण्णस्स गत्ताइं अभंगति, अभंगित्ता पोक्खरणीओ ओगाहिति, ओगाहित्ता जलमज्जणं करेंति, करित्ता जाव पच्चुत्तरंति, पच्चुत्तरित्ता पुढविसिलापट्टयंसि निसीयंति, निसीइत्ता आसत्था वोसत्था सुहासणवरगया चंपानार अम्मापिउआपुच्छणं च लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवायसमुत्थणं च पोयवहणवित्ति च फलयखंडस्स आसायणं च रयणदीवुत्तारं च अचितेमाणा अणुचितेमाणा ओहयमणसंकप्पा जाव (करतलपल्हथमुहा अट्टज्झाणोवगया) झियाएंति / तत्पश्चात् उन माकन्दीपुत्रों को थाह मिली / थाह पाकर उन्होंने घड़ी भर विश्राम किया / विश्राम करके पटिया के टुकड़े को छोड़ दिया। छोड़कर रत्नद्वीप में उतरे। उतरकर फलों की मार्गणा-गवेषणा (खोज-ढूढ़) की फिर फलों को ग्रहण किया। ग्रहण करके फल खाये / फिर उनके तेल से दोनों ने आपस में मालिश की। मालिश करके वावड़ी में प्रवेश किया। प्रवेश करके स्नान किया। स्नान करके वावड़ी से बाहर निकले / एक पृथ्वीशिला रूपी पाट पर बैठे / बैठकर शान्त हुए, विश्राम लिया और श्रेष्ठ सुखासीन पर आसीन हुए। वहाँ बैठे-बैठे चम्पा नगरी, माता-पिता से आज्ञा लेना, लवण-समुद्र में उतरना, तूफानी वायु का उत्पन्न होना, नौका का भग्न होकर डूब जाना, पटिया का टकडा मिल जाना और अन्त में रत्नद्वीप में प्राना, इन सब बातों का बार-बार विचार करते हुए भग्नमनःसंकल्प होकर हथेली पर मुख रखकर प्रार्तध्यान में-चिन्ता में डूब गये। १६-तए णं सा रयणद्दीवदेवया ते मागंदियदारए ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता असिफलग-वग्ग-हत्था सत्तटठतालप्पमाणं उडढं बेहासं उप्पयड, उप्पइत्ता ताए उक्किटठाए जा वोइवयमाणी वीइवयमाणी जेणेव मागंदियदारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आसुरुत्ता मागं. दियदारए खर-फरस-निठुरवयणेहिं एवं वयासी-- तत्पश्चात उस रत्नद्वीप की देवी ने उन माकन्दीपुत्रों को अवधिज्ञान से देखा / देखकर उसने हाथ में ढाल और तलवार ली। सात-आठ ताड़ जितनी ऊँचाई पर आकाश में उड़ी। उड़कर उत्कृष्ट (तीव्रतम) यावत् देवगति से चलती-चलती जहाँ माकन्दीपुत्र थे, वहाँ आई / पाकर एकदम कुपित हुई और माकन्दीपुत्रों को तीखे, कठोर और निष्ठुर वचनों से इस प्रकार कहने लगी देवी द्वारा धमकी १७---'हं भो मागंदियदारगा! अप्पत्थियपत्थिया ! जइ णं तुब्भे मए सद्धि विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणा विहरह, तो भे अस्थि जीवियं, अहण्णं तुब्भे मए सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुजमाणा नो विहरह, तो भे इमेणं नीलुप्पल-गवल-गुलिय-अयसिकुसुमप्पगासेणं खुरधारेणं असिणा रत्तगंडमंसुयाई माउयाहि उवसोहियाई तालफलाणि व सोसाइं एगंते एडेमि / ' Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [291 नवम अध्ययन : माकन्दी ] 'अरे माकन्दी के पुत्रो ! अप्रार्थित (मौत) की इच्छा करने वालो ! यदि तुम मेरे साथ विपुल कामभोग भोगते हुए रहोगे तो तुम्हारा जीवन है-तुम जीते बचोगे, और यदि तुम मेरे साथ विपुल कामभोग भोगते हए नहीं रहोगे तो इस नील कमल, भैस के सींग, नील द्रव्य की गटिका (गोली) और अलसी के फूल के समान काली और छुरे को धार के समान तीखी तलवार से तुम्हारे इन मस्तकों को ताड़फल की तरह काट कर एकान्त में डाल दूगी, जो गंडस्थलों को और दाढ़ी-मूछों को लाल करने वाले हैं और मूछों से सुशोभित हैं, अथवा जो माता-पिता आदि के द्वारा सँवार कर सुशोभित किए हुए केशों से शोभायमान हैं।' १८-तए णं ते मागंदियदारगा रयणदीवदेवयाए अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म भीया संजायभया करयल जाव एवं वयासी-जं णं देवाणुप्पिया वइस्ससि तस्स आणाउववायवयणनिद्देसे चिट्ठिस्सामो। तत्पश्चात् वे माकंदीपुत्र रत्नद्वीप की देवी से यह अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके भयभीत हो उठे / उन्हें भय उत्पन्न हुया / उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिये ! जो कहेंगी, हम आपकी प्राज्ञा, उपपात (सेवा), वचन (आदेश) और निर्देश (कार्य करने) में तत्पर रहेंगे / ' अर्थात् अापके सभी आदेशों का पालन करेंगे / १९-तए णं सा रयणद्दीवदेवया ते मागंदियदारए गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव पासायव.सए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असुभपुग्गलावहारं करेइ, करित्ता सुभपोग्गलपक्खेवं करेइ, करित्ता पच्छा तेहिं सद्धि विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणी विहरइ / कल्लाल्लि च अमयफलाई उवणेइ / तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने उन माकन्दी के पुत्रों को ग्रहण किया-साथ लिया / लेकर जहाँ अपना उत्तम प्रासाद था, वहाँ आई / आकर अशुभ पुद्गलों को दूर किया और शुभ पुद्गलों का प्रक्षेपण किया और फिर उनके साथ विपुल कामभोगों का सेवन करने लगी / प्रतिदिन उनके लिए अमृत जैसे मधुर फल लाने लगी। २०–तए णं सा रयणद्दीवदेवया सक्कवयणसंदेसेणं सुट्टिएणं लवणाहिवइणा लवणसमुद्दे ति-सत्त-खुत्तो अणुपरिट्टियन्वेत्ति जं किंचि तत्थ तणं वा पत्तं वा कळं वा कयवरं वा असुई पूईयं दुरभिगंधमचोक्खं तं सव्वं आहुणिय आहुणिय तिसत्तखुत्तो एगंते एडेयव्वं ति कटु णिउत्ता। तत्पश्चात् रत्नद्वीप की उस देवी को शकेन्द्र के वचन-पादेश से सुस्थित नामक लवणसमुद्र के अधिपति देव ने कहा-'तुम्हें इक्कीस बार लवणसमुद्र का चक्कर काटना है / वह इसलिए कि वहाँ जो भी तृण (घास), पत्ता, काष्ठ, कचरा, अशुचि (अपवित्र वस्तु), सड़ी-गली वस्तु या दुर्गन्धित वस्तु प्रादि गन्दी चीज हो, वह सब इक्कीस बार हिला-हिला कर, समुद्र से निकल कर एक तरफ डाल देना।' इस प्रकार कह कर उस देवी को समुद्र की सफाई के कार्य में नियुक्त किया। देवी का आदेश २१--तए णं सा रयणद्दीवदेवया ते मागंदियदारए एवं वयासी--एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! सरकवयणसंदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा तं चेव जाव णिउत्ता। तं जाव अहं देवाणुप्पिया ! लवण Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 ] [ ज्ञाताधर्मकथा समुद्दे जाव एडेमि ताव तुब्भे इहेव पासायडिसए सुहंसुहेणं अभिरममाणा चिट्ठह / जइ णं तुम्भे एयंसि अंतरंसि उविग्गा वा, उस्सुया वा, उप्पुया वा भवेज्जाह, तो णं तुम्भे पुरच्छिमिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह। तत्पश्चात् उस रत्नद्वीप की देवी ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा- हे देवानुप्रियो ! मैं शक्रेन्द्र के वचनादेश (प्राज्ञा) से, सुस्थित नामक लत्रणसमुद्र के अधिपति देव द्वारा यावत् (पूर्वोक्त प्रकार से सफाई के कार्य में) नियुक्त की गई हूँ। सो हे देवानुप्रियो! मैं जब तक लवणसमुद्र में से यावत् कचरा प्रादि दूर करने जाऊँ, तब तक तुम इसी उत्तम प्रासाद में आनन्द के साथ रमण करते हुए रहना / यदि तुम इस बीच में ऊब जाओ, उत्सुक होनो या कोई उपद्रव हो, तुम पूर्व दिशा के वनखण्ड में चले जाना। २२–तत्थ णं दो उऊ सया साहीणा, तंजहा–पाउसे य वासारत्ते य / तत्थ उकंदल-सिलिध-दंतो णिउर-वर-पुप्फपीवरकरो। कुडयज्जुण-णीव-सुरभिदाणो, पाउसउउनायवरो साहीणो // 1 // तत्थ यसुरगोवमणि विचित्तो, दरद्कुलरसिय-उज्झररवो। बरहिणविंद-परिणद्धसिहरो, वासाउउ-पवतो साहीणो // 2 // तत्थ णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! बहुसु वावीसु य जाव सरसरपंतियासु बहुसु आलोघरएसु य मालोघरएसु य जाव कुसुमघरएसु य सुहंसुहेणं अभिरममाणा विहरेज्जाह / उस पूर्व दिशा के वनखण्ड में दो ऋतुएँ सदा स्वाधीन हैं—विद्यमान रहती हैं / वे यह हैंप्रावष् ऋतु अर्थात् आषाढ और श्रावण का मौसम तथा वर्षारात्र अर्थात् भाद्रपद और आश्विन का मौसम / उनमें से-(उस वनखण्ड में सदैव) प्रावष् ऋतु रूपी हाथी स्वाधीन है। कंदल-नवीन लताएँ और सिलिंध्र-भूमिफोड़ा उस प्रावृष्-हाथी के दांत हैं / निउर नामक वृक्ष के उत्तम पुष्प ही उसकी उत्तम सूड़ हैं / कुटज, अर्जुन और नीष वृक्षों के पुष्प ही उसका सुगंधित मदजल हैं। (यदि सब वृक्ष प्रावष ऋतु में फूलते हैं, किन्तु उस वनखण्ड में सदैव फूले रहते हैं / इस कारण प्रावष को वहाँ सदा स्वाधीन कहा है / ) और उस वनखण्ड में वर्षाऋतु रूपी पर्वत भी सदा स्वाधीन-विद्यमान रहता है, क्योंकि वह इन्द्रगोप (सावन की डोकरी) रूपी पद्मराग आदि मणियों से विचित्र वर्ण वाला रहता है, और उसमें मेंढकों के समूह के शब्द रूपी झरने की ध्वनि होती रहती है / वहाँ मयूरों के समूह सदैव शिखरों पर विचरते हैं हे देवानुप्रियो ! उस पूर्व दिशा के उद्यान में तुम बहुत-सी बावड़ियों में, यावत् बहुत-सी सरोवरों की श्रेणियों में, बहुत-से लतामण्डपों में, वल्लियों के मंडपों में यावत् वहुत-से पुष्पमंडपों में सुखे-सुखे रमण करते हुए समय व्यतीत करना / 23 --जइ णं तुब्भे एत्थ वि उन्विग्गा वा उस्सुया उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुम्भे उत्तरिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह / तत्थ णं दो उऊ सया साहीणा, तंजहा-सरदो य हेमंतो य / Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : माकन्दी] [ 293 तत्थ उ -- सण-सत्तवण्ण-कउओ, नीलुप्पल-पउम-नलिण-सिंगो। सारस-चक्कवाय-रवित-घोसो, सरयउऊ-गोवती साहीणो // 1 // तत्थ य--- सियकुद-धवलजोहो, कुसुमित-लोद्धवणसंड-मंडलतलो। तुसार-दगधार-पीवरकरो, हेमंतउऊ-ससी सया साहीणो // 2 // अगर तुम वहाँ भी ऊब जायो, उत्सुक हो जायो या कोई उपद्रव हो जाये-भय हो जाये, तो तुम उत्तर दिशा के वनखण्ड में चले जाना / वहाँ भी दो ऋतुएँ सदा स्वाधीन हैं। ये यह हैं—शरद् और हेमन्त / उनमें से शरद् (कार्तिक और मार्गशीर्ष) इस प्रकार हैं -- शरद् ऋतु रूपी गोपति-वृषभ सदा स्वाधीन है / सन और सप्तच्छद वृक्षों के पुष्प उसका ककुद (कांधला) है, नीलोत्पल, पद्म और नलिन उसके सींग हैं, सारस और चक्रवाक पक्षियों का कूजन ही उसका घोष (दलांक) है। हेमन्त ऋतु रूपी चन्द्रमा उस वन में सदा स्वाधीन है। श्वेत कुन्द के फूल उसकी धवल ज्योत्स्ना-चांदनी है। प्रफुल्लित लोध्र वाला वनप्रदेश उसका मंडलतल (बिम्ब) है और तुषार के जलबिन्दु की धाराएँ उसकी स्थूल किरणें हैं।' २४-तत्थ णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! वावीसु य जाव बिहराहि / हे देवानुप्रियो ! तुम उत्तर दिशा के उस वनखण्ड में यावत् क्रीडा करना / २५–जइ णं तुब्भे तत्थ वि उध्विग्गा वा जाव उस्सुया वा भवेज्जाह, तो णं तुब्भे अवरिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह / तत्थ णं दो उऊ साहीणा, तंजहा-वसंते य गिम्हे य / तत्थ उ सहकार-चारहारो, किसुय-कणियारासोग-मउडो। ऊसियतिलग बउलायवत्तो, वसंतउऊ-गरवई साहीणो // 1 // तत्थ यपाडल-सिरीस-सलिलो, मलिया-वासंतिय-धवलवेलो। सोयल-सुरभि-अनल-मगरचरिओ, गिम्हउऊ-सागरो साहीणो // 2 // यदि तुम उत्तर दिशा के वनखण्ड में भी उद्विग्न हो जानो, यावत् मुझसे मिलने के लिए उत्सुक हो जाओ, तो तुम पश्चिम दिशा के वनखण्ड में चले जाना / उस वनखण्ड में भी दो ऋतुएँ सदा स्वाधीन हैं / वे यह हैं-बसन्त और ग्रीष्म / उसमें-- वसन्त रूपी ऋतु-राजा सदा विद्यमान रहता है / वसन्त-राजा के पाम्र के पुष्पों का मनोहर हार है, किंशुक (पलाश), कर्णिकार (कनेर) और अशोक के पुष्पों का मुकुट है तथा ऊँचे-ऊँचे तिलक और बकुल वृक्षों के फूलों का छत्र है / और उसमें उस वनखण्ड में ग्रीष्म ऋतु रूपी सागर सदा विद्यमान रहता है। वह ग्रीष्म-सागर पाटल और शिरीष के पुष्पों रूपी जल से परिपूर्ण रहता है / मल्लिका और वासन्तिकी लताओं के कुसुम ही Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 ] | ज्ञाताधर्मकथा उसकी उज्ज्वल वेला-ज्वार है / उसमें जो शीतल और सुरभित पवन है, वही मगरों का विचरण है। २६-जइ णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! तत्थ वि उम्विग्गा उस्सुया भवेज्जाह, तओ तुब्भे जेणेव पासायडिसए तेणेव उवागच्छेज्जाह, उवाच्छित्ता ममं पडिवालेमाणा पडिवालेमाणा चिठेज्जाह / मा णं तुम्भे दक्खिणिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह / तत्थ णं महं एगे उग्गविसे चंडविसे घोरविसे महाविसे अइकाय-महाकाए। जहा तेयनिसग्गे-मसि-महिस-मूसाकालए नयणविसरोसपुण्णे अंजणपुजनियरप्पगासे रत्तच्छे जमलजयलचंचलचलंतजीहे धरणियलवेणिभूए उक्कड-फूड-कुडिल-जडिल-कक्खड-वियड-फडाडोवकरणदच्छे लोहागार-धम्ममाण-धमधमेंतघोसे अणागलियचंड-तिव्वरोसे समुहियं तुरियं चवलं धमधमंतदिट्ठीविसे सप्पे य परिवसइ / मा णं तुभं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ। देवानुप्रियो ! यदि तुम वहाँ भी ऊब जाओ या उत्सुक हो जायो तो इस उत्तम प्रासाद में ही आ जाना। यहाँ आकर मेरी प्रतीक्षा करते-करते यहीं ठहरना / दक्षिण दिशा के वनखण्ड की तरफ मत चले जाना। दक्षिण दिशा के वनखण्ड में एक बड़ा सर्प रहता है / उसका विष उग्र अर्थात् दुर्जर है, प्रचंड अर्थात शीघ्र ही फैल जाता है, घोर है अर्थात् परम्परा से हजार मनुष्यों का घातक है, उसका विष महान है अर्थात् जम्बूद्वीप के बराबर शरीर हो तो उसमें भी फैल सकता है, अन्य सब सौ से उसका शरीर बड़ा है। इस सर्प के अन्य विशेषण 'जहा तेयनिसग्गे' अर्थात् गोशालक के वर्णन में कहे अनुसार जान लेना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-बह काजल, भैंस और कसौटी-पाषाण के समान काला है, नेत्र के विष से और क्रोध से परिपूर्ण है। उसकी प्राभा काजल के ढेर के समान काली है। उसकी आँखें लाल हैं / उसकी दोनों जीभे चपल एवं लपलपाती रहती हैं / वह पृथ्वी रूपी स्त्री की वेणी के समान (काला चमकदार और पृष्ठ भाग में स्थित) है / वह सर्प उत्कट—अन्य बलवान् के द्वारा भी न रोका जा सकने योग्य, स्फुट-प्रयत्न-कृत होने के कारण प्रकट, कुटिल-वक्र, जटिल-सिंह की अयाल के सदृश, कर्कश-कठोर और विकट-विस्तार वाला, फटाटोप करने (फण फैलाने) में दक्ष है / लोहार की भट्टी में धौंका जाने वाला लोहा जैसे धम-धम शब्द करता है, उसी प्रकार वह सर्प भी ऐसा / ऐसा ही 'धम-धम' शब्द करता रहता है। उसके प्रचंड एवं तीन रोष को कोई रोक नहीं सकता। कुत्ती के झौंकने के समान शीघ्रता एवं चपलता से वह धम्-धम् शब्द करता रहता है। उसकी दृष्टि में विष है, अर्थात वह जिसे देख ले, उसी पर उसके विष का असर हो जाता है / अतएव कहीं ऐसा न हो कि तुम वहाँ चले जायो और तुम्हारे शरीर का विनाश हो जाय। 27 ते मागंदियदारए दोच्चं पि तच्चं पि एवं वदइ, वदित्ता वेउब्धियसमुग्धाएणं समोहणइ, समोहणित्ता ताए उक्किट्ठाए देवगईए लवणसमुई तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टेउं पयत्ता यावि होत्था। रत्नद्वीप की देवी ने यह बात दो वार और तीन बार उन माकंदीपुत्रों से कही / कहकर उसने Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : माकन्दी] [295 वैक्रिय समुद्घात से विक्रिया की / विक्रिया करके उत्कृष्ट-उतावली देवगति से इक्कीस बार लवणसमुद्र का चक्कर काटने में प्रवृत्त हो गई / माकन्दीपुत्रों का वन-गमन २८-तए णं ते मागंदियदारया तओ मुहत्तंतरस्स पासायडिसए सई वा रइंवा धिई वा अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! रयणहीवदेवया अम्हे एवं वयासी-एवं खलु अहं सक्कवयणसंदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा जाव वावत्ती भविस्सइ, तं सेयं खलु अम्हें देवाणुप्पिया ! पुरच्छिमिल्लं वणसंडं गमित्तए। अण्णमण्णस्स एयमझें पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता तत्थ णं वावीसु य जाव अभिरममाणा आलीघरएसु य जाव विहरति / तत्पश्चात् वे माकंदीपुत्र देवी के चले जाने पर एक मुहूर्त में ही (थोड़ी ही देर में) उस उत्तम प्रासाद में सुखद स्मृति, रति और धृति नहीं पाते हुए आपस में इस प्रकार कहने लगे-'देवानुप्रिय ! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे इस प्रकार कहा है कि-शक्रेन्द्र के वचनादेश से लवणसमुद्र के अधिपति देव सुस्थित ने मुझे यह कार्य सौंपा है, यावत् तुम दक्षिण दिशा के वनखण्ड में मत जाना, ऐसा न हो कि तुम्हारे शरीर का विनाश हो जाय / ' तो हे देवानुप्रिय ! हमें पूर्व दिशा के वनखण्ड में चलना चाहिए। दोनों भाइयों ने आपस के इस विचार को अंगीकार किया। वे पूर्व दिशा के वनखण्ड में आये / पाकर उस वन के अन्दर वावड़ी आदि में यावत् क्रीडा करते हुए वल्लीमंडप आदि में यावत् विहार करने लगे। २९--तए णं ते मागंदियदारया तत्थ वि सई वा जाव अलभमाणा जेणेव उत्तरिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तत्थ णं वावीसु य जाव आलीघरएसु य विहरति / तत्पश्चात् वे माकंदीपुत्र वहाँ भी सुखद स्मृति यावत् शान्ति न पाते हुए उत्तर दिशा के वनखण्ड में गये / वहाँ जाकर वावड़ियों में यावत् वल्लीमंडपों में विहार करने लगे। ३०-तए णं ते मागंदियदारया तत्थ वि सई वा जाव अलभमाणा जेणेव पच्चस्थमिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता जाव विहरति / तत्पश्चात् वे माकंदीपुत्र वहाँ भी सुखद स्मृति यावत् शान्ति न पाते हुए पश्चिम दिशा के वनखण्ड में गये / जाकर यावत् विहार करने लगे। ३१-तए णं ते मागंदियदारया तत्थ वि सई वा जाव अलभमाणा अण्णमण्णं एवं क्यासीएवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे रयणद्दीवदेवया एवं वयासी—'एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! सक्कस्स वयणसंदेसेणं सुट्टिएण लवणाहिवइणा जाव मा णं तुम्भं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ / ' तं भवियत्वं एत्य कारणेणं / तं सेयं खलु अम्हं दक्खिणिल्लं वणसंडं गमित्तए, त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमलैं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव दविखणिल्ले वणसंडे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। __तब वे माकंदीपुत्र वहाँ भी सुख रूप स्मृति यावत् शान्ति न पाते हुए आपस में इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रिय ! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे ऐसा कहा है कि-'देवानुप्रियो ! शक्र के Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 ] [ ज्ञाताधर्मकथा वचनादेश से लवणाधिपति सुस्थित ने मुझे समुद्र की स्वच्छता के कार्य में नियुक्त किया है। यावत् तुम दक्षिण दिशा के वनखण्ड में मत जाना। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे शरीर का विनाश हो जाय / तो इसमें कोई कारण होना चाहिए। अतएव हमें दक्षिण दिशा के वनखण्ड में भी जाना चाहिए।' इस प्रकार कह कर उन्होंने एक दूसरे के इस विचार को स्वीकार किया। स्वीकार करके उन्होंने दक्षिण दिशा के वनखण्ड में जाने का संकल्प किया रवाना हुए। दक्षिण-वन का रहस्य ३२-तए णं गंधे निद्धाति से जहानामए अहिमडेइ वा जाव' अणिद्वतराए चेव / तए णं ते मार्गदियदारया तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सहि सएहिं उत्तरिज्जेहि आसाइं पिहेंति, पिहिता जेणेव दक्खिणिल्ले वणसंडे तेणेव उवागया। तत्पश्चात् दक्षिण दिशा से दुर्गंध फूटने लगी, जैसे कोई साँप का (गाय का, कुत्ते का, बिल्ली, मनुष्य, महिष, मूसक, अश्व, हस्ती, सिंह, व्याघ्र, भेड़िया या द्वीपिका का) मृत कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अनिष्ट दुर्गंध आने लगी। तत्पश्चात् उन माकंदीपुत्रों ने उस अशुभ दुर्गंध से घबराकर अपने-अपने उत्तरीय वस्त्रों से मुह ढक लिए / मुंह ढक कर वे दक्षिण दिशा के वनखण्ड में पहुँचे। 33 तत्थ णं महं एगं आधायणं पासंति, पासित्ता अद्रियरासिसतसंकुलं भीमदरिसणिज्जं एगं च तत्थ सूलाइतयं पुरिसं कलुणाई विस्सराई कटाई कुवमाणं पासंति, पासित्ता भीया जाव संजायभया जेणेव से सूलाइयपुरिसे तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता तं सूलाइयं पुरिसं एवं वयासो'एस णं देवाणुप्पिया ! कस्साधायणे ? तुमं च णं के कओ वा इहं हवमागए ? केण वा इमेयारूवं आवई पाविए ?' वहाँ उन्होंने एक बड़ा वधस्थान देखा / देखकर सैकड़ों हाड़ों के समूह से व्याप्त और देखने में भयंकर उस स्थान पर शूली पर चढ़ाये हुए एक पुरुष को करुण, विरस और कष्टमय शब्द करते देखा / उसे देखकर वे डर गये। उन्हें बडा भय उत्पन्न हया। फिर वे जहाँ शली पर चढाया पुरुष था, वहाँ पहुँचे और शूली पर चढ़े पुरुष से इस प्रकार बोले-'हे देवानुप्रिय ! यह वधस्थान किसका है ? तुम कौन हो ? किसलिए यहाँ आये थे? किसने तुम्हें इस विपत्ति में डाला है ?' ३४–तए णं से सूलाइयपुरिसे मागंदियदारए एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! रयणद्दीवदेवयाए आघायणे, अहण्णं देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवाओ भारहाओ वासाओ कागंदीए आसवाणियए विपुलं पडियभंडमायाए पोतवहणेणं लवणसमुदं ओयाए। तए णं अहं पोयवहणविवत्तीए निब्बुड्डुभंडसारे एग फलगखंडं आसाएमि / तए णं अहं उवुज्झमाणे उवुज्झमाणे रयणदीवंतेणं संबूढे / तए णं सा रयणद्दीवदेवया ममं ओहिणा पासइ, पासित्ता ममं गेण्हइ, गेण्हित्ता भए सद्धि विपुलाई भोगभोगाई भुजमाणी विहरइ / तए णं सा रयणद्दीवदेवया अन्नया कयाई अहालहुसगंसि अवराहसि परिकुविया समाणी ममं एयारूवं आवई पावेइ / तं ण णज्जइ णं देवाणुप्पिया ! तुम्हं पि इमेसि सरारगाणं का मण्णे आवई भविस्सइ ?' 1. अष्टम प्र. 36 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : माकन्दी / [ 297 तब शूली पर चढ़े उस पुरुष ने माकन्दीपुत्रों से इस प्रकार कहा---'हे देवानुप्रियो ! यह रत्नद्वीप की देवी का वधस्थान है / देवानुप्रियो ! मैं जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित काकंदी नगरी का निवासी अश्वों का व्यापारी हूँ। मैं बहुत-से अश्व और भाण्डोपकरण पोतवहन में भर कर लवणसमुद्र में चला / तत्पश्चात् पोतवहन के भग्न हो जाने से मेरा सब उत्तम भाण्डोपकरण डूब गया। मुझे पटिया का एक टुकड़ा मिल गया। उसी के सहारे तिरता-तिरता मैं रत्नद्वीप के समीप आ पहुँचा / उसी समय रत्नद्वीप की देवी ने मुझे अवधिज्ञान से देखा / देख कर उसने मुझे ग्रहण कर लिया-अपने कब्जे में कर लिया, वह मेरे साथ विपुल कामभोग भोगने लगी। तत्पश्चात् रत्नद्वीप की वह देवी एक बार, किसी समय, एक छोटे-से अपराध पर अत्यन्त कुपित हो गई और उसी ने मुझे इस विपदा में पहुँचाया है / देवानुप्रियो! नहीं मालूम तुम्हारे इस शरीर को भी कौन-सी आपत्ति प्राप्त होगी ?' ३५-तए णं ते मागंदियदारया तस्स सूलाइयगस्स अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म बलियतरं भीया जाव संजातभया सूलाइययं पुरिसं एवं वयासी-'कहं णं देवाणुप्पिया! अम्हे रयणदीवदेवयाए हत्थाओ साहत्थि णित्थरिज्जामो ?' तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र शूली पर चढ़े उस पुरुष से यह अर्थ (वृत्तांत) सुनकर और हृदय में धारण करके और अधिक भयभीत हो गये / उनके मन में भय उत्पन्न हो गया। तब उन्होंने शूली पर चढ़े पुरुष से इस प्रकार कहा–'देवानुप्रिय ! हम लोग रत्नद्वीप के देवता के हाथ से--चंगुल से किस प्रकार अपने हाथ से अपने आप निस्तार पाएँ-छुटकारा पा सकते हैं ?' अर्थात् देवी से छुटकारा पाने का क्या उपाय है ? शैलक यक्ष 36 तए णं से सूलाइयए पुरिसे ते मागंदियदारगे एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! पुरच्छिमिल्ले वणसंडे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे सेलए नामं आसरूवधारी जवखे परिवसइ / तए णं से सेलए जक्खे चोद्दस-ट्ठमुद्दिट्ट-पुण्णमासिणीसु आगयसमए पत्तसमए महया महया सद्देणं एवं वदइ- 'कं तारयामि ? कं पालयामि ?' तत्पश्चात् शूली पर चढ़े पुरुष ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा-'देवानुप्रियो ! इस पूर्व दिशा के वनखण्ड में शैलक यक्ष का यक्षायतन है। उसमें अश्व का रूप धारण किये शैलक नामक यक्ष निवास करता है। वह शैलक यक्ष चौदस, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन आगत समय और प्राप्त समय होकर अर्थात् एक नियत समय आने पर खूब ऊँचे स्वर में इस प्रकार बोलता है--'किसको तारू ? किसको पालू ?' ३७--तं गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! पुरच्छिमिल्लं वणसंडं सेलगस्स जक्खस्स महरिहं पुप्फच्चणियं करेह, करित्ता जपणुपायवडिया पंजलिउडा विणएणं पज्जुवासमाणा चिट्ठह / जाहे णं से सेलए जक्खे आगयसमए एवं वएज्जा-'कं तारयामि ? कं पालयामि ?' ताहे Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298] [ ज्ञाताधर्मकथा तुब्भे वदह --'अम्हे तारयाहि, अम्हे पालयाहि / ' सेलए भे जक्खे परं रयणद्दीवदेवयाए हत्थाओ साहत्यि णित्यारेज्जा / अण्णहा भे न याणामि इमेसि सरीरगाणं का मण्णे आवई भविस्सइ / तो हे देवानुप्रियो ! तुम लोग पूर्व दिशा के वनखण्ड में जाना और शैलक यक्ष की महान् जनों के योग्य पुष्पों से पूजा करना / पूजा करके घुटने और पैर नमा कर, दोनों हाथ जोड़कर, विनय के साथ उसकी सेवा करते हुए ठहरना। जब शैलक यक्ष आगत समय और प्राप्त समय होकर-नियत समय आने पर कहे कि--- 'किसको तारूँ, किसे पालू" तब तुम कहना-'हमें तारो, हमें पालो।' इस प्रकार शैलक यक्ष ही केवल रत्नद्वीप की देवी के हाथ से, अपने हाथ से स्वयं तुम्हारा निस्तार करेगा। अन्यथा मैं नहीं जानता कि तुम्हारे इस शरीर को क्या आपत्ति हो जायगी?' ३८-तए णं ते मागंदियदारगा तस्स सलाइयस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा णिसम्म सिग्छ चंडं चवलं तुरियं वेइयं जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे, जेणेव पोक्खरिणी, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोक्खरिणि गाहंति, गाहिता जलमज्जणं करेंति, करित्ता जाइं तत्थ उप्पलाई जाव गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता आलोए पणामं करेंति, करिता महरिहं पुप्फच्चणियं करेंति, करित्ता जण्णुपायवडिया सुस्सूसमाणा णमंसमाणा पज्जुवासंति / तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र शूली पर चढ़े पुरुष से इस अर्थ को सुनकर और मन में धारण करके शीघ्र, प्रचण्ड, चपल, त्वरा वाली और वेगवाली गति से जहां पूर्व दिशा का वनखण्ड था और उसमें पुष्करिणी थी, वहाँ आये / पाकर पुष्करिणी में प्रवेश किया। प्रवेश करके स्नान किया / स्नान करने के बाद वहाँ जो कमल, उत्पल, नलिन, सुभग प्रादि कमल की जातियों के पुष्प थे, उन्हें ग्रहण किया / ग्रहण करके शैलक यक्ष के यक्षायतन में पाए। यक्ष पर दृष्टि पड़ते ही उसे प्रणाम किया। फिर महान् जनों के योग्य पुष्प-पूजा की। वे घुटने और पैर नमा कर यक्ष की सेवा करते हुए, नमस्कार करते हुए उपासना करने लगे। छुटकारे की प्रार्थना और शर्त ____३९-तए णं से सेलए जक्खे आगयसमए पत्तसमए एवं वयासी-'कं तारयामि ? कं पालयामि?' तए णं ते मागंदियदारया उट्ठाए उठेति, करयल जाव एवं वयासी-'अम्हे तारयाहि / अम्हे पालयाहि / ' तए णं से सेलए जक्खे ते मागंदियदारए एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुम्भे मए सद्धि लवणसमुद्देणं मज्झंमज्झणं वीइवयमाणेणं सा रयणद्दीवदेवया पावा चंडा रुद्दा खुद्दा साहसिया बहूहि खरएहि य मउएहि य अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहि य उवसग्गं करेहिइ / तं जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! रयणद्दीवदेवयाए एयमठे आढाह वा परियाणह वा अवएक्खह वा तो भे अहं पिट्ठातो विधुणामि / अह णं तुम्भे रयणद्दीवदेवयाए एयमह्र णो आढाह, णो परियाणह, णो अवेक्खह, तो भे रयणद्दोवदेवयाहत्याओ साहत्थि णित्यारेमि / ' . Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : माकन्दी1 [ 299 जिसका समय समीप आया है और साक्षात् प्राप्त हुआ है ऐसे शैलक यक्ष ने कहा--'किसे तारू, किसे पालू ?' तब माकन्दीपुत्रों ने खड़े होकर और हाथ जोड़कर (मस्तक पर अंजलि घुमा कर) कहा'हमें तारिए, हमें पालिए / ' ___ तब शैलक यक्ष ने माकन्दोपुत्रों से कहा-'देवानुप्रियो ! तुम मेरे साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच गमन करोगे, तब वह पापिनी, चण्डा, रुद्रा, क्षुद्रा और साहसिका रत्नद्वीप की देवी तुम्हें कठोर, कोमल, अनुकूल, प्रतिकूल शृगारमय और मोहजनक उपसर्गों से उपसर्ग करेगी-डिगाने का प्रयत्न करेगी / हे देवानुप्रियो ! अगर तुम रत्नद्वीप की देवी के उस अर्थ का आदर करोगे, उसे अंगीकार करोगे या अपेक्षा करोगे, तो मैं तुम्हें अपनी पीठ से नीचे गिरा दूंगा। और यदि तुम रत्नद्वीप की देवता के उस अर्थ का आदर न करोगे, अंगीकार न करोगे और अपेक्षा न करोगे तो मैं अपने हाथ से, रत्नद्वीप की देवी से तुम्हारा निस्तार कर दूंगा।' ४०-तए णं ते मागंदियदारया सेलग जक्खं एवं वयासी-जं णं देवाणुप्पिया ! वइस्संति तस्स णं उववायवयणणिद्देसे चिट्ठिस्सामो।' तब माकन्दोपुत्रों ने शैलक यक्ष से कहा-'देवानुप्रिय ! आप जो कहेंगे, हम उसके उपपातसेवन, वचन-पादेश और निर्देश में रहेंगे। अर्थात् हम सेवक की भाँति आपकी आज्ञा का पालन करेंगे / ' छुटकारा ४१-तए णं से सेलए जक्खे उत्तरपुरच्छिम दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणइ, समोहणित्ता संखेज्जाइं जोयणाई दंडं निस्सरइ, दोच्चं पि तच्चं पि वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणइ, समोहणित्ता एगं महं आसरूवं विउब्बइ। विउवित्ता ते मागंदियदारए एवं वयासी-'हं भो मागंदियदारया ! आरह गं देवाणुप्पिया ! मम पिट्ठसि / ' तत्पश्चात् शैलक यक्ष उत्तर-पूर्व दिशा में गया। वहाँ जाकर उसने वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का दंड किया। दूसरी बार और तीसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात से विक्रिया की। समुद्घात करके एक बड़े अश्व के रूप की विक्रिया को और फिर माकन्दीपुत्रों से इस प्रकार कहा - 'हे माकन्दीपुत्रो ! देवानुप्रियो ! मेरी पीठ पर चढ़ जायो।' ४२-तए णं से मागंदियदारया हट्ठतुट्ठा सेलगस्स जक्खस्स पणामं करेंति, करित्ता सेलगस्स पिट्टि दुरूढा। तए णं से सेलए ते मागंदियदारए पिट्टि दुरुढे जाणित्ता सत्तटुतालप्पमाणमेत्ताई उड्ढे वेहायं उप्पयइ, उप्पइत्ता य ताए उक्किट्ठाए तुरियाए देवयाए देवगईए लवणसमुई मज्झमझेणं जेणेव जंबुद्दोवे दीवे, जेणेव भारहे वासे, जेणेव चंपानयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। १-पाठान्तर–पढें / Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तब माकन्दोपुत्रों ने हर्षित और सन्तुष्ट होकर शैलक यक्ष को प्रणाम किया। प्रणाम करके वे शैलक की पीठ पर आरूढ हो गये। तत्पश्चात् अश्वरूपधारी शैलक यक्ष माकन्दीपुत्रों को पीठ पर आरूढ हुआ जान कर सातआठ ताड़ के बराबर ऊँचा आकाश में उड़ा / उड़कर उत्कृष्ट, शीघ्रता वाली देव संबंधी दिव्य गति से लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जिधर जम्बूद्वीप था, भरतक्षेत्र था और जिधर चम्पानगरी थी, उसी ओर रवाना हो गया / ४३-तए णं सा रयणद्दीवदेवया लवणसमुई तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टइ, जं जत्थ तणं वा जाव एडइ, एडित्ता जेणेव पासायव.सए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते मागंदियदारया पासायवडेंसए अपासमाणो जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे जाव सम्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करित्ता तेसि मागंदियदारगाणं कत्थइ सुई वा (खुहं वा पत्ति वा) अलभमाणी जेणेव उत्तरिल्ले वणसंडे, एवं चेव पच्चस्थिमिल्ले वि जाव अपासमाणी ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ते मागंदियदारए सेलएणं सद्धि लवणसमुई मज्झंमज्झेणं वीइवयमाणे वीइवयमाणे पासइ, पासित्ता आसुरुत्ता असिखेडगं गेण्हइ, गेण्हित्ता सत्तट्ट जाव उप्पयइ, उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए जेणेव मागंदियदारगा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता एवं बयासी तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने लवणसमुद्र के चारों तरफ इक्कीस चक्कर लगाकर, उसमें जो कुछ भी तृण आदि कचरा था, वह सब यावत् दूर किया। दूर करके अपने उत्तम प्रासाद में आई / आकर माकन्दीपुत्रों को उत्तम प्रासाद में न देख कर पूर्व दिशा के बनखण्ड में गई / वहाँ सब जगह उसने मार्गणा- गवेषणा की। गवेषणा करने पर उन माकन्दीपुत्रों की कहीं भी श्रुति, आदि-~ आवाज, छींक एवं प्रवृत्ति न पाती हुई उत्तर दिशा के वनखण्ड में गई। इसी प्रकार पश्चिम के वनखण्ड में भी गई, पर वे कहीं दिखाई न दिये। तब उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। प्रयोग करके उसने माकन्दीपुत्रों को शैलक के साथ लवणसमुद्र के बीचों-बीच होकर चले जाते देखा / देखते हो वह तत्काल क्रुद्ध हुई। उसने ढाल-तलवार ली और सात-पाठ ताड़ जितनी ऊँचाई पर आकाश में उड़कर उत्कृष्ट एवं शीघ्र गति करके जहाँ माकन्दीपुत्र थे वहाँ आई / आकर इस प्रकार कहने लगी-- ४४-'हं भो मागंदियदारगा! अपत्थियपत्थिया! कि गं तुम्भे जाणह ममं विप्पजहाय सेलएणं जक्खेणं सद्धि लवणसमुदं मझमझेणं वोईवयमाणा ? तं एवमवि गए जइ णं तुब्भे ममं अवयक्खह तो भे अस्थि जीवियं, अण्णं णावयक्खह तो भे इमेण नीलुप्पलगवल० जाव एडेमि / 'अरे माकन्दी के पूत्रो! अरे मौत की कामना करने वालो ! क्या तुम समझते हो कि मेरा त्याग करके, शैलक यक्ष के साथ, लवणसमुद्र के मध्य में होकर तुम चले जाओगे ? इतने चले जाने पर भी (इतना होने पर भी) अगर तुम मेरी अपेक्षा रखते हो तो तुम जीवित रहोगे, और यदि तुम मेरी अपेक्षा न रखते होतो तो इस नील कमल एवं भैंस के सोंग जैसी काली तलवार से यावत् तुम्हारा मस्तक काट कर फेंक दूंगी। ४५--तए णं ते मागंदियदारए रयणद्दीवदेवयाए अंतिए एयमह्र सोच्चा णिसम्म अभीया Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : माकन्दी] [ 301 अतत्था अणुव्विग्गा अक्खभिया असंभंता रयणद्दीवदेवयाए एयमद्वं नो आदति, नो परियाणंति, नो अवेक्खंति, अणाढायमागा अपरियाणमाणा अणवेक्खमाणा सेलएण जक्खेण सद्धि लवणसमुई मज्झंमज्झेणं वीइवयंति। उस समय वे माकन्दीपुत्र रत्नद्वीप की देवी के इस कथन को सुनकर और हृदय में धारण करके भयभीत नहीं हुए, त्रास को प्राप्त नहीं हुए, उद्विग्न नहीं हुए, संभ्रान्त नहीं हुए। अतएव उन्होंने रत्नद्वीप की देवी के इस अर्थ का आदर नहीं किया, उसे अंगीकार नहीं किया, उसकी पर्वाह नहीं की। वे अादर न करते हुए शैलक यक्ष के साथ लवणसमुद्र के मध्य में होकर चले जाने लगे। विवेचन-शैलक यक्ष ने माकंदीपुत्रों को पहले ही समझा दिया था कि रत्नदेवी के कठोरकोमल वचनों उसकी धमकियों या ललचाने वाली बातों पर ध्यान न देना, परवाह न करना अतएव वे उसकी धमकी सुनकर भी निर्भय रहे / ४६---तए णं सा रयणद्दीवदेवया ते मागंदिया जाहे नो संचाएइ बहूहि पडिलोमेहि य उवसग्गेहि य चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा लोभित्तए वा ताहे महुरेहि सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहि य उवसग्गेउं पयत्ता यावि होत्था ह भो मागंदियदारगा! जइ णं तुभेहि देवाणुप्पिया ! मए सद्धि हसियाणि य, रमियाणि य, ललियाणि य, कीलियाणि य, हिडियाणि य, मोहियाणि य, ताहे णं तुम्भे सव्वाइं अगणेमाणा ममं विप्पजहाय सेलएणं सद्धि लवणसमुई मज्झमज्झेणं वीइवयह ?' तत्पश्चात् वह रत्नद्वीप की देवी जब उन माकंदीपुत्रों को बहुत-से प्रतिकूल उपसर्गों द्वारा चलित करने, क्षुब्ध करने, पलटने और लुभाने में समर्थ न हुई, तब अपने मधुर शृगारमय और अनुराग-जनक अनुकूल उपसर्गों से उन पर उपसर्ग करने में प्रवृत्त हुई। देवी कहने लगी—'हे माकंदीपुत्रो ! हे देवानुप्रियो ! तुमने मेरे साथ हास्य किया है, चौपड़ ग्रादि खेल खेले हैं. मनोवांछित क्रीडा की है. क्रीडित मला आदि झल कर मनोरं उद्यान आदि में भ्रमण किया है और रतिक्रीडा की है। इन सब को कुछ भी न गिनते हुए, मुझे छोड़कर तुम शैलक यक्ष के साथ लवणसमुद्र के मध्य में होकर जा रहे हो ?' ४७-तए णं सा रयणदीवदेवया जिणरक्खियस्स मणं ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता एवं वयासी—'णिच्चं पि य णं अहं जिनपालियस्स अणिट्ठा, अकंता, अप्पिया, अमणुण्णा, अमणामा, णिच्चं मम जिणपालिए अणिठे अकते, अप्पिए, अमणुष्णे, अमणामे / णिच्चं पि य णं अहं जिणरक्खियस्स इट्ठा, कता, पिया, मणुण्णा, मणामा, णिच्चं पि य णं ममं जिणरक्खिए इठे कंते, पिए, मणुण्णे, मणामे / जइ णं मम जिणयालिए रोयमाणि कंदमाणि सोयमाणि तिप्पमाणि विलक्माणि णावयक्खइ, कि णं तुम जिणरक्खिया! ममं रोयमाणि जाव णावयक्खसि ?' तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने जिनरक्षित का मन अवधिज्ञान से (कुछ शिथिल) देखा। यह देखकर वह इस प्रकार कहने लगी---मैं सदैव जिनपालित के लिए अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम थी और जिनपालित मेरे लिए अनिष्ट, अकान्त आदि था, परन्तु जिनरक्षित को तो मैं सदैव इष्ट, कान्त, प्रिय आदि थी और जिनरक्षित मुझे भी इष्ट, कान्त, प्रिय प्रादि था / अतएव Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 ] [ ज्ञाताधर्मकथा जिनपालित यदि रोती, प्राक्रन्दन करती, शोक करती, अनुताप करती और विलाप करती हुई मेरी परवाह नहीं करता, तो हे जिनरक्षित ! तुम भी मुझ रोती हुई की यावत् परवाह नहीं करते ?' ४८-तए णं सा पवररयणदीवस्स देवया ओहिणा उ जिनरक्खियस्स मणं / नाऊण बनिमित्तं उवरि मार्गदियदारयाणं दोण्हं पि // 1 // तत्पश्चात्---उत्तम रत्नद्वीप की वह देवी अवधिज्ञान द्वारा जिनरक्षित का मन जानकर, दोनों माकंदीपुत्रों के प्रति, उनका वध करने के निमित्त (कपट से इस प्रकार बोली / ) ४९-दोसकलिया सलीलयं, णाणाविहचुण्णवासमीसियं दिव्वं / घाणमणणिन्वुइकरं सयोउयसुरभिकुसुमबुद्धि पमुचमाणी // 2 // द्वेष से युक्त वह देवी लीला सहित, विविध प्रकार के चर्णवास से मिश्रित, दिव्य, नासिका और मन को तृप्ति देने वाले और सर्व ऋतुओं सम्बन्धी सुगंधित फूलों की वृष्टि करती हुई (बोली) // 2 // ५०–णाणामणि-कणग-रयण-घंटिय-खिखिणि-णेउर-मेहल-भूसणरवेणं / दिसाओ विदिसाओ पूरयंती वयणमिणं बेति सा सकलुसा // 3 // नाना प्रकार के मणि, सुवर्ण और रत्नों की घंटियों, घुघरुओं, नपुरों और मेखला-इन सब प्राभूषणों के शब्दों से समस्त दिशाओं और विदिशाओं को व्याप्त करती हुई, वह पापिनी देवी इस प्रकार कहने लगी 113 // ५१-होल वसुल गोल णाह दइत, पिय रमण कंत सामिय णिग्घण णित्थक्क / छिण्ण निक्किव अकयण्णुय सिढिलभाव निल्लज्ज लुक्ख, अकलुण जिणरक्खिय ! मज्झं हिययरक्खगा // 4 // हे हील! वसुल, गोल' हे नाथ ! हे दयित ( प्यारे ! ) हे प्रिय ! हे रमण ! हे कान्त (मनोहर) ! हे स्वामिन् (अधिपति) ! हे निघुण ! (मुझ स्नेहवती का त्याग करने के कारण निर्दय ! हे नित्थक्क (अकस्मात् मेरा परित्याग करने के कारण अवसर को न जानने वाले) ! हे स्त्यान (मेरे हादिक राग से भी तेरा हृदय पार्द्र न हुआ, अतएव कठोर हृदय)! हे निष्कृप (दयाहीन) ! हे अकृतज्ञ ! शिथिल भाव (अकस्मात् मेरा त्याग कर देने के कारण ढीले मन वाले) ! हे निर्लज्ज (मुझे स्वीकार करके त्याग देने के कारण लज्जाहीन)! हे रूक्ष (स्नेहहीन हृदय वाले) ! हे करुण ! जिनरक्षित ! हे मेरे हृदय के रक्षक (वियोग व्यथा से फटते हुए हृदय को फिर अंगीकार करके बचाने वाले) !' // 4 // 1. इन तीन शब्दों का निन्दा-स्तुति गभित अर्थ होता है। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : माकन्दी] [ 303 ५२-न हु जुज्जसि एक्कियं अणाहं, अबंधवं तुज्झ चलणओवायकारियं उज्झिउमहण्णं / गुणसंकर ! अहं तुमे विहूणा, ण समत्था वि जीविउं खणं पि // 5 // 'मुझ अकेली, अनाथ, बान्धवहीन, तुम्हारे चरणों की सेवा करने वाली और अधन्या (हतभागिनी) को त्याग देना तुम्हारे लिए योग्य नहीं है / हे गुणों के समूह ! तुम्हारे बिना मैं क्षण भर भी जीवित रहने में समर्थ नहीं हूँ' / / 5 / / ५३-इमस्स उ अणेगझस-मगर-विविधसावय सयाउलघरस्स रयणागरस्स मज्झे / अप्पाणं वहेमि तुज्झ पुरओ एहि, णियत्ताहि जइ सि कुविओ खमाहि एक्कावराह मे // 6 // 'अनेक सैकड़ों मत्स्य मगर और विविध क्षुद्र जलचर प्राणियों से व्याप्त गृह रूप या मत्स्य आदि के घर-स्वरूप इस रत्नाकार के मध्य में तुम्हारे सामने मैं अपना वध करती हूँ। (अगर तुम ऐसा नहीं चाहते हो तो) प्रायो, वापिस लौट चलो। अगर तुम कुपित हो गये होनो तो मेरा एक अपराध क्षमा करो' / / 6 / / ५४–तुज्झ य विगयघणविमलससिमंडलगारसस्सिरीयं, सारयनवकमल-कुमुदकुवलयविमलदलनिकरसरिसनिभं / नयणं (निभनयणं) क्यणं पिवासागयाए सद्धा मे पेच्छिउं जे अवलोएहि, ता इओ ममं णाह जा ते पेच्छामि वयणकमलं // 7 // 'तुम्हारा मुख मेघ-विहीन विमल चन्द्रमा के समान है / तुम्हारे नेत्र शरऋतु के सद्यः विकसित कमल (सूर्यविकासी), कुमुद (चन्द्रविकासी) और कुवलय (नील कमल) के पत्तों के समान अत्यन्त शोभायमान हैं / ऐसे नेत्र वाले तुम्हारे मुख के दर्शन की प्यास (इच्छा) से मैं यहाँ आई हूँ। तुम्हारे मुख को देखने की मेरी अभिलाषा है / हे नाथ ! तुम इस ओर मुझे देखो, जिससे मैं तुम्हारा मुख-कमल देख लू” // 7 // ५५-एवं सप्पणयसरलमहुराई पुणो पुणो कलुणाई। वयणाई जंपमाणी सा पावा मग्गओ समण्णेइ पावहियया // 5 // इस प्रकार प्रेमपूर्ण, सरल और मधुर वचन बार-बार बोलती हुई वह पापिनी और पापपूर्ण हृदय वाली देवी मार्ग में पीछे-पीछे चलने लगी / / 8 / / ५६–तए णं से जिणरक्खिए चलमणे तेणेव भूसणरवेणं कण्णसुह-मणोहरेणं तेहि य सप्पणयसरल-महुर-भणिएहि संजायविउणराए रयणदीवस्स देवयाए तीसे सुंदरथण-जहण-वयण-कर-चरणनयण-लावण्ण-रूव-जोव्वणसिरिं च दिव्वं सरभ-सउवगहियाइं जाइं विब्बोय-विलसियाणि य विहसिय Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 ] [ ज्ञाताधर्मकथा सकडक्ख-दिद्वि-निस्ससिय-मलिय-उवललिय-ठिय-गमण-पणय-खिज्जिय-पासादियाणि य सरमाणे रागमोहियमई अवसे कम्मवसगए अवयक्खइ मग्गओ सविलियं / तत्पश्चात् कानों को सुख देने वाले और मन को हरण करने वाले प्राभूषणों के शब्द से तथा उन पूर्वोक्त प्रणययुक्त, सरल और मधुर वचनों से जिनरक्षित का मन चलायमान हो गया। उसे पहले की अपेक्षा उस पर दुगना राग उत्पन्न हो गया / वह रत्नद्वीप की देवी के सुन्दर स्तन, जधन, मुख, हाथ, पैर और नेत्र के लावण्य की, रूप (शरीर के सौन्दर्य) की और यौवन की लक्ष्मी (शोभासुन्दरता) को स्मरण करने लगा। उसके द्वारा हर्ष या उतावली के साथ किये गये आलिंगनों को, विब्बोकों (चेष्टानों) को, विलासों (नेत्र के विकारों) को, विहसित (मुस्कराहट) को, कटाक्षों को, कामक्रीडाजनित निःश्वासों को, स्त्री के इच्छित अंग के मर्दन को, उपललित (विशेष प्रकार को क्रीडा) को, स्थित (गोद में या भवन में बैठने) को, गति को, प्रणय-कोप को तथा प्रसादित (कुपित को रिझाने) को स्मरण करते हुए जिनरक्षित की मति राग से मोहित हो गई। वह विवश हो गया--अपने पर सका, कर्म के अधीन हो गया और वह लज्जा के साथ पीछे की ओर उसके मुख की तरफ देखने लगा। ५७-तए णं जिणरक्खियं समुप्पन्नकलुणभावं मच्च-गलथल्ल-जोल्लियमई अवयक्खंतं तहेव जक्खे उ सेलए जाणिऊण सणियं सणियं उम्विहइ नियगपिट्टाहि विगयसत्थं / तत्पश्चात् जिनरक्षित को देवी पर अनुराग उत्पन्न हुआ, अतएव मत्यु रूपी राक्षस ने उसके गले में हाथ डालकर उसकी मति फेर दी, अर्थात् उसकी बुद्धि मृत्यु की तरफ जाने की हो गई / उसने देवी की ओर देखा, यह बात शैलक यक्ष ने अवधिज्ञान से जान ली और (चित्त की) स्वस्थता से रहित उसको धीरे-धीरे अपनी पीठ से गिरा दिया। विवेचन-देवी ने जिनपालित और जिनरक्षित को पहले कठोर वचनों से और फिर कोमललुभावने वचनों से अपने अनुकूल करने का यत्न किया। कठोर वचन प्रतिकूल उपसर्ग के और कोमल वचन अनुकूल उपसर्ग के द्योतक हैं / कथानक से स्पष्ट है कि मनुष्य प्रतिकूल उपसर्गों को तो प्रायः सरलता से सहन कर लेता है किन्तु अनुकूल उपसर्गों को सहन करना अत्यन्त दुष्कर है। जिनपालित की भाँति दृढमनस्क साधक दोनों प्रकार के उपसर्गों के उपस्थित होने पर भी अपनी प्रतिज्ञा पर अचल-अटल रहते हैं, किन्तु अल्पसत्त्व साधक अनुकूल उपसर्गों के आने पर जिनरक्षित की तरह भ्रष्ट हो जाते हैं। अतएव साधक को अनुकल उपसर्गों को अतिदुस्सह समझकर उनसे अधिक सतर्क रहना चाहिए। रत्नद्वीप की देवी सम्पूर्ण रूप से विषयान्ध थी। उसके दिल में सार्थवाहपुत्रों के प्रति प्रेमममता की भावना नहीं थी, वह उन्हें मात्र वासनातृप्ति का साधन मानती थी। इससे स्पष्ट है कि वैषयिक अनुराग का सर्वस्व मात्र स्वार्थ है। इसमें दया-ममता नहीं होती, अन्यथा वह जिनरक्षित के. जैसा कि आगे निरूपण किया गया है, तलवार से टकडे-टकडे क्यों करती? उसकी स्वार्थान्धता और क्रूरता इन और अगले पाठ से स्पष्ट हो जाती है / विषयवासना की अनर्थकारिता का यह स्पष्ट उदाहरण है। 1. पाठान्तर-विगयसहो। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : माकन्दी ] [ 305 ५८–तए णं सा रयणदीवदेवया निस्संसा कलुणं जिणरक्खियं सकलुसा सेलगपिट्ठाहि उवयंतं 'दास ! मओसि' त्ति जंपमाणी, अप्पत्तं सागरसलिलं, गेण्हिय बाहाहि आरसंतं उड्ढं उविहइ अंबरतले, ओवयमाणं च मंडलग्गेण पडिच्छित्ता नीलुप्पल-गवल-अयसिप्पगासेण असिवरेणं खंडाखंडि करेइ, करित्ता तत्थ विलवमाणं तस्स य सरसवाहियस्स घेत्तूण अंगमंगाई सरुहिराई उक्खित्तबलि चउद्दिसि करेइ सा पंजली पहिट्ठा। / तत्पश्चात् उस निर्दय और पापिनी रत्नद्वीप की देवी ने दयनीय जिनरक्षित को शैलक की पीठ से गिरता देख कर कहा-'रे दास ! तू मरा।' इस प्रकार कह कर, समुद्र के जल तक पहुंचने से पहले ही, दोनों हाथों से पकड़ कर, चिल्लाते हुए जिन रक्षित को ऊपर उछाला। जब वह नीचे की ओर आने लगा तो उसे तलवार की नोक पर झेल लिया / नील कमल, भैस के सींग और अलसी के फूल के समान श्याम रंग की श्रेष्ठ तलवार से विलाप करते हुए उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। टुकड़े-टुकड़े करके अभिमान-रस से वध किये हुए जिनरक्षित के रुधिर से व्याप्त अंगोपागों को ग्रहण करके, दोनों हाथों की अंजलि करके, हर्षित होकर उसने उत्क्षिप्त-बलि अर्थात् देवता को उद्देश्य करके आकाश में फैकी हुई बलि की तरह, चारों दिशाओं को बलिदान किया। ५९--एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निगंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसायइ, पत्थयइ, पोहेइ, अभिलसइ, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं. सावियाणं जाव' संसारं अणुपरियट्टिस्सइ, जहा वा से जिणरक्खिए। छलिओ अवयक्खंतो, निरावयक्खो गओ अविग्घेणं / तम्हा पक्यणसारे, निरावयक्षेण भवियव्वं // 1 // भोगे अवयक्खंता, पडंति संसार-सायरे घोरे। भोगेहि निरवयक्खा, तरंति संसारकंतारं // 2 // इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो हमारे निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी प्राचार्य-उपाध्याय के समीप प्रवजित होकर, फिर से मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आश्रय लेता है, याचना करता है, स्पृहा करता है अर्थात् कोई बिना मांगे कामभोग के पदार्थ दे दे, ऐसी अभिलाषा करता है, या दृष्ट अथवा अदृष्ट शब्दादिक के भोग की इच्छा करता है, वह मनुष्य इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुतसी साध्वियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं द्वारा निन्दनीय होता है, यावत् अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है / उसकी दशा जिनरक्षित जैसी होती है। पीछे देखने वाला जिनरक्षित छला गया और पीछे नहीं देखने वाला जिनपाल निर्विघ्न अपने स्थान पर पहुँच गया। अतएव प्रवचनसार (चारित्र) में आसक्तिरहित होना चाहिए, अर्थात् चारित्रवान् को अनासक्त रह कर चारित्र का पालन करना चाहिए / / 1 / / 1. तृतीय श्र. सूत्र 13 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 ] [ ज्ञाताधर्मकथा चारित्र ग्रहण करके भी जो भोगों की इच्छा करते हैं, वे घोर संसार-सागर में गिरते हैं और जो भोगों की इच्छा नहीं करते, वे संसार रूपी कान्तार को पार कर जाते हैं // 2 // ६०-तए णं सा रयणद्दीवदेवया जेणेव जिणपालिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहूहि अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य खर-महर-सिंगारेहि कलुणेहि य उवसग्गेहि य जाहे नो संचाएइ चालित्तए वा खोभित्तए वा विष्परिणामित्तए वा, ताहे संता तंता परितंता निविण्णा समाणा जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। तत्पश्चात् वह रत्नद्वीप की देवी जिनपालित के पास आई। आकर बहुत-से अनुकूल, प्रतिकूल, कठोर, मधुर, शृगार वाले और करुणाजनक उपसर्गों द्वारा जब उसे चलायमान करने, क्षुब्ध करने एवं मन को पलटने में असमर्थ रही, तब वह मन से थक गई, शरीर से थक गई, पूरी तरह ग्लानि को प्राप्त हुई और अतिशय खिन्न हो गई। तब वह जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई। ६१-तए णं से सेलए जक्खे जिणपालिएणं सद्धि लवणसमुई मज्झं-मज्झेणं वीईवयइ, बोईवइत्ता जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चपाए नयरीए अग्गुज्जाणंसि जिणपालियं पिट्ठाओ ओयारेइ, ओयारित्ता एवं वयासी 'एस णं देवाणुप्पिया ! चंपा नयरी दोसइ' त्ति कटु जिणपालियं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता जामेव दिसि पाउब्भूए तामेव दिसि पडिगए। ___ तत्पश्चात् वह शैलक यक्ष, जिनपालित के साथ, लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर चलता रहा / चल कर जहाँ चम्पा नगरी थी, वहाँ अाया। आकर चम्पा नगरी के बाहर श्रेष्ठ उद्यान में जिनपालित को अपनी पीठ से नीचे उतारा। उतार कर उसने इस प्रकार कहा-'हे देवानृप्रिय ! देखो, यह चम्पा नगरी दिखाई देती है। यह कह कर उसने जिनपालित से छुट्टी ली। छुट्टी लेकर जिधर से आया था, उधर ही लौट गया। ६२-तए णं जिणपालिए चंपं अणुपविसइ, णणुपविसित्ता जेणेव सए गिहे, जेणेव अम्मापियरो, तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं रोयमाणे जाव' विलवमाणे जिणरक्खियवात्ति निवेदेइ / तए णं जिणपालिए अम्मापियरो मित्तणाइ जाव परियणेणं सद्धि रोयमाणा बहूई लोइयाई मय किच्चाई करेन्ति, करित्ता कालेणं विगयसोया जाया। तदनन्तर जिनपालित ने चम्पा में प्रवेश किया और जहाँ अपना घर तथा माता-पिता थे वहाँ पहुँचा / पहुँच कर उसने रोते-रोते और विलाप करते-करते जिनरक्षित की मृत्यु का समाचार सुनाया। तत्पश्चात् जिनपालित ने और उसके माता-पिता ने मित्र, ज्ञाति, स्वजन यावत् परिवार के 1. नवम अ. 47 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : माकन्दी ] {307 साथ रोते-रोते (जिनरक्षित संबंधी) बहुत से लौकिक मृतककृत्य किये। मृतककृत्य करके वे कुछ समय बाद शोक रहित हुए। ६३--तए णं जिणपालियं अन्नया कयाइ सुहासणवरगयं अम्मापियरो एवं वयासी--'कहं णं युत्ता ! जिणरक्खिए कालगए?' तत्पश्चात् एक बार किसी समय सुखासन पर बैठे जिनपालित से उसके माता-पिता ने इस प्रकार प्रश्न किया---'हे पुत्र ! जिनरक्षित किस प्रकार कालधर्म (मृत्यु) को प्राप्त हुआ ?' ६४-तए णं जिणपालिए अम्मापिऊणं लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवाय-समुत्थणं च पोयवहणवित्ति च फलगखंडआसायणं च रयणदीवुत्तारं च रयणदीवदेवयागिह' च भोगविभूई च रयणदीवदेवयाघायणं च सूलाइयपुरिसदरिसणं च सेलगजक्खआरहणं च रयणदीवदेवयाउवसग्गं च जिगरक्खियवित्ति च लवणसमुद्दउत्तरणं च चंपागमणं च सेलगजक्खआपुच्छणं च जहाभूयमवितहमसंदिद्धं परिकहेइ। __ तब जिनपालित ने माता-पिता से अपना लवणसमुद्र में प्रवेश करना, तूफानी हवा का उठना, पोतवहन का नष्ट होना, पटिया का टुकड़ा मिलना, रत्नद्वीप में जाना, रत्नद्वीप की देवी के घर जाना, वहाँ के भोगों का वैभव, रत्नद्वीप की देवी के वधस्थान पर जाना, शूली पर चढ़े पुरुष को देखना, शैलक यक्ष की पीठ पर आरूढ होना, रत्नद्वीप की देवी द्वारा उपसर्ग होना, जिनरक्षित का मरण होना, लवणसमुद्र को पार करना, चम्पा में आना और शैलक यक्ष के द्वारा छुट्टी लेना, ग्रादि सर्व वृत्तान्त ज्यों का त्यों, सच्चा और असंदिग्ध कह सुनाया। ६५–तए णं जिणपालिए जाव अप्पसोगे जाव विउलाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ। तब जिनपालित यावत् शोकरहित होकर यावत् विपुल कामभोग भोगता हुअा रहने लगा / ६६-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव समोसढे / परिसा निग्गया। कृणिओ वि राया निग्गओ। जिणपालिए धम्म सोच्चा पन्यइए / एक्कारसअंगविऊ, मासिएणं भत्तेणं जाव सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने, दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, जाव महाविदेहे सिज्झिहिइ / उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पधारे / भगवान् को बन्दना करने के लिए परिषद् निकली / कूणिक राजा भी निकला / जिनपालित ने धर्मोपदेश श्रवण करके दीक्षा अंगीकार की। क्रमशः ग्यारह अंगों का ज्ञाता होकर, अन्त में एक मास का अनशन करके यावत् सौधर्म कल्प में देव के रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ दो सागरोपम की उसकी स्थिति कही गई है। वहाँ से च्यवन करके यावत् महा-विदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धि प्राप्त करेगा। 1. पाठान्तर-गिण्हणं / 2. पाठान्तर-देवधाप्पाहणं / Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 ] [ ज्ञाताधर्मकथा ६७--एवामेव समणाउसो ! जाव माणुस्सए कामभोगे जो पुणरवि आसाइ, से णं जाव वोइवइस्सइ, जहा वा से जिणपालिए / इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! प्राचार्य-उपाध्याय के समीप दीक्षित होकर जो साधु या साध्वो मनुष्य संबंधी कामभोगों की पुनः अभिलाषा नहीं करता, वह जिनपालित की भाँति यावत् संसार-समुद्र को पार करेगा। ६८-एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं नवमस्स नायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते त्ति बेमि॥ इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने नौवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ प्ररूपण किया है। जैसा मैंने सुना है, उसी प्रकार तुमसे कहता हूँ / (ऐसा सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी से कहा / ) नववाँ अध्ययन समाप्त / / Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन : चन्द्र सार संक्षेप प्रस्तुत अध्ययन में कोई कथा-प्रसंग वणित नहीं है, केवल चन्द्रिका के ज्ञात-उदाहरण से जीवों के विकास और ह्रास का अथवा उत्थान और पतन का बोध कराया गया है। राजगृह नगर भगवान् महावीर की पावन चरण-रज से अनेकों बार पवित्र हुआ। एक बार गौतम स्वामी ने भगवान् के वहाँ पदार्पण करने पर प्रश्न किया 'कहाणं भंते ! जीवा वड्ढंति हायति वा ?' —'भंते ! जीव किस कारण से वृद्धि अथवा हानि को प्राप्त होते हैं ?' भगवान् ने सामान्य जनों को भी हृदयंगम हो सके, ऐसी पद्धति अपना कर चन्द्र--- चन्द्र की वद्धि-हानि का उदाहरण देकर इस प्रश्न का उत्तर दिया। कहा---'गौतम ! जैसे कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का चन्द्रमा, पूर्णिमा के चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण, सौम्यता, स्निग्धता, कान्ति, दीप्ति, प्रभा, लेश्या और मंडल की दष्टि से हीन होता है, और फिर द्वितीय, तृतीया आदि तिथियों में हीनतर-हीनतर ही होता चला जाता है। पक्ष के अन्त में अमावस्या के दिन पूर्ण रूप से विलीन-नष्ट-गायब हो जाता है। इसी प्रकार जो अनगार आचार्य या उपाध्याय के निकट गृहत्याग कर अकिंचन अनगार बनता है, वह यदि क्षमा, मार्दव, आर्जव, ब्रह्मचर्य प्रभृति मुनिधर्मों से हीन हो जाता है और फिर होनतर-हीनतर ही होता चला जाता है-अनुक्रम से पतन की ओर ही बढ़ता जाता है तब अन्त में वह अमावस्या के चन्द्र के समान पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है। विकास अथवा वृद्धि का कारण ठीक इससे विपरीत होता है / जैसे शुक्लपक्ष की प्रतिपद का चन्द्र, अमावस्या के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण, कान्ति, प्रभा, सौम्यता स्निग्धता आदि की दृष्टि से अधिक होता है और फिर द्वितीय, तृतीया आदि तिथियों में अनुक्रम से बढ़ता जाता है। पूर्णिमा के दिन अपनी समग्र कलाओं से उद्भासित हो जाता है, मण्डल से भी परिपूर्णता प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार जो साधु प्रव्रज्या अंगीकार करके क्षमा, मृदुता, ऋजुता, ब्रह्मचर्य प्रादि गुणों का क्रम से विकास करता जाता है, वह अन्त में पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति सम्पूर्ण प्रकाशमय बन जाता है, उसको अनन्त ज्योति प्रकट हो जाती है। अध्ययन संक्षिप्त है किन्तु इसमें निहित भाव बहुत गूढ है। श्री गौतम ने सामान्य रूप से जोवों के ह्रास और विकास के विषय में प्रश्न किया है, परन्तु भगवान् ने साधुओं को प्रधान रूप से लक्ष्य करके उत्तर दिया है ! मुनिपरिषद् में जो प्रश्नोत्तर हों उनमें ऐसा होना स्वाभाविक है, इसमें कोई अनौचित्य नहीं / आगम सूत्ररूप हैं किन्तु उनका अर्थ बहुत विशाल होता है। अतएव साधूनों को लक्ष्य करके यहाँ जो कुछ भी कहा गया है, वह गृहस्थों पर भी लागू होता है / Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तात्पर्य यह है कि मानव-जीवन का उत्थान-पतन गुणों और अवगुणों के कारण होता है। प्रारम्भ में कोई अवगुण अत्यन्त अल्प मात्रा में उत्पन्न होता है। मनुष्य उस ओर लक्ष्य नहीं देता या उसको उपेक्षा करता है तो वह अवगुण बढ़ता-बढ़ता अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाता है और जीवन-ज्योति को नष्ट करके उसके भविष्य को घोर अन्धकार से परिपूर्ण बना देता है / इसके विपरीत, यदि सद्गुणों की धोरे-धीरे निरन्तर वृद्धि करने का मनुष्य प्रयास करता रहे तो अन्त में वह गुणों में पूर्णता प्राप्त कर लेता है / अतएव किसी भी अवगुण को उसके उत्पन्न होते ही–वृद्धि पाने से पूर्व ही कुचल देना चाहिए और सद्गुणों के विकास के लिए यत्नशील रहना चाहिए / इस अध्ययन से एक बात और लक्षित होती है। दीक्षा अंगीकार करते हो मुनि शुक्लपक्ष को द्वितीया का चन्द्रमा बनता है। पूर्णिमा का चन्द्र बनने के लिए उसे निरन्तर साधु-गुणों का विकास करते रहना चाहिए। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन : चन्द्र जम्बूस्वामी का प्रश्न १–जइ गं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं णवमस्स नायज्झयणस्स अयम? पण्णते, दसमस्स णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पण्णत्ते ? श्री जम्बूस्वामी श्री सुधर्मास्वामी से प्रश्न करते हैं-'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने नौवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो दसवें ज्ञात-अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?' सुधर्मा का उत्तर २--एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे होत्था / तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए णामं राया होत्था। तस्स णं रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं गुणसोलए णामं चेइए होत्था। श्री सुधर्मास्वामी उत्तर देते हैं—'हे जम्बू ! इस प्रकार निश्चय ही उस काल और समय में राजगृह नामक नगर था / उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था / उस राजगृह नगर के बाहर उत्तर-पूर्वदिशा-ईशानकोण में गुणशील नामक चैत्य-उद्यान था। 3- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुचि चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे, सुहं सुहेणं विहरमाणे, जेणेव गुणसोलए चेइए तेणेव समोसढे / परिसा निग्गया। सेणिओ वि राया निग्गओ / धम्म सोच्चा परिसा पडिगया। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अनुक्रम से विचरते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हुए सुखे-सुखे विहार करते हुए, जहां गुणशील चैत्य था, वहीं पधारे / भगवान् की वन्दना-उपासना करने के लिए परिषद् निकली / श्रेणिक राजा भी निकला / धर्मोपदेश सुन कर परिषद् लौट गई। हानि-वृद्धि संबंधी प्रश्न ४--तए णं गोयमसामी समणं भगवं महावीरं एवं वयासो-कहं णं भंते ! जीवा वड्ढति वा हायंति वा?' तत्पश्चात् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार कहा (प्रश्न किया)"भगवन् ! जीव किस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हैं और किस प्रकार हानि को प्राप्त होते हैं ?' विवेचन-जीव शाश्वत, अनादि और अनन्त हैं, अतएव उनकी संख्या में वृद्धि-हानि नहीं होती। एक-एक जीव असंख्यात-असंख्यात प्रदेशों वाला है / उसके प्रदेशों में भी कभी वृद्धि हानि Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312] [ ज्ञाताधर्मकथा नहीं होती / तथापि गौतम स्वामी ने वृद्धि-हानि के कारणों के संबंध में प्रश्न किया है। अतएव इस प्रश्न का आशय गुणों के विकास और ह्रास से है / जीव के गुणों का विकास ही जीव की वृद्धि और गुणों का ह्रास ही जीव की हानि है / भगवान् का उत्तरहीनता का समाधान ५–गोयमा ! से जहाणामए बहुलपक्खस्स पडिवयाचंदे पुण्णिमाचंदं पणिहाय होणे वण्णेणं होणे सोम्मयाए, होणे निद्धयाए, होणे कंतीए, एवं दित्तीए जुत्तीए छायाए पभाए ओयाए लेस्साए मंडलेणं, तयाणंतरं च णं बीयाचंदे पाडिवयं चंदं पणिहाय होणतराए वष्णेणं जाव मंडलेणं, तयाणंतरं च णं तइयाचंदे बिइयाचंदं पणिहाय होणतराए वण्णेणं जाव मंडलेणं, एवं खलु एएणं कमेणं परिहायमाणे परिहायमाणे जाव अमावस्साचंदे चाउद्दसिचंदं पणिहाय नठे बण्णेणं जाव नठे मंडलेणं / एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पव्वइए समाणे होणे खंतीएएवं मुत्तीए गुत्तीए अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं सच्चेणं तवेणं चियाए अकिंचणयाए बंभचेरवासेणं, तयाणंतरं च णं हीणे होणतराए खंतीए जाव होणतराए बंभचेरवासेणं, एवं खलु एएणं कमेणं परिहीयमाणे परिहीयमाणे णडे खंतीए जाव गट्ठे बंभचेरवासेणं / भगवान् गौतमस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हैं-'हे गौतम ! जैसे कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का चन्द्र, पूर्णिमा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण (शुक्लता) से हीन होता है, सौम्यता से हीन होता है, स्निग्धता (अरूक्षता) से हीन होता है, कान्ति (मनोहरता) से हीन होता है, इसी प्रकार दीप्ति (चमक) से, युक्ति (अाकाश के साथ संयोग) से, छाया (प्रतिबिम्ब या शोभा) से, प्रभा (उदयकाल में कान्ति की स्फुरणा) से, प्रोजस् (दाहशमन आदि करने के सामर्थ्य) से, लेश्या (किरणरूप लेश्या) से और मण्डल (गोलाई) से हीन होता है / इसी प्रकार कृष्णपक्ष की द्वितीया का चन्द्रमा, प्रतिपदा के चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण से हीन होता है यावत् मण्डल से भी हीन होता है / तत्पश्चात् तृतीया का चन्द्र द्वितीया के चन्द्र की अपेक्षा भी वर्ण से हीन यावत् मंडल से हीन होता है / इस प्रकार आगे-मागे इसी क्रम से होन-हीन होता हुआ यावत् अमावस्या का चन्द्र, चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण आदि से सर्वथा नष्ट होता है, यावत् मण्डल से नष्ट होता है, अर्थात् उसमें वर्ण आदि का अभाव हो जाता है। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो हमारा साधु या साध्वी प्रवजित होकर क्षान्ति-क्षमा से हीन होता है, इसी प्रकार मुक्ति (निर्लोभता) से, आर्जव से, मार्दव से, लाधव से, सत्य से, तप से, त्याग से, आकिंचन्य से और ब्रह्मचर्य से, अर्थात् दस मुनिधर्मों से हीन होता है, वह उसके पश्चात् क्षान्ति से हीन और अधिक हीन होता जाता है, यावत् ब्रह्मचर्य से भी हीन अतिहीन होता जाता है / इस प्रकार इसी क्रम से हीन-हीनतर होते हुए उसके क्षमा आदि गुण नष्ट हो जाते हैं, यावत् उसका ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है / बद्धि का समाधान ६-से जहा वा सुक्कपक्खस्स पाडिवयाचंदे अमावासाए चंदं पणिहाय अहिए वणेणं जाव अहिए मंडलेणं, Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां अध्ययन : चन्द्र ] [ 313 तयाणंतरं च णं बिइयाचंदे पडिवयाचंदं पणिहाय अहिययराए बण्णेणं जाव अहियतराए मंडलेणं / एवं खलु एएणं कमेणं परिवुड्ढेमाणे जाव पुण्णिमाचंदे चाउसि चंदं पणिहाय पडिपुण्णे वण्णेणं जाव पडिपुण्णे मंडलेणं / ____ एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे अहिए खंतीए जाव बंभचेरवासेणं, तयाणंतरं च णं अहिययराए खंतीए जाव बंभचेरवासेणं / एवं खलु एएणं कमेणं परिवड्ढेमाणे पडिवड्ढेमाणे जाव पडिपुण्णे बंभचेरवासेणं, एवं खलु जीवा वड्ढंति वा हायंति वा / जैसे शुक्लपक्ष की प्रतिपक्ष का चन्द्र अमावस्या के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण यावत् मंडल से अधिक होता है / तदनन्तर द्वितीया का चन्द्र प्रतिपक्ष के चन्द्र को अपेक्षा वर्ण यावत् मंडल से अधिकतर होता है और इसी क्रम से वृद्धिंगत होता हुआ पूर्णिमा का चन्द्र चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा परिपूर्ण वर्ण यावत् परिपूर्ण मंडल वाला होता है / इसी प्रकार हे प्रायुष्मन् श्रमणो ! जो हमारा साधु या साध्वी यावत् प्राचार्य-उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर क्षमा से अधिक वृद्धि प्राप्त होता है, यावत् ब्रह्मचर्य से अधिक होता है, तत्पश्चात् वह क्षमा से यावत् ब्रह्मचर्य से और अधिक-अधिक होता जाता है। निश्चय ही इस क्रम से बढ़ते-बढ़ते यावत् वह क्षमा आदि एवं ब्रह्मचर्य से परिपूर्ण हो जाता है / इस प्रकार जीव वृद्धि को और हानि को प्राप्त होते हैं / तात्पर्य यह है कि सद्गुरु की उपासना से, निरन्तर प्रमादहीन रहने से तथा चारित्रावरण कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम से क्षमा आदि गुणों को वृद्धि होती है और क्रमशः वृद्धि होते-होते अन्त में वे गुण पूर्णता को प्राप्त होते हैं / विवेचन-प्राध्यात्मिक गुणों के विकास में आत्मा स्वयं उपादानकारण है, किन्तु अकेले उपादानकारण से किसी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। कार्य की उत्पत्ति के लिए उपादानकारण के साथ निमित्तकारणों की भी अनिवार्य आवश्यकता होती है। निमित्तकारण अन्तरंग, बहिरंग आदि अनेक प्रकार के होते हैं / गुणों के विकास के लिए सद्गुरु का समागम बहिरंग निमित्तकारण है तो चारित्रावरण कर्म का क्षयोपशम एवं अप्रमादवृत्ति अन्तरंग निमित्तकारण है। _ ७–एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स जायज्झयणस्य अयमझें पण्णत्ते त्ति बेमि / इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दसवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है / मैंने जैसा सुना, वैसा ही मैं कहता हूँ / // दसवाँ अध्ययन समाप्त / / Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ अध्ययन : दानद्रव सार:संक्षेप प्रस्तुत अध्ययन अपने आप में इतना संक्षिप्त है कि उसका संक्षेप भाव पृथक् लिखने की आवश्यकता ही नहीं है। रही सार की बात, सो इसका सार है--सहिष्णुता / सन्त जनों को मुक्तिपथ में अग्रसर होने और सफलता प्राप्त करने लिए सहनशील होना चाहिए। प्रस्तुत अध्ययन में विशेष रूप से दुर्वचनों को सहन करने की प्रेरणा की गई है और निरूपण किया है कि जो साधु दुर्वचन सहन करता है, वही मुक्तिमार्ग का या भगवान् को आज्ञा का आराधक हो सकता है। दुर्वचन-सहन को इतना जो महत्त्व दिया गया है, वह निर्हेतुक नहीं है। कोई निन्दा करे, विद्यमान या अविद्यमान दोषों को 'दुष्ट भाव से प्रकट करे, जाति-कुल आदि को हीन बतला कर अपमानित करे अथवा अन्य प्रकार से कटुक, अयोग्य या असभ्य वचनों का प्रयोग करे तो साधु का कर्तव्य यह है कि ऐसे वचनों को सुन कर अपने चित्त में तनिक भी क्षोभ उत्पन्न न होने दे, दुर्वचन कहने वाले के प्रति लेशमात्र भी द्वेष न हो, प्रत्युत करुणाभाव उत्पन्न हो / तात्पर्य यह कि दुर्वचन सुन कर भी जिसका चित्त कलुषित नहीं होता वही वास्तव में सहनशील कहलाता है और वही आराधक होता है। इस प्रकार पाराधक बनने के लिए क्षमा, सहिष्णुता, विवेक, उदारता आदि अनेक गुणों की आवश्यकता होती है। इसलिए दुर्वचन-सहन को इतना महत्त्व दिया गया है / इससे विपरीत जो दुर्वचनों को अन्तःकरण से सहन नहीं करता वह विराधक कहलाता है / देशविराधक, सर्वविराधक, देशाराधक और सर्वाधिक, ये चार विकल्प करके इस तथ्य को अधिक स्पष्ट कर दिया गया है / , Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारसमं अज्झयण : दावदते जम्बूस्वामी का प्रश्न १-जइ गं भंते ! दसमस्स णायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते, एक्कारसमस्स णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पण्णते ? जम्बूस्वामी अपने गुरु श्री सुधर्मास्वामी से प्रश्न करते हैं--'भगवन् / यदि दसवें ज्ञातअध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर ने यह अर्थ कहा है, तो भगवन् ? ग्यारहवें अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?' सुधर्मास्वामी द्वारा समाधान २-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे होत्था / तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए णामं राया होत्था / तस्स णं रायगिहस्स गयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं गुणसोलए णामं चेइए होत्या। सुधर्मास्वामी उत्तर देते हुए कहते हैं इस प्रकार हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था / उस राजगह नगर में श्रेणिक राजा राज्य करता था / उस राजगृह नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में गुणशील नामक उद्यान था। ३–तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुचि चरमाणे जाव गुणसीलए णामं चेइए तेणेव समोसढे / राया निग्गओ, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर अनुक्रम से विचरते हुए, यावत् गुणशील नामक उद्यान में समवस्त हुएपधारे / वन्दना करने के लिए राजा श्रेणिक और जनसमूह निकाला। भगवान् ने धर्म का उपदेश किया। जनसमूह वापिस लौट गया। आराधक- विराधक ४-तए णं गोयमे समणं भगवं महावीरं एवं क्यासी - 'कहं णं भंते ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति ?' तत्पश्चात् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर से कहा-'भगवन् ! जीव किस प्रकार आराधक और किस प्रकार विराधक होते हैं ?' देशविराधक ५-गोयमा ! से जहाणामए एगंसि समुद्दकूलंसि दावद्दवा नामं रुक्खा पण्णत्ता–किण्हा जाव' १.द्वि. अ. 5. Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 ] (ज्ञाताधर्मकथा निउरंबभूया पत्तिया पुष्फिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति। भगवान् उत्तर देते हैं—हे गौतम ! जैसे एक समुद्र के किनारे दावद्रव नामक वृक्ष कहे गये हैं / वे कृष्ण वर्ण वाले यावत् निकुरब (गुच्छा) रूप हैं / पत्तों वाले, फलों वाले, अपनी हरियाली के कारण मनोहर पोर श्री से अत्यन्त शोभित-शोभित होते हुए स्थित हैं। ६-जया णं दीविच्चगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तदा गं बहवे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति / अप्पेगइया दावद्दवा रूक्खा जुन्ना झोडा परिसडिय-पंडुपत्तपुप्फ-फला सुक्करुक्खओ विव मिलायमाणा चिट्ठति / जब द्वीप संबंधी ईषत् पुरोवात अर्थात् कुछ-कुछ स्निग्ध अथवा पूर्व दिशा सम्बन्धी वायु, पथ्यवात अर्थात सामान्यतः बनस्पति के लिए हितकारक या पछाही वाय, मन्द (धीमी-धीमी) वायू और महावात–प्रचण्ड वायु चलती है, तब बहत-से दावद्रव नामक वक्ष पत्र आदि से युक्त होकर खड़े रहते हैं / उनमें से कोई-कोई दाबद्रव वृक्ष जीर्ण जैसे हो जाते हैं, झोड़ अर्थात् सड़े पत्तों वाले हो जाते हैं, अतएव वे खिरे हुए पीले पत्तों, पुष्पों और फलों वाले हो जाते हैं और सूखे पेड़ की तरह मुरझाते हुए खड़े रहते हैं। ७-एवामेव समणाउसो ! जे अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं सम्मं सहइ जाव खमइ तितिक्खइ अहियासेइ, बहूणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं नो सम्मं सहइ जाव नो अहियासेइ, एस णं मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते समणाउसो ! इसी प्रकार हे प्रायुष्मन् श्रमणो ! हमारा जो साधु या साध्वी यावत् दीक्षित होकर बहुत-से साधुनों बहुत-सी साध्वियों, बहुत से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं के प्रतिकल वचनों को सम्यक् प्रकार से सहन करता है, यावत् विशेष रूप से सहन करता है, किन्तु बहुत-से अन्य तीथिकों के तथा गृहस्थों के दुर्वचन को सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करता है, यावत् विशेष रूप से सहन नहीं करता है, ऐसे पुरुष को मैंने देश-विराधक कहा है। देशाराधक ८-समणाउसो ! जया णं सामुद्दगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वाति, तया णं बहवे दावद्दवा रुक्खा जुण्णा झोडा जाव मिलायमाणा मिलायमाणा चिट्ठति / अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुफिया जाव उपसोभेमाणा चिट्ठति / प्रायुप्मन श्रमणो! जब समुद्र संबंधी ईषत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात, मंदवात और महावात बहती है, तब बहुत-से दावद्रव वृक्ष जीर्ण-से हो जाते हैं, झोड़ हो जाते हैं, यावत् मुरझातेमुरझाते खड़े रहते हैं। किन्तु कोई-कोई दावद्रव वृक्ष पत्रित, पुष्पित यावत् अत्यन्त शोभायमान होते हुए रहते हैं। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ अध्ययन : दावद्रव ] [ 317 9-- एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पच्वइए समाणे बहूणं अण्णउत्थियाणं, बहूणं गिहत्थाणं सम्मं सहइ, बहूणं समणाणं, बहूणं समणोणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं नो सम्मं सहइ, एस णं मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते / इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो हमारा साधु अथवा साध्वी दीक्षित होकर बहुत-से अन्यतीथिकों के और बहुत-से गृहस्थों के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन करता है और बहुत-से साधुनों, बहुत-सी साध्वियों, बहुत-से श्रावकों तथा बहुत-सी श्राविकाओं के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करता, उस पुरुष को मैंने देशाराधक कहा है। सविराधक--- १०-समणाउसो! जया णं नो दीविच्चगा णो सामुद्दगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया जाव महावाया वायंति, तए णं सव्वे दावद्दवा रुक्खा झोडा जाव मिलायमाणा मिलायमाणा चिट्ठति / आयुष्मन् श्रमणो ! जब द्वीप सम्बन्धी और समुद्र सम्बन्धी एक भी ईषत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात, यावत् महावात नहीं बहती, तब सब दावद्रव वृक्ष जीर्ण सरीखे हो जाते हैं, यावत् मुरझाए रहते हैं। ११-एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे बहूर्ण समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं साबियाणं बहूर्ण अन्नउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं नो सम्मं सहइ, एस णं मए पुरिसे सव्वविराहए पण्णत्ते। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो हमारा साधु या साध्वी यावत् प्रवजित होकर बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वियों, बहुत-से श्रावकों, बहुत-सी श्राविकाओं, बहुत-से अन्यतीथिकों एवं बहुतसे गृहस्थों के दुर्वचन शब्दों को सम्यक प्रकार से सहन नहीं करता, उस पुरुष को मैंने सर्व विराधक कहा है। सर्वाराधक 12- समणाउसो ! जया णं दीविच्चगा वि सामुद्दगा वि ईसि पुरेवाया पच्छावाया जाव वायंति, तदा णं सव्वे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति / जब द्वीप सम्बन्धी भी और समुद्र सम्बन्धी भी ईषत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात, यावत् बहतो है, तव सभी दावद्रव वृक्ष पत्रित, पुष्पित, फलित यावत् सुशोभित रहते हैं / १३--एवामेव समणाउसो ! जे अम्हं पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं अन्नउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्म सहइ, एस णं मए पुरिसे सव्वाराहए पण्णत्ते समणाउसो! एवं खलु गोयमा ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति / हे आयुष्मन् श्रमणो ! इसी प्रकार जो हमारा साधु या साध्वी बहुत-से श्रमणों के, बहुत-सी Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 ] [ ज्ञाताधर्मकथा श्रमणियों के, बहुत-से श्रावकों के, बहुत-सी श्राविकाओं के, बहुत-से अन्यतीथिकों के और बहुत-से गृहस्थों के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन करता है, उस पुरुष को मैंने सर्वाराधक कहा है। इस प्रकार हे गौतम ! जीव आराधक और विराधक होते हैं / १४–एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं एक्कारसमस अयमठे पण्णत्ते, त्ति बेमि। श्री सुधर्मा स्वामी अपने उत्तर का उपसंहार करते हुए कहते हैं- इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने ग्यारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है / जैसा मैंने सुना, वैसा ही कहता हूँ। विवेचन-इस अध्ययन में कथित दावद्रव वृक्षों के समान साधु हैं / द्वीप की वायु के समान स्वपक्षी साधु आदि के वचन, समुद्री वायु के समान अन्यत्तीथिकों के वचन और पुष्प-फल आदि के समान मोक्षमार्ग की आराधना समझना चाहिए। ऐ द्वीप की वायु के संसर्ग से वृक्षों को समृद्धि बताई, उसी प्रकार साधर्मी के दुर्वचन सहने से मोक्षमार्ग की आराधना और दुर्वचन न सहने से विराधना समझनी चाहिए। अन्यतीथिकों के दुर्वचन न सहन करने से मोक्षमार्ग की अल्प-विराधना होती है। जैसे समुद्री वायु से पुष्प आदि की थोड़ी समृद्धि और बहुत असमृद्धि बताई, उसी प्रकार परतीथिकों के दुर्वचन सहन करने और स्वपक्ष के सहन न करने से थोड़ी आराधना और वहुत विराधना होती है / दोनों के दुर्वचन सहन न करके क्रोध आदि करने से सर्वथा विराधना और सहन करने से सर्वथा अाराधना होती है। अतएव साधु को सभी दुर्वचन क्षमाभाव से सहन करने चाहिए। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ अध्ययन : उदकज्ञात सार: संक्षेप प्रस्तुत अध्ययन में प्ररूपित किया गया है कि सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष किसी भी वस्तु का केवल बाह्य दृष्टि से विचार नहीं करता, किन्तु आन्तरिक तात्त्विक दृष्टि से भी अवलोकन करता है / ष्टि तत्त्वस्पर्शी होती है / तत्त्वस्पर्शी दष्टि से वस्तु का निरीक्षण करने के कारण उसकी आत्मा में राग-द्वेष के प्राविर्भाव की संभावना प्राय: नहीं रहती। इससे विपरीत बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि वस्तु के बाह्य रूप का ही विचार करता है / वह उसकी गहराई में नहीं उतरता, इस कारण पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट, मनोज्ञ-अमनोज्ञ प्रादि विकल्प करता है और अपने ही इन मानसिक विकल्पों द्वारा राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्मबन्ध का भागी होता है / इस आत्महितकारी उपदेश को यहाँ अत्यन्त सरल कथानक की शैली में प्रकट किया गया है। कथानक का संक्षिप्त सार इस प्रकार है चम्पा नगरी के राजा जितशत्रु का अमात्य सुवुद्धि था। राजा जितशत्रु जिनमत से अनभिज्ञ था, सुबुद्धि अमात्य जिनमत का ज्ञाता और श्रावक-श्रमणोपासक भी था। एक दिन का प्रसंग है / राजा अन्य अनेक प्रतिष्ठित जनों के साथ भोजन कर रहा था / संयोगवश उस दिन भोजन बहुत स्वादिष्ट बना / भोजन करने के पश्चात् जब जीमने वाले एक साथ बैठे तो भोजन को सुस्वादुता से विस्मित राजा ने भोजन की प्रशंसा के पुल बांधने शुरू किए / अन्य लोगों ने राजा की हाँ में हाँ मिलाई राजा के कथन का समर्थन किया / सुबुद्धि अमात्य भी जीमने वालों में था, किन्तु वह कुछ बोला नहीं—मौन धारण किये रहा / सुबुद्धि को मौन धारण किये देख राजा ने उसी को लक्ष्य करके जब वार-वार भोजन की प्रशंसा की तो उसे बोलना ही पड़ा / मगर वह सम्यग्दृष्टि, श्रावक था, अतएव उसकी विचारणा इतर जनों और राजा की विचारणा से भिन्न थी / वह वस्तु-स्वरूप की तह तक पहुंचता था / अतएव उसने राजा के कथन का अनुमोदन न करते हए साहसपूर्वक सचाई प्रकट कर दी। कहा--'स्वामिन ! इस स्वादिष्ठ भोजन के विषय में मेरे मन में किचित् भी विस्मय नहीं है / पुद्गलों के परिणमन अनेक प्रकार के होते रहते हैं / शुभ प्रतीत होने वाले पुद्गल निमित्त पाकर अशुभ प्रतीत होने लगते हैं और अशुभ पुद्गल शुभ रूप में परिणत हो जाते हैं। पुद्गल तो पुद्गल ही है, उसमें शुभत्वअशुभत्व का आरोप हमारी राग-द्वेषमयी बुद्धि करती है। अतएव मुझे इस प्रकार के परिणमन आश्चर्यजनक नहीं प्रतीत होते / ' सुबुद्धि के इस कथन का राजा ने आदर नहीं किया, मगर वह चुप रह गया। चम्पा नगरी के बाहर एक परिखा (खाई) थी। उसमें अत्यन्त अशुचि, दुर्गन्धयुक्त एवं सड़ेगले मृतक-कलेवरों से व्याप्त गंदा पानी भरा था। राजा जितशत्रु एक बार सुबुद्धि अमात्य आदि के साथ घुड़सवारी पर निकला और उसी परिखा के निकट से गुजरा / पानी की दुर्गन्ध से वह घबरा उठा / उसने वस्त्र से नाक-मुह ढंक लिए। उस समय राजा ने पानी की अमनोज्ञता का वर्णन किया / साथियों ने उसका समर्थन किया, किन्तु सुबुद्धि इस बार भी चप रहा। जब उसी को लक्ष्य Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 ] [ ज्ञाताधर्मकथा करके राजा ने अपना कथन वार-बार दोहराया तो उसने भी वही कहा जो स्वादु भोजन के संबंध में कहा था। ___ इस बार राजा ने सुबुद्धि के कथन का अनादर करते हुए कहा-सुबुद्धि ! तुम्हारी बात मिथ्या है / तुम दुराग्रह के शिकार हो रहे हो और दूसरों को ही नहीं, अपने को भी भ्रम में डाल रहे हो। सुबुद्धि को राजा की दुर्बुद्धि पर दया आई / उसने विचार किया-राजा सत्य पर श्रद्धा नहीं करता, यही नहीं वरन् सत्य को असत्य मानकर मुझे भ्रम में पड़ा समझता है / इसे किसी उपाय से सन्मार्ग पर लाना चाहिए / इस प्रकार विचार कर उसने पूर्वोक्त परिखा का पानी मंगवाया और विशिष्ट विधि से 49 दिनों में उसे अत्यन्त शुद्ध और स्वादिष्ठ बनाया / उस विधि का विस्तृत वर्णन मूल पाठ में किया गया है / यह स्वादिष्ठ पानी जब राजा के यहाँ भेजा गया और उसने पीया तो उस पर लटू हो गया। पानी वाले सेवक से पूछने पर उसने कहा-यह पानी अमात्य जी के यहाँ से पाया है / अमात्य ने निवेदन किया-स्वामिन् ! यह वही परिखा का पानी है, जो आपको अत्यन्त अमनोज्ञ प्रतीत हुआ था। राजा ने स्वयं प्रयोग करके देखा / सुबुद्धि का कथन सत्य सिद्ध हुआ। तब राजा ने सुबुद्धि से पूछा--सुबुद्धि ! तुम्हारी बात वास्तव में सत्य है पर यह तो बताओ कि यह सत्य, तथ्य, यथार्थ तत्त्व तुमने कैसे जाना? तुम्हें किसने बतलाया ? सुबुद्धि ने उत्तर दिया-स्वामिन् ! इस सत्य का परिज्ञान मुझे जिन भगवान् के वचनों से हुआ है / वीतराग वाणी से ही मैं इस सत्य तत्त्व को उपलब्ध कर सका हूँ। राजा जिनवाणी श्रवण करने की अभिलाषा प्रकट करता है, सुबुद्धि उसे चातुर्याम धर्म का स्वरूप समझाता है, राजा भी श्रमणोपासक बन जाता है / एक बार स्थविर मुनियों का पुनः चम्पा में पदार्पण हुा / धर्मोपदेश श्रवण कर सुबुद्धि अमात्य प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा से अनुमति मांगता है। राजा कुछ समय रुक जाने के लिए और फिर साथ ही दीक्षा अंगीकार करने के लिए कहता है / सुबुद्धि उसके कथन को मान लेता है। बारह वर्ष बाद दोनों संयम अंगीकार करके अन्त में जन्म-मरण की व्यथाओं से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमं अज्झयण : उदए १-जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं एक्कारसमस्स नायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते, बारसमस्स णं नायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? श्री जम्बूस्वामी, श्री सुधर्मास्वामी के प्रति प्रश्न करते हैं—'भगवन् ! यदि यावत् सिद्धि प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने ग्यारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो बारहवें ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?' २-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं णयरी होत्था / पुण्णभद्दे चेइए। तोसे णं चंपाए णयरीए जियसत्तु णामं राया होत्था / तस्स णं जियसत्तुस्स रनो धारिणी नामं देवी होत्था, अहीणा जाव सुरूवा / तस्स णं जियसत्तुस्स रन्नो पुत्ते धारिणीए अत्तए अदीणसत्तु णामं कुमारे जुवराया वि होत्था / सुबुद्धी अमच्चे जाव रज्जधुचितए समणोवासए अहिगयजीवाजीवे / श्री सुधर्मास्वामी उत्तर देते हैं- हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र नामक चैत्य था / उस चम्पा नगरी में जितशत्रु नामक राजा था। जितशत्रु राजा की धारिणी नामक रानी थी, वह परिपूर्ण पाँचों इन्द्रियों वाली यावत् सुन्दर रूप वाली थी। जितशत्रु राजा का पुत्र और धरिणी देवी का पात्मज अदीनशत्रु नामक कुमार युवराज था। सुबुद्धि नामक मन्त्री था / वह (यावत्) राज्य की धुरा का चिन्तक श्रमणोपासक और जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था। ३-तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमेणं एगे फरिहोदए यावि होत्था, मेय-वसामंस-रुहिर-पूय-पडल-पोच्चडे मयग-कलेवर-संछण्णे अमणुण्णे वण्णेणं जाव [अमणुण्णे गंधेणं अमणुणे रसेणं अमणुणे] फासेणं / से जहानामए अहिमडेइ वा गोमडेइ वा जाव मय-कुहिय-विणटु-किमिणवावण्ण-दुरभिगंधे किमिजालाउले, संसत्ते असुइ-वियग-वीभत्थ-दरिसणिज्जे, भवेयारूवे सिया? णो इणठे समठे, एतो अणि?तराए चेव जाव [अकंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुण्णतराए चेव अमणामतराए चेव] गन्धेण पण्णत्ते / चम्पानगरी के बाहर उत्तरपूर्व (ईशान) दिशा में एक खाई में पानी था / वह मेद, चर्बी, मांस, रुधिर और पीब के समूह से युक्त था। मृतक शरीरों से व्याप्त था, वर्ण से गंध से रस से और स्पर्श से अमनोज्ञ था। वह जैसे कोई सर्प का मत कलेवर हो. गाय का कलेवर हो. य सड़े हुए, गले हुए, कीड़ों से व्याप्त और जानवरों के खाये हुए किसी मृत कलेवर के समान दुर्गन्ध वाला था। कृमियों के समूह से परिपूर्ण था / जीवों से भरा हुआ था / अशुचि, विकृत और बीभत्सडरावना दिखाई देता था / क्या वह ( वस्तुत: ) ऐसे स्वरूप वाला था? नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है। वह जल इससे भी अधिक अनिष्ट यावत् गन्ध आदि वाला था। अर्थात् खाई का वह पानी इससे अधिक अमनोज्ञ स्पर्श, रस, गंध, वर्ण वाला कहा गया है। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322] [ ज्ञाताधर्मकथा ४-तए णं से जियसत्त राया अण्णया क्याइ व्हाए कयबलिकम्मे जाव अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरे बहूहि राईसर जाव सत्यवाहपभिइहि द्धि भोयणवेलाए सुहासणवरगए विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव [आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे एवं च णं] विहरइ, जिमितभुत्तुत्तराए जाव [आयंते चोक्खे परम] सुईभूए तंसि विपुलंसि असण जाव जायविम्हए ते बहवे ईसर जाव पभिईए एवं वयासी तत्पश्चात् वह जितशत्रु राजा एक बार- किसी समय स्नान करके, बलिकर्म (गृहदेवता का पूजन) करके, यावत् अल्प किन्तु बहुमूल्य प्राभरणों से शरीर को अलंकृत करके, अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के साथ भोजन के समय पर सुखद आसन पर बैठ कर, विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन जीम रहा था। यावत् जीमने के अनन्तर, हाथ-मुह धोकर, परम शुचि होकर उस विपुल अशन, पान आदि भोजन (की सुस्वादुता) के विषय में वह विस्मय को प्राप्त हुआ। अतएव उन बहुत-से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि से इस प्रकार कहने लगा ५–'अहो णं देवाणुप्पिया ! मणुण्णे असणं पाणं खाइमं साइमं वण्णणं उववेए जाव फासेणं उववेए अस्सायणिज्जे विस्सायणिज्जे पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे बिहणिज्जे विदियगाय-पल्हायणिज्जे।' ___'अहो देवानुप्रियो ! यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्ण से युक्त है यावत् उत्तम स्पर्श से युक्त है, अर्थात् इसका रूप, रस, गंध और स्पर्श संभी कुछ श्रेष्ठ है, यह आस्वादन करने योग्य है, विशेष रूप से प्रास्वादन करने योग्य है / पुष्टिकारक है, बल को दीप्त करने वाला है, दर्प उत्पन्न करने वाला है, काम-मद का जनक है और बलवर्धक तथा समस्त इन्द्रियों को और गात्र को विशिष्ट प्राह्लाद उत्पन्न करने वाला है।' ६-तए णं ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभिइओ जियसत्तु एवं वयासो-'तहेव णं सामी ! जं गं तुब्भे बदह / अहो णं इमे मणुष्णे असणं पाणं खाइमं साइमं वण्णणं उववेए जाव पल्हायणिज्जे / ' तत्पश्चात् बहुत-से ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति जितशत्रु से इस प्रकार कहने लगे'स्वामिन् ! आप जो कहते हैं, बात वैसी ही है / अहा, यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्ण से युक्त है, यावत् विशिष्ट प्राह्लादजनक है / ' अर्थात् सभी ने राजा के विचार और कथन का समर्थन किया। ७-तए णं जितसत्तू सुबुद्धि अमच्च एवं वयासी—'अहो णं सुबुद्धी ! इमे मणुण्णे असणं पाणं खाइमं साइमं जाव पल्हायणिज्जे / ' तए णं सुबुद्धी जियसत्तुस्सेयमझें नो आढाइ, जाव [नो परियाणाइ] तुसिणीए संचिट्ठइ / तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से कहा-'अहो सुबुद्धि ! यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्णादि से युक्त और यावत् समस्त इन्द्रियों को एवं गात्र को विशिष्ट प्राह्लादजनक है।' Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ अध्ययन : उदक ] [323 तब सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु के इस अर्थ (कथन) का आदर (अनुमोदन) नहीं किया / समर्थन नहीं किया, वह चुप रहा। 8- तए णं जियसत्तुणा सुबुद्धी दोच्चं पितच्चं पि एवं वुत्ते समाणे जियसत्तु रायं एवं क्यासी'नो खलु सामी ! अहं एयंसि मणुष्णंसि असण-पाण-खाइम-साइमंसि केइ विम्हए। एवं खलु सामी ! सुभिसद्दा वि पुरंगला दुन्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुनिमसद्दा वि पोग्गला सुभिसद्दत्ताए परिणमंति / सुरूवा वि पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमंति, दुरूवा वि पोग्गला सुरूवत्ताए परिणमंति। सुभिगंधा वि पोग्गला दुबिभगंधत्ताए परिणमंति, दुन्भिगंधा वि पोग्गला सुन्भिगंधत्ताए परिणमंति। सुरसा वि पोग्गला दुरसत्ताए परिणमंति, दुरसा वि पोग्गला सुरसत्ताए परिणमंति / सुहफासा वि पोग्गला दुहफासत्ताए परिणमंति, दुहफासा वि पोग्गला सुहफासत्ताए परिणमंति। पओग-वोससापरिणया वि य पं सामी ! पोम्गला पण्णत्ता।' जितशत्र राजा के द्वारा दसरी बार और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहने पर सूबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु राजा से इस प्रकार कहा--'स्वामिन् ! मैं इस मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तनिक भी विस्मित नहीं हूँ। हे स्वामिन् ! सुरभि (उत्तम-शुभ) शब्द वाले भी पुद्गल दुरभि (अशुभ) शब्द के रूप में परिणत हो जाते हैं और दुरभि शब्द वाले पुद्गल भी सुरभि शब्द के रूप में परिणत हो जाते हैं / उत्तम रूप वाले पुद्गल भी खराब रूप के रूप में परिणत हो जाते हैं और खराब रूप वाले पुद्गल उत्तम रूप के रूप में परिणत हो जाते हैं। सुरभि गन्ध वाले भी पुद्गल दुरभि गन्ध के रूप में परिणत हो जाते हैं और दुरभि गन्ध वाले पुद्गल भी सुरभि गन्ध के रूप में परिणत हो जाते हैं / सुन्दर रस वाले भी पुद्गल खराब रस के रूप में परिणत हो जाते हैं और खराब रस वाले भी पुद्गल सुन्दर रस वाले पुद्गल के रूप में परिणत हो जाते हैं। शुभ स्पर्श वाले भी पुद्गल अशुभ स्पर्श वाले पुदगल बन जाते हैं और अशुभ स्पर्श वाले पुदगल भी शुभ स्पर्श बाले बन जाते हैं / हे स्वामिन् ! सब पुद्गलों में प्रयोग (जीव के प्रयत्न) से और विस्त्रसा (स्वाभाविक रूप से) परिणमन होता ही रहता है। ९-तए णं से जियसत्तू सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स एयमठं नो आढाइ, नो परियाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ / उस समय राजा जितशत्रु ने ऐसा कहने वाले सुबुद्धि अमात्य के इस कथन का आदर नहीं किया, अनुमोदन नहीं किया और वह चुपचाप बना रहा / विवेचन-इन सूत्रों में जो कुछ कहा गया है वह सामान्य-सी बात प्रतीत होती है, किन्तु गम्भीरता में उतर कर विचार करने पर ज्ञात होगा कि इस निरूपण में एक अति महत्वपूर्ण तथ्य निहित है। सुबुद्धि अमात्य सम्यग्दृष्टि, तत्त्व का ज्ञाता और श्रावक था, अतएव सामान्य जनों की दृष्टि से उसकी दृष्टि भिन्न थी। वह किसी भी वस्तु को केवल चर्म-चक्षुओं से नहीं वरन विवेकदृष्टि से देखता था / उसको विचारणा तात्त्विक, पारमार्थिक और समीचीन थी। यही कारण है कि उसका विचार राजा जितशत्रु के विचार से भिन्न रहा / सम्यग्दृष्टि के योग्य निर्भीकता भी उसमें थी, अतएव उसने अपनी विचारणा का कारण भी राजा को कह दिया / इस प्रकार इस प्रसंग से Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324] [ ज्ञाताधर्मकथा सम्ग्यदृष्टि और उससे इतर जनों के दृष्टिकोण का अन्तर समझा जा सकता है। सम्यग्दृष्टि प्रात्मा भोजन, पान, परिधान आदि साधनभूत पदार्थों के वास्तविक स्वरूप का ज्ञाता होता है। उसमें रागद्वेष की न्यूनता होती है, अतएव वह समभावी होता है। किसी वस्तु के उपभोग से न तो चकितविस्मित होता है और न पीडा, दुःख या द्वेष का अनुभव करता है। वह यथार्थ वस्तुस्वरूप को जान कर अपने स्वभाव में स्थिर रहता है / सम्यग्दृष्टि जीव की यह व्यावहारिक कसौटी है।। १०–तए णं से जियसत्तू अण्णया कयाइ हाए आसखंधवरगए महया भडचडगरपह० आसवाहणियाए निज्जायमाणे तस्स फरिहोदगस्स अदूरसामंतेणं वीईक्यइ / तए णं जियसत्तू राया तस्स फरिहोदगस्स असुभेणं गंधेणं अभिभूए समाणे सएणं उत्तरिज्जेण आसगं पिहेइ, एगंतं अवक्कमइ, ते बहवे ईसर जाव पभिइओ एवं वयासी—'अहो णं देवाणुप्पिया ! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं गंधेणं रसेणं फासेणं / से जहानामए अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंधेणं पण्णते।' तत्पश्चात् एक बार किसी समय जितशत्रु स्नान करके, (विभूषित होकर) उत्तम अश्व की पीठ पर सवार होकर, बहुत-से भटों-सुभटों के साथ, धुड़सवारी के लिए निकला और उसो खाई के पानी के पास पहुंचा। तब जितशत्रु राजा ने खाई के पानी की अशुभ गन्ध से घबराकर अपने उत्तरीय वस्त्र से मुंह ढंक लिया। वह एक तरफ चला गया और साथी राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह वगैरह से इस प्रकार कहने लगा---'अहो देवानुप्रियो ! यह खाई का पानी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से अमनोज्ञ-अत्यन्त अशुभ है / जैसे किसी सर्प का मृत कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अमनोज्ञ है, अमनोज्ञ गन्ध वाला है। ११–तए णं ते बहवे राईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासो--तहेव णं तं सामी ! जं णं तुब्भे वयह, अहो णं इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं गंधेणं रसेणं फासेणं, से जहानामए अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंधेणं पण्णत्ते। ___ तत्पश्चात वे राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि इस प्रकार बोले-स्वामिन् ! आप जो ऐसा कहते हैं सो सत्य ही है कि-अहो ! यह खाई का पानी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से अमनोज्ञ है। यह ऐसा अमनोज्ञ है, जैसे साँप आदि का मृतक कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अतीव अमनोज्ञ गन्ध वाला है / १२-तए णं से जियसत्तू सुबुद्धि अमच्चं एवं वयासी-'अहो णं सुबुद्धी ! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं से जहानामए अहिमडे इ वा जाव अमणामराए चेव गंधेणं पण्णत्ते।' ___तए णं सुबुद्धी अमच्चे जाव तुसिणीए संचिट्टइ। तत्पश्चात् अर्थात् राजा, ईश्वर आदि ने जब जितशत्रु को हाँ में हाँ मिला दी, तब राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहा---'अहो सुबुद्धि ! यह खाई का पानी वर्ण आदि से अमनोज्ञ है, जैसे किसी सर्प ग्रादि का मृत कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अत्यन्त अमनोज्ञ गंध वाला है।' Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां अध्ययन : उदक ] [ 325 तब सुबुद्धि अमात्य इस कथन का समर्थन न करता हुमा मौन रहा / १३-तए णं से जियसत्तू राया सुबुद्धि अमच्चं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासो-- 'अहो णं तं चेव।' तए णं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुणा रण्णा दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ते समाणे एवं वयासी—'नो खलु सामी ! अम्हं एयंसि फरिहोदयंसि केइ विम्हए / एवं खलु सामी ! सुब्भिसद्दा वि पोग्गला दुभिसद्दत्ताए परिणमंति, तं चेव जाव पओग-वीससापरिणया वि य णं सामी ! पोग्गला पण्णत्ता। तब जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से दूसरी बार और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा'अहो सुबुद्धि ! यह खाई का पानी अमनोज्ञ है इत्यादि पूर्ववत् / ' तब सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु के दूसरी बार और तीसरी बार ऐसा कहने पर इस प्रकार कहा—'स्वामिन् ! मुझे इस खाई के पानी के विषय में इसके मनोज्ञ या अमनोज्ञ होने में कोई विस्मय नहीं है। क्योंकि शुभ शब्द के पुद्गल भी अशुभ रूप में परिणत हो जाते हैं, इत्यादि पहले के समान सब कथन यहाँ समझ लेना चाहिए, यावत् मनुष्य के प्रयत्न से और स्वाभाविक रूप से भी पुद्गलों में परिणमन होता रहता है। ऐसा (जिनागम में) कहा है। १४-तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धि अमच्चं एवं वयासी-मा णं तुम देवाणुप्पिया ! अप्पाणं च परं च तदुभयं च बहूहि य असम्भावुब्भावणाहि मिच्छत्ताभिणिवेसेण य बुग्गाहेमाणे बुप्पाएमाणे विहराहि। तत्पश्चात् जितशत्र राजा ने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! तुम अपने आपको, दूसरे को और स्व-पर दोनों को असत् वस्तु या वस्तुधर्म की उद्भावना करके अर्थात् असत् को सत् के रूप में प्रकट करके और मिथ्या अभिनिवेश (दुराग्रह) करके भ्रम में मत डालो, अज्ञानियों को ऐसी सीख न दो। १५-तए णं सुबुद्धिस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-'अहो णं जितसत्तू संते तरचे तहिए अवितहे सबभते जिणपण्णसे भाव णो उवलभइ, तं सेयं खलु मम जियसत्तस्स रण्णो संताणं तच्चाणं तहियाणं अवितहाणं सन्भूताणं जिणपण्णत्ताणं भावाणं अभिगमणट्टयाए एयमलैं उवाइणावेत्तए।' जितशत्रु की बात सुनने के पश्चात् सुबुद्धि को इस प्रकार का अध्यवसाय-विचार उत्पन्न हुअा-अहो ! जितशत्रु राजा सत् (विद्यमान), तत्त्वरूप (वास्तविक), तथ्य(सत्य), अवितथ(अमिथ्या) और सद्भूत (विद्यमान स्वरूप वाले) जिन भगवान् द्वारा प्ररूपित भावों को नहीं जानता नहीं अंगीकार करता / अतएव मेरे लिए यह श्रेयस्कर होगा कि मैं जितशत्रु राजा को सत्, तत्त्वरूप, तथ्य, अवितथ और सद्भूत जिनेन्द्रप्ररूपित भावों (अर्थों) को समझाऊँ और इस बात को अंगीकार कराऊँ। १६--एवं संपेहेइ, संपेहिता पच्चइएहिं पुरिसेहिं सद्धि अंतरावणाओ नवए घडए पडए य Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326] [ ज्ञाताधर्मकथा पगेण्हइ, पगेण्हित्ता संझाकालसमयंसि पविरलमणुस्संसि निसंतपडिनिसंतंसि जेणेव फरिहोदए तेणेव उवागए, उवागच्छित्ता तं फरिहोदयं गेण्हावेइ, गेहावित्ता नवएसु घडएसु गालावेइ, गालावित्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवावित्ता लंछियमुद्दिए करावेइ, करावित्ता सत्तरत्तं परिवसावेइ, परिवसावित्ता दोच्चं पि नवएसु घडएसु गालावेइ, गालायित्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवावित्ता सज्जक्खारं पक्खिवावेइ, पक्खिवावित्ता लंछियमुद्दिए करावेइ, करावित्ता सत्तरत्तं परिवसावेइ, परिवसावित्ता तच्चं पि नवएसु घडएसु जाव संवसावेइ / सुबुद्धि अमात्य ने इस प्रकार विचार किया। विचार करके विश्वासपात्र पुरुषों से खाई के मार्ग के वीच की कुभार की दुकान से नये घड़े (बहुत-से कोरे घड़े) और वस्त्र लिए। घड़े लेकर जब कोई विरले मनुष्य चल रहे थे और जब लोग अपने-अपने घरों में विश्राम लेने लगे थे, ऐसे संध्याकाल के अवसर पर जहाँ खाई का पानी था, वहाँ आया / आकर खाई का पानी ग्रहण के करवा कर उसे नये घडों में छनवाया (गलवाया-टपकवाया)। छनवाकर नये घडों में डलवाया / डलवाकर उन घड़ों को लांछित-मुद्रित करवाया–अर्थात् मुह बंद करके उन पर निशान लगवा कर मोहर लगवाई। फिर सात रात्रि-दिन उन्हें रहने दिया। सात रात्रि-दिन के बाद उस पानी को दूसरी बार कोरे घड़ों में छनवाया और नये घड़ों में डलवाया। डलवा कर उनमें ताजा राख डलवाई और फिर उन्हें लांछित-मुद्रित करवा दिया। सात रात-दिन तक उन्हें रहने दिया। सात रात-दिन रखने के बाद तीसरी बार नवीन घड़ों में वह पानी डलवाया, यावत् सात रात-दिन उसे रहने दिया। १७-एवं खलु एएणं उवाएणं अंतरा गलावेमाणे अंतरा पक्खिवावेमाणे, अंतरा य विपरिवसा. वेमाणे विपरिवसावेमाणे सत्तसत्तराइंदिया विपरिवसावेइ। तए णं से फरिहोदए सत्तमसत्तयंसि परिणममाणंसि उदय रयणे जाव यावि होत्था—अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे वण्णेणं उववेए, गंधेणं उववेए, रसेणं उववेए फासेणं उववेए, आसायणिज्जे जाव सविदियगायपल्हायणिज्जे / इस तरह से, इस उपाय से, बीच-बीच में गलवाया, बीच-बीच में कोरे घड़ों में डलवाया और बोच-बीच में रखवाया जाता हुआ वह पानी सात-सात रात्रि-दिन तक रख छोड़ा जाता था। तत्पश्चात् वह खाई का पानी सात सप्ताह में परिणत होता हुआ उदकरत्न (उत्तम जल) बन गया / वह स्वच्छ, पथ्य-आरोग्यकारी, जात्य (उत्तम जाति का), हल्का हो गया; स्फटिक मणि के सदश मनोज्ञ वर्ण से युक्त, मनोज्ञ गंध से युक्त, रस से युक्त और स्पर्श से युक्त, आस्वादन करने योग्य यावत् सब इन्द्रियों तथा गात्र को अति आह्लाद उत्पन्न करने वाला हो गया। १८-तए णं सुबुद्धी अमच्चे जेणेव से उदय रथणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलंसि आसाएइ, आसाइत्ता तं उदयरयणं वण्णेणं उववेयं, गंधेणं उववेयं, रसेणं उववेयं, फासेणं उववेयं, आसायणिज्जं जाव सन्विदियगायपल्हायणिज्जं जाणित्ता हद्वतुढे बहूहि उदगसंभारणिज्जेहिं दन्वेहि संभारेइ, संभारिता जियसत्तुस्स रण्णो पाणियघरि सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी—'तुमं च णं देवाणुप्पिया! इमं उदगरयणं गेहाहि, गेष्हित्ता जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवणेज्जासि। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ अध्ययन : उदक ] [ 327 तत्पश्चात् सुबुद्धि अमात्य उस उदकरत्न के पास पहुँचा / पहुँचकर हथेली में लेकर उसका आस्वादन किया / प्रास्वादन करके उसे मनोज्ञ वर्ण से युक्त, गंध से युक्त, रस से युक्त, स्पर्श से युक्त, प्रास्वादन करने योग्य यावत् सब इन्द्रियों को और गात्र को अतिशय आह्लादजनक जानकर हृष्टतुष्ट हुप्रा / फिर उसने जल को सँवारने (सुस्वादु बनाने) दाले द्रव्यों से उसे सँवारा-सुस्वादु और सुगंधित बनाया। सँवारकर जितशत्रु राजा के जलगृह के कर्मचारी को बुलवाया। बुलवाकर कहा'देवानुप्रिय ! तुम यह उदकरत्न ले जाओ। इसे ले जाकर राजा जितशत्रु के भोजन की वेला में उन्हें पीने के लिए देना।' १९-तए णं से पाणियघरए सुबुद्धिस्स एयम पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तं उदयरयणं गिण्हाइ, गिण्हित्ता जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवट्ठवेइ। तए णं से जियसत्तू राया तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणे जाव विहरइ / जिमियभुत्तुत्तराए णं जाव परमसुइभूए तंसि उदयरयणे जायविम्हए ते बहवे राईसर जाव एवं क्यासी—'अहो णं देवाणुप्पिया ! इमे उदयरयणे अच्छे जाव सब्विदियगायपल्हायणिज्जे / ' तए णं बहवे राईसर जाव एवं वयासो-'तहेव णं सामी ! जंणं तुब्भे वयह, जाव एवं चेव पल्हायणिज्जे। तत्पश्चात् जलगह के उस कर्मचारी ने सुबुद्धि के इस अर्थ को अंगीकर किया / अंगीकार करके वह उदकरत्न ग्रहण किया और ग्रहण करके जितशत्रु राजा के भोजन की बेला में उपस्थित किया। तत्पश्चात् जितशत्रु राजा उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का प्रास्वादन करता हुआ विचर रहा था / जीम चुकने के अनन्तर अत्यन्त शुचि-स्वच्छ होकर जलरत्न का पान करने से राजा को विस्मय हुा / उसने बहुत-से राजा, ईश्वर प्रादि से यावत् कहा--'अहो देवानुप्रियो ! यह उदकरत्न स्वच्छ है यावत् समस्त इन्द्रियों को और गात्र को आह्लाद उत्पन्न करने वाला है।' तब वे बहुत-से राजा, ईश्वर आदि यावत् इस प्रकार कहने लगे-- 'स्वामिन् ! जैसा प्राप कहते हैं, बात ऐसी ही है / यह जलरत्न यावत् पाला दजनक है। २०--तए णं जियसत्तू राया पाणियघरियं सहावेइ, सद्दाविता एवं बयासी-'एस णं तुब्भे देवाणुपिया ! उदयरयणे कओ आसाइए ?' तए णं पाणियघरिए जियसत्तु एवं वयासी-एस सामी ! मए उदयरयणे सुबुद्धिस्स अंतियाओ आसाइए।' तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धि अमच्चं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'अहो णं सुबुद्धी ! केणं कारणेणं अहं तव अणिट्टे अकंते अप्पिए अमणुण्णे अमणामे, जेण तुमं मम कल्लाल्लि भोयणवेलाए इमं उदयरयणं न उवट्ठवेसि ? तए णं देवाणुप्पिया ! उदयरयणे कओ उवलद्धे ?' तए णं सुबुद्धो जियसत्तु एवं वयासी-एस णं सामा ! से फरिहोदए।' Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तए णं से जियसत्तू सुबुद्धि एवं क्यासी-'केणं कारणेणं सुबुद्धी ! एस से फरिहोदए ?' तए णं सुबुद्धी जियसत्तु एवं बयासी--‘एवं खलु सामी ! तुम्हे तया मम एवमाइक्खमाणस्स पणवेमाणस्स परूवेमाणस्स एयम नो सहह, तए णं मम इमेयारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था—'अहो णं जियसत्त संते जाव भावे नो सद्दहइ, नो पत्तियइ, नो रोएइ, तं सेयं खलु ममं जियसत्तुस्स रण्णो संताणं जाव सब्भूयाणं जिणपन्नत्ताणं भावाणं अभिगमणट्टयाए एयमट्ठ उवाइणावेत्तए / एवं संपेहेमि, संपेहिता तं चेव जाव पाणियधरियं सद्दावेमि, सद्दावित्ता एवं वदामि–'तुम णं देवाणुप्पिया ! उदगरयणं जियसत्तुस्स रन्नो भोयणवेलाए उवणेहि / ' तं एएणं कारणेणं सामी ! एस से फरिहोदए।' तत्पश्चात् राजा जितशत्रु ने जलगृह के कर्मचारी को बुलवाया और बुलवाकर पूछा'देवानुप्रिय ! तुमने यह जलरत्न कहाँ से प्राप्त किया ?' तब जलगृह के कर्मचारी ने जितशत्र से कहा-'स्वामिन् यह जल रत्न मैंने सुवुद्धि अमात्य के पास से प्राप्त किया है।' तत्पश्चात् राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि अमात्य को बुलाया और उससे इस प्रकार कहा--- 'अहो सुबुद्धि ! किस कारण से तुम्हें मैं अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम हूं, जिससे तुम मेरे लिए प्रतिदिन भोजन के समय यह उदकरत्न नहीं भेजते ? देवानुप्रिय ! तुमने यह उदकरत्न कहाँ से पाया है ?' तब सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! यह वही खाई का पानी है।' तब जितशत्रु ने सुबुद्धि से कहा-'हे सुबुद्धि ! किस प्रकार यह वही खाई का पानी है ?' तब सुबुद्धि ने जितशत्र से कहा---'स्वामिन् ! उस समय अर्थात् खाई के पानी का वर्णन करते समय मैंने आपको पुद्गलों का परिणमन कहा था, परन्तु आपने उस पर श्रद्धा नहीं की थी। तब मेरे मन में इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, विचार या मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ.... अहो ! जितशत्रु राजा सत् यावत् भावों पर श्रद्धा नहीं करते, प्रतीति नहीं करते, रुचि नहीं रखते, अतएव मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि जितशत्र राजा को सत् यावत् सदभूत जिनभाषित भावों को समझाकर पुद्गलों के परिणमन रूप अर्थ को अंगीकार कराऊँ। मैंने ऐसा विचार किया। विचार करके पहले कहे अनुसार पानी को सँवार कर तैयार किया / यावत् आपके जलगृह के कर्मचारी को बुलाया और उससे कहा-देवानुप्रिय ! यह उदकरत्न तुम भोजन की वेला राजा जितशत्रु को देना। इस कारण हे स्वामिन् ! यह वही खाई का पानी है / ' २१--तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स 4 एयमढें नो सद्दहइ, नो पत्तियइ, नो रोएइ, असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोयमाणे अभितरद्वाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तब्भे देवाणुप्पिया ! अंतरावणाओ नवघडए पडए य गेण्हह जाव उदगसंभाणिज्जेहिं दव्वेहि संभारेह / ' ते वि तहेव संभारेंति, संभारित्ता जियसत्तस्स उवणेति / / तए णं जियसत्तू राया तं उदगरयणं करतलंसि आसाएइ, आसायणिज्जं जाव सविदियगायपल्हाणिज्जं जाणित्ता सुबुद्धि अमच्चं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'सुबुद्धी ! एए णं Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ अध्ययन : उदक ] [ 329 तुमे संता तच्चा जाव' सम्भूआ भावा कओ उवलद्धा ?' तए णं सबुद्धी जियसत्तु एवं वयासो—'एए णं सामी ! मए संता जाव' भावा जिणवयणाओ उवलद्धा।' तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य के पूर्वोक्त अर्थ पर श्रद्धा न की, प्रतीति न को और रुचि न की। श्रद्धा न करते हुए, प्रतीति न करते हुए और रुचि न करते हुए उसने अपनी अभ्यन्तर परिषद् के पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर कहा--'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और खाई के जल के रास्ते वाली कुभार की दुकान से नये घड़े तथा वस्त्र लामो और यावत् जल को सँवारनेसुन्दर बनाने वाले द्रव्यों से उस जल को सँवारो।' उन पुरुषों ने राजा के कथनानुसार पूर्वोक्त विधि से जल को सँवारा और सँवार कर वे जितशत्रु के समीप लाए। तब जितशत्रु राजा ने उस उदकरत्न को हथेली में लेकर प्रास्वादन किया। उसे प्रास्वादन करने योग्य यावत् सब इन्द्रियों को और गात्र को ग्राह्लादकारी जानकर सुबुद्धि अमात्य को बुलाया / बुलाकर इस प्रकार कहा--'सुबुद्धि ! तुमने ये सत्, तथ्य, अवितथ तथा सद्भूत भाव (पदार्थ) कहाँ से जाने ?' तब सुबुद्धि ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! मैंने यह सत् यावत् सद्भूत भाव जिन भगवान् के वचन से जाने हैं।' विवेचन-जनदर्शन के अनुसार जगत् की प्रत्येक वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है / दूसरे शब्दों में कहा जाय तो द्रव्य और पर्याय मिलकर ही वस्तु कहलाते हैं / ऐसी कोई वस्तु नहीं जो केवल द्रव्य स्वरूप हो और पर्याय उसमें न हों। ऐसी भी कोई वस्तु नहीं जो एकान्त पर्यायमय हो, द्रव्य न हो। जीव द्रव्य हो किन्तु सिद्ध, देव, मनुष्य, तिर्यंच अथवा नारक पर्याय में से कोई भी न हो, यह असंभव है। इसी प्रकार देवादि कोई पर्याय तो हो किन्त जीवद्रव्य उसके साथ न हो, यह भी असंभव है। सार यह कि प्रत्येक वस्तु में द्रव्य और पर्याय—दोनों अंश अवश्य ही विद्यमान होते हैं / जब द्रव्य-अंश को प्रधान और पर्याय-अंश को गौण करके वस्तु का विचार किया जाता है तो उसे जैनपरिभाषा के अनुसार द्रव्याथिकनय कहते हैं और जब पर्याय को प्रधान और द्रव्य को गौण करके देखा जाता है तब वह दष्टि पर्यायाथिकनय कहलाती है। दोनों दृष्टियाँ जब अन्योन्यापेक्ष होती हैं तभी वे समीचीन कही जाती हैं। वस्तु का द्रव्यांश नित्य, शाश्वत, अवस्थित रहता है, उसका न तो कभी विनाश होता है न उत्पाद / अतएव द्रव्यांश की अपेक्षा से प्रत्येक वस्तु चाहे वह जड़ हो या चेतन, ध्रव ही है / मगर पर्याय नाशशील होने से क्षण-क्षण में उनका उत्पाद और विनाश होता रहता है / इसी कारण प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, विनाश और ध्रौव्यमय है / भगवान् ने अपने शिष्यों को यही मूल तत्व सिखाया था उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा। प्रस्तुत सूत्र में पुद्गलों को परिणमनशील कहा गया है, वह पर्यायाथिकनय की दृष्टि से समझना चाहिए। 1.-2. 12 वां अ., 15. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330] [ ज्ञाताधर्मकथा प्रश्न हो सकता है कि जब सभी पदार्थ-द्रव्य परिणमनशील हैं तो यहां विशेष रूप से पुद्गलों का ही उल्लेख क्यों किया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-परिणमन तो सभी में होता है किन्तु अन्य द्रव्यों के परिणमन से पुद्गल के परिणमन में कुछ विशिष्टता है / पुद्गल द्रव्य के प्रदेशों में संयोग-वियोग होता है, अर्थात् पुद्गल का एक स्कंध (पिंड) टूटकर दो भागों में विभक्त हो जाता है, दो पिण्ड मिलकर एक पिण्ड बन जाता है, पिण्ड में से एक परमाणु-उसका निरंश अंश पृथक् हो सकता है / वह कभी-कभी पिण्ड में मिलकर स्कंध रूप धारण कर सकता है / इस प्रकार पुद्गल द्रव्य के प्रदेशों में होनाधिकता, मिलना-बिछुड़ना होता रहता है। किन्तु पुद्गल के सिवाय शेष द्रव्यों में इस प्रकार का परिणमन नहीं होता। जीव, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि के प्रदेशों में न न्यूनाधिकता होती है, न संयोग या वियोग होता है। उनके प्रदेश जितने हैं, उतने ही सदा काल अवस्थित रहते हैं। अन्य द्रव्यों के परिणमन से पूदगल के परिणमन की इसी विशिष्टता के कारण संभवतः यहाँ पुद्गलों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। दूसरा कारण यह हो सकता है कि प्रस्तुत में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के संबंध में कथन किया गया है और ये चारों गुण केवल पुद्गल में ही होते हैं, अन्य द्रव्यों में नहीं। यहाँ एक तथ्य और ध्यान में रखने योग्य है / वह यह कि प्रत्येक द्रव्य का गुण भी द्रव्य की ही तरह नित्य-अविनाशी है, परन्तु उन गुणों के पर्याय, द्रव्य के पर्यायों की भाँति परिणमनशील हैं / वर्ण पुद्गल का गुण है / उसका कभी विनाश नहीं होता / काला, पीला, हरा, नीला और श्वेत, वर्ण-गुण के पर्याय है। इनमें परिवर्तन होता रहता है। गंध गुण स्थायी है, सुगन्ध और दुर्गन्ध उसके पर्याय हैं / अतएव गंध नित्य और उसके पर्याय अनित्य हैं। इसी प्रकार रस और स्पर्श के संबंध में समझ लेना चाहिए। परिणमन की यह धारा निरन्तर, क्षण-क्षण, पल-पल, प्रत्येक समय, प्रवाहित होती रहती है, सूक्ष्म परिणमन हमारी दृष्टि में नहीं आता / जब परिणमन स्थल होता है तभी हम उसे जान पाते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे कोई शिशु पल-पल में वृद्धिंगत होता रहता है किन्तु उसकी वृद्धि का अनुभव हमें तभी होता है जब वह स्थूल रूप धारण करती है / सुबुद्धि प्रधान ने राजा जितशत्रु के समक्ष यही तत्त्व रक्खा / इस तत्त्व का प्रतिपादन जिनागम में हो किया गया है, अन्यत्र नहीं / जितशत्रु के पूछने पर सुबुद्धि ने यह बात भी स्पष्ट कर दी है। २२-तए णं जियसत्तू सुबुद्धि एवं बयासी-'इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तव अंतिए जिणवयणं निसामेत्तए।' तए णं सुबुद्धी जियसत्तुस्स विचित्तं केवलिपन्नतं चाउज्जामं धम्म परिकहेइ, तमाइक्खइ, जहा जीवा बझंति जाव पंच अणुव्वयाई / तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि से कहा-'देवानुप्रिय ! तो मैं तुमसे जिनवचन सुनना चाहता हूँ।' तब सुबुद्धि मंत्री ने जितशत्रु राजा को केवली-भाषित चातुर्याम रूप अद्भुत धर्म कहा / जिस प्रकार जीव कर्म-बंध करते हैं, यावत् पाँच अणुव्रत हैं, इत्यादि धर्म का कथन किया। किन्न Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ अध्ययन : उदकं ] २३–तए णं जियसत्तू सुबुद्धिस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हद्वतुट्ठ सुबुद्धि अमच्चं एवं वयासी –'सद्दहामि णं देवाणुप्पिया ! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुन्भे वयह, तं इच्छामि णं तव अंतिए पंचाणुव्वइयं सत सिक्खावइयं जाव उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / ' तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से धर्म सुन कर और मन मे धारण करके, हर्षित और संतुष्ट होकर सुबुद्धि अमात्य से कहा- देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। जैसा तुम कहते हो वह वैसा ही है / सो मैं तुमसे पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को यावत् ग्रहण करके विचरने की अभिलाषा करता हूँ।' (तब सुबुद्धि प्रधान ने कहा-) 'हे देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो, प्रतिबंध मत करो।' २४--तए णं से जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव दुवालसविहं सावयधम्म पडिवज्जइ / तए णं जियसत्तू समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे [जाव उबलद्धपुण्णपावे आसव-संवर-निज्जर-किरिया-अहिगरण-बंध-मोक्खकुसले असहेज्जे देवासुर-नाग-जक्ख-रक्खस-किण्णरकिंपुरिस-गरुल-गंधब्व-महोरगाइएहि देवगणेहि निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे निग्गंथे पावयणे णिस्संकिए णिक्कंखिए निवितिगिच्छे लद्धढे गहियट्ठ पुच्छियठे अभिगयठे विणिच्छियठे आट्ठ-मजपमाणुरागरत्त अयमाउसो ! निग्गथे पावयणे अखें, अयं परमठे, सेसे अणटठे, ऊसियफलिहे अवंगुय-दुवारे चियत्तंतेउर-परघरदारप्पवेसे चाउद्दसटुमुद्दिट्ट-पुण्णमासिणोसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेमाणे समणे निम्नथे फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं ओसह-भेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं] पडिलाभेमाणे विहरइ / व तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से पाँच अणुव्रत वाला (और सात शिक्षाव्रत वाला) यावत् बारह प्रकार का श्रावकधर्म अंगीकार किया। तत्पश्चात् जितशत्रु श्रावक हो गया, . जीव-अजीव का ज्ञाता हो गया (पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण (पाप के साधन), बंध और मोक्ष में कुशल, किसी की सहायता की अपेक्षा न रखने वाला, देव असुर नाग यक्ष राक्षस किन्नर किंपुरुष गरुड गन्धर्व महोरग ग्रादि देवगणों द्वारा भी निर्ग्रन्थ प्रवचन का अतिक्रमण न करने वाला, निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा से रहित, अर्थों-पदार्थों को भलीभांति जानने वाला, पूछकर समझने वाला, निश्चित कर लेने वाला, निर्ग्रन्थ प्रवचन में गहरे अनुराग वाला, 'आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ और परमार्थ है, शेष अनर्थ हैं, ऐसी श्रद्धा वाला, घर की आगल को ऊपर कर देने वाला, दानादि के लिए द्वार खुला रखने वाला, दूसरे के घर में जाने पर उसे प्रीति उपजाने वाला, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा को पोषधव्रत का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाला, निर्ग्रन्थ श्रमणों को प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम, औषध, भेषज, प्रतिहारी पीढ़ा, पाट, उपाश्रय एवं संस्तारक) दान करता हुअा रहने लगा। विवेचन-श्रावकपन अमुक कुल में उत्पन्न होने जन्म लेने से नहीं आता। वह जातिगत विशेषता भी नहीं है / प्रस्तुत सूत्र स्पष्ट निर्देश करता है कि श्रावक होने के लिए सर्वप्रथम वीतरागप्ररूपित तत्त्वस्वरूप पर श्रद्धा होनी चाहिए / वह श्रद्धा भी ऐसी अचल, अटल हो कि मनुष्य तो क्या, देव भी उसे भंग न कर सके। साथ ही उसे आस्रव, बन्ध, निर्जरा, मोक्ष आदि का सम्यक् ज्ञाता भी Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332] [ ज्ञाताधर्मकथा होना चाहिए / मुमुक्षु को जिनागमप्ररूपित नौ तत्त्वों का ज्ञान अनिवार्य है। उसे इतना सत्त्वशाली होना चाहिए कि देवगण डिगाने का प्रयत्न करके थक जाएँ, पराजित हो जाएँ किन्तु वह अपने श्रद्धान और अनुष्ठान से डिगे नहीं। ____ मनुष्य जब श्रावकपद को अंगीकार करता है-श्रावकवृत्ति स्वीकार कर लेता है, तब उसके प्रान्तरिक जीवन में पूरी तरह परिवर्तन हो जाता है और आन्तरिक जीवन में परिवर्तन होने पर बाह्य व्यवहार में भी स्वतः परिवर्तन या जाता है। उसका रहन-सहन, खान-पान, बोल-चाल आदि समस्त व्यवहार बदल जाता है। श्रावक मानो उसी शरीर में रहता हुआ भी नूतन जीवन प्राप्त करता है। उसे समग्र जगत् वास्तविक स्वरूप में दृष्टि-गोचर होने लगता है। उसकी प्रवृत्ति भी तदनुकूल ही हो जाती है / राजा प्रदेशी आदि इस तथ्य के उदाहरण हैं। निम्रन्थ मुनियों के प्रति उसके अन्तःकरण में कितनी गहरी भक्ति होती है, यह सत्य भी प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित कर दिया गया है / इस सूत्र से राजा और उसके मन्त्री के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध प्राचीन काल में होता था अथवा होना चाहिए, यह भी विदित होता है। २५-तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरा जेणेव चंपा गयरी जेणेव पुण्णभद्दचेइए तेणेव समोसढे, जियसत्तू राया सुबुद्धी य निग्गच्छइ / सुबुद्धी धम्म सोच्चा जं णवरं जियसत्तु आपुच्छामि जाव पन्वयामि / अहासुहं देवाणुप्पिया! उस काल और उस समय में जहाँ चम्पा नगरी और पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ स्थविर मुनि पधारे / जितशत्रु राजा और सुबुद्धि उनको वन्दना करने के लिए निकले। सुबुद्धि ने धर्मोपदेश सुन कर (निवेदन किया-) 'मैं जितशत्रु राजा से पूछ लू-उनकी आज्ञा ले लू और फिर दीक्षा अंगीकार करूँगा। तब स्थविर मुनि ने कहा-देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो।' २६-तए णं सुबुद्धी अमच्चे जेणेव जियसत्तू राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी-'एवं खलु सामी ! मए थेराणं अंतिए धम्मे निसंते, से वि य धम्मे इच्छिए पडिच्छिए इच्छियपडिच्छिए तए णं अहं सामी ! संसारभउविग्गे, भीए जम्म-मरणाणं, इच्छामि गं तुन्भेहि अन्भणुनाए समाणे जाव पव्वइत्तए।' तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धि अमच्चं एवं वयासी-अच्छासु ताव देवाणुप्पिया! कइवयाई वासाइं जाव भुजमाणा तओ पच्छा एगयओ थेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वइस्सामो। तत्पश्चात् सुबुद्धि अमात्य जितशत्रु राजा के पास गया और बोला-'स्वामिन ! मैंने स्थविर मुनि से धर्मोपदेश श्रवण किया है और उस धर्म की मैंने पुनः पुनः इच्छा की है। इस कारण हे स्वामिन् ! मैं संसार--अनादि काल से चली आ रही जन्म-मरण की निरन्तरता के भय से उद्विग्न हुअा हूँ तथा जरा-मरण से भयभीत हुआ हूँ / अतः आपकी प्राज्ञा पाकर स्थविरों के निकट प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ।' तब जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! अभी कुछ वर्षों तक Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां अध्ययन : उदक ] [ 333 यावत् भोग भोगते हुए ठहरो, उसके अनन्तर हम दोनों साथ-साथ स्थविर मुनियों के निकट मुडित होकर प्रव्रज्या अंगीकार करेंगे / २७–तए णं सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तस्स रण्णो एयम पडिसुणेइ / तए णं तस्स जियसत्तस्स रन्नो सुबुद्धिणा सद्धि विपुलाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं पच्चणुब्भवमाणस्स दुवालस वासाई वीइक्कंताई। तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं, तए णं जियसत्तू धम्म सोच्चा एवं जं नवरं देवाणुप्पिया ! सुबुद्धि आमंतेमि, जेट्टपुत्तं रज्जे ठवेमि, तए णं तुम्भं जाव पन्वयामि / 'अहासुहं देवाणुप्पिया !" __ तए णं जियसत्तू राया जेणेव सए गिहे (तेणेव) उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुबुद्धि सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी-'एवं खलु मए थेराणं जाव पव्वज्जामि, तुमं णं कि करेसि?' तए णं सुबुद्धी जियसत्तु एवं बयासी—'जाव के अन्ने आहारे वा जाव पव्वयामि / ' तब सुद्धि अमात्य ने राजा जितशत्रु के इस अर्थ को स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् सुबुद्धि प्रधान के साथ जितशत्रु राजा को मनुष्य संबंधी कामभोग भोगते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गये। तत्पश्चात् उस काल और उस समय में स्थविर मुनि का आगमन हुआ। तब जितशत्रु ने धर्मोंपदेश सुन कर प्रतिबोध पाया, किन्तु उसने कहा—'देवानुप्रिय ! मैं सुबुद्धि अमात्य को दीक्षा के लिए आमंत्रित करता हूँ और ज्येष्ठ पुत्र को राजसिंहासन पर स्थापित करता हूँ। तदनन्तर आपके निकट दीक्षा अंगीकार करूगा।' तब स्थविर मुनि ने कहा-'देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे वही करो।' तब जितशत्रु राजा अपने घर पाया / आकर सुबुद्धि को बुलवाया और कहा-मैंने स्थविर भगवान् से धर्मोपदेश श्रवण किया है यावत् मैं प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा करता हूँ। तुम क्या करोगे-तुम्हारी क्या इच्छा है ? तब सूबुद्धि ने जितशत्रु से कहा---'यावत् अापके सिवाय मेरा दूसरा कौन आधार है ? यावत मैं भी संसार-भय से उद्विग्न हैं, मैं भी प्रव्रज्या अंगीकार करूंगा।' २८-तं जइ णं देवाणुप्पिया ! जाव पव्वयह, गच्छह णं देवाणुप्पिया! जेट्टपुत्तं च कुडबे ठावेहि, ठावेत्ता सीयं दुरूहित्ता णं ममं अंतिए जाव पाउन्भवेह / तए णं सुबुद्धी अमच्चे सीयं जाव पाउब्भवइ। तए णं जियसत्तू कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! अदीणसत्तुस्स कुमारस्स रायाभिसेयं उवट्ठवेह / ' जाव अभिसिंचंति, जाव पव्वइए। राजा जितशत्र ने कहा-देवानुप्रिय ! यदि तुम्हें प्रव्रज्या अंगीकार करनी है तो जाम्रो देवानुप्रिय ! और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करो और शिविका पर प्रारूढ होकर मेरे समीप प्रकट होमो-यानो / तब सुबुद्धि अमात्य शिविका पर आरूढ होकर यावत् राजा के समीप आ गया। तत्पचात् जितशत्रु ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा--'जागो देवानुप्रियो ! अदीनशत्रु कुमार के राज्याभिषेक की सामग्री उपस्थित-तैयार करो।' कौटुम्बिक पुरुषों ने Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334] [ ज्ञाताधर्मकथा सामग्री तैयार की, यावत् कुमार का अभिषेक किया, यावत् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य के साथ प्रव्रज्या अंगीकार कर ली। २९-तए णं जियसत्तू एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूणि वासाणि परियायं पाणित्ता मासियाए संलेहणाए सिद्धे / तए णं सुबुद्धी एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूणि वासाणि परियायं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सिद्ध / दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् जितशत्रु मुनि ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया / बहुत वर्षों तक दीक्षापर्याय पाल कर अन्त में एक मास की संलेखना करके सिद्धि प्राप्त की। दीक्षा अंगीकार करने के अनन्तर भुबुद्धि मुनि ने भी ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। बहत वर्षों तक दीक्षापर्याय पाली और अंत में एक मास की संलेखना करके सिद्धि पाई / ३०–एवं खलु जंबू ! समणेणं भगक्या महावीरेणं बारसमस्स णायज्झयणस्स अयमठ्ठ पन्नत्ते, ति बेमि। श्री सुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी से कहते हैं-इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने बारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह (उपर्युक्त) अर्थ कहा है / मैंने जेसा सुना वैसा कहा / Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ अध्ययन : ददुरज्ञात सार : संक्षेप प्रस्तुत अध्ययन दर्दुर-ज्ञात के नाम से प्रसिद्ध है। कहीं-कहीं इसे 'मंडुक्क' नाम से भी अभिहित किया गया है। दोनों शब्दों के अर्थ में कोई भेद नहीं है। दर्दुर और मंडूक का अर्थ मेंढक है / इस अध्ययन में प्ररूपित कथा-वस्तु, विशेषतः कथानायक के आधार पर इसका नामकरण हुअा है, जैसा कि अन्य अध्ययनों का / फिर भी इस अध्ययन में जहाँ-तहाँ मूल पाठ में 'दर्दुर' शब्द का ही प्रयोग हुआ है। अतएव प्रकृत अध्ययन का नाम 'दर्दुर' हो अधिक संगत प्रतीत होता है / / 'दर्दुर' अध्ययन में निरूपित उदाहरण से पाठकों को जो बोध दिया गया है, उसमें दो बातें प्रधान हैं (1) सद्गुरु के समागम से आत्मिक गुणों की वृद्धि होती है / (2) आसक्ति अध:पतन का कारण है। उदाहरण का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है भगवान् महावीर के राजगृह नगर में पदार्पण करने पर दर्दुरावतंसक विमान का वासी दर्दु र नामक देव वहाँ पाया / राजप्रश्नीयसूत्र में वर्णित सूर्याभ देव की तरह नाट्यविधि दिखाकर वह लौट गया / तब गौतम स्वामी के प्रश्न करने पर भगवान ने उसका परिचय दिया-उसके अतीत जन्म का, वर्तमान जन्म का और भावी जन्म का भी। भगवान ने कहा---राजगह नगर में नन्द नामक मणियार था। मेरा उपदेश सुनकर वह श्रमणोपासक हो गया / कालान्तर में साधु-समागम न होने से तथा मिथ्यादृष्टियों के साथ परिचय बढ़ने से वह मिथ्यात्वी हो गया, फिर भी तपश्चर्या आदि बाह्य क्रियाएँ पूर्ववत् करता रहा / एक बार ग्रीष्म ऋत में उसने पोषधशाला में अष्टमभक्त की तपश्चर्या की। तपश्चर्या के समय वह भूखप्यास से पीड़ा पाने लगा। तब उसके मन में ऐसी भावना उत्पन्न हुई, जो पोषध-अवस्था में नहीं होनी चाहिए थी। उसने एक वावड़ी, बगीचा आदि निर्माण कराने का संकल्प किया / दूसरे दिन पोषध समाप्त करके वह राजा के पास पहुँचा / राजा की अनुमति प्राप्त कर उसने एक सुन्दर वावड़ी बनवाई, वगीचे लगवाए और चित्रशाला, भोजनशाला, चिकित्साशाला तथा अलंकारशाला का निर्माण करवाया। बहुसंख्यक जन इनका उपयोग करने लगे और नन्द मणियार की प्रशंसा करने लगे। अपनी प्रशंसा एवं कीति सुनकर नन्द बहुत हर्षित होने लगा। वावड़ी के प्रति उसके हृदय में गहरी आसक्ति हो गई। एक बार नन्द के शरीर में एक साथ सोलह रोग उत्पन्न हो गए। उसने एक भी रोग मिटा देने पर चिकित्सकों को यथेष्ट पुरस्कार देने की घोषणा करवाई। अनेकानेक चिकित्सक 1. मुनिश्री नथमलजी म. द्वारा सम्पादित अंगमुत्ताणि 3 रा भाग Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा आए, भाँति-भाँति को चिकित्सापद्धतियों का उन्होंने प्रयोग किया, मगर कोई भी सफल नहीं हो सका। उन चिकित्सापद्धतियों का नामोल्लेख मल पाठ में किया गया है. जो भारतीय पद्धति के इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। अन्त में नन्द मणियार वावड़ी में आसक्ति के कारण प्रात्तध्यान से ग्रस्त होकर उसी वावड़ी में मेंढक की योनि में उत्पन्न हुा / लोगों के मुख से नन्द मणियार की प्रशंसा सुनकर उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया / तब उसने अपने मिथ्यात्व के लिए पश्चात्ताप करके प्रात्मसाक्षी से पुनः श्रावक के व्रत अंगीकार किए। तत्पश्चात् एक बार पुन: भगवान् महावीर का राजगृह में समवसरण हुा / जन-रव सुनकर उसे भी भगवान् के आगमन का वृत्तान्त विदित हुआ। भक्तिभाव से प्रेरित होकर वह भगवान् की उपासना के लिए रवाना हुआ, पर रास्ते में ही राजा श्रेणिक के एक घोड़े के पांव के नीचे आकर कुचल गया / जीवन का अन्त सन्निकट देखकर उसने अन्तिम समय को विशिष्ट पाराधना की और मृत्यु के पश्चात् देवपर्याय में उत्पन्न हुआ। देवगति का आयुष्य पूर्ण होने पर वह महाविदेह क्षेत्र में मनुष्यभव प्राप्त कर, चारित्र अंगीकार करके सुक्ति प्राप्त करेगा। _ विस्तार से वर्णन जानने के लिये स्वयं इस अध्ययन को पढ़िए। .. Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं अज्झरा : ददुरजायं श्री जम्बू का प्रश्न १--जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं बारसमस्स णायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते, तेरसमस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स के अठे पण्णत्ते ? जम्बूस्वामी ने प्रश्न किया--भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने बारहवें ज्ञातअध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा है तो तेरहवं ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? श्री सुधर्मा का उत्तर 2 एव खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे होत्था। तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए णामं राया होत्था / तस्स णं रायगिहस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं गुणसिलए नामं चेइए होत्था। सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी के प्रश्न का उत्तर देना प्रारम्भ किया-हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था / राजगृह के बाहर उत्तरपूर्वदिशा में गुणशील' नामक उद्यान था। ३-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे चउहि समणसाहस्सीहि जाव [छत्तीसाए अज्जियासाहस्सोहिं] सद्धि संपरिवुडे पुव्वाणुपुचि चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे, सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव रायगिहे पयरे, जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव समोसढे / अहापडिरूवं उग्गहं गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / परिसा निग्गया। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर चौदह हजार साधुओं के तथा [छत्तीस हजार प्रायिकाओं के साथ अनुक्रम से विचरते हुए, एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हुए-सुखे-सुखे विहार करते हुए जहाँ राजगृह नगर था और गुणशील उद्यान था, वहाँ पधारे / यथायोग्य अवग्रह (स्थानक) की याचना करके संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरने लगे / भगवान् को वन्दना करने के लिए परिषद् निकली और धर्मोपदेश सुन कर वापिस लौट गई। दर्दुर देव का आगमन-नाटय प्रदर्शन ४--तेणं कालेणं तेणं समएणं सोहम्मे कप्पे ददुरडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए ददुरंसि सीहासणंसि ददुरे देवे चहि सामाणियसाहस्सोहि, चहि अग्गमहिसीहि, तिहि परिसाहि, एवं जहा सूरियाभो जाव [सत्तहि अणिएहि सहिं अणियाहिवईहिं सोलसहि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं बहूहि ददुरडिसगविमाणवासोहि वेमाणिएहिं देवेहि य देवीहि य सद्धि संपरिवुडे महयाहयनट्ट-गीयवाइय-तंतोतल-ताल-तुडिय-घणमुइंग-पटुपवाइय-रवेणं] दिव्वाई भोगभोगाइं भुजमाणो विहरइ / इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विपुलेणं ओहिणा आभोएमाणे आभोएमाणे जाव नट्टविहि उवदंसित्ता पडिगए जहा सूरियाभे'। 1. विस्तृत वर्णन के लिए देखिए, रायपसेणियसूत्र में सूर्याभवर्णन / Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338] [ज्ञाताधर्मकथा उस काल और उस समय सौधर्मकल्प में, दुर्दु रावतंसक नामक विमान में, सुधर्मा नामक सभा में, दर्दु र नामक सिंहासन पर, दर्दु र नामक देव चार हजार सामानिक देवों, चार अग्रमहिषियों और तीन प्रकार की परिषदों के साथ [तथा सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों तथा बहुत-से दुर्दुरावतंसक विमान निवासी वैमानिक देवों एवं देवियों के साथ--उनसे परिवृत होकर, अव्याहत-अक्षत नाट्य, गीत, वादित, वीणा, हस्तताल, कांस्यताल तथा अन्यान्य वादित्रों एवं घनमृदंग-मेघ के समान ध्वनि करने वाले मृदंग, जो निपुण पुरुषों द्वारा बजाए जा रहे थे, की आवाज के साथ] सूर्याभ देव के समान दिव्य भोग योग्य भोगों को भोगता हुआ विचर रहा था। उस समय उसने इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को अपने विपुल अवधिज्ञान से देखते-देखते राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में भगवान् महावीर को देखा। तब वह परिवार के साथ भगवान् के पास पाया और सूर्याभ देव के समान नाटयविधि दिखलाकर वापिस लौट गया। विवेचन- रायपसेणियसूत्र में श्रमण भगवान महावीर के आमलकल्पा नगरी में पधारने पर सूर्याभ देव के वन्दना के लिए आगमन आदि का अत्यन्त विस्तृत वर्णन किया गया है / वही सव वर्णन यहाँ समझ लेने की सूत्रकार ने सूचना की है। उसका सार इस प्रकार है आमलकल्पा नगरी में भगवान् का पदार्पण हुआ / सभी वर्गों की जनता भगवान् की धर्मदेशना श्रवण करने उनके निकट उपस्थित हुई। उस समय सौधर्मकल्प के सूर्याभ देव ने जम्बूद्वीप की अोर उपयोग लगाया, उसे ज्ञात हुना कि भगवान् का अामलकल्पा नगरी में पदार्पण हुआ है। तभी उसने भगवान् को वन्दन-नमस्कार करने एवं धर्मदेशना सुनने के लिए आमलकल्पा जाने का निश्चय कर लिया / तत्काल उसने प्राभियोगिक देवों को बुलाकर आदेश दिया--ग्रामलकल्पा नगरी जाओ और नगरी के चारों ओर एक योजन भूमि को पूरी तरह स्वच्छ करो। कहीं कुछ कचरा, घास-फूस आदि न रहने पाए / तत्पश्चात् उस भूमि में सुगन्धयुक्त जल की वर्षा करो और घुटनों तक पुष्पवर्षा करो / एक योजन परिमित भूमि पूर्ण रूप से स्वच्छ और सुगन्धमय बन जाए। अादेश पाकर आभियोगिक देव प्रक्रिया करके त्वरित देवगति से भगवान् के समक्ष उपस्थित हुए। वन्दनादि विधि करके उन्होंने भगवान् को अपना परिचय दिया-'प्रभो! हम सूर्याभ देव के आभियोगिक देव हैं।' भगवान् ने उत्तर में कहा-'देवो! यह तुम्हारा परम्परागत प्राचार है. सभी निकायों के देव तीर्थकरों को वन्दन-नमस्कार करके अपने-अपने नाम-गोत्र का उत्त करते है। देवों ने भगवान के पास से जाकर संवर्तक वायु की विक्रिया की और जैसे कोई अत्यन्त कुशल भृत्य बुहारी से राजा का प्रांगन ग्रादि साफ करता है, उसी प्रकार उन देवों ने ग्रामलकल्पा के इर्द-गिर्द एक योजन क्षेत्र की सफाई की / वहां जो भी तिनके, पत्ते, घास-फूस कचरा आदि था, उसे एकान्त में दूर जाकर डाल दिया। जब पूरी तरह भूमि स्वच्छ हो गई तो उन्होंने मेघों की विक्रिया की और मन्द-मन्द सुगन्धित जल की वर्षा की। वर्षा से रज आदि उपशान्त हो गई। भूमि शीतल हो गई / तदनन्तर घुटनों तक पुष्प-वर्षा की / इससे एक योजन परिमित क्षेत्र सुगन्ध से मघमघाने लगा। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्ययन : ददु रज्ञात ] यह सब करके आभियोगिक देव वापिस लौट गये / सूर्याभ देव को प्रादेशानुसार कार्य सम्पन्न हो जाने की सूचना दी। तब सूर्याभ देव ने पदात्यनीकाधिपति-अपनी पैदलसेना के अधिपति देव को बुलाकर आदेश दिया—'सौधर्म विमान की सुधर्मा सभा में एक योजन के सुस्वर घंटे को तीन बार हिलाहिलाकर घोषणा करो---सूर्याभ देव श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करने जा रहा है, तुम सब भी अपनी ऋद्धि के साथ, अपने-अपने विमानों में प्रारूढ होकर अविलम्ब उपस्थित होयो।' घोषणा सुनकर सभी देव प्रसन्नता के साथ उपस्थित हो गए। तत्पश्चात् सूर्याभ देव ने पाभियोगिक देवों को बुलवाकर एक दिव्य तीव्र गति वाले यानविमान की विक्रिया करने की आज्ञा दी। उसने विमान तैयार कर दिया / मूलपाठ में उस विमान का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। उसे पढ़कर बड़े से बड़े शिल्पशास्त्री भी चकित-विस्मित हुए विना नहीं रह सकते / संक्षेप में उसका वर्णन होना शक्य नहीं है। विमान का विस्तार एक लाख योजन का था अर्थात् पूरे जम्बूद्वीप के बराबर था। सूर्याभ देव सपरिवार विमान में प्रारूढ होकर भगवान् के समक्ष उपस्थित हुआ / वन्दननमस्कार आदि करने के पश्चात् सूर्याभ देव ने भगवान् से अनेक प्रकार के नाटक दिखाने की अनुमति चाही / भगवान् मौन रहे। फिर भी देव ने भक्ति के उद्रेक में अनेक प्रकार के नाट्य प्रदर्शित किए तथा संगीत और नृत्य का कार्यक्रम प्रस्तुत किया / इस प्रकार भक्ति करके और धर्मदेशना सुन कर सूर्याभदेव अपने स्थान पर चला गया। सूर्याभ देव संबंधी यह वर्णन दर्दु र देव के लिए भी समझना चाहिए। मात्र 'सूर्याभ' नाम के स्थान पर 'दर्दुर' नाम कह लेना चाहिए / गौतमस्वामी को जिज्ञासा : भगवान् का उत्तर 5-- 'भंते ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी—'अहो णं भंते ! ददुरे देवे महिडिए महज्जुइए महब्बले महायसे महासोक्खे महाणुभागे, दद्दुरस्स णं भंते ! देवस्स सा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभावे कहिं गया ? कहि अणुपविट्ठा?' 'गोयमा ! सरीरं गया, सरीरं अणुपविट्ठा कूडागारदिळंतो।' भगवन् !' इस प्रकार कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया, वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भगवन् ! दर्दु र देव महान् ऋद्धिमान महाद्युतिमान्, महाबलवान्, महायशस्वी, महासुखवान् तथा महान् प्रभाववान् है, तो हे भगवन् ! दर्दु र देव की विक्रिया की हुई वह दिव्य देवऋद्धि कहाँ चली गई ? कहाँ समा गई ?' भगवान ने उत्तर दिया...' गौतम! वह देव-ऋद्धि शरीर में गई, शरीर में समा गई। इस विषय में कूटागार का दृष्टान्त समझना चाहिए।' विवेचन-कूटागार (कुटाकार) शाला का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-एक कूट (शिखर) के आकार की शाला थी। वह बाहर से गुप्त थी, भीतर से लिपीपुती थी। उसके चारों ओर कोट था। उसमें वायु का भी प्रवेश नहीं हो पाता था। उसके समीप बहुत बड़ा जनसमूह रहता था / एक Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 [ ज्ञाताधर्मकथा बार मेघ और तूफान बहुत जोर के पाए तो सब लोग उसमें घुस गए और निर्भय हो गए / तात्पर्य यह है कि जैसे सब लोग उस शाला में समा गये, उसी प्रकार देव-ऋद्धि देव के शरीर में समा गई / ६-दृटुरेणं भंते ! देवेणं सा दिव्वा देविडो किण्णा लद्धा जाव [ किण्णा पत्ता ] अभिसमन्नागया ? गौतमस्वामी ने पुनः प्रश्न क्रिया-- भगवन् ! दर्दुरदेव ने वह दिव्य देव-ऋद्धि किस प्रकार लब्ध को, किस प्रकार प्राप्त की ? किस प्रकार वह उसके समक्ष प्राई ? दर्दुरदेव का पूर्ववृत्तान्त : नन्द मणिकार ७–'एवं खलु गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नाम नयरे होत्था, गुणसीलए चेइए, तस्स णं रायगिहस्स सेणिए नामं राया होत्था / तत्थ णं रायगिहे गंदे णामं मणियारसेट्ठी परिवसइ, अड्ढे दित्ते जाव' अपरिभूए।' भगवान् उत्तर देते हैं--'गौतम / इसी जम्बूद्वीप में, भरतक्षेत्र में, राजगृह नगर था / गुणशील चैत्य था। श्रेणिक राजगृह नगर का राजा था। उस राजगृह नगर में नन्द नामक मणिकार (मणियार) सेठ रहता था / वह समृद्ध था, तेजस्वी था और किसी से पराभूत होने वाला नहीं था।' नन्द को धर्मप्राप्ति 8- तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा समोसढे, परिसा निग्गया, सेणिए वि राया निग्गए। तए गंदे से गंदे मणियारसेट्ठी इमीसे कहाए लद्धठे समाणे हाए पायचारेणं जाव पज्जुवासइ, गंदे धम्म सोच्चा समणोवासए जाए / तए णं अहं रायगिहाओ पडिणिक्खंते बहिया जणवयविहारं विहरामि। हे गौतम ! उस काल और उस समय में मैं गुणशील उद्यान में पाया / परिषद् वन्दना करने के लिए निकली और श्रेणिक राजा भी निकला / तब नन्द मणियार सेठ इस कथा का अर्थ जान कर अर्थात् मेरे आगमन का वृत्तान्त ज्ञात कर स्नान करके विभूषित होकर पैदल चलता हा पाया, यावत् मेरी उपासना करने लगा। फिर वह नन्द धर्म सुनकर श्रमणोपासक हो गया अर्थात उसने श्रावकधर्म अंगीकार किया। तत्पश्चात् में राजगृह से बाहर निकल कर बाहर जनपदों में विचरण करने लगा। नन्द को मिथ्यात्वप्राप्ति ९--तए णं से गंदे मणियारसेट्ठी अन्नया कयाई असाहुदसणेण य अपज्जुवासणाए य अणणुसासणाए य असुस्सूसणाए य सम्मत्तपज्जवेहि परिहायमाणेहि परिहायमाणेहि मिच्छत्तपज्जवेहि परिवड्डमाहिं परिवठ्ठमाणेहि मिच्छत्तं विष्पडिवन्ने जाए यावि होत्था / तत्पश्चात् नन्द मणिकार श्रेष्ठी साधुओं का दर्शन न होने से, उनकी उपासना न करने से, उनका उपदेश न मिलने से और वीतराग के वचन सुनने की इच्छा न होने से क्रमश. सम्यक्त्व के पर्यायों की धोरे-धीरे हीनता होती चली जाने से और मिथ्यात्व के पर्यायों की क्रमशः वृद्धि होते रहने से, एक बार किसी समय मिथ्यात्वी हो गया। 1. अ. 5, सूत्र 6 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्ययन : द१रज्ञात ] [ 341 नन्द का पुष्करिणी-निर्माण-मनोरथ १०-तए णं णंदे मणियारसेट्ठी अन्नया गिम्हकालसमयंसि जेवामूलंसि मासंसि अट्ठमभत्तं परिगेण्हइ, परिगेण्हित्ता पोसहसालाए जाव [पोसहिए बंभयारी उम्मुक्कमणि-सुवण्णे बवगयमालावष्णग-विलेवणे निक्खित्तसत्थ-मुसले एगे अबीए दम्भसंथारोवगए] विहरइ। तए णं णंदस्स अट्टमभक्तसि परिणममाणंसि तण्हाए छहाए य अभिभयस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुपज्जित्था-'धन्ना णं ते जाव [ईसरपभियओ संपुण्णा णं ते ईसरपभियओ कयत्था णं ते ईसरपभियओ कयण्णा णं ते ईसरपभियओ कयलक्खणा णं ते ईसरपभियओ कविभवा णं ते] ईसरपभियओ जेसि णं रायगिहस्स बहिया बहूओ वावीओ पोक्खरणीओ जाव [दोहियाओ गुजालियाओ सरपंतियाओ] सरसरपंतियओ जत्थ णं बहुजणो ण्हाइ य पियइ य पाणियं च संवहति / तं सेयं खलु ममं कल्लं पाउप्पभायाए सेणियं रायं आपुच्छित्ता रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए वेभारपव्वयस्स अदूरसामंते वत्थुपाढगरोइतंसि भूमिभागंसि नंदं पोखरिणि खणावेत्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ। तत्पश्चत नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने किसी समय ग्रीष्मऋतु के अवसर पर, ज्येष्ठ मास में अष्टम भक्त (तेला) अंगीकार किया / अंगीकार करके वह पौषधशाला में [ब्रह्मचर्यपूर्वक, मणि-सुवर्ण के आभूषणों को त्याग करके, माला, वर्णक, विलेपन का तथा आरंभ-समारंभ का त्याग कर एकाकी, अद्वितीय, दर्भ के संस्तारक पर आसीन होकर विचरने लगा। तत्पश्चात् नन्द श्रेष्ठी का अष्टमभक्त जब परिणत हो रहा था-पूरा होने को था, तब प्यास और भूख से पीड़ित हुए उसके मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-'वे यावत् ईश्वर सार्थवाह आदि धन्य हैं, वे ईश्वर आदि पुण्यशाली हैं, वे ईश्वर आदि कृतार्थ हैं, उन ईश्वर आदि ने पुण्य उपाजित किया है, वे ईश्वर आदि सुलक्षणसम्पन्न हैं, वे ईश्वर आदि वैभवशाली हैं, जिनकी राजगृह नगर से बाहर वहुत-सी वावड़ियाँ हैं, पुष्करिणियाँ हैं, यावत् [दीपिकाएँ--लम्बी वावड़ियाँ, गुजालिकाएँ-कमल युक्त वावड़ियाँ हैं, सरोवर हैं] सरोवरों की पंक्तियाँ हैं, जिनमें बहुतेरे लोग स्नान करते हैं, पानी पीते हैं और जिनसे पानी भर ले जाते हैं / तो मैं भी कल प्रभात होने पर श्रेणिक राजा की प्राज्ञा लेकर राजगृह नगर से बाहर, उत्तरपूर्व दिशा में, वैभारपर्वत से कुछ समीप में, वास्तुशास्त्र के पाठकों के पसंद किये हुए भूमिभाग में नंदा पुष्करिणी खुदवाऊँ, यह मेरे लिए उचित होगा।' नन्द श्रेष्ठी ने इस प्रकार विचार किया। राजाज्ञाप्राप्ति ११-एवं संपेहित्ता कल्लं पाउप्पभायाए जाव [रयणीए जाव उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते] पोसह पारेइ, पारित्ता हाए कयबलिकम्मे मित्तणाइ जाव संपरिवुडे महत्थं जाव [महग्धं महरिहं रायारिहं] पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव पाहुडं उवट्ठवेइ, उवट्ठवित्ता एवं वयासो-'इच्छामि गं सामी ! तुहिं अब्भणुन्नाए समाणे रायगिहस्स बहिया जाव खणावेत्तए।' ___ 'अहासुहं देवाणुप्पिया।' इस प्रकार विचार करके, दूसरे दिन प्रभात होने पर [एवं सहस्ररश्मि दिवाकर के तेज से जाज्वल्यमान होने पर पौषध पारा / पौषध पार कर स्नान किया, बलिकर्म किया, फिर मित्र ज्ञाति Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342] [ ज्ञाताधर्मकथा प्रादि से यावत् परिवृत होकर बहुमूल्य और राजा के योग्य उपहार लिया और श्रेणिक राजा के पास पहुँचा / उपहार राजा के समक्ष रखा और इस प्रकार कहा–'स्वामिन् ! अापकी अनुमति पाकर राजगृह नगर के बाहर यावत् पुष्करिणी खुदवाना चाहता हूँ।' राजा ने उत्तर दिया--'जैसे सुख उपजे, वैसा करो।' पुष्करिणीवर्णन १२-तए णं गंदे सेणिएणं रण्णा अम्भणुष्णाए समाणे हट्ठ-तुट्ठ रायगिहं मझंमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गछित्ता वत्थुपाढयरोइयंसि भूमिभागंसि गंदं पोक्खरिणि खणाविउं पयत्ते यावि. होत्था। तए णं सा गंदा पोक्खरिणी अणुपुब्बेणं खणमाणा' खणमाणा पोक्खरिणी जाया याचि होत्थाचाउकोणा, समतीरा, अणुपुव्वसुजायवप्पसीयलजला, संछण्णपत्त-विस-मुणाला बहुप्पल-पउम-कुमुद नलिणी-सुभग-सोगंधिय-पुडरोय-महापुडरीय-सयपत्त-सहस्सपत्त-पफुल्लकेसरोववेया परिहत्थ-भमंतमत्तछप्पय-अणेग-सउणगण-मिहुण-वियरिय-सदुन्नइय-महुरसरनाइया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूबा। तत्पश्चात् नन्द मणिकार सेठ श्रेणिक राजा से ग्राज्ञा प्राप्त करके हृष्ट-तुष्ट हुया / वह राजगह नगर के बीचों बीच होकर निकला। निकलकर वास्तुशास्त्र के पाठकों (शिल्पशास्त्र के ज्ञातानों) द्वारा पसंद किए हुए भूमिभाग में नंदा नामक पुष्करिणी खुदवाने में प्रवृत्त हो गया उसने पुष्करिणी का खनन-कार्य प्रारंभ करवा दिया। तत्पश्चात् नंदा पुष्करिणी अनुक्रम से खुदती-खुदती चतुष्कोण और समान किनारों वाली पूरी पुष्करिणी हो गई / अनुक्रम से उसके चारों ओर घूमा हुआ परकोटा बन गया, उसका जल शीतल हना / जल पत्तों, बिसतंतुओं और मृणालों से आच्छादित हो गया / वह वापी बहुत-से खिले हुए उत्पल (कमल), पद्म (सूर्य विकासी कमल), कुमुद (चन्द्रविकासी कमल), नलिनी (कमलिनी-सुन्दर कमल), सुभग जातिय कमल, सौगंधिक कमल, पुण्डरीक (श्वेत कमल), महापुण्डरीक, शतपत्र (सौ पंखड़ियों वाले) कमल, सहस्रपत्र (हजार पंखुड़ियों वाले) कमल की केसर से युक्त हुई / परिहत्थ नामक जल-जन्तुओं, भ्रमण करते हुए मदोन्मत्त नमरों और अनेक पक्षियों के युगलों द्वारा किए हुए शब्दों से उन्नत और मधुर स्वर से वह पुष्करिणी गूंजने लगी / वह सबके मन को प्रसन्न करने वाली दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हो गई। वनखण्डों का निर्माण १३–तए णं से गंदे मणियारसेट्ठी गंदाए पोक्खरिणीए चउद्दिसि चत्तारि वणसंडे रोवावे / तए णं ते बणसंडा अणुपुब्वेणं सारक्खिज्जमाणा य संगोविज्जमाणा य संवडियमाणा य वणसंडा जाया -किण्हा जाव' निकुरंबभूया पत्तिया पुफिया जाव [फलिया हरियगरेरिज्जमाणा सिरीए अईव] उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति / / तत्पश्चात् नंद मणिकार श्रेष्ठी ने नंदा पुष्करिणी की चारों दिशाओं में चार वनखण्ड रुपवाये-लगवाये। उन वनखण्डों की क्रमशः अच्छो रखवाली की गई, संगोपन सार-संभाल की गई, 1. पाठान्तर-खम्ममाणा खम्ममाणा 2. अ. 7 सुत्र. 11 . Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्ययन : दर्दुरज्ञात ] अच्छी तरह उन्हें बढ़ाया गया, अतएव वे वनखण्ड कृष्ण वर्ण वाले तथा गुच्छा रूप हो गये-खब घने हो गये / वे पत्तों वाले, पुष्पों वाले यावत् (फलों से युक्त हरे-भरे और अपनी सुन्दरता से अतीव अतीव) शोभायमान हो गये। चित्रसभा १४–तए णं नंदे मणियारसेट्टी पुरच्छिमिल्ले वणसंडे एगं महं चित्तसभं कारावेइ, अणेगखंभसयसंनिविट्ठ पासादीयं दरिसणिज्ज अभिरूवं पडिरूवं / तत्थ णं बहूणि किण्हाणि य जाव (नोलाणि य लोहियाणि य हालिद्दाणि य) सुक्किलाणि य कटकम्माणि य पोत्थकम्माणि य चित्तकम्माणि य लिप्पकम्माणि य गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमाइं उवदंसिज्जमाणाई उवदंसिज्जमाणाइं चिट्ठति। / तत्पश्चात् नंद मणियार सेठ ने पूर्व दिशा के वनखण्ड में एक विशाल चित्रसभा बनवाई। वह कई सौ खंभों की बनी हुई थी, प्रसन्नताजनक थी, दर्शनीय थी, अभिरूप थी और प्रतिरूप थी। उस चित्रसभा में बहुत-से कृष्ण वर्ण वाले यावत् नील, रक्त, पीत और शुक्ल वर्ण वाले काष्ठकर्म थे-- पुतलियाँ वगैरह बनी थीं, पुस्तकर्म-वस्त्रों के पर्दे आदि थे, चित्रकर्म थे, लेप्यकर्म-मिट्टी के पुतले आदि थे, ग्रंथित कर्म थे--डोरा गूथ कर बनाई हुई कलाकृतियाँ थीं, वेष्टितकर्म-फूलों की गेंद की तरह लपेट-लपेट कर बनाई हुई कलाकृतियाँ थीं, इसी प्रकार पूरिमकर्म (स्वर्ण-प्रतिमा के समान) और संघातिमकर्म-जोड़-जोड़ कर वनाई कलाकृतियाँ थीं। वे कलाकृतियाँ इतनी सुन्दर थीं कि दर्शकगण उन्हें एक दूसरे को दिखा-दिखा कर वर्णन करते थे। १५--तत्थ णं बहूणि आसणाणि य सयणीयाणि य अत्थुयपच्चत्थुयाई चिट्ठति / तत्थ णं बहवे नडा य णट्टा य जाव (जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंवग-कहग-पवग-लासग-आइक्खग-लंख-मंखतूणइल्ल-तुबवीणि या य) दिनभइभत्तवेयणा तालायरकम्मं करेमाणा विहरति / रायगिहविणिग्गओ एत्थ' बहू जणो तेसु पुव्वन्नत्थेसु आसणसयणेसु संनिसन्नो य संतुयट्टो य सुणमाणो य पेच्छमाणो य साहेमाणो य सुहंसुहेणं विहरइ / उस चित्रसभा में बहुत-से प्रासन (बैठने योग्य) और शयन (लेटने-सोने के योग्य) निरन्तर बिछे रहते थे। वहाँ बहुत-से नाटक करने वाले और नृत्य करने वाले, राजा की स्तुति करने वाले, मल्ल-कुश्ती लड़ने वाले, मुष्ठियुद्ध करने वाले, विदूषक तथा कहानी सुनाने वाले, प्लवक-तैराक-नदी में तैरने वाले, रास गाने वाले रासलीला दिखाने वाले अथवा भांड, आख्यायिक-शुभ-अशुभ फल का निर्देश करने वाले----ज्योतिषी, लंख-ऊँचे वांस पर चढ़कर खेल करने वाले, मंख-चित्रपट हाथ में लेकर भिक्षा मांगने वाले, तूण नामक वाद्य बजाने वाले तथा तुबे की वीणा बजाने वाले पुरुष, जीविका भोजन एवं वेतन देकर रखे हुए थे / वे तालाचर (एक प्रकार का नाटक) किया करते थे / राजगृह से बाहर सैर के लिए निकले हुए बहुत लोग उस जगह पाकर पहले से ही बिछे हुए प्रासनों और शयनों पर वैठकर और लेट कर कथा-वार्ता सुनते थे और नाटक प्रादि देखते थे और वहाँ की शोभा (आनन्द) का अनुभव करते हुए सुखपूर्वक विचरण करते थे। 1. पाठान्तर-एत्थ, तत्थ णं / Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 ] [ज्ञाताधर्मकथा महानसशाला ____१६-तए णं णंदे मणियारसेट्ठी दाहिणिल्ले वणसंडे एगं महं महाणससालं कारावेइ, अणेगखंभसयसन्निविट्ठे जाव पडिरूवं / तत्थ णं बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेंति, बहूणं समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगाणं परिभाएमाणा परिभाएमाणा विहरंति। / तत्पश्चात् नंद मणिकार सेठ ने दक्षिण तरफ के वनखंड में एक बड़ी महानसशाला (भोजनशाला) बनवाई। वह भी अनेक सैकड़ों खंभों वाली यावत् प्रतिरूप (अत्यन्त सुन्दर) थी / वहाँ भी बहुत-से लोग जीविका, भोजन और वेतन देकर रखे गये थे। वे विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार पकाते थे और बहुत-से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों, दरिद्रों और भिखारियों को देते रहते थे। चिकित्साशाला १७-तए णं णंदे मणियारसेट्ठी पच्चथिमिल्ले वणसंडे एगं महं तेगिच्छियसालं कारेइ, अणेगखंभसयसन्निविठं जाव पडिरूवं / तत्थ णं बहवे वेज्जा य, वेज्जपुत्ता य, जाणुया य, जाणुयपुत्ता य, कुसला य, कुसलपुत्ता य, दिनभइभत्तवेयणा बहूणं वाहियाणं, गिलाणाण य, रोगियाण य, दुब्बलाण य, तेइच्छं करेमाणा विहरंति / अण्णे य एत्थ बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा तेसिं बहूणं वाहियाणं य रोगियाणं य, गिलाणाण य, दुब्बलाण य ओसह-भेसज्ज-भत्त-पाणेणं पडियारकम्मं करेमाणा विहरति / तत्पश्चात् नन्द मणिकार सेठ ने पश्चिम दिशा के वनखण्ड में एक विशाल चिकित्साशाला (औषधालय) बनवाई। वह भी अनेक सौ खंभों वाली यावत् मनोहर थी / उस चिकित्साशाला में बहुत-से वैद्य, वैद्यपूत्र, ज्ञायक (वैद्यक शास्त्र न पढ़ने पर भी अनुभव के आधार से चिकित्सा करने वाले अनुभवी), ज्ञायकपुत्र, कुशल (अपने तर्क से ही चिकित्सा के ज्ञाता) और कुशलपुत्र आजीविका, भोजन और वेतन पर नियुक्त किये हुए थे। वे बहुत-से व्याधितों (शोक आदि से उत्पन्न चित्त-पीड़ा से पीड़ितों) की, ग्लानों (अशक्तों) की, रोगियों (ज्वर आदि से ग्रस्तों) की और दुर्वलों की चिकित्सा करते रहते थे। उस चिकित्साशाला में दूसरे भी बहुत-से लोग आजीविका, भोजन और वेतन देकर रखे गए थे। वे उन व्याधितों, रोगियों, ग्लानों और दुर्बलों की औषध (एक द्रव्य रूप), भेषज (अनेक द्रव्यों से बनी दवा), भोजन और पानी से सेवा-शुश्रूसा करते थे / अलंकारसभा १८-तए णं णंदे मणियारसेद्वी उत्तरिल्ले वणसंडे एगं महं अलंकारियसभं कारेइ, अणेगखंभसयसन्निविट्ठे जाव पडिरूवं / तत्थ णं बहवे अलंकारियपुरिसा दिन्नभइ-भत्त-वेयणा बहूणं समणाण य, अणाहाण य, गिलाणाण य, रोगियाण य, दुब्बलाण य अलंकारियकम्मं करेमाणा करेमाणा विहरंति / तत्पश्चात् नंद मणियार सेठ ने उत्तर दिशा के वनखण्ड में एक बड़ी अलंकारसभा (हजामत आदि की सभा) बनवाई। वह भी अनेक सैकड़ों स्तंभों वाली यावत मनोहर थी। उसमें बहत-से प्रालंकारिक पुरुष (शरीर का शृगार आदि करने वाले पुरुष) जीविका, भोजन और वेतन देकर रखे गये थे। वे बहुत-से श्रमणों, अनाथों, ग्लानों, रोगियों और दुर्बलों का अलंकारकर्म (शरीर की शोभा बढ़ाने के कार्य) करते थे। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्ययन : दर्दुरज्ञात ] [ 345 १९-तए णं तीए णंदाए पोक्खरिणीए बहवे सणाहा य, अणाहा य, पंथिया य, पहिया य, करोडिया य, कारिया य, तणाहारा य, पत्तहारा य, कहारा य अप्पेगइया व्हायति, अप्पेगइया पाणियं पियंति, अप्पेगइया पाणियं संवहंति, अप्पेगइया विसज्जियसेय-जल्ल-मल्ल-परिस्सम-निद्दखुप्पिवासा सुहंसुहेणं विहरंति। रायगिह विणिग्गओ वि जत्थ बहुजणो, कि ते ? जलरमण-विविह-मज्जण-कयलिलयाघरयकुसुमसत्थरय-अणेगसउणगणरुयरिभितसंकुलेसु सुहंसुहेणं अभिरममाणो अभिरममाणो विहरइ / उस नंदा पुष्करिणी में बहुत-से सनाथ, अनाथ, पथिक, पांथिक, करोटिका (कावड़ उठाने वाले), घसियारे, पत्तों के भार वाले, लकड़हारे आदि आते थे। उनमें से कोई-कोई स्नान करते थे, कोई-कोई पानी पीते थे और कोई-कोई पानी भर ले जाते थे। कोई-कोई-पसीने, जल्ल (प्रवाही मैल), मल (जमा हुआ मैल), परिश्रम, निद्रा, क्षुधा और पिपासा का निवारण करके सुखपूर्वक रहते थे। नंदा पुष्करिणी में राजगृह नगर से भी निकले-पाये हुए बहुत-से लोग क्या करते थे ? बे लोग जल में रमण करते थे, विविध प्रकार से स्नान करते थे, कदलीगहों. लतागृहों, पुष्पशय्या और अनेक पक्षियों के समूह के मनोहर शब्दों से युक्त नन्दा पुष्करिणी और चारों वनखंडों में क्रोडा करते-करते विचरते थे। विवेचन-नंद मणिकार ने अपने अष्टमभक्त पौषध के अन्तिम समय में तृषा से पीड़ित होकर पुष्करिणी खुदवाने का विचार किया। इससे पूर्व यह उल्लेख आ चुका है कि वह साधुओं के दर्शन न करने, उनका समागम न करने एवं धर्मोपदेश नहीं सुनने आदि के कारण सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्वी बन गया था। इस वर्णन से किसी को ऐसा भ्रम हो सकता है कि पुष्करिणी खुदवाना तथा औषधशाला आदि की स्थापना करना करवाना मिथ्यादृष्टि का कार्य है-सम्यदृष्टि का नहीं, अन्यथा उसके मिथ्यादृष्टि हो जाने का उल्लेख करने की क्या आवश्यकता थी ? किन्तु इस प्रकार का निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है, यथार्थ भी नहीं है। यह तो नन्द के जीवन में घटित एक घटना का उल्लेख मात्र है / दूसरे, १०वें सूत्र में पोषध संबंधी अनिवार्य नियमों का उल्लेख किया गया है, जिनमें एक नियम प्रारम्भ-समारम्भ का परित्याग करना भी सम्मिलित है। नन्द श्रेष्ठी को पोषध की अवस्था में प्रारम्भ-समारम्भ करने का विचार-चिन्तन-निश्चय नहीं करना चाहिए था। किन्तु उसने ऐसा किया और उसकी न आलोचना की, न प्रायश्चित्त किया / उसने एक त्याज्य कर्म को-पोषध-अवस्था में प्रारम्भ करने को अत्याज्य समझा, यह विपरीत समझ उसके मिथ्यादृष्टि होने का लक्षण है, परन्तु कुवा, वावड़ी आदि खुदवाना या दानशाला आदि परोपकार के कार्य मिथ्यादृष्टि के कार्य नहीं समझने चाहिए। साधुओं के लिए भी ऐसे परोपकार के कार्य करने का निषेध न करने का आगम-पादेश है। सूत्रकृतांगसूत्र प्रथम श्रुतस्कंध (अध्ययन 11) में ऐसा स्पष्ट उल्लेख है / इसके अतिरिक्त 'रायपसेणिय' सूत्र में कहा गया है कि राजा प्रदेशी जब अपने घोर अधार्मिक जीवन में परिवर्तन करके केशीकुमार श्रमण द्वारा धर्मबोध प्राप्त करके धर्मनिष्ठ बन जाता है तब वह अपनी सम्पत्ति के चार विभाग करता है-एक सैन्य सम्बन्धी व्यय के लिए, दूसरा कोठार-भंडार में जमा करने के लिए, तीसरा अन्तःपुर--परिवार के व्यय के लिए और चौथा सार्वजनिक हित-परोपकार के लिए। उससे वह दानशाला आदि की स्थापना करता है / Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 ] [ ज्ञाताधर्मकथा विशेषतः आधुनिक काल में अध्यात्म के नाम पर धर्म की सीमाओं को अत्यन्त संकुचित बनाया जा रहा है, धर्म का सम्बन्ध सिर्फ आत्मार्थ (स्वार्थ) के साथ जोड़ा जा रहा है, जनसेवा, दया, दान, परोपकार आदि को धर्म की सीमा से बाहर रखा जाता है, यह दृष्टिकोण अनेकान्तमय जैनधर्म के अनुकूल नहीं है। नंद की प्रशंसा २०-तए णं णंदाए पोक्खरिणीए बहुजणो व्हायमाणो य, पीयमाणो य, पाणियं च संवहमाणो य अन्नमन्नं एवं क्यासी-'धण्णे णं देवाणुप्पिया! णंदे मणियारसेट्री, कयत्थे जावणं देवाणुप्पिया ! नंदे मणियारसेट्टी, कयलक्खणे णं देवाणुप्पिया नंदे मणियारसेट्टी, कयपुण्णे णं देवाणुप्पिया नंदे मणियारसेट्ठी, कया णं लोया, सुलद्धे माणुस्सए] जम्मजीवियफले, जस्स णं इमेयारूवा गंदा पोक्खरिणी चाउकोणा जाव पडिरूवा, जस्स णं पुरस्थिमिल्ले तं चेव सव्वं, चउसु वि वणसंडेसु जाव रायगिहविणिग्गओ जत्थ बहुजणो आसणेसु य सयणेसु य सन्निसन्नो य संतुयट्टो य पेच्छमाणो य साहेमाणो य सुहंसुहेणं विहरइ, तं धन्ने कयत्थे कयपुग्ने, कया णं लोया ! सुलद्धे माणुस्सए जम्मजोवियफले नंदस्स मणियारस्स।' तए णं रायगिहे संघाडग जाव' बहुजणो अन्नमन्नस्स एयमाइक्खइ---धण्णे णं देवाणुप्पिया ! गंदे मणियारे सो चेव गमओ जाव सुहंसुहेण विहरइ / तए णं गंदे मणियारे बहुजणस्स अंतिए एयमलैं सोच्चा हट्टतुठे धाराहयकलंबग पिव समूससियरोमकूवे परं सायासोक्खमणुभवमाणे विहरइ। तत्पश्चात् नंदा पुष्करिणी में स्नान करते हुए, पानी पीते हुए और पानी भर कर ले जाते हुए बहुत-से लोग आपस में इस प्रकार कहते थे-'हे देवानुप्रिय ! नन्द मणिकार सेठ धन्य है, [नंद मणिकार सेठ कृतार्थ है, नंद मणिकार सेठ कृतलक्षण है, नंद मणिकार ने इह-परलोक सफल कर लिया है।] उसका जन्म और जीवन सफल है, जिसकी इस प्रकार की चौकोर यावत् मनोहर यह नंदा पुष्करिणी है; जिसकी पूर्व दिशा में वनखण्ड है-इत्यादि पूर्वोक्त चारों वनखण्डों और उनमें बनी हुई चारों शालाओं का वर्णन यहाँ कहना चाहिए। यावत् राजगृह नगर से भी बाहर निकल कर बहुत-से लोग आसनों पर बैठते हैं, शयनीयों पर लेटते हैं, नाटक आदि देखते हैं और कथा-वार्ता कहते हैं और सुख-पूर्वक विहार करते हैं। अतएव नन्द मणि कार का मनुष्यभव सुलब्ध-सराहनीय है और उसका जीवन तथा जन्म भी सुलब्ध है।' उस समय राजगृह नगर में भी शृगाटक आदि मार्गों में अर्थात् गली-गली में बहुतेरे लोग परस्पर इस प्रकार कहते थे-देवानुप्रिय ! नंद मणिकार धन्य है, इत्यादि पूर्ववत् ही कहना चाहिए, यावत् जहाँ आकर लोग सुखपूर्वक विचरते हैं / तब नंद मणिकार बहुत-से लोगों से यह अर्थ (अपनी प्रशंसा की बातें) सुनकर हृष्ट-तुष्ट हुआ / मेघ की धारा से आहत कदम्बवृक्ष के समान उसके रोमकूप विकसित हो गये--उसकी कलीकली खिल उठी। वह साताजनित परम सुख का अनुभव करने लगा। 1. प्रथम अध्य. 77. Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्ययन : द१रज्ञात ] [ 347 नंद की रुग्णता २१–तए णं तस्स नंदस्स मणियारसेट्ठिस्स अन्नया कयाई सरीरगंसि सोलस रोगायंका पाउन्भूया, तंजहासासे कासे जारे दाहे, कुच्छिसूले भगंदरे। अरिसा अजीरए दिट्टि मुद्धसूले अगारए' // 1 // अच्छिवेयणा कन्नवेयणा कंडू दउदरे कोढे / तए णं से गंदे मणियारसेट्ठी सोलसहि रोगायंकेहि अभिभूते समाणे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी-'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! रायगिहे नयरे सिंघाडग जाव' महापहपहेसु महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणा उग्रोसेमाणा एवं वयह-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! णंदस्स मणियारसेटिस्स सरीरगंसि सोलस रोगायंका पाउन्भूया, तंजहा-सासे य जाव कोढे / तं जो णं इच्छइ देवाणुप्पिया ! वेज्जो वा वेज्जपुत्तो वा जाणुओ वा जाणुअपुत्तो वा कुसलो वा कुसलपुत्तो वा नंदस्स मणियारस्स तेसि च सोलसहं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामेत्तए, तस्स णं देवाणुप्पिया ! नंदे मणियारे विउलं अत्थसंपयाणं दलयइ त्ति कटु दोच्चं पि तच्चं पि घोसणं घोसेह। घोसित्ता जाव [एयमाणत्तियं] पच्चप्पिणह।' ते वि तहेव पच्चप्पिणंति / / कुछ समय के पश्चात् एक बार नंद मणिकार सेठ के शरीर में सोलह रोगातंक अर्थात् ज्वर आदि रोग और शूल आदि आतंक उत्पन्न हुए। वे इस प्रकार थे--(१) श्वास (2) कास-खांसी (3) ज्वर (4) दाह-जलन (5) कुक्षि-शूल-कूख का शूल (6) भगंदर (7) अर्श-बवासीर (8) अजीर्ण (9) नेत्रशूल (10) मस्तकशूल (11) भोजनविषयक अरुचि (12) नेत्रवेदना (13) कर्णवेदना (१४)कंड-खाज (15) दकोदर-जलोदर और (16) कोढ़ / नंद मणिकार इन सोलह रोगातंकों से पीड़ित हुआ / तब उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा–'देवानुप्रियो ! तुम जानो और राजगृह नगर में शृगाटक यावत् छोटे-मोटे मार्गों में अर्थात् गली-गली में ऊँची आवाज से घोषणा करते हुए कहो --'हे देवानुप्रियो ! नंद मणिकार श्रेष्ठी के शरीर में सोलह रोगातंक उत्पन्न हुए हैं, यथा-श्वास से कोढ़ तक / तो हे देवानुप्रियो ! जो कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, जानकार या जानकार का पुत्र, कुशल या कुशल का पुत्र, नंद मणिकार के उन सोलह रोगातंकों में से एक भी रोगातंक को उपशान्त करना चाहे-मिटा देगा, देवानुप्रियो ! नंद मणिकार उसे विपुल धन-सम्पत्ति प्रदान करेगा। इस प्रकार दूसरी बार और तीसरी बार घोषणा करो / घोषणा करके मेरी यह आज्ञा वापिस लौटाओ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञानुसार कार्य करके अर्थात् राजगृह की गली-गली में घोषणा करके आज्ञा वापिस सौंपी। २२-तए णं रायगिहे णयरे इमेयारूवं घोसणं सोच्चा णिसम्म बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाव कुसलपुत्ता य सत्थकोसहत्थगया य सिलियाहत्थगया य गुलियाहत्थगया य ओसहभेसज्जहत्थगया य सहि सएहिं गेहेहितो निक्खमंति, निक्खमित्ता रायगिहं मज्झमाझेणं जेणेव णंदस्स मणियारसेटिस्स गिहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता णंदस्स मणियारसेट्ठिस्स सरीरं पासंति, 1. पाठान्तर-'अकारए / ' 2. प्र. प्र. 77. Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तेसि रोगायंकाणं नियाणं पुच्छंति, णंदस्स मणियारसेटिस्स बहूहि उव्वलणेहि य उन्धटणेहि य सिणेहपाणेहि य वमणेहि य विरेयणेहि य सेयणेहि य अवदहणेहि य अवण्हाणेहि य अणुवासणेहि य वस्थिकम्मेहि य निरूहेहि य सिरावेहेहि य तच्छणाहि य पच्छणाहि य सिरावेढेहि य तप्पणाहि य पुढ(ट) वाएहि य छल्लीहि य वल्लीहि य मूलेहि य कंदेहि य पत्तेहि य पुप्फेहि य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य ओसहेहि य भेसज्जेहि य इच्छंति तेसि सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए / नो चेव णं संचाएंति उवसामेत्तए / राजगृहनगर में इस प्रकार की घोषणा सुनकर और हृदय में धारण करके वैद्य, वैद्यपुत्र, यावत् कुशलपुत्र हाथ में शस्त्रकोश (शस्त्रों की पेटी) लेकर, शिलिका (शस्त्रों को तीखा करने का पाषाण) हाथ में लेकर, गोलियाँ हाथ में लेकर और औषध तथा भेषज हाथ में लेकर अपने-अपने घरों से निकले / निकल कर राजगृह के बीचोंबीच होकर नंद मणिकार के घर पाए / उन्होंने नन्द मणिकार के शरीर को देखा और नन्द मणिकार से रोग उत्पन्न होने का कारण पूछा / फिर उबलन (एक विशेष प्रकार के लेप) द्वारा, उद्वर्तन (उवटन जैसे लेप) द्वारा, स्नेह पान [औषधियाँ डाल कर पकाये हुए घी-तेल आदि) द्वारा, वमन द्वारा, विरेचन द्वारा, स्वेदन से (पसीना निकाल कर), अबदहन से (डाम लगा कर). अपस्नान (जल में चिकनापन दूर करने वाली वस्तुएँ मिलाकर किये हुए स्नान) से, अनुवासना से (गुदामार्ग से चमड़े के यंत्र द्वारा उदर में तेल आदि पहुँचा कर). वस्तिकर्म से (गुदा में बत्ती आदि डाल कर भीतरी सफाई करके), निरुह द्वारा (चर्मयंत्र का प्रयोग करके, अनुवासना की तरह गुदामार्ग से पेट में कोई वस्तु पहुँचा कर), शिरावेध से (नस काट कर रक्त निकालकर या रक्त ऊपर से डाल कर), तक्षण से (छुरा आदि से चमड़ी आदि छील कर), प्रक्षण (थोड़ी चमड़ी काटने) से, शिरावेध से (मस्तक पर बांधे चमड़े पर पकाए हुए तेल आदि के सिंचन से), तर्पण (स्निग्ध पदार्थों के चुपड़ने) से, पुटपाक (आग में पकाई औषधों) से, पत्तों से, रोहिणी आदि की छालों से, गिलोय आदि वेलों से, मूलों से, कंदों से, पूष्पों से, फलों शिलिका (घास विशेष) से, गोलियों से, औषधों से, भेषजों से (अनेक औषधे मिला कर तैयार की हई दवाओं) से, उन सोलह रोगातंकों में से एक-एक रोगातंक को उन्होंने शान्त करना चाहा, परन्तु वे एक भी रोगातंक को शान्त करने में समर्थ न हो सके / विवेचन-प्राचीन काल में आयुर्वेद-चिकित्सा पद्धति कितनी विकसित थी, चिकित्सा के कितने रूप प्रचलित थे, यह तथ्य प्रस्तुत सूत्र से स्पष्ट विदित किया जा सकता है। आयुर्वेद का इतिहास लिखने में यह उल्लेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है। आधुनिक एलोपैथी के लगभग सभी रूप इसमें समाहित हो जाते हैं, यही नहीं बल्कि अनेक रूप तो ऐसे भी हैं जो आधुनिक पद्धति में भी नहीं पाये जाते / इससे स्पष्ट है कि आधुनिक यन्त्रों के अभाव में भी आयुर्वेद खूब विकसित हो चुका था। नन्द मणिकार की मृत्यु : पुनर्जन्म २३-तए णं ते बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणुया य जाणुयपुत्ता य कुसला य कुसलपुत्ता य जाहे नो संचाएंति तेसि सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामेत्तए ताहे संता तंता जाव परितंता निश्चिण्णा समाणा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्ययन : दर्दुरज्ञात ] [ 349 तए णं णंदे तेहिं सोलसेहि रोगायंकेहि अभिभूए समाणे नंदा-पोक्खरिणीए मुच्छिए तिरिक्खजोणिएहि निबद्धाउए, बद्धपएसिए अट्टदुहट्टवसट्टे कालमासे कालं किच्चा नंदाए पोक्खरिणीए ददुरीए कुच्छिसि ददुरत्ताए उववन्ने / / तत्पश्चात् बहुत-से वैद्य, वेद्यपुत्र, जानकार जानकारों के पुत्र, कुशल और कुशलपुत्र जब उन सोलह रोगों में से एक भी रोग को उपशान्त करने में समर्थ न हुए तो थक गये, खिन्न हुए, यावत् (अत्यन्त खिन्न हुए और उदास होकर जिधर से आए थे उधर ही) अपने-अपने घर लौट गये / नन्द मणिकार उन सोलह रोगातंकों से अभिभूत हुआ और नन्दा पुष्करिणी में अतीव मूच्छित हुया / इस कारण उसने तिर्यंचयोनि सम्बन्धी आयु का बन्ध किया, प्रदेशों का बन्ध किया। प्रातध्यान के वशीभूत होकर मृत्यु के समय में काल करके उसी नन्दा पुष्करिणी में एक मेंढकी की कूख में मेंढक के रूप में उत्पन्न हुआ। विवेचन-गुद्धि, आसक्ति, मोह या राग-इसे किसी भी शब्द से कहा जाय, आत्मा को मलीन बनाने एवं प्रात्मा के अधःपतन का एक प्रधान कारण है / नन्द मणिकार ने पुष्करिणी बनवाई, चार शालाएं स्थापित की। इनमें अर्थ का व्यय किया, अर्थ का व्यय करने पर भी वह यश-कीर्ति की कामना और पुष्करिणी सम्बन्धी आसक्ति का परित्याग न कर सका / कीर्ति-कामना से प्रेरित होकर ही उसने अपनी बनवाई पुष्करिणी का नाम अपने नाम पर ही 'नन्दा' रखा। इस महान् दुर्बलता के कारण उसका धन-त्याग एक प्रकार का व्यापार-धन्धा बन गया / त्यागे धन के बदले उसने कीर्ति उपाजित करना चाहा। यश-कीति सूनकर हषित होने लगा। अन्तिम समय में भी वह नन्दा पुष्करिणी में आसक्त रहा / इस प्रासक्तिभाव ने उसे ऊपर चढ़ने के बदले नीचे गिरा दिया। वह उसी पुष्करिणी में मण्डूक-पर्याय में उत्पन्न हुआ। मूल पाठ में 'निबद्धाउए' और 'बद्धपएसिए' इन दो पदों का प्रयोग हुआ है। टीकाकार के अनुसार दोनों पद चार प्रकार के बन्ध के सूचक हैं। 'बद्धाउए' पद से प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध सूचित किये गये हैं और 'बद्धपएसिए' पद से प्रदेशबन्ध का कथन किया गया है / २४–तए णं णंदे दद्दु रे गभाओ विणिम्मुक्के समाणे उम्मुक्कबालभावे विनायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते नंदाए पोखरिणीए अभिरममाणे अभिरममाणे विहरइ।। तत्पश्चात् नन्द मण्डूक गर्भ से बाहर निकला और अनुक्रम से बाल्यावस्था से मुक्त हुआ। उसका ज्ञान परिणत हुआ—बह समझदार हो गया और यौवनावस्था को प्राप्त हुया / तब नन्दा पुष्करिणी में रमण करता विचरने लगा। मेंढक को जातिस्मरणज्ञान २५--तए णं णंदाए पोक्खरिणीए बहू जणे व्हायमाणो य पियमाणो य पाणियं संवहमाणो य अन्नमन्नस्स एवं आइक्खइ- 'धन्ने णं देवाणुप्पिया! गंदे मणियारे जस्स णं इमेयारुवा गंदा पुक्खरिणी चाउक्कोणा जाव पडिरूवा, जस्स णं पुरथिमिल्ले वणसंडे चित्तसभा अणेगखंभसयसन्निविटा तहेव चत्तारि सहाओ जाव जम्मजीविअफले।' नन्दा पुष्करिणी में बहुत-से लोग स्नान करते हुए, पानी पीते हुए और पानी भर कर ले जाते हुए आपस में इस प्रकार कहते थे—'देवानुप्रिय ! नन्द मणिकार धन्य है, जिसकी यह चतुष्कोण यावत् Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350] [ज्ञाताधर्मकथा मनोहर पुष्करिणी है, जिसके पूर्व के वनखंड में अनेक सैकड़ों खंभों की बनी चित्रसभा है / इसी प्रकार चारों वनखंडों और चारों सभाओं के विषय में कहना चाहिए / यावत् नन्द मणियार का जन्म और जीवन सफल है।' अर्थात् जनसाधारण नन्दा पुष्करिणी का, बनखंडों का, चारों सभाओं का और नन्द सेठ का खूब-खूब बखान करते थे। २६-तए णं तस्स ददुरस्स तं अभिक्खणं अभिक्खणं बहुजणस्स अंतिए एयम→ सोच्चा णिसम्म इमेयारूवे अज्यस्थिए जाव समापजत्था से कट्रि मन्ने मा इमेयारूवे सटे णिसंतपव्वे त्ति कटु सुभेणं परिणामेणं जाव [पसत्येणं अज्झवसाएणं लेस्साहिं विसुज्झमाणीहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-पोह-मग्गणं-गवेसणं करेमाणस्स संणिपुग्वे] जाइसरणे समुप्पन्ने, पुव्वजाई सम्म समागच्छइ। तत्पश्चात् बार-बार बहुत लोगों के पास से यह बात (अपनी प्रशंसा) सुनकर और मन में समझ कर उस मेंढक को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हया-'जान पड़ता है कि मैंने इस प्रकार के शब्द पहले भी सुने हैं।' इस तरह विचार करने से, शुभ परिणाम के कारण, (प्रशस्त अध्यवसाय से, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के कारण तथा जातिस्मरणज्ञान को आवत करने वाले विशिष्ट मतिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से, ईहा, अपोह (अवाय), मार्गणा, गवेषणा (सद्भूत धर्मों का विधान और असद्भूत धर्मों का निवारण) करते हुए उस दर्दु र को संज्ञी-पर्याय के भवों को जानने वाला) यावत् जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हो गया / उसे अपना पूर्व जन्म अच्छी तरह याद हो पाया। पुनः श्रावकधर्म-स्वीकार २७-तए णं तस्स दद्दुरस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जेत्था--'एवं खलु अहं इहेव रायगिहे नगरे गंदे णामं मणियारे अड्ढे / तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे, तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणब्वइए सत्तसिक्खावइए जाव पडियन्ते / तए णं अहं अन्नया कयाई असाहुदंसणेण य जाव' मिच्छत्तं विपडिवन्ने / तए णं अहं अन्नया कयाई गिम्हकालसमयसि जाव उवसंपज्जित्ता णं विहरामि / एवं जहेव चिता आपुच्छणा नंदा पुक्खरिणी वणसंडा सहाओ तं चेव सव्वं जाव नंदाए पुक्खरिणीए ददुरसाए उववन्ने / तं अहो ! णं अहं अहन्ने अपुन्ने अकयपुन्ने निग्गंथाओ पावयणाओ नठे भट्ठे परिभट्टे, तं सेयं खलु ममं सयमेव पुवपडिवन्नाई पंचाणुव्वयाई सत्तसिक्खावयाइं उवसंपज्जित्ताणं विहरितए।' . तत्पश्चात् उस मेंढक को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुग्रा---'मैं इसी राजगृहनगर में नन्द नामक मणिकार सेठ था-धन-धान्य आदि से समृद्ध था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर का आगमन हुा / तब मैंने श्रमण भगवान् महावीर के निकट पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप श्रावकधम अंगीकार किया था। कुछ समय बाद साधनों के दर्शन न होने आदि से मैं किसी समय मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया। तत्पश्चात् एक बार किसी समय ग्रीष्मकाल के अवसर पर मैं तेले की तपस्या करके विचर रहा था। तब मुझे पुष्करिणी खुदवाने का विचार हुअा, श्रेणिक राजा से आज्ञा ली, नन्दा पुष्करिणी 1. प्र. 13 सूत्र 9 2. अ. 13 सूत्र 10 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्ययन : दर्दु रज्ञात ] [ 351 खुदवाई, वनखण्ड लगवाये, चार सभाएँ बनवाई, इत्यादि सब पूर्ववत् समझना चाहिए; यावत् पुष्करिणो के प्रति प्रासक्ति होने के कारण मैं नन्दा पुष्करिणी में मेंढक पर्याय में उत्पन्न हुग्रा / अतएव मैं अधन्य हूँ, अपुण्य हूँ, मैंने पुण्य नहीं किया, अतः मैं निम्रन्थ प्रवचन से नष्ट हुना, भ्रष्ट हुआ और एकदम भ्रष्ट हो गया। तो अब मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि पहले अंगीकार किये पांच अणुव्रतों को और सात शिक्षाव्रतों को मैं स्वयं ही पुनः अंगीकार करके रहूँ। मेंढक की तपश्चर्या 28- एवं संपेहेइ, संपेहिता पुन्वपडिवन्नाइं पंचाणुव्वयाई सत्तसिक्खावयाइं आरहेइ, आरुहित्ता इमेयारूवे अभिग्गहं अभिगिण्हइ-'कप्पइ मे जावज्जीवं छठें छठेणं अणिक्खितेणं अप्पाणं भावमाणस्स विहरित्तए / छट्ठस्स वि य णं पारणगंसि कप्पड मे गंदाए पोक्खरिणीए परिपेरंतेसु फासुएणं पहाणोदएणं उम्मद्दणालोलियाहि य वित्ति कप्पेमाणस्स विहरित्तए।' इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हइ जावज्जीवाए छठंछद्रेणं जाव [अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे] विहरइ। नन्द मणिकार के जीव उस मेंढक ने इस प्रकार विचार किया। विचार करके पहले अंगीकार किये हुए पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षानतों को पुनः अंगीकार किया। अंगीकार करके इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया--'प्राज से जीवन-पर्यन्त मुझे बेले-बेले की तपस्या से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरना कल्पता है / बेले के पारणा में भी नन्दा पुष्करिणी के पर्यन्त भागों में, प्रासूक (अचित्त) हुए स्नान के जल से और मनुष्यों के उन्मर्दन आदि द्वारा उतारे मैल से अपनी आजीविका चलाना अर्थात् जीवन निर्वाह करना कल्पता है। उसने ऐसा अभिग्रह धारण किया। अभिग्रह धारण करके निरन्तर बेले-बेले की तपस्या से प्रात्मा को भावित करता हा विचरने लगा। भगवत्पदार्पण २९-तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! गुणसोलए चेइए समोसढे / परिसा णिग्गया। तए णं गंदाए पुक्खरिणीए बहुजणो ण्हायमाणो य पियमाणो य पाणियं संवहमाणो य अन्नमन्नं एवमाइक्खइ-जाव [एक [एवं खलु] समण भगवं महावीरे इहेव गुणसोलए चेइए समोसढे। तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो जाव [णमंसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं] पज्जुवासामो, एयं मे इहभवे परभवे य हियाए जाव [सुहाए खमाए निस्सेयसाए] आणुगामियत्ताए भविस्सइ। हे गौतम ! उस काल और उस समय में मैं गुणशील चैत्य में पाया। वन्दना करने के लिए परिषद् निकली / उस समय नन्दा पुष्करिणी में बहुत-से जन नहाते, पानी पीते और पानी ले जाते हुए आपस में इस प्रकार बातें करने लगे-श्रमण भगवान् महावीर यहीं गुणशील उद्यान में समवसृत हुए हैं। सो हे देवानुप्रिय ! हम चलें और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना करें, यावत् (नमस्कार करें, उनका सत्कार-सन्मान करें, कल्याण मंगल देव एवं चैत्य स्वरूप भगवान की) उपासना करें / यह हमारे लिए इहभव में और परभव में हित के लिए एवं सुख के लिए होगा, क्षमा और निश्रेयस के लिए तथा अनुगामीपन के लिए होगा-परभव में यही साथ जायगा / Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 [ ज्ञाताधर्मकथा मेंढक का बन्दनार्थ प्रस्थान ३०-तए णं तस्स दद्दुरस्स बहुजणस्स अंतिए एयमह्र सोच्चा जिसम्म अयमेयारूवे अज्झस्थिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जेत्था—'एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे, तं गच्छामि णं वंदामि' जाव एवं संपेहेइ, संपेहित्ता गंदाओ पक्खरिणीओ सणियं सणियं उत्तरइ, उत्तरिता जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए ददुरगईए वीईवयमाणे वीईवयमाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। बहुत जनों से यह वृत्तान्त सुन कर और हृदय में धारण करके उस मेंढक को ऐसा विचार, चिन्तन, अभिलाषा एवं मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ—निश्चय ही श्रमण भगवान् महावीर यहाँ पधारे हैं, तो मैं जाऊँ और भगवान् की बन्दना करू / उसने ऐसा विचार किया। विचार करके वह धीरे-धीरे नन्दा पुष्करिणी से बाहर निकला / निकल कर जहाँ राजमार्ग था, वहाँ पाया। पाकर उत्कृष्ट दर्दु रगति से अर्थात् मेंढक के योग्य तीव्र चाल से चलता हुअा मेरे पास आने के लिए कृतसंकल्प हुआ रवाना हुप्रा / मेंढक का कुचलना ३१-इमं च णं सेणिए राया भंभसारे व्हाए कायकोउय जाव सव्वालंकारविभूसए हथिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामरेहि य उद्धवमाणेहि महया हयगयरहभडचडगरकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिडे मम पायदए हव्वमागच्छइ। तए णं से दद्दुरे सेणियस्स रपणो एगेणं आसकिसोरएणं वामपाएणं अक्कंते समाणे अंतनिघाइए कए यावि होत्था। __ इधर भंभसार अपरनामा श्रेणिक राजा ने स्नान किया एवं कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्त क्रिया / यावत् वह सब अलंकारों से विभूषित हुआ और श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ हुआ। कोरंट वृक्ष के फलों की माला वाले छत्र से, श्वेत चामरों से शोभित होता हुमा, अश्व, हाथी, रथ और बड़े-बड़े सुभटों के समूह रूप चतुरंगिणी सेना से परिवृत होकर मेरे चरणों की वन्दना करने के लिए शीघ्रतापूर्वक पा रहा था। तब वह मेंढक श्रेणिक राजा के एक प्रश्वकिशोर (नौजवान घोड़े) के बाएँ पैर से कुचल गया। उसकी अाँतें बाहर निकल गईं। महावतों का स्वीकार ३२-तए णं से दद्दुरे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसकारपरक्कमे अधारणिज्जमिति कट एगंतमवक्कमइ, करयलपरिग्गहियं तिक्खुत्तो सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी नमोऽथ णं अरुहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स मम धम्मायरियस्स जाव संपाविउकामस्स / पुदिव पि य गं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए थूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए, जाव [थूलए मुसावाए पच्चक्खाए, थूलए अदिण्णादाणे पच्चक्खाए, थूलए मेहुणे पच्चक्खाए] थूलए परिग्गहे पच्चक्खाए, तं इयाणि पि तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि, जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि, जावज्जीवं सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं पच्चक्खामि 1. अ. 13, सूत्र 29 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्ययन : दर्दुरज्ञात ] [ 353 जावज्जोवं जं पिय इमं सरोरं इट्ठ कंतं जाव' मा, फुसंतु एवं पिणं चरिमेहि ऊसासेहिं 'वोसिरामि' ति कटु / घोड़े के पैर से कुचले जाने के बाद वह मेंढक शक्तिहीन, बलहीन, वीर्य (उद्यम) हीन और पुरुषकार-पराक्रम से हीन हो गया / 'अब इस जीवन को धारण करना शक्य नहीं है।' ऐसा जानकर वह एक तरफ चला गया। वहां दोनों हाथ जोड़कर, तीन बार, मस्तक पर आवर्तन करके, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोला-'अरुहंत (जिन्हें संसार में पूनः उत्पन्न नहीं होना है ऐसे) यावत निर्वाण को प्राप्त समस्त तीर्थंकर भगवन्तों को नमस्कार हो। मेरे धर्माचार्य यावत् मोक्ष-प्राप्ति के उन्मुख श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार हो / पहले भी मैंने श्रमण भगवान् महावीर के समीप स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया था, यावत् (स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूल मैथुन) और स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया था; तो अब भी मैं उन्हीं भगवान् के निकट समस्त प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ, यावत् समस्त परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ; जीवन पर्यन्त के लिए सर्व प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम-चारों प्रकार के प्राहार का प्रत्याख्यान करता हूँ। यह जो मेरा इष्ट और कान्त शरीर है, जिसके विषय में चाहा था कि इसे रोग आदि स्पर्श न करें, इसे भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक त्यागता हूँ।' इस प्रकार कह कर दर्दुर ने पूर्ण प्रत्याख्यान किया ! विवेचन--तिर्यंच गति में अधिक से अधिक पाँच गुणस्थान हो सकते हैं, अतएव देशविरति तो संभव है, किन्तु सर्व विरति-संयम की संभावना नहीं है। फिर नंद के जीव मंडूक ने सर्वविरति रूप प्रत्याख्यान कैसे कर लिया ? मूलपाठ में जिस प्रकार से इसका उल्लेख किया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रागमकार को भी उसके प्रत्याख्यान में कोई अनौचित्य नहीं लगता। इस विषय में प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेव सूरि ने अपनी टीका में स्पष्टीकरण किया है / वे लिखते हैं 'यद्यपि सव्वं पाणइवायं पच्चक्खामि' इत्यनेन सर्वग्रहणं तथापि तिरश्चां देशविरतिरेव / ' अर्थात् यद्यपि मेंढक ने 'सम्पूर्ण प्राणातिपात (आदि) का प्रत्याख्यान करता हूँ' ऐसा कहकर प्रत्याख्यान किया है तथापि तिर्यंचों में देश विरति हो सकती है--सर्वविरति नहीं। इस विषय में टीकाकार ने दो गाथाएं भी उद्धृत की हैं, जिनसे इस प्रश्न पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है / गाथाएं ये हैं--- तिरियाणं चारित्तं, निवारियं अह य तो पुणो तेसि / ___ सुब्वइ बहुयाणं पि हु, महव्वयारोहणं समए / / 1 / / न महव्वयसभावेवि, चरित्तपरिणामसंभवो तेसि / न बहुगुणाणंपि जो, केवलसंभूइपरिणामो / / 2 / / अर्थात् तिर्यचों में यद्यपि चारित्र (सर्वविरति) के होने का आगम में निषेध किया गया है, फिर भी बहुत-से तिर्यंचों ने महाव्रत ग्रहण किए ऐसा सुना जाता है-प्रागमों में ऐसा उल्लेख देखा 1. अ. १-सूत्र 156. Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 ] [ ज्ञाताधर्मकथा जाता है। किन्तु महाव्रतों के सद्भाव में भी तिर्यंचों में चारित्र-परिणाम अर्थात् भाव चारित्र संभव नहीं है, जैसे बहुत गुणों से सम्पन्न जीवों को केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता / इस कथन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि केवल महाव्रतों का ग्रहण या पालन ही सर्वविरति चारित्र नहीं है। यह व्यवहार चारित्र मात्र है / निश्चय चारित्र के लिए परिणामों की विशिष्ट निर्मलता अनिवार्य है, जो अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायों के क्षय आदि तथा संज्वलन कषाय की मन्दता के होने पर ही संभव है। देवपर्याय में जन्म 33 -तए णं से ददुरे कालमासे कालं किच्चा जाव सोहम्मे कप्पे दरडिसए विमाणे उववायसभाए ददुरदेवत्ताए उवबन्ने / एवं खलु गोयमा ! बद्दुरेणं सा दिव्वा देविड्ढी लद्धा पत्ता जाव अभिसमन्नागया। तत्पश्चात् वह मेंढक मृत्यु के समय काल करके, यावत् सौधर्म कल्प में, दर्दु रावतंसक नामक विमान में, उपपातसभा में, दर्दुरदेव के रूप में उत्पन्न हुआ / हे गौतम ! दर्दुरदेव ने इस प्रकार वह दिव्य देवधि लब्ध की है, प्राप्त की है और पूर्णरूपेण प्राप्त की है-उसके समक्ष आई है। मंडूक देव का भविष्य 34- ददुरस्स णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता / से णं दद्दुरे देवे आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं, अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, बुज्झिहिइ, जाव [मुच्चिहिइ, परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणं]अंतं करिहिइ। गौतमस्वामी ने पुनः प्रश्न किया-दर्दुर देव की उस देवलोक में कितनी स्थिति है ? भगवान् उत्तर देते हैं-गौतम ! चार पल्योपम की स्थिति कही गई है। तत्पश्चात् वह दर्दु र देव प्रायु के क्षय से, भव के क्षय से और स्थिति के क्षय से तुरंत वहाँ से च्यवन करके महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होमा, बुद्ध होगा, यावत् [मुक्त होगा, परिनिर्वाण प्राप्त करेगा और समस्त दुःखों का] अन्त करेगा। उपसंहार ३५-एवं खलु समणेणं भगवया महावीरेणं तेरसमस्स नायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते, ति बेमि। श्री सुधर्मा स्वामी अपने उत्तर का उपसंहार करते हुए कहते हैं इस प्रकार निश्चय ही श्रमण भगवान महावीर ने तेरहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है। जैसा मैंने सुना, वैसा कहता हूँ। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्ययन : तेतलिपुत्र सार : संक्षेप प्रकृत अध्ययन का कथानक बहुत रोचक तो है ही, शिक्षाप्रद भी है / पिछले तेरहवें अध्ययन में बतलाया गया है कि सतगुरु का समागम आदि निमित्त न प्राप्त हो तो जो सद्गुण विद्यमान हैं उनका भी ह्रास और अन्ततः विनाश हो जाता है / ठीक इससे विपरीत इस अध्ययन में प्रतिपादित किया गया है कि सन्निमित्त मिलने पर अविद्यमान सदगुण भी उत्पन्न और विकसित हो जाते हैं। अतएक गुणाभिलाषी पुरुष को ऐसे निमित्त जुटाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए जिससे आत्मिक सद्गुणों का ह्रास न होने पाए, प्रत्युत प्राप्त गुणों का विकास हो और अप्राप्त गुणों की प्राप्ति होती रहे। व्यक्तित्व के निर्माण में सत्समागम आदि निमित्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, इस तथ्य को कदापि विस्मृत नहीं करना चाहिए / प्रस्तुत अध्ययन में मनोरम कथानक द्वारा यही तथ्य प्रकाशित किया गया है / कथानक का सार इस प्रकार है तेतलिपुर नगर के राजा कनकरथ के अमात्य का नाम भी तेतलिपुत्र था। 'मूषिकारदारक' की तरह यह नाम भी उसके पिता तेतलि' के नाम पर रखा गया है / 'मूषिकारदारक' का अर्थ हैमुषिकार का पुत्र / मूषिकारदारक भी तेतलिपुर का ही निवासी स्वर्णकार था। एक बार तेतलिपुत्र अमात्य ने उसकी पुत्री पोट्टिला को क्रीडा करते देखा और वह उस पर अनुरक्त हो गया। पत्नी के रूप में उसकी मंगनी की। शुभ मुहूर्त में दोनों का विवाह हो गया। कुछ समय तक दोनों का दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक चलता रहा। दोनों में परस्पर गहरा अनुराग था। किन्तु कालान्तर में स्नेह का सूत्र टूट गया / स्थिति ऐसी उत्पन्न हो गई कि तेतलिपुत्र को पोट्टिला के नाम से भी घृणा हो गई। पोट्टिला इस कारण बहुत उदास और खिन्न रहने लगी। उसकी निरन्तर की खिन्नता देख एक दिन तेतलिपुत्र ने उससे कहा--तुम चिन्तित मत रहो, मेरी भोजनशाला में प्रभूत अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवा कर श्रमणों, माहनों, अतिथियों एवं भिखारियों को दान देकर अपना काल यापन करो / पोट्टिला यही करने लगी। उसका समय इसी कार्य में व्यतीत होने लगा। संयोगवशात् एक बार तेतलिपुर में सुबता नामक प्रार्या का आगमन हुआ / उनका परिवारशिष्यासमुदाय बहुत बड़ा था। उनकी कुछ प्रायिकाएँ ययासमय गोचरो के लिए निकली और तेतलिपुत्र के घर पहुँची। पोट्टिला ने उन्हें प्राहार-पानी का दान दिया। उस समय उसका पत्नीत्व जागृत हो गया और उसने साध्वियों से निवेदन किया-'मैं तेतलिपुत्र को पहले इष्ट थी, अब अनिष्ट हो गई हूँ। आप बहुत भ्रमण करती हैं और राजा-रंक आदि सभी प्रकार के लोगों के घरों में प्रवेश करती है। आपका अनुभव बहुत व्यापक है / कोई कामण, चूर्ण या वशीकरण मन्त्र बतलाइए जिससे मैं तेतलिपुत्र को पुनः अपनी ओर आकृष्ट कर सकू।' Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 ] [ ज्ञाताधर्मकथा मगर साध्वियों का ऐसी बातों से क्या सरोकार ! पोट्टिला का कथन सुनते ही उन्होंने हाथों से अपने कान ढक लिये / कहा---'देवानुप्रिये ! हम ब्रह्मचारिणी साध्वियाँ हैं / हमारे लिए ऐसी बातें सुनना भी निषिद्ध है / चाहो तो सर्वज्ञप्ररूपित धर्म सुन सकती हो / ' पोट्टिला ने धर्मोपदेश सुना और श्राविकाधर्म अंगीकार कर लिया। इससे उसे नूतन जीवन मिला। उसके संताप का किंचित् शमन हुआ / उसे ऐसी शान्ति की अनुभूति होने लगी जैसी पहले कभी नहीं हुई थी। उसके अन्तरात्मा में धर्म के प्रति रस उत्पन्न हो गया। तब उसने सर्वविरति संयम अंगीकार करने का संकल्प कर लिया। तेतलिपुत्र के पास जाकर उसने अपनी अभिलाषा व्यक्त की और अनुमति मांगी तो तेतलिपुत्र ने कहा- 'तुम संयम स्वीकार करोगी तो आगामी भव में अवश्य किसी देवलोक में उत्पन्न होनोगी। वहाँ से पाकर यदि मुझे प्रतिबोध देना स्वीकार करो तो मैं अनुमति देता हूँ, अन्यथा नहीं।' पोट्टिला ने तेतलिपुत्र की शर्त स्वीकार कर ली और वह दीक्षित हो गई / संयम-पालन कर आयुष्य पूर्ण होने पर देवलोक में देवता के रूप में उत्पन्न हुई। प्रारम्भ में कनकरथ राजा का उल्लेख किया गया है। यह राजा राज्य में अत्यन्त गृद्ध और सत्तालोलुप था। कोई मेरा पुत्र वयस्क होकर मेरा राज्य न हथिया ले, इस भय से प्रेरित होकर वह अपने प्रत्येक पुत्र को जन्मते ही विकलांग कर दिया करता था। उसकी यह लोलुपता और क्रूरता देख रानी पद्मावती को गहरी चिन्ता और व्यथा हुई। वह जब गर्भवती थी तब उसने अमात्य तेतलिपुत्र को गुप्त रूप से अन्तःपुर में बुलवाया और होने वाले पुत्र की सुरक्षा के लिए मंत्रणा की। निश्चित हो गया कि यदि होने वाली सन्तान पुत्र हो तो राजा को उसका पता न लगने पाए और तेतलिपुत्र के घर पर गुप्त रूप में उसक पालन-पोषण किया जाए। संयोगवश जिस समय रानी पद्मावती ने पुत्र का प्रसव किया, उसी समय तेतलिपुत्र की पत्नी ने मृत कन्या को जन्म दिया। पूर्वकृत निश्चय के अनुसार तेतलिपुत्र ने पुत्र और पुत्री की अदलाबदली कर दी। मृत पुत्री को पद्मावती के पास और राजकुमार को अपनी पत्नी के पास ले आया / पत्नी को सब रहस्य बतला दिया / कुमार सुरक्षित वृद्धिगत होने लगा। कनकरथ राजा की जब मृत्यु हुई तो उसके उत्तराधिकारी की चर्चा चली। तेतलिपुत्र ने समग्र रहस्य प्रकट कर दिया और राजकुमार-जिसका नाम कनकध्वज था-राजसिंहासन पर अासीन हो गया / रानी पद्मावती का मनोरथ सफल हुअा। उससे कनकध्वज को आदेश दिया-तेतलिपुत्र के प्रति सदैव विनम्र रहना, उनका सत्कार-सन्मान करना, राजसिंहासन, वैभव, यहाँ तक कि तुम्हारा जीवन इन्हीं की बदौलत है / कनकध्वज ने माता के आदेश को शिरोधार्य किया और वह अमात्य का बहुत आदर करने लगा। उधर पोट्टिल देव ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तेतलिपुत्र को प्रतिबुद्ध करने के अनेक उपाय किए, मगर राजा द्वारा सम्मानित होने के कारण उसे प्रतिबोध नहीं हुआ। तब देव ने अन्तिम उपाय त Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्ययन : तेतलिपुत्र ] [ 357 किया-राजा अादि को उससे विरुद्ध कर दिया / एक दिन जब वह राजसभा में गया तो राजा ने उससे बात भी नहीं की, विमुख होकर बैठ गया, सत्कार-सन्मान करने की तो बात ही दूर ! तेतलिपुत्र यह अभिनव व्यवहार देखकर भयभीत होकर वापिस घर लौट आया। मार्ग में और घर में आने पर परिवारजनों ने भी उसे किंचित् आदर नहीं दिया। सारी परिस्थिति बदली देख तेतलिपुत्र ने आत्मघात करने का निश्चय किया। प्रात्मघात के लगभग सभी उपाय आजमा लिये, मगर देवी माया के कारण कोई भी कारगार न हुा / उन उपायों का मूलपाठ में ब्योरेवार रोचक वर्णन किया गया है। जब तेतलिपुत्र आत्महत्या करने में भी असफल हो गया--पूर्ण रूप से निराश हो गया तब पोट्टिल देव प्रकट हुआ। उसने अत्यन्त सारपूर्ण शब्दों में उसे प्रतिबोध दिया / देव का वह कथन भी अत्यन्त रोचक है, उसे मूलपाठ से पाठक जान लें। उसी समय तेतलिपुत्र को शुभ अध्यवसाय के प्रभाव से जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हो गया / उसे विदित हो गया कि पूर्व जन्म मेंवह महाविदेह क्षेत्र में महापद्म नामक राजा था / संयम अंगीकार करके वह यथाकाल शरीर त्याग कर महाशुक्र नामक देवलोक में उत्पन्न हुआ था। तत्पश्चात् वह यहाँ जन्मा / तेतलिपुत्र ने मानो नूतन जगत् में प्रवेश किया। थोड़ी देर पहले जिसके चहुँ ओर धोर अन्धकार व्याप्त था, अब अलौकिक प्रकाश की उज्ज्वल रश्मियाँ भासित होने लगी / वह स्वयं दीक्षित होकर, संयम का यथाविधि पालन करके, अन्त मैं इस भव-प्रपंच से सदा-सदा के लिए मुक्त हो गया। अनन्त, असीम, अव्याबाध आत्मिक सुख का भागी बन गया। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोहरामं अज्झायण : तेयलिपुत्ते जम्बूस्वामी का प्रश्न १-जइ णं भंते ! ममणेणं भगवया महावीरेणं तेरसमस्स नायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते, चोद्दसमस्स णायज्झयणस्स ममणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते? जम्बूस्वामी श्री समर्मास्वामी से प्रश्न करते हैं-'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने तेरहवें ज्ञात-अध्ययन का ह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा है, तो चौदहवें ज्ञात-अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ कहा ? सुधर्मास्वामी का उत्तर 2- 'एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं तेयलिपुरे णामं णयरे होत्था। तस्स णं तेयलिपुरस्स बहिया उत्तरपत्थिमे दिसीभाए एत्थ णं पमयवणे णामं उज्जाणे होत्था। श्री सुधर्मास्वामी तर देते हैं - हे जम्बू! उस काल और उस समय में तेतलिपुर नामक नगर था / उस तेतलिपुर भार से बाहर उत्तरपूर्व-ईशान-दिशा में प्रमदवन नामक उद्यान था। तेतलीपुत्र अमात्य ३–तत्थ णं तेर्या नारे णयरे कणगरहे णामं राया होत्था। तस्स णं कणगरहस्स रणो पउमावई णामं देवी होया। तस्स गं कणगरहस्स रण्णो तेयलिपुत्ते णामं अमच्चे होत्था साम-दंडभेय-उवप्पयाण-नीति-सुपउन-नयविहिण्णू / उस तेतलिपुर नगर में कनकरथ नामक राजा था / कनकरथ राजा की पद्मावती नामक देवी (रानी) थी / कनकरथ राम के अमात्य का नाम तेतलिपुत्र था, जो साम, दाम, भेद और दंड-इन चारों नीतियों का प्रयोग -ने में निष्णात था / 4- तत्थ णं तेर्यालपुरे कलादे नामं मूसियारदारए होत्था, अड्ढे जाव अपरिभूए। तस्स णं भद्दा नाम भारिया होत्या / तस्स णं कलायस्स मूसियारदारयस्स धूया भद्दाए अत्तया पोट्टिला नाम दारिया होत्था, रूवेण य जारवणेण य लावणेण य उक्किट्ठा उक्किदूसरीरा। तेतलिपुर नगर में षिकारदारक नामक एक कलाद (स्वर्णकार) था। वह धनाढय था और किसी से पराभूत होने वाला नहीं था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था / उस कलाद मूषिकारदारक की पुत्री और भद्रा की आत्मजा (उदरजात) पोट्टिला नाम की लड़की थी / वह रूप, यौवन और लावण्य से उत्कृष्ट और शहर से भी उत्कृष्ट थी। विवेचन-कलाद का अर्थ स्वर्णकार (सुनार) है / यहाँ जिस कलाद का उल्लेख किया गया है उसके पिता का नाम 'मूषिकार' था। पिता के नाम पर ही उसे 'मूषिकारदारक' संज्ञा प्रदान की गई है। आगमों में अन्यत्र मो इस प्रकार की शैली अपनाई गई है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्ययन : तेतलिपुत्र / [ 359 ५-तए णं पोट्टिला दारिया अन्नया कयाइ व्हाया सव्वालंकारविभूसिया चेडिया-चक्कवालसंपरिवुडा उप्पि पासायवरगया आगासतलगंसि कणगमएणं तिदूसएणं कान्नमाणी कोलमाणी विहरइ / एक बार किसी समय पोट्टिला दारिका (लड़की) स्नान की और सब अलंकारों से विभूषित होकर, दासियों के समूह से परिवृत होकर, प्रासाद के ऊपर हुई अगासी की भूमि में सोने की गेंद से क्रीडा कर रही थी। ६-इमं च णं तेयलिपुत्ते अमच्चे हाए आसखंधवरगए महयः भडचडगरआसवाहणियाए णिज्जायमाणे कलायस्स मूसियारदारगस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीईवयः / इधर तेतलिपुत्र अमात्य स्नान करके, उत्तम अश्व के स्क. र आरूढ होकर, बहुत-से सुभटों के समूह के साथ घुड़सवारी के लिए निकला / वह कलाद मूषिका कारक के घर के कुछ समीप होकर जा रहा था। ७-तए णं से तेयलिपुत्ते मूसियारदारगगिहस्स अदूरसामंतेणं वीवयमाणे वीईवयमाणे पोटिलं दारियं उप्पि पासायवरगयं आगासतलगंसि कणतिदूसएणं कीलमाणि पासइ, पासित्ता पोट्टिलाए दारियाए रूवे य जोवणे य लावणे य अज्झोववन्ने कोडुबियपुरिसे सदा सद्दावित्ता एवं वयासी'एस णं देवाणुप्पिया ! कस्स दारिया किनामधेज्जा वा ? तए णं कोडुबियपुरिसे तेयलिपुत्तं एवं वयासी-एस णं सामी : कलायस्स भूसियारदारयस्स धूआ, भद्दाए अत्तया पोटिला नाम दारिया हवेण य जोवणेण य लागेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा।' उस समय तेतलिपुत्र ने मूषिकारदारक के घर के कुछ पास से हुए प्रासाद की ऊपर की भूमि पर अगासी में सोने की गेंद से क्रीडा करती पोटिला दारिका देखा / देखकर पोटिला दारिका के रूप, यौवन और लावण्य में यावत् अतीव मोहित होकर कोतबक पुरुषों (सेवकों) को बुलाया और उनसे पूछा-देवानुप्रियो ! यह किसकी लड़की है ? इसरू नाम क्या है ? तब कौटुम्बिक पुरुषों ने तेतलिपुत्र से कहा-'स्वामिन् ! 8 कलाद मूषिकारदारक की पुत्री, भद्रा की पात्मजा पोट्टिला नामक लड़की है / रूप, लावण्य र यौवन से उत्तम है और उत्कृष्ट शरीर वाली है।' ८तए णं से तेयलिपुते आसवाहणियाओ पडिनियत्ते समा अभितरट्ठाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुम्भे देवाणुपिया! कन्नास्स मूसियारदारगस्स धूयं भद्दाए अत्तयं पोट्टिलं दारियं मम भारियत्ताए वरेह।' तए णं ते अभितरदाणिज्जा पुरिसा तेयलिणा एवं वुत्ता समाणा तुट्ठा जाव करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं सामी !' तह त्ति आणा विणएणं वयणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता तेलियस्स अंतियाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणे कलायस्स मूसियारदारयस्स गिहे तेणेव उवागया। तए णं कलाए मूसियारदारए ते पुरिसे एज्जमा पासइ, पासित्ता हतुठे आसणाओ अब्भुट्टेइ, अन्भुट्टित्ता सत्तटुपयाइं अणुगच्छइ, अणुगच्छिन्ना आसणेणं उवनिमंतेइ, Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 ] [ ज्ञाताधर्मकथा उपनिमंतित्ता आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगए एवं वयासी-'संदिसंतु पं देवाणुप्पिया! किमागमणपओयणं ?' तत्पश्चात् तेतलिपुत्र घुड़सवारी से पीछे लौटा तो उसने अभ्यन्तर-स्थानीय (खानगी काम करने वाले) पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जानो और कलाद मूषिकारदारक की पुत्री, भद्रा की आत्मजा पोट्टिला दारिका की मेरी पत्नी के रूप में मंगनी करो। तब वे अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुष तेतलिपुत्र के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए / दसों नखों को मिलाकर, दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक पर अंजलि करके 'तह त्ति' (बहुत अच्छा) स्वामिन् ! कहकर विनयपूर्वक आदेश स्वीकार किया और उसके पास से रवाना होकर मूषिकारदारक कलाद के घर पाये / मूषिकारदारक कलाद ने उन पुरुषों को आते देखा तो वह हृष्ट-तुष्ट हुआ, प्रासन से उठ खड़ा हुआ, सात-पाठ कदम आगे गया; उसने आसन पर बैठने के लिए आमन्त्रण किया। जब वे आसन पर बैठे, स्वस्थ हुए और विश्राम ले चुके तो मूषिकारदारक ने पूछा-'देवानुप्रियो ! अाज्ञा दीजिए। आपके आने का क्या प्रयोजन है ?' ९-तए णं ते अन्भितरट्ठाणिज्जा पुरिसा कलायस्स मूसियारदारयस्स एवं वयासो-'अम्हे गं देवाणुप्पिया! तव धूयं भद्दाए अत्तयं पोट्टिलं दारियं तेयलियुत्तस्स भारियत्ताए बरेमो, तं जइ णं जाणसि देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्ज वा सरिसो वा संजोगो, ता दिज्जउ णं पोटिला दारिया तेयलिपुत्तस्स, तो भण देवाणुप्पिया ! कि दलामो सुक्कं ?' तब उन अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुषों ने कलाद मूषिकारदारक से इस प्रकार कहा---'देवानुप्रिय ! हम तुम्हारी पुत्री, भद्रा की आत्मजा पोट्टिला दारिका की तेतलिपुत्र की पत्नी के रूप में मंगनी करते हैं / देवानुप्रिय ! अगर तुम समझते हो कि यह संबंध उचित है, प्राप्त या पात्र है, प्रशंसनीय है, दोनों का संयोग सदृश है, तो तेतलिपुत्र को पोट्टिला दारिका प्रदान करो / प्रदान करते हो तो, देवानुप्रिय ! कहो, इसके बदले क्या शुल्क (धन) दिया जाए ? विवेचन--तेलिपुत्र राजा का मंत्री था। शासनसूत्र उसके हाथ में था। दूसरी ओर मूषिकारदारक एक सामान्य स्वर्णकार था। तेतलिपुत्र उसकी कन्या पर मुग्ध हो जाता है मगर मात्र उसे अपने भोग की सामग्री नहीं बनाना चाहता-पत्नी के रूप में वरण करने की इच्छा करता है। नियमानुसार उसकी मंगनी के लिए अपने सेवकों को उसके घर भेजता है। सेवक मूषिकारदारक के घर जाकर जिन शिष्टतापूर्ण शब्दों में पोट्टिला कन्या की मंगनी करते हैं, वे शब्द ध्यान देने योग्य हैं। राजमंत्री के सेवक न रौब दिखलाते हैं, न किसी प्रकार का दबाव डालते हैं, न धमकी देने का संकेत देते हैं / वे कलाद के समक्ष मात्र प्रस्ताव रखते हैं और निर्णय उसी पर छोड़ देते हैं। कहते हैं-'यह संबंध यदि तुम्हें उचित प्रतीत हो, तेतलिपुत्र को यदि इस कन्या के लिए योग्य पात्र मानते हो और दोनों का संबंध यदि श्लाघनीय और अनुकूल समझते हो तो तेतलिपुत्र को अपनी कन्या प्रदान करो।' निश्चय ही सेवकों ने जो कुछ कहा, वह राजमंत्री के निर्देशानुसार ही कहा होगा। इस वर्णन से तत्कालीन शासकों की न्यायनिष्ठा का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। शुल्क देने का जो कथन किया गया है, वह उस समय की प्रचलित प्रथा थी / इसके सम्बन्ध में पहले लिखा जा चुका है। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां अध्ययन : तेतलिपुत्र ] [361 १०-तए णं कलाए मूसियारदारए ते अभितरदाणिज्जे पुरिसे एवं वयासो -'एस चेव णं देवाणुप्पिया ! मम सुक्के जणं तेलिपुत्ते मम दारियानिमित्तेणं अणुग्गहं करेइ।' ते अधिभतरठाणिज्जे पुरिसे विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पुष्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारित्ता संमाणित्ता पडिविसज्जेइ / तत्पश्चात् कलाद मूषिकारदारक ने उन अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुषों से कहा—'देवानुप्रियो ! यही मेरे लिए शुल्क है जो तेतलिपुत्र दारिका के निमित्त से मुझ पर अनुग्रह कर रहे हैं।' इस प्रकार कहकर उसने उन अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुषों का विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से तथा पुष्प, वस्त्र, गंध से एवं माला और अलंकार से सत्कार किया, सम्मान किया / सत्कार-सम्मान करके उन्हें विदा किया। ११-तए णं [ते] कलायस्स मूसियारदारगस्स गिहाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव तेयलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तेयलिपुत्तं एयमढं निवेयंति / तत्पश्चात् वे अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुष कलाद मूषिकारदारक के घर से निकले / निकलकर तेतलिपुत्र अमात्य के पास पहुंचे। उन्होंने तेतलिपुत्र को यह पूर्वोक्त अर्थ (वृत्तान्त) निवेदन किया। १२-तए णं कलाए मूसियारदारए अन्नया कयाई सोहणंसि तिहि-नक्खत्त-मुहुत्तंसि पोट्टिलं दारियं व्हायं सव्वालंकारविभूसियं सीयं दुरुहइ, दुरुहिता मित्तणाइसंपरिधुडे साओ गिहाओ पडिणिखमइ, पडिणिक्खमित्ता सविड्ढीए तेयलिपुरं मज्झंमज्झेणं जेणेव तेयलिपुत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोट्टिलं दारियं तेलिपुत्तस्स सयमेव भारियत्ताए दलयइ / तत्पश्चात् कलाद मूषिकारदारक ने अन्यदा शुभ तिथि, नक्षत्र और मुहूर्त में पोट्टिला दारिका को स्नान करा कर और समस्त अलंकारों से विभूषित करके शिबिका में प्रारूढ किया / वह मित्रों और ज्ञातिजनों से परिवृत होकर अपने घर से निकल कर, पूरे ठाठ के साथ, तेतलिपुर के बीचोंबीच होकर तेतलिपुत्र अमात्य के पास पहुँचा / पहुँच कर पोट्टिला दारिका को स्वयमेव तेतलिपुत्र की पत्नी के रूप में प्रदान किया। विवेचन-मूषिकारदारक कलाद शुभ तिथि, नक्षत्र और मुहूर्त में अपनी कन्या पोटिला का तेतलिपुत्र के घर ले जाकर विवाह करता है / यह उस युग का प्रायः सामान्य-सर्वप्रचलित नियम था / आधुनिक काल में जैसे वर के अभिभावक अपने मित्रों, संबंधियों और ज्ञातिजनों को साथ लेकर-वरात (वरयात्रा) के रूप में कन्या के घर जाते हैं, उसी प्रकार पूर्व काल में कन्यापक्ष के लोग अपने मित्रों आदि के साथ नगर के मध्य में होकर, धूमधाम से-ठाठ-बाट के साथ कन्या को वर के घर ले जाते थे। ऐसे उदाहरण भी उपलब्ध होते हैं, जब वरपक्ष के जन कन्यापक्ष के घर परिणय के लिए गए, किन्तु ऐसे उदाहरण थोड़े हैं-अपवाद रूप हैं / १३-तए णं तेयलिपुत्ते पोट्टिलं दारियं भारियत्ताए उवणीयं पासइ, पासित्ता पोट्टिलाए सद्धि पट्टयं दुरुहइ, दुरुहित्ता सेयापीएहि कलसेहि अप्पाणं मज्जावेइ, मज्जावित्ता अग्गिहोमं करेइ,' 1. पाठान्तर–कारेइ कारेत्ता Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 ] [ ज्ञाताधर्मकथा करित्ता पोट्टिलाए भारियाए मित्तःणाइ-णियग-सयण-संबंधि-परिजणं विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पुप्फ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पोट्टिला दारिका को भार्या के रूप में आई हुई देखी / देखकर वह पोट्टिला के साथ पट्ट पर बैठा / बैठ कर श्वेत-पीत (चांदी-सोने के) कलशों से उसने स्वयं स्नान किया। स्नान करके अग्नि में होम किया / तत्पश्चात् पोट्टिला भार्या के मित्रजनों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, संबंधियों एवं परिजनों का प्रशन पान खादिम स्वादिम से तथा पुष्प वस्त्र गंध माला और अलंकार आदि से सत्कार-सम्मान करके उन्हें विदा किया। १४–तए णं से तेयलिपुत्ते, पोट्टिलाए भारियाए अणुरत्ते अविरत्ते उरालाई जाव [माणुस्साई भोगभोगाई भुजमाणे] विहरइ / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अमात्य पोट्टिला भार्या में अनुरक्त होकर, अविरक्त-आसक्त होकर उदार यावत् [मानव संबधी भोगने योग्य भोग भोगता हुआ रहने लगा। 15- तए णं से कणगरहे राया रज्जे य रठे य बले य वाहणे य कोसे य कोट्टागारे य अंतेउरे य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववण्णे जाए जाए पुत्ते वियंगेइ, अप्पेगइयाणं हत्थंगुलियाओ छिदइ, अप्पेगइयाणं हत्थंगुट्ठए छिदइ, एवं पायंगुलियाओ पायंगुट्ठए वि कन्नसक्कुलीए वि नासापुडाई फालेइ, अंगमंगाई वियंगेइ। कनकरथ राजा राज्य में, राष्ट्र में, बल (सेना में), वाहनों में, कोष में, कोठार में तथा अन्तःपुर में अत्यन्त आसक्त था, लोलुप-गृद्ध और लालसामय था। अतएव वह जो जो पुत्र उत्पन्न होते उन्हें विकलांग कर देता था। किन्हीं की हाथ की अंगुलियाँ काट देता, किन्हीं के हाथ का अंगूठा काट देता, इसी प्रकार किसी के पैर की अंगुलियाँ, पैर का अंगूठा, कर्णशष्कुली (कान की पपड़ी) और किसी का नासिकापुट काट देता था। इस प्रकार उसने सभी पुत्रों को अवयवविकल-विकलांग कर दिया था। विवेचन--कनकरथ को भय था कि यदि मेरा कोई पुत्र वयस्क हो गया तो संभव है वह मुझे सत्ताच्युत करके स्वयं राजसिंहासन पर आसीन हो जाए। मगर विकलांग पुरुष राजसिंहासन का अधिकारी नहीं हो सकता था। अतएव वह अपने प्रत्येक पुत्र को अंगहीन बना देता था। राज्यलोलुपता अथवा सत्ता के प्रति आसक्ति जब अपनी सीमा का उल्लंघन कर जाती है तब कितनी अनर्थजनक हो जाती है और सत्तालोलुप मनुष्य को अधःपतन की किस सीमा तक ले जाती है, कनकरथ राजा इस सत्य का ज्वलंत उदाहरण है / राज्यलोभ ने उसे विवेकान्ध बना दिया था और वह मानो स्वयं को अजर-अमर मान रहा था। १६-तए णं तीसे पउमावईए देवीए अन्नया पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेयारूवे अज्झस्थिए समुप्पज्जित्था-'एवं खलु कणगरहे राया रज्जे य जाव' पत्ते वियंगेइ जावर अंगमंगाई वियंरोड, तं जइ अहं दारयं पयायामि, सेयं खलु ममं तं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव सारक्खमाणोए 1. अ. 14 सूत्र 15 2. प्र. 14 सूत्र 15 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्ययन : तेतलिपुत्र ] [363 संगोवेमाणीए विहरित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता तेयलिपुत्तं अमच्चं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी तत्पश्चात् पद्मावती देवी को एक बार मध्य रात्रि के समय इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुा- 'कनकरथ राजा राज्य आदि में आसक्त होकर यावत् पुत्रों को विकलांग कर देता है, यावत् उनके अंग-अंग काट लेता है, तो यदि मेरे अब पुत्र उत्पन्न हो तो मेरे लिए यह श्रेयस्कर होगा कि उस पुत्र को मैं कनकरथ से छिपा कर पाल-पोसू।' पद्मावतो देवी ने ऐसा विचार किया और विचार करके तेतलिपुत्र अमात्य को बुलवाया। बुलवा कर उससे कहा--- १७-'एवं खलु देवाणुप्पिया! कणगरहे राया रज्जे य जाव' वियंगेह, तं जइ णं अहं देवाणुप्पिया ! दारगं पयायामि, तए णं तुम कणगरहस्स रहस्सियं चेव अणुपुग्वेण सारक्खमाणे संगोवेमाणे संवडढेहि, तए णं से दारए उम्मूक्कबालभावे जोवणगमणपत्ते तव य मम य भिक्खाभायणे भविस्सइ / ' तए णं से तेयलिपुत्ते अमच्चे पउमावईए देवोए एयमलैं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता पडिगए। ___ 'हे देवानुप्रिय ! कनकरथ राजा राज्य और राष्ट्र आदि में अत्यन्त आसक्त होकर सब पुत्रों को अपंग कर देता है, अतः मैं यदि अब पुत्र को जन्म दूं तो कनकरथ से छिपा कर ही अनुक्रम से उसका संरक्षण, संगोपन एवं संवर्धन करना / ऐमा करने से वह बालक बाल्यावस्था पार करके, यौवन को प्राप्त होकर तुम्हारे लिए भी और मेरे लिए भी भिक्षा का भाजन बनेगा, अर्थात् वह तुम्हारा हमारा पालन-पोषण करेगा।' तब तेतलिपुत्र अमात्य ने पद्मावती के इस अर्थ (कथन) को अंगीकार किया। अंगीकार करके वह वापिस लौट गया। १८-तए णं पउमावई य देवी पोट्टिला य अमच्ची सममेव गन्भं गेण्हंति, सममेव गभं परिवहंति, सममेव गभं परिवड्ढंति / तए णं सा पउमावई देवो नवण्हं मासाणं पडिपुण्णाणं जावः पियदंसणं सुरूवं दारगं पयाया। जं रणि च णं पउमावई देवी दारयं पयाया तं रणि च पोट्टिला वि अमच्ची नवण्हं मासाणं पडिपुणाणं विणिहायमावन्नं दारियं पयाया। तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने और पोट्टिला नामक अमात्यी (अमात्य की पत्नी) ने एक हो साथ गर्भ धारण किया, एक ही साथ गर्भ वहन किया और साथ-साथ ही गर्भ की वृद्धि की। तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने नौ मास [ और साढ़े सात दिन] पूर्ण हो जाने पर देखने में प्रिय और सुन्दर रूप वाले पुत्र को जन्म दिया / / जिस रात्रि में पद्मावतो देवी ने पुत्र को जन्म दिया, उसी रात्रि में पोट्टिला अमात्यपत्नी ने भी नौ मास [ और साढ़े सात दिन ] व्यतीत होने पर मरी हुई बालिका का प्रसव किया / १९-तए णं सा पउमावई देवी अम्मधाई सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह गं तुमे अम्मो ! तेयलिपुत्तगिहे, तेलिपुत्तं रहस्सियं चेव सद्दावेह / ' 1. अ. 14 सूत्र 15 2. पाठान्तर-'सममेव गब्भं परिवढं ति' यह पाठ किसी-किसी प्रति में उपलब्ध नहीं है। 3. प्रोप. सूत्र 143. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा 364 ] तए णं सा अम्मधाई तह त्ति पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता अंतेउरस्स अवदारणं निग्गच्छा, निम्गच्छित्ता जेणेव तेलिपुत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव' एवं क्यासी'एवं खलु देवाणुप्पिया ! पउमावई देवी सद्दावेइ / ' उस समय पद्मावती देवी ने अपनी धायमाता को बुलाया और कहा---'माँ, तुम तेतलिपुत्र के घर जाओ और तेतलिपुत्र को गुप्त रूप से बुला लायो / ' तब धायमाता ने 'बहुत अच्छा' इस प्रकार कहकर पद्मावती का आदेश स्वीकार किया। स्वीकार करके वह अन्तःपुर के पिछले द्वार से निकल कर तेतलिपुत्र के घर पहुँची। वहाँ पहुँच कर दोनों हाथ जोड़ कर (मस्तक पर अंजलि करके) उसने यावत् इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! आप को पद्मावती देवी ने बुलाया है।' २०-तए णं तेयलिपुत्ते अम्मधाईए अंतियं एयमझें सोच्चा णिसम्म हट्ठ-तुळे अम्मधाईए सद्धि साओ गिहाओ निग्गच्छड, निग्गच्छित्ता अंतेउरस्स अवहारेण रहस्सियं चेव अणपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव एवं वयासी-'संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! जंमए कायव्वं / ' तत्पश्चात् तेतलिपुत्र धायमाता से यह अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट होकर धायमाता के साथ अपने घर से निकला / निकल कर अन्तःपुर के पिछले द्वार से, गुप्त रूप से उसने प्रवेश किया। प्रवेश करके जहाँ पद्मावती देवी थी, वहाँ अाया / पाकर दोनों हाथ जोड़ कर [मस्तक पर अंजलि करके] बोला-'देवानुप्रिये ! मुझे जो करना है, उसके लिए आज्ञा दीजिए।' २१–तए णं पउमावई देवी तेयलिपुत्तं एवं वयासी—'एवं खलु कणगरहे राया जाव' वियंगेइ, अहं च णं देवाणुप्पिया ! दारगं पयाया, तं तुमं णं देवाणुप्पिया! तं दारगं गिण्हाहि जाव' तव मम य भिक्खाभायणे भविस्सइ, ति कटु तेयलिपुत्तस्स हत्थे दलयइ। तए ण तेयलिपुत्ते पउमावईए हत्थाओ दारगं गेण्हइ, गेण्हित्ता उत्तरिज्जेणं पिहेइ, पिहित्ता अंतेउरस्स रहस्सियं अवदारेणं निम्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सए गिहे, जेणेव पोट्टिला भारिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोट्टिलं एवं वयासी ___ तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने तेतलिपुत्र से इस प्रकार कहा–'तुम्हें विदित ही है कि कनकरथ राजा यावत् [जन्मे हुए बालकों में से किसी के हाथ, किसी के कान आदि कटवाकर] सब पुत्रों को विकलांग कर देता है। 'हे देवानप्रिय ! मैंने बालक का प्रसव किया है। अत: तम इस बालक को ग्रहण करो-संभालो। यावत् यह बालक तुम्हारे लिए और मेरे लिए भिक्षा का भाजन सिद्ध होगा। ऐसा कहकर उसने वह बालक तेतलिपुत्र के हाथों में सौंप दिया। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पद्मावती के हाथ से उस बालक को ग्रहण किया और अपने उत्तरीय वस्त्र से ढंक लिया / ढंक कर गुप्त रूप से अन्तःपुर के पिछले द्वार से बाहर निकल गया / निकल कर जहाँ अपना घर था और जहाँ पोट्टिला भार्या थी, वहाँ पाया / आकर पोट्टिला से इस प्रकार कहा१-अ. 14 सूत्र 8. २-अ. 14 सूत्र 15. ३-प्र. 14 सूत्र 17. Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्ययन : तेतलिपुत्र ]] [ 365 २२-~'एवं खलु देवाणुप्पिया! कणगरहे राया रज्जे य जाव वियंगेइ, अयं च णं दारए कणगरहस्स पुत्ते पउमावईए अत्तए, तेणं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव अणुपुब्वेणं सारक्खाहि य, संगोवेहि य, संवड्ढेहि य / तए णं एस दारए उम्मुक्कबालभावे तव य मम य पउमावईए य आहारे भविस्सइ, त्ति कटु पोट्टिलाए पासे णिक्खिवइ, पोट्टिलाए पासाओ तं विणिहायमावन्नियं दारियं गेण्हइ, गेण्हित्ता उत्तरिज्जेणं पिहेइ, पिहिता अंतेउरस्स अवद्दारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमावईए देवीए पासे ठावेइ, ठावित्ता जाव पडिनिग्गए। देवानुप्रिये ! कनकरथ राजा राज्य आदि में यावत् अतीव आसक्त होकर अपने पुत्रों को यावत् अपंग कर देता है और यह बालक कनकरथ का पुत्र और पद्मावती का आत्मज है, अतएव देवानप्रिय ! इस बालक का, कनकरथ से गुप्त रख कर अनक्रम से संरक्षण, संगोपन और संवर्धन करना / इससे यह बालक बाल्यावस्था से मुक्त होकर तुम्हारे लिए, मेरे लिए और पद्मावती देवी के लिए आधारभूत होगा, इस प्रकार कह कर उस बालक को पोट्टिला के पास रख दिया और पोट्टिला के पास से मरी हुई लड़की उठा ली / उठा कर उसे उत्तरीय वस्त्र से ढंक कर अन्तःपुर के पिछले छोटे द्वार से प्रविष्ट हुना और पद्मावती देवी के पास पहुँचा / मरी लड़की पद्मावती देवी के पास रख दी और वह वापिस चला गया। २३--तए णं तोसे पउमावईए अंगपडियारियाओ पउमावइं देवि विणिहायमावन्नियं च दारियं पयायं पासंति, पासित्ता जेणेव कणगरहे राया तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता करयल जाव' एवं वयासी-'एवं खलु सामी ! पउमावई देवी मइल्लियं दारियं पयाया।' तत्पश्चात् पद्मावती की अंगपरिचारिकाओं ने पद्मावती देवी को और विनिघात को प्राप्त (मृत) जन्मी हुई बालिका को देखा / देख कर जहाँ कनकरथ राजा था, वहाँ पहुँच कर दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहने लगीं-'स्वामिन् ! पद्मावती देवी ने मृत बालिका का प्रसव किया है।' २४-तए णं कणगरहे राया तीसे मइल्लियाए दारियाए नोहरणं करेइ, बहूणि लोइयाई मयकिच्चाई करेइ, कालेणं विगयसोए जाए। तत्पश्चात् कनकरथ राजा ने मरी हुई लड़की का नीहरण किया अर्थात् उसे श्मशान में ले गया / बहुत-से मृतक संबंधी लौकिक कार्य किये / कुछ समय के पश्चात् राजा शोक-रहित हो गया / २५-तए णं तेयलिपुत्ते कल्ले कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी—'खिप्पामेव चारगसोधनं करेह जाव ठिइवडियं दसदेवसियं करेह कारवेह य, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।' जम्हा णं अम्हं एस दारए कणगरहस्स रज्जे जाए, तं होउ णं दारए नामेणं कणगज्झए जाव अलं भोगसमत्थे जाए। / तत्पश्चात् दूसरे दिन तेतलिपुत्र ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुला कर कहा--'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चारक शोधन करो, अर्थात् कैदियों को कारागार से मुक्त करो / यावत् दस १-प्र. 14 सूत्र 8. २-अ. 1 सूत्र 101 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्म कथा दिनों की स्थितिपतिका करो-पुत्रजन्म का उत्सव करो / यह सब करके मेरी आज्ञा मुझे वापिस सौंपो। हमारा यह बालक राजा कनकरथ के राज्य में उत्पन्न हुआ है, अतएव इस बालक का नाम कनकध्वज हो, धीरे-धीरे वह बालक बड़ा हुआ, कलानों में कुशल हुया, यौवन को प्राप्त होकर भोग भोगने में समर्थ हो गया / २६-तए णं सा पोट्टिला अन्नया कयाई तेयलिपुत्तस्स अणिद्वा जाया यावि होत्था, णेच्छइ य तेयलिपुत्ते पोट्टिलाए नामगोत्तमवि सवणयाए, कि पुण दरिसणं वा परिभोग वा ? ___ तए णं तीसे पोट्टिलाए अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था--'एवं खलु अहं तेलिपुत्तस्स पुब्धि इट्टा आसि, इयाणि अणिट्ठा जाया, नेच्छइ य लेयलिपुत्ते मम नामं जाव परिभोगं वा / ' ओहयमणसंकप्पा जाव [करयलपल्हत्थमुही / अदृशाणोवगया] झियाया। तत्पश्चात् किसी समय पोट्टिला, तेतलिपुत्र को अप्रिय हो गई / तेतलिपुत्र उसका नाम-गोत्र भी सुनना पसन्द नहीं करता था, तो दर्शन और परिभोग की तो बात ही क्या ? तब एक बार मध्यरात्रि के समय पोट्टिला के मन में यह विचार प्राया-'तेतलिपुत्र को मैं पहले प्रिय थी, किन्तु अाजकल अप्रिय हो गई हैं। अतएव तेतलिपुत्र मेरा नाम भी नहीं सुनना चाहते, तो यावत् परिभोग तो चाहेंगे ही क्या ?' इस प्रकार, जिसके मन के संकल्प नष्ट हो गये हैं ऐसी वह पोट्टिला [ हथेली पर मुख रखकर आर्तध्यान करने लगी ] चिन्ता में डूब गई। २७-तए णं तेयलिपुत्ते पोटिलं ओहयमणसंकप्पं जाव' झियायमाणि पासइ, पासित्ता एवं वयासी—'मा णं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहयमणसंकप्पा, तुमं णं मम महाणसंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेहि, उवक्खडावित्ता बहूणं समणमाहण जाव अतिहि-किवण-वणीमगाणं देयमाणी य दवावेमाणी या तए णं सा पोट्टिला तेलिपुत्तेणं एवं वुत्ता समाणा हद्वतुट्ठा तेयलिपुत्तस्स एयमळं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता कल्लाकल्लि महाणसंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता बहूणं समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगाणं देयमाणो य दवावेमाणी य विहरइ / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने भग्नमनोरथा पोटिला को चिन्ता में डबी देखकर इस प्रकार कहा-. 'देवानुप्रिये ! भग्नमनोरथ मत होो / तुम मेरी भोजनशाला में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार करवाप्रो और करवा कर बहत-से श्रमणों ब्राह्मणों अतिथियों और भिखारियों को दान देती-दिलाती हुई रहा करो।' _तेतलिपुत्र के ऐसा कहने पर पोट्टिला हर्षित और संतुष्ट हुई। तेतलिपुत्र के इस अर्थ (कथन) को अंगीकार करके प्रतिदिन भोजनशाला में वह विपुल अशन पान खादिम और स्वादिम तैयार करवा कर श्रमणों ब्राह्मणों अतिथियों और भिखारियों को दान देती और दिलाती रहती थी--अपना काल यापन करती थी। 1. अ. 14 सूत्र 26 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्ययन : तेतलिपुत्र ] [ 367 २८-तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ नाम अज्जाओ ईरियासमियाओ जाव [भासासमियाओ एसणासमियाओ आयाण-भंड-मत्त-णिक्खेवण-समियाओ उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिछावण-समियाओ मणसमियाओ, वइसमियाओ कायसमियाओ, मणगुत्ताओ वइगुत्ताओ कायगुत्ताओ, गुत्ताओ गुत्तिदियाओ] गुत्तबंभयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुवाणुपुटिव चरमाणीओ जेणामेव तेयलिपुरे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हंति, ओगिण्हित्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावमाणीओ विहरंति / ___ उस काल और उस समय में ईर्या-समिति से युक्त यावत् [भाषासमिति, एषणासमिति आदान-भांड-मात्रनिक्षेपणासमिति, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिष्ठापनसमिति से युक्त, मनसमिति, वचनसमिति, कायसमिति से सम्पन्न, मनोगुप्ति वचनगुप्ति और कायगुप्ति से युक्त, गुप्त तथा इन्द्रियों का गोपन करने वाली] गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुत, बहुत परिवार वाली सुव्रता नामक प्रार्या अनुक्रम से विहार करती-करती तेतलिपुर नगर में आई / आकर यथोचित उपाश्रय ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगीं। २९-तए णं तासि सुव्वयाणं अज्जाणं एगे संघाडए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ जाव अडमाणीओ तेयलिपुत्तस्स गिहं अणुपविट्ठाओ। तए णं सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एज्जमाणीओ पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठा आसणाओ अब्भट्टेइ, अब्भुद्वित्ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिलाभेइ, पडिलाभित्ता एवं वयासी---- तत्पश्चात् उन सुव्रता आर्या के एक संघाड़े के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया और दूसरे प्रहर में ध्यान किया। तीसरे प्रहर में भिक्षा के लिए यावत् अटन करती हुई वे साध्वियाँ तेतलिपुत्र के घर में प्रविष्ट हुईं पोट्टिला उन आर्याओं को प्राती देखकर हृष्ट-तुष्ट हुई, अपने आसन से उठ खड़ी हुई, वंदना की, नमस्कार किया और विपुल अशन पान खाद्य और स्वाद्य-आहार वहराया। आहार वहरा कर उसने कहा विवेचन-प्रस्तुत सूत्र के 'पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ' के पश्चात् 'जाव' शब्द से विस्तृत पाठ का संकेत दिया गया है, जिसमें साधु-साध्वी के देवसिक कार्यक्रम के कुछ अंश का उल्लेख है, साथ ही भिक्षा संबंधी विधि का भी उल्लेख किया गया है / उस पाठ का प्राशय इस प्रकार है'साध्वियों ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, द्वितीय प्रहर में ध्यान किया, तीसरा प्रहर प्रारंभ होने पर शीघ्रता, चपलता और संभ्रम के बिना अर्थात् जल्दी से गोचरी के लिए जाने की उत्कंठा न रखकर निश्चिन्त और सावधान भाव से मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया, पात्रों और वस्त्रों को प्रतिलेखना की, पात्रों का प्रमार्जन किया तत्पश्चात् पात्र ग्रहण करके अपनी प्रवत्तिका सुव्रता साध्वी के निकट गईं। उन्हें वन्दन- नमस्कार किया और भिक्षाचर्या के लिए तेतलिपुर नगर के उच्च, नीच एवं मध्यम घरों में जाने की आज्ञा मांगी। सुव्रता साध्वी ने उन्हें भिक्षा के लिए जाने की अनुमति दे दी। तत्पश्चात् वे प्रायिकाएँ उपाश्रय से बाहर निकलीं। धीमी, अचंचल और असंभ्रान्त गति से गमन करती हुई चार हाथ सामने की भूमि-मार्ग पर दृष्टि रक्खे हुए—ईर्यासमिति से नगर में श्रीमन्तों, गरीबों तथा मध्यम परिवारों में भिक्षा के लिए अटन करने लगीं / अटन करती-करती वे तेतलिपुत्र के घर में पहुँची।' Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 ] [ ज्ञाताधर्मकथा __इस वर्णन से स्पष्ट है कि भिक्षार्थ गमन करने से पूर्व साधु-साध्वी को वस्त्र-पात्रादि का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करना आवश्यक है, वे जिसको निश्रा (नेसराय) में हों, उनकी प्राज्ञा प्राप्त करनी चाहिए तथा शीघ्र भिक्षाप्राप्ति के विचार से त्वरा या चपलता नहीं करनी चाहिए / भिक्षा के लिए धनी, निर्धन एवं मध्यम वर्ग के घरों में जाना चाहिए / भिक्षा का आगमोक्त समय तृतीय प्रहर है, यह भी इससे स्पष्ट हो जाता है, फिर भी इस विषय में देश-काल का विचार रखना चाहिए। ३०–एवं खलु अहं अज्जाओ! तेयलिपुत्तस्स पुग्वि इट्टा कंता पिया मणुण्णा मणामा आसि, इयाणि अणिट्ठा अप्पिया, अकंता अमणुण्णा अमणामा जाया / नेच्छइ णं तेर्यालपुत्ते मम नामगोयमवि सवणयाए, कि पुण दंसणं वा परिभोगं वा ? तं तुम्भे गं अज्जाओ सिक्खियाओ, बहुनायाओ, बहुपढियाओ, बहूणि गामागर जाव आहिंडह, राईसर जाव गिहाई अणुपविसह, तं अस्थि याइं भे अज्जाओ? केइ कहिंचि चुन्नजोए वा, मंतजोगे वा, कम्मणजोए वा, हियउड्डावणे वा, काउड्डावणे वा आभिओगिए वा, वसीकरणे वा, कोउयकम्मे वा, भूइकम्मे वा, मूले कंदे छल्ली वल्ली सिलिया वा, गुलिया वा, ओसहे वा, भेसज्जे वा उवलद्धपुग्वे जेणाहं तेलिपुत्तस्स पुणरवि इट्ठा भवेज्जामि। 'हे पार्यायो ! मैं पहले तेतलिपुत्र की इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मणाम-मनगमती थी, किन्तु अब अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय. अमनोज्ञ, अमणाम हो गई हूँ / तेतलिपुत्र मेरा नाम-गोत्र भी सुनना नहीं चाहते, दर्शन और परिभोग की तो बात ही दूर ! हे पार्यायो ! तुम शिक्षित हो, बहुत जानकार हो, बहुत पढ़ी हो, बहुत-से नगरों और ग्राम में यावत् भ्रमण करती हो, राजारों और ईश्वरों-युवराजों आदि के घरों में प्रवेश करती हो तो हे आर्यायो ! तुम्हारे पास कोई चूर्णयोग, (स्तंभन अादि करने वाला) मंत्रयोग, कामणयोग, हृदयोड्डायन-हृदय को हरण करने वाला, काया का आकर्षण करने वाला, आभियोगिक-पराभव करने वाला, वशीकरण, कौतुककर्म-सौभाग्य प्रदान करने वाला स्नान आदि, भूतिकर्म-मंत्रित की हुई भभूत का प्रयोग अथवा कोई सेल, कंद, छाल, वेल, शिलिका (एक प्रकार का घास), गोली, औषध या भेषज ऐसी है, जो पहले जानी हुई हा? जिससे मैं फिर तेतलिपुत्र की इष्ट हो सकू?' ३१–तए णं ताओ अज्जाओ पोट्टिलाए एवं वुत्ताओ समाणीओ दो वि कन्ने ठाइंति, ठाइता पोटिलं एवं वयासी-'अम्हे णं देवाणुप्पिया ! समणीओ निगंथीओ जाव' गुत्तबंभचारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं एयप्पयारं कन्नेहि वि निसामेत्तए, किमंग पुण उदिसित्तए वा, आयरित्तए वा? अम्हे णं तव देवाणुप्पिया ! विचित्तं केवलिपन्नत्तं धम्म परिकहिज्जामो।' पोट्टिला के द्वारा इस प्रकार कहने पर उन आर्यानों ने अपने दोनों कान बन्द कर लिये / कान बन्द करके उन्होंने पोट्टिला से कहा---'देवानुप्रिये ! हम निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ हैं, यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणियाँ हैं / अतएव ऐसे वचन हमें कानों से श्रवण करना भी नहीं कल्पता तो इस विषय का उपदेश देना या आचरण करना तो कल्प हो कैसे सकता है ? हाँ, देवानुप्रिये ! हम तुम्हें अद्भुत या अनेक प्रकार के केवलिप्ररूपित धर्म का भलीभाँति उपदेश दे सकती हैं।' 1. अ. 14 सूत्र 28 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां अध्ययन : तेतलिपुत्र] ३२-तए णं सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एवं वयासी-इच्छामि णं अज्जाओ ! तुम्ह अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए। तए णं ताओ अज्जाओ पोट्टिलाए विचित्तं धम्म परिकहति / तए णं सा पोट्टिला धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठा एवं वयासो-'सद्दहामि णं अज्जाओ! निग्गंथं पावयणं जाव' से जहेयं तुब्भे वयह, इच्छामि णं अहं तुम्भं अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव सत्त सिक्खावइयं गिहिधम्म पडिवज्जित्तए।' अहासुहं देवाणुप्पिए ! तत्पश्चात् पोट्टिला ने उन आर्यानों से कहा-हे पार्यायो ! मैं आपके पास से केवलिप्ररूपित धर्म सुनना चाहती हूँ। तब उन आर्यानों ने पोट्टिला को अद्भुत या अनेक प्रकार के धर्म का उपदेश दिया। पोट्टिला धर्म का उपदेश सुनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट होकर इस प्रकार बोली- 'पार्यायो ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ। जैसा आपने कहा, वह वैसा ही है। अतएव मैं आपके पास से पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत वाले श्रावक के धर्म को अंगीकार करना चाहती हूँ / ' तब आर्यानों ने कहा-देवानुप्रिये ! जैसे सुख उपजे, वैसा करो। ३३-तए णं सा पोट्टिला तासि अज्जाणं अंतिए पंचाणुब्वइयं जाव धम्म पडिवज्जइ, ताओ अज्जाओ वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता पडिविसज्जेइ / तए णं सा पोट्टिला समणोवासिया जाया जाव समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असणपाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसह-भेसज्जेणं पाडिहारिएणं पीढ-फलगसेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणी विहरह। तत्पश्चात् उस पोट्टिया ने उन आर्याओं से पांच अणुव्रत, सात शिक्षाबत वाला केवलिप्ररूपित धर्म अंगीकार किया / उन अार्याओं को वन्दना की, नमस्कार किया / वन्दना नमस्कार करके उन्हें विदा किया। ___ तत्पश्चात् पोट्टिला श्रमणोपासिका हो गई, यावत् साधु-साध्वियों को [प्रासुक-अचित्त, एषणीय-प्राधाकर्मादि दोषों से रहित-कल्पनीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम तथा बस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन, औषध, भेषज एवं प्रातिहारिक-वापिस लौटा देने के योग्य पीढ़ा, पाटा, शय्याउपाश्रय और संस्तारक-बिछाने के लिए घास आदि ] प्रदान करती हुई विचरने लगी। ३४.-तए णं तोसे पोट्टिलाए अन्नया कयाइ पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-'एवं खलु अहं तेयलिपुत्तस्स पुब्धि इट्ठा 5 आसि, इयाणि अणिट्ठा 5 जाया जाव' परिभोग वा, तं सेयं खलु मम सुन्वयाणं अज्जाणं अंतिए पव्वइत्तए।' एवं संपेहेइ / संपेहित्ता कल्लं पाउप्पभायाए जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! 1. अ. 1 सूत्र 115. 2. अ. 14 सूत्र 31 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370] [ ज्ञाताधर्मकथा मए सुब्बयाणं अज्जाणं अंतिए धम्मे निसंते जाव से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए / तं इच्छामि णं तुब्भेहि अब्भणुन्नाया पव्वइत्तए।' तदनन्तर एक बार किसी समय, मध्य रात्रि में जब वह कुटुम्ब के विषय में चिन्ता करती जाग रही थी, तब उसे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ–'मैं पहले तेतलिपुत्र को इष्ट थी, अब अनिष्ट हो गई हूँ; यावत् दर्शन और परिभोग का तो कहना ही क्या है ? अतएव मेरे लिए सुव्रता आर्या के निकट दीक्षा ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है।' पोट्टिला ने ऐसा विचार किया। विचार करके दूसरे दिन प्रभात होने पर वह तेतलिपुत्र के पास गई। जाकर दोनों हाथ जोड़कर [ अंजलि करके और मस्तक पर आवर्त करके ] बोली-देवानुप्रिय ! मैंने सुव्रता आर्या से धर्म सुना है, वह धर्म मुझे इष्ट, अतीव इष्ट है और रुचिकर लगा है, अतः आपकी आज्ञा पाकर मैं प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। ३५-तए णं तेयलिपुत्ते पोट्टिलं एवं वयासी-'एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए ! मुडा पवइया समाणी कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जिहिसि, तं जइ णं तुम देवाणुप्पिए ! ममं ताओ देवलोयाओ आगम्म केवलिपन्नत्ते धम्मे बोहिहि, तो हं विसज्जेमि, अह णं तुमं ममं णं संबोहेसि तो ते ण विसज्जेमि।' तए णं सा पोट्टिला तेयलिपुत्तस्स एयमढें पडिसुणेइ / तब तेतलिपुत्र ने पोट्टिला से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिये ! तुम मुडित और प्रवजित होकर मृत्यु के समय काल करके किसी भी देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होयोगी, सो यदि देवानुप्रिये ! तुम उस देवलोक से आकर मुझे केवलिप्ररूपित धर्म का प्रतिबोध प्रदान करो तो मैं तुम्हें अाज्ञा देता हूँ। अगर तुम मुझे प्रतिबोध न दो तो मैं आज्ञा नहीं देता।' तब पोट्टिला ने तेतलिपुत्र का अर्थ कथन स्वीकार कर लिया। ३६-तए णं तेयलिपुत्ते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तणाइ जाव आमंतेइ, आमंतित्ता जाव संमाणेइ, संमाणित्ता पोट्टिलं हायं जाव [सव्वालंकारविभूसियं] पुरिसहस्सवाहणीयं सीयं दुरुहिता मित्तणाइ जाव परिवडे सव्विड्ढोए जाव रवेणं तेतलिपुरस्स मज्झमज्झेणं जेणेव सुव्वयाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता सोयाओ पच्चोरुहइ, पच्चीरुहित्ता पोट्टिलं पुरओ कटु जेणेव सुव्वया अज्जा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी 'एवं खलु देवाणुप्पिए ! मम पोट्टिला भारिया इट्ठा, एस णं संसारभउश्विग्गा जाव [भीया जम्मण-जर-मरणाणं, इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं] पव्वइत्तए / पडिच्छंतु गं देवाणुप्पिए ! सिस्सिणिभिक्खं दलयामि / ' 'अहासुहं मा पडिबंधं करेह / ' तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने विपुल अशन पान खादिम और स्वादिम पाहार बनवाया। मित्रों, ज्ञातिजनों आदि को आमंत्रित किया / उनका यथोचित सत्कार-सम्मान किया / सत्कार-सम्मान Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां अध्ययन : तेतलिपुत्र ] [ 371 करके पोट्टिला को स्नान कराया यावत् (सर्व अलंकारों से विभूषित किया) और हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिबिका पर आरूढ करा कर मित्रों तथा ज्ञातिजनों आदि से परिवृत होकर, समस्त ऋद्धि-लवाजमे के साथ, यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ तेतलिपुर के मध्य में होकर सुव्रता साध्वी के उपाश्रय में आया। वहाँ आकर सुव्रता आर्या को वन्दना की, नमस्कार किया / वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहा 'देवानुप्रिये ! यह मेरी पोट्टिला भार्या मुझे इष्ट है / यह संसार के भय से उद्वेग को प्राप्त हुई है, यावत् (जन्म, जरा, मरण के दुःखों से भयभीत हुई है, अतः आपके निकट मुडित होकर गृहत्यागिन बनना चाहती है.-) दीक्षा अंगीकार करना चाहती है / सो देवानुप्रिये ! मैं आपको शिष्या रूप भिक्षा देता हूँ / इसे आप अंगीकार कीजिए।' आर्या ने कहा-'जैसे सुख उपजे वैसा करो; प्रतिबन्ध मत करो-विलम्ब न करो।' ३७–तए णं सा पोट्टिला सुव्वयाहिं अज्जाहिं एवं वुत्ता समाणा हट्ठ-तुट्ठा उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करित्ता जेणेव सुव्वयाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी'आलित्ते णं भंते ! लोए' एवं जहा देवाणंदा, जाव एक्कारस अंगाई, बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता सद्धि भत्ताई अणसणेणं छेइत्ता, आलोइयपडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ना। तत्पश्चात् सुव्रता आर्या के इस प्रकार कहने पर पोट्टिला हृष्ट-तुष्ट हुई / उसने उत्तरपूर्वईशान दिशा में जाकर अपने आप आभरण, माला और अलंकार उतार डाले / उतार कर स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया। यह सब करके जहाँ सुब्रता प्रार्या थी, वहाँ आई / आकर उन्हें वन्दननमस्कार किया / वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार कहा -'हे भगवती (पूज्ये) ! यह संसार चारों ओर से जल रहा है, इत्यादि भगवती सूत्र में कथित देवानन्दा की दीक्षा के समान वर्णन कह लेना चाहिए।' यावत् पोट्टिला ने दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् ग्यारह अंगों का अध्ययन किया / बहुत वर्षों तक चारित्र का पालन किया / पालन करके एक मास की संलेखना करके, अपने शरीर को कृश करके, साठ भक्त का अनशन करके, पापकर्म की आलोचना और प्रतिक्रमण करके, सम के अवसर पर काल करके वह किसी देवलोक में देवता के रूप में उत्पन्न हुई। ३८-तए णं से कणगरहे राया अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्था। तए णं राईसर जाव [तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेगावइपभिइओ रोयमाणा कंदमाणा विलवमाणा तस्स कणगरहस्स सरीरस्स महया इड्डी-सक्कार-समुदएणं] णीहरणं करेंति, करित्ता अनमन्नं एवं वयासो---'एवं खलु देवाणुप्पिया ! कणगरहे राया रज्जे य जाव पुत्ते वियंगित्था, अम्हे णं देवाणुप्पिया ! रायाहीणा, रायाहिटिया, रायाहीणकज्जा, अयं च णं तेतली अमच्चे कणगरहस्स रण्णो सव्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु लद्धपच्चए दिन्नक्यिारे सव्वकज्जवड्ढावए यावि होत्था / तं सेयं खलु अम्हं तेलिपुत्तं अमच्चं कुमारं जाइत्तए' त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमझें पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव तेयलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तेयलिपुत्तं एवं वयासी१. विस्तृत वर्णन के लिए देखिए, भगवतीसूत्र शतक 9 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् किसी समय कनकरथ राजा कालधर्म से युक्त हो गया-मर गया / तब राजा, ईश्वर, (तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति आदि ने रुदन करते हुए, चीखचीखकर रोते हुए, विलाप करते हुए खूब धूम-धाम से कनकरथ राजा का नीहरण किया--अन्तिम संस्कार वि र किया।) अन्तिम संस्कार करके वे परस्पर इस प्रकार कहने लगे--'देवानप्रियो ! कनकरथ राजा ने राज्य आदि में प्रासक्त होने के कारण अपने पुत्रों को विकलांग कर दिया है / देवानुप्रियो ! हम लोग तो राजा के अधीन हैं, राजा से अधिष्ठित होकर रहने वाले हैं और राजा के अधीन रहकर कार्य करने वाले हैं, तेतलिपुत्र अमात्य राजा कनकरथ का सब स्थानों में और सब भूमिकाओं में विश्वासपात्र रहा है, परामर्श-विचार देने वाला—विचारक है और सब काम चलाने वाला है। अतएव हमें तेतलिपुत्र अमात्य से कुमार की याचना करना चाहिये।' इस प्रकार विचार करके उन्होंने आपस में यह बात स्वीकार की। स्वीकार करके तेतलिपुत्र अमात्य के पास आये / पाकर तेतलिपुत्र से इस प्रकार कहने लगे ३९-.-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! कणगरहे राया रज्जे य रठे य जाव वियंगेइ, अम्हे य णं देवाणुप्पिया ! रायाहीणा जाव रायाहोणकज्जा, तुमं च णं देवाणुप्पिया ! कणगरहस्स रणो सबढाणेसु जाव रज्जधुचितए / तं जइ गं देवाणुप्पिया! अस्थि केइ कुमारे रायलक्खणसंपन्ने अभिसेयारिहे, तं गं तुमं अम्हं दलाहि, जा णं अम्हे महया रायाभिसेएणं अभिसिंचामो।' 'देवानुप्रिय ! बात ऐसी है-कनकरथ राजा राज्य में तथा राष्ट्र में आसक्त था / अतएव उसने अपने सभी पुत्रों को विकलांग कर दिया है और हम लोग तो देवानुप्रिय ! राजा के अधीन रहने वाले यावत् राजा के अधीन रहकर कार्य करने वाले हैं / हे देवानुप्रिय ! तुम कनकरथ राजा के सभी स्थानों में विश्वासपात्र रहे हो, यावत् राज्यधुरा के चिन्तक हो। अतएव देवानुप्रिय ! यदि ई कुमार राजलक्षणों से युक्त और अभिषेक के योग्य हो तो हमें दो, जिससे महान-महान राज्याभिषेक से हम उसका अभिषेक करें।' ४०–तए णं तेलिपुत्ते तेसि ईसरपभिईणं एयमढें पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता कणगज्मयं कुमारं पहायं जाव सस्सिरीयं करेइ, करित्ता तेसि ईसरपभिईणं उवणेइ, उवणित्ता एवं वयासो _ 'एस णं देवाणुप्पिया ! कणगरहस्स रण्णो पुत्तें, पउमावईए देवीए अत्तए, कणगज्झए कुमारे अभिसेयारिहे रायलक्खणसंपन्ने / मए कणगरहस्स रण्णो रहस्सियं संवड्डिए / एयं णं तुम्भे महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचह / ' सब्वं च तेसि (से) उढाणपरियावणियं परिकहेइ / तए णं ते ईसरपभिइओ कणगज्झयं कुमारं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचंति / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने उन ईश्वर आदि के इस कथन को अंगीकार किया / अंगीकार करके कनकध्वज कुमार को स्नान कराया और विभूषित किया। फिर उसे उन ईश्वर आदि के पास लाया / लाकर कहा __ 'देवानुप्रियो ! यह कनकरथ राजा का पुत्र और पद्मावती देवी का आत्मज कनकध्वज कुमार अभिषेक के योग्य है और राजलक्षणों से सम्पन्न है / मैंने कनकरथ राजा से छिपा कर इसका संवर्धन किया है / तुम लोग महान्-महान् राज्याभिषेक से इसका अभिषेक करो।' इस प्रकार कहकर उसने कुमार के जन्म का और पालन-पोषण आदि का समग्न वृत्तान्त उन्हें कह सुनाया। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्ययन : तेतलिपुत्र ] [373 ४१–तए णं ते ईसरपभिइओ कणगज्मयं कुमार महया महया रायाभिसेएणं अभिसिचंति / तए णं से कणगज्झए कुमारे राया जाए, महया हिमवंत-महंत-मलय-मंदर-महिंदसारे, वण्णओ, जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ / तए णं सा पउमावई देवी कणगज्झयं रायं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी'एस णं पुत्ता! तव रज्जे य जाव [रठे य बले य वाहणे य कोसे य कोट्ठागारे य पुरे य] अंतेउरे य तुमं च तेयलिपुत्तस्स पहावेणं, तं तुमं गं तेयलिपुत्तं अमच्चं आढाहि, परिजाणाहि, सक्कारेहि, सम्भाणेहि, इंतं अब्भुठेहि ठियं पज्जुवासाहि, वच्चंतं पडिसंसाहेहि, अद्धासणेणं उबनिमंतेहि, भोगं च से अणुवढेहि / तत्पश्चात् उन ईश्वर आदि ने कनकध्वज कुमार का महान्-महान् राज्याभिषेक किया / अब कनकध्वज कुमार राजा हो गया महाहिमवान् और मलय पर्वत के समान इत्यादि राजा का वर्णन (औपपातिक सूत्र के अनुसार) यहाँ कहना चाहिए / यावत् वह राज्य का पालन करता हुआ विचरने लगा। / उस समय पद्मावती देवी ने कनकध्वज राजा को बुलाया और बुलाकर कहा-पुत्र ! तुम्हारा यह राज्य यावत् (राष्ट्र, बल-सैन्य, वाहन-हस्ती अश्व श्रादि, कोष, कोठार, पुर और) अन्तःपूर तुम्हें तेतलिपुत्र की कृपा से प्राप्त हए हैं। यहाँ तक कि स्वयं त भी तेतलिपत्र के ही प्रभाव से राजा बना है / अतएव तू तेतलिपुत्र अमात्य का आदर करना, उन्हें अपना हितैषी जानना, उनका सत्कार करना, सन्मान करना, उन्हें आते देख कर खड़े होना, आकर खड़े होने पर उनकी उपासना करना, उनके जाने पर पीछे-पीछे जाना, बोलने पर वचनों की प्रशंसा करना, उन्हें आधे पासन पर बिठलाना और उनके भोग की (वेतन तथा जागीर आदि की) वृद्धि करना। ४२--तए णं से कणगज्झए पउमावईए देवीए तह त्ति पडिसुणेइ, जाव' भोगं च से वड्ढेइ / तत्पश्चात् कनकध्वज ने पद्मावती देवी के कथन को बहुत अच्छा कहकर अंगीकार किया। यावत् वह पद्मावती के आदेशानुसार तेतलिपुत्र का सत्कार-सन्मान करने लगा। उसने उसके भोग (वेतन-जागीर आदि) की वृद्धि कर दी। ४३--तए णं से पोट्टिले देवे तेयलिपुत्तं अभिक्खणं अभिक्खणं केवलिपन्नते धम्मे संबोहेइ, नो चेवणं से तेयलिपुत्ते संबुज्झइ / तए णं तस्स पोट्टिलदेवस्स इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था'एवं खलु कणगाए राया तेयलिपुत्तं आढाइ, जाव भोगं च संवड्ढेइ तए णं से तेयलिपुत्ते अभिक्खणं अभिवखणं संबोहिज्जमाणे विधम्मे नो संबुज्झइ, तं सेयं खलु कणगज्मयं तेयलिपुत्ताओ बिप्परिणामित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कणगज्झयं तेयलिपुत्ताओ विप्परिणामेइ / उधर पोट्रिल देव ने तेतलिपुत्र को बार-बार केवलि-प्ररूपित धर्म का प्रतिबोध दिया परन्तु तेतलिपुत्र को प्रतिबोध हुआ ही नहीं। तब पोट्टिल देव को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ'कनकध्वज राजा तेतलिपुत्र का प्रादर करता है, यावत् उसका भोग बढ़ा दिया है, इस कारण तेतलिपुत्र बार-बार प्रतिबोध देने पर भी धर्म में प्रतिबुद्ध नहीं होता। अतएव यह उचित होगा 1. अ. 14 सूत्र 41 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 ] [ ज्ञाताधर्मकथा कि कनकध्वज को तेतलिपुत्र से विरुद्ध (विमुख) कर दिया जाय।' देव ने ऐसा विचार किया और कनकध्वज को तेतलिपुत्र से विरुद्ध कर दिया / ४४-तए णं तेयलिपुत्ते कल्लं व्हाए जाव [कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल-] पायच्छित्ते आसखंधवरगए बहूहिं पुरिसेहि संपरिवुडे साओ गिहाओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कणगज्झए राया तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तदनन्तर तेतलिपुत्र दूसरे दिन स्नान करके, यावत् (बलिकर्म एवं अमंगल-निवारण के लिए कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त करके) श्रेष्ठ अश्व की पीठ पर सवार होकर और बहुत-से पुरुषों से परिवृत होकर अपने घर से निकला / निकल कर जहाँ कनकध्वज राजा था, उसी ओर रवाना हुअा / ४५-तए णं तेलिपुत्तं अमच्चं से जहा बहवे राईसरतलवर जाव [माडंविय-कोडुवियइन्भ-सेटि-सेणावइ-सत्थवाह-] पभिइओ पासंति, ते तहेव आढायंति, परिजाणंति, अब्भुट्ठति, अब्भुट्टित्ता अंजलिपरिग्गहं करेंति, करित्ता इट्टाहि कंताहि जाव [पियाहि मणुग्णाहिं मणामाहि] वग्गूहि आलवेमाणा संलवेमाणा य पुरतो य पिट्ठतो पासतो य मग्गतो य समणुगच्छंति / ___ तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अमात्य को (मार्ग में) जो-जो बहुत-से राजा, ईश्वर, तलवर, (माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह) प्रादि देखते, वे उसी तरह अर्थात् सदैव की भाँति उसका आदर करते, उसे हितकारक जानते और खड़े होते / खड़े होकर हाथ जोड़ते और हाथ जोडकर इष्ट, कान्त, यावत् (प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर) वाणी से बोलते और बार-बार बोलते ! वे सब उसके पागे, पीछे और अगल-बगल में अनुसरण करके चलते थे। ४६-तए णं से तेयलिपुत्ते जेणेव कणगज्झए तेणेव उवागच्छइ / तए णं कणगज्झए तेयलिपुत्तं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुठेइ, अणाढायमाणे अपरियाणमाणे अणभुट्ठायमाणे परम्मुहे संचिट्ठइ। तए णं तेयलिपुत्ते अमच्चे कणगज्झयस्स रण्णो अंजलि करेइ / तओ य णं कणगज्झए राया अणादायमाणे अपरिजाणमाणे अणब्भुट्ठमाणे तुसिणीए परम्मुहे संचिट्ठइ / तए णं तेयलिपुत्ते कणगज्झयं विप्परिणयं जाणित्ता भीए जाव [तत्थे तसिए उबिग्गे] संजायभए एवं वयासी- 'रुठे णं मम कणगज्झए राया, होणे णं मम कणगज्झए राया, अवज्झाए णं कणगज्झए राया। तं ण णज्जइणं मम केणइ कु-मारेण मारेहि त्ति कटु भीए तत्थे य जाव सणियं सणियं पच्चोसक्केइ, पच्चोसक्कित्ता तमेव आसखंधं दुरूहेइ, दुरूहित्ता तेतलिपुरं मझमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए / / तत्पश्चात् वह तेतलिपुत्र जहाँ कनकध्वज राजा था, वहाँ पाया / कनकध्वज ने तेतलिपुत्र को आते देखा, मगर देख कर उसका आदर नहीं किया, उसे हितैषी नहीं जाना, खड़ा नहीं हुआ, बल्कि आदर न करता हुग्रा, न जानता हुअा और खड़ा न होता हुआ पराङ मुख (पीठ फेर कर) बैठा रहा। तब तेतलिपुत्र ने कनकध्वज राजा को हाथ जोड़े। तब भी वह उसका आदर नहीं करता हुआ विमुख होकर बैठा ही रहा / Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां अध्ययन : तेतलिपुत्र ] [ 375 तब तेतलिपुत्र कनकध्वज को अपने से विपरीत हुआ जानकर भयभीत हो गया / उसके हृदय में खूब भय उत्पन्न हो गया / वह इस प्रकार बोला—मन ही मन कहने लगा--'कनकध्वज राजा मुझसे रुष्ट हो गया है, कनकध्वज राजा मुझ पर हीन हो गया है, कनकध्वज राजा ने मेरा बुरा सोचा है / सो न मालूम यह मुझे किस बुरी मौत से मारेगा।' इस प्रकार विचार करके वह डर गया, त्रास को प्राप्त हुआ, घबराया और धीरे-धीरे वहाँ से खिसक गया। खिसक कर उसी अश्व की पीठ पर सवार हुा / सवार होकर तेतलिपुर के मध्यभाग में होकर अपने घर की तरफ रवाना हुआ। ४७---तए णं तेयलिपुत्तं जे जहा ईसर जाव पासंति ते तहा नो आढायंति, नो परियाणंति, नो अब्भुट्ठति, नो अंजलिपरिग्गयं करेंति, इट्टाहिं जाव णो संलवंति, नो पुरओ य पिट्टओ य पासओ य मग्गओ य समणुगच्छंति / तए णं तेयलियुत्ते जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ / जा वि य से बाहिरिया परिसा भवइ, तंजहा-दासे इ वा, पेसे इ वा, भाइल्लए इ वा, सा वि य शं नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुढेई / जा वि य से भितरिया परिसा भवइ, तंजहा-पिया इ वा माया इ वा जाव भाया इ वा भगिणी इ वा भज्जा इ वा पुत्ता इ वा धूया इ वा सुण्हा इ वा, सा वि य शं नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अन् द्रुइ। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र को वे ईश्वर प्रादि देखते हैं, किन्तु वे पहले की तरह उसका आदर नहीं करते, उसे नहीं जानते, सामने नहीं खड़े होते, हाथ नहीं जोड़ते और इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर वाणी से बात नहीं करते / आगे, पीछे और अलग-बगल में उसके साथ नहीं चलते / तब तेतलिपुत्र जिधर अपना घर था, उधर पाया। घर आने पर बाहर की जो परिषद् होती है, जैसे कि दास, प्रेष्य (बाहर जाने-माने का काम करने वाले) तथा भागीदार आदि; उस बाहर की परिषद् ने भी उसका पादर नहीं किया, उसे नहीं जाना और न खड़ी हुई और जो आभ्यन्तर परिषद् होती है, जैसे कि माता, पिता, भाई, बहिन, पत्नी, पुत्र, पुत्रवधू आदि; उसने भी उसका आदर नहीं किया, उसे नहीं जाना और न उठ कर खड़ी हुई। आत्मघात का प्रयत्न ४८-तए णं से तेयलिपुत्ते जेणेव वासघरे, जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणिज्जंसि णिसीयइ, णिसीइत्ता एवं वयासी-'एवं खलु अहं सयाओ गिहाओ निग्गच्छामि, तं चेव जाव अभितरिया परिसा नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुट्टेइ, तं सेयं खलु मम अप्पाणं जीवियाओ ववरोवित्तए, त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता तालउड विसं आसगंसि पक्खिवइ, से य विसे णो संकमइ। तए णं से तेयलिपुत्ते नीलुप्पल जाव गवल-गुलिय-अयसिकुसुमप्पगास खुरधारं असि खंघे ओहरइ, तत्थ वि य से धारा ओपल्ला। तए णं से तेथलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता पासगं गोवाए बंधइ, बंधित्ता रुक्खं दुरूहइ, दुरूहित्ता पासं रुक्खे बंधइ, बंधित्ता अप्पाणं मुयइ, तत्थ वि य से रज्जू छिन्ना। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तए णं से तेयलिपुत्ते महइमहालयसिलं गोवाए बंधइ, बंधित्ता अत्याहमतारमपोरिसियंसि उदगंसि अप्पाणं मुयइ, तत्थ वि से थाहे जाए। तए णं से तेयलिपुत्ते सुक्कंसि तणकूडसि अगणिकायं पक्खिवइ, पक्खिवित्ता अप्पाणं मुयइ, तत्थ वि य से अगणिकाए विज्झाए। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र जहाँ उसका अपना वासगृह था और जहाँ शय्या थी, वहाँ आया। आकर शय्या पर बैठा। बैठा कर (मन ही मन) इस प्रकार कहने लगा- मैं अपने घर से निकला और राजा के पास गया / मगर राजा ने आदर-सत्कार नहीं किया / लौटते समय मार्ग में भी किसी ने आदर नहीं किया। घर आया तो बाह्य परिषद् ने भी आदर नहीं किया, यावत् प्राभ्यन्तर परिषद् ने भी आदर नहीं किया, मानो मुझे पहचाना ही नहीं, कोई खड़ा नहीं हुआ / ऐसी दशा में मुझे अपने को जीवन से रहित कर लेना ही श्रेयस्कर है।' इस प्रकार तेतलिपुत्र ने विचार किया। विचार करके तालपुट विष—जो बहुत तीव्र, प्राणसंहारक होता है-अपने मुख में डाला / परन्तु उस विष ने संक्रमण नहीं किया-असर नहीं किया / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने नीलकमल, (भैंस के सींग, नील गुटिका एवं अलसी के पुष्प) के समान श्याम वर्ण की तलवार अपने कन्धे पर वहन को-तलवार का प्रहार किया; मगर उसकी धार कुठित हो गई। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अशोकवाटिका में गया। वहाँ जाकर उसने अपने गले में पाश बाँधाफाँसी लगाई। फिर वृक्ष पर चढ़ा। चढ़कर वह पाश वृक्ष से बाँधा। फिर अपने शरीर को छोड़ा अर्थात् लटका दिया। किन्तु रस्सी टूट गई-फाँसी नहीं लगी। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने बहुत बड़ी शिला गर्दन में बांधी। बाँध कर अथाह, न तिरने योग्य और अपौरुष (कितने पुरुष प्रमाण है, यह न जाना जा सके ऐसे) जल में अपना शरीर छोड़ दिया। पर वहाँ बह जल थाह-छिछला हो गया। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने सूखे घास के ढेर में आग लगाई और अपने शरीर को उसमें डाल दिया / मगर वह अग्नि भी बुझ गई / ४९-तए णं से तेयलिपुत्ते एवं वयासी-'सद्धेयं खलु भो ‘समणा वयंति, सद्धेयं खलु भो माहणा वयंति, सद्धेयं खलु भो समणा माहणा वयंति, अहं एगो असद्धेयं वयामि, एवं खलु अहं सह पुत्तेहिं अपुत्ते, को मेदं सद्दहिस्सइ ? सह मिहि अमित्ते, को मेदं सद्दहिस्सइ ? / एवं अत्थेणं दारेणं जासेहि परिजणेणं / एवं खलु तेयलिपुत्तेणं अमच्चेणं कणगज्झएणं रन्ना अवज्झाएणं समाणेणं तालपुडगे विसे आसगंसि पक्खित्ते, से वि य णो संकमइ, को मेदं सद्दहिस्सइ ? तेयलिपुत्ते नीलुप्पल जाव खंधंसि ओहरिए, तत्थ वि य से धारा ओपल्ला, को मेदं सद्दहिस्सइ? Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्ययन : तेतलिपुत्र ] [ 377 तेयलिपुत्तेणं पासगं गोवाए बंधेता जाव रज्जू छिन्ना, को मेदं सद्दहिस्सइ ? तेयलिपुत्तेणं महासिलयं जाव बंधित्ता अस्थाह जाव उदगंसि अप्पा मुक्के तत्थ वि य णं थाहे जाए, को मेदं सद्दहिस्सइ ? तेयलिपुत्तेणं सुक्कंसि तणकूडे अग्गी विज्झाए, को मेदं सदहिस्सइ ? ओहयमणसंकप्पे जाव [करयलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए] झियाइ / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र मन ही मन इस प्रकार बोला-'श्रमण श्रद्धा करने योग्य वचन बोलते हैं, माहन श्रद्धा करने योग्य वचन बोलते हैं, श्रमण और माहन श्रद्धा करने योग्य वचन बोलते हैं / मैं ही एक हूँ जो अश्रद्धेय वचन कहता हूँ / मैं पुत्रों सहित होने पर भी पुत्रहीन हूँ, कौन मेरे इस कथन पर श्रद्धा करेगा ? मैं मित्रों सहित होने पर भी मित्रहीन हूँ, कौन मेरी इस बात पर विश्वास करेगा ? इसी प्रकार धन, स्त्रो, दास और परिवार से सहित होने पर भो मैं इनसे रहित हूँ, कौन मेरी इस बात पर श्रद्धा करेगा? इस प्रकार राजा कनकध्वज के द्वारा जिसका बुरा विचारा गया है, ऐसे तेतलिपुत्र अमात्य ने अपने मुख में विष डाला, मगर विष ने कुछ भी प्रभाव न दिखलाया, मेरे इस कथन पर कौन विश्वास करेगा ? तेतलिपुत्र ने अपने गले में नील कमल जैसो तलवार का प्रहार किया, मगर उसकी धार कुठित हो गई, कौन मेरी इस बात पर श्रद्धा करेगा? तेतलिपुत्र ने अपने गले में फाँसी लगाई, मगर रस्सी टूट गई. मेरी इस बात पर कौन भरोसा करेगा? तेतलिपुत्र ने गले में भारी शिला बाँधकर अथाह जल में अपने आपको छोड़ दिया, मगर वह पानो थाह-छिछला हो गया, मेरी यह बात कौन मानेगा। तेतलिपुत्र सूखे घास में आग लगा कर उसमें कूद गया, मगर आग बुझ गई, कौन इस बात पर विश्वास करेगा? इस प्रकार तेतलिपुत्र भग्नमनोरथ होकर हथेली पर मुख रहकर प्रार्तध्यान करने लगा। ५०-तए णं से पोट्टिले देवे पोट्टिलारूवं विउव्वइ, विउवित्ता तेय लिपुत्तस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं वयासो-'हं भो तेयलिपुत्ता ! पुरओ पवाए, पिटुओ हस्थिभयं, दुहओ अचक्खुफासे, मज्झे सराणि वरिसंति, गामे पलत्ते, रन्ने झियाइ, रन्ने पलिते गामे झियाइ, आउसो तेलियुत्ता! कओ वयामो ?' तब पोदिल देव ने पोट्रिला के रूप की विक्रिया की। विक्रिया करके तेतलिपुत्र से न बहत दूर और न बहुत पास स्थित होकर इस प्रकार कहा-'हे तेतलिपुत्र ! आगे प्रपात (गड़हा) है और पीछे हाथी का भय है। दोनों बगलों में ऐसा अंधकार है कि आँखों से दिखाई नहीं देता / मध्य भाग में वाणों की वर्षा हो रही है / गाँव में आग लगी है और वन धधक रहा है। वन में आग लगो है और Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 ] [ज्ञाताधर्मकथा गाँव धधक रहा है, तो आयुष्मन् तेतलिपुत्र ! हम कहाँ जाएँ ? कहां शरण लें ? अभिप्राय यह है कि जिसके चारों ओर घोर भय का वायमण्डल हो और जिसे कहीं भी क्षेम-कुशल न दिखाई दे, उसे क्या करना चाहिए ? उसके लिए हितकर मार्ग क्या है ? ५१-तए णं से तेयलिपुत्ते पोट्टिलं देवं एवं वयासी—'भीयस्स खलु भो पव्वज्जा सरणं, उक्कंठियस्स सदेसगमणं, छुहियस्स अन्न, तिसियस्स पाणं, आउरस्स भेसज्ज, माइयस्स रहस्सं, अभिजुत्तस्स पच्चयकरणं, अद्धाणपरिसंतस्स वाहणगमणं, तरिउकामस्स पवहणं किच्च,' परं अभिओजितुकामस्स सहायकिच्चं, खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स एत्तो एगमवि ण भवइ / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पोट्टिल देव से इस प्रकार कहा-अहो ! इस प्रकार सर्वत्र भयभीत पुरुष के लिए दीक्षा ही शरणभूत है। जैसे उत्कंठित हुए पुरुष के लिए स्वदेश शरणभूत है, भूखे को अन्न, प्यासे को पानी, बीमार को प्रोपध, मायावी को गुप्तता, अभियुक्त को (जिस पर अपराध करने का आरोप लगाया गया हो उसे) विश्वास उपजाना, थके-मांदे को वाहन पर चढ़ कर गमन करना, तिरने के इच्छुक को जहाज और शत्रु का पराभव करने वाले को सहायकृत्य (मित्रों की सहायता) शरणभूत है / क्षमाशील, इन्द्रियदमन करने वाले, जितेन्द्रिय (इन्द्रियविषयों में राग-द्वेष न करने वाले) को इनमें से कोई भय नहीं होता। विवेचन--सर्वत्र भयग्रस्त को दीक्षा क्यों शरणभूत है ? इसका स्पष्टीकरण यह है कि क्रोध का निग्रह करने वाले क्षमाशील, इन्द्रियों का और मन का दमन करने वाले तथा जितेन्द्रिय अर्थात् इन्द्रियों के विषय में राग न रखने वाले पुरुष को इनमें से एक भी भय नहीं है / भय काया और माया के लिए ही होता है / जिसने दोनों की ममता त्याग दी, वह सदैव और सर्वत्र निर्भय है। प्रस्तुत सूत्र 46 से तेतलिपुत्र का जो वर्णन किया गया है, वह अत्यन्त विस्मयजनक है, पर यह सब देवी माया का चमत्कार ही समझना चाहिए / दैवी चमत्कार तर्क की सीमा से बाहर एवं बुद्धि की परिधि में नहीं आने वाला होता है। ५२-तए णं से पोट्टिले देवे तेयलिपुत्तं अमच्चं एवं क्यासी-सुठ्ठ णं तुम तेयलिपुत्ता ! एयम आयाणाहि त्ति कटु दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयइ, वइत्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। तत्पश्चात् पोट्टिल देव ने तेतलिपुत्र अमात्य से इस प्रकार कहा-'हे तेतलिपुत्र ! तुम ठीक कहते हो / अर्थात् भयग्रस्त के लिए प्रवज्या शरणभूत है, यह तुम्हारा कथन सत्य है / मगर इस अर्थ को तुम भलीभाँति जानो, अर्थात् इस समय तुम भयभीत हो तो तदनुसार आचरण करके यह बात समझोदीक्षा ग्रहण करो। इस प्रकार कहकर देव ने दूसरी बार और तीसरी बार भी ऐसा ही कहा / कहकर देव जिस दिशा से प्रकट हुअा था, उसी दिशा में वापिस लौट गया। ५३--तए णं तस्स तेयलिपुत्तस्स सुभेणं परिणामेणं जाइसरणे समुप्पन्ने / तए णं तस्स तेयलिपत्तस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुष्पन्ने-'एवं खलु अहं इहेव जंबुद्दीवे दोवे महाविदेहे वासे पोक्खलावतीविजए पोंडरीगिणीए रायहाणीए महापउमे नाम राया होत्था / तए णं अहं थेराणं अंतिए मुडे भवित्ता जाव [पव्वइए सामाइयमाइयाइ] चोदसपुवाइं अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए महासुक्के कप्पे देवे उववन्ने / 1. पाठान्तर-पवहण किच्चं / ' Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां अध्ययन : तेतलिपुत्र ] [ 379 तत्पश्चात् तेतलिपुत्र को शुभ परिणाम उत्पन्न होने से, जातिस्मरण ज्ञान की प्राप्ति हुई / तब तेतलिपुत्र के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुा-निश्चय ही मैं इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी राजधानी में महापद्म नामक राजा था। फिर मैंने स्थविर मुनि के निकट मुण्डित होकर यावत् (दीक्षा अंगीकार करके सामयिक से लेकर) चौदह पूर्वो का अध्ययन करके, बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय (चारित्र) का पालन करके, अन्त में एक मास को संलेखना करके, महाशुक्र कल्प में देव रूप से जन्म लिया। ५४--तए णं अहं ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं इहेव तेयलिपुरे तेयलिस्स अमच्चस्स भद्दाए भारियाए दारगत्ताए पच्चायाए / तं सेयं खलु मम पुवुद्दिढाई महत्वयाई सयमेव उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता सयमेव महव्वयाइं आरहेइ, आरुहित्ता जेणेव पमयवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहनिसन्नस्स अणुचितेमाणस्स पुग्वाहीयाइं सामाइयमाइयाई चोद्दसपुव्वाइं सयमेव अभिसमन्नागयाई / तए णं तस्स तेयलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेणं परिणामेणं जाव पसत्थेणं अज्झवसाएणं लेस्साहिं विसुज्झमाणीहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं कम्मरविकरणकरं अपुव्वकरणं पविट्ठस्स केवलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने / तत्पश्चात् प्रायु का क्षय होने पर मैं उस देवलोक से (च्यवन करके) यहाँ तेतलिपुर में तेतलि अमात्य की भद्रा नामक भार्या के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। अत: मेरे लिए, पहले स्वीकार किये हुए महाव्रतों को स्वयं ही, अंगीकार करके विचरना श्रेयस्कर है। ऐसा तेतलिपुत्र ने विचार किया। विचार करके स्वयं ही महाव्रतों को अंगीकार किया। अंगीकार करके जिधर प्रमदवन उद्यान था, उधर पाया। प्राकर श्रेष्ठ अशोक वृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर सुखपूर्वक बैठे हुए और विचारणा करते हुए उसे पहले अध्ययन किये हुए चौदह पूर्व स्वयं ही स्मरण हो पाए। / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अनगार ने शुभ परिणाम से यावत् (प्रशस्त अध्यवसाय से तथा लेश्याओं की विशुद्धि होने से) तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से, कर्मरज का नाश करने वाले अपूर्वकरण में प्रवेश करके अर्थात् क्षपकश्रेणी प्रारम्भ करके और चार घातिकर्मों का क्षय करके उत्तम केवलज्ञान तथा केवलदर्शन प्राप्त किये। ५५–तए णं तेतलिपुरे नगरे अहासंनिहिएहि देवेहिं देवोहि य देवदुदुभीओ समाहयाओ, दसद्धवन्ने कुसुमे निव्वाए, दिब्वे गीय-गंधवनिनाए कए यावि होत्था / उस समय तेतलिपुर नगर के निकट रहे हुए वाण-व्यन्तर देवों और देवियों ने देवदुंदुभियाँ बजाई / पाँच वर्ण के फूलों की वर्षा की और दिव्य गीत-गन्धर्व का निनाद किया अर्थात् केवलज्ञान सम्बन्धी महोत्सव मनाया / ५६-तए णं से कणगझए राया इमोसे कहाए लद्धठे समाणे एवं वयासो—'एवं खलु सेयलिपुत्ते मए अवज्झाए मुडे भवित्ता पन्वइए, तं गच्छामि णं तेयलिपुत्तं अणगारं वदामि नमसामि, बंदित्ता नमंसित्ता एयमझें विणएणं भुज्जो भुज्जो खामेमि / ' एवं संपेहेइ, संपेहिता हाए चाउरंगिणीए Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380] [ ज्ञाताधर्मकथा सेणाए जेणेव पमयवणे उज्जाणे, जेणेव तेलिपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेयलिपुत्तं अणगारं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एयमझें च विमएणं भुज्जो भुज्जो खामेइ, नच्चासन्ने जाव [नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे पंजलिउडे अभिमुहे विणएणं] पज्जुवासइ / / तत्पश्चात् कनकध्वज राजा इस कथा का अर्थ जानता हुअा अर्थात् यह वृत्तान्त जान कर (मन ही मन) बोला-निस्सन्देह मेरे द्वारा अपमानित होकर तेतलिपुत्र ने मुण्डित होकर दीक्षा अंगीकार की है / अतएव मैं जाऊँ और तेतलिपुत्र अनगार को वन्दना करू, नमस्कार करू और वन्दना-नमस्कार करके इस बात के लिए-~-अपमानित करने के लिए विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना करूं / ' कनकध्वज ने ऐसा विचार किया। विचार करके स्नान किया। फिर चतुरंगिणी साथ जहाँ प्रमदवन उद्यान था और जहाँ तेतलिपत्र अनगार थे, वहां पहुँचा / पहुँच कर तेतलिपुत्र अनगार को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस बात के लिए विनय के साथ पुनः पुनः क्षमायाचना की। न अधिक दूर और न अधिक समीप-यथायोग्य स्थान पर बैठ कर धर्म श्रवण की अभिलाषा करता हुआ, हाथ जोड़कर नमस्कार करता हुआ सन्मुख होकर विनय के साथ वह उपासना करने लगा। ५७--तए णं से तेलिपुत्ते अणगारे कणगज्झयस्स रन्नो तीसे य महइभहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ। तए णं कणगज्झए राया लेयलिपुत्तस्स केवलिस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म पंचाणुव्वइयं सत्तसिवखावइयं सावगधम्म पडिवज्जइ / पडिज्जित्ता समणोवासए जाए जाव' अहिगयजीवाजीवे / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अनगार ने कनकध्वज राजा को और उपस्थित महती परिषद् को धर्म का उपदेश दिया। उस समय कनकध्वज राजा ने तेतलिपुत्र केवली से धर्मोपदेश श्रवणकर और उसे हृदय में धारण करके पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावकधर्म अंगीकार किया। श्रावकधर्म अंगीकार करके वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया। ५८--तए णं तेयलिपुत्ते केवली बहूणि वासाणि केवलिपरियागं पाउणित्ता जाव सिद्ध / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र केवली बहुत वर्षों तक केवली-अवस्था में रहकर यावत् सिद्ध हुए। ५९–एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं चोद्दसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते त्ति बेमि। श्री सुधर्मास्वामी अपने उत्तर का उपसंहार करते हुए कहते हैं- 'हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने चौदहवें ज्ञात-अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ कहा है। जैसा मैंने सुना वैसा ही कहा है। 1. अ. 12 सूत्र 24 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : नन्दीफल सार : संक्षेप प्रस्तुत अध्ययन का मूल स्वर अन्य अध्ययनों की भांति साधना के क्षेत्र में अवतीर्ण होने वाले साधकों को, आपाततः रमणीय प्रतीत होने वाले एवं मन को लुभाने वाले इन्द्रिय-विषयों से सावधान रहने की सूचना देना ही है / यही वह मूल स्वर है जो प्रस्तुत आगम में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक गूजता सुनाई देता है। किन्तु उस स्वर को सुबोध एवं सुगम बनाने के लिए जिन उदाहरणों की योजना की गई है, वे विभिन्न प्रकार के हैं। ऐसे ही उदाहरणों में से 'नन्दीफल' भी एक उदाहरण है। चम्पा नगरी का निवासी धन्य सार्थवाह एक बड़ा व्यापारी है। उसने एक बार विक्रय के लिए माल लेकर अहिच्छत्रा नगरी जाने का विचार किया। उस समय के व्यापारी का स्वरूप एक प्रकार के समाजसेवक का था और उस समय का व्यापार समाज-सेवा का एक माध्यम भी था। यह तो सर्वविदित है कि प्रत्येक देश में प्रजा के लिए आवश्यक सभी वस्तुओं की उपज नहीं होती और न ऐसी कलाओं का ही प्रसार होता है कि प्रत्येक वस्तु का प्रत्येक देश में निर्माण हो सके / अतएव आयात और निर्यात के द्वारा सव जगह सब वस्तुओं की पूर्ति की जाती है। कोई वस्तु किसी देश-प्रदेश में इतनी प्रचुर मात्रा में होती है कि वहाँ की प्रजा उसका उपयोग नहीं कर पाती एवं उस उत्पादन का उसे उचित मूल्य नहीं मिलता। वहाँ वह व्यर्थ बन जाती है। उसी वस्तु के अभाव में दूसरे देश-प्रदेश के लोग बहुत कष्ट पाते हैं। आयात-निर्यात होने से दोनों ओर की यह समस्या सुलझ जाती है / उत्पादकों को उनके उत्पादन-श्रम का बदला मिल जाता है और प्रभाव वाले प्रदेश की आवश्यकतापूर्ति हो जाती है / इसी प्रकार के पारस्परिक आदान-प्रदानविनिमय से आज भी संसार का काम चल रहा है। __ आयात-निर्यात का यह कार्य सामाजिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस अनिवार्य महत्व के काम के लिए एक पृथक् वर्ग की आवश्यकता होती है। वही वर्ग वाणिकवर्ग कहलाता है। इस प्रकार सैद्धान्तिक रूप से वाणिक्वर्ग समाज की महत्त्वपूर्ण सेवा करता है। इसी सेवा-कार्य में से वह अपने और अपने परिवार के निर्वाह के लिए भी कुछ लाभांश प्राप्त कर लेता है। यही व्यापार का मूल आदर्श है। इस भावना से प्रेरित होकर धन्य सार्थवाह ने चम्पा नगरी का पण्य (माल) अहिच्छत्रा नगरी ले जाने का संकल्प किया। प्राचीन काल में वाणिवर्ग के अन्तर्गत एक वर्ग सार्थवाहों का था। सार्थवाह वह बड़ा व्यापारी होता था जो अपने साथ अन्य अनेक लोगों को ले जाता था और उन्हें कुशलपूर्वक उनके गन्तव्य स्थानों तक पहुँचा देता था / इस विषय का विशद विवेचन प्रकृत अध्ययन में ही किया गया है। धन्य सार्थवाह अपने सेवकों द्वारा चम्पा की गली-गली में यह घोषणा करवाता है कि-धन्य सार्थवाह अहिच्छत्रा नगरी जा रहा है। जिसे साथ चलना हो, चले / जिसके पास जिस साधन का Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382] [ ज्ञाताधर्मकथा अभाव होगा, वह उसकी पूर्ति करेगा / विना छतरी वालों को छतरी और विना जूतों वालों को जूते की व्यवस्था करेगा। जिसके पास मार्ग में खाने की सामग्री नहीं उसे वह सामग्री देगा। अावश्यकतानुसार मार्गव्यय के लिए धन देगा / रोगी हो जाने पर उसकी चिकित्सा कराएगा। तात्पर्य यह कि वह अपने साथ चलने वालों को सभी प्रकार की सुविधाएँ कर देगा। ___इस प्रकार अपने साथ असहाय जनों को ले जाने वाला और सभी प्रकार से उनकी सेवा करने वाला व्यापारो 'सार्थवाह' कहलाता था / सार्थ को अर्थात् सहयात्रियों के समूह को, वहन करने वाला अर्थात् कुशल-क्षेमपूर्वक यथास्थान पहुँचाने वाला 'सार्थवाह। तब आज जैसे सुपथ-राजमार्ग नहीं थे, साधनाभाव के कारण लोगों का आवागमन कम होता था, उनके संबंध दूर-दूर तक फैले नहीं थे और पद-पद पर लुटेरों तथा हिंसक जन्तुओं का भय बना रहता था, द्रुतगामी वाहन नहीं थे, उस परिस्थिति को सामने रखकर विचार करने पर विदित होगा कि यह भी एक बहुत बड़ी सेवा थी, जिसे सार्थवाह वणिक् स्वेच्छापूर्वक करता था। धन्य श्रेष्ठी का सार्थ चम्पा नगरी से रवाना हो गया ! चलते-चलते और बीच-बीच में विश्रान्ति लेते-लेते सार्थ एक बहत बड़ी अटवी के निकट पहँचा / अटवी बड़ी विकट थी, उसमें लोगों का आवागमन नहीं जैसा था। उसके मध्यभाग में एक जाति के विषैले वक्ष थे, जिनके फल, पत्ते, छाल आदि छूने, चखने, सूधने और देखने में अत्यन्त मनोहर लगते थे, किन्तु वे सब, यहां तक कि उनकी छाया भी प्राणहरण करने वाली थी। अनुभवी धन्य सार्थवाह उन नन्दीफल (तात्कालिक आनन्द प्रदान करने वाले फल वाले) वृक्षों से परिचित था / अतएव समस्त सार्थ को उसने पहले ही चेतावनी दे दी-'सार्थ का कोई भी व्यक्ति नन्दीफल वृक्षों की छाया के निकट भी न फट के / ' इस प्रकार उसने अपने उत्तरदायित्व का पूरी तरह निर्वाह किया। धन्य सार्थवाह की चेतावनी पर कुछ लोगों ने अमल किया, कुछ ऐसे भी निकले जो उन वृक्षों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के प्रलोभन को रोक न सके / जो उनसे बचे रहे वे सकुशल यथेष्ट स्थान पर पहुँच कर सुख के भागी बने / जो इन्द्रियों के वशीभूत होकर अपने मन पर नियन्त्रण न रख सके उन्हें मृत्यु का शिकार होना पड़ा। तात्पर्य यह है कि यह संसार भयानक अटवी है। इसमें इन्द्रियों के विविध विषय नन्दीफल के सदृश हैं / इन्द्रिय-विषय भोगते समय क्षण भर सुखद प्रतीत होते हैं, किन्तु उनके भोग का परिणाम अत्यन्त शोचनीय होता है / दीर्घ काल पर्यन्त विविध प्रकार की व्यथाएँ सहन करनी पड़ती हैं / अतएव साधक के लिए यही श्रेयस्कर है कि वह विषय-भोगों से बचे, उनकी छाया से भी दूर रहे। यही इस अध्ययन का सार-अंश है। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णरसमं अज्झयणं : नंदीफले जम्बूस्वामी की जिज्ञासा १-'जइ णं भंते' ! समणेणं भगवया महावीरेणं चोइसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, पन्नरसमस्स णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते ?' श्री जम्बूस्वामी ने श्री सुधर्मास्वामी के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत करते हुए कहा-'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने चौदहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो पन्द्रहवें ज्ञात-अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?' समाधान २-एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं नयरी होत्था / पुन्नभद्दे नाम चेइए। जियसत्तू नाम राया होत्था / तत्थ णं चंपाए नयरीए धन्ने नामं सत्थवाहे होत्था, अड्ढे जाव' अपरिभूए / श्री सुधर्मास्वामी उत्तर देते हैं--जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र नामक चैत्य था। जितशत्रु नामक राजा था। उस चम्पा नगरी में धन्य नामक सार्थवाह था, जो सम्पन्न था यावत् किसी से पराभूत होने वाला नहीं था। ३-तीसे णं चंपाए नयरीए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए अहिच्छत्ता नाम नयरी होत्था, रिद्धस्थिमियसमिद्धा, वन्नओ' / तत्थ णं अहिच्छत्ताए नयरीए कणगकेऊ नामं राया होत्था, महया बन्नओ। उस चम्पा नगरी से उत्तर-पूर्व दिशा में अहिच्छत्रा नामक नगरी थी। वह धन-धान्य आदि से परिपूर्ण थी / यहाँ नगरी का वर्णन कह लेना चाहिए। उस अहिच्छत्रा नगरी में कनककेतु नामक राजा था। वह महाहिमवन्त पर्वत के समान आदि विशेषणों से युक्त था / यहाँ राजा का वर्णन कह लेना चाहिए / (नगरी और राजा का विस्तृत वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए / ) धन्य सार्थवाह को घोषणा ४-तस्स धण्णस्स सत्थवाहस्स अन्नया कयाइ पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारवे अन्झिथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था—'सेयं खलु मम विपुलं पणियभंडमायाए अहिच्छत्तं नगरि वाणिज्जाए गमित्तए' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च चउम्विहं भंडं गेण्हइ, गेण्हित्ता सगडीसागडं सज्जेइ, सज्जित्ता सगडीसागडं भरेइ, भरित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी 2. औप. सू. 1 3. प्रीपपा. सू. 7 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384] [ ज्ञाताधर्मकथा किसी समय धन्य सार्थवाह के मन में मध्य रात्रि के समय इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तित (मन में स्थित), प्रार्थित (मन को इष्ट), मनोगत (मन में ही गुप्त रहा हुया) संकल्प (विचार) उत्पन्न हुा-'विपुल (घी, तेल, गुड़, खांड आदि) माल लेकर मुझे अहिच्छत्रा नगरी में व्यापार करने के लिए जाना श्रेयस्कर है।' उसने ऐसा विचार किया। विचार करके गणिम (गिनगिन कर बेचने योग्य नारियल आदि), धरिम (तोल कर बेचने योग्य गुड़ आदि), मेय (पायली आदि से माप कर बेचने योग्य अन्न आदि) और परिच्छेद्य (काट-काट कर बेचने योग्य वस्त्र वगैरह) माल को ग्रहण किया। ग्रहण करके गाड़ो-गाड़े तैयार किये। तैयार करके गाड़ी-गाड़े भरे / भर कर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुला कर उनसे इस प्रकार कहा ___५--'गच्छइ णं तुम्भे देवाणुप्पिया! चंपाए नयरीए सिंघाडग जाव पहेसु उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया! धणे सत्थवाहे विपुले पणियं आदाय इच्छइ अहिच्छत्तं नरि बाणिज्जाए गमित्तए / तं जो णं देवाणुप्पिया ! चरए वा, चोरिए वा, चम्मखण्डिए वा, भिच्छुडे वा, पंडुरंगे वा, गोयमे वा, गोवईए वा, गिहिधम्मे वा, गिहिधचितए' वा अविरुद्धविरुद्ध-वुड्ढ-सावग-रत्तपड-निग्गंथप्पभिई पासडत्थे वा गिहत्थे वा, तस्स णं धण्णणं सद्धि अहिच्छत्तं नारं गच्छइ, तस्स णं धण्णणे सत्थवाहे अच्छत्तगस्स छत्तगं दलयइ, अणुवाहणस्स उवाहणाओ दलयइ, अकुडियस्स कुडियं दलयइ, अपत्थयणस्स पत्थयणं दलयइ, अपक्खेवगस्स पक्खेवं दलयइ, अंतरा वि य से पडियस्स वा भग्गलुग्गस्स साहेज्जं दलयइ, सुहंसुहेण य णं अहिच्छत्तं संपावेइ / ' त्ति कटु दोच्चं पि तच्चं पि घोसेह, घोसित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।' 'देवानुप्रियो ! तुम जानो / चम्पा के शृगाटक यावत् सब मार्गों में, गली-गली में घोषणा कर दो 'हे देवानुप्रियो ! धन्य सार्थवाह विपुल माल भर कर अहिच्छत्रा नगरी में वाणिज्य के निमित्त जाना चाहता है / अतएव हे देवानुप्रियो ! जो भी चरक (चरक मत का भिक्षुक) चीरिक (गली में पड़े चीथड़ों को पहनने वाला) चर्मखंडिक (चमड़े का टुकड़ा पहनने वाला) भिक्षांड (बौद्ध भिक्षुक) पांडुरंक (शैवमतावलम्बी भिक्षाचर) गोतम (बैल को विचित्र-विचित्र प्रकार की करामात सिखा कर उससे प्राजोविका चलाने वाला) गोवती (जब गाय खाय तो आप खाय गाय पानी पीए तो आप पानी पीए, गाय सोये तो आप सोये, गाय चले तो आप चले, इस प्रकार के व्रत का आचरण करने वाला) गृहिधर्मा (गृहस्थधर्म को श्रेष्ठ मानने वाला) गृहस्थधर्म का चिन्तन करने वाला अविरुद्ध (विनयवान्) विरुद्ध (अक्रियावादि-नास्तिक आदि) वृद्ध-तापस श्रावक अर्थात ब्राह्मण रक्तपट (परिव्राजक) निर्ग्रन्थ (साधु) आदि व्रतवान् या गृहस्थ-जो भी कोई--धन्य सार्थवाह के साथ अहिच्छत्रा नगरी में जाना चाहे, उसे धन्य सार्थवाह अपने साथ ले जायगा। जिसके पास छतरी न होगी उसे छतरी दिलाएगा / वह बिना जूते वाले को जूते दिलाएगा, जिसके पास कमंडलु नहीं होगा उसे कमंडल दिलाएगा, जिसके पास पथ्यदन (मार्ग में खाने के लिए भोजन) न होगा उसे पथ्यदन दिलाएगा, जिसके पास प्रक्षेप (चलते-चलते पथ्यदन समाप्त हो जाने पर रास्ते में पथ्यदन खरीदने के लिए आवश्यक धन) न होगा, उसे प्रक्षेप दिलाएगा, जो पड़ जाएगा, भग्न हो जायगा या रुग्ण हो 1. पाठान्तर-'धम्मचिंतए वा।' Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : नन्दीफल ] [ 385 जायगा, उसको सहायता करेगा और सुख-पूर्वक अहिच्छत्रा नगरी तक पहुंचाएगा। दो बार और तीन बार ऐसी घोषणा कर दो। घोषणा करके मेरी यह आज्ञा वापिस लौटायो--- मुझे सूचित करो।' ६-तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव एवं वयासो-हंदि ! सुगंतु भगवंतो चंपानगरीवत्थव्वा बहवे चरगा य जाव पच्चविणति / तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् इस प्रकार घोषणा की--'हे चम्पा नगरी के निवासी भगवंतो! चरक आदि ! सुनो, इत्यादि कहकर पूर्वोक्त घोषणा करके उन्होंने धन्य सार्थवाह की प्राज्ञा उसे वापिस सौंपी। ७-तए णं से कोडुबियघोसणं सुच्चा चंपाए णयरीए बहवे चरगा य जाव गिहत्था य जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति। तए णं धण्णे तेसि चरगाण य जाव गिहत्थाण य अच्छत्तगस्स छत्तं दलयइ जाव पत्थयणं दलयइ / दलइत्ता एवं वयासी-'गच्छह णं देवाणुप्पिया! चंपाए नयरोए बहिया अगुज्जाणंसि ममं पडिवालेमाणा चिट्ठह / ' कौटुम्बिक पुरुषों की पूर्वोक्त घोषणा सुनकर चम्पा नगरी के बहुत-से चरक यावत् गृहस्थ धन्य सार्थवाह के समीप पहुँचे / तब उन चरक यावत् गृहस्थों में से जिनके पास जूते नहीं थे, उन्हें धन्य सार्थवाह ने जूते दिलवाये, यावत् पथ्यदन दिलवाया। फिर उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जागो और चम्पा नगरी के बाहर उद्यान में मेरी प्रतीक्षा करते हुए ठहरो।' धन्य का प्रस्थान ८-तए णं चरगा य जाव गिहत्था य धण्णेणं सत्यवाहेणं एवं वुत्ता समाणा जाव चिट्ठति / तए णं धणे सत्यवाहे सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्तंसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तनाइ [नियग-सयण-संबंधि-परियणं] आमंतेइ, आमंतित्ता भोयणं भोयावेइ, भोयावित्ता आपुच्छइ, आपुच्छित्ता सगडीसागडं जोयावेइ, जोयावित्ता चंपानगरीओ निग्गच्छइ / निग्गच्छित्ता णाइविप्पगिठेहि अद्धाणेहि वसमाणे वसमाणे सुहेहि वसहिपायरासेहिं अंगं जणवयं मझमज्झेणं जेणेव देसग्गं तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता सगडीसागडं मोयावेइ, मोयावित्ता सत्थणिवेसं करेइ, करित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासो तदनन्तर वे पूर्वोक्त चरक यावत् गृहस्थ आदि धन्य सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर प्रधान उद्यान में पहुँचकर उसकी प्रतीक्षा करते हुए ठहरे। तब धन्य सार्थवाह ने शुभ तिथि, करण और नक्षत्र में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनवाया / बनवाकर मित्रों, ज्ञातिजनों आदि को आमन्त्रित करके उन्हें जिमाया। जिमा कर उनसे अनुमति ली। अनुमति लेकर गाड़ी-गाड़े जुतवाये और फिर चम्पा नगरी से बाहर निकला / निकल कर बहुत दूर-दूर पर पड़ाव न करता हुआ अर्थात् थोड़ी-थोड़ी दूर पर मार्ग में बसता-बसता, सुखजनक वसति (रात्रिवास) और प्रातराश (प्रातःकालीन भोजन) करता हुआ अंग Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386] [ज्ञाताधर्मकथा देश के बीचोंबीच होकर देश की सीमा पर जा पहुँचा। वहाँ पहुँच कर गाड़ी-गाड़े खोले / पड़ाव डाला / फिर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहाउपयोगी चेतावनी ९–'तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! मम सत्यनिवेसंसि महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वदह एवं खलु देवाणुप्पिया ! इमोसे आगामियाए छिनावायाए दोहमद्धाए अडवीए बहुमज्झदेसभाए बहवे णंदिफला नामं रुक्खा पन्नत्ता-किण्हा जाव पत्तिया पुफिया फलिया हरिया रेरिज्जमाणा सिरीए अईव अईव उसोभेमाणा चिट्ठति, मणुण्णा वन्नेणं, मणुण्णा गंधेणं, मणुण्णा रसेणं, मणुष्णा फासेणं, मणुष्णा छायाए, तं जो णं देवाणुप्पिया! तेसि नंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंदाणि वा तयाणि वा पत्ताणि वा पुप्फाणि वा फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा आहारेइ, छायाए वा वीसमइ, तस्स णं आवाए भद्दए भवइ, ततो पच्छा परिणममाणा परिणममाणा अकाले चेव जीवियाओ ववरोति / तं मा णं देवाणुप्पिया! केइ तेसि नंदिफलाणं मूलाणि वा जाव छायाए वा वीसमउ मा णंसे ऽवि अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जस्सइ / तुबभे णं देवाणप्पिया! अन्नेसि रुक्खाणं मूलाणि य जाव हरियाणि य आहारेइ, छायासु वीसमह, त्ति घोसणं घोसेह / ' जाव पच्चप्पिणंति / 'देवानुप्रियो ! तुम मेरे सार्थ के पड़ाव में ऊँचे-ऊँचे शब्दों से बार-बार उद्घोषणा करते हुए ऐसा कहो कि--- हे देवानुप्रियो ! आगे आने वाली अटवी में मनुष्यों का आवागमन नहीं होता और वह बहुत लम्बी है / उस अटवी के मध्य भाग में 'नन्दीफल' नामक वृक्ष हैं / वे गहरे हरे (काले) वर्ण वाले यावत् पत्तों वाले, पुष्पों वाले, फलों वाले, हरे, शोभायमान और सौन्दर्य से अतीव-अतीव शोभित हैं / उनका रूप-रंग मनोज्ञ है यावत् (रस, गंध) स्पर्श मनोहर है और छाया भी मनोहर है। किन्तु हे देवानुप्रियो ! जो कोई भी मनुष्य उन नन्दीफल वृक्षों के मूल, कंद, छाल, पत्र, पुष्प, फल, बीज या हरित का भक्षण करेगा अथवा उनकी छाया में भी बैठेगा, उसे आपाततः (थोड़ी-सी देर-क्षण भर) तो अच्छा लगेगा, मगर बाद में उनका परिणमन होने पर अकाल में ही वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। अतएव हे देवानुप्रियो ! कोई उन नंदीफलों के मूल आदि का सेवन न करे यावत् उनकी छाया में विश्राम भी न करे, जिससे अकाल में ही जीवन का नाश न हो / हे देवानुप्रियो ! तुम दूसरे वृक्षों के मूल यावत् हरित का भक्षण करना और उनकी छाया में विश्राम लेना / इस प्रकार की प्राघोषणा कर दो / मेरी आज्ञा वापिस लौटा दो।' कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञानुसार घोषणा करके अाज्ञा वापिस लौटा दी / १०-तए णं धण्णे सत्यवाहे सगडीसागडं जोएइ, जोइत्ता जेणेव नंदिफला रुक्खा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेसि नंदिफलाणं अदूरसामंते सस्थनिवेसं करेइ, करित्ता दोच्च पि तच्चं पि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं क्यासी–तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! मम सस्थनिवेसंसि महया। महया सद्देणं उग्धोसेमाणा उग्धोसेमाणा एवं वयह-'एए णं देवाणुप्पिया ! ते णंदिफला किण्हा जाव मणुष्णा छायाए, तं जो णं देवाणुप्पिया ! एएसि गंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंदाणि वा पुप्फाणि वा तयाणि वा पत्ताणि वा फलाणि वा जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोति तं, मा णं Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : नन्दीफल ] [ 387 तुम्भे जाव दूरं दूरेणं परिहरमाणा वीसमह, मा णं अकाले जीवियाओ ववरोविस्संति / अग्नेसि रुक्खाणं मूलाणि य जाव वीसमह त्ति कटु घोसणं' पच्चप्पिणंति / इसके बाद धन्य सार्थवाह ने गाड़ी-गाड़े जुतवाए / जुतवाकर जहाँ नंदीफल नामक वृक्ष थे, वहाँ आ पहुँचा / उन नंदीफल वृक्षों से न बहुत दूर न समीप में पड़ाव डाला। फिर दूसरी बार और तीसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा---'देवानुप्रियो ! तुम लोग मेरे पड़ाव में ऊँचीऊँची ध्वनि से पुनः पुनः घोषणा करते हुए कहो कि-'हे देवानुप्रियो ! वे नन्दीफल वृक्ष ये हैं, जो कृष्ण वर्ण वाले, मनोज्ञ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श वाले और मनोहर छाया वाले हैं / अतएव हे देवानुप्रियो! इन नन्दीफल वृक्षों के मूल, कंद, पुष्प, त्वचा, पत्र या फल आदि का सेवन मत करना, क्योंकि ये यावत् अकाल में ही जीवन से रहित कर देते हैं। अतएव कहीं ऐसा न हो कि इनका सेवन करके जीवन का नाश कर लो। इससे दूर ही रहकर विश्राम करना, जिससे ये जीवन का नाश न करें। हां दूसरे वक्षों के मूल ग्रादि का भले सेवन करना और उनकी छाया में विश्राम करना कौटुम्बिक पुरुषों ने इसी प्रकार घोषणा करके आज्ञा वापिस सौंपी / चेतावनी का पालन ११---तत्थ णं अत्थेगइया पुरिसा धन्नस्स सत्यवाहस्स एयमढें सद्दहंति, पत्तियंति रोयंति, एयमझें सद्दहमाणा तेसि नंदिफलाणं दूरं दूरेणं परिहरमाणा अन्नेसि रुक्खाणं मूलाणि य जाव वीसमंति तेसि णं आवाए नो भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणा परिणममाणा सुहरूवत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति। उनमें से किन्हीं-किन्हीं पुरुषों ने धन्य सार्थवाह की बात पर श्रद्धा की, प्रतीति की एवं रुचि की। वे धन्य सार्थवाह के कथन पर श्रद्धा करते हुए, उन नन्दीफलों का दूर ही दूर से त्याग करते हुए, दूसरे वृक्षों के मूल आदि का सेवन करते थे और उन्हीं की छाया में विश्राम करते थे। उन्हें तात्कालिक भद्र (सुख) तो प्राप्त न हुआ, किन्तु उसके पश्चात् ज्यों-ज्यों उनका परिणमन होता चला त्यों-त्यों वे बार-बार सुख रूप ही परिणत होते चले गए। उपसंहार १२--एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव [आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइए समाणे] पंचसु कामगुणेसु नो सज्जेइ, नो रज्जेइ, से गं इहभवे चेव बहूणं समणाणं समणीणं सावयाणं सावियाणं अच्चणिज्जे भवइ, परलोए वि य नो आगच्छइ जाव [नो बहूणि हत्थछेयणाणि य कण्णछेयणाणि य नासाछेयणाणि य, एवं हिययउप्यायणाणि य वसणुप्पायणाणि उल्लंबणाणि य पाविहिइ, पुणो अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरतं संसारकतारं] वोईवइस्सइ जहा व ते पुरिसा। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! हमारा जो निम्रन्थ या निर्ग्रन्थी यावत् (प्राचार्यउपाध्याय के समीप गृहत्याग कर अनगार रूप में प्रवजित होकर) पाँच इन्द्रियों के कामभोगों में प्रासक्त नहीं होता और अनुरक्त नहीं होता, वह इसी भव में बहुत-से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं का पूजनीय होता है और परलोक में भी दुःख नहीं पाता है, जैसे-हाथ, कान, नाक Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388] [ ज्ञाताधर्मकथा आदि का छेदन, हृदय एवं वृषणों का उत्पाटन, फांसी आदि / उसे अनादि अनन्त संसार-अटवी में चतुरशीति योनियों में भ्रमण नहीं करना पड़ता / वह अनुक्रम से संसार कान्तार को पार कर जाता है-सिद्धि प्राप्त कर लेता है।। १३--तत्थ णं जे से अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्स एयमझें नो सद्दहति नो पत्तियत्ति नो रोयंति, धन्नस्स एयमढें असद्दहमाणा जेणेव ते णंदिफला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तेसि नंदिफलाणं मूलाणि य जाव बोसमंति, तेसि णं आवाए भद्दए भवइ, ततो पच्छा परिणममाणा जाव ववरोति। ___ उनमें से जिन कितनेक पुरुषों ने धन्य सार्थवाह की इस बात पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की, वे धन्य सार्थवाह की बात पर श्रद्धा न करते हुए जहाँ नन्दीफल वृक्ष थे, वहाँ गये। जाकर उन्होंने उन नन्दीफल वृक्षों के मूल आदि का भक्षण किया और उनकी छाया में विश्राम किया। उन्हें तात्कालिक सुख तो प्राप्त हुआ, किन्तु बाद में उनका परिणमन होने पर उन्हें जीवन से मुक्त होना पड़ा-मृत्यु का ग्रास बनना पड़ा। १४-एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पन्वइए पंचसु कामगुणेसु सज्जेइ, जाव अणुपरियट्टिस्सइ, जहा व ते पुरिसा। __इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! हमारा जो साधु या साध्वी प्रव्रजित होकर पाँच इन्द्रियों के विषयभोगों में प्रासक्त होता है, वह उन पुरुषों की तरह यावत् हस्तच्छेदन, कर्णच्छेदन, हृदयोत्पाटन आदि पूर्वोक्त दुःखों का भागी होता है और चतुर्गतिरूप संसार में पुनः पुनः परिभ्रमण करता है / धन्य का अहिच्छत्रा पहुंचना 15- तए णं से धण्णे सगडीसागडं जोयावेइ जोयावित्ता जेणेव अहिच्छत्ता णयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहिच्छत्ताए णयरोए बहिया अग्गुज्जाणे सत्थनिवेसं करेइ, करित्ता सगडीसागडं मोयावेइ / तए णं से धणे सत्थवाहे महत्थं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुडं मेण्हइ, गेण्हित्ता बहुपुरिसेहि सद्धि संपरिधुडे अहिच्छत्तं नरिं मझमज्झेणं अणुप्पविसइ, अणपविसित्ता जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेइ, बद्धावित्ता तं महत्थं पाहुडं उवणेइ / इसके पश्चात् धन्य सार्थवाह ने गाड़ी-गाड़े जुतवाए / जुतवाकर वह जहाँ अहिच्छत्रा नगरी थी, वहाँ पहुँचा / वहाँ पहुँचकर अहिच्छत्रा नगरी के बाहर प्रधान उद्यान में पड़ाव डाला और गाड़ीगाड़े खुलवा दिए। फिर धन्य सार्थवाह ने महामूल्यवान् और राजा के योग्य उपहार लिया और बहुत पुरुषों के साथ, उनसे परिवृत होकर अहिच्छत्रा नगरी में मध्यभाग में होकर प्रवेश किया। प्रवेश करके कनककेतु राजा के पास गया / वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके राजा का अभिनन्दन किया / अभिनन्दन करने के पश्चात् वह बहुमूल्य उपहार उसके समीप रख दिया / Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : नन्दीफल ] [ 389 माल का क्रय-विक्रय १६–तए णं से कणगकेऊ राया हद्वतुठे धण्णस्स सत्थवाहस्स तं महत्थं जाव पाहुडं पडिच्छइ / पडिच्छित्ता धण्णं सत्थवाहं सक्कारेइ संमाणेइ सक्कारित्ता संमाणित्ता उस्सुक्कं वियरइ, वियरित्ता पडिविसज्जेइ। भंडविणिमयं करेइ, करित्ता पडिभंडं गेण्हइ, गेण्हित्ता सहसहेणं जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मित्तणाइअभिसमन्नागए विउलाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ। उपहार प्राप्त करके राजा कनककेतु हर्षित और संतुष्ट हुअा / उसने धन्य सार्थवाह के उस मूल्यवान् उपहार को स्वीकार किया। स्वीकार करके धन्य सार्थवाह का सत्कार-सन्मान किया / सत्कार-सन्मान करके शुल्क (जकात) माफ कर दिया और उसे विदा किया। फिर धन्य सार्थवाह ने अपने भाण्ड (माल) का विनिमय किया। विनिमय करके अपने माल के बदले में दूसरा माल लिया / तत्पश्चात् सुखपूर्वक लौटकर चम्पा नगरी में आ पहुँचा / आकर अपने मित्रों एवं ज्ञातिजनों आदि से मिला और मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोगने योग्य भोग भोगता हुआ रहने लगा। धन्य को प्रवज्या : भविष्य १७-तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं / धण्णे सत्थवाहे विणिग्गए, धम्म सोच्चा जेट्टपुत्तं कुडुबे ठावेत्ता पव्वइए / एक्कारस सामाइमाइयाई अंगाई अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता सट्ठिभत्ताई अणसणाई छेदित्ता अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ने / से णं देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, जाव अंतं काहिए। उस काल और उस समय में स्थविर भगवन्त का आगमन हुआ। धन्य सार्थवाह उन्हें वन्दना करने के लिए निकला। धर्मदेशना सुनकर और ज्येष्ठ पुत्र को अपने कुटुम्ब में स्थापित करके (कुटुम्ब का प्रधान बना कर) स्वयं दीक्षित हो गया। सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन करके और बहुत वर्षों तक संयम का पालन करके, एक मास की संलेखना करके, साठ भक्त का अनशन करके अन्यतर-किसी देवलोक में देव पर्याय में उत्पन्न हुआ। वह देव उस देवलोक से आयु का क्षय होने पर च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेंगा, यावत् जन्म-मरण का अन्त करेगा। निक्षेप १८-एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते त्ति बेमि। इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने पन्द्रहवें ज्ञात-अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा है / जैसा मैंने सुना वैसा कहा है। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी सार : संक्षेप मनुष्य कभी-कभी साधारण-से लाभ की इच्छा से प्रेरित होकर ऐसा अत्यन्त कुत्सित एवं क्रूर कर्म कर बैठता है कि उसका उसे अतीव दारुण दुष्फल भोगना पड़ता है / उसका भविष्य दीर्घातिदीर्घ काल के लिए घोर अन्धकारमय बन जाता है। द्रौपदी-ज्ञात इस तथ्य को सरल, सरस और सुगम रूप से प्रदर्शित करता है। द्रौपदी के जीव की कथा उसके नागश्री ब्राह्मणी के भव से प्रारम्भ होती है। नागश्री अपने परिवार के लिए भोजन तैयार करती है। उसने तुबे का उत्तम शाक बनाया। मगर जब चखकर देखा तो ज्ञात हुआ कि तुबा कटुक-विषाक्त है / उसने उपालम्भ अथवा अपयश से बचने के लिए उस शाक को एक जगह छिपाकर रख दिया। पारिवारिक जन भोजन करके अपने-अपने काम में लग गए। घर में जब नागश्री अकेली रह गई तब मासखमण के पारणक के दिन धर्मरुचि अनगार भिक्षा के लिए उसने / उसके घर पहुँचे / नाग से अमत की ग्राशा नहीं की जा सकती, उससे तो विष ही मिल सकता है। नागश्री मानवी के रूप में नागिन थी। उसने परम तपस्वी मुनि को विष ही प्रदान किया-विषाक्त तुबे का शाक उनके पात्र में उंडेल दिया। मुनि धर्मरुचि वही आहार लेकर अपने गुरु के पास पहुंचते हैं। गुरुजी उसकी गंध से ही समझ जाते हैं कि यह शाक-पाहार विषैला है। फिर भी उसमें से एक बूद लेकर चखते हैं और धर्मरुचि को परठ देने का आदेश देते हैं / कहते हैं-~यह शाक प्राणहारी है। धर्मरुचि परठने जाते हैं। उसमें से एक बूद लेकर भूमि पर डाल कर उसकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करते हैं / कोड़ियां आती हैं, ज्यों ही उसके रस का आस्वादन करती हैं, प्राण गँवा बैठती हैं / यह दृश्य देखकर मुनि का सदय हृदय दहल उठता है / सोचते हैं सारा का सारा शाक परठ दिया जाए तो असंख्य जानवरों का घात हो जाएगा। इससे तो यही श्रेयस्कर है कि मैं अपने ही उदर में इसे परठ लू ! मुनि यही करते हैं / समाधिपूर्वक उनके जीवन का अन्त हो जाता है / मगर नागश्री का पाप छिपा न रहा। सर्वत्र उसकी चर्चा फैल गई। घर वालों ने ताड़नातर्जना करके उसे बाहर निकाल दिया। वह भिखारिन बन गई / उस समय की उसकी दुर्दशा का मूल में जो चित्रण किया गया है, वह मूल से ही ज्ञात होगा / अन्तिम अवस्था में वह एक साथ सोलह भयानक रोगों से ग्रस्त होकर, अत्यन्त तीव्र दुःखों का अनुभव करती-हाय-हाय करती मरती है और छठी नरकभूमि में पैदा होती है। इसके साथ उसके तीव्रतम पाप-कर्म के फलभोग का जो सिलसिला शुरू होता है, वह इतने दीर्घ-अतिदीर्घ काल तक चाल रहता है कि वहाँ वर्षों की और युगों की गणना भी हार मान जाती है / वह प्रत्येक नरक में सागरोपमों की आयु से, एकाधिक वार जन्म लेती है, बीचबीच में मत्स्य आदि की योनियों में भी जन्म लेती है / शस्त्रों से उसका वध किया जाता है / जलचर, नभचर और भूचर, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि-आदि तिर्यंचपर्यायों में दुःखपूर्वक जन्म लेती, दुःखमय जीवनयापन करती और दुःख के साथ ही मरती है। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [ 391 लम्बे काल तक के इस जन्म-मरण के पश्चात् उसे मनुष्यभव की प्राप्त होती है। एक सेठ के घर पुत्री के रूप में जन्म होता है। 'सुकूमालिका' नाम रखा जाता है। किन्तु अब भी उसके पापफल का अन्त नहीं होता। विवाहित होने पर पति द्वारा उसका परित्याग कर दिया जाता है। उसके शरीर का स्पर्श उसे तलवार की धार जैसा तीक्ष्ण और अग्नि जैसा उष्ण लगता है / दबाव डालने पर पति कहता है-मैं मृत्यु का आलिंगन करने को तैयार हूँ, मगर सुकुमालिका के शरीर के स्पर्श को सहन नहीं कर सकता। सुकुमालिका का पुनर्विवाह किया जाता है एक अत्यन्त दीन भिखारी के साथ / सुकुमालिका के पिता को खाने-पीने के लिए मिट्टी के ठीकरे लिये, फटे चीथड़े शरीर पर लपेटे एक भिखारी दिखाई देता है / वह उसे अन्दर बुलवाता है / मालिश, मर्दन, उबटन, स्नान और केशशृगार करवा कर, सुस्वादु भोजन जिमा कर बिठलाता है। सुकुमालिका से विवाह करने का प्रस्ताव करता है। भिखारी उसे स्वीकार कर लेता है। रात्रि में शयनागार में जाने पर वही स्थिति उत्पन्न होती है जो प्रथम विवाह के समय हुई थी। भिखारी भी रात में ही उसे छोड़कर भाग जाता है / सुकुमालिका का अंगस्पर्श उसे भी सहन न हो सका। एक अतिशय दीन भिखारी, सेठ के असीम वैभव एवं स्वर्ग जैसे सुख के प्रलोभन को भी ठुकरा कर भाग गया तो आशा की कोई किरण शेष नहीं रही। पिता ने निराश होकर कहा-'बेटी, तेरे पापकर्म का उदय है, उसे सन्तोष के साथ भोग।' पिता ने दानशाला खोल दी। सुकुमालिका दान देती अपना समय व्यतीत करने लगी। कुछ समय पश्चात् उसकी दानशाला में आर्यिकाओं का भिक्षा के लिए आगमन हुआ। सुकुमालिका ने वशीकरण मंत्र, तंत्र, कामण आदि की याचना की। प्रायिकाओं ने उसे अपना धर्म समझाया। कहा-ऐसी बात सुनना भी हमारे लिए अयोग्य है / हम ब्रह्मचारिणी हैं / मन्त्र-तन्त्र से हमारा क्या वास्ता? आखिर सुकुमालिका उनके पास साध्वी-दीक्षा अंगीकार कर लेती है। मगर उसके जीवन में, अन्तरतर में जो मलीनता जमी हुई थी, वह धुली नहीं थी। वह वहाँ भी शिथिलाचारिणी हो जाती है और स्वच्छंद होकर साध्वी-समुदाय को छोड़ एकाकिनी रहने लगती है। बाहर जाकर आतापना लेती है। इसी प्रसंग में एक बार उसे पाँच पुरुषों के साथ विलास करती एक वेश्या दृष्टिगोचर होती है / वेश्या एक पुरुष की गोद में बैठी है। शेष चार में से एक पुरुष उसके मस्तक पर छत्र लिए खड़ा है, कोई चंवर ढोल रहा है तो कोई उसके पैर दबा रहा है / यह दृश्य देख कर सुकुमालिका के मन में इसी प्रकार के सुखभोग की लालसा उत्पन्न होती है। वह संकल्प करती है-मेरी तपस्या का फल हो तो यही कि मैं भी इसी प्रकार का सुख प्राप्त करूं / अन्त में मर कर वह देव पर्याय तो पाती है, मगर वहाँ भी देव-गणिका के रूप में उत्पन्न होती है। देवभव का अन्त होने पर पंचालनपति राजा द्रुपद की कन्या के रूप में उसका जन्म हुआ। उचित वय होने पर स्वयंवर का आयोजन किया गया। स्वयंवर में वासुदेव श्रीकृष्ण, पाण्डव आदि सहस्रों राजा आदि उपस्थित हुए / द्रौपदी ने पाँचों पाण्डवों का वरण किया। उसके इस स्वयंवरण Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392] [ ज्ञाताधर्मकथा पर किसी ने कोई आपत्ति नहीं की, मानो वह एक साधारण घटना थी। इससे तत्कालीन सामाजिक रीति-रिवाजों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है / द्रौपदी पाण्डवों के साथ हस्तिनापुर चली गई / वहाँ भी कुछ विधि-विधान हुए / वारी-वारी से वह पाण्डवों के साथ मानवीय सुखों का उपभोग करने लगी / एक बार नारदजी अचानक हस्तिनापुर जा पहुँचे। द्रौपदी के सिवाय सब ने उनकी यथोचित प्रतिपत्ति की / नारदजी द्रौपदी से रुष्ट हो गए। बदला लेने के विचार से धातकीखण्ड द्वीप में अमरकंका के राजा पद्मनाभ के वहाँ गये। द्रौपदी के रूप-लावण्य की अतिशय प्रशंसा करके पद्मनाभ को ललचाया / पद्मनाभ ने देवी सहायता से द्रौपदी का हरण करवाया / द्रौपदी के संस्कार अब बदल चुके थे। वह पतिव्रता थी। पद्मनाभ ने दौपदी को भोग के लिए आमंत्रित किया तो उसने छह महीने की मोहलत माँग ली। उसे विश्वास था कि इस बीच उसके रिश्ते के भाई श्रीकृष्ण आकर अवश्य मेरा उद्धार करेंगे / हुअा भी यही / पाण्डवों को साथ लेकर कृष्णजी अमरकंका राजधानी जा पहुंचे। उन्होंने पद्मनाभ को युद्ध में पराजित किया। राजधानी को तहस-नहस कर दिया / द्रौपदी का उद्धार हुआ। यथासमय द्रौपदी ने एक पुत्र को जन्म दिया। नाम हुआ पाण्डुसेन / पाण्डुसेन जब समर्थ, कलाकुशल और राज्य का संचालन करने योग्य हो गया तब पाण्डव उसे सिंहासनासीन करके दीक्षित हो गए। द्रौपदी ने अपने पतियों का अनुसरण किया / अन्त में पाण्डवों ने मुक्ति प्राप्त की और द्रौपदी आर्या ने स्वर्ग प्राप्त किया। प्रस्तुत अध्ययन काफी विस्तृत है। यह इस अध्ययन का अतिसंक्षिप्त सार है। विशेष के लिए जिज्ञासु स्वयं इस अध्ययन का स्वाध्याय करें। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमं अज्झयण : अवरकंका (दोवई) जम्बूस्वामी का प्रश्न १-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं पन्नरसमस्स नायज्मयणस्स अयमठे पण्णत्ते, सोलसमस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पण्णत्ते ? श्री जम्बूस्वामी ने श्री सुधर्मास्वामी से प्रश्न किया-'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने पन्द्रहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो सोलहवें ज्ञात-अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?' सुधर्मास्वामी का उत्तर २–एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं गयरी होत्या। तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तर पुरच्छिमे दिसीभाए सुभूमिभागे णामं उज्जाणे होत्था। श्री सूधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-'जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। उस चम्पा नगरी से बाहर उत्तर-पूर्व (ईशान) दिशा के भाग में सुभूमिभाग नामक उद्यान था / ३-तत्थ णं चंपाए नयरीए तओ माहणा भायरो परिवसंति, तंजहा-सोमे, सोमदत्ते, सोमभूई, अड्ढा जाब [अपरिभूया] रिउव्वेय [जउव्वेय-सामवेय-अथव्वणबेय जाव बंभण्णएसु य सत्थेसु] सुपरिनिट्ठिया / तेसि गं माहणाणं तओ भारियाओ होत्था, तंजहा-नागसिरी, भूयसिरी, जक्खसिरी, सुकुमालपाणिपायाओ जाव तेसि णं माहणाणं इट्ठाओ, विपुले माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणीओ विहरंति / उस चम्पा नगरी में तीन ब्राह्मण-बन्धु निवास करते थे। उनके नाम इस प्रकार थे-सोम, सोमदत्त और सोमभूति / वे धनाढ्य थे यावत् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा अन्य ब्राह्मणशास्त्रों में यावत अत्यन्त प्रवीण थे। उन तीन ब्राह्मणों की तीन पत्नियाँ थीं / वे इस प्रकार नागश्री, भूतश्री और यक्षश्री / वे सुकुमार हाथ-पैर आदि अवयवों वाली यावत् उन ब्राह्मणों की इष्ट थीं। वे मनुष्य संबंधी विपुल कामभोग भोगती हुई रहती थीं। सहभोज का निर्णय ४-तए णं तेसि माहणाणं अन्नया कयाई एगयओ सहियाणं समुवागयाणं, जाव [सन्निसन्नाणं सण्णिविट्ठाणं] इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था--'एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमे विपुले धण जाव [-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयण-संत-सार--] सावतेज्जे Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 ] [ ज्ञाताधर्मकथा अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं, पकामं भोत्त, पकामं परिभाएउं, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! अन्नमन्नस्स गिहेसु कल्लाल्लि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेउं उवक्खडेउं परिभुजेमाणाणं विहरित्तए। किसी समय, एक बार एक साथ मिले हुए [साथ ही बैठे हुए उन तीनों ब्राह्मणों में इस प्रकार का समुल्लाप (वार्तालाप) हुा-'देवानुप्रियो ! हमारे पास यह प्रभूत धन यावत् [कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल, लाल आदि सारभूत] स्वापतेय-द्रव्य आदि विद्यमान है / सात पीढ़ियों तक खूब दिया जाय, खूब भोगा जाय और खूब बाँटा जाय तो भी पर्याप्त है / अतएव हे देवानुप्रियो ! हम लोगों का एक-दूसरे के घरों में प्रतिदिन बारी-बारी से विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम-यह चार प्रकार का प्राहार बनवा-बनवा कर एक साथ बैठ कर भोजन करना अच्छा रहेगा।' ५---अन्नमन्नस्स एयमलै पडिसुणेति, कल्लाकल्लि अन्नमन्नस्स गिहेसु विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं उवक्खडाति, उवक्खडावित्ता परिभुजेमाणा विहरंति / तीनों ब्राह्मणबन्धुनों ने आपस की यह बात स्वीकार की। वे प्रतिदिन एक-दूसरे के घरों में प्रचुर अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार बनवाने लगे और बनवा कर साथ-साथ भोजन करने लगे। नागश्री द्वारा कटु तुबे का शाक पकाना ६-तए णं तीसे नागसिरीए माहणीए अन्नया भोयणवारए जाए यावि होत्था। तए णं सा नागसिरी विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेइ, उवक्खडित्ता एगं महं सालइयं तित्तालाउअं बहूसंभार-संजुत्तं जेहावगाढं उवक्खडेइ, एग बिदुयं करयलंसि आसाइए, तं खारं कडुयं अखज्ज अभोज्ज विसम्भूयं जाणित्ता एवं वयासी-'धिरत्थु णं मम नागसिरीए अहन्नाए अपुन्नाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभर्गाणबोलियाए, जोए णं मए सालइए बहुसंभारसंभिए नेहावगाढे उवक्खडिए सुबहुदव्वक्खए नेहक्खए य कए। तत्पश्चात् एक बार नागश्री ब्राह्मणी के यहाँ भोजन की बारी आई / तब नागश्री ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनाया। भोजन बना कर एक बड़ा-सा शरद् ऋतु संबंधी अथवा सार (रस) युक्त तुबा (तुबे का शाक) बहुत-से मसाले डाल कर और तेल से व्याप्त (छौंक) कर तैयार किया। उस शाक में से एक बूद अपनी हथेली में लेकर चखा तो मालूम हुआ कि यह खारा, कड़वा, अखाद्य और विष जैसा है। यह जान कर वह मन ही मन कहने लगी-'मुझ अधन्या, पुण्यहीना, अभागिनी, भाग्यहीन, अत्यन्त अभागिनी-निबोली के समान अनादरणीय नागश्री को धिक्कार है, जिस (मैं) ने यह शरद् ऋतु संबंधी या रसदार तुबा बहुत-से मसालों से युक्त और तेल से छौंका हुआ तैयार किया। इसके लिए बहुत-सा द्रव्य बिगाड़ा और तेल का भी सत्यानाश किया। 1. 'सालइय' शब्द के टीकाकार ने दो संस्कृत रूप बतलाए हैं-'शारदिक' और 'सारचित' / Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी] [ 395 ७-तं जइ णं ममं जाउयाओ जाणिस्संति, तो णं मम खिसिस्संति, तं जाव ताव ममं जाउयाओ ण जाणंति, ताव मम सेयं एयं सालइयं तित्तालाउं बहुसंभारनेहकडं एगंते गोवेत्तए, अन्नं सालइअं महुरालाउयं जाव नेहावगाढं उवक्खडेत्तए / एवं संपेहेइ, संपेहिता तं सालइयं जाव गोवेइ, अन्नं सालइयं महुरालाउयं उवक्खडेइ / सो यदि मेरी देवरानियाँ यह वृत्तान्त जानेंगी तो मेरी निन्दा करेंगी। अतएव जब तक मेरी देवरानियाँ न जान पाएँ तब तक मेरे लिए यहो उचित होगा कि इस शरदऋतु संबंधी, बहुत मसालेदार और स्नेह (तेल) से युक्त कटुक तुबे को किसी जगह छिपा दिया जाय और दूसरा शरद् ऋतु संबंधी या सारयुक्त मीठा तुबा मसाले डाल कर और बहुत-से तेल से छौंक कर तैयार किया जाय / नागश्री ने इस प्रकार विचार किया। विचार करके उस कटुक शरदऋतु संबंधी तुबे को यावत् छिपा दिया और मीठा तुबा तैयार किया / ८-उवक्खडेत्ता तेसि माहणाणं व्हायाणं जाव सुहासणवरगयाणं तं विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं परिवेसइ / तए णं ते माहणा जिमियभुत्तुत्तरागया समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था / तए गं ताओ माहणीओ व्हायाओ जाव विभूसियाओ तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारेंति, आहारित्ता जेणेव सयाई गेहाइं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सकम्मसंपउत्ताओ जायाओ। तत्पश्चात् वे ब्राह्मण स्नान करके यावत् सुखासन पर बैठे। उन्हें वह प्रचुर अशन, पान, खादिम और स्वादिम परोसा गया / वे ब्राह्मण भोजन कर चुकने के पश्चात् आचमन करके स्वच्छ होकर और परम शुचि होकर अपने-अपने काम में संलग्न हो गए / तत्पश्चात् स्नान की हुई और विभूषित हुई उन ब्राह्मणियों ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार जीमा। जीमकर वे अपने-अपने घर चली गई / जाकर वे भी अपने-अपने काम में लग गईं। स्थविर-आगमन ९-तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नाम थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा णामं नयरी, जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं जाव [ओग्गहं' ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा] विहरति / परिसा निग्गया / धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया। उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर यावत् बहुत बड़े परिवार के साथ चम्पा नामक नगरी के सुभूमिभाग उद्यान में पधारे। पधार कर साधु के योग्य उपाश्रय की याचना करके, यावत् [संयम और तप से आत्मा को भावित करते] विचरने लगे। उन्हें वन्दना करने के लिए परिषद् निकली / स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सुन कर परिषद् वापिस चली गई। धर्मरुचि अनगार का भिक्षार्थ गमन १०–तए णं तेसि धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवासी धम्मरुई नाम अणगारे ओराले जाव [घोरे Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396 ] [ ज्ञाताधर्मकथा घोरगुणे धोरतवस्सी धोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउल] तेउलेस्से मासंमासेणं खममाणे बिहरइ / तए णं से धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, करित्ता बीयाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव उग्गाहेइ, उम्गाहित्ता तहेव धम्मघोस थेरं आपुच्छइ, जाव चंपाए नयरीए उच्च-नीय-मज्झिमकुलाई जाव अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपविठे। धर्मघोष स्थविर के शिष्य धर्मरुचि नामक अनगार थे। वह उदार-प्रधान अथवा उराल-उन तपश्चर्या करने के कारण पार्श्वस्थों-पासत्थों के लिए अति भयानक लगते थे। [घोर अर्थात् परीषह एवं इन्द्रियों रूपी शत्रुगणों को जीतने में उन पर दयाहीन थे। घोरगुण थे अर्थात् जिन महाव्रतों ग्रादि के सेवन में दूसरे कठिनाई अनुभव करते हैं ऐसे गुणों का आचरण करने वाले थे। घोर तपस्वी--घोर तपस्या करने वाले थे / घोर ब्रह्मचारी–साधारण जनों द्वारा दुरनुचर ब्रह्मचर्य का सेवन करने वाले थे 1 शरीर में रहते हुए भी शरीर-संस्कार के त्यागी होने के कारण उच्छृढसरीरशरीर के त्यागी-शारीरिक ममत्व से अस्पृष्ट-देहातीत दशा में रमण करने वाले थे। अनेक योजनपरिमाण क्षेत्र में स्थित वस्तु को भी भस्म कर देने वाली विपुल तेजोलेश्या जिनके शरीर में ही रहने के कारण संक्षिप्त थी, अर्थात् अपनी विपुल तेजोलेश्या का कभी प्रयोग नहीं करते थे। वे धर्मरुचि अनगार मास-मास का तप करते हुए विचरते थे। किसी दिन धर्मरुचि अनगार के मासक्षपण के पारणा का दिन आया / उन्होंने पहली पौरुषी में स्वाध्याय किया, दूसरी में ध्यान किया इत्यादि सब वृत्तान्त गौतमस्वामी के वर्णन के समान कहना चाहिए, तीसरे प्रहर में पात्रों का प्रतिलेखन करके उन्हें ग्रहण किया / ग्रहण करके धर्मघोष स्थविर से भिक्षागोचरी लाने की आज्ञा प्राप्त की यावत् वे चम्पा नगरी में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में भ्रमण करते हुए नागश्री ब्राह्मणी के घर में प्रविष्ट हुए। कटक तुबे का दान ११--तए णं सा नागसिरी माहणी धम्मरुइं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता तस्स सालइयस्स त्तित्तकडुयस्स बहुसंभारसंजुत्तं जेहावगाढं निसिरणट्ठयाए हद्वतुट्ठा उठेइ, उद्वित्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं सालइयं तित्तकडुयं च बहुनेहं धम्मरुइस्स अणगारस्स पडिग्गहंसि सव्वमेव निसिरइ। तब नागश्री ब्राह्मणी ने धर्मरुचि अनगार को आते देखा। देख कर वह उस शरदऋतु संबंधी, बहुत-से मसालों वाले और तेल से युक्त तुबे के शाक को निकाल देने का योग्य अवसर जानकर हृष्ट-तुष्ट हुई और खड़ी हुई / खड़ी होकर भोजनगृह में गई / वहाँ जाकर उसने वह शरद्ऋतु संबंधी तिक्त और कडुवा बहुत तेल वाला सब का सब शाक धर्मरुचि अनगार के पात्र में डाल दिया / १२-तए णं से धम्मरुई अणगारे अहापज्जत्तमिति कटु णरगसिरीए माहणीए गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खभित्ता चपाए नगरीए मज्झंमज्झेणं पडिनिक्खमइ, पडिनिवखमिता जेणेच सुभूमिभागे उज्जाणे जेणेव धम्मघोसा थेरा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मघोसस्स अदूरसामंते इरियावहियं पडिक्कमइ, अन्नपाणं पडिलेहेई अन्नपाणं करयलंसि पडिदंसेइ / Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [397 तत्पश्चात् धर्मरुचि अनगार 'पाहार पर्याप्त है' ऐसा जानकर नागश्री ब्राह्मणी के घर से बाहर निकले / निकलकर चम्पा नगरी के बीचोंबीच होकर निकले / निकलकर सुभूमिभाग उद्यान में आए / आकर उन्होंने धर्मघोष स्थविर के समीप ईर्यापथ का प्रतिक्रमण करके अन्न-पानी का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन करके हाथ में अन्न-पानी लेकर स्थविर गुरु को दिखलाया। स्थविर का आदेश १३-तए णं ते धम्मघोसा थेरा तस्स सालइयस्स नेहावगाढस्स गंधेण अभिभूया समाणा तओ सालइयाओ नेहावगाढाओ एगं बिंदुगं गहाय करयलंसि आसाएइ, तित्तगं खारं कडुयं अखज्जं अभोज्ज विसभूयं जाणित्ता धम्मरुइं अणगारं एवं वयासी-'जइ णं तुमं देवाणुप्पिया ! एयं सालइयं जाव नेहावगाई आहारेसि तो णं तुम अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि, तं मा णं तुम देवाणुप्पिया! इमं सालइयं जाव आहारेसि, मा गं तुम अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि / तं गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं सालइयं एगंतमणावाए अचित्ते थंडिले परिढुवेहि, परिदृवित्ता अन्नं फासुयं एसणिज्जं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिगाहेत्ता आहारं आहारहि / ' उस समय धर्मघोष स्थविर ने, उस शरदऋतु संबंधी तेल से व्याप्त शाक की गंध से उद्विग्न होकर-पराभव को प्राप्त होकर, उस शरदऋतु संबंधी एवं तेल से व्याप्त शाक में से एक बूद हाथ में ली, उसे चखा। तब उसे तिक्त, खारा, कड़वा, अखाद्य, अभोज्य और विष के समान जानकर धर्मरुचि अनगार से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! यदि तुम यह शरद्ऋतु संबंधी यावत् तेल वाला तूबे का शाक खानोगे तो तुम असमय में ही जीवन से रहित हो जानोगे, अतएव हे देवानुप्रिय ! तुम इस शरदऋतु संबंधी शाक को मत खाना / ऐसा न हो कि असमय में ही तुम्हारे प्राण चले जाएँ। अतएव हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और यह शरद् ऋतु संबंधी तुबे का शाक एकान्त, आवागमन से रहित, अचित्त भूमि में परठ दो। इसे परठकर दूसरा प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण करके उसका पाहार करो।' 14-- तए णं से धम्मरुई अणगारे धम्मघोसेणं थेरेणं एवं वुत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता, सुभूमिभागाओ उज्जाणाओ अदूरसामंते थंडिल्लं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता तओ सालइयाओ एगं बिदुगं गहेइ. गहित्ता थंडलंसि निसिरइ / __तत्पश्चात् धर्मघोष स्थविर के ऐसा कहने पर धर्मरुचि अनगार धर्मघोष स्थविर के पास से निकले / निकलकर सूभूमिभाग उद्यान से न अधिक दूर न अधिक समीप अर्थात् कुछ दूर पर उन्होंने स्थंडिल (भूभाग) की प्रतिलेखना करके उस शरद् सम्बन्धी तुबे के शाक की बूद ली और उस भूभाग में डाली। परठने से होने वाली हिंसा-स्वशरीर में प्रक्षेप १५--तए णं तस्स सालइयस्स तितकडुयस्स बहुनेहावगाढस्स गंधणं बहूणि विपीलिगासहस्साणि पाइन्भूयाई। जा जहा य णं पिपीलिगा आहारेइ सा तहा अकाले चैव जीवियाओ ववरोविज्जइ। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398] [ ज्ञाताधर्मकथा तए णं तस्स धम्मरुइस्स अणगारस्स इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-'जइ ताव इमस्स सालइयस्स जाव एगंमि बिदुगंमि पक्खित्तंमि अणेगाइं पिपीलिगासहस्साई ववरोविजंति, तं जई णं अहं एयं सालइयं थंडिल्लंसि सव्वं निसिरामि, तए णं बहूणं पाणाणं भूआणं जीवाणं सत्ताणं वहकारणं भविस्सइ / तं सेयं खलु ममेयं सालइयं जाव गाढं सयमेव आहारेत्तए, मम चेव एएणं सरीरेणं णिज्जाउ' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता मुहपोत्तियं पडिलेहइ, पडिलेहित्ता ससोसोवरियं कायं पमज्जेइ, पमज्जित्ता तं सालइयं तित्तकडुयं बहुनेहावगाढं बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणणं सव्वं सरीरकोळंसि पक्खिवई। तत्पश्चात् उस शरद् संबंधी तिक्त कटुक और तेल से व्याप्त शाक की गंध से बहुत-हजारों कीडिया वहाँ आ गईं। उनमें से जिस कीड़ी ने जैसे ही शाक खाया, वैसे ही वह असमय में हो मृत्यु को प्राप्त हुई। तब धर्मरुचि अनगार के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हया यदि इस शरद् संबंधी यावत शाक का एक बिन्दु डालने पर अनेक हजार कीडियाँ मर गई, तो यदि मैं सबका सब यह शाक भूमि पर डाल दूंगा तो यह बहुत-से प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के वध का कारण होगा। अतएव इस शरद् संबंधी यावत् तेल वाले शाक को स्वयं ही खा जाना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा। यह शाक इसी (मेरे) शरीर से ही समाप्त हो जाय-झर जाय / अनगार ने ऐसा विचार करके मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना की / प्रतिलेखना करके मस्तक सहित ऊपर शरीर का प्रमार्जन किया। प्रमार्जन करके वह शरद् सम्बन्धी तुबे का तिक्त कटुक और बहुत तेल से व्याप्त शाक स्वयं ही, आस्वादन किए बिना अपने शरीर के कोठे में डाल लिया। जैसे सर्प सीधा ही बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार वह पाहार सीधा उनके उदर में चला गया। १६-तए णं तस्स धम्मरुइस्स तं सालइयं जाव नेहावगाढं आहारियस्स समाणस्स मुहत्तंतरेणं परिणममाणंसि सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव [विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा] दुरहियासा। शरद् सम्बन्धी तुबे का यावत् तेल वाला शाक खाने पर धर्मरुचि अनगार के शरीर में, एक मुहूर्त में (थोड़ी-सी देर में) ही उसका असर हो गया। उनके शरीर में वेदना उत्पन्न हो गई। वह वेदना उत्कट थी, यावत् [विपुल, कर्कश, प्रगाढ तथा] दुस्सह थी। १७–तए णं धम्मरई अणगारे अथामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कार-परक्कमे अधारणिज्जमिति कटु आयारभंडगं एगते ठवेइ, ठवित्ता थंडिल्लं पडिलेहइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं संथारेइ संथारित्ता दन्भसंथारगं दुरूहइ दुरूहित्ता पुरत्याभिमुहे संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मस्थए अंजलि कट्ठ एवं वयासी-- शाक पेट में डाल लेने के पश्चात् धर्मरुचि अनगार स्थाम (उठने-बैठने की शक्ति) से रहित, बलहीन, वीर्य से रहित तथा पुरुषकार और पराक्रम से हीन हो गये / 'अब यह शरीर धारण नहीं किया जा सकता' ऐसा जानकर उन्होंने प्राचार के भाण्ड-पात्र एक जगह रख दिये। उन्हें रख कर स्थंडिल का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन करके दर्भ का संथारा बिछाया और वे उस पर आसीन हो Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रोपदी] [ 399 गये / पूर्व दिशा की ओर मुख करके पर्यक आसन से बैठ कर, दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर आवर्तन करके, अंजलि करके इस प्रकार कहा १८-नमोऽत्थु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं धम्मघोसाणं थेराणं मम धम्मायरियाणं. धम्मोवएसगाणं, पुदिव पि णं मए धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए जाव परिग्गहे,' इयाणि पि णं अहं तेसिं चेव भगवंताणं अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव परिग्गहं पच्चक्खामि जावजीवाए, जहा खंदओ जाव चरिमेहिं उस्सासेहि बोसिरामि त्ति कटु आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालगए। . अरिहंतों यावत् सिद्धिगति को प्राप्त भगवन्तों को नमस्कार हो। मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक धर्मघोष स्थविर को नमस्कार हो / पहले भी मैंने धर्मघोष स्थविर के पास सम्पूर्ण प्राणातिपात का जीवन पर्यन्त के लिये प्रत्याख्यान किया था, यावत् परिग्रह का भी, इस समय भो मैं उन्हीं भगवंतों के समीप (उनकी साक्षी से) सम्पूर्ण प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ यावत् सम्पूर्ण परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ जीवन-पर्यन्त के लिए / जैसे स्कंदक मुनि ने त्याग किया, उसी प्रकार यहाँ जानना चाहिए / यावत् अन्तिम श्वासोच्छ्वास के साथ अपने इस शरीर का भी परित्याग करता हूँ। इस प्रकार कह कर अालोचना और प्रतिक्रमण करके, समाधि के साथ मृत्यु को प्राप्त हुए। १९-तए णं ते धम्मघोसा थेरा धम्मरुइं अणगारं चिरं गयं जाणित्ता समणे निग्गंथे सदाति सहावित्ता एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया! धम्मरुइस्स अणगारस्स मासखमणपारणगंसि सालाइयस्स जाव गाढस्स णिसिरणट्ठयाए बहिया निग्गए चिरावेइ, तं गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेह।' तत्पश्चात् धर्मघोष स्थविर ने धर्मरुचि अनगार को चिरकाल से गया जानकर निर्ग्रन्थ श्रमणों को बुलाया / बुलाकर उनसे कहा—'देवानुप्रियो ! धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पारणक में शरद् संबंधी यावत् तेल वाला कटुक तुबे का शाक मिला था। उसे परठने के लिए वह बाहर गये थे / बहुत समय हो चुका है / अतएव देवानुप्रिय ! तुम जाओ और धर्मरुचि अनगार की सब ओर मार्गणा---गवेषणा (तलाश) करो।' २०–तए णं ते समणा निग्गंथा जाव पडिसुणेति, पडिसुणित्ता धम्मघोसाणं थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणा जेणेव गेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता धम्मरुइस्स अणगारस्स सरीरगं निष्पाणं निच्चेटठं जीवविप्पजदं पासंति, पासित्ता हा हा! अहो अकज्ज' मिति कटट धम्मरुडस्स अणगारस्स परिनिव्वाणवत्तियं काउस्सग्गं करेंति, करित्ता धम्मरुइस्स अणगारस्स आयारभंडगं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव धम्मघोसा थेरा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता गमणागमणं पडिक्कमंति, पडिक्कमित्ता एवं वयासी 1. धर्मरुचि अनमार को मध्यवर्ती तीर्थकर-शासन में हए मानकर 'अंगसुत्ताणि' में बहिखादाणे पाठ का सुझाव दिया है। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् श्रमण निग्रंथों ने अपने गुरु का आदेश अंगीकार किया / अंगीकार करके वे धर्मघोष स्थविर के पास से बाहर निकले / बाहर निकल कर सब ओर धर्मरुचि अनगार की मार्गणा-~-गवेषणा करते हुए जहाँ स्थंडिलभूमि थी वहाँ आये। आकर देखा-धर्मरुचि अनगार का शरीर निष्प्राण, निश्चेष्ट और निर्जीव पड़ा है। उसे देख कर उनके मुख से सहसा निकल पड़ा-'हा हा ! अहो ! यह अकार्य हमा--बरा हवा!' इस प्रकार कह कर उन्होंने धर्मरुचि अनगार संबल कायोत्सर्ग किया और आचार-भांडक (पात्र) ग्रहण किये और धर्मघोष स्थविर के निकट पहुंचे। पहुंच कर गमनागमन का प्रतिक्रमण किया। प्रतिक्रमण करके बोले २१–एवं खलु अम्हे तुब्भं अंतियाओ पडिनिक्खमाणो पडिनिवखमित्ता सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स परिपेरंतेणं धम्मरुइस्स अणगारस्स सन्दओ समंता मग्गण-गवेसणं करेमाणा जेणेव थंडिल्ले तेणेव उवागच्छामो, उवागच्छित्ता जाव इह हव्वमागया / तं कालगए णं भंते ! धम्मरुई अणगारे, इमे से आयारभंडए। अापका आदेश पा करके हम आपके पास से निकले थे। निकल कर सुभूमिभाग उद्यान के चारों तरफ धर्मरुचि अनगार की यावत् सभी अोर मार्गणा--गवेषणा करते हुए स्थंडिल भूमि में गये / वहाँ जाकर यावत् जल्दी ही यहाँ लौट आए हैं / भगवन् ! धर्मरुचि अनगार कालधर्म को प्राप्त हो गए हैं / यह उनके आचार-भांड हैं। (इस प्रकार वहाँ का समग्र वृत्तान्त निवेदन कर पात्र आदि उपकरण गुरु महाराज के सामने रख दिए।) २२-तए णं ते धम्मघोसा थेरा पुत्वगए उवओगं गच्छंति, गच्छित्ता समणे निग्गंथे निग्गंथीओ य सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी-'एवं खलु अज्जो! मम अंतेवासी धम्मरुई नाम अणगारे पगइभद्दए जाव [पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोहे मिउमद्दवसंपण्णे अल्लीणे भद्दए] विणीए मासंमासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे जाव नागसिरीए माहणीए गिहे अणुपविठे, तए णं सा नागसिरी माहणी जाव निसिरइ / तए णं से धम्मरुई अणगारे अहापज्जत्तमिति कटु जाव कालं अणवकखेमाणे विहरइ / तत्पश्चात् स्थविर धर्मघोष ने पूर्वश्रुत में उपयोग लगाया। उपयोग लगाकर (समग्र घटित घटना को जान लिया, तब) श्रमण निर्ग्रन्थों को और निर्ग्रन्थियों को बुलाकर उनसे कहा-'हे आर्यो ! निश्चय ही मेरा अन्तेवासी धर्मरुचि नामक अनगार स्वभाव से भद्र यावत् [स्वभाव से उपशान्त मंद क्रोध, मान, माया, लोभ वाला, मृदुता से सम्पन्न, आत्मभाव में लीन, भद्र और विनीत था। वह मासखमण की तपस्या कर रहा था। यावत् वह नागश्री ब्राह्मणी के घर पारणक-भिक्षा के लिया गया / तब नागश्री ब्राह्मणी ने उसके पात्र में सब का सब कटुक, विष-सदृश तुबे का शाक उंडेल दिया। तब धर्मरुचि अनगार अपने लिए पर्याप्त पाहार जानकर यावत् काल की आकांक्षा न करते हुए विचरने लगे। तात्पर्य यह कि स्थविर ने पिछला समग्र वृत्तान्त अपने शिष्यों को सुना दिया। देवपर्याय की प्राप्ति २३-से गं धम्मरुइ अणगारे बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडिक्कते Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [401 समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ढं सोहम्म जाय सव्वदृसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं अजहण्णमणुक्कोसं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। तत्थ धम्मरुइस्स वि देवस्स तेत्तीसं सागरोबमाई ठिई पण्णता। से गं धम्मरुई देवे ताओ देवलोगाओ जाव [आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता] महाविदेहे वासे सिन्झिहिइ / धर्मरुचि अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय पाल कर, आलोचना-प्रतिक्रमण करके समाधि में लीन होकर काल-मास में काल करके, ऊपर सौधर्म आदि देवलोकों को लांघ कर, यावत् सर्वार्थसिद्ध नामक महाविमान में देवरूप से उत्पन्न हुए हैं / वहाँ जघन्य-उत्कृष्ट भेद से रहित एक ही समान सब देवों की तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। धर्मरुचि देव की भी तेतीस सागरोपम की स्थिति हुई / वह धर्मरुचि देव उस सर्वार्थसिद्ध देवलोक से आयु, स्थिति और भव का क्षय होने पर च्युत होकर सीधे महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धि प्राप्त करेगा। २४-'तं धिरत्थु णं अज्जो ! णागसिरीए माहणीए अधन्नाए अपुन्नाए जाव णिबोलियाए, जाए णं तहारूवे साहू धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइएणं जाव गाढणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए।' 'तो हे आर्यो ! उस अधन्य अपुग्य, यावत् निबोली के समान कटुक नागश्री ब्राह्मणी को धिक्कार है, जिसने तथारूप साधु धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पारणक में शरद् संबंधी यावत् तेल से व्यप्त कटुक, विषाक्त तुबे का शाक देकर असमय में ही मार डाला / ' २५-तए णं ते समणा निग्गंथा धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए एयमट सोच्चा णिसम्म चंपाए सिंघाडग-तिग जाव [चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु] बहुजणस्स एवमाइक्खंति-धिरत्थु णं देवाणुपिया! नागसिरोए माहणीए जाव णिबोलियाए, जाए णं तहारूवे साहू साहुरूवे सालइएणं जीवियाओ ववरोविए।' तत्पश्चात् उन निर्ग्रन्थ श्रमणों ने धर्मघोष स्थविर के पास से यह वृत्तान्त सुनकर अोर समझ कर चम्पानगरी के शृगाटक, त्रिक, चौक, चत्वर, चतुर्मुख राजमार्ग, गली आदि मार्गों में जाकर यावत् बहुत लोगों से इस प्रकार कहा-'धिक्कार है उस यावत् निंबोली के समान कटुक नागश्री ब्राह्मणी को; जिसने उस प्रकार के साधु और साधु रूप धारी मासखमण का तप करने वाले धर्मरुचि नामक अनगार को शरद संबंधी यावत् विष सद्दश कटुक शाक देकर मार डाला।' २६-तए णं तेसि समणाणं अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, एवं भासइ--'धिरत्थु णं नागसिरीए माहणीए जाव जीवियाओ ववरोविए।' तब उस श्रमणों से इस वृत्तान्त को सुन कर और समझ कर बहुत-से लोग आपस में इस प्रकार कहने लगे और बातचीत करने लगे-'धिक्कार है उस नागश्रो ब्राह्मणी को, जिसने यावत् मुनि को मार डाला / ' नागश्री की दुर्दशा २७---तए णं ते माहणा चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ता Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 ] [ ज्ञाताधर्मकथा जाव [रुवा कुविया चंडिक्किया] मिसिमिसेमाणा जेणेव नागसिरी माहणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता णागसिरि माहणि एवं वयासी 'हं भो नागसिरी ! अपत्थियपत्थिए दुरंतपंतलक्खणे होणपुण्णचाउद्दसे थिरत्थु णं तव अधन्नाए अपुन्नाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभग-णिबोलियाए, जाए णं तुमे तहारूवे साहू साहुरूवे मासखमणपारणगंसि सालइएणं जाव ववरोविए।' उच्चावहिं अक्कोसणाहिं अक्कोसंति, उच्चावयाहिं उद्धसणाहिं उद्धंसेंति, उच्चावयाहि णिन्भत्थणाहि णिब्भत्थंति, उच्चावयाहि णिच्छोडणाहिं णिच्छोडेंति, तज्जेंति, तालेति, तज्जेत्ता तालेता सयाओ गिहाओ निच्छुभंति / तत्पश्चात् वे सोम, सोमदत्त और सोमभूति ब्राह्मण, चम्पानगरी में बहुत-से लोगों से यह वृत्तान्त सुनकर और समझकर, कुपित हुए यावत् [क्रोध से जल उठे, रुष्ट हुए, अतीव कुपित हुए, तीन क्रोध के वशीभूत हो गए और मिसमिसाने (जलने) लगे / वे वहीं जा पहुँचे जहाँ नागश्री थी। उन्होंने वहाँ जाकर नागश्री से इस प्रकार कहा 'परी नागश्री ! अप्राथित (मरण) की प्रर्थना करने वाली ! दुष्ट और अशुभ लक्षणों वाली ! निकृष्ट कृष्णा चतुर्दशी में जन्मी हुई ! अधन्य, अपुण्य, भाग्यहीने ! अभागिनी / अतीव 'दुर्भागिनी ! निंबोलो के समान कटुक ! तुझे धिक्कार है; जिसने तथारूप साधु और साधु रूप धारी को मासखमण के पारणक में शरद् संबंधी यावत् विषैला शाक बहरा कर मार डाला !" इस प्रकार कह कर उन ब्राह्मणों ने ऊँचे-नीचे आक्रोश (तू मर जा आदि) वचन कह कर आक्रोश किया अर्थात् गालियाँ दीं, ऊँचे-नीचे उद्धंसना वचन (तू नीच कुल की है, आदि) कह कर उद्धंसना की, ऊँचे-नीचे भर्त्सना वचन (निकल जा हमारे घर से आदि ) कहकर भर्त्सना की तथा -नीचे निश्छोटन वचन (हमारे गहने, कपड़े उतार दे, इत्यादि) कह कर निश्छोटना की, 'हे पापिनी तुझे पाप का फल भुगतना पड़ेगा' इत्यादि वचनों से तर्जना की और थप्पड़ आदि मार-मार कर ताड़ना की। इस प्रकार तर्जना और ताड़ना करके उसे घर से निकाल दिया। २८-तए णं सा नागसिरी सयाओ गिहाओ निच्छूढा समाणी चंपाए नयरीए सिंघाडग-तियचउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु बहुजणेणं होलिज्जमाणी खिसिज्जमाणी निदिज्जमाणी गरहिज्जमाणी तज्जिज्जमाणी पवहिज्जमाणी धिक्कारिज्जमाणी थुक्कारिज्जमाणी कत्थइ ठाणं वा निलयं वा अलभमाणी दंडीखंडनिवसना खंडमल्लग-खंडघडग-हत्थगया फुट्ट-हडाहड-सीसा मच्छियाचडगरेणं अन्निज्जमाणमग्गा गेहं गेहेणं देहं-बलियाए वित्ति कप्पेमाणी विहरइ। तत्पश्चात् वह नागश्री अपने घर से निकाली हुई चम्पानगरी में शृगाटकों (सिंघाड़े के आकार के मार्गों) में, त्रिक (तीन रास्ते जहाँ मिलते हों ऐसे मार्गों) में, चतुष्क (चौकों) में, चत्वरों (चबूतरों) तथा चतुर्मुख (चार द्वार वाले देवकुल आदि) में, बहुत जनों द्वारा अवहेलना की पात्र होती हुई, कुत्सा (बुराई) की जाती हुई, निन्दा और गर्दा की जाती हुई, उंगली दिखा-दिखा कर तर्जना की जाती हुई, डंडों आदि की मार से व्यथित की जाती हुई, धिक्कारी जाती हुई तथा थूकी जाती हुई न कहीं भी ठहरने का ठिकाना पा सकी और न कहीं रहने को स्थान पा सकी / टुकड़े-टुकड़े साँधे हई वस्त्र पहने, भोजन के लिए सिकोरे का टुकड़ा लिए, पानी पीने के लिए घड़े का टुकड़ा हाथ में लिए, मस्तक पर अत्यन्त बिखरे बालों को धारण किए, जिसके पीछे मक्खियों में झुड भिन-भिना रहे Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [403 थे, ऐसी वह नागश्री घर-घर देहबलि (अपने-अपने घरों पर फैकी हुई बलि) के द्वारा अपनी जीविका चलाती हुई-पेट पालती हुई भटकने लगी। २९-तए णं तोसे नागसिरोए माहणीए तब्भवंसि चेव सोलसरोगायंका पाउन्भूया, तंजहासासे कासे जोणिसूले जाव कोढे / तए णं नागसिरी माहणी सोलसेहि रोगायंकेहि अभिभूया समाणी अट्टदुहट्टक्सट्टा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्सोसेणं बावीससागरोवमठिइएसु नरएसु नेरइयत्ताए उववन्ना। तदनन्तर उस नागश्री ब्राह्मणी को उसी (वर्तमान) भव में सोलह रोगातक उत्पन्न हुए / वे इस प्रकार-श्वास, कास योनिशूल यावत् कोढ़' / तत्पश्चात् नागश्री ब्राह्मणी सोलह रोगातकों से पीडित होकर अतीव दुःख के वशीभूत होकर, कालमास में काल करके छठी पृथ्वी (नरकभूमि) में उत्कृष्ट बाईस सागरोपम की स्थिति वाले नारक के रूप में उत्पन्न हुई। ३०-सा णं तओऽणंतरं उव्वद्वित्ता मच्छेसु उन्वन्ना, तत्थ णं सत्थवज्झा दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमीए पुढवीए उक्कोसाए तित्तीससागरोवमठिइएसु नेरइएसु उववन्ना। तत्पश्चात् नरक से सीधी निकल कर वह नागश्री मत्स्ययोनि में उत्पन्न हुई। वहाँ वह शस्त्र से वध करने योग्य हुई.--उसका वध शस्त्र से किया गया / अतएव दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल करके, नीचे सातवीं पृथ्वी (नरकभूमि) में उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारक पर्याय में उत्पन्न हुई। ३१-सा णं तओऽणंतरं उध्वट्टित्ता दोच्चं पि मच्छेसु उववज्जइ, तत्थ वि य णं सत्थवज्झा दाहवक्कंतीए दोच्चं पि अहे सत्तमीए पुढवीए उक्कोसं तेतीससागरोवमठिइएसु नेरइएसु उववज्जइ। तत्पश्चात् नागश्री सातवीं पृथ्वी से निकल कर सीधी दूसरी बार मत्स्ययोनि में उत्पन्न हुई। वहाँ भी उसका शस्त्र से वध किया गया और दाह की उत्पत्ति होने से मृत्यु को प्राप्त होकर पुनः नीचे सातवीं पृथ्वी में उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की आयु वाले नारकों में उत्पन्न हुई। ३२-सा णं तओहितो जाव उध्वट्टित्ता तच्चं पि मच्छेसु उववन्ना, तत्थ वि य णं सत्थवज्झा जाव कालं किच्चा दोच्चं पि छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमठिइएसु नरएसु उववन्ना। सातवीं पृथ्वी से निकल कर तीसरी बार भी मत्स्ययोनि में उत्पन्न हुई। वहाँ भी वह शस्त्र से वध करने योग्य हुई / यावत् काल करके दूसरी बार छठी पृथ्वी में बाईस सागरोपम की उत्कृष्ट आयु वाले नारकों में नारक रूप में उत्पन्न हुई। 33-- तओऽणंतरं उट्टित्ता उरएसु, एवं जहा गोसाले तहा नेयव्वं जाव रयणप्पहाए सत्तसु उववन्ना / तओ उववट्टित्ता जाव इमाई खहयरविहाणाइं जाव अदुत्तरं च णं खरबायरपुढविकाइयत्ताए तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो। 1. देखो नन्दन मणियार अध्ययन Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404] [ ज्ञाताधर्मकथा वहाँ से निकलकर वह उरगयोनि में उत्पन्न हुई / इस प्रकार जैसे गोशालक के विषय में (भगवतीसूत्र में) कहा है, वही सब वृत्तान्त यहाँ समझना चाहिए, यावत् रत्नप्रभा आदि सातों नरक भूमियों में उत्पन्न हुई। वहाँ से निकल कर यावत् खेचरों की विविध योनियों में उत्पन्न हुई। तत्पश्चात् खर (कठिन) बादर पृथ्वीकाय के रूप मे अनेक लाख बार उत्पन्न हुई / विवेचन-नागश्री ने जो पाप किया वह असाधारण था। धर्मरुचि एक महान् संयमनिष्ठ साधु थे / जगत् के समस्त प्राणियों को प्रात्मवत् जानने वाले, करुणा के सागर थे। कीड़ी जैसे क्षुद्र प्राणियों की रक्षा के लिए जिन्होंने शरीरोत्सर्ग कर दिया, उनसे अधिक दयावान् अन्य कौन होगा? अन्तिम समय में भी उनका समाधिभाव खंडित नहीं हुआ / उन्होंने आलोचना प्रतिक्रमण किया और समाधिभाव में स्थिर रहे। चित्त की शान्ति और समता को यथावत् अखंडित रखा / नागश्री ब्राह्मणी के प्रति लेश मात्र भी द्वेषभाव उनके मन में नहीं आया, जो ऐसे अवसर पर आ जाना असंभव नहीं था। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनके लिए जो 'उच्छृढसरीरे' विशेषण का प्रयोग किया गया है वह केवल प्रशंसापरक नहीं किन्तु यथार्थता का द्योतक है / (देखिए सूत्र 10) / वास्तव में धर्मरुचि अनगार देहस्थ होने पर भी देहदशा से अतीत थे—विदेह थे। शरीर और आत्मा का पृथक्त्व वे जानते ही नहीं थे, प्रत्युत अनुभव भी करते थे। शरीर का पात होने पर भी प्रात्मा अजरअमर अविनाशी है, यह अनुभति उनके जीवन का अंग बन च की थी। इसी अनुभूति के प्रबल बल से वे सहज समभाव में रमण करते हुए शरीर-त्याग करने में सफल हुए। जीवन-अवस्था में किये हुए आचरण के संस्कार व्यक्त या अव्यक्त रूप में संचित होते रहते हैं और मरण-काल में वे प्राणी की बद्धि-भावना-विचारधारा को प्रभावित करते हैं। आगम का विधान है कि जीव जिस लेश्या में मरता है, उसी लेश्या के वशीभत होकर आगामी जन्म लेता है। अन्तिम समय की लेश्या जीवन में संचित संस्कारों के अनुरूप ही होती है। कुछ लोग सोचते हैंअभी कुछ भी करें, जीवन का अन्त संवार लेंगे, परन्तु यह विचार भ्रान्त है / जीवन का क्षण-क्षण संवारा हुआ हो तो अन्तिम समय संवरने की संभावना रहती है / कुछ अपवाद हो सकते हैं किन्तु वे मात्र अपवाद ही हैं। नागश्री ने एक उत्कृष्ट संयमशील साधु का जान-बूझ कर हनन किया / यह अधमतम पाप था / इसका भयंकर से भयंकर फल उसे भुगतना पड़ा / उसे समस्त नरकभूमियों में, उरग, जलचर, खेचर, असंज्ञी, संज्ञी आदि पर्यायों में अनेक-अनेक बार जन्म-मरण की दुस्सह यातनाएँ सहन करनी पड़ी। / प्रस्तुत सूत्र में पाठ कुछ संक्षिप्त है / प्रतीत होता है कि टीकाकार अभयदेवसूरि के समक्ष दोनों पाठ विद्यमान थे। वे अपनी टीका में लिखते हैं-'गोशालकाध्ययनसमान' सूत्रं ततएव दृश्यं, बहुत्वात्तु न लिखितम् / ' __अर्थात् नागश्री के भवभ्रमण का वृत्तान्त बहुत विस्तृत है, अतः उसे यहाँ लिखा नहीं गया है, परन्तु गोशालक-अध्ययन (भगवतीसूत्र के पन्द्रहवें शतक) के अनुसार वह वर्णन जान लेना चाहिए / प्रस्तुत सूत्र में 'जाव' शब्दों के प्रयोग द्वारा उसको ग्रहण कर लिया गया है / कहीं-कहीं प्रस्तुत सूत्र में पाए 'जहा गोसाले तहा नेयव्वं जाव' इस पाठ के स्थान पर निम्नलिखित पाठ अधिक उपलब्ध होता है--- Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [405 'रयणप्पभानो पुढवीअो उव्वट्टित्ता सण्णीसु उववन्ना / तो उव्वट्टित्ता असण्णीसु उववन्ना / तत्थ वि य णं सत्थवज्झा दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दोच्चं पि रयणप्पभाए पुढवीए पलिओवमस्स असंखिज्जइभागट्ठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववण्णा / तो उव्वट्टित्ता जाइं इमाइं खहयरविहाणाई........' __इसका अर्थ इस प्रकार है-वह नागश्री रत्नप्रभा पृथ्वी से उद्वर्तन करके--निकलकर संज्ञी जीवों में उत्पन्न हुई / वहां से मरण-प्राप्त होकर असंज्ञी प्राणियों में जन्मी। वहाँ भी उसका शस्त्र द्वारा वध किया गया। उसके शरीर में दाह उत्पन्न हुआ। यथासमय मरकर दूसरी बार रत्नप्रभा पृथ्वी में पल्योपम के असंख्यातवें भाग को स्थिति वाले नारकों में नारक-पर्याय में जन्मी / वहाँ से निकल कर खेचरों की योनियों में उत्पन्न हुई ।-अंगसुत्ताणि, तृतीय भाग, पृ० 280 सुकुमालिका का कथानक ३४-सा णं तओऽणंतरं उवट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, चंपाए नयरोए, सागरदत्तस्स सस्थवाहस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिसि दारियत्ताए पच्चायाया। तए णं सा भद्दा सत्यवाही णवण्हं मासाणं दारियं पयाया। सुकुमालकोमलियं गयतालुयसमाणं / तत्पश्चात् वह पृथ्वीकाय से निकल कर इसी जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में, चम्पा नगरी में सागरदत्त सार्थवाह की भद्रा भार्या की कख में बालिका के रूप में उत्पन्न हुई / तब भद्रा सार्थवाही ने नौ मास पूर्ण होने पर वालिका का प्रसव किया / वह बालिका हाथी के तालु के समान अत्यन्त सुकुमार और कोमल थी। ३५--तीसे दारियाए निव्वत्ते बारसाहियाए अम्मापियरो इमं एयारूवं गोन्नं गुणनिष्फन्तं नामधेज्ज करेंति-'जम्हा णं अम्हं एसा दारिया सुकुमाला गयतालुयसमाणा तं होउ णं अम्हं इमीसे दारियाए नामधेज्जं सुकुमालिया।' तए णं तीसे दारियाए अम्मापियरो नामधेज्जं करेंति सुकुमालिय त्ति। उस बालिका के बारह दिन व्यतीत हो जाने पर माता-पिता ने उसका यह गुण वाला और गुण से बना हुआ नाम रक्खा - 'क्योंकि हमारी यह बालिका हाथी के तालु के समान अत्यन्त कोमल है, अतएव हमारी इस पुत्री का नाम सुकुमालिका हो / ' तब बालिका के माता-पिता ने उसका 'सुकुमालिका' ऐसा नाम नियत कर दिया। ३६-तए णं सा सुकुमालिया दारिया पंचधाईपरिग्गहिया, तंजहा-खीरधाईए (मज्जणधाईए) मंडणधाईए, अंकधाईए, कोलावणधाईए, जाव [अंकाओ अंकं साहरिज्जमाणी रम्मे मणिकोट्टिमतले गिरिकंदरमल्लीणा इव चंपकलया निब्वाय-निव्वाघायंसि जाव [सुहंसुहेणं] परिवड्ढइ / तए णं सा सूमालिया दारिया उम्मुक्कबालभावा जाव रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया [विण्णाणपरिणयमेत्ता जोवणगमणुपत्ता] यावि होत्था / तदनन्तर सुकुमालिका बालिका को पाँच धायों ने ग्रहण किया अर्थात् पाँच धायें उसका पालन-पोषण करने करने लगीं। वे इस प्रकार थीं-(१) दूध पिलाने वाली धाय (2) स्नान कराने Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 ] [ ज्ञाताधर्मकथा वाली धाय (3) आभूषण पहनाने वाली धाय (4) गोद में लेने वाली धाय और (5) खेलाने वाली धाय / यावत् एक गोद से दूसरी गोद में ले जाई जाती हुई वह बालिका, पर्वत की गुफा में रही हुई चंपकलता जैसे वायुविहीन प्रदेश में व्याधात रहित बढ़ती है, उसी प्रकार सुखपूर्वक बढ़ने लगी। तत्पश्चात् सुकुमालिका बाल्यावस्था से मुक्त हुई, यावत् (समझदार हो गई, यौवन को प्राप्त हुई) रूप से, यौवन से और लावण्य से उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीर वाली हो गई। ३७-तत्थ णं चंपाए नयरीए जिणदत्ते नाम सत्यवाहे अडढे, तस्स णं जिणदत्तस्स भद्दा भारिया समाला इट्ठा जाव माणुस्सए कामभोए पच्चणुब्भवमाणा विहरइ / तस्स णं जिणदत्तस्स पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए सागरए नामं दारए सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे / चम्पा नगरी में जिनदत्त नामक एक धनिक सार्थवाह निवास करता था। उस जिनदत्त की भद्रा नामक पत्नी थी। वह सुकुमारी थी, जिनदास को प्रिय थी यावत् मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का प्रास्वादन करती हुई रहती थी। उस जिनदत्त सार्थवाह का पुत्र और भद्रा भार्या का उदरजात सागर नामक लड़का था / वह भी सुकुमार (हाथों-पैरों वाला) एवं सुन्दर रूप से सम्पन्न था। ३८-तए णं से जिणदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाई साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिमिक्खमित्ता सागरदत्तस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वोईवयइ, इमं च णं सूमालिया दारिया ण्हाया चेडियासंघ परिवुडा' उपि आगासतलगंसि कणगतंदूसएणं कोलमाणी कोलमाणी विहरइ / एक बार किसी समय जिनदत्त सार्थवाह अपने घर से निकला / निकल कर सागरदत्त के घर के कुछ पास से जा रहा था / उधर सुकुमालिका लड़की नहा-धोकर, दासियों के समूह से घिरी हुई, भवन के ऊपर छत पर सुवर्ण की गेंद से कीड़ा करती-करती विचर रही थी। ३९-तए णं से जिणदत्ते सत्यवाहे सूमालियं दारियं पासइ, पासित्ता सूमालियाए दारियाए रूवे य जोवणे य लावण्णे य जायविम्हए कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी--'एस णं देवाणुप्पिया ! कस्स दारिया ? किं वा णामधे से ?' तए णं ते कोडुबियपुरिसा जिणदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा करयल जाव एवं वयासी-'एस णं देवाणुप्पिया! सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स धूया भद्दाए अत्तया सूमालिया नाम दारिया सुकुमालपाणिपाया जाव उक्किट्ठा।' उस समय जिनदत्त सार्थवाह ने सुकुमालिका लड़की को देखा / देखकर सुकुमालिका लड़की के रूप पर, यौवन पर और लावण्य पर उसे आश्चर्य हुआ। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और पूछा-देवानुप्रियो ! वह किसकी लड़की है ? उसका नाम क्या है ? जिनदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर वे कौटुम्बिक पुरुष हर्षित और सन्तुष्ट हुए। उन्होंने हाथ जोड़ कर इस प्रकार उत्तर दिया-'देवानुप्रिय ! यह सागरदत्त सार्थवाह की पुत्री, भद्रा की आत्मजा सुकुमालिका नामक लड़की है / सुकुमार हाथ-पैर आदि अवयवों वाली यावत् उत्कृष्ट शरीर वाली है। ४०–तए णं से जिणवत्ते सत्थवाहे तेसि कोडुबियाणं अंतिए एयमद्रं सोच्चा जेणेव सए १.पाठान्तर--चेडियाचकवाल. Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [407 गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हाए जाव मित्तनाइपरिवुडे चंपाए नयरीए मज्झमज्झणं जेणेव सायरवत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छद / तए णं सागरदत्ते सत्यवाहे जिणदत्तं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, एज्जमाणं पासइत्ता आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुद्वित्ता आसणेणं उणिमंतेइ, उवणिमंतित्ता आसत्यं वीसत्यं सुहासणवरगयं एवं वयासो-'भण देवाणुप्पिया ! किमागमणपओयणं?' जिनदत्त सार्थवाह उन कौटु म्बिक पुरुषों से इस अर्थ (बात) को सुन कर अपने घर चला गया। फिर नहा-धोकर तथा मित्रजनों एवं ज्ञातिजनों आदि से परिवृत होकर चम्पा नगरी के मध्यभाग में होकर वहाँ आया जहाँ सागरदत्त का घर था / तब सागरदत्त सार्थवाह ने जिनदत्त सार्थवाह को आता देखा / आता देख कर वह आसन से उठ खड़ा हुआ / उठ कर उसने जिनदत्त को प्रासन ग्रहण करने के लिए निमंत्रित किया। निमंत्रित करके विधान्त एवं विश्वस्त हुए तथा सुखद प्रासन पर आसीन हुए जिनदत्त से पूछा--'कहिए देवानुप्रिय ! आपके आगमन का क्या प्रयोजन है ?' ४१--तए णं से जिणदत्ते सत्थबाहे सागरदत्तं सस्थवाहं एवं वयासी--‘एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! तव धूयं भद्दाए अत्तियं सूमालियं सागरदत्तस्स भारियत्ताए बरेमि / जइ णं जाणह देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पुत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो, ता दिज्जउ णं सूमालिया सागरस्स / तए णं देवाणुप्पिया! किं दलयामो सुकं सूमालियाए ?' तब जिनदत्त सार्थवाह ने सागरदत्त सार्थवाह से कहा-'देवानुप्रिय ! मैं आपकी पुत्री, भद्रा सार्थवाही की पात्मजा सुकुमालिका की सागरदत्त की पत्नी के रूप में मँगनी करता हूँ। देवानुप्रिय ! अगर आप यह युक्त समझे, पात्र समझे, श्लाघनीय समझे और यह समझे कि यह संयोग समान है, तो सुकुमालिका सागरदत्त को दीजिए। अगर आप यह संयोग इष्ट समझते हैं तो देवानुप्रिय ! सुकुमालिका के लिए क्या शुल्क दें ?' ४२--तए णं से सागरदत्ते तं जिणदत्तं एवं वयासो-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! सूमालिया दारिया मम एगा एगजाया इट्ठा जाब किमंग पुण पासणयाए ? तं नो खलु अहं इच्छामि सूमालियाए दारियाए खणमवि विप्पओगं / तं जइ णं देवाणुप्पिया ! सागरदारए मम घरजामाउए भवइ, तो णं अहं सागरस्स सूमालियं दलयामि।' उत्तर में सागरदत्त ने जिनदत्त से इस प्रकार कहा- 'देवानुप्रिय ! सुकुमालिका पुत्री हमारी एकलौती सन्तति है, एक ही उत्पन्न हुई है, हमें प्रिय है। उसका नाम सुनने से भी हमें हर्ष होता है तो देखने की तो बात ही क्या है ? अतएव देवानुप्रिय! मैं क्षण भर के लिए भी सुकुमालिका का वियोग नहीं चाहता / देवानुप्रिय ! यदि सागर हमारा गृह-जामाता (घर-जमाई) बन जाय तो मैं सागर दारक को सुकुमालिका दे दूं।' ४३--तए णं जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तेणं सत्यवाहेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरदारगं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासो-'एवं खलु ! सागरदत्ते सत्यवाहे ममं एवं वयासी-एबं खलु देवाणुप्पिया ! सूमालिगा दारिया इट्ठा, तं चेव, तं जइ णं सागरदत्तए मम घरजामाउए भवइ ता दलयामि / Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तए णं से सागरए दारए जिणदत्तेणं सत्यवाहेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिटुइ / तत्पश्चात् जिनदत्त सार्थवाह, सागरदत्त सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर अपने घर गया / घर जाकर सागर नामक अपने पुत्र को बुलाया और उससे कहा-'हे पुत्र ! सागरदत्त सार्थवाह ने मुझसे ऐसा कहा है-'हे देवानुप्रिय ! सुकुमालिका लड़की मेरी प्रिय है, इत्यादि पूर्वोक्त यहाँ दोहरा लेना चाहिए / सो यदि सागर मेरा गृहजामाता बन जाय तो मैं अपनी लड़की हूँ। जिनदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर सागर पुत्र मौन रहा / (मौन रह कर अपनी स्वीकृति प्रकट को) / ४४-तए णं जिणदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाई सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्त-मुत्तंसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तनाइनियग-सयण-संबंधिपरियणं आमतेइ, जाव संमाणित्ता सागरं दारयं व्हायं जाव सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करित्ता पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूहावेइ, दुरूहावित्ता मित्तणाइ जाव संपरिवुडे सविड्ढीए साओ गिहाओ निग्गच्छा, निग्गच्छित्ता चंपानार मज्झमज्झेणं जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरहइ, पच्चो हित्ता सागरगं दारगं सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स उवणेइ। / तत्पश्चात् एक बार किसी समय शुभ तिथि, करण नक्षत्र और मुहूर्त में जिनदत्त सार्थवाह ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया। तैयार करवाकर मित्रों, निज जनों, स्वजनों, संबंधियों तथा परिजनों को आमंत्रित किया, यावत् जिमाने के पश्चात् सम्मानित किया / फिर सागर पुत्र को नहला-धुला कर यावत् सब अलंकारों से विभूषित किया। पुरुषसहस्रवाहिनी पालकी पर आरूढ किया, आरूढ करके मित्रों एवं ज्ञातिजनों आदि से परिवृत होकर यावत् पूरे ठाठ के साथ अपने घर से निकला / निकल कर चम्पानगरी के मध्य भाग में होकर जहाँ सागरदत्त का घर था, वहाँ पहुँचा / वहाँ पहुँच कर सागर पुत्र को पालकी से नीचे उतारा / फिर उसे सागरदत्त सार्थवाह के समीप ले गया। सुकुमालिका का विवाह ४५–तए णं सागरदत्ते सत्यवाहे विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता जाव संमाणेत्ता सागरगं दारगं सूमालियाए दारियाए सद्धि पट्टयं दुरूहावेइ, दुरूहावित्ता सेयापीयएहिं कलसेहि मज्जावेइ, मज्जावित्ता होमं करावेइ, करावित्ता सागरं दारयं सूमालियाए दारियाए पाणि गेण्हावेइ। तत्पश्चात् सागरदत्त सार्थवाह ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य भोजन तैयार करवाया / तैयार करवा कर यावत् उनका सन्मान करके सागर पुत्र को सुकुमालिका पुत्री के साथ पाट पर बिठलाया। बिठला कर श्वेत और पीत अर्थात् चांदी और सोने के कलशों से स्नान करवाया / स्नान करवा कर होम करवाया / होम के बाद सागर पुत्र को सुकुमालिका पुत्री का पाणिग्रहण करवाया / (विवाह की विधि सम्पन्न करवाई)। 46 -तए णं सागरदारए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं पाणिफास पडिसंवेदेइ से Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [ 409 जहानामए–असिपत्ते इ वा जाव मुम्मुरे इ वा, इत्तो अणिद्वतराए चेव पाणिफास पडिसंवेदेइ / तए णं से सागरए अकामए अवसव्वसे तं मुहुत्तमित्तं संचिट्ठइ / उस समय सागर पुत्र को सुकुमालिका पुत्री के हाथ का स्पर्श ऐसा प्रतीत हुअा मानो कोई तलवार हो अथवा यावत् मुर्मुर आग हो / इतना ही नहीं बल्कि इससे भी अधिक अनिष्ट हस्त-स्पर्श का वह अनुभव करने लगा। किन्तु उस समय वह सागर बिना इच्छा के विवश होकर उस हस्तस्पर्श का अनुभव करता हुया मुहूर्त्तमात्र (थोड़ी देर) बैठा रहा / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में संक्षिप्त पाठ ही दिया गया है। अन्यत्र विस्तृत पाठ है, जो इस प्रकार है (असिपत्ते इ वा) करपत्ते इ वा खुरपत्ते इ वा कलंबचीरियापत्त इ वा सत्तिअग्गे इ वा कोंतग्गे इ वा तोमरग्गे इ वा भिडिमालग्गे इ वा सूचिकलावए इ वा विच्छुयडंके इ वा कविकच्छू इ वा इंगाले इ वा मुम्मुरे इ वा अच्ची इ वा जाले इ वा अलाए इ वा सुद्धागणी इ वा, भवे एयारूवे ? नो इणठे समठे / एत्तो अणि?तराए चेव अकंततराए चेव अधियतराए चेव अमणुण्णतराए चेव अमणामतराए चेव / —टीका-(अभयदेवसूरि) ___-अंगसुत्ताणि तृ. भाग संक्षिप्त पाठ और विस्तृत पाठ के तात्पर्य में कोई अन्तर नहीं है। दोनों पाठों में सुकुमालिका के हाथ की दो विशेषताएं प्रदर्शित की गई हैं- तीक्ष्णता और उष्णता / संक्षिप्त पाठ में इन दोनों विशेषताओं को प्रदर्शित करने के लिए 'असिपत्ते इ वा' और 'मुम्मुरे इ वा' पदों का प्रयोग किया गया है, जब कि इन्हीं दोनों विशेषताओं को दिखाने के लिए विस्तृत पाठ में अनेक-अनेक उदाहरणों का प्रयोग हुआ है। किन्तु संक्षिप्त पाठ में 'जाव मुम्मुरे इ वा' है, जबकि विस्तृत पाठ में अन्त में 'सुद्धागणी इ वा' पाठ है / जान पड़ता है कि दोनों पाठों में से किसी एक में पद आगे-पीछे हो गए हैं / या तो संक्षिप्त पाठ में 'जाव सुद्धागणी इवा' होना चाहिए अथवा विस्तृत पाठ में 'मुम्मुरे इवा' शब्द अन्त में होना चाहिए / टीका बाली प्रति में भी यहाँ गृहीत संक्षिप्त पाठ के अनुसार ही पाठ है। इस व्यतिक्रम को लक्ष्य में रखकर यहां विस्तृत पाठ कोष्ठक में न देकर विवेचन में दिया गया है / विस्तृत पाठ के शब्दों का भावार्थ इस प्रकार है-- सुकुमालिका के हाथ का स्पर्श ऐसा था कि (मानो तलवार हो), करोंत हो, छुरा हो, कदम्बचीरिका हो, शक्ति नामक शस्त्र का अग्रभाग हो, भिडिमाल शस्त्र का अग्रभाग हो, सुइयों का समूह हो–अनेक सुइयों की नोके हों, बिच्छू का डंक हो, कपिकच्छू–एक दम खुजली उत्पन्न करने वाली वनस्पति- करेंच हो, अंगार (ज्वालारहित अग्निकण) हो, मुमुर (अग्निमिश्रित भस्म) हो, अचि (ईंधन से लगी अग्नि) हो, ज्वाला (ईंधन से पृथक् ज्वाला-लपट) हो, अलात (जलती लकड़ी) हो या शुद्धाग्नि (लोहे के पिण्ड के अन्तर्गत अग्नि) हो। क्या मुकमालिका के हाथ का स्पर्श वास्तव में ऐसा था ? नहीं, इनसे भी अधिक अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनाम था। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 ] [ ज्ञाताधर्मकथा ४७---तए णं से सागरदत्ते सत्यवाहे सागरस्स दारगस्स अम्मापियरो मिलणाइ [नियग-सयणसंबंधि-परियणं] विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पुप्फवत्थ जाव [गंध-मल्लालंकारेण य सक्कारेत्ता] संमाणेता पडिविसज्जेइ / / तए णं सागरए दारए सूमालियाए सद्धि जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धि तलिगंसि निवज्जइ / तत्पश्चात सागरदत्त सार्थवाह ने सागरपुत्र के माता-पिता को तथा मित्रों, ज्ञातिजनों, प्रात्मीय जनों, स्वजनों, संबंधियों तथा परिजनों को विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन से तथा पुष्प, वस्त्र [गंध, माला, अलंकार से सत्कृत एवं] सम्मानित करके विदा किया। तत्पश्चात् सागरपुत्र सुकुमालिका के साथ जहाँ वासगृह (शयनागार) था, वहाँ पाया / आकर सुकुमालिका के साथ शय्या पर सोया---लेटा / ४८-तए णं से सागरए दारए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ, से जहानामए असिपत्ते इ वा जाव' अमणामयरागं चेव अंगफासं पच्चणुभवमाणे विहरइ / तए णं से सागरए दारए अंगफासं असहमाणे अवसवसे मुहुत्तमित्तं संचिट्ठइ। तए णं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सूमालियाए दारियाए पासाओ उठेइ, उद्वित्ता जेणेव सए सणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणीयंसि निवज्जइ / उस समय सागरपुत्र ने सुकुमालिका के इस प्रकार के अंगस्पर्श को ऐसा अनुभव किया जैसे कोई तलवार हो, इत्यादि / वह अत्यन्त ही अमनोज्ञ अंगस्पर्श को अनुभव करता रहा। तत्पश्चात सागरपुत्र उस अंगस्पर्श को सहन न कर सकता हया, विवश होकर, महर्त्तमात्र-कुछ समय तकवहाँ रहा / फिर वह सागरपुत्र सुकुमालिका दारिका को सुखपूर्वक गाढ़ी नींद में सोई जानकर उसके पास से उठा और जहां अपनी शय्या थी, वहाँ आ गया। आकर अपनी शय्या पर सो गया। ४९-तए णं सूमालिया दारिया तओ मुहत्तरस्स पडिबुद्धा समाणी पइन्वया पइमारत्ता पति पासे अपस्समाणी तलिमाउ उठेइ, उद्वित्ता जेणेव से सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरस्स पासे णिवज्जइ। तदनन्तर सुकुमालिका पुत्री एक मुहूर्त में-थोड़ी देर में जाग उठी। वह पतिव्रता थी और पति में अनुराग वाली थी, अतएव पति को अपने पार्श्व-पास में न देखती हुई शय्या से उठ बैठी। उठकर वहाँ गई जहाँ उसके पति की शय्या थी / वहाँ पहुँच कर वह सागर के पास सो गई / पति द्वारा परित्याग ५०-तए णं सागरदारए सूमालियाए दारियाए दुच्चं पि इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ, जाव अकामए अवसव्वसे मुहुत्तमित्तं संचिट्ठइ / तए णं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सयणिज्जाओ उठेइ, उद्वित्ता 1. अ. 16 सूत्र 46 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [ 411 वासघरस्स दारं विहाडेइ, विहाडित्ता मारामुक्के विव काए जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। तत्पश्चात् सागरदारक ने दूसरी बार भी सुकुमालिका के पूर्वोक्त प्रकार के अंगस्पर्श को अनुभव किया / यावत् वह बिना इच्छा के विवश होकर थोड़ी देर तक वहाँ रहा। फिर सागरदारक सुकुमालिका को सुखपूर्वक सोई जान कर शय्या से उठा। उसने अपने वासगृह (शयनागार) का द्वार उघाड़ा / द्वार उधाड़ कर वह मरण से अथवा मारने वाले पुरुष से छुटकारा पाये काक पक्षी की तरह शीघ्रता के साथ जिस दिशा से आया था उसी दिशा में लौट गया-अपने घर चला गया। ५१--तए णं सूमालिया दारिया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा पइव्वया जाव' अपासमाणी सणिज्जाओ उठेइ, सागरस्स दारगस्स सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणी वासघरस्स दारं विहाडियं पासइ, पासित्ता एवं वयासी—'गए से सागरे' त्ति कटु ओहयमणसंकच्या जाव [करयलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया] झियायइ। सुकुमालिका दारिका थोड़ी देर में जागी / वह पतिव्रता एवं पति में अनुरक्ता थी, अतः पति को अपने पास न देखती हुई शय्या से उठी। उसने सागरदारक की सब तरफ मार्गणा-गवेषणा की / गवेषणा करते-करते शयनागार का द्वार खुला देखा तो कहा (मन ही मन विचार किया)'सागर तो चल दिया !' उसके मन का संकल्प मारा गया, अतएव वह हथेली पर मुख रखकर प्रार्तध्यान-चिन्ता करने लगी। ५२--तए णं सा भद्दा सत्यवाही कल्लं पाउप्पभायाए दासचेडियं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी—'गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिए ! बहुवरस्स मुहसोहणियं उवणेहि / ' तए णं सा दासचेडी भद्दाए एवं वुत्ता समाणी एयमठें तह त्ति पडिसुणेइ, मुहधोवणियं गेण्हित्ता जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं जाव झियायमाणि पासइ, पासित्ता एवं वयासो-'कि णं तुमं देवाणुप्पिए ! ओहयमणसंकप्पा झियाहि ?' तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने कल (दूसरे दिन) प्रभात होने पर दासचेटी (दासी) को बुलाया और उससे कहा-'देवानुप्रिये ! तू जा और वर-वधू (वधू और वर) के लिए मुख-शोधनिका (दातौन-पानी) ले जा / ' तत्पश्चात् उस दासचेटी ने भद्रा सार्थवाही के इस प्रकार कहने पर इस अर्थ को 'बहुत अच्छा' कह कर अंगीकार किया। उसने मुखशोधनिका ग्रहण की। ग्रहण करके जहाँ वासगृह था, वहाँ पहुँची। वहाँ पहुँच कर सुकुमालिका दारिका को चिन्ता करती देख कर पूछा'देवानुप्रिये ! तुम भग्नमनोरथ होकर चिन्ता क्यों कर रही हो ?' ५३-तए णं सा सूमालिया दारिया तं दास.डि एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिए ! सागरए दारए मम सुहपसुत्तं जाणित्ता मम पासाओ उठेइ, उद्वित्ता वासघरदुवारं अवंगुणेइ, जाव पडिगए / ततो अहं मुहुत्तंतरस्स जाव विहाडियं पासामि, गए से सागरए ति कटु ओहयमणसंकप्पा जाव झियायामि। 1. अ. 16 सूत्र 49 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 [ ज्ञाताधर्मकथा दासी का प्रश्न सुन कर सुकुमालिका दारिका ने दासचेटी से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! सागरदारक मुझे सुख से सोया जान कर मेरे पास से उठा और वासगृह का द्वार उघाड़ कर यावत् [व्याध से छुटकारा पाये काक की तरह] वापिस चला गया----भाग गया है। तदनन्तर मैं थोड़ी देर बाद उठी यावत् द्वार उघाड़ा देखा तो मैंने सोचा--सागर चला गया।' इसी कारण भग्नमनोरथ होकर मैं चिन्ता कर रही हूँ।' ५४–तए णं सा दासचेडी सूमालियाए दारियाए एयमझें सोच्चा जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरदत्तस्स एयमठें निवेएइ। दासचेटी सुकुमालिका दारिका के इस अर्थ (वृत्तान्त) को सुन कर वहाँ गई जहाँ सागरदत्त था। वहाँ जाकर उसने सागरदत्त सार्थवाह से यह वृत्तान्त निवेदन किया। ५५--तए णं से सागरदत्ते दासचेडीए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जेणेव जिणदत्तसत्थवाहगिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जिणवत्तं सत्थवाहं एवं वयासी.--'कि णं देवाणुप्पिया! एवं जुत्तं वा पत्तं वा कुलाणुरूवं वा कुलसरिसं वा, जं णं सागरदारए सूमालियं दारियं अदिट्ठदोसं पइत्वयं विप्पजहाय इहमागओ ?' बहूहि खिज्जणियाहि य रुटणियाहि य उवालभइ / दासचेटी से यह वृत्तान्त सुन-समझ कर सागरदत्त कुपित होकर जहाँ जिनदत्त सार्थवाह का घर था, वहाँ पहुँचा / पहुँचकर उसने जिनदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहा---'देवानुप्रिय ! क्या यह योग्य है ? प्राप्त-उचित है ? यह कुल के अनुरूप और कुल के सदृश है कि सागरदारक सुकुमालिका दारिका को, जिसका कोई दोष नहीं देखा गया और जो पतिव्रता है, छोड़कर यहाँ आ गया है ?' यह कह कर बहुत-सी खेद युक्त क्रियाएं करके तथा रुदन की चेष्टाएँ करके उसने उलहना दिया / ५६--तए णं जिणदत्ते सागरदत्तस्स एयमह्र सोच्चा जेणेब सागरे दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरयं दारयं एवं वयासी-'दुठ्ठ णं पुत्ता! तुमे कयं सागरदत्तस्स गिहाओ इहं हव्वमागए / तं गच्छह णं तुमं पुत्ता! एवमवि गए सागरदत्तस्स गिहे / ' तब जिनदत्त, सागरदत्त के इस अर्थ को सुनकर जहाँ सागरदारक था, वहाँ पाया। ग्राकर सागर दारक से बोला- 'हे पुत्र ! तुमने बुरा किया जो सागरदत्त के घर से यहाँ एकदम चले आये। अतएव हे पुत्र ! जो हुआ सो हुअा, अब तुम सागरदत्त के घर चले जायो।' ५७-तए णं से सागरए जिणदत्तं एवं धयासी--- अवि याइं अहं ताओ ! गिरिपडणं वा तरुपडणं वा मरुष्पवायं वा जलप्पवेसं वा जलगप्पवेसंवा विसभक्खणं व वा सत्थोवाडणं वा गिद्धपिट्ठ वा पध्वज्ज वा बिदेसगमणं वा अन्भवच्छिज्जामि, नो खलु अहं सागरदत्तस्स गिहं गच्छिज्जा।' तब सागर पुत्र ने जिनदत्त से इस प्रकार कहा-'हे तात ! मुझे पर्वत से गिरना स्वीकार है, वृक्ष से गिरना स्वीकार है, मरुप्रदेश (रेगिस्तान) में पड़ना स्वीकार है, जल में डूब जाना, प्राग में Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [413 सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] प्रवेश करना, विषभक्षण करना, अपने शरीर को श्मशान में या जंगल में छोड़ देना कि जिससे जानवर या प्रेत खा जाएँ, गध्र-पष्ठ मरण (हाथी आदि के मुर्दे में प्रवेश कर जाना कि जिससे गीध आदि खा जाएँ), इसी प्रकार दीक्षा ले लेना या परदेश में चला जाना स्वीकार है, परन्तु मैं निश्चय ही सागरदत्त के घर नहीं जाऊँगा।' ५८–तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे कुड्डतरिए सागरस्स एयमझें निसामेइ, निसामित्ता लज्जिए विलीए विड्डे जिणदत्तस्स गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमालियं दारियं सहावेइ, सद्दावित्ता अंके निवेसेइ, निवेसित्ता एवं वयासी 'किं णं तव पुत्ता ! सागरएणं दारएणं मुक्का! अहं णं तुमं तस्स दाहामि जस्स णं तुमं इट्ठा जाव मणामा भविस्ससि' त्ति सूमालियं दारियं ताहि इटाहि वग्गूहि समासासेइ, समासासित्ता पडिविसज्जेइ। उस समय सागरदत्त सार्थवाह ने दीवार के पीछे से सागर पुत्र के इस अर्थ को सुन लिया। सुनकर वह ऐसा लज्जित हुया कि धरती फट जाय तो मैं उसमें समा जाऊँ / वह जिनदत्त के घर से बाहर निकल आया। निकलकर अपने घर आया / घर आकर सुकुमालिका पुत्री को बुलाया और उसे अपनी गोद में बिठलाया। फिर उसे इस प्रकार कहा----- _ 'हे पुत्री ! सागर दारक ने तुझे त्याग दिया तो क्या हो गया ? अब तुझे मैं ऐसे पुरुष को दूगा, जिसे तू इष्ट, कान्त. प्रिय और मनोज्ञ होगी।' इस प्रकार कहकर सुकुमालिका पुत्री को इष्ट वाणी द्वारा ग्राश्वासन दिया। ग्राश्वासन देकर उसे विदा किया। सुकुमालिका का पुनर्विवाह ५९-तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे अन्नया उपि आगासतलगंसि सुहनिसण्णे रायमग्गं आलोएमाणे आलोएमाणे चिट्ठइ / तए णं से सागरदत्ते एग महं दमगपुरिसं पासइ, दंडिखंडनिवसणं खंडमल्लग-खंडघडगहत्थगयं फुट्टहडाहडसीसं मच्छियासहस्सेहि जाव अग्निज्जमाणमग्गं / तत्पश्चात् सागरदत्त सार्थवाह किसी समय ऊपर भवन की छत पर सुखपूर्वक बैठा हुया बार-बार राजमार्ग को देख रहा था / उस समय सागरदत्त ने एक अत्यन्त दीन भिखारी पुरुष को देखा / वह साँधे हुए टुकड़ों का वस्त्र पहने था / उसके हाथ में सिकोरे का टुकड़ा और पानी के घड़े का टुकड़ा था / उसके बाल बिखरे हुए....अस्तव्यस्त थे। हजारों मक्खियाँ उसके मार्ग का अनुसरण कर रही थीं-उसके पीछे भिनभिनाती हुई उड़ रही थीं। ६०-तए णं से सागरदत्ते कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी--'तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! एयं दमगपुरिसं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पलोभेह, पलोभित्ता गिहं अणुप्पवेसेह, अणुप्पवेसित्ता खंडगमल्लगं खंडघडगं च से एगते एडेह, एडित्ता अलंकारियकम्मं कारेह, कारिता हणयं कयबलिकम्मं जाव सवालंकारविभूसियं करेह, करित्ता मणुण्णं असणं पाणं खाइमं साइमं भोयावेह, भोयावित्ता मम अंतियं उवणेह / ' Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् सागरदत्त ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर उनसे कहा--'देवानुप्रियो! तुम जानो और उस द्रमक पुरुष (भिखारी) को विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का लोभ दो। लोभ देकर घर के भीतर लामो / भीतर लाकर सिकोरे और घड़े के टुकड़े को एक तरफ फैक दो / फैक कर आलंकारिक कर्म (हजामत आदि विभूषा) करायो / फिर स्नान करवाकर, बलिकर्म करवा कर, यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित करो। फिर मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य भोजन जिमायो / भोजन जिमाकर मेरे निकट ले आना।' * ६१-तए णं कोडुबियपुरिसा जाव पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तं दमग असणं पाणं खाइमं साइमं उवप्पलोभेति, उपप्पलोभित्ता सयं गिहं अणुप्पवेसेंति, अणुप्पवेसित्ता तं खंडमल्लग खंडघडगं च तस्स दमगपुरिसस्स एगते एडेति / तए णं से दमगे तं खंडमल्लगंसि खंडघडगंसि य एगते एडिज्जमाणंसि महया महया सद्देणं आरसइ। तब उन कौटम्बिक पुरुषों ने सागरदत्त की आज्ञा अंगीकार की। अंगीकार करके वे उस भिखारी पुरुष के पास गये / जाकर उस भिखारी को अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन का प्रलोभन दिया। प्रलोभन देकर उसे अपने घर में ले पाए / लाकर उसके सिकोरे के टुकड़े को तथा घड़े के ठीकरे को एक तरफ डाल दिया। सिकोरे का टुकड़ा और धड़े का टुकड़ा एक जगह डाल देने पर वह भिखारी जोर-जोर से आवाज करके रोने-चिल्लाने लगा। (क्योंकि वही उसका सर्वस्व था / ) ६२-तए णं से सागरदत्ते तस्स दमगपुरिसस्स तं महया महया आरसियसई सोच्चा निसम्म कोडुबियपुरिसे एवं बयासी-'कि णं देवाणुप्पिया! एस दमगपुरिसे महया महया सद्देणं आरसइ ?' तए णं ते कोडुबियपुरिसा एवं वयासी.--'एस गं सामी ! तंसि खंडमल्लगंसि खंडघडगंसि य एगते एडिज्जमाणंसि महया महया सद्देणं आरसइ / ' तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे ते कोडुबियपुरिसे एवं क्यासी-'मा णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! एयस्स दमगस्त तं खंडं जाव एडेह, पासे ठवेह, जहा णं पत्तियं भवइ / ' ते वि तहेव ठविति। तत्पश्चात् सागरदत्त ने उस भिखारी पुरुष के ऊँचे स्वर से चिल्लाने का शब्द सुनकर और समझकर कौटुम्बिक पुरुषों को कहा-'देवानुप्रियो ! यह भिखारी पुरुष क्यों जोर-जोर से चिल्ला रहा है ?' तब कौटुम्बिक पुरुषों ने कहा- 'स्वामिन् ! उस सिकोरे के टुकड़े और घट के ठीकरे को एक ओर डाल देने के कारण वह जोर-जोर से चिल्ला रहा है।' तब सागरदत्त सार्थवाह ने उन कौटुम्बिक पुरुषों से कहा---'देवानुप्रियो ! तुम उस भिखारी के उस सिकोरे और घड़े के खंड को एक अोर मत डालो, उसके पास रख दो, जिससे उसे प्रतीति हो-विश्वास रहे / ' यह सुनकर उन्होंने वे टुकड़े उसके पास रख दिए। ६३-तए णं ते कोडुबियपुरिसा तस्स दमगस्स अलंकारियकम्मं करेंति, करिता सयपागसहस्सपागेहि तेल्लेहि अभंगेति, अभंगिए समाणे सुरभिगंधुबट्टणेणं गायं उट्टिति उव्यट्टित्ता उसिणोदगगंधोदएणं ण्हाणेति, सीतोदगेणं हाणेति, हाणित्ता पम्हलसुकुमालगंधकासाईए गायाई Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [415 लूहंता, लूहित्ता हंसलक्खणं पट्टसाडगं परिहेंति, परिहित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेंति, करित्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं भोयाति भोयावित्ता सागरदत्तस्स उवणेति / तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उस भिखारी का अलंकारकर्म (हजामत आदि) कराया / फिर शतपाक और सहस्रपाक (सौ या हजार मोहरें खर्च करके या सौ या हजार औषध डालकर बनाये गये) तेल से अभ्यंगन (मर्दन) किया / अभ्यंगन हो जाने पर सुवासित गंधद्रव्य के उबटन से उसके शरीर का उबटन किया। फिर उष्णोदक, गंधोदक और शीतोदक से स्नान कराया। स्नान करवाकर बारीक और सुकोमल गंधकाषाय वस्त्र से शरीर पौंछा। फिर हंस लक्षण (श्वेत) वस्त्र पहनाया / वस्त्र पहनाकर सर्व अलंकारों से विभूषित किया / विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन कराया। भोजन के बाद उसे सागरदत्त के समीप ले गए / ग ६४-तए णं सागरदत्ते सूमालियं दारियं ण्हायं जाव सव्वालंकारविभूसियं करित्ता तं दमगपुरिसं एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! मम धूया इट्ठा, एयं च णं अहं तव भारियत्ताए दलामि भद्दियाए भद्दओ भविज्जासि / तत्पश्चात् सागरदत्त ने सुकुमालिका दारिका को स्नान कराकर यावत् समस्त अलंकारों से अलंकृत करके, उस भिखारी पुरुष से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! यह मेरी पुत्री मुझे इष्ट है। इसे मैं तुम्हारी भार्या के रूप में देता हूँ। तुम इस कल्याणकारिणी के लिए कल्याणकारी होना / ' पुनः परित्याग ६५–तए णं से दमगपुरिसे सागरदत्तस्स एयमझें पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धि वासघरं अणुपविसइ, सूमालियाए दारियाए सद्धि तलिगंसि निवज्जइ / तए णं से दमगपुरिसे सूमालियाए इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ, सेसं जहा सागरस्स जाव सयणिज्जाओ अब्भुढेइ, अब्भुद्वित्ता वासघराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता खंडमल्लगं खंडघडं च गहाय मारामुक्के विव काए जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। तए णं सा सूमालिया जाव 'गए णं से दमगपुरिसे' ति कटु ओह्यमणसंकप्पा जाव झियायइ। उस द्रमक (भिखारी) पुरुष ने सागरदत्त की यह बात स्वीकार कर ली / स्वीकार करके सुकुमालिका दारिका के साथ वासगृह में प्रविष्ट हुआ और सुकुमालिका दारिका के साथ एक शय्या में सोया। उस समय उस द्रमक पुरुष ने सुकुमालिका के अंगस्पर्श को उसी प्रकार अनुभव किया। शेष वृत्तान्त सागर दारक के समान समझना चाहिए / यावत् वह शय्या से उठा। उठ कर शयनागार से बाहर निकला। बाहर निकलकर अपना वही सिकोरे का टुकड़ा और घड़े का टुकड़ा ले करके जिधर से आया था, उधर ही ऐसा चला गया मानो किसी कसाईखाने से मुक्त हुआ हो या मारने वाले पुरुष से छुटकारा पाकर काक भागा हो / ___ 'वह द्रमक पुरुष चल दिया / ' यह सोचकर सुकुमालिका भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता करने लगी। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा ६६-तए णं सा भद्दा कल्लं पाउपभायाए दासचेडिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासो,--जाव सागरदत्तस्स एयमट्ठ निवेदेइ / तए णं से सागरदत्ते तहेव संभंते समाणे जेणेव वासहरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता एवं क्यासी-'अहो णं तुमं पुत्ता ! पुरापोराणाणं जाव [दुच्चिण्णाणं दुष्पराकंताणं कडाण पावाणं कम्माणं पावं फलवित्तिविसेसं] पच्चणुब्भवमाणी विहरसि, तं मा गं तुमं पुत्ता! ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहि, तुम णं पुत्ता ! मम महाणसंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जहा पोट्टिला जाव परिभाएमाणो विहराहि / ' तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने दूसरे दिन प्रभात होने पर दासचेटी को बुलाया / बुलाकर पूर्ववत् कहा—सागरदत्त के प्रकरण में कथित दातौन-पानी ले जाने आदि का वृत्तान्त यहाँ जानना चाहिए / यहाँ तक कि दासचेटी ने सागरदत्त सार्थवाह के पास जाकर यह अर्थ निवेदन किया। तब सागरदत्त उसी प्रकार संभ्रान्त होकर वासगृह में पाया / आकर सुकुमालिका को गोद में बिठलाकर कहने लगा—'हे पुत्री ! तू पूर्वजन्म में किये हिंसा आदि दुष्कृत्यों द्वारा उपार्जित पापकर्मों का फल भोग रही है / अतएव बेटी ! भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता मत कर / हे पुत्री ! मेरी भोजनशाला में तैयार हुए विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार को.--पोट्टिला की तरह कहना चाहिएयावत् श्रमणों आदि को देती हुई रह / सुकुमालिका को दानशाला ६७-तए णं सा सूमालिया दारिया एयमझें पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता महाणसंसि विपुलं असणं पाणं खाडम जाव दलमाणी विहरड / तेणं कालेणं तेणं समएणं गोवालियाओ अज्जाओ बहुस्सुयाओ एवं जहेव तेर्यालणाए सुव्वयाओ तहेव समोसढाओ, तहेव संघाडओ जाव अणुपविठे, तहेव जाव सूमालिया पडिलाभित्ता एवं वयासी-'एवं खलु अज्जाओ ! अहं सागरस्स अणिट्ठा जाव अमणामा, नेच्छइ णं सागरए मम नाम वा जाव परिभोगं वा, जस्स जस्स वि य णं दिज्जामि तस्स तस्स वि य णं अणिट्ठा जाव अमणामा भवामि, तुब्भे य णं अज्जाओ ! बहुनायाओ, एवं जहा पोटिला जाव उवलद्धे जेणं अहं सागरस्स दारगस्स इट्ठा कंता जाव भवेज्जामि।' तब सुकुमालिका दारिका ने यह बात स्वीकार की। स्वीकार करके भोजनशाला में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार देती-दिलाती हुई रहने लगी। उस काल और उस समय में गोपालिका नामक बहुश्रुत अार्या, जैसे तेतलिपुत्र नामक अध्ययन में सुव्रता साध्वी के विषय में कहा है, उसी प्रकार पधारी / उसी प्रकार उनके संघाड़े ने यावत् सुकुमालिका के घर में प्रवेश किया। उसी प्रकार सुकुमालिका ने यावत् आहार वहरा कर इस प्रकार कहा-'हे पार्यायो ! मैं सागर के लिए अनिष्ट हूँ यावत् अमनोज्ञ हूँ। सागर मेरा नाम भी नहीं सुनना चाहता, यावत् परिभोग भी नहीं चाहता। जिस-जिस को भी मैं दी गई, उसी-उसी को अनिष्ट यावत् अमनोज्ञ हुई हूँ। पार्यायो ! आप बहुत ज्ञानवाली हो। इस प्रकार पोट्टिला ने जो कहा था, वह सब यहां भी जानना चाहिए / यहाँ तक कि आपने कोई मंत्र-तंत्र आदि प्राप्त किया है, जिससे मैं सागर दारक को इष्ट कान्त यावत् प्रिय हो जाऊँ? 1. देखिए, तेतालपुत्र अध्ययन 14 2. देखिए, तेतलिपुत्र अध्ययन Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [ 417 दीक्षाग्रहण ६८-अज्जाओ तहेव भणंति, तहेव साविया जाया, तहेव चिता, तहेव सागरदत्तं सत्थवाहं आपुच्छइ, जाव गोवालियाणं अंतिए पब्वइया। तए गं सा सूमालिया अज्जा जाया ईरियासमिया जाव बंभयारिणी बहूहिं चउत्थछट्ठम जाब विहरइ। प्रार्यानों ने उसी प्रकार-सुव्रता की प्रार्याओं के समान-उत्तर दिया / अर्थात् उन्होंने कहा कि ऐसी बात सुनना भी हमें नहीं कल्पता तो फिर उपदेश करने- इष्ट होने का उपाय बताने की तो बात ही दूर रही / तब वह उसी प्रकार (पोट्टिला की भांति) श्राविका हो गई। उसने उसी प्रकार दीक्षा अंगीकार करने का विचार किया और उसी प्रकार सागरदत्त सार्थवाह से दीक्षा की आज्ञा ली। यावत् वह गोपालिका आर्या के निकट दीक्षित हुई। तत्पश्चात् वह सुकुमालिका आर्या हो गई। ईर्यासमिति से सम्पन्न यावत् ब्रह्मचारिणी हुई और बहुत-से उपवास, बेला, तेला आदि की तपस्या करती हुई विचरने लगी। ६९-तए णं सा सूमालिया अज्जा अन्नया कयाइ जेणेव गोवालियाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'इच्छामि णं अज्जाओ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया सभाणी चंपाओ बहिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामंते छठंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सूराभिमुही आयावेमाणी विहरित्तए।' / तत्पश्चात् सुकुमालिका आर्या किसी समय, एक बार गोपालिका आर्या के पास गई। जाकर उन्हें वन्दन किया, नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'हे आर्या (गुरुणीजी)! मैं आपकी आज्ञा पाकर चंपा नगरी से बाहर, सुभूमिभाग उद्यान से न बहुत दूर और न बहुत समीप के भाग में बेले-बेले का निरन्नर तप करके, सूर्य के सन्मुख अातापना लेती हुई विचरना चाहती हूँ।' ७०–तए णं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं एवं क्यासी---'अम्हे णं अज्जे ! समणीओ निग्गंथीओ ईरियासमियाओ जाव गुत्तबंभचारिणीओ, नो खलु अम्हं कप्पइ बहिया गामस्स सन्निवेसस्स वा छठंछठेणं जाव [अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सूराभिमुहीणं आयावेमाणीणं] विहरित्तए / कप्पइ णं अम्हं अंतो उवस्सयस्स वइपरिक्खित्तस्त संघाडिपडिबद्धियाए णं समतलपइयाए आयावित्तए।' __तब उन गोपालिका आर्या ने सुकुमालिका प्रार्या से इस प्रकार कहा—'हे आर्य ! हम निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ हैं, ईर्यासमिति वाली यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी हैं। अतएव हमको गांव यावत् सनिवेश (वस्ती) से बाहर जाकर बेले-वेले की तपस्या करके, सूर्याभिमुख होकर आतापना लेते हुए विचरना नहीं कल्पता। किन्तु वाड़ से घिरे हुए उपाश्रय के अन्दर ही, संघाटी (वस्त्र) से शरीर को प्राच्छादित करके या साध्वियों के परिवार के साथ रहकर तथा पृथ्वी पर दोनों पदतल समान रख कर आतापना लेना कल्पता है।' ७१-तए णं सा सूमालिया गोवालियाए अज्जाए एयमठं नो सद्दहइ, नो पत्तियइ, नो रोएइ, एयमढें असद्दहमाणी अपत्तियमाणी अरोएमाणी सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामंते छठेछट्टेणं जाव विहरइ। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418] [ ज्ञाताधर्मकथा तब सुकुमालिका को गोपालिका आर्या की इस बात पर श्रद्धा नहीं हुई, प्रतीति नहीं हुई, रुचि नहीं हई। वह सुभमिभाग उद्यान से कुछ समीप में निरन्तर बेले-बेले का तप करती हई यावत आतापना लेती हुई विचरने लगी। सुकुमालिका का निदान ___७२-तत्थ णं चंपाए नयरीए ललिया नाम गोट्ठी परिवसइ नरवइदिण्णवि (प) यारा, अम्मापिइनिययनिप्पिवासा, वेसविहारकनिकेया, नाणाविहअविणयप्पहाणा अट्टा जाव अपरिभूया। चम्पा नगरी में ललिता (क्रीडा में संलग्न रहने वाली) एक गोष्ठी (टोली) निवास करती थी। राजा ने उसे इच्छानुसार विचरण करने की छूट दे रक्खी थी। वह टोली माता-पिता आदि स्वजनों की परवाह नहीं करती थी / वेश्या का घर ही उसका घर था। वह नाना प्रकार का अविनय (अनाचार) करने में उद्धत थी, वह धनाढय लोगों की टोली थी और यावत् किसी से दबती नहीं थी अर्थात् कोई उसका पराभव नहीं कर सकता था। ७३-तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामं गणिया होत्था सुकुमाला जहा अंड-णाए। तए णं तीसे ललियाए गोट्ठीए अन्नया पंच गोटिल्लपुरिसा देवदत्ताए गणियाए सद्धि सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरि पच्चणुभवमाणा विहरति / तत्थ गं एगे गोदिल्लपुरिसे देवदत्तं गणियं उच्छंगे धरइ, एगे पिट्ठओ आयवत्तं धरेइ, एगे पुष्फपूरयं रएइ, एगे पाए रएइ, एगे चामरुक्खेवं करेइ। उस चम्पा नगरी में देवदत्ता नाम की गणिका रहती थी। वह सुकुमाल थी / (तीसरे) अंडक अध्ययन के अनुसार उसका वर्णन समझ लेना चाहिए। एक बार उस ललिता गोष्ठी के पाँच गोष्ठिक पुरुष देवदत्ता गणिका के साथ, सुभूमिभाग उद्यान की लक्ष्मी (शोभा) का अनुभव कर रहे थे। उनमें से एक गोष्ठिक पुरुष ने देवदत्ता गणिका को अपनी गोद में बिठलाया, एक ने पीछे से छत्र धारण किया, एक ने उसके मस्तक पर पुष्पों का शेखर रचा, एक उसके पैर (महावर से) रंगने लगा, और एक उस पर चामर ढोरने लगा। ७४-तए णं सा सूमालिया अज्जा देवदत्तं गणियं पंचहि गोदिल्लपुरिसेहिं सद्धि उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुजमाणि पासइ, पासित्ता इमेयारूवे संकप्पे समुष्पज्जित्था—'अहो णं इमा इत्थिया पुरापोराणाणं जाव [सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं कडाण कल्लाणाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणी] विहरइ, तं जइ णं केइ इमस्स सुचरियस्स तवनियमबंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि, तो णं अहमवि आगमिस्सेणं भवग्गहणेणं इमेयारूवाइं उरालाई जाव [माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणी] विहरिज्जामि' त्ति कटु नियाणं करेइ, करित्ता आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ। उस सुकुमालिका आर्या ने देवदत्ता गणिका को पाँच गोष्ठिक पुरुषों के साथ उच्चकोटि के मनुष्य संबंधी कामभोग भोगते देखा / देखकर उसे इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हुआ—'अहा ! यह स्त्री पूर्व में प्राचरण किये हुए शुभ कर्मों का फल अनुभव कर रही है / सो यदि अच्छी तरह से आचरण किये गये इस तप, नियम और ब्रह्मचर्य का कुछ भी कल्याणकारी फल-विशेष हो, तो मैं भी आगामी Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [ 419 भव में इसी प्रकार के मनुष्य संबंधी कामभोगों को भोगती हुई विचरूं। उसने इस प्रकार निदान किया / निदान करके आतापनाभूमि से वापिस लौटी / सुकुमालिका की बकुशता ७५-तए णं सा सूमालिया अज्जा सरीरबउसा जाया यावि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेइ, पाए धोवेइ, सीसं धोवेइ, मुहं धोवेइ, थणंतराई धोवेइ, कक्खंतराइं धोवेइ, गोज्झंतराई धोवेइ, जत्थ णं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ, तत्थ वि य णं पुवामेव उदएणं अब्भुक्खइत्ता तओ पच्छा ठाणं सेज्जं वा चेएइ। ___ तत्पश्चात् वह सुकुमालिका आर्या शरीरबकुश हो गई, अर्थात् शरीर को साफ-सुथरा-सुशोभन रखने में आसक्त हो गई / वह बार-बार हाथ धोती, पैर धोती, मस्तक धोती, मुंह धोती, स्तनान्तर (छाती) धोती, बगलें धोती तथा गुप्त अंग धोती। जिस स्थान पर खड़ी होती या कायोत्सर्ग करती, सोती, स्वाध्याय करतो, वहां भी पहले ही जमीन पर जल छिड़कती थी और फिर खड़ी होती, कायोत्सर्ग करती, सोती या स्वाध्याय करती थी। ७६-तए णं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं एवं बयासी-'एवं खलु पए! अज्जे! अम् समणीओ निगंथाओ ईरियासमियाओ जाव बंभचेरधारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं सरीरबाउसियाए होत्तए, तुमं च णं अज्जे ! सरीरबाउसिया अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवसि जाव चेएसि, तं तुमं णं देवाणुप्पिए ! तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवज्जाहि / ' तब उन गोपालिका प्रार्या ने सूकुमालिका आर्या से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! हम निर्ग्रन्थ साध्वियाँ हैं, ईर्यासमिति से सम्पन्न यावत् ब्रह्मचारिणी हैं। हमें शरीरबकुश होना नहीं कल्पता, किन्तु हे प्रायें ! तुम शरीरबकुश हो गई हो, बार-बार हाथ धोती हो, यावत् फिर स्वाध्याय आदि करती हो / अतएव देवानुप्रिये ! तुम बकुशचारित्र रूप स्थान की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित्त अंगीकार करो।' ७७-तए णं सूमालिया गोवालियाणं अज्जाणं एयमझें नो आढाइ, नो परिजाणइ, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरइ / तए णं ताओ अज्जाओ सूमालियं अज्ज अभिक्खणं अभिक्खणं अभिहीलंति जाव [निर्देति खिसेति गरिहंति] परिभवंति, अभिक्खणं अभिक्खणं एयमढं निवारेति / तब सुकुमालिका आर्या ने गोपालिका प्रार्या के इस अर्थ (कथन) का आदर नहीं किया, उसे अंगीकार नहीं किया / वरन् अनादर करती हुई और अस्वीकार करती हुई उसी प्रकार रहने लगी। तत्पश्चात् दूसरी पार्याएँ सुकुमालिका आर्या की बार-बार अवहेलना करने लगी, यावत् [निन्दा करने लगीं, खीजने लगीं, गर्दी करने लगीं] अनादर करने लगी और बार-बार इस अनाचार के लिए उसे रोकने लगी। सुकुमालिका का पृथक् बिहार ७८-तए णं तीसे सूमालियाए समणीहि निग्गंथीहि होलिज्जमाणीए जाव वारिज्जमाणीए इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जित्था-'जया णं अहं अगारवासमझे वसामि, तया णं अहं Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 ] [ ज्ञाताधर्मकथा अप्पवसा, जया णं अहं मुडे भवित्ता पब्वइया, तया णं अहं परवसा, पुद्धि च णं ममं समणीओ आढायंति, इयाणि नो आढायंति, तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए गोवालियाणं अंतियाओ पडिणिक्खमित्ता पाडिएक्कं उवस्सगं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संहिता कल्लं पाउपभायाए गोवालियाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिमिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता पाडिएक्कं उवस्सगं उवसंपज्जित्ता णं बिहरइ / निर्ग्रन्थ श्रमणियों द्वारा अवहेलना की गई और रोकी गई उस सुकुमालिका के मन में इस प्रकार का विचार यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुअा-'जब मैं गृहस्थवास में वसती थी, तब मैं स्वाधीन थी। जब मैं मुडित होकर दीक्षित हई तब मैं पराधीन हो गई। पहले ये श्रमणियाँ मेरा आदर करती थीं किन्तु अब आदर नहीं करती हैं। अतएव कल प्रभात होने पर गोपालिका के पास से निकलकर, अलग उपाश्रय (स्थान) में जा करके रहना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा,' उसने ऐसा विचार किया। विचार करके कल (दूसरे दिन) प्रभात होने पर गोपालिका आर्या के पास से निकल गई / निकलकर अलग उपाश्रय में जाकर रहने लगी। निधन : स्वर्गप्राप्ति ७९-तए णं सा सूमालिया अज्जा अणोहट्टिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेइ, जाव' चेएइ, तत्थ वि य णं पासत्था, पासथविहारी, ओसण्णा ओसण्णविहारी, कुसोला कुसोलविहारी संसत्ता, संमत्तविहारी बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ, अद्धमासियाए संलेहणाए तस्स ठाणस्स अणालोइय-अपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे अण्णयरंसि विमाणंसि देगणियत्ताए उववण्णा। तत्थेगइयाणं देवीणं नव पलिओवमाइं ठिई पण्णता, तत्थ णं सूमालियाए देवीए नव पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता। ___ तत्पश्चात् कोई हटकने मना करने वाला न होने से एवं रोकने वाला न होने से सुकुमालिका स्वच्छंदबुद्धि होकर बार-बार हाथ धोने लगी यावत् जल छिड़ककर कायोत्सर्ग प्रादि करने लगी। तिस पर भी वह पार्श्वस्थ अर्थात् शिथिलाचारिणी हो गई ! पावस्थ की तरह विहार करने-रहने लगी / वह अवसन्न हो गई अर्थात् ज्ञान दर्शन और चारित्र के विषय में आलसी हो गई और आलस्यमय विहार वाली हो गई / कुशीला अर्थात् अनाचार का सेवन करने वाली और कुशीलों के समान व्यवहार करने वाली हो गई / संसक्ता अर्थात् ऋद्धि रस और साता रूप गौरवों में प्रासक्त और संसक्त विहारिणी हो गई / इस प्रकार उसने बहुत वर्षों तक साध्वी-पर्याय का पालन किया / अन्त में अर्ध मास की संलेखना करके, अपने अनुचित प्राचरण की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल-मास में काल करके, ईशान कल्प में, किसी विमान में देवगणिका के रूप में उत्पन्न हुई / वहाँ किन्हीं-किन्हों देवियों की नौ पल्योपम की स्थिति कही गई है / सुकुमालिका देवी की भी नौ पल्योपम की स्थिति हुई। द्रौपदी-कथा ८०--तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएसु कंपिल्लपुरे 1. अ. 16 सूत्र 75. Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी] [ 421 नाम नगरे होत्था। वन्नओ। तत्थ णं दुवए नाम राया होत्था, वन्नओ। तस्स णं चुलणी देवी, धटुजण्णे कुमारे जवराया। उस काल में और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरतक्षेत्र में पांचाल देश में काम्पिल्यपुर नामक नगर था। उसका वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार कहना चाहिए। वहाँ द्रुपद राजा था। उसका वर्णन भी औपपातिकसूत्रानुसार कहना चाहिए / द्रुपद राजा की चुलनी नामक पटरानी थी और धृष्टद्युम्न नामक कुमार युवराज था / द्रौपदी का जन्म ___८१-तए णं सा सूमालिया देवी ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव [ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं] चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दोवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएसु कंपिल्लपुरे नयरे दुपयस्स रण्णो चुलणीए देवीए कुच्छिसि दारियत्ताए पच्चायाया। तए णं सा चुलणी देवी नवण्हं मासाणं जाव दारियं पयाया। सुकुमालिका देवी उस देवलोक से, आयु भव और स्थिति को समाप्त करके यावत् देवीशरीर का त्याग करके इसी जम्बूद्वीप में, भारत वर्ष में, पंचाल जनपद में, काम्पिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की चुलनी रानी की कख में लड़की के रूप में उत्पन्न हुई। तत्पश्चात् चलनी देवी ने नौ मास पूर्ण होने पर यावत् पुत्री को जन्म दिया। नामकरण ___८२-तए णं तीसे दारियाए निव्वत्तवारसाहियाए इमं एयारूवं नामधेज्ज-जम्हा णं एसा दारिया दुवयस्स रण्णो धूया चुलणीए देवीए अत्तया, तं होउ णं अम्हं इमीसे दारियाए नामधिज्जे दोवई / तए णं तीसे अम्मापियरो इमं एयारूवं गुण्णं गुणनिष्फन्नं नामधेज्ज करिति--'दोबई'। तत्पश्चात् बारह दिन व्यतीत हो जाने पर उस बालिका का ऐसा नाम रक्खा गया--'क्योंकि यह बालिका द्रुपद राजा की पुत्री है और चुलनी रानी की आत्मजा है, अतः हमारी इस बालिका का नाम 'द्रौपदी' हो / तब उसके माता-पिता ने इस प्रकार कह कर उसका गुण वाला एवं गुणनिष्पन्न नाम 'द्रौपदी' रक्खा। ८३-तए णं सा दोवई दारिया पंचधाइपरिग्गहिया जाव गिरिकंदरमल्लीण इव चंपगलया निवायनिव्वाघायंसि सुहंसुहेणं परिवड्ढइ / तए णं सा दोवई रायवरकन्ना उम्मुक्कबालभावा जाव' उक्किटुसरीरा जाया यावि होत्था / तत्पश्चात् पाँच धायों द्वारा ग्रहण की हुई वह द्रौपदी दारिका पर्वत की गुफा में स्थित वायु आदि के व्याघात से रहित चम्पकलता के समान सुखपूर्वक बढ़ने लगी। वह श्रेष्ठ राजकन्या बाल्यावस्था से मुक्त होकर यावत् क्रमशः यौवनावस्था को प्राप्त हुई, समझदार हो गई, उत्कृष्ट रूप, यौवन एवं लावण्य से सम्पन्न तथा उत्कृष्ट शरीर वाली भी हो गई। 1. अ. 16. सूत्र 36. -. . . . . . ... - --- Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422] [ ज्ञाताधर्मकथा ८४-तए णं तं दोवई रायवरकन्नं अण्णया कयाइ अंतेउरियाओ व्हायं जाव विभूसियं करेंति, करित्ता दुवयस्स रण्णो पायवंदियं पसंति / तए णं सा दोवई रायवरकन्ना जेणेव दुवए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दुवयस्स रणो पायग्गहणं करेइ / राजवरकन्या द्रौपदी को एक बार अन्तःपुर की रानियों (अथवा दासियों) ने स्नान कराया यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित किया। फिर द्रुपद राजा के चरणों की वन्दना करने के लिए उसके पास भेजा / तब श्रेष्ठ राजकुमारी द्रौपदी द्रुपद राजा के पास गई। वहां जाकर उसने द्रुपद राजा के चरणों का स्पर्श किया। ८५-तए णं से दुवए राया दोवई दारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता दोवईए रायवरकन्नाए रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य जायविम्हए दोवइं रायवरकन्नं एवं वयासी--'जस्स णं अहं पुत्ता ! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि, तत्थ गं तुमं सुहिया वा दुक्खिया वा भविज्जासि, तए णं ममं जावजीवाए हिययडाहे भविस्सइ, तं णं अहं तव पुत्ता ! अज्जयाए सयंवरं विरयामि, अज्जयाए णं तुम दिण्णसयंवरा, जं णं तुमं सयमेव रायं वा जुवरायं वा वरेहिसि, से णं तव भत्तारे भविस्सइ,' त्ति कटु ताहि इटाहिं जाव आसासेइ, आसासित्ता पडिविसज्जेइ / तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने द्रौपदी दारिका को अपनी गोद में बिठलाया / फिर राजवरकन्या द्रौपदी के रूप, यौवन और लावण्य को देखकर उसे विस्मय हुअा। उसने राजवरकन्या द्रौपदी से कहा-'हे पूत्री ! मैं स्वयं किसी राजा अथवा युवराज की भार्या के रूप में तुझे दूंगा 'गा तो कौन जाने वहाँ तू सुखी हो या दुःखी ? (दुःखी हुई तो) मुझे जिन्दगी भर हृदय में दाह होगा। अतएव हे पुत्री ! मैं आज से तेरा स्वयंवर रचता हूँ। आज से ही मैंने तुझे स्वयंवर में दी। अतएव तू अपनी इच्छा से जिस किसी राजा या युवराज का वरण करेगी, वही तेरा भार होगा। इस प्रकार कहकर इष्ट, प्रिय और मनोज्ञ वाणी से द्रौपदी को आश्वासन दिया। ग्राश्वासन देकर विदा कर दिया। द्रौपदी का स्वयंवर ८६--तए णं से दुवए राया दूयं सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासो-'गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! बारवई नरि, तत्थ णं तुमं कण्हं वासुदेवं, समुद्दविजयपामोक्खे दस दसारे, बलदेवपामुक्खे पंच महावीरे, उग्गसेणपामोक्खे सोलस रायसहस्से, पज्जुण्णपामुक्खाओ अधुट्ठाओ कुमारकोडीओ, संबपामोक्खाओ सद्धि दुद्दन्तसाहस्सीओ, वीरसेणपामुक्खाओ इक्कवीसं बीरपुरिससाहस्सीओ, महसेणपामोक्खाओ छप्पन्नं बलवगसाहस्सीओ, अन्ने य बहवे राईसर-तलवर-माडबियकोडुबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहपभिइओ करयलपरिग्गहिअं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं. विजएणं वद्धावेहि, वद्धावित्ता एवं वयाहि-- तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने दूत बुलवाया। बुलवा कर उससे कहा-देवानुप्रिय ! तुम द्वारवती (द्वारका) नगरी जायो / वहाँ तुम कृष्ण वासुदेव को, समुद्रविजय आदि दस दसारों को, बलदेव आदि पाँच महावीरों को, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजाओं को, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन कोटि कुमारों को, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्तों (उद्धत बलवानों) को, वीरसेन आदि इक्कीस हजार वोर पुरुषों को, महासेन आदि छप्पन हजार बलवान वर्ग को तथा अन्य बहुत-से राजाओं, युवराजों, Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी] [ 423 तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह प्रभति को दोनों हाथ जोड़कर, दसों नख मिला कर मस्तक पर आवर्तन करके, अंजलि करके और 'जय-विजय' शब्द कह कर बधाना-उनका अभिनन्दन करना / अभिनन्दन करके इस प्रकार कहना-- ८७---'एवं खलु देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रण्णो धूयाए चुलणीए देवीए अत्तयाए धट्ठजुष्ण-कुमारस्स भगिणीए दोवईए रायवर-कण्णाए सयंवरे भविस्सइ, तं गं तुन्भे देवाणुप्पिया ! दुवयं रायं अणुगिण्हेमाणा अकालपरिहोणं चेव कंपिल्लपुरे नयरे समोसरह / ' 'हे देवानुप्रियो ! काम्पिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी की प्रात्मजा और राजकुमार धृष्टद्युम्न की भगिनी श्रेष्ठ राजकुमारी द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है। अतएव हे देवानुप्रियो ! आप सब द्रुपद राजा पर अनुग्रह करते हुए, विलम्ब किये बिना-उचित समय परकांपिल्यपुर नगर में पधारना / ' ८८-तए णं से दूए करयल जाव कटु दुवयस्स रण्णो एयमझें विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी --'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उवटुवेह / ' जाव ते वि तहेव उवट्ठति। तत्पश्चात् दूत ने दोनों हाथ जोड़कर यावत् मस्तक पर अंजलि करके द्रुपद राजा का यह अर्थ (कथन) विनय के साथ स्वीकार किया। स्वीकार करके अपने घर आकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुला कर इस प्रकार कहा- 'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटाओं वाला अश्वरथ जोत कर उपस्थित करो।' कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् रथ उपस्थित किया / ___८९--तए णं से दूए हाए जाव अलंकारविभूसियसरीरे चाउरघंटं आसरहं दुरुहइ, दुरुहिता बहूहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव] बद्ध-वम्मिय-कवहिं उप्पीलियसरासण-पट्टिएहि पिणद्धगेविज्जेिहि आविद्ध-विमल-वरचिधपहि] गहियाऽऽउह-पहरणेहिं सद्धि संपरिवुडे कंपिल्लपुरं नयरं मज्झमज्झेणं निम्गच्छइ, निग्गच्छित्ता पंचालजणवयस्स मज्झंमज्झेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता सुरद्वाजणवयस्स मज्झमशेणं जेणेव वारवई नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वारवई नरि मज्झमज्झेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स बाहिरिया उवट्टाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं ठवेइ, ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते पायविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासूदेवे तेणेब उवागच्छड उवागच्छित्ता कण्हं वासुदेवं समुद्दविजयपामुक्खे य दस दसारे जाव बलवगसाहस्स हविजयपामुक्खे य दस दसारे जाव बलवगसाहस्सीओ करयल तं चेव जाव समोसरह / तत्पश्चात् स्नान किये हुए और अलंकारों से विभूषित शरीर वाले उस दूत ने चार घंटाओं वाले अश्व रथ पर आरोहण किया। प्रारोहण करके [अंगरक्षा के लिए कवच धारण करके, धनुष लेकर अथवा भुजाओं पर चर्म की पट्टी बांधकर, ग्रीवारक्षक धारण करके मस्तक पर गाढ़ा बंधा चिह्नपट्ट धारण करके] तैयार हुए अस्त्र-शस्त्रधारी बहुत-से पुरुषों के साथ कांपिल्यपुर नगर के १-अ. 16 सूत्र 87. Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424] [ ज्ञाताधर्मकथा मध्य भाग से होकर निकला / वहाँ से निकल कर पंचाल देश के मध्य भाग में होकर देश की सीमा पर आया। फिर सुराष्ट्र जनपद के बीच में होकर जिधर द्वारवती नगरी थी, उधर चला / चलकर द्वारवती नगरी के मध्य में प्रवेश किया। प्रवेश करके जहाँ कृष्ण वासुदेव को बाहरी सभा थी, वहाँ आया। चार घंटानों वाले अश्वरथ को रोका। रथ से नीचे उतरा / फिर मनुष्यों के समूह से परिवत होकर पैदल चलता हुया कृष्ण वासुदेव के पास पहुँचा / वहाँ पहुँच कर कृष्ण वासुदेव को, समुद्रविजय आदि दस दसारों को यावत् महासेन आदि छप्पन हजार बलवान् वर्ग को दोनों हाथ जोड़ कर द्रुपद राजा के कथनानुसार अभिनन्दन करके यावत् स्वयंवर में पधारने का निमंत्रण दिया / ९०-तए णं से कण्हे वासुदेवे तस्स दूयस्स अंतिए एयमद्रं सोच्चा णिसम्म हट्ट जाव हियए तं दूयं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ / ' तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव उस दूत से यह वृत्तान्त सुनकर और समझकर प्रसन्न हुए, यावत् वे हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए / उन्होंने उस दूत का सत्कार किया, सन्मान किया / सत्कार-सन्मान करने के पश्चात् उसे विदा किया / स्वयंवर के लिए कृष्ण का प्रस्थान ९१-तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! सभाए सुहम्माए सामुदाइयं भेरि तालेहि / ' तए णं से कोडुबियपुरिसे करयल जाव कण्हस्स वासुदेवस्स एयमढे पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए सामुदाइया भेरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सामुदाइयं भेरि महया महया सद्दे णं तालेइ / तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुष को बुलाया / बुला कर उससे कहा-'देवानुप्रिय ! जागो और सुधर्मा सभा में रखी हुई सामुदानिक भेरी बजायो।' तब उस कौटुम्बिक पुरुष ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके कृष्ण वासुदेव के इस अर्थ को अंगीकार किया। अंगीकार करके जहाँ सुधर्मा सभा में सामुदानिक भेरी थी, वहाँ आया / आकर जोर-जोर के शब्द से उसे ताड़न किया। ९२-तए णं ताए सामुदाइयाए भेरीए तालियाए समाणीए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव महसेणपामोक्खाओ छप्पन्नं बलवगसाहस्सीओ व्हाया जाव' विभूसिया जहाविभव-इडि-सक्कारसमुदएणं अप्पेगइया जाव [हयगया एवं गयगया रह-सोया-संदमाणीगया अप्पेगइया] पायविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव कण्हं वासुदेवं जएणं विजएणं वद्धाति / तत्पश्चात् उस सामुदानिक भेरी के ताडन करने पर समुद्रविजय आदि दस दसार यावत् न ग्रादि छप्पन हजार बलवान नहा-धोकर यावत विभषित होकर अपने-अपने वैभव के अनसार ऋद्धि एवं सत्कार के अनुसार कोई-कोई [ अश्व पर आरूढ होकर, कोई-कोई हाथी पर, 1. अ. 16 सूत्र 89 2. अ. 16 सूत्र 86 ---- --- - -. Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [425 शिविका पर, स्यंदमाणी-म्याने पर सवार होकर और कोई-कोई पैदल चल कर जहाँ कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ पहुँचे / पहुँचकर दोनों हाथ जोड़ कर सबने कृष्ण वासुदेव का जय-विजय के शब्दों से अभिनन्दन किया। ९३-तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हयगय जाव [रह-पवरजोहकलियं चउरंगिणि सेनं सण्णाहेह सण्णाहेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / ते वि तहेव] पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही पट्टाभिषेक किये हुए हस्तीरत्न (सर्वोत्तम हाथी) को तैयार करो तथा घोड़ों हाथियों [रथों और उत्तम पदातियों की चतुरंगिणी सेना सज्जित करके मेरी आज्ञा वापिस सौंपो। यह अाज्ञा सुन कर कौटुम्बिक पुरुषों ने तदनुसार कार्य करके प्राज्ञा वापिस सौंपी / ९४--तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समुत्तजाला; कुलाभिरामे जाव (विचित्तमणि-रयणकुट्टिमतले रमणिज्जे ण्हाणमंडवंसि जाणामणि-रयणभत्तिचित्तंसि ण्हाणपीढंसि सुहणिसण्णे सुहोदएहिं गंधोदह पुप्फोदएहि सुद्धोदएहि पुणो पुणो कल्लाणग-पवरमज्जणविहीए मज्जिए) अंजणगिरिकूडसंनिभं गयवई नरवई दुरूढे। तए णं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामुक्खेहि दहि दसारेहिं जाव' अणंगसेणापामुक्खेहि अणेगाहि गणियासाहस्सोहि सद्धि संपरिबुडे सब्बिड्डीए जाव रवेणं वारवई नरि मझमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता सुरद्वाजणवयस्स मज्झमझेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता पंचालजणवयस्स मज्झंमज्झेणं जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव मज्जनगृह (स्नानागार) में गये / मोतियों के गुच्छों से मनोहर [तथा चित्र-विचित्र मणियों और रत्नों के फर्शवाले मनोरम स्नानगृह में, अनेक प्रकार की मणियों और रत्नों की रचना के कारण अद्भुत स्नानपीठ (स्नान करने के पीढ़े) पर सुखपूर्वक आसीन हुए। तत्पश्चात् शुभ अथवा सुखजनक जल से, सुगंधित जल से तथा पुष्प-सौरभयुक्त जल से बार-बार उत्तम मांगलिक विधि से स्नान किया,] स्नान करके विभूषित होकर यावत् अंजनगिरि के शिखर के समान (श्याम और ऊँचे) गजपति पर वे नरपति प्रारूढ हुए। तत्पश्चात कृष्ण वासुदेव समुद्रविजय प्रादि दस दसारों के साथ यावत् अनंगसेना आदि कई हजार गणिकाओं के साथ परिवृत होकर, पूरे ठाठ के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ द्वारवती नगरी के मध्य में होकर निकले / निकल कर सुराष्ट्र जनपद के मध्य में होकर देश की सीमा पर पहुँचे। वहाँ पहुँच कर पंचाल जनपद के मध्य में होकर जिस ओर कांपिल्यपुर नगर था, उसी प्रोर जाने के लिए उद्यत हुए। हस्तिनापुर को दूतप्रेषण ९५-तए णं से दुवए राया दोच्चं दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी----'गच्छ णं तुमं 1. प्र. 16 सूत्र 86 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 ] [ ज्ञाताधर्मकथा देवाणुप्पिया ! हथिणाउरं नगरं, तत्थ णं तुम पंडुरायं सपुतयं-जुहिट्ठिलं भीमसेणं अज्जुणं नउलं सहदेवं, दुज्जोहणं भाइसयसमग्गं गंगेयं विदुरं दोणं जयदहं सउणि कीवं आसत्थामं करयल जाव कटु तहेव समोसरह / ' तत्पश्चात् (प्रथम दूत को द्वारिका भेजने के तुरन्त बाद में) द्रुपद राजा ने दूसरे दूत को बुलाया / बुलाकर उससे कहा---'देवानुप्रिय ! तुम हस्तिनापुर नगर जाओ। वहाँ तुम पुत्रों सहित पाण्डु राजा को-उनके पुत्र युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को, सौ भाइयों समेत दुर्योधन को, गांगेय, विदुर, द्रोण, जयद्रथ, शकुनि, क्लीव (कर्ण) और अश्वत्थामा को दोनों हाथ जोड़कर यावत् मस्तक पर अंजलि करके उसी प्रकार (पहले के समान) कहना, यावत्-समय पर स्वयंवर में पधारिए। ९६-तए णं से दूए एवं वयासी जहा वासुदेवे, नवरं भेरी नस्थि, जाव जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तत्पश्चात् दूत ने हस्तिनापुर जाकर उसी प्रकार कहा जैसा प्रथम दूत ने श्रीकृष्ण को कहा था / तब जैसा कृष्ण वासुदेव ने किया, वैसा ही पाण्डु राजा ने किया / विशेषता यह है कि हस्तिनापुर में भेरी नहीं थी। (अतएव दूसरे उपाय से सब को सूचना देकर और साथ लेकर पाण्डु राजा भी) कांपिल्यपुर नगर की ओर गमन करने को उद्यत हुए। अन्य दूतों का अन्यत्र प्रेषण ९७-एएणेव कमेणं तच्चं दूयं चंपानयरि, तत्थ णं तुम कण्हं अंगरायं, सेल्लं, नंदिरायं करयल तेहेव जाव समोसरह / इसी क्रम से तीसरे दूत को चम्पा नगरी भेजा और उससे कहा--तुम वहाँ जाकर अंगराज कृष्ण को, सेल्लक राजा को और नंदिराज को दोनों हाथ जोड़कर यावत् कहना कि स्वयंवर में पधारिए / ९८-चउत्थं दूयं सुत्तिमई नार, तत्थ णं सिसुपालं दमघोससुयं पंचभाइसयसंपरिवुडं करयल तहेव जाव समोसरह / चौथा दूत शुक्तिमती नगरी भेजा और उसे आदेश दिया-तुम दमघोष के पुत्र और पांच सौ भाइयों से परिवृत शिशुपाल राजा को हाथ जोड़कर उसी प्रकार कहना, यावत् स्वयंवर में पधारिए। ९९--पंचमगं दूयं हस्थिसीसनगरं, तत्थ णं तुमं दमदंतं नाम रायं करयल तहेब जाव समोसरह / __पाँचवां दूत हस्तीशीर्ष नगर भेजा और कहा-तुम दमदंत राजा को हाथ जोड़ कर उसी प्रकार कहना यावत् स्वयंवर में पधारिए / Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्यध्यन : द्रौपदी ] [ 427 १००----छठें दूयं महुरं नरि, तत्थ णं तुम धरं रायं करयल तहेव जाव समोसरह / छठा दूत मथुरा नगरी भेजा। उससे कहा--तुम धर नामक राजा को हाथ जोड़ कर यावत् कहना स्वयंवर में पधारिये / १०१--सत्तमं दूयं रायगिहं नगरं, तत्थ णं तुमं सहदेवं जरासिंधुसुयं करयल तहेव जाव समोसरह / सातवाँ दूत राजगृह नगर भेजा / उससे कहा तुम जरासिन्धु के पुत्र सहदेव राजा को हाथ जोड़कर उसी प्रकार कहना यावत स्वयंवर में पधारिए। १०२–अट्ठमं दूयं कोडिण्णं नयरं, तत्थ तं तुम रुपि भेसगसुयं करयल तहेव जाव समोसरह / आठवां दूत कौण्डिन्य नगर भेजा / उससे कहा-तुम भीष्मक के पुत्र रुक्मी राजा को हाथ जोड़कर उसी प्रकार कहना, यावत् स्वयंवर में पधारो। १०३-नवमं दूयं विराटनगरं तत्थ णं तुमं कोयगं भाउसयसमग्गं करयल तहेव जाव समोसरह / नौवां दूत विराटनगर भेजा। उससे कहा-तुम सौ भाइयों सहित कीचक राजा को हाथ जोड़कर उसी प्रकार कहना, यावत् स्वयंवर में पधारो। १०४–दसमं दूयं अवसेसेसु य गामागरनगरेसु अणेगाई रायसहस्साई जाव समोसरह / दसवां दूत शेष ग्राम, आकर, नगर आदि में भेजा / उससे कहा-तुम वहाँ के अनेक सहस्र राजानों को उसी प्रकार कहना, यावत् स्वयंवर में पधारो। १०५-तए णं से दूए तहेव निग्गच्छइ, जेणेव गामागर जाव समोसरह / तत्पश्चात् वह दूत उसी प्रकार निकला और जहाँ ग्राम, आकर, नगर आदि थे वहाँ जाकर सब राजाओं को उसी प्रकार कहा-यावत् स्वयंवर में पधारो। १०६--तए णं ताई अणेगा रायसहस्सा तस्स दूयस्स अंतिए एयमझें सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठा तं दूयं सक्कारेंति, संमाणेति, सक्कारिता संमाणित्ता पडिविसज्जिति / तत्पश्चात् अनेक हजार राजाओं ने उस दूत से यह अर्थ-संदेश सुनकर और समझ कर हृष्टतुष्ट होकर उस दूत का सत्कार-सन्मान करके उसे विदा किया / १०७--तए णं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा पत्तेयं पत्तेयं व्हाया संनद्धबद्धवम्मियकवया हत्थिखंधवरगया हयगयरहपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेनाए सद्धि संपरिबुडा महया भडचडगररहपहगरविंदपरिक्खिता सहि सरहिं नगरेहितो अभिनिग्गच्छंति, अभिनिग्गच्छित्ता जेणेवे पंचाले जणवए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् आमंत्रित किए हुए वासुदेव आदि बहुसंख्यक हजारों राजाओं में से प्रत्येक प्रत्येक ने स्नान किया / वे कवच धारण करके तैयार हुए और सजाए हुए श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ हुए / फिर घोड़ों, हाथियों, रथों और बड़े-बड़े भटों के समूह के समूह रूप चतुरंगिणी सेना के साथ अपने-अपने नगरों से निकले / निकल कर पंचाल जनपद की ओर गमन करने के लिए उद्यत हुए / स्वयंवर मंडप का निर्माण १०८-तए णं से दुवए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी-'गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! कंपिल्लपुरे नयरे बहिया गंगाए महानदीए अदूरसामंते एगं महं सयंवरमंडवं करेह अणेगखंभसयसन्निविट्ठ, लीलट्ठियसालभंजियागं' जाव' पच्चप्पिणंति। उस समय द्रुपद राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और कांपिल्यपुर नगर के बाहर गंगा नदी से न अधिक दूर और न अधिक समीप में, एक विशाल स्वयंवर-मंडप बनाओ, जो अनेक सैकड़ों स्तंभों से बना हो और जिसमें लीला करती हुई पुतलियाँ बनी हों। जो प्रसन्नताजनक, सुन्दर, दर्शनीय एवं अतीव रमणीक हो / ' उन कौटुम्बिक पुरुषों ने मंडप तैयार करके प्राज्ञा वापिस सौंपी। आवास-व्यवस्था १०९-तए णं से दुवए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! वासुदेवपामोक्खाणं बहुणं रायसहस्साणं आवासे करेह / ' ते वि करिता पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने फिर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर उनसे कहा'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही वासुदेव वगैरह बहुसंख्यक सहस्रों राजाओं के लिए आवास तैयार करो।' उन्होंने आवास तैयार करके प्राज्ञा वापिस लौटाई / ११०–तए णं दुवए राया वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आगमणं जाणेत्ता पत्तेयं पत्तेयं हत्थिखंघंवरगए जाव परिवुडे अग्धं च पज्जं च गहाय सविड्ढीए कंपिल्लपुराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ताई वासुदेवपामुक्खाई अग्घेण य पज्जेण य सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारित्ता सम्माणित्ता तेसि वासुदेवपामुक्खाणं पत्तेयं पत्तेयं आवासे वियरइ। __ तत्पश्चात् द्रुपद राजा वासुदेव प्रभृति बहुत से राजाओं का आगमन जानकर, प्रत्येक राजा का स्वागत करने के लिए हाथी के स्कंध पर आरूढ होकर यावत् सुभटों के परिवार से परिवृत होकर अर्घ्य (पूजा की सामग्री) और पाद्य (पैर धोने के लिए पानी) लेकर, सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ कांपिल्यपुर से बाहर निकला ! निकलकर जिधर वासुदेव आदि बहुसंख्यक हजारों राजा थे, उधर गया / वहाँ जाकर उन वासुदेव प्रभृति का अर्घ्य और पाद्य से सत्कार-सन्मान किया। सत्कार-सन्मान करके उन वासुदेव आदि को अलग-अलग प्रावास प्रदान किए। 1. अ. 1 सूत्र Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [429 - १११-तए णं ते वासुदेवपामोक्खा जेणेव सया सया आवासा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हत्थिखंहिंतो पच्चोरहंति, पच्चोरुहित्ता पत्तेयं पत्तेयं खंधावारनिवेसं करेंति, करित्ता सए सए आवासे अणुपविसंति, अणुपविसित्ता सएसु सएसु आवासेसु आसणेसु य सयणेसु य सन्निसन्ना य संतुयट्ठा य बहूहि गंधव्वेहि य नाडएहि य उवगिज्जमाणा य उवणच्चिज्जमाणा य विहरंति। तत्पश्चात् वे वासुदेव प्रभृति नृपति अपने-अपने प्रावासों में पहुँचे / पहुँचकर हाथियों के स्कंध से नीचे उतरे / उतर कर सबने अपने-अपने पड़ाव डाले और अपने-अपने प्रावासों में प्रविष्ट हुए / आवासों में प्रवेश करके अपने-अपने आवासों में आसनों पर बैठे और शय्याओं पर सोये / बहुत-से गंधवों से गाने कराने लगे और नट नाटक करने लगे। ११२-तए णं से दुवए राया कंपिल्लपुर नगरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता, विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता, कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च मज्जं च मंसं च सीधुच पसण्णं च सुबहुपुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं च वासुदेवपामोक्खाणं रायसहस्साणं आवासेसु साहरह।' ते वि साहरति / तत्पश्चात् अर्थात् सब आगन्तुक अतिथि राजाओं को यथास्थान ठहरा कर द्रुपद राजा ने काम्पिल्यपुर नगर में प्रवेश किया। प्रवेश करके विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन तैयार करवाया। फिर कौटु म्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा---'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और वह विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम,'सुरा, मद्य, मांस, सीधु और प्रसन्ना तथा प्रचुर पुष्प, वस्त्र, गंध, मालाएँ एवं अलंकार वासुदेव आदि हजारों राजाओं के प्रावासों में ले जायो।' यह सुनकर वे, सब वस्तुएँ ले गये। ११३–तए णं वासुदेवपामुक्खा तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव पसन्नं च आसाएमाणा आसाएमाणा विहरंति, जिभियभुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा आयंता जाव सुहासणवरगया बहूहि गंधव्वेहि जाव विहरति / तब वासुदेव आदि राजा उस विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम यावत् प्रसन्ना का पुनः पुनः प्रास्वादन करते हुए विचरने लगे / भोजन करने के पश्चात् आचमन करके यावत् सुखद प्रासनों पर आसीन होकर बहुत-से गंधों से संगीत कराते हुए विचरने लगे। सुरा, मद्य, सीधु और प्रसन्ना, यह मदिरा की ही जातियाँ हैं / स्वयंवर में सभी प्रकार के राजा और उनके सैनिक प्रादि प्राये थे। द्रपद राजा ने उन सबका उनकी आवश्यक वस्तुओं से सत्कार किया। इससे यह नहीं हए कि कृष्णजी स्वयं मदिरा आदि का सेवन करते थे। यह वर्णन सामान्य रूप से है। कृष्णजी सभी प्रागत राजारों में प्रधान थे, अतएव उनका नामोल्लेख विशेष रूप से हुआ प्रतीत होता है। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 ] [ ज्ञाताधर्मकथा स्वयंवर : घोषणा / ११४–तए णं से दुवए राया पुब्वावरण्हकालसमयंसि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुमे देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे संघाडग जाव पहेसु वासुदेवपामुक्खाण य रायसहस्साणं आवासेसु हथिखंधवरगया महया महया सद्देणं जाव उग्धोसेमाणा उम्घोसेमाणा एवं वदह--‘एवं खलु देवाणुप्पिया! कल्लं पाउप्पभायाए दुवयस्स रण्णो धूयाए, चुलगीए देवीए अत्तयाए, धट्ठजुष्णस्स भगिणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सइ, तं तुम्भे गं देवाणुप्पिया! दुवयं रायाणं अणुगिण्हेमाणा व्हाया जाव विभूसिया हथिखंधवरगया सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहि वीइज्जमाणा हयगयरहपवरजोहकलियाए चउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवडा महया भडचडगरेणं जाव परिक्खित्ता जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता पत्तेयं पत्तेयं नामंकेसु आसणेसु निसीयह, निसीइत्ता दोवई रायवरकण्णं पडिवालेमाणा पाडिवालेमाणा चिट्ठह त्ति घोसणं घोसेह, मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / ' तए णं कोडुबिया तहेव जाव पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने पूर्वापराल काल (सायंकाल) के समय कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर इस प्रकार कहा–'देवानुप्रियो ! तुम जानो और कांपिल्यपुर नगर के शृंगाटक आदि मार्गों में तथा वासुदेव आदि हजारों राजाओं के प्रावासों में, हाथी के स्कंध पर आरूढ होकर, बुलंद आवाज से यावत् बार-बार उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहो—'देवानुप्रियो ! कल प्रभात काल में द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी की आत्मजा और धृष्टद्युम्न की भगिनी द्रौपदी राजवरकन्या का स्वयंवर होगा। अतएव हे देवानुप्रियो ! आप सब द्रुपद राजा पर अनुग्रह करते हुए, स्नान करके यावत विभूषित होकर, हाथी के स्कंध पर आरूढ होकर, कोरंट वक्ष की पुष्पमा को धारण करके, उत्तम श्वेत चामरों से विजाते हुए, घोड़ों, हाथियों, रथों तया बड़े-बड़े सुभटों के समूह से युक्त चतुरंगिणी सेना से परिवृत होकर जहाँ स्वयंवर मंडप है, वहाँ पहुँचें / वहाँ पहुँचकर अलग-अलग अपने नामांकित आसनों पर बैठे और राजवरकन्या द्रौपदी को प्रतीक्षा करें।' इस प्रकार की घोषणा करो और मेरी प्राज्ञा वापिस करो।' तब वे कौटुम्बिक पुरुष इस प्रकार घोषणा करके यावत् राजा द्रुपद की आज्ञा वापिस करते हैं। ११५--तए णं से दुवए राया कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सयंवरमंडवं आसियसंमज्जियोवलित्तं सुगंधवरगंधियं पंचवण्णपुप्फपुजोवयारकलियं कालागरु-पवर-कुदुरुक्क-तुरुक्क जाव' गंधट्टिभूयं मंचाइमंचकलियं करेह / करित्ता वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं पतेयं पत्तेयं नामंकियाई आसणाई अत्थय सेयवत्थ पच्चत्युयाई रएह, रयइत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / ' ते वि जाव पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को पुनः बुलाया / बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम स्वयंवर-मंडप में जाओ और उसमें जल का छिड़काव करो, उसे झाड़ो, लीपो और श्रेष्ठ सुगंधित द्रव्यों से सुगंधित करो। पाँच वर्ण के फलों के समह से व्याप्त करो। कृष्ण अगर, श्रेष्ठ कुदुरुक्क (चीड़ा) और तुरुष्क (लोभान) श्रादि की धूप से गंध की वर्ती (बाट) जैसा कर दो। उसे छत्र Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [431 मंचों (मचानों) और उनके ऊपर मंचों (मचानों) से युक्त करो। फिर वासुदेव आदि हजारों राजाओं के नामों से अंकित अलग-अलग प्रासन श्वेत वस्त्र से आच्छादित करके तैयार करो। यह सब करके मेरी प्राज्ञा बापिस लौटायो।' वे कौटुम्बिक पुरुष भी सब कार्य करके यावत् प्राज्ञा लौटाते हैं। स्वयंवर ११६-तए णं वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा कल्लं पाउप्पभायाए पहाया जाव विभूसिया हत्थिखंधवरगया सकोरंट सेयवरचामराहि हयगय जाव' परिबुडा सब्बिड्डीए जाव रवेणं जेणेव सयंवरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अणुपविसंति, अणुपविसित्ता पत्तेयं पत्तेयं नामंकिएसु आसणेसु निसीयंति, दोवई रायवरकण्णं पडिवालेमाणा चिट्ठति / तत्पश्चात् वासुदेव प्रभृति अनेक हजार राजा कल (दूसरे दिन) प्रभात होने पर स्नान करके यावत् विभूषित हुए / श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुए। उन्होंने कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को धारण किया। उन पर चामर ढोरे जाने लगे / अश्व, हाथी, भटों आदि से परिवत होकर सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ यावत् वाद्यध्वनि के साथ जिधर स्वयंवरमंडप था, उधर पहुँचे / मंडप में प्रविब्ट हुए / प्रविष्ट होकर पृथक्-पृथक् अपने-अपने नामों से अंकित अासनों पर बैठ गये और राजवरकन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करने लगे। ११७---तए गं से दुवए राया कल्लं पहाए जाव विभूसिए हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धारिज्जमाणेणं सेयचामराहि वीइज्जमाणे -गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवडे महया भडचडकर-रहपरिकरविंदपरिक्खित्ते कंपिल्लपुरं मझमज्झेणं निम्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सयंवरमंडवे, जेणेव वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेसि वासुदेवपामुक्खाणं करयल जाव वडावेत्ता कण्णस्स वासुदेवस्स सेयवरचामरं गहाय उववीयमाणे चिट्ठइ। तत्पश्चात् द्रुपद राजा प्रभात में स्नान करके यावत् विभूषित होकर, हाथी के स्कंध पर सवार होकर, कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को धारण करके, अश्वों, गजों, रथों और उत्तम योद्धाओं वाली चतुरंगिणी सेना के साथ तथा अन्य भटों एवं रथों से परिवत होकर कांपिल्यपूर के मध्य से बाहर निकला / निकल कर जहाँ स्वयंवरमंडप था और जहाँ वासुदेव आदि बहुत-से हजारों राजा थे, वहाँ आया। प्राकर उन वासुदेव वगैरह का हाथ जोड़कर अभिनन्दन किया और कृष्ण वासुदेव पर श्रेष्ठ श्वेत चामर ढोरने लगा। ११८–तए णं सा दोवई रायवरकन्ना कल्लं पाउप्पभायाए जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता हाया जाव सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिया जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ, करित्ता जेणेब अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ / उधर वह राजवरकन्या द्रौपदी प्रभात काल होने पर स्नानगृह की ओर गई / वहाँ जाकर 1. अ. 16 सूत्र 114 / Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432] [ ज्ञाताधर्मकथा स्नानगृह में प्रविष्ट हुई। प्रविष्ट होकर उसने स्नान किया यावत् शुद्ध और सभा में प्रवेश करने योग्य मांगलिक उत्तम वस्त्र धारण किये। जिन प्रतिमाओं का पूजन किया। पूजन करके अन्तःपुर में चली गई / * ११९.-तए णं तं दोवई रायवरकन्नं अंतेउरियाओ सव्वालंकारविभूसियं करेंति, कि ते ? वरपायपत्तणेउरा जाव' चेडिया-चक्कवाल-मयहरग-विंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता किड्डावियाए लेहियाए सद्धि चाउग्घंटे आसरहं दुरूहइ / तत्पश्चात अन्तःपुर की स्त्रियों ने राजवरकन्या द्रौपदी को सब अलंकारों से विभूषित किया। किस प्रकार ? पैरों में श्रेष्ठ नूपुर पहनाए, (इसी प्रकार सब अंगों में भिन्न-भिन्न प्राभूषण पहनाए) यावत् वह दासियों के समूह से परिवृत होकर अन्तःपुर से बाहर निकली। बाहर निकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला (सभा) थी और जहाँ चार घंटाओं वाला अश्वरथ था, वहाँ आई / प्राकर क्रीडा *इस पाठ के विषय में वाचनाभेद पाया जाता है। किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में उपलब्ध होने वाला पाठ ऊपर दिया गया है। यह पाठ शीलांकाचार्यकृत टीका में भी वाचनान्तर के रूप में ग्रहण किया गया है। किन्तु कछ अर्वाचीन प्रतियों में जो पाठान्तर पाया जाता है, वह इस प्रकार है: तए णं सा दोबई राजवरकन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणेव उबागच्छद, उवागच्छित्ता ण्हाया कयनलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई बत्थाई पवरपरिहिया मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवामच्छित्ता जिणघरं अणुपविसइ, अणपविसित्ता जिणपडिमाणं आलोए पणामं करेइ, करित्ता लोमहत्थयं परामुसइ, एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अच्चइ, अच्चित्ता तहेव भाणियब्वं जाव धूवं उहइ, उहित्ता वामं जाणु अंचेइ, दाहिणं धरणियलंसि णिवेसेइ णिवेसित्ता तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि नमेड, नमइत्ता ईसि पच्चण्णमइ, करयल जाव कटु एवं वयासी...'नमोऽत्यु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं' वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जिणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छड़। अर्थात् तत्पश्चात् द्रौपदी राजवरकन्या स्नानगृह में गई / वहाँ जाकर उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, मसी तिलक प्रादि कौतुक, दूर्वादिक मंगल और अशुभ की निवृत्ति के अर्थ प्रायश्चित्त किया / शूद्ध और शोभा देने वाले मांगलिक वस्त्र धारण किये। फिर वह स्नानगृह से बाहर निकली। निकल कर जिनगह-जिनचैत्य में गई और उसके भीतर प्रविष्ट हुई। वहाँ जिनप्रतिमानों पर दृष्टि पड़ते ही उन्हें प्रणाम किया। प्रणाम करके मयरपिच्छी ग्रहण की। फिर सूर्याभ देव की भाँति जिनप्रतिमाओं की पूजा की। पूजा करके उसी प्रकार (सूर्याभ देव की तरह) यावत् धूप जलाई / धूप जलाकर बायें घुटने को ऊँचा रक्खा और दाहिने घुटने को पृथ्वीतल पर रखकर मस्तक नमाया / नमाने के बाद मस्तक थोड़ा ऊपर उठाया। फिर दोनों हाथ जोड़ कर यावत मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहा---'अरिहन्त भगवन्तों को यावत् सिद्धपद को प्राप्त जिनेश्वरों को नमस्कार हो।' ऐसा कह कर वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके जिनगह से बाहर निकली। बाहर निकल कर जहाँ अन्त:पुर था, वहाँ प्रागई। 1. प्र. 1 सू० Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [ 433 कराने वाली धाय और लेखिका (लिखने वाली) दासी के साथ उस चार घंटा वाले रथ पर आरूढ़ हुई। १२०-तए णं धट्ठज्जण्णे कुमारे दोवईए कण्णाए सारत्थं करेइ / तए णं सा दोवई रायवरकण्णा कंपिल्लपुरं नयरं मज्झमझेणं जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता किड्डावियाए लेहिगाए य सद्धि सयंवरमंडवं अणुपविसइ, करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु तेसि वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायवरसहस्साणं पणामं करेइ। उस समय धृष्टद्युम्न कुमार ने द्रौपदी कुमारी का सारथ्य किया, अर्थात् सारथी का कार्य किया। तत्पश्चात् राजवरकन्या द्रौपदी कांपिल्यपुर नगर के मध्य में होकर जिधर स्वयंवर-मंडप था, उधर पहुँची। वहाँ पहुँच कर रथ रोका गया और वह रथ से नीचे उतरी / नीचे उतर कर क्रीडा कराने वाली धाय और लेखिका दासी के साथ उसने स्वयंवरमण्डप में प्रवेश किया। प्रवेश करके दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके वासुदेव प्रभृति बहुसंख्यक हजारों राजाओं को प्रणाम किया। १२१–तए णं सा दोवई रायवरकन्ना एगं महं सिरिदामगंडं, कि ते ? पाडल-मल्लिय-चंपय जाव सत्तच्छयाईहिं गंधर्वाण मुयंतं परमसुहफासं दरिसणिज्जं गिण्हइ / तत्पश्चात् राजवरकन्या द्रौपदी ने एक बड़ा श्रीदामकाण्ड (सुशोभित मालाओं का समूह) ग्रहण किया / वह कैसा था ? पाटल, मल्लिका, चम्पक आदि यावत् सप्तपर्ण आदि के फूलों से गूथा हुअा था / अत्यन्त गंध को फैला रहा था / अत्यन्त सुखद स्पर्श वाला था और दर्शनीय था। १२२-तए णं सा किड्डाविया सुरूवा जाव [साभावियघंसं चोदहजणस्स उस्सुयकर विचित्तमणि-रयणवद्धच्छरुहं] वामहत्थेणं चिल्लगं दप्पणं गहेऊण सललियं दप्पणसंकेतबिंबसंदंसिए य से दाहिणेणं हत्थेणं दरिसिए पवररायसीहे। फुड-विसय-विसुद्ध-रिभिय-गंभीर-महुर-भणिया सा तेसि सन्वेसि पत्थिवाणं अम्मापिऊणं वंस-सत्त-सामत्थ-गोत्त-विक्कंति-कंति-बहुविहआगम-माहप्प-रूव-जोन्वणगुण-लावण्ण-कुल-सील-जाणिया कित्तणं करेइ / तत्पश्चात् उस क्रीडा कराने वाली यावत् सुन्दर रूप वाली धाय ने बाएँ हाथ में चिलचिलाता हुआ दर्पण लिया / [वह दर्पण स्वाभाविक घर्षण से युक्त एवं तरुण जनों में उत्सुकता उत्पन्न करने वाला था। उसको मूठ विचित्र मणि-रत्नों से जटित थी।] उस दर्पण में जिस-जिस राजा का प्रतिबिम्ब पड़ता था, उस प्रतिबिम्ब द्वारा दिखाई देने वाले श्रेष्ठ सिंह के समान राजा को अपने दाहिने हाथ से द्रौपदी को दिखलाती थी। वह धाय स्फुट (प्रकट अर्थ वाले) विशद (निर्मल अक्षरों वाले) विशुद्ध (शब्द एवं अर्थ के दोषों से रहित) रिभित (स्वर की घोलना सहित ) मेघ की गर्जना के समान गंभीर और मधुर (कानों को सुखदायी) वचन बोलती हुई, उन सब राजाओं के माता-पिता के वंश, सत्त्व (दृढ़ता एवं धीरता) सामर्थ्य (शारीरिक बल) गोत्र पराक्रम कान्ति नाना प्रकार के ज्ञान माहात्म्य रूप यौवन गुण लावण्य कुल और शील को जानने वाली होने के कारण उनका बखान करने लगी। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 } [ ज्ञाताधर्मकथा १२३-पढमं जाव बहिपुगवाणं दसदसारवरवीरपुरिसाणं तेलोक्कबलवगाणं सत्तु-सयसहस्स-माणावमद्दगाणं भवसिद्धिय-पवरपुंडरीयाणं चिल्लगाणं बल-वीरिय-रूव-जोवण-गुण-लावण्णकित्तिया कित्तणं करेइ, ततो पुणो उग्गसेणमाईणं जायवाणं, भणइ य–'सोहागरूवकलिए वरेहि वरपुरिसगंधहस्थीणं जो हु ते होइ हियय-दगयो।' उनमें से सर्वप्रथम वृष्णियों (यादवों) में प्रधान समुद्रविजय प्रादि दस दसारों अथवा दसार के श्रेष्ठ वीर पुरुषों के, जो तीनों लोकों में बलवान थे, लाखों शत्रुओं का मान मर्दन करने वाले थे, भव्य जीवों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान प्रधान थे, तेज से देदीप्यमान थे, बल, वीर्य, रूप, यौवन, गुण और लावण्य का कीर्तन करने वाली उस धाय ने कीर्तन किया और फिर उग्रसेन आदि यादवों का वर्णन किया, तदनन्तर कहा---'ये यादव सौभाग्य और रूप से सुशोभित हैं और श्रेष्ठ पुरुषों में गंधहस्ती के समान हैं / इनमें से कोई तेरे हृदय को वल्लभ-प्रिय हो तो उसे वरण कर / ' पाण्डवों का वरण १२४-तए णं सा दोवई रायवरकन्नगा बहूणं रायवरसहस्साणं मझमज्झेणं समतिच्छमाणी समतिच्छमाणी पुवकयनियाणेणं चोइज्जमाणी चोइज्जमाणी जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते पंच पंडवे तेणं दसद्धवष्णेणं कुसुमदामेणं आवेढियपरिवेढियं करेइ, करिता एवं वयासी-'एए णं मए पंच पंडवा वरिया।' तत्पश्चात् राजवरकन्या द्रौपदी अनेक सहस्र श्रेष्ठ राजाओं के मध्य में होकर, उनका अतिक्रमण करती-करती, पूर्वकृत निदान से प्रेरित होती-होती, जहाँ पाँच पाण्डव थे, वहाँ पाई / वहाँ आकर उसने उन पाँचों पाण्डवों को, पंचरंगे कुसुमदाम-फूलों की माला-श्रीदामकाण्ड-से चारों तरफ से वेष्टित कर दिया / वेष्टित करके कहा-'मैंने इन पाँचों पाण्डवों का वरण किया।' १२५-तए णं तेसि वासुदेवपामोक्खाणं बहणि रायसहस्साणि महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणा उग्धोसेमाणा एवं वयंति-'सुवरियं खलु भो! दोवईए रायवरकन्नाए' त्ति कटु सयंवरमंडवाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सया सया आवासा तेणेव उवागच्छति / तत्पश्चात् उन बासुदेव प्रभति अनेक सहस्र राजाओं ने ऊँचे-ऊँचे शब्दों से बार-बार उद्घोषणा करते हुए कहा-'अहो ! राजवरकन्या द्रौपदी ने अच्छा वरण किया !' इस प्रकार कह कर वे स्वयंवरमण्डप से बाहर निकले / निकल कर अपने-अपने आवासों में चले गये। १२६-तए णं धटुजुण्णे कुमारे पंच पंडवे दोबई रायवरकण्णं चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ, दुहित्ता कंपिल्लपुरं मज्झंमज्झेणं जाव सयं भवणं अणुपविसइ / तत्पश्चात् धृष्टद्युम्न कुमार ने पाँचों पाण्डवों को और राजवरकन्या द्रौपदी को चार घंटाओं वाले अश्व रथ पर आरूढ किया और कांपिल्यपुर के मध्य में होकर यावत् अपने भवन में प्रवेश किया। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : दौपदी] [ 435 विवाह-विधि १२७-तए णं दुवए राया पंच पंडवे दोवइं रायवरकण्णं पट्टयं दुरूहेइ, दुहित्ता सेयापीहि कलसेहि मज्जावेइ, मज्जावित्ता अग्गिहोमं करावेइ, पंचण्हं पंडवाणं दोवईए य पाणिग्गहणं करावेह। तत्पश्चात् द्रुपद्र राजा ने पांचों पाण्डवों को तथा राजवरकन्या द्रौपदी को पट्ट पर आसीन किया। आसीन करके श्वेत और पीत अर्थात् चांदी और सोने के कलशों से स्नान कराया। स्नान करवा कर अग्निहोम करवाया। फिर पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ पाणिग्रहण कराया। १२८–तए णं से दुवए राया दोवईए रायवरकण्णयाए इमं एयारूवं पीइदाणं दलयइ, तंजहा-अट्ठ हिरण्णकोडीओ जाव' अट्ठ पेसणकारीओ दासचेडीओ, अण्णं च विपुलं धणकणग जाव [रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयण-सन्त-सार-सावएज्जं अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं, पकामं भोत्तु, पकामं परिभाएउं] दलया। तए णं से दुवए राया ताई वासुदेवपामोक्खाई विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पुप्फवत्थगंध जाव [ मल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता] पडिविसज्जइ / तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने राजवरकन्या द्रौपदी को इस प्रकार का प्रीतिदान (दहेज) दियाअाठ करोड़ हिरण्य आदि यावत् पाठ प्रेषणकारिणी (इधर-उधर जाने-माने का काम करने वाली) दास-चेटियां / इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-सा धन-कनक यावत् [रजत, मणि, मोती, शंख, सिला, प्रवाल, लाल, उत्तम सारभूत द्रव्य जो सात पीढी तक प्रचुर मात्रा में देने, भोगने और विभाजित करने के लिए पर्याप्त था ] प्रदान किया। तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने उन वासुदेव प्रभृति राजाओं को विपुल अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम तथा पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकार आदि से सत्कार करके विदा किया। पाण्डुराजा द्वारा निमंत्रण १२९-तए णं से पंडू राया तेसि वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं करयल जाव एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! हथिणाउरे नयरे पंचण्हं पंडवाणं दोवइए य देवीए कल्लाणकरे भविस्सइ, तं तुब्भे गं देवाणुप्पिया ! ममं अणुगिहिमाणा अकालपरिहीणं समोसरह / तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने उन वासुदेव प्रभृति अनेक सहस्र राजाओं से हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में पांच पाण्डवों और द्रौपदी का कल्याणकरण महोत्सव (मांगलिक क्रिया) होगा। अतएव देवानुप्रियो ! तुम सब मुझ पर अनुग्रह करके यथासमय विलंब किये विना पधारना। १३०-तए णं वासुदेवपामोक्खा पत्तेयं पत्तेयं जाव जेणेव हथिणाउरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। ....... . --- ..... -- -- - 1. अ. 1 सूत्र 105 . Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् वे वासुदेव आदि नृपतिगण अलग-अलग यावत् हस्तिनापुर की ओर गमन करने के लिए उद्यत हुए। १३१-तए णं पंडुराया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुम्भे देवाणुपिया ! हस्थिणाउरे पंचण्हं पंडवाणं पंच पासायडिसए कारेह, अब्भुगयभूसिय वण्णओ जाव' पडिरूवे। तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार आदेश दिया'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और हस्तिनापुर में पाँच पाण्डवों के लिए पाँच उत्तम प्रासाद बनवाओ, वे प्रासाद खूब ऊँचे हों और सात भूमि (मंजिल) के हों इत्यादि वर्णन यहां पूर्ववत् कहना चाहिए, यावत् वे अत्यन्त मनोहर हों। १३२--तए णं ते कोडुबियपुरिसा पडिसुणेति जाव करावेति / तए णं से पंडुए पंचहि पंडवेहि दोवईए देवीए सद्धि हयगयसपरिवुडे कंपिल्लपुराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव हत्थिणाउरे तेणेव उवागए। तब कौटुम्बिक पुरुषों ने यह आदेश अंगीकार किया, यावत् उसी प्रकार के प्रासाद बनवाये। तव पाण्डु राजा पाँचों पाण्डवों और द्रौपदी देवी के साथ अश्वसेना, गजसेना आदि से परिवृत होकर कांपिल्यपुर नगर से निकल कर जहाँ हस्तिनापुर था, वहां आ पहुंचा। १३३–तए णं पंडुराया तेसि वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं जाणित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दाविता एवं क्यासी-'गच्छह गं तुब्भे देवाणुप्पिया ! हत्यिणाउरस्स नयरस्स बहिया वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आवासे कारेह अणेगखंभसयसणिविट्ठ' तहेव जाव पच्चप्पिणति / तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने उन वासुदेव आदि राजाओं का प्रागमन जान कर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा---'देवानुप्रियो ! तुम जानो और हस्तिनापुर नगर के बाहर वासुदेव आदि बहुत हजार राजारों के लिए आवास तैयार कराम्रो जो अनेक सैकड़ों स्तंभों आदि से युक्त हों इत्यादि पूर्ववत् कह लेना चाहिए।' कौटुम्बिक पुरुष उसी प्रकार प्राज्ञा का पालन करके यावत् प्राज्ञा वापिस करते हैं। १३४–तए णं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा जेणेव हत्यिणाउरे नयरे तेणेव उवागच्छति। तए णं से पंडुराया तेसि वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं जाणित्ता हट्ठतुठे हाए कयबलिकम्मे जहा दुपए जाव जहारिहं आवासे दलयइ। तए णं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा जेणेव सयाई सयाई आवासाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तहेव जाव विहरति / तत्पश्चात् वे वासुदेव वगैरह हजारों राजा हस्तिनापुर नगर में आये / 1. श्र.१ सूत्र 103 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [ 437 तब पाण्डु राजा उन वासुदेव आदि राजाओं का प्रागमन जानकर हर्षित और संतुष्ट हुा / उसने स्नान किया बलिकर्म किया और द्रुपद राजा के समान उनके सामने जाकर सत्कार किया, यावत् उन्हें यथायोग्य प्रावास प्रदान किए। तब वे वासुदेव आदि हजारों राजा जहाँ अपने-अपने आवास थे, वहाँ गये और उसी प्रकार (पहले कहे अनुसार संगीत-नाटक आदि से मनोविनोद करते हुए) यावत् विचरने लगे। १३५–तए णं से पंडुराया हथिणाउरं नयरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं क्यासी—'तुब्भे णं देवाणुप्पिया! विउलं असणं पाणं खाइमं साइम' तहेव जाव उवणेति / तए गं वासुदेवपामोक्खा बहवे राया व्हाया कयबलिकम्मा तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं तहेव जाव बिहरंति / तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया। प्रवेश करके कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा–'हे देवानुप्रियो ! तुम विपुल अशन पान खादिम और स्वादिम तैयार कराग्यो।' उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार किया यावत् वे भोजन तैयार करवा कर ले गये / तब उन वासुदेव आदि बहुत-से राजाओं ने स्नान एवं बलिकार्य करके उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आहार किया और उसी प्रकार (पहले कहे अनुसार) विचरने लगे। हस्तिनापुर में कल्याणकरण १३६-तए णं पंडुराया पंच पंडवे दोवई च देवि पट्टयं दुरूहेइ, दुरूहित्ता सेयापीरहि कलसेहि व्हावेंति, पहावित्ता कल्लाणकरं करेइ, करित्ता ते वासुदेवपामोक्खे बहवे रायसहस्से विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पुष्फवस्थेणं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारित्ता सम्माणित्ता जाव पडिविसज्जेइ / तए गं ते वासुदेवपामोक्खा जाव [बहवे रायसहस्सा पंडुएणं रण्णा विसज्जिया समाणा जेणेव साई साइं रज्जाई जेणेव साइं साई नयराइं तेणेव] पडिगया / / तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने पाँच पाण्डवों को तथा द्रौपदी को पाट पर बिठलाया / बिठला कर श्वेत और पीत कलशों से उनका अभिषेक किया-उन्हें नहलाया। फिर कल्याणकर उत्सव किया / उत्सव करके उन वासुदेव आदि बहुत हजार राजाओं का विपुल प्रशन, पान, खादि से तथा पुष्पों और वस्त्रों से सत्कार किया, सन्मान किया / सत्कार-सन्मान करके यावत् उन्हें विदा किया / तब वे वासुदेव वगैरह बहुत से राजा यावत् अपने-अपने राज्यों एवं नगरों को लौट गए। १३७-तए णं ते पंच पंडवा दोवईए देवीए सद्धि अंतो' अंतेउरपरियालसद्धि कल्लाल्लि वारंवारेणं ओरालाई भोगभोगाई जाव [भुजमाणा] विहरति / तत्पश्चात् पाँच पाण्डव द्रौपदी देवी के साथ अन्तःपुर के परिवार सहित एक-एक दिन वारी-वारी के अनुसार उदार कामभोग भोगते हुए यावत् रहने लगे। 1. अ. 1 सूत्र 107 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438] [ ज्ञाताधर्मकथा ___ १३५-तए णं से पंडुराया अन्नया कयाई पंचहि पंडवेहि कोंतीए देवीए दोवईए देवीए य सद्धि अंतो अंतेउरपरियाल सद्धि संपरिवुडे सीहासणवरगए यावि होत्था / पाण्डु राजा एक बार किसी समय पाँच पाण्डवों, कुन्ती देवी और द्रौपदी देवी के साथ तथा अन्तःपुर के अन्दर के परिवार के साथ परिवृत होकर श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन थे। नारद का आगमन 139- इमं च णं कच्छुल्लणारए दंसणेणं अइभद्दए विणीए अंतो अंतो य कलुसहियए मज्झत्थोवस्थिए य अल्लीण-सोम-पिय-दसणे सुरूवे अमइलसगलपरिहिए कालमियचम्म-उत्तरासंगरइयवत्थे दंडकमंडलुहत्थे जडामउडदित्तसिरए जन्नोवइय-गणेत्तिय-मुजमेहल-वागलधरे हत्थकयकच्छभीए पियगंधव्वे धरणिगोयरप्पहाणे संवरणावरणिओवयणउत्पयणि-लेसणीसु य संकामणिअभिओगि-पण्णत्ति-गमणी-थंभोसु य बहसु विज्जाहरीसु विज्जासु विस्सुयजसे इठें रामस्स य केसवस्स य पज्जुन्न-पईव-संब-अनिरुद्ध-निसढ-उम्मुय-सारण-गय-सुमुह-दुम्मुहाईण जायवाणं अधुट्ठाण कुमारकोडीणं हिययदइए संथवए कलह-जुद्ध-कोलाहलप्पिए भंडणाभिलासी बहुसु य समरेसु य संपराएसु य दंसणरए समंतओ कलहं सदक्खिणं अणुगवेसमाणे असमाहिकरे दसारवरवीरपुरितिलोक्कबलवगाणं आमंतेऊण तं भगवति पक्कणि गगण-गमण-दच्छं उप्पइओ गगणमभिलंघयंतो गामागार-नगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टण-संवाह-सहस्समंडियं थिमियमेइणीतलं निभरजणपदं वसुहं ओलोइंतो रम्मं हत्थिणाउरं उवागए पंडुरायभवणंसि अइवेगेण समोवइए / इधर कच्छुल्ल नामक नारद वहाँ आ पहुँचे / वे देखने में अत्यन्त भद्र और विनीत जान पड़ते थे, परन्तु भीतर से केलिप्रिय होने के कारण उनका हृदय कलुषित था / ब्रह्मचर्यव्रत के धारक होने से वे मध्यस्थता को प्राप्त थे / आश्रित जनों को उनका दर्शन प्रिय लगता था। उनका रूप मनोहर था। उन्होंने उज्ज्वल एवं सकल (अखंड अथवा शकल अर्थात वस्त्रखंड) पहन रखा था। काला मृगचर्म उत्तरासंग के रूप में वक्षस्थल में धारण किया था / हाथ में दंड और कमण्डलु था। जटा रूपी मुकुट से उनका मस्तक शोभायमान था। उन्होंने यज्ञोपवीत एवं रुद्राक्ष की माला के प्राभरण, मूज को कटिमेखला और वल्कल वस्त्र धारण किए थे। उनके हाथ में कच्छपी नामकी वीणा थी। उन्हें संगीत से प्रीति थी। आकाश में गमन करने की शक्ति होने से वे पृथ्वी पर बहुत कम गमन करते थे। संचरणी (चलने को), प्रावरणी (ढंकने की), अवतरणी (नीचे उतरने की), उत्पतनी (ऊँचे उड़ने की), श्लेषणी (चिपट जाने की), संक्रामणी (दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की), अभियोगिनी (सोना चांदी आदि बनाने की), प्रज्ञप्ति (परोक्ष वृत्तान्त को बतला देने की), गमनी (दुर्गम स्थान में भी जा सकने को) और स्तंभिनी (स्तब्ध कर देने की) आदि बहुत-सी विद्याधरों संबंधी विद्याओं में प्रवीण होने से उनकी कीत्ति फैली हुई थी / वे बलदेव और वासुदेव के प्रेमपात्र थे / प्रद्युम्न, प्रदीप, सांब, अनिरुद्ध, निषध, उन्मुख, सारण, गजसुकुमाल, सुमुख और दुर्मुख आदि यादवों के साढ़े तीन कोटि कुमारों के हृदय के प्रिय थे और उनके द्वारा प्रशंसनीय थे। कलह (वाग्युद्ध) युद्ध (शस्त्रों का समर) और कोलाहल उन्हें प्रिय था / वे भांड के समान वचन बोलने के अभिलाषी थे / अनेक समर और सम्पराय (युद्धविशेष) देखने के रसिया थे। चारों ओर दक्षिणा देकर (दान देकर) भी कलह की खोज किया करते थे, अर्थात् कलह कराने में उन्हें बड़ा आनन्द आता था / कलह कराकर दूसरों के . Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [ 439 चित्त में असमाधि उत्पन्न करते थे। ऐसे वह नारद तीन लोक में बलवान् श्रेष्ठ दसारवंश के वीर पुरुषों से वार्तालाप करके, उस भगवती (पूज्य) प्राकाम्य नामक विद्या का, जिसके प्रभाव से आकाश में गमन किया जा सकता था, स्मरण करके उड़े और आकाश को लांघते हुए हजारों ग्राम, प्राकर (खान), नगर, खेट, कर्बट, मडंव, द्रोणमुख, पट्टन और संबाध से शोभित और भरपूर देशों से व्याप्त पृथ्वी का अवलोकन करते-करते रमणीय हस्तिनापुर में आये और बड़े वेग के साथ पाण्डु राजा के महल में उतरे। १४०-तए णं से पंडुराया कच्छुल्लनारयं एन्जमाणं पासइ, पासित्ता पंचहि पंडवेहि कुतोए य देवीए सद्धि आसणाओ अन्भुढेइ, अन्भुद्विता कच्छुल्लनारयं सत्तटुपयाई पच्चुग्गच्छइ, पच्चुग्गच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदह, णमंमइ, वंदित्ता णमंसित्ता महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेइ। उस समय पाण्डु राजा ने कच्छुल्ल नारद को प्राता देखा / देख कर पाँच पाण्डवों तथा कुन्ती देवी सहित वे अासन से उठ खड़े हुए। खड़े होकर सात-आठ पैर कच्छुल्ल नारद के सामने गये / सामने जाकर तीन बार दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वंदन किया, नमस्कार किया / बन्दन-नमस्कार करके महान् पुरुष के योग्य अथवा बहुमूल्य आसन ग्रहण करने के लिए आमंत्रण किया / 141- तए णं से कच्छुल्लनारए उदगपरिफोसियाए दभोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए णिसीयइ, णिसीइत्ता पंडुरायं रज्जे जाव [य रठे य कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य] अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छइ। तए णं से पंडुराया कोंति देवी पंच य पंडवा कच्छुल्लणारयं आढायंति जाव [परियाणंति अम्भुट्ठति] पज्जुवासंति / / तत्पश्चात् उन कच्छुल्ल नारद ने जल छिड़ककर और दर्भ बिछाकर उस पर अपना प्रासन बिछाया और वे उस पर बैठे। बैठ कर पाण्डु राजा, राज्य यावत् [राष्ट्र, कोष, कोठार, बल, वाहन, नगर और] अन्तःपुर के कुशल-समाचार पूछे / उस समय पाण्डु राजा ने, कुन्ती देवी ने और पाँचों पाण्डवों ने कच्छुल्ल नारद का खड़े होकर आदर-सत्कार किया / उनकी पर्युपासना की। 142- तए णं सा दोवई देवी कच्छुल्लनारयं अस्संजयं अविरयं अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मं ति कटु नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुढेइ, नो पज्जुवासइ / ___ किन्तु द्रौपदी देवी ने कच्छुल्ल नारद को असंयमी, अविरत तथा पूर्वकृत पापकर्म का निन्दादि द्वारा नाश न करने वाला तथा आगे के पापों का प्रत्याख्यान न करने वाला जान कर उनका पादर नहीं किया, उनके ग्रागमन का अनुमोदन नहीं किया, उनके आने पर वह खड़ी नहीं हुई / उसने उनकी उपासना भी नहीं की। द्रौपदी पर नारद का रोष १४३-तए णं तस्स कच्छुल्लणारयस्स इमेयासवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 ] [ ज्ञाताधर्मकथा समुप्पज्जित्था-'अहो णं दोवई देवी रूवेणं जाव [जोवणेण य] लावण्णेण य पंचहि पंडवेहि अणुबद्धा समाणी ममं नो आढाइ, जाव नो पज्जुवासइ, तं सेयं खलु मम दोवईए देवीए विप्पियं करित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता पंडुयरायं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता उप्पणि विज्ज आवाहेइ, आवाहिता ताए उक्किट्ठाए जाव विज्जाहरगईए लवणसमुई मज्झंमज्झेणं पुरस्थाभिमुहे वीइवइउं पयत्ते यावि होत्था / तब कच्छुल्ल नारद को इस प्रकार का अध्यवसाय चिन्तित (विचार) प्रार्थित (इष्ट) मनोगत (मन में स्थित) संकल्प उत्पन्न हुआ कि 'अहो ! यह द्रौपदी देवी अपने रूप यौवन लावण्य और पाँच पाण्डवों के कारण अभिमानिनी हो गई है, अतएव मेरा आदर नहीं करती यावत् मेरो उपासना नहीं करती / अतएव द्रौपदी देवी का अनिष्ट करना मेरे लिए उचित है।' इस प्रकार नारद ने विचार किया। विचार करके पाण्ड राजा से जाने की प्राज्ञा ली। फिर उत्पतनी उडने की) विद्या का आह्वान किया / आह्वान करके उस उत्कृष्ट यावत् विद्याधर योग्य गति से लवणसमुद्र के मध्यभाग में होकर, पूर्व दिशा के सन्मुख, चलने के लिए प्रयत्नशील हुए। नारद का अमरकंका-गमन--जाल रचना १४४--तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे दोवे पुरथिमद्धदाहिणभरहवासे अमरकंका नाम रायहाणी होत्था। तत्थ णं अमरकंकाए रायहाणीए पउमणाभे णामं राया होत्था, महया हिमवंत वण्णओ। तस्स णं पउमणाभस्स रणो सत्त देवीसयाई ओरोहे होत्था / तस्स णं पउमणाभस्स रणो सुनाभे नाम पुत्ते जुवराया यावि होत्था। तए णं से पउमनाभे राया अंतो अंतेउरंसि ओरोहसंपरिडे सिंहासणवरगए विहरइ / उस काल और उस समय में धातकीखण्ड नामक द्वीप में पूर्व दिशा की तरफ के दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में अमरकंका नामक राजधानी थी। उस अमरकंका राजधानी में पद्मनाभ नामक राजा था / वह महान् हिमवन्त पर्वत के समान सार वाला था, इत्यादि वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार समझना चाहिए / उस पद्मनाभ राजा के अन्तःपुर में सात सौ रानियाँ थीं / उसके पुत्र का नाम सुनाभ था / वह युवराज भी था। (जिस समय का यह वर्णन है) उस समय पद्मनाभ राजा अन्तःपुर में रानियों के साथ उत्तम सिंहासन पर बैठा था। १४५-तए णं से कच्छुल्लणारए जेणेव अमरकंका रायहाणी, जेणेव पउमनाभस्स भवणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमनाभस्स रन्नो भवणंसि झत्ति वेगेणं समावइए। ___ तए णं से पउमणाभे राया कच्छुल्लं नारयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता आसणाओ अब्भुठेइ, अब्भुद्वित्ता अग्घेणं जाव' आसणेणं उवणिमंतेइ। तत्पश्चात् कच्छुल्ल नारद जहाँ अमरकंका राजधानी थी और जहाँ राजा पद्मनाभ का भवन था, वहाँ पाये / पाकर पद्मनाभ राजा के भवन में वेगपूर्वक शीघ्रता के साथ उतरे / 1. धातकीखण्ड द्वीप में भरत प्रादि सभी क्षेत्र दो-दो की संख्या में हैं। उनमें से पूर्व दिशा के भरतक्षेत्र के दक्षिण ' भाग में अमरकंका राजधानी थी। 2. प्र. 16 सूत्र 140 / Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [441 उस समय पद्मनाभ राजा ने कच्छुल्ल नारद को आता देखा / देखकर वह आसन से उठा / उठ कर सात-पाठ कदम सामने गया, तीन बार प्रदक्षिणा की, वन्दन-नमस्कार किया] अर्घ्य से उनकी पूजा की यावत् आसन पर बैठने के लिए उन्हें आमंत्रित किया / १४६-तए णं से कच्छुल्लणारए उदयपरिफोसियाए दब्भोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए निसीयइ, जाव' कुसलोदंतं आपुच्छइ / तत्पश्चात् कच्छुल्ल नारद ने जल से छिड़काव किया, फिर दर्भ बिछा कर उस पर प्रासन बिछाया और फिर वे उस आसन पर बैठे / बैठने के बाद यावत् कुशल-समाचार पूछे / १४७--तए णं से पउमनाभे राया णियगओरोहे जायविम्हए कच्छुल्लणारयं एवं वयासो'तुभं देवाणप्पिया ! बहूणि गामाणि जाव गेहाइं अणुपविससि, तं अस्थि याइं ते कहिचि देवाणुप्पिया एरिसए ओरोहे दिट्ठपुब्वे जारिसए णं मम ओरोहे ?' इसके बाद पद्मनाभ राजा ने अपनी रानियों (के सौन्दर्य आदि) में विस्मित होकर कच्छुल्ल नारद से प्रश्न किया-'देवानुप्रिय ! आप बहुत-से ग्रामों यावत् गृहों में प्रवेश करते हो, तो देवानुप्रिय ! जैसा मेरा अन्तःपुर है, वैसा अन्तःपुर आपने पहले कभी कहीं देखा है ?' १४८-तए णं से कच्छुल्लनारए पउमनाभेणं रण्णा एवं वृत्ते समाणे ईसि विहसियं करेइ, करिता एवं वयासी—'सरिसे णं तुमं पउमणाभा ! तस्स अगडदद्दुरस्स।' 'के णं देवाणुप्पिया! से अगडददुरे ?' एवं जहा मल्लिणाए। एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवे दोवे भारहे वासे हथिणाउरे दुपयस्स रण्णो धूया, चुलणीए देवीए अत्तया, पंडुस्स सुण्हा पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवई देवी रूवेण य जाव उक्किटुसरीरा। दोवईए णं देवीए छिन्नस्स वि पायंगुट्टयस्स अयं तव ओरोहे सइमं पि कलं ण अग्घइ त्ति कट्ट पउमणाभं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता जाव पडिगए। तत्पश्चात् राजा पद्मनाभ के इस प्रकार कहने पर कच्छुल्ल नारद थोड़ा मुस्कराए। मुस्करा कर बोले --'पद्मनाभ ! तुम कुए के उस मेंढक के सदृश हो।' (पद्मनाभ ने पूछा) देवानुप्रिय ! कौन-सा वह कुए का मेंढक ? जैसा मल्ली ज्ञात (अध्ययन) में कहा है, वही यहाँ कहना चाहिए।' (फिर बोले) 'देवानुप्रिय! जम्बूद्वीप में, भरतवर्ष में, हस्तिनापुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी की आत्मजा पाण्डु राजा की पुत्रवधू और पांच पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी देवी रूप से यावत् लावण्य से उत्कृष्ट है, उत्कृष्ट शरीर वाली है। तुम्हारा यह सारा अन्तःपुर द्रौपदी देवी के कटे हुए पैर के अंगूठे की सौवीं कला (अंश) की भी बराबरी नहीं कर सकता।' इस प्रकार कह कर नारद ने पद्मनाभ से जाने की अनुमति ली / अनुमति पाकर वह यावत् (तीव्र गति से) चल दिये। 1. प्र. 16, सूत्र 141 2. देखिए पृ. 257 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 ] [ ज्ञाताधर्मकथा १४९-तए णं से पउमनाभे राया कच्छुल्लनारयस्स अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म दोवईए देवीए रूवे य जोव्वणे य लावण्णे य मुच्छिए गढिए लुद्धे (गिद्धे) अज्झोववन्ने जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं जाव [अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता पुव्वसंगइयं देवं मणसीकरेमाणे-मणसीकरेमाणे चिट्ठइ। तए णं पउमनाभस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पुव्वसंगइओ देवो जाव आगओ। 'भणंतु णं देवाणुप्पिया ! जं मए कायब्वं / ' तए णं पउमणाभे] पुत्वसंगतियं देवं एवं वयासो—'एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवे दोवे भारहे वासे हत्थिणाउरे नयरे जाव उक्किदुसरीरा, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! दोवई देवि इहमाणियं / ' तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा, कच्छुल्ल नारद से यह अर्थ सुन कर और समझ कर द्रौपदी देवी के रूप, यौवन और लावण्य में मुग्ध हो गया, गृद्ध हो गया, लुब्ध हो गया और (उसे पाने के लिए) प्राग्रहवान् हो गया / वह पौषधशाला में पहुँचा / पौषधशाला को [पूज कर, अपने पूर्व के साथी देव का मन में ध्यान करके, तेला करके बैठ गया / उसका अष्टमभक्त जब पूरा होने पाया तो वह पूर्वभव का साथी देव पाया। उसने कहा-'देवानुप्रिय ! कहो, मुझे क्या करना है ?' तब राजा पद्मनाभ ने] उस पहले के साथी देव से कहा--'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, हस्तिनापुर नगर में, यावत् द्रौपदी देवी उत्कृष्ट शरीर वाली है / देवानुप्रिय ! मैं चाहता हूँ कि द्रौपदी देवी यहाँ ले पाई जाय / ' १५०-तए णं पुन्वसंगतिए देवे पउमनाभं एवं वयासो-'नो खलु देवाणुप्पिया ! एयं भूयं, भव्वं वा, भविस्सं वा, जं णं दोवई देवी पंच पंडवे मोत्तूण अन्नेणं पुरिसेणं सद्धि ओरालाई जाव [माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणी] विहरिस्सइ, तहावि य णं अहं तव पियट्टयाए दोवई देवि इइं हव्वमाणेमि' त्ति कटु पउमणाभं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए लवणसमुदं मझमज्झेणं जेणेव हत्थिणाउरे गयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए / तत्पश्चात् पूर्वसंगतिक (पहले के साथी) देव ने पद्मनाभ से कहा .. 'देवानुप्रिय ! यह कभी हना नहीं होता नहीं और होगा भी नहीं कि द्रौपदी देवी पाँच पाण्डवों को छोड़कर दूसरे पुरुष के साथ मानवीय उदार कामभोग भोगती हुई विचरेगी / तथापि मैं तुम्हाग प्रिय (इष्ट) करने के लिए द्रौपदी देवी को अभी यहाँ ले पाता हूँ।' इस प्रकार कह कर देव ने पद्मनाभ से पूछा। पूछ कर वह उत्कृष्ट देव-गति से लवणसमुद्र के मध्य में होकर जिधर हस्तिनापुर नगर था, उधर ही गमन करने के लिए उद्यत हुग्रा। द्रौपदी-हरण १५१-तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिणाउरे जुहिट्टिले राया दोवईए देवीए सद्धि आगासतलंसि सुहपसुत्ते यावि होत्था / 1. पाठान्तर--'हव्वमाणियं' / Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी] उस काल और उस समय में, हस्तिनापुर नगर में युधिष्ठिर राजा द्रौपदी देवी के साथ महल की छत पर सुख से सोया हुआ था। १५२–तए णं से पुव्वसंगतिए देवे जेणेव जुहिट्ठिले राया, जेणेव दोवई देवी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दोवईए देवीए ओसोवणियं दलयइ, दलइत्ता दोवइं देवि गिण्हइ, गिण्हित्ता ताए उक्किट्टाए जाव देवगईए जेणेव अमरकंका, जेणेव पउमणाभस्स भवणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमणाभस्स भवणंसि असोगवणियाए दोवइं देवि ठावेइ, ठावित्ता ओसोणि अवहरइ, अवहरिता जेणेव पउमणाभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासो-'एस णं देवाणुप्पिया! मए हथिणाउराओ दोवई देवी इह हन्वमाणीया, तव असोगवणियाए चिट्ठइ, अतो परं तुमं जाणसि' त्ति कटु जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। उस समय वह पूर्वसंगतिक देव जहाँ राजा युधिष्ठिर था और जहाँ द्रौपदी देवी थी, वहाँ र उसने द्रौपदी देवी को अवस्वापिनी निद्रा दी–अवस्वापिनी विद्या से निद्रा में सुला दिया। द्रौपदी देवी ग्रहण करके, देवोचित उत्कृष्ट गति से अमरकंका राजधानी में पद्मनाभ के भवन में प्रा पहुँचा / आकर पद्मनाभ के भवन में, अशोकवाटिका में, द्रौपदी देवी को रख दिया / रख कर अवस्वापिनी विद्या का संहरण किया / संहरण करके जहाँ पद्मनाभ था, वहाँ आया। आकर इस प्रकार बोला-'देवानुप्रिय ! मैं हस्तिनापुर से द्रौपदी देवी को शीघ्र ही यहाँ ले पाया हूँ। वह तुम्हारी अशोकवाटिका में है / इससे आगे तुम जानो।' इतना कह कर वह देव जिस ओर से आया था उसी ओर लौट गया। विवेचन--प्रस्तुत प्रागम में तथा अन्य अन्य कथानकप्रधान आगमों में भी जहाँ गति की तीव्रता प्रदर्शित करना अभीष्ट होता है, वहाँ गति के साथ कोई न कोई विशेषण लगाया गया है / यहाँ 'उक्किट्ठाए देवगईए' में 'देव' यह विशेषण है / इसका अभिप्राय यह है कि तीव्र और मन्द, ये शब्द सापेक्ष हैं। इन शब्दों से किसी नियत अर्थ का बोध नहीं होता / एक बालक अथवा अतिशय वृद्ध की अपेक्षा जो गति तीव्र कही जा सकती है, वहीं एक बलवान् युवा की अपेक्षा मन्द भी हो सकती है / साइकिल की तीव्र गति मोटर की अपेक्षा मंद है और वायुयान की अपेक्षा मोटर की गति मन्द है / अतएव तीव्रता की विशेषता दिखलाने के लिए ही यहाँ 'उत्कृष्ट देवगति से' ऐसा कहा गया है / तात्पर्य यह है कि यहाँ देवगति की अपेक्षा से ही तीव्रता समझना चाहिए, मेंढक या मनुष्यादि की अपेक्षा से नहीं / अन्यत्र भो यही प्राशय समझना चाहिए। १५३-तए णं सा दोवई देवी तओ मुहत्तंतरस्स पडिबुद्ध समाणी तं भवणं असोगवणियं च अपच्चभिजाणमाणी एवं क्यासी-नो खलु अम्हं एस सए भवणे, णो खलु एसा अम्हं सगा असोगवणिया, तं ण णज्जइ णं अहं केणई देवेण वा, दाणवेण वा, किपुरिसेण वा, किन्नरेण वा, महोररोण वा, गंधवेण वा, अन्नस्स रण्णो असोगवणियं साहरिय' त्ति कटु ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ। __ तत्पश्चात् थोड़ी देर में जब द्रौपदी देवी की निद्रा भंग हुई तो वह उस अशोकवाटिका को पहचान न सकी / तब मन ही मन कहने लगी- 'यह भवन मेरा अपना नहीं है, वह अशोक Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444] [ज्ञाताधर्मकथा वाटिका मेरी अपनी नहीं है / न जाने किसी देव ने, दानव ने, किंपुरुष ने, किन्नर ने, महोरग ने, या गन्धर्व ने किसी दूसरे राजा की अशोकवाटिका में मेरा संहरण किया है।' इस प्रकार विचार करके वह भग्न-मनोरथ होकर यावत् चिन्ता करने लगी। पद्मनाभ का द्रौपदी को भोग-आमंत्रण १५४-तए णं से पउमणाभे राया पहाए जाव सव्वालंकारविभूसिए अंतेउरपरियालसंपरिवुडे जेणेव असोगवणिया, जेणेव दोवई देवी, तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता दोवई देवि ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणि पासइ, पासित्ता एवं वयासी-किं णं तुम देवाणुप्पिए ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहि ? एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए ! मम पुत्वसंगतिएणं देवेणं जंबुद्दीवाओ दीवाओ, भारहाओ यासाओ, हथिणाउराओ नयराओ, जुहिटिलस्स रण्णो भवणाओ साहरिया, तं मा णं तुमं देवाणुप्पिए! ओहयमणसंकप्पा जाव शियाहि / तुमं मए सद्धि विपुलाई भोगभोगाई जाव [ जमाणी] विहराहि / ' तदनन्तर राजा पद्मनाभ स्नान करके, यावत् सब अलंकारों से विभूषित होकर तथा अन्तःपुर के परिवार से परिवृत होकर, जहाँ अशोकवाटिका थी और जहाँ द्रौपदी देवी थी, वहाँ प्राया / आकर उसने द्रौपदी देवी को भग्नमनोरथ एवं चिन्ता करती देख कर कहा-'देवानुप्रिये ! तुम भग्नमनोरथ होकर चिन्ता क्यों कर रही हो? देवानुप्रिये ! मेरा पूर्वसांगतिक देव जम्बूद्वीप से, भारतवर्ष से, हस्तिनापुर नगर से और युधिष्ठिर राजा के भवन से संहरण करके तुम्हें यहाँ ले आया है / अतएव देवानुप्रिये ! तुम हतमनःसंकल्प होकर चिन्ता मत करो / तुम मेरे साथ विपुल भोगने योग्य भोग भोगती हुई रहो। १५५-तए णं सा दोवई देवी पउमणाभं एवं वयासी---‘एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वारवईए नयरीए कण्हे णामं वासुदेवे मम पियभाउए परिवसइ, तं जइ णं से छह मासाणं ममं कूवं नो हव्वमागच्छइ तए णं अहं देवाणुप्पिया ! जं तुमं वदसि तस्स आणा-ओवाय-वयणणिद्देसे चिट्रिस्सामि / ' तब द्रौपदी देवी ने पद्मनाभ से इस इस प्रकार कहा---'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में द्वारवती नगरी में कृष्ण नामक वासुदेव मेरे स्वामी के भ्राता रहते हैं / सो यदि छह महीनों तक वे मुझे छडाने--सहायता करने या वापिस ले जाने के लिए यहाँ नहीं पाएंगे तो मैं है प्रिय ! तुम्हारी आज्ञा, उपाय, वचन और निर्देश में रहूँगी, अर्थात् अाप जो कहेंगे, वही करूंगी।' १५६-तए णं से पउमे राया दोवईए एयमट्ठ पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता दोवई वि कण्णंतेउरे ठवेइ / तए णं सा दोवई देवी छठंछठेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ। तब पद्मनाभ राजा ने द्रौपदी का कथन अंगीकार किया। अंगीकार करके द्रौपदी देवी को कन्याओं के अन्तःपुर में रख दिया। तत्पश्चात् द्रौपदी देवी निरन्तर षष्ठभक्त और पारणा में पायंबिल के तपःकर्म से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] विवेचन द्रौपदी, छह महीने तक श्रीकृष्ण यदि लेने न आएँ तो पद्मनाभ की आज्ञा मान्य करने की तैयारी बतलाती है / इस तैयारी के पीछे द्रौपदी की मानसिक दुर्बलता या चारित्रिक शिथिलता है, ऐसा किसी को आभास हो सकता है। किन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं / द्रौपदी को कृष्ण के असाधारण सामर्थ्य पर पूरा विश्वास है / वह जानती है कि कृष्णजी आए बिना रह नहीं सकते। इसी कारण उसने पाण्डवों का उल्लेख न करके श्रीकृष्ण का उल्लेख किया। उसकी चारित्रिक दृढता में संदेह करने का कोई कारण नहीं है। सूत्रकार ने देवता के मुख से भी यही कहलवा दिया है कि द्रौपदी पाण्डवों के सिवाय अन्य पुरुष की कामना त्रिकाल में भी नहीं कर सकती / वह तो किसी युक्ति से श्रीकृष्ण के आने तक समय निकालना चाहती थी। उसकी युक्ति काम कर गई। उधर पद्मनाभ ने बड़ी सरलता से द्रौपदी की बात मान्य कर ली / इसका कारण उसका यह विश्वास रहा होगा कि कहाँ जम्बूद्वीप और कहाँ धातकीखंडद्वीप ! दोनों द्वीपों के बीच दो लाख योजन के महान् विस्तार वाला लवणसमुद्र है। प्रथम तो श्रीकृष्ण को पता ही नहीं चलेगा कि द्रौपदी कहाँ है ! पता भी चल गया तो उनका यहाँ पहुँचना असंभव है / अपने इस विश्वास के कारण पद्मनाम ने द्रौपदी की शर्त आनाकानी किए बिना स्वीकार कर ली / इसके अतिरिक्त कामान्ध पुरुष की विवेकशक्ति भी नष्ट हो जाती है। द्रौपदी की गवेषणा १५७-तए णं से जुहिट्ठिले राया तओ मुहत्तंतरस्स पडिबुद्धे समाणे दोवई देवि पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उठेइ, उत्तिा दोवईए देवीए सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करित्ता दोवईए देवोए कत्थइ सुई वा खुइं वा पवित्ति वा अलभमाणे जेणेव पंडुराया तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता पंडुरायं एवं वयासी इधर द्रौपदी का हरण हो जाने के पश्चात्, थोड़ी देर में युधिष्ठिर राजा जागे 1 वे द्रौपदी देवी को अपने पास न देखते हुए शय्या से उठे। उठकर सब तरफ द्रौपदी देवी की मार्गणा-गवेषणा करने लगे / किन्तु द्रौपदी देवी की कहीं भी श्रुति (शब्द) क्षुति (छींक वगैरह) या प्रवृत्ति (खबर) न पाकर जहाँ पाण्डु राजा थे वहाँ पहुँचे / वहाँ पहुँचकर पाण्डु राजा से इस प्रकार बोले-~ १५८-~-एवं खलु ताओ ! ममं आगासतलगंसि पसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न णज्जइ केणइ देवेण वा, दाणवेन वा, किन्नरेण वा, महोरगेण वा गंधब्वेण वा, हिया वा, णीया वा, अवक्खित्ता वा ? इच्छामि णं ताओ ! दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करित्तए / हे तात ! मैं आकाशतल (अगासी) पर सो रहा था। मेरे पास द्रौपदी देवी को न जाने कौन देव, दानव, किन्नर, महोरग अथवा गंधर्व हरण कर गया, ले गया या खींच ले गया ! तो हे तात ! मैं चाहता हूँ कि द्रौपदी देवी की सब तरफ मार्गणा की जाय / / १५९-तए णं से पंडुराया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुभे देवाणुप्पिया ! हस्थिणाउरे नयरे सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-महापह-पहेसु महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वदह–'एवं खलु देवाणुप्पिया ! जुहिडिल्लस्स रण्णो आगासतलगंसि Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न णज्जइ केणइ देवेण वा, दाणवेण वा, किपुरिसेण वा, किन्नरेण वा, महोरगेण वा, गंधवेण वा हिया वा नीया वा अवक्खित्ता वा? तं जो णं देवाणुप्पिया! दोवईए देवीए सुई वा खुई वा पविति वा परिकहेइ तस्स णं पंडुराया विउलं अत्थसंपयाणं दलयइ' त्ति कटु घोसणं घोसावेह, घोसावित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / ' तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाब पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर यह आदेश दिया'देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में शृगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ और पथ आदि में जोरजोर के शब्दों से घोषणा करते-करते इस प्रकार कहो-हे देवानुप्रियो (लोगो) ग्राकाशतल (अगासी) पर सुख से सोये हुए युधिष्ठिर राजा के पास से द्रौपदी देवी को न जाने किस देव, दानव, किंपुरुष किन्नर, महोरग या गंधर्व देवता ने हरण किया है, ले गया है, या खींच ले गया है ? तो हे देवानुप्रियो! जो कोई द्रौपदी देवी की श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति बताएगा, उस मनुष्य को पाण्डु राजा विपुल सम्पदा का दान देंगे-इनाम देंगे।' इस प्रकार की घोषणा करो / घोषणा करके मेरी यह आज्ञा वापिस लौटायो।' तब कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार घोषणा करके यावत् प्राजा वापिस लौटाई / १६०-तए णं से पंडू राया दोबईए देवीए कत्थइ सुई वा जाव अलभमाणे कोंति देवि सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी— 'गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिए ! बारवई नरि कण्हस्स वासुदेवस्स एयमझें णिवेदेहि / कण्हे णं परं वासुदेवे दोवईए देवीए मग्गणगवेसणं करेज्जा, अन्नहा न नज्जइ दोवईए देवीए सुई वा खुई वा पवित्ति वा उवलभेज्जा।' पूर्वोक्त घोषणा कराने के पश्चात् भी पाण्डु राजा द्रौपदी देवी को कहीं भी श्रुति यावत् समाचार न पा सके तो कुन्ती देवी को बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! तुम द्वारवती (द्वारिका) नगरी जाप्रो और कृष्ण वासुदेव को यह अर्थ निवेदन करो। कृष्ण वासुदेव ही द्रौपदी देवी को मार्गणा—गवेषणा करेंगे, अन्यथा द्रौपदी देवी की श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति अपने को ज्ञात हो, ऐसा नहीं जान पड़ता।' अर्थात् हम द्रौपदी का पता नहीं पा सकते, केवल कृष्ण ही उसका पता लगा सकते हैं। १६१–तए णं कोंती देवी पंडुरण्णा एवं वुत्ता समाणी जाव पडिसुणइ, पडिसुणित्ता व्हाया कयबलिकम्मा हत्थिखंधवरगया हथिणाउरं जयरं मझमझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गछित्ता कुरुजणवयं मज्झंमज्झणं जेणेव सुर?जणवए, जेणेव बारवई णयरी, जेणेव अग्गुज्जाणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी--- 'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! बारवई गर्यारं जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स गिहे तेणेव अणुपविसह, अणुपविसित्ता कण्हं वासुदेवं करयलपरिग्गहियं एवं वयह -- 'एवं खलु सामी ! तुम्भं पिउच्छा कोंती देवी हथिणाउराओ नयराओ इह हव्वमागया तुम्भं दंसणं कति / ' पाण्डु राजा के द्वारका जाने के लिए कहने पर कुन्ती देवी ने उनकी बात यावत् स्वीकार की / वह नहा-धोकर बलिकर्म करके, हाथी के स्कंध पर आरूढ होकर हस्तिनापुर नगर के मध्य में Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [447 होकर निकली / निकल कर कुरु देश के बीचोंबीच होकर जहाँ सुराष्ट्र जनपद था, जहाँ द्वारवती नगरी थी और नगर के बाहर श्रेष्ठ उद्यान था, वहाँ आई / पाकर हाथी के स्कंध से नीचे उतरी। उतरकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जहां द्वारका नगरी है वहाँ जाओ, द्वारका नगरी के भीतर प्रवेश करो। प्रवेश करके कृष्ण वासुदेव को दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहना--'हे स्वामिन् ! आपके पिता की बहन (भुग्रा) कुन्ती देवी हस्तिनापुर नगर से यहाँ आ पहुँची हैं और तुम्हारे दर्शन को इच्छा करती हैं-तुमसे मिलना चाहती हैं।' १६२-तए णं ते कोड बियपुरिसा जाव कहेंति / तए णं कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसाणं अंतिए एयमठे सोच्चा णिसम्म हदुतु8 हथिखंधवरगए बारवईए नयरीए मज्झंमज्झेणं जेणेव कोंती देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता कोंतीए देवीए पायग्गहणं करेइ, करित्ता कोंतीए देवीए सद्धि हस्थिखंधं दुरूहइ, दुरूहित्ता बारवईए नगरोए मज्झमज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयं गिहं अणुपविसइ / तब कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् कृष्ण वासुदेव के पास जाकर कुन्ती देवी के प्रागमन का समाचार कहा / कृष्ण वासुदेव कौटुम्बिक पुरुषों के पास से कुन्ती देवी के आगमन का समाचार सुनकर हषित और सन्तुष्ट हुए / हाथी के स्कंध पर आरूढ होकर द्वारवती नगरी के मध्यभाग में होकर जहाँ कुन्ती देवी थी, वहाँ आये पाकर हाथी के स्कंध से नीचे उतरे / नीचे उतर कर उन्होंने कुन्ती देवी के चरण ग्रहण किये -पैर छुए / फिर कुन्ती देवी के साथ हाथी पर आरूढ हुए / आरूढ होकर द्वारवती नगरी के मध्य भाग में होकर जहाँ अपना महल था, वहाँ आये / आकर अपने महल में प्रवेश किया / १६३-तए णं से कण्हे वासुदेवे कोंति देवि व्हायं कयबलिकम्म जिमियभुत्तत्तरागयं जाव सुहासणवरगयं एवं वयासी- 'संदिसउ णं पिउच्छा ! किमागमणपओयणं?' कुन्ती देवी जब स्नान करके, बलिकर्म करके और भोजन कर चुकने के पश्चात् सुखासन पर बैठी, तब कृष्ण वासुदेव ने इस प्रकार कहा-'हे. पितृभगिनी ! कहिए, आपके यहाँ आने का क्या प्रयोजन है ?' १६४–तए णं सा कोंती देवी कण्हं वासुदेवं एवं वयासो--'एवं खलु पुत्ता ! हस्थिणाउरे गयरे जुहिदिल्लस्स आगासतले सुहपसुत्तस्स दोवई देवी पासाओ ण णज्जइ केणइ अवहिया वा, णीया वा, अक्खिता वा, तं इच्छामि णं पुत्ता ! दोवईए देवीए मग्गणगवेसणं कयं / ' तब कुन्ती देवी ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-'हे पुत्र ! हस्तिनापुर नगर में युधिष्ठिर प्राकाशतल (अगासी) पर सुख से सो रहा था / उसके पास से द्रौपदी देवी को न जाने कौन अपहरण करके ले गया, अथवा खींच ले गया। अतएव हे पुत्र ! मैं चाहती हूँ कि द्रौपदी देवी की मार्गणा-गवेषणा करो।' १६५-तए णं से कण्हे वासुदेवे कोंति पिच्छि एवं वयासी—'जं नवरं पिउच्छा ! दोवईए Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448] [ ज्ञाताधर्मकथा देवीए कत्थइ सुई वा जाव [खुइं वा पवित्ति वा] लभामि तो णं अहं पायालाओ वा भवणाओ वा अद्धभरहाओ वा समंतओ दोवई साहत्थि उवणेमि' त्ति कटु कोंति पिच्छि सक्कारेइ, सम्माणेइ जाव पडिविसज्जेइ / तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने अपनी पितृभगिनी (फूफी) कुन्ती से कहा-'भाजी! अगर मैं कहीं भी द्रौपदी देवी की श्रुति (शब्द) यावत् [छींक आदि ध्वनि या समाचार] पाऊँ, तो मैं पाताल से, भवन में से या अर्धभरत में से, सभी जगह से, हाथों-हाथ ले पाऊँगा।' इस प्रकार कह कर उन्होंने कुन्ती भुया का सत्कार किया, सन्मान किया, यावत् उन्हें विदा किया। १६६-तए णं सा कोंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविसज्जिया समाणी जामेव दिस पाउन्भूआ तामेव दिसि पडिगया। कृष्ण वासुदेव से यह आश्वासन पाने के पश्चात् कुन्ती देवी, उनसे विदा होकर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई। १६७-तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासो-'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! बारवई नयरिं, एवं जहा पंडू तहा घोसणं घोसावेइ, जाव पच्चप्पिणंति, पंडुस्स जहा। ___ कुन्ती देवी के लौट जाने पर कृष्ण वासुदेव ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा-देवानुप्रियो ! तुम द्वारका में जानो इत्यादि कहकर द्रौपदी के विषय में घोषणा करने का आदेश दिया / जैसे पाण्डु राजा ने घोषणा करवाई थी, उसी प्रकार कृष्ण वासुदेव ने भी करवाई। यावत् उनको प्राज्ञा कौटुम्बिक पुरुषों ने वापिस की / सब वृत्तान्त पाण्डु राजा के समान कहना चाहिए। १६८-तए णं से कण्हे वासुदेवे अन्नया अंतो अंतेउरगए ओरोहे जाव विहरइ / इमं च णं फच्छुल्लए जाव समोवइए जाव णिसीइत्ता कण्हं वासुदेवं कुसलोदंतं पुच्छइ / तत्पश्चात् किसी समय कृष्ण वासुदेव अन्तःपुर के अन्दर रानियों के साथ रहे हुए थे। उसी समय वह कच्छुल्ल नारद यावत् आकाश से नीचे उतरे / यावत् कृष्ण वासुदेव के निकट जाकर पूर्वोक्त रीति से प्रासन पर बैठकर कृष्ण वासुदेव से कुशल वृत्तान्त पूछने लगे। १६९-तए णं से कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लं णारयं एवं वयासी---'तुमं णं देवाणुप्पिया! बहूणि गामागर जाव' अणुपविससि, तं अत्थि याइं ते कहि वि दोवईए देवीए सुई वा जाव उवलद्धा ?' तए णं से कच्छुल्ले णारए कण्हं वासुदेवं एवं वयासो-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! अन्नया धायईसंडे दीवे पूरस्थिमद्धं दाहिणभरहवासं अमरकंकारायहाणि गए, तत्थ णं मए पउमनाभस्स रणो भवणंसि दोवई देवी जारिसिया दिठ्ठपुव्वा यावि होत्था / ' 1. प्र. 16. सूत्र 139. Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [ 449 तए णं कण्हे वासुदेवे कच्छुल्ल णारयं एवं वयासी-'तुभं चेव णं देवाणुप्पिया! एवं पुवकम्मं / ' तए णं से कच्छुल्लनारए कण्हेणं वासुदेवेणं एवं कुत्ते समाणे उप्पणि विजं आवाहेइ, आवाहित्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कच्छुल्ल नारद से कहा-'देवानुप्रिय ! तुम बहुत-से ग्रामों, आकरों नगरों आदि में प्रवेश करते हो। तो किसी जगह द्रौपदी देवी की श्रुति आदि कुछ मिली है ? तब कच्छुल्ल नारद ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा--'देवानुप्रिय ! एक बार मैं धातकीखण्ड द्वीप में, पूर्व दिशा के दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र में अमरकंका नामक राजधानी में गया था / वहां मैंने पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी जैसी (कोई महिला) देखी थी।' __ तब कृष्ण वासुदेव ने कच्छुल्ल नारद से कहा-'देवानुप्रिय ! यह तुम्हारी ही करतूत जान पड़ती है।' कृष्ण वासुदेव के द्वारा इस प्रकार कहने पर कच्छुल्ल नारद ने उत्पतनी विद्या का स्मरण किया। स्मरण करके जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में चल दिए। द्रौपदी का उद्धार १७०-तए णं से कण्हे वासुदेवे दूयं सद्दावेई, सद्दावित्ता एवं बयासी गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया ! हथिणाउरं, पंडुस्स रण्णो एयमझें निवेदेहि--'एवं खलु देवाणुप्पिया ! धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धे अमरकंकाए रायहाणीए पउमनाभभवणंसि दोवईए देवीए पउत्ती उवलद्धा / तं गच्छंतु पंच पंडवा चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवुडा पुरच्छिम-बेयालीए ममं पडिवालेमाणा चिट्ठतु।' तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने दूत को बुलाया। बुला कर उससे कहा--'देवानुप्रिय ! तुम हस्तिनापुर जाओ और पाण्डु राजा को यह अर्थ निवेदन करो-'हे देवानुप्रिय ! ! धातकीखण्ड द्वीप में, पूर्वार्ध भाग में, अमरकंका राजधानी में, पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी का पता लगा है / अतएव पांचों पाण्डव चतुरंगिणी सेना से परिवृत होकर रवाना हों और पूर्व दिशा के वेतालिक' (लवणसमुद्र) के किनारे मेरी प्रतीक्षा करें।' १७१-तए णं दूए जाव भणइ--'पडिवालेमाणा चिट्ठह / ' ते वि जाव चिट्ठति / तत्पश्चात् दूत ने जाकर यावत् कृष्ण के कथनानुसार पाण्डवों से प्रतीक्षा करने को कहा। तब पांचों पाण्डव वहां जाकर यावत् कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करने लगे। १७२–तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! सन्नाहियं भेरि ताडेह / ' ते वि तालेति / तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर कहा- 'देवानुप्रियो ! 1. जहां समुद्र की वेल चढ़ कर गंगा नदी में मिलती है, वह स्थान / Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 ] [ज्ञाताधर्मकथा तुम जानो और सान्नाहिक (सामरिक) भेरी बजायो / ' यह सुन कर कौटुम्बिक पुरुषों ने सामरिक भेरी बजाई। १७३--तए णं तीसे सण्णाहियाए भेरीए सई सोच्चा समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव' छप्पण्णं बलक्यसाहस्सीओ सन्नद्धबद्ध जाव गहियाउहपहरणा अप्पेगइया हयगया जाव वग्गुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सुहम्मा, जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छति, उवाच्छित्ता करयल जाव वद्धाति / सान्नाहिक भेरी की ध्वनि सुन कर समुद्रविजय आदि दस दसार यावत् छप्पन हजार बलवान् योद्धा कवच पहन कर, तैयार होकर, आयुध और प्रहरण ग्रहण करके कोई-कोई घोड़ों पर सवार होकर, कोई हाथी आदि पर सवार होकर, सुभटों के समूह के साथ जहां कृष्ण वासुदेव की सुधर्मा सभा थी और जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ आये / पाकर हाथ जोड़ कर यावत् उनका अभिनन्दन किया। १७४-तए णं कण्हे वासुदेवे हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहि वीइज्जमाणे महया हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिचुडे महया भडचडगरपहकरविंदपरिक्खित्ते बारवईए जयरीए मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छिता जेणेव पुरच्छिमवेयाली तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचहि पंडवेहि सद्धि एगयओ मिलइ, मिलित्ता खंधावारणिवेसं करेइ, करित्ता पोसहसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता सुत्थियं देवं मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइ। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुए। कोरंट वृक्ष के फूलों की मालाओं से युक्त छत्र उनके मस्तक के ऊपर धारण किया गया। दोनों पावों में उत्तम श्वेत चामर ढोरे जाने लगे 1 वे बड़े-बड़े अश्वों, गजों, रथों और उत्तम पदाति-योद्धाओं की चतुरंगिणी सेना और अन्य सुभटों के समूहों से परिवत होकर द्वारका नगरी के मध्य भाग में होकर निकले / निकल कर जहां पूर्व दिशा का वेतालिक था, वहाँ पाए। वहाँ आकर पाँच पाण्डवों के साथ इकट्ठे हुए (मिले) फिर पड़ाव डाल कर पौषधशाला में प्रवेश किया। प्रवेश करके सुस्थित देव का मन में पुनः पुनः चिन्तन करते हुए स्थित हुए / कृष्ण द्वारा देव का आह्वान १७५-तए णं कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि सुट्टिओ जाव आगओ-'भण देवाणुप्पिया ! जं मए कायव्वं / ' तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं देवं एवं वयासो-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! दोवई देवी जाव पउमनाभस्स रण्णो भवर्णसि साहरिया, तंणं तुम देवाणुप्पिया! मम पंचहिं पंडवेहि सद्धि अप्पछलस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरेहि / ज णं अहं अमरकंकारायहाणि दोवईए देवीए फूवं गच्छामि / ' तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव का अष्टमभक्त पूरा होने पर सुस्थित देव यावत् उनके समीप 1. प्र. 16 सूत्र 86, 2. प्र. 16 सूत्र 107 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [ 451 आया / उसने कहा-'देवानुप्रिय ! कहिए मुझे क्या करना है ?' तब कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! द्रौपदी देवी यावत् पद्मनाभ राजा के भवन में हरण की गई है, अतएव तुम हे देवानुप्रिय ! पाँच पाण्डवों सहित छठे मेरे छह रथों को लवणसमुद्र में मार्ग दो, जिससे मैं (पाण्डवों सहित) अमरकंका राजधानी में द्रोपदी देवी को वापस छीनने के लिए जाऊँ।' १७६-तए णं से सुत्थिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं वयासो—'किण्णं देवाणुप्पिया! जहा चेव पउमनाभस्स रण्णो पुव्वसंगतिएणं देवेणं दोबई देवी जाव [जंबुद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ बासाओ हस्थिणाउराओ नयराओ जुहिट्टिलस्स रण्णो भवणाओ] संहरिया, तहा चेव दोवई देवि धायईसंडाओ दोवाओ भारहाओ [वासाओ अमरकंकाओ रायहाणीओ पउमनाभस्स रण्णो भवणाओ] जाव हत्थिणारं साहरामि ? उदाहु पउमनाभं रायं सपुरबलवाहणं लवणसमुद्दे पक्खिवामि ?' तत्पश्चात् सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा–'देवानुप्रिय ! जैसे पद्मनाभ राजा के पूर्व संगतिक देव ने द्रौपदी देवी का [जम्बूद्वीपवर्ती भरत क्षेत्र के हस्तिनापुर नगर से युधिष्ठिर राजा के भवन से] संहरण किया, उसी प्रकार क्या मैं द्रौपदी देवी को धातकी खंडद्वीप के भरत क्षेत्र से यावत् अमरकंका राजधानी में स्थित पद्मनाभ राजा के भवन से हस्तिनापुर ले जाऊँ ? अथवा पद्मनाभ राजा को उसके नगर, सैन्य और वाहनों के साथ लवणसमुद्र में फैंक दू?' १७७–तए णं कण्हे वासुदेवे सुत्थियं देवं एवं वयासी-'मा णं तुम देवाणुप्पिया! जाव साहराहि तुम णं देवाणुप्पिया ! लवणसमुद्दे अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं मग्गं वियराहि, सयमेव णं अहं दोबईए देवीए कूवं गच्छामि / ' तब कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से कहा-'देवानुप्रिय ! तुम यावत् संहरण मत करो। देवानुप्रिय ! तुम तो पाँच पाण्डवों सहित छठे हमारे छह रथों को लवणसमुद्र में जाने का मार्ग दे दो। मैं स्वयं ही द्रौपदी देवी को वापिस लाने के लिए जाऊँगा।' १७८-तए णं से सुट्ठिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं वयासो-'एवं होउ / ' पंचाह पंडवेहि सद्धि अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरइ। तब सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से कहा-'ऐसा ही हो तथास्तु / ' ऐसा कह कर उसने पाँच पाण्डवों सहित छठे वासुदेव के छह रथों को लवणसमुद्र में मार्ग प्रदान किया। पद्मनाभ के पास दूत-प्रेषण १७९-तए णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिण सेणं पडिविसज्जेइ, पडिविसज्जित्ता पंचहि पंडवेहि द्धि अप्पछठे हि रहेहि लवणसमुई मज्झंमज्झेणं बीईवयइ, वीईवइत्ता जेणेब अमरकंका रायहाणी, जेणेव अमरकंकाए अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, ठवित्ता दारुयं साहिं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने चतुरंगिणी सेना को विदा करके पांच पाण्डवों के साथ छठे Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452] [ ज्ञाताधर्मकथा आप स्वयं छह रथों में बैठ कर लवणसमुद्र के मध्यभाग में होकर जाने लगे। जाते-जाते जहाँ अमरकंका राजधानी थी और जहाँ अमरकंका का प्रधान उद्यान था, वहाँ पहुँचे / पहुँचने के बाद रथ रोका और दारुक नामक सारथी को बुलाया। उसे बुलाकर कहा १८०--'गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! अमरकंकारायहाणि अणुपविसाहि, अणुपविसित्ता पउमणाभस्स रण्णो वामेणं पाएणं पायपीढं अक्कमित्ता कुतग्गेणं लेहं पणामेहि; तिवलियं भिडि णिडाले साहटु आसुरुत्ते रुठे कुद्धे कुविए चंडिक्किए एवं वदह–'हं भो पउमणाहा ! अपत्थियपत्थिया! दुरंतपंतलक्खणा ! होणपुग्णचाउद्दसा! सिरिहिरिधीपरिवज्जिया ! अज्ज ण भवसि, कि णं तुमं ण जाणासि कण्हस्स वासुदेवस्स भगिणि दोवई देवि इहं हवं आणमाणे ? तं एयमवि गए पच्चप्पिणाहि णं तुम दोवइं देवि कण्हस्स वासुदेवस्स, अहवा णं जुद्धसज्जे णिग्गच्छाहि, एस गं कण्हे वासुदेवे पंचहि पंडवेहि अप्पछठे दोवईदेवीए कूवं हव्वमागए।' 'देवानुप्रिय ! तु जा और अमरकंका राजधानी में प्रवेश कर / प्रवेश करके पद्मनाभ राजा के समीप जाकर उसके पादपीठ को अपने बाँयें पैर से आक्रान्त करके-ठोकर मार करके भाले की नोंक द्वारा यह (लेख) पत्र देना / फिर कपाल पर तीन बल वाली भृकुटि चढ़ा कर, आँखें लाल करके, रुष्ट होकर, क्रोध करके, कुपित होकर और प्रचण्ड रूप धारण कर कहना-'अरे पद्मनाभ ! मौत की कामना करने वाले ! अनन्त कुलक्षणों वाले ! पुण्यहीन ! चतुर्दशी के दिन जन्मे हुए (अथवा हीनपुण्य वाली चतुर्दशी अर्थात् कृष्ण पक्ष की चौदस को जन्मे हुए ) श्री, लज्जा और बुद्धि से हीन ! अाज तू नहीं बचेगा / क्या तू नहीं जानता कि तू कृष्ण वासुदेव की भगिनी द्रौपदी देवी को यहां ले आया है ? खैर, जो हुआ सो हुअा, अब भी तू द्रौपदी देवी कृष्ण वासुदेव को लौटा दे अथवा युद्ध के लिए तैयार होकर बाहर निकल / कृष्ण वासुदेव पांच पाण्डवों के साथ छठे अाप द्रौपदी देवी को वापिस छीनने के लिए अभी-अभी यहाँ आ पहुँचे हैं।' १८१--तए णं से दारुए सारही कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ते समाणे हद्वतुढे जाव पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता अमरकंकारायहाणि अणुपविसइ अणुपविसित्ता जेणेव पउमनाभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेत्ता एवं यासी-'एस णं सामी ! मम विणयपडिवत्ती, इमा अन्ना मम सामियस्स समुहाणत्ति' त्ति कटु आसुरुत्ते वामपाएणं पायपीढं अणुक्कमति, अणुक्कमित्ता कोतग्गेणं लेहं पणामइ, पणामित्ता जाव कूवं हव्वमागए। तत्पश्चात् वह दारुक सारथी कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर हर्षित और संतुष्ट हुआ / यावत् उसने यह आदेश अंगीकार किया। अंगीकार करके अमरकंका राजधानी में प्रवेश किया। प्रवेश करके पद्मनाभ के पास गया। वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् अभिनन्दन किया और कहा-स्वामिन् ! यह मेरी अपनी विनय-प्रतिपत्ति (शिष्टाचार) है। मेरे स्वामी के मुख से कही हुई आज्ञा दूसरी है / वह यह है / इस प्रकार कह कर उसने नेत्र लाल करके और क्रुद्ध होकर अपने वाम पैर से उसके पादपीठ को आक्रान्त किया-ठुकराया। भाले की नोंक से लेख दिया। फिर कृष्ण वासुदेव का समस्त आदेश कह सुनाया, यावत् वे स्वयं द्रौपदी को वापिस लेने के लिए आ पहुँचे हैं / १८२--तए णं से पउमणाभे दारुएणं सारहिणा एवं बुत्ते समाणे आसुरुत्ते तिलि भिडि Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [453 निडाले साहटु एवं क्यासी--णो अपणामि णं अहं देवाणुप्पिया! काहस्स वासुदेवस्स दोवई, एस णं अहं सयमेव जुज्झसज्जो निग्गच्छामि, ति कटु दारुयं सारहिं एवं क्यासी– 'केवलं भो ! रायसत्थेसु दूए अवज्झे' त्ति कटु असक्कारिय असम्माणिय अवद्दारेणं णिच्छुभावेइ। तत्पश्चात् पद्मनाभ ने दारुक सारथी के इस प्रकार कहने पर नेत्र लाल करके और क्रोध से कपाल पर तीन सल वाली भृकुटी चढ़ा कर कहा -'देवानुप्रिय ! मैं कृष्ण वासुदेव को द्रौपदी वापिस नहीं दूंगा। मैं स्वयं ही युद्ध करने के लिए सज्ज होकर निकलता हूँ।' इस प्रकार कहकर फिर दारुक सारथी से कहा—'हे दूत ! राजनीति में दूत अवध्य है (केवल इसी कारण मैं तुझे नहीं मारता)।' इस प्रकार कह कर सत्कार-सन्मान न करके अपमान करके, पिछले द्वार से उसे निकाल दिया। १८३--तए णं से दारुए सारही पउमनाभेणं असक्कारिय जाव [असम्माणिय अवद्दारेणं] निच्छुढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव कण्हं एवं वयासी-'एवं खलु अहं सामी ! तुम्भं वयणेणं जाव णिच्छुभावेइ / ' वह दारुक सारथि पद्मनाभ राजा के द्वारा असत्कृत हुआ, यावत् पिछले द्वार से निकाल दिया गया, तब कृष्ण वासुदेव के पास पहुंचा / पहुंच कर दोनों हाथ जोड़ कर कृष्ण वासुदेव से यावत् बोला-'स्वामिन् ! मैं आपके वचन (प्रादेश) से राजा पद्मनाभ के पास गया था, इत्यादि पूर्ववत्, यावत् उसने मुझे पिछले द्वार से निकाल दिया'—इत्यादि समग्र वृत्तान्त कहा।। पद्मनाभ-पाण्डव युद्ध १८४-तए णं से पउमणाभे बलवाउयं सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी—'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह / ' तयाणंतरं च णं छेयायरिय-उवदेस-मइविकप्पणाविगप्पेहि जाव सुनिउणेहि उज्जलणेवस्थि-हत्थपरिवत्थियं सुसज्ज जाव आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह पडिकप्पेत्ता] उवणेइ / तए णं से पउमनाहे सन्नद्ध जाव' अभिसेयं दुल्हइ, दुरूहिता हयगय' जेणेव कण्हे वासुदेवे तणेव पहारेत्थ गमणाए / कृष्ण वासुदेव के दूत को निकलवा देने के पश्चात् इधर पद्मनाभ राजा ने सेनापति को बुलाया और उससे कहा--'देवानुप्रिय ! अभिषेक किए हुए हस्तीरत्न को तैयार करके लायो।' यह आदेश सुनकर कुशल आचार्य के उपदेश से उत्पन्न हुई बुद्धि की कल्पना के विकल्पों (प्रकारों) से निपुण पुरुषों (महावतों) ने अभिषेक किया हुआ हस्ती उपस्थित किया / वह उज्ज्वल वेष से परिवत था, सुसज्जित था। तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा कवच आदि धारण करके सज्जित हुआ, यावत् अभिषेक किये हाथी पर सवार हुा / सवार होकर अश्वों, हाथियों आदि की चतुरंगिणी सेना के साथ वहाँ जाने को उद्यत हुअा जहाँ वासुदेव कृष्ण थे। १८५--तए णं से कण्हे वासुदेवे पउमनाभं रायाणं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता ते पंच पंडवे एवं वयासी–'हं भो दारगा ! कि तुब्भे पउमनाभेणं सद्धि जुज्झिहिह उदाहु पेच्छिहिह ?' 1. अ. 16, सूत्र 107., 2. प. 16 सूत्र 174 Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454] [ ज्ञाताधर्मकथा तए णं पंच पंडवा कण्हं वासुदेवं एवं वघासी-'अम्हे णं सामी ! जुज्झामो, तुम्भे पेच्छह / ' तए थे पंच पंडवे सन्नद्ध जाव पहरणा रहे दुरुहंति, दुरूहित्ता जेणेव पउमनाभे राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एवं वयासो--'अम्हे पउमणाभे वा राय त्ति कटु पउमनाभेणं सद्धि संपलग्गा यावि होत्या। तत्पश्चात् वासुदेव ने पद्मनाभ राजा को आता देखा। देख कर वह पांचों पाण्डवों से बोले-'अरे बालको! तुम पद्मनाभ के साथ युद्ध करोगे या युद्ध देखोगे?' तब पांच पाण्डवों ने कृष्ण वासुदेव से कहा---'स्वामिन् ! हम युद्ध करेंगे और आप हमारा युद्ध देखिए / ' तत्पश्चात् पांचों पाण्डव तैयार होकर यावत् शस्त्र लेकर रथ पर सवार हुए और जहाँ पद्मनाभ था, वहाँ पहुँचे / पहुँच कर 'आज हम हैं या पद्मनाभ राजा है।' ऐसा कहकर वे युद्ध करने में जुट गये। पाण्डवों का पराजय १८६-तए णं से पउमनाभे राया ते पंच पंडवे खिप्पामेव हय-महिय-पवरवीर-घाइयविवडियचिधद्धय-पडागे जाव [किच्छोवगयपाणे] दिसोदिसि पडिसेहेइ / तए णं ते पंच पंडवा पउमणाभेण रण्णा हयमहियपवरवीर-घाइयविवडिय जाव पडिसेहिया समाणा अस्थामा जाव आधारणिज्ज ति कटु जेणेब कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छति / तए णं से कण्हे वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं वयासो-'कहण्णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! पउमनाभेण रण्णा सद्धि संपलग्गा ?' तए णं ते पंच पंडवा कण्हं वासुदेवं एवं वयासो-'एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे तुम्भेहि अब्भणुन्नाया समाणा सन्नद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवया रहे दुरूहामो, दुरूहित्ता जेणेव पउमणाभे जाव पडिसेहइ / ' तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा ने उन पांचों पाण्डवों पर शीघ्र ही शस्त्र से प्रहार किया, उनके अहंकार को मथ डाला और उनकी उत्तम चिह्न से चिह्नित पताका गिरा दी। मुश्किल से उनके प्राणों की रक्षा हुई / उसने उन्हें इधर-उधर भगा दिया। तब वे पांचों पाण्डव पद्मनाभ राजा द्वारा शस्त्र से आहत, मथित अहंकार वाले और पतित पताका वाले होकर यावत् पद्मनाभ के द्वारा भगाए हुए, शत्रुसेना का निराकरण करने में असमर्थ होकर, वासुदेव कृष्ण के पास आये / तब वासुदेव कृष्ण ने पांचों पाण्डवों से कहा-'देवानुप्रियो ! तुम लोग पद्मनाभ राजा के साथ किस प्रकार (किस शर्त के साथ) युद्ध में संलग्न हुए थे?' ___ तब पांचों पाण्डवों ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! हम आपकी आज्ञा पाकर सुसज्जित होकर रथ पर आरूढ हुए। आरूढ होकर पद्मनाभ के सामने गये; इत्यादि सब पूर्ववत् कहना चाहिए, यावत् उसने हमें भगा दिया / ' १८७--तए णं कण्हे वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं बयासी-'जइ णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! एवं वयंता-अम्हे, णो फ्उमणाभे राय त्ति पउमणाभेणं सद्धि संपलग्गंता, तो णं तुम्भे णो पउमनाहे Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [ 455 हयमहियपवर जाव पडिसेहंते / तं पेच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! 'अहं, णो पउमणाभे राय' त्ति कटु पउमनाभेणं रन्ना सद्धि जुज्झामि / रहं दुरूहह, दुरूहित्ता जेणेव पउमनाभे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सेयं गोखीर-हार-घवलं तणसोल्लिय-सिंदुवार-कुदेंदु-सन्निगासं निययबलस्स हरिसजणणं रिउसेण्णविणासकरं पंचजणं संखं परामुसइ, परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ / पाण्डवों का उत्तर सुनकर कृष्ण वासुदेव ने पांचों पाण्डवों से कहा-देवानुप्रियो ! अगर तुम ऐसा बोले होते कि 'हम हैं, पद्मनाभ राजा नहीं' और ऐसा कहकर पद्मनाभ के साथ युद्ध में जुटते तो पद्मनाभ राजा तुम्हारा हनन नहीं कर सकता था। (तुमने बोलने में भूल की, इसी कारण तुम्हें भाग कर पाना पड़ा।) हे देवानुप्रियो ! अब तुम देखना / 'मैं हूँ, पद्मनाभ राजा नहीं' इस प्रकार कह कर मैं पद्मनाभ के साथ युद्ध करता हूँ। इसके बाद कृष्ण वासुदेव रथ पर आरूढ हुए। आरूढ होकर पद्मनाभ राजा के पास पहुँचे / पहुँच कर उन्होंने श्वेत, गाय के दूध और मोतियों के हार के समान उज्ज्वल, मल्लिका के फूल, मालती-कुसुम, सिन्दुवार-पुष्प, कुन्दपुष्प और चन्द्रमा के समान श्वेत, अपनी सेना को हर्ष उत्पन्न करने वाला पाञ्चजन्य शंख हाथ में लिया और मुख की वायु से उसे पूर्ण किया, अर्थात् फूंका। १८८-तए णं तस्स पउमनाहस्स तेणं संखसद्देणं बल-तिभाए हए जाव' पडिसेहिए / तए णं से कण्हे वासुदेवे धण परामुसइ, वेढो, धणु पूरेइ, पूरित्ता धणुसहं करेइ / तए णं तस्स पउमनाभस्स दोच्चे बल-तिभाए धणुसद्देणं हयमहिय जाव पडिसेहिए। तए णं से पउमनाभे राया तिभागबलावसेसे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जं ति कटु सिग्धं तुरियं जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता अमरकंक रायहाणि अणुपविसइ, अणुपविसित्ता दाराइं पिहेइ, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठइ। तत्पश्चात् उस शंख के शब्द से पद्मनाभ की सेना का तिहाई भाग हत हो गया, यावत् दिशा-दिशा में भाग गया। उसके बाद कृष्ण वासुदेव ने सारंग नामक धनुष हाथ में लिया / यहाँ एक वेढ कह लेना चाहिए / धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई / प्रत्यंचा चढ़ा कर टंकार की। तब पद्मनाभ की सेना का दूसरा तिहाई भाग उस धनुष की टंकार से हत-मथित हो गया यावत् इधर-उधर भाग छूटा / तब पद्मनाभ की सेना का एक तिहाई भाग ही शेष रह गया। अतएव पदमनाभ सामर्थ्यहीन. बलहीन, वीर्यहीन और पुरुषार्थ-पराक्रम से हीन हो गया। वह कृष्ण के प्रहार को सहन करने या निवारण करने में असमर्थ होकर शीघ्रतापूर्वक, त्वरा के साथ, अमरकंका राजधानी में जा घुसा / उसने अमरकंका राजधानी के अन्दर घुस कर द्वार बंद कर लिए / द्वार बंद करके वह नगररोध के लिए सज्ज होकर स्थित हो गया / विवेचन----मूल में आए वेढ (वेष्टक) अर्थ है-एक वस्तुविषयक पदपद्धति / यह वेढ यहाँ धनुषविषयक समझना चाहिए / टीका के अनुसार वह इस प्रकार है अइरुग्गयबालचंद-इंदधणुसन्निगासं वरमहिस-दरिय-दप्पिय-दढघणसिंगग्गरइयसारं, उरगवरपवरगवल-पवरपहुरय-भमरकुल-नीलि निद्ध-धंतधोयपट्ट, निउणोविय-मिसिमिसिंत-मणिरयणघंटिया१. प्र. 16 सूत्र 186. Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 [ ज्ञाताधर्मकथा जालपरिक्खित्तं, तडित-तरुणकिरण-तवणिज्जवचिधं, दद्दरमलयगिरिसिहर-केसरचामरबालअद्धचंदचिधं, काल-हरिय-रत्त-पीय-सुक्किल्ल-बहुण्हारुणिसंपिणद्धजीवं, जीवियंतकर--- भावार्थ-यह श्रीकृष्ण के धनुष का वर्णन है / वह इस प्रकार है:-कृष्ण का धनुष शुक्लपक्ष की द्वितीया के अचिर-उदित-जिसे उदित हुए बहुत समय न हुआ हो ऐसे चन्द्रमा और इन्द्रधनुष था, अतीव दप्त-मदमाते उत्तम महिष के दढ और सधन अगों के अग्रभागों से बनाया गया था, कृष्ण सर्प, श्रेष्ठ भैसे के सींग, उत्तम कोकिला, भ्रमर-निकर और नील की गोली के सदृश उज्ज्वल स्निग्ध-काली कान्ति से युक्त उसका पृष्ठ भाग था, किसी कुशल कलाकार द्वारा उजाले गए-चमकाए हुए-मणिरत्नों की घंटियों के समूह से वेष्टित था, चमकती बिजली की किरणों जैसे स्वर्ण-चिह्नों से सुशोभित था, दर्दर और मलय पर्वत शिखरों पर विचरण करने वाले सिंह की गर्दन के वालों (अयाल) तथा चमरों की पूछ के केशों के एवं अर्द्धचन्द्र के लक्षणों-चिह्नों से युक्त था, काली, हरी, लाल, पीली और श्वेत वर्ण की नसों से उसकी जीवा (प्रत्यंचा) बंधी थी। वह धनुष शत्रुओं के जीवन का अन्त करने वाला था। १८९-तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, ठवित्ता रहाओ पच्चोरहइ, पच्चोरुहित्ता देउब्वियसमुग्धाएणं समोहणइ, समोहणित्ता एग महं णरसीहरूवं विउव्वइ, विउवित्ता महया महया सद्देणं पाददद्दरियं करेइ / तए णं से कण्हेणं वासुदेवेणं महया महया सद्देणं पाददद्दरएणं कएणं समाणेणं अमरकंका रायहाणी संभग्गपागार-गोपुराट्टालय-चरियतोरण-पल्हस्थियपवरभवण-सिरिघरा सरस्सरस्स धरणियले सन्निवइया / तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव जहाँ अमरकंका राजधानी थी, वहाँ गये / वहाँ जाकर रथ ठहराया। रथ से नीचे उतरे। वैक्रियसमुद्घात से समवहत हुए अर्थात् समुद्घात किया। समुद्घात करके उन्होंने एक महान न नरसिंह का रूप धारण किया। फिर जोर-जोर के शब्द करके पैरों का प्रास्फालन किया--पैर पछाड़े / कृष्ण वासुदेव के जोर-जोर की गर्जना के साथ पैर पछाड़ने से अमरकंका राजधानी के प्राकार (परकोटा) गोपुर (फाटक) अट्टालिका (झरोखे) चरिका (परकोटा और नगर के बीच का मार्ग) और तोरण (द्वार का ऊपरी भाग) गिर गये और श्रेष्ठ महल तथा श्रीगृह (भंडार) चारों ओर से तहस-नहस होकर सरसराट करके धरती पर आ पड़े। पद्मनाभ द्रौपदी की शरण में १९०-तए णं पउमणाभे राया अमरकंक रायहाणि संभग्ग जाव पासित्ता भीए दोवई देवि सरणं उवेइ / तए णं सा दोवई देवी पउमनाभं रायं एवं वयासी-'किण्णं तुम देवाणुप्पिया ! न जाणसि कण्हस्स वासुदेवस्स उत्तमपुरिसस्स विप्पियं करेमाणे ममं इह हब्वमाणेसि ? तं एवमवि गए गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! हाए उल्लपडसाडए अवचूलगवत्थणियत्थे अंतेउरपरियालसंपरिडे अग्गाई वराई रयणाई गहाय मम पुरतो काउं कण्हं वासुदेवं करयलपायपडिए सरणं उवेहि, पणिवइयवच्छला गं देवाणुप्पिया ! उत्तमपुरिसा / तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा अमरकंका राजधानी को पूर्वोक्त प्रकार से बुरी तरह भग्न हुई जानकर भयभीत होकर द्रौपदी देवी की शरण में गया / तब द्रौपदी देवी ने पदमनाभ राजा से Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [ 457 कहा--देवानुप्रिय ! क्या तुम नहीं जानते कि पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव का विप्रिय करते हुए तुम मुझे यहां लाये हो ? किन्तु जो हुआ सो हुप्रा / अब देवानुप्रिय ! तुम जायो / स्नान करो। पहनने और प्रोढ़ने के वस्त्र गोले (पानी नितरते हुए) धारण करो। पहने हुए वस्त्र का छोर नीचा रखो अर्थात् कांछ खुली रखो / अन्तःपुर की रानियों आदि परिवार को साथ में ले लो। प्रधान और श्रेष्ठ रत्न भेंट के लिए लो / मुझे आगे कर लो। इस प्रकार चलकर कृष्ण वासुदेव को दोनों हाथ जोड़ कर उनके पैरों में गिरो और उनकी शरण ग्रहण करो / देवानुप्रिय ! उत्तम पुरुष प्रणिपतितवत्सल होते हैं-अर्थात् जो उनके सामने नम्र होते हैं, उन पर दया और प्रसन्नता प्रकट करते हैं / (ऐसा करने से ही तुम्हारी नगरी प्रादि की रक्षा होगी / अन्यथा नहीं)। द्रौपदी-समर्पण १९१–तए णं से पउमणाभे दोवईए देवीए एयमलैं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता हाए जाव सरणं उवेइ, उवइत्ता करयल एवं वयासी-'दिट्ठा णं देवाणुप्पियाणं इड्डी जाव परक्कमे, तं खामेमि गं देवाणप्पिया ! जाव खमंतु णं जाव णाहं भुज्जो एवं करणयाए' त्ति कटु पंजलिउडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवस्स दोवई वि साहत्थि उवणेइ / उस समय पद्मनाभ ने द्रौपदी देवी के इस अर्थ को अंगीकार किया / अंगीकार करके द्रौपदी देवी के कथनानुसार स्नान आदि करके कृष्ण वासुदेव को शरण में गया / वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहने लगा-'मैंने आप देवानुप्रिय की ऋद्धि देख ली, पराक्रम देख लिया / हे देवानुप्रिय ! मैं क्षमा की प्रार्थना करता हूँ, आप यावत् क्षमा करें / यावत् मैं पुन: ऐसा नहीं करूगा।' इस प्रकार कह कर उसने हाथ जोड़े / पैरों में गिरा / उसने अपने हाथों द्रौपदी देवी सौंपी। १९२--तए णं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभं एवं वयासी---- 'हं भो पउमणाभा! अप्पत्थियपत्थिया ! किण्णं तुम ण जाणसि मम भििण दोवई देवि इह हव्वमाणमाणे ? ते एवमवि गए त्थि ते ममाहितो इयाणि भयमस्थि' त्ति कटु पउमणाभं पडिविसज्जेइ, पडिविसज्जित्ता दोवई देवि गिण्हइ, गिहित्ता रहं दुरुहेइ, दुरूहित्ता जेणेव पंच पंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचण्हं पंडवाणं दोवई देवि साहत्यि उवणेइ। ___ तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा-'अरे पद्मनाभ अप्रार्थित (मृत्यु) को प्रार्थना करने वाले! क्या तू नहीं जानता कि तू मेरी भगिनी द्रौपदी देवी को जल्दी से यहाँ ले आया है ? ऐसा होने पर भी, अव तुझे मुझसे भय नहीं है !' इस प्रकार कह कर पद्मनाभ को छुट्टी दी। उसे छुटकारा देकर द्रौपदी देवी को ग्रहण किया और रथ पर आरूढ हुए। रथ पर आरूढ होकर पांच पाण्डवों के समीप आये / वहाँ श्राकर द्रौपदी देवी को हाथों-हाथ पांचों पाण्डवों को सौंप दिया। १९३-तए णं से कण्हे पंचहि पंडवेहि सद्धि अप्पछठे हि रहेहि लवणसमुदं मज्झमझेणं जेणेव जंबुद्दीवे दोवे, जेणेव भारहे वासे, तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तत्पश्चात् पांचों पाण्डवों के साथ, छठे आप स्वयं कृष्ण वासुदेव छह रथों में बैठकर, लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जिधर जम्बूद्वीप था अोर जिधर भारतवर्ष था, उधर जाने को उद्यत हुए। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 ] [ ज्ञाताधर्मकथा 194 तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे पुरिच्छमद्धे भारहे वासे चंपा णामं णयरी होत्था / पुण्णभद्दे चेइए / तत्थ णं चंपाए गयरीए कविले णामं वासुदेवे राया होत्था, महया हिमवंत वष्णओ' / उस काल और उस समय में, धातकीखंडद्वीप में, पूर्वार्ध भाग के भरतक्षेत्र में, चम्पा नामक नगरी थी। पूर्णभद्र नामक चैत्य था। उस चम्पा नगरी में कपिल नामक वासुदेव राजा था। वह महान् हिमवान् पर्वत के समान महान् था / यहाँ राजा का वर्णन कह लेना चाहिए। वासुदेवों का ध्वनि-मिलन १९५-तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुब्बए अरहा चंपाए पुण्णभद्दे समोसढे / कपिले वासुदेवे धम्म सणेहतए णं से कविले वासदेवे मणिसवयस्स अरहओ धम्म सणमाणे कण्हस्स वासुदेवस्स संखसई सुणेइ / तए णं तस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था-'कि मष्णे धायइसंडे दीवे भारहे वासे दोच्चे वासुदेवे समुप्पण्णे जस्स णं अयं संखसद्दे ममं पिव मुहवायपूरिए वियंभइ?' उस काल और उस समय में मुनिसुव्रत नामक अरिहन्त चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे। कपिल वासुदेव ने उनसे धर्मोपदेश श्रवण किया / उसी समय मुनिसुव्रत अरिहन्त से धर्म श्रवण करते-करते कपिल वासुदेव ने कृष्ण वासुदेव के पांचजन्य शंख का शब्द सुना / तब कपिल वासदेव के चित्त में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुा-'क्या धातकीखण्ड द्वीप के भारतवर्ष में दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है ? जिसके शंख का शब्द ऐसा फैल रहा है, जैसे मेरे मुख की वायु से पूरित हुया हो-~-मैंने बजाया हो।' १९६–'कविला वासुदेवा, सद्दाई (सुणेइ)' मुणिसुव्वए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी-'से णणं ते कविला ! वासुदेवा ! मम अंतिए धम्म णिसामेमाणस्स संखसई आकण्णित्ता इमेयारूवे अज्झथिएं समुप्पण्णे-fक मण्णे जाव वियंभइ, से नणं कविला! वासुदेवा ! अयमठे समठे ?' 'हता अस्थि / ' 'कपिल वासुदेव' इस प्रकार से सम्बोधित करके मुनिसुव्रत अरिहन्त ने कपिल वासुदेव से कहा-'हे कपिल बासुदेव ! मेरे धर्म श्रवण करते हुए तुम्हें यह विचार आया है कि---'क्या इस भरतक्षेत्र में दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है, जिसके शंख का यह शब्द फैल रहा है आदि; हे कपिल वासुदेव ! मेरा यह अर्थ (कथन) सत्य है ?' (कपिल वासुदेव ने उत्तर दिया)--'हाँ सत्य है / ' १९७--'नो खलु कपिला ! वासुदेवा ! एवं भूयं वा, भवइ वा, भविस्सइ वा जण्णं एगे खेते, एगे जगे, एगे समए दुवे अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा उपज्जिसु वा, उप्पज्जंति वा, उपज्जिस्संति वा / एवं खलु वासुदेवा ! जंबुद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ 1. प्रौपपातिक सूत्र में राजवर्णन देखिए / Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [459 हत्थिणाउरनयराओ पंडुस्स रणो सुण्हा पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवई देवी तव पउमणाभस्स रणो पुव्वसंगतिएणं देवेणं अमरकंकारि साहरिया। तए णं से कण्हे वासुदेवे पंहिं पंडवेहि सद्धि अप्पछठे हिं रहेहिं अमरकंकं रायहाणि दोवईए देवीए कूवं हवमागए / तए णं तस्स कण्हस्स वासुदेवस्स पउमनाभेणं रण्णा सद्धि संगाम संगामेमाणस्स अयं संखसद्दे तव मुहवायपूरिते इव इठे कंते इहेव वियंभइ।" मुनिसुव्रत अरिहंत ने पुनः कहा --'कपिल वासुदेव ! ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा नहीं कि एक क्षेत्र में एक ही युग में और एक ही समय में दो तीर्थंकर, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव अथवा दो वासुदेव उत्पन्न हुए हों, उत्पन्न होते हों या उत्पन्न होंगे। हे वासुदेव ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप से, भरत से हस्तिनापर नगर से पाण्ड राजा की पत्र-वध और पांच पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी देवी को तुम्हारे पद्मनाभ राजा का पहले का साथी देव हरण करके ले पाया था। पांच पांडवों समेत आप स्वयं छठे द्रौपदी देवी को वापिस छीनने के लिए शीघ्र पाये हैं। वह पद्मनाभ राजा के साथ संग्राम कर रहे हैं / अतः कृष्ण वासुदेव के शंख का यह शब्द है, जो ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारे मुख की वायु से पूरित किया गया हो और जो इष्ट है, कान्त है और यहाँ तुम्हें सुनाई दिया है।' १९८--तए णं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासो'गच्छामि णं अहं भंते ! कण्हं वासुदेवं उत्तमपुरिसं पासामि / ' तए णं मुणिसुव्वए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासो-'नो खलु देवाणुप्पिया! एवं भूयं वा, भवइ वा, भविस्सइ वा जाणं अरिहंता वा अरिहंतं पासंति, चक्कवट्टो वा चक्कट्टि पासंति, बलदेवा वा बलदेवं पासंति, वासुदेवा वा वासुदेवं पासंति। तह वि य णं तुमं कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुई मज्झमज्झेण वीइवयमाणस्स सेयापीयाई धयग्गाई पासिहिसि / ' तत्पश्चात् कपिल वासुदेव ने मुनिसुव्रत तीर्थंकर को बन्दना को, नमस्कार किया। बंदनानमस्कार करके कहा-'भगवन ! मैं जाऊँ और पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव को देख-उनके दर्शन करूं।' तब मुनिसुव्रत अरिहन्त ने कपिल वासुदेव से कहा-'देवानुप्रिय ! ऐसा हुया नहीं, होता नहीं और होगा नहीं कि एक तीर्थकर दूसरे तीर्थंकर को देखें, एक चक्रवतीं दूसरे चक्रवर्ती को देखें, एक बलदेव दूसरे बलदेव को देखें और एक वासुदेव दूसरे वासुदेव को देखें। तब भी तुम लवणसमुद्र के मध्य भाग में होकर जाते हुए कृष्ण वासुदेव के श्वेत एवं पीत ध्वजा के अग्रभाग को देख सकोगे।' १९९–तए णं कविले वासुदेवे मुणिमुव्वयं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता हत्थिखधं दुरूहइ, दुरूहित्ता सिग्धं सिग्धं जेणेव वेलाउले तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुई मज्झमज्झेणं वीइवयमाणस्स सेयापीयाई धयग्गाई पासइ, पासित्ता एवं वयइ–'एस णं मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासुदेवे लवणसमुहं मझमझेणं वीईवयइ' त्ति कटु पंचयन्नं संखं परामुसइ मुहवायपूरियं करेइ / तत्पश्चात् कपिल वासुदेव ने मुनिसुव्रत तीर्थंकर को वन्दन और नमस्कार किया। वन्दन 1. पाठान्तर ---'इव वियंभइ' / Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 } [ ज्ञाताधर्मकथा नस्कार करके वह हाथी के स्कंध पर आरूढ हुए / आरूढ होकर जल्दी-जल्दी जहाँ वेलाकल (लवणसमुद्र का किनारा) था, वहाँ आये। वहाँ आकर लवणसमुद्र के मध्य में होकर जाते हुए कृष्ण वासुदेव की श्वेत-पीत ध्वजा का अग्रभाग देखा / देखकर कहने लगे-'यह मेरे समान पुरुष हैं, यह पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव हैं, लवणसमुद्र के मध्य में होकर जा रहे हैं। ऐसा कहकर कपिल वासुदेव ने अपना पाञ्चजन्य शंख हाथ में लिया और उसे अपनी मुख की वायु से पूरित किया-फूका। २००--तए णं से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स संखसई आयन्नेइ, आयन्नित्ता पंचयन्नं जाव पूरियं करेइ / तए णं दो वि वासुदेवा संखसद्दसामायारि करेंति / तब कृष्ण वासुदेव ने कपिल वासुदेव के शंख का शब्द सुना / सुनकर उन्होंने भी अपने पाञ्चजन्य को यावत् मुख की वायु से पूरित किया / उस समय दोनों वासुदेवों ने शंख की समाचारी की, अर्थात् शंख के शब्द द्वारा मिलाप किया / २०१-~-तए णं से कविले वासुदेवे जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अमरकंक रायहाणि संभम्गतोरणं जाव' पासइ, पासित्ता पउमणाभं एवं वयासी-'किण्णं देवाणुप्पिया ! एसा अमरकंका रायहाणी संभग्ग जाव' सन्निवइया ?' तत्पश्चात् कपिल वासुदेव जहाँ अमरकंका राजधानी थी, वहाँ आए / आकर उन्होंने देखा कि अमरकंका के तोरण आदि टूट-फूट गये हैं। यह देखकर उन्होंने पद्मनाभ से पूछा--'देवानुप्रिय ! अमरकंका के तोरण आदि भग्न होकर क्यों पड़ गए हैं।' २०२-तए णं से पउमनाभे कविलं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु सामी ! जंबुद्दोवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इहं हव्वमागम्म कण्हेणं वासुदेवेणं तुब्भे परिभूय अमरकंका जाव: सन्निवाइया।' तव पद्मनाभ ने कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा-'स्वामिन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप से, भारतवर्ष से. यहाँ एकदम आकर कृष्ण वासुदेव ने, आपका पराभव करके, आपका अपमान करके, अमरकंका को यावत् गिरा दिया है ---अर्थात् इस भग्नावस्था में पहुँचा दिया है।' श्रीकृष्ण का लौटना : पांडवों की शरारत २०३–तए णं से कविले वासुदेवे पउमणाहस्स अंतिए एयमढं सोच्चा पउमणाहं एवं वयासी-'हं भो पउमणाभा ! अपत्थियपत्थिया! किं णं तुम न जाणसि मम सरिसपुरिसस्स कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणे ?' आसुरुत्ते जाव [ रुठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिडि निडाले साहटु ] पउमणाहं णिदिवसयं आणवेइ, पउमणाहस्स पुतं अमरकंकारायहाणीए महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचइ, जाव पडिगए। तत्पश्चात् कपिल वासुदेव, पद्मनाभ से उत्तर सुनकर पद्मनाम से बोले-'अरे पद्मनाभ ! अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाले ! क्या तू नहीं जानता कि तू ने मेरे समान पुरुष कृष्ण वासुदेव का 1..2. अ. 16 सूत्र 201. 3. अ. 16 सूत्र 202. Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [461 अनिष्ट किया है ? इस प्रकार कहकर वह क्रुद्ध हुए, यावत् [रुष्ट, कुपित, प्रचण्ड हुए, मस्तक पर त्रिवलियुक्त भृकुटि चढ़ाकर] पद्मनाभ को देश-निर्वासन की आज्ञा दे दी। पद्मनाभ के पुत्र को अमरकंका राजधानी में महान् राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया / यावत् कपिल वासुदेव वापिस चले गये। २०४-तए णं से कण्हे वासुदेवे लवणसमुई मज्झमज्झेणं वीइवयइ, गंगं उवागए, ते पंच पंडवे एवं वयासी-'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! गंगामहानदि उत्तरह जाव ताव अहं सुट्टियं देवं लवणाहिवई पासामि।' तए णं पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ता समाणा जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता एगट्टियाए णावाए मग्गणगवेसणं करेंति, करिता एगट्टियाए नावाए गंगामहानदि उत्तरंति, उत्तरित्ता अण्णमण्णं एवं वयंति-'पहू णं देवाणुप्पिया ! कण्हे वासुदेवे गंगामहाणइं वाहाहि उत्तरित्तए ? उदाहु णो पभू उत्तरित्तए ?' त्ति कटु एगट्टियं नावं णूति, शूमित्ता कण्हं वासुदेवं पडिवालेमाणा पडिवालेमाणा चिट्ठति / इधर कृष्ण वासुदेव लवणसमुद्र के मध्य भाग से जाते हुए गंगा नदी के पास आये। तब उन्होंने पांच पाण्डवों से कहा---'देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ / जब तक गंगा महानदी को उतरो, तब तक मैं लवणसमुद्र के अधिपति सुस्थित देव से मिल लेता हूँ।' तब वे पांचों पाण्डव, कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर जहाँ गंगा महानदी थी वहाँ आये। आकर एक नौका की खोज की। खोज कर उस नौका से गंगा महानदी उतरे / उतरकर परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'देवानप्रिय ! कृष्ण वासदेव गंगा महानदी को अपनी भजात्रों से पार करने में समर्थ हैं अथवा समर्थ नहीं हैं ? (चलो, इस बात की परीक्षा करें), ऐसा कह कर उन्होंने वह नौका छिपा दी / छिपा कर कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करते हुए स्थित रहे। २०५-तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं लवणाहिवई पासइ, पासित्ता जेणेव गंगा महाणदी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एगट्टियाए सव्वओ समंता मम्गणगवेसणं करेइ, करिता एगट्टियं णावं अपासमाणे एगाए बाहाए रहं सतुरगं ससाहिं गेण्हइ, एगाए बाहाए गंगं महादि वासटि जोयणाई अद्धजोयणं च विस्थिन्नं उत्तरिउं पयत्ते यावि होत्था / तए णं कण्हे वासुदेवे गंगामहाणईए बहूमझदेसभागं संपत्ते समाणे संते तंते परितते बद्धसेए जाए यावि होत्था। तत्पश्चात कृष्ण वासुदेव लवणाधिपति सुस्थित देव से मिले / मिलकर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आये / वहाँ आकर उन्होंने सब तरफ नौका की खोज की, पर खोज करने पर भी नौका दिखाई नहीं दी। तब उन्होंने अपनी एक भुजा से अश्व और सारथी सहित रथ ग्रहण किया और दूसरी भुजा से बासठ योजन और प्राधा योजन अर्थात् साढ़े बासठ योजन विस्तार वाली गंगा महानदी को पार करने के लिए उद्यत हुए। कृष्ण वासुदेव जब गंगा महानदी के बीचोंबीच पहुँचे तो थक गये, नौका की इच्छा करने लगे और बहुत खेदयुक्त हो गये। उन्हें पसीना आ गया / Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 ] [ ज्ञाताधर्मकथा २०६-तए णं कण्हस्स वासुदेवस्स इमे एयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था--'अहो णं पंच पंडवा महाबलवग्गा, जेहि गंगा महाणदी बाढि जोयणाई अद्धजोयणं च वित्थिना बाहाहि उत्तिण्णा / इच्छंतएहि णं पंचहिं पंडवेहि पउमणाभे राया जाव णो पडिसेहिए।' तए णं गंगा देवी कण्हस्स इमं एयारूवं अज्झत्थियं जाव जाणित्ता थाहं वियरइ / तए णं से कण्हे वासुदेवे मुहत्तंतरं समासासेइ, समासासित्ता गंगामहादि बाटि जाव उत्तरइ, उत्तरित्ता जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंच पंडवे एवं वयासी—अहो णं लुबभे देवाणुप्पिया ! महाबलवगा, जेणं दुब्भेहिं गंगा महाणदी वासट्टि जाव उत्तिण्णा, इच्छंतहि पउमनाहे जाव णो पडिसेहिए। उस समय कृष्ण वासुदेव को इस प्रकार का विचार पाया कि-'अहा, पांच पाण्डव वड़े बलवान् हैं, जिन्होंने साढ़े बासठ योजन विस्तार (पाट) वाली गंगा महानदी अपने बाहुओं से पार करली ! (जान पड़ता है कि पांच पाण्डवों ने इच्छा करके अर्थात् चाह कर या जान-बूझकर ही पद्मनाभ राजा को पराजित नहीं किया / ' तब गंगा देवी ने कृष्ण बासुदेव का ऐसा अध्यवसाय यावत् मनोगत संकल्प जानकर थाह दे कर दिया। उस समय कष्ण वासदेव ने थोडी देर विश्राम किया। विश्राम लेने के बाद साढ़े बासठ योजन विस्तृत गंगा महानदी पार की / पार करके पांच पाण्डवों के पास पहुँचे / वहाँ पहुँच कर पांच पाण्डवों से बोले...-'अहो देवानुप्रियो ! तुम लोग महाबलवान् हो, क्योंकि तुमने साढ़े बासठ योजन विस्तार वाली गंगा महानदी अपने बाहुबल से पार की है / तब तो तुम लोगों ने चाह कर ही पद्मनाभ को पराजित नहीं किया।' २०७-तए णं पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वृत्ता समाणा कण्हं वासुदेवं एवं वयासो-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे तुब्भेहि विसज्जिया समाणा जेणेव गंगा महाणदी तेणेव उवागच्छामो, उवागच्छित्ता एगट्टियाए मग्गणगवेसणं तं चेव जाव णमेमो, तुम्भे पडिवालेमाणा चिट्ठामो।' ___ तब कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर पांच पाण्डवों ने कृष्ण वासुदेव से कहा- 'देवानुप्रिय ! आपके द्वारा विसर्जित होकर अर्थात् आज्ञा पाकर हम लोग जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ पाये। वहाँ आकर हमने नौका की खोज की / उस नौका से पार पहुँच कर आपके बल की परीक्षा करने के लिए हमने नौका छिपा दी। फिर आपकी प्रतीक्षा करते हुए हम यहाँ ठहरे हैं।' श्रीकृष्ण का पाण्डवों पर रोष--देशनिर्वासन २०८–तए णं कण्हे वासुदेवे तेसि पंचण्हं पंडवाणं एयमढं सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ते जाव' तिवलियं एवं वयासी—'अहो णं जया मए लवणसमुदं दुवे जोयणसयसहस्सा वित्थिन्नं वोईवइता पउमणाभं यमहिय जाव पडिसेहित्ता अमरकंका संभग्गा, दोवई साहत्थि उवणीया, तया णं तुभेहि मम माहप्पं ण विण्णायं, इयाणि जाणिस्सह !' त्ति कट्ट लोहदंडं परामुसइ, पंचण्हं पंडवाणं रहे चूरेइ, चरित्ता णिव्विसए आणवेइ आणवित्ता तत्थ णं रहमद्दणे नामं कोठे णिविट्ठ। पांच पाण्डवों का यह अर्थ (उत्तर) मुनकर और समझ कर कृष्ण वासुदेव कुपित हो उठे 1. अ. 16 सूत्र 203 , Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी / उनकी तीन बल वाली भकुटि ललाट पर चढ़ गई / वह बोले-'मोह, जब मैंने दो लाख योजन विस्तीर्ण लवणसमुद्र को पार करके पद्मनाभ को हत और मथित करके, यावत् पराजित करके अमरकंका राजधानी को तहस-नहस किया और अपने हाथों से द्रौपदी लाकर तुम्हें सौंपी, तब तुम्हें मेरा माहात्म्य नहीं मालूम हुआ ! अब तुम मेरा माहात्म्य जान लोगे ! इस प्रकार कहकर उन्होंने हाथ में एक लोहदण्ड लिया और पाण्डवों के रथ को चूर-चूर कर दिया। रथ चूर-चूर करके उन्हें देशनिर्वासन की आज्ञा दी / फिर उस स्थान पर रथमर्दन नामक कोट स्थापित किया---रथमर्दन तीर्थ की स्थापना की। २०९--तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सएणं खंधावारेणं सद्धि अभिसमन्नागए यावि होत्था / तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव बारवई नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता बारवई णरि अणुपविसइ। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव अपनी सेना के पड़ाव (छावनी) में आये / पाकर अपनी सेना के साथ मिल गये / उसके पश्चात् कृष्ण वासुदेव जहाँ द्वारका नगरी थी, वहाँ आये / पाकर द्वारका नगरी में प्रविष्ट हए / २१०-तए णं ते पंच पंडवा जेणेव हस्थिणाउरे गयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जेणेव पंड तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-'एवं खलु ताओ! अम्हे कण्हेणं णिविसया आणत्ता।' ___तए णं पंडुराया ते पंच पंडवे एवं वयासी--'कहं णं पुत्ता ! तुब्भे कण्हेणं बासुदेवेणं णिव्विसया आणता?' तए णं ते पंच पंडवा पंडुरायं एवं क्यासो-'एवं खलु ताओ ! अम्हे अमरकंकाओ पडिनियत्ता लवणसमुदं दोन्नि जोयणसयसहस्साई वीइवइत्था तए णं से कण्हे वासुदेवे अम्हे एवं वयासी--'गच्छह णं तुब्भे देवाणप्पिया! गंगामहादि उत्तरह' जाव चिट्रह, ताव अहं एवं तहेव जाव चिठेमो / तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं लवणाहिवई दळूण तं चेव सव्वं, नवरं कण्हस्स चिता ण जुज्ज (बुच्च) इ, जाव अम्हे णिविसए आणवेइ।' तत्पश्चात् वे पांचों पाडण्व हस्तिनापुर नगर आये / पाण्डु राजा के पास पहुँचे / वहाँ पहुँच कर और हाथ जोड़ कर बोले---'हे तात ! कृष्ण ने हमें देशनिर्वासन की आज्ञा दी है।' तब पाण्डु राजा ने पांच पाण्डवों से प्रश्न किया--'पुत्रो ! किस कारण वासुदेव ने तुम्हें देश निर्वासन की प्राज्ञा दी ?' तब पांच पाण्डवों ने पाण्डु राजा को उत्तर दिया-तात ! हम लोग अमरकंका से लौटे और दो लाख योजन विस्तीर्ण लवणसमुद्र को पार कर चुके, तब कृष्ण वासुदेव ने हमसे कहादेवानुप्रियो ! तुम लोग चलो, गंगा महानदी पार करो यावत् मेरी प्रतीक्षा करते हुए ठहरना / तब तक मैं सुस्थित देव से मिलकर आता हूँ---इत्यादि पूर्ववत् कहना / हम लोग गंगा महानदी पार करके नौका छिपा कर उनकी राह देखते ठहरे / तदनन्तर कृष्ण बासुदेव लवणसमुद्र के अधिपति १.अ. 16. सूत्र 204-207 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा सुस्थित देव से मिल कर पाये / इत्यादि सब पूर्ववत्-समग्न वृत्तान्त कहना, केवल कृष्ण के मन में जो विचार उत्पन्न हुआ था, वह नहीं कहना / यावत् कुपित होकर उन्होंने हमें देशनिर्वासन की प्राज्ञा दे दी। २११--तए णं से पंडुराया ते पंच पंडवे एवं वयासो---'दुठ्ठ णं पुत्ता ! कयं कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाहिं / ' तब पाण्डु राजा ने पांच पाण्डवों से कहा-'पुत्रो ! तुमने कृष्ण वासुदेव का अप्रिय (अनिष्ट) करके बुरा काम किया / ' २१२-तए णं पंडू राया कोंति देवि सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-'गच्छ गं तुम देवाणुप्पिया ! बारवई कण्हस्स वासुदेवस्स णिवेदेहि-'एवं खलु देवाणुपिया! तुम्हे पंच पंडवा णिविसया आणत्ता, तुमं च णं देवाणुप्पिया! दाहिणड्ढभरहस्स सामी, तं संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! ते पंच पंडवा कयरं देसं वा दिसि वा विदिसि वा गच्छंतु ?' तदनन्तर पाण्डु राजा ने कुन्ती देवी को बुलाकर कहा-'देवानुप्रिये ! तुम द्वारका जायो और कृष्ण वासुदेव से निवेदन करो कि–'हे देवानुप्रिय ! तुमने पांचों पाण्डवों को देशनिर्वासन की अाज्ञा दी है, किन्तु हे देवानुप्रिय ! तुम तो समग्र दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के अधिपति हो / अतएव हे देवानप्रिय ! आदेश दो कि पांच पाण्डव किस देश में या दिशा अथवा किस विदिशा में जाएँ-कहाँ निवास करें ? 213 - तए णं सा कोंती पंडुणा एवं वुत्ता समाणी हस्थिखंधं दुरूहइ, दुरूहित्ता जहा हेट्ठा जाव.-'संदिसंतु णं पिउत्था ! किमागमणपओयणं? तए णं सा कोंती कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! तुमे पंच पंडवा णिविसया आणता, तुमं च णं दाहिणड्ढभरह [स्स सामी। तं संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ते पंच पंडवा कयरं देसं वा दिसं वा] जाव विदिसि वा गच्छंतु ? तब कुन्ती देवी, पाण्डु राजा के इस प्रकार कहने पर हाथी के स्कंध पर प्रारूढ होकर पहले कहे अनुसार द्वारका पहुँची। अग्र उद्यान में ठहरी। कृष्ण वासुदेव को सूचना करवाई / कृष्ण स्वागत के लिए आये। उन्हें महल में ले गये / यावत् पूछा-'हे पितृभगिनी ! अाज्ञा कीजिए, आपके आने का क्या प्रयोजन है ? तब कुन्ती देवी ने कृष्ण वासुदेव से कहा-'हे पुत्र ! तुमने पांचों पाण्डवों को देश-निकाले का आदेश दिया है और तुम समग्र दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के स्वामी हो, तो बतलायो वे किस देश में, किस दिशा या विदिशा में जाएँ ?' पाण्डु मथुरा की स्थापना २१४---तए णं से कण्हे वासुदेवे कोंति देवि एवं वयासो-'अपूइवयणा णं पिउच्छा ! उत्तमपुरिसा-वासुदेवा बलदेवा चक्कवट्टी। तं गच्छंतु णं देवाणुप्पियए ! पंच पंडवा दाहिणिल्लं वेयालि, तत्थ पंडुमहुरं णिवेसंतु, ममं अदिट्ठसेवगा भवंतु।' त्ति कटु सक्कारेइ, सम्माणेइ, जाव [सक्कारित्ता संमाणिता] पडिविसज्जेइ / Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी] [465 तब कृष्ण वासुदेव ने कुन्ती देवी से कहा-'पितृभगिनी ! उत्तम पुरुष अर्थात् वासुदेव, बलदेव और चक्रवर्ती अपूतिवचन होते हैं-उनके वचन मिथ्या नहीं होते। (वे कहकर बदलते नहीं हैं, अतः मैं देशनिर्वासन की प्राज्ञा वापिस लेने में असमर्थ हूँ)। देवानुप्रिये ! पांचों पाण्डव दक्षिण दिशा के बेलातट (समुद्र किनारे) जाएँ, वहाँ पाण्डु-मथुरा नामक नयी नगरी बसायें और मेरे अदृष्ट सेवक होकर रहें अर्थात् मेरे सामने न आएँ / इस प्रकार कहकर उन्होंने कुन्ती देवी का सत्कारसम्मान किया, यावत् [ सत्कार-सन्मान करके | उन्हें विदा दी। २१५---तए णं सा कोंती देवी जाव पंडुस्स एयमढ़ णिवेदेइ / तए णं पंडू राया पंच पंडवे सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासो--'गच्छह गं तुब्भे पुत्ता ! दाहिणिल्लं वेयालि, तत्थ गं तुझे पंडुमहुरं णिवेसेह।' तए णं पंच पंडवा पंडुरस रणो जाय [एयमठ्ठ] तह त्ति पडिसुणेति, पडिसुणित्ता सबलवाहणा हयगय हथिणाउराओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव दक्खिणिल्ले वेयाली तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पंडुमहुरं नरं निवेसंति, निवेसित्ता तत्थ णं ते विपुलभोगसमितिसमण्णागया यावि होत्था। तत्पश्चात् कुन्ती देवी ने द्वारवती नगरी से पाकर पाण्डु राजा को यह अर्थ (वत्तान्त) निवेदन किया / तब पाण्डु राजा ने पांचों पाण्डवों को बुला कर कहा-'पुत्रो ! तुम दक्षिणी वेलातट (समुद्र के किनारे) जागो वहाँ पाण्डुमथुरा नगरी बसा कर रहो।' तब पांचों पाण्डवों ने पाण्डु राजा को यह बात 'तथास्तु-ठीक है' कह कर स्वीकार की। स्वीकार करके बल और वाहनों के साथ घोड़े और हाथी आदि की चतुरंगिणी सेना तथा अनेक भटों को साथ लेकर हस्तिनापुर से बाहर निकले। निकल कर दक्षिणी वेलातट पर पहुँचे / पाण्डुमथुरा नगरी की स्थापना की। नगरी की स्थापना करके वे वहाँ विपुल भोगों के समूह से युक्त हो गये-सुखपूर्वक निवास करने लगे। पाण्डुसेन का जन्म २१६-तए णं सा दोवई देवी अन्नया कयाइ आवण्णसता जाया यावि होत्था / तए णं दोवई देवी णवण्ह मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सुरूवं दारगं पयाया सूमालं, कोमलयं गयतालुयसमाणं, णिवत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं गोणं गुणनिष्फण्णं नामधेज्जं करेंति जम्हा गं अम्हं एस दारए पंचण्हं पंडवाणं पुत्ते दोवईए देवीए अत्तए, तं होउ अम्हं इमस्स दारगस्स णामधेज्ज 'पंडुसेणे'। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेज्जं करेंति पंडुसेण त्ति / तत्पश्चात् एक बार किसी समय द्रौपदी देवी गर्भवती हुई / फिर द्रौपदी देवी ने नौ मास यावत् सम्पूर्ण होने पर सुन्दर रूप वाले और सुकुमार तथा हाथी के तालु के समान कोमल बालक को जन्म दिया। बारह दिन व्यतीत होने पर बालक के माता-पिता को ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि-क्योंकि हमारा यह बालक पाँच पाण्डवों का पुत्र है और द्रौपदी देवी का पात्मज है, अतः इस बालक का नाम 'पाण्डुसेन' होना चाहिए / तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने उसका 'पाण्डुसेन' नाम रखा। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 ] [ ज्ञाताधर्मकथा विवेचन--प्रस्तुत सूत्र के पश्चात् 'अंगसुत्ताणि' में रायपसेणियसूत्र के अाधार पर निम्नलिखित पाठ अधिक दिया गया है--- ___तए णं तं पंडुसेणं दारयं अम्मापियरो साइरेगट्ठवासयं चेव सोहणंसि तिहिकरण-मुहुरासि कलायरियस्स उवणेति / तए णं से कलायरिए पंडुसेणं कुमारं लेहाइयारो गणियप्पहाणाम्रो सउणिस्यपज्जवसाणाम्रो बावतरि कलाप्रो सुत्तो य अत्थो य करणो य सेहावेइ, सिक्खावेइ / 'जाव अलं भोगसमत्थे जाए / जुबराया विहरइ / ' अर्थात्-'पाण्डुसेन पुत्र जब कुछ अधिक आठ वर्ष का हो गया तो माता-पिता शुभ तिथि, करण और मुहूर्त में उसे कलाचार्य के पास ले गये।। कलाचार्य ने पाण्डुसेन कुमार को लेखनकला से प्रारम्भ करके गणितप्रधान और शकुनिरुत तक की बहत्तर कलाएँ सूत्र-मूलपाठ-से, अर्थ से और करण-प्रयोग से सिखलाईं। यथासमय पाण्डुसेन मानवीय भोग भोगने में समर्थ हो गया। वह युवराज पद पर प्रतिष्ठित हो गया। प्रस्तुत पाठ के स्थान पर टीका वाली प्रति में संक्षिप्त पाठ इस प्रकार दिया गया है'बावतरि कलाप्रो जाव भोगसमत्थे जाए, जुवराया जाव विहरइ / ' यद्यपि यह वर्णन प्रत्येक राजकुमार के लिए सामान्य है, इसमें कोई नवीन-मौलिक बात नहीं है, तथापि इससे आगे के पाठ में पाण्डवों की दीक्षा का प्रसंग वणित है / बालक के नामकरण के पश्चात् ही माता-पिता के दीक्षा-प्रसंग का वर्णन आ जाए तो कुछ अटपटा-सा लगता है, अतएव बीच में इस पाठ का संकलन करना ही उचित प्रतीत होता है। पूत्र युवराज हो तो उसे राजसिंहासन पर प्रासीन करके माता-पिता प्रवजित हो जाएँ, यह जैन-परम्परा का वर्णन अन्यत्र भी देखा जाता है। अतएव किसी-किसी प्रति में उल्लिखित पाठ उपलब्ध न होने पर भी यहाँ उसका उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है। स्थविर-आगमन : धर्मश्रवण २१७-तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा थेरा समोसढा / परिसा निग्गया। पंडवा निग्गया, धम्म सोच्चा एवं बयासी—'जं णवरं देवाणुपिया! दोवई देवि आपुच्छामो, पंडुसेणं च कुमारं रज्जे ठावेमो, तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता जाव पन्वयामो।' 'अहासुहं वेवाणुप्पिया !' उस काल और समय में धर्मघोष स्थविर पधारे। धर्मश्रवण करने और उन्हें वन्दना करने के लिए परिषद् निकली। पाण्डव भी निकले / धर्म श्रवण करके उन्होंने स्थविर से कहा'देवानुप्रिय ! हमें संसार से विरक्ति हुई है, अतएव हम दीक्षित होना चाहते हैं; केवल द्रौपदी देवी से अनुमति ले लें और पाण्डुसेन कुमार को राज्य पर स्थापित कर दें। तत्पश्चात् देवानुप्रिय के निकट मुण्डित होकर यावत् प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे। तब स्थविर धर्मघोष ने कहा-'देवानुप्रियो ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो।' 1. किन्हीं प्रतियों में 'धम्मघोसा' पद नहीं है। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 467 सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी] २१८-तए णं ते पंच पंडवा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता दोबाई देवि सद्दाति, सद्दावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! अम्हेहि थेराणं अंतिए धम्मे णिसंते जाव पव्वयामो, तुमं देवाणुप्पिये ! किं करेसि ?' तए णं सा दोवई देवी ते पंच पंडवे एवं वयासो-'जइ णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! संसारभउन्विग्गा पव्वयह, ममं के अण्णे आलंबे वा जाव [आहारे वा पडिबंधे वा] भविस्सइ ! अहं पि य णं संसारभउविग्गा देवाणुप्पिह सद्धि पव्वइस्सामि।' तत्पश्चात् पचों पाण्डव अपने भवन में आये / आकर उन्होंने द्रौपदी देवी को बुलाया और उससे कहा-देवानुप्रिये ! हमने स्थविर मुनि से धर्म श्रवण किया है, यावत् हम प्रव्रज्या ग्रहण कर रहे हैं / देवानुप्रिये ! तुम्हें क्या करना है ? तब द्रौपदी देवी ने पांचों पाण्डवों से कहा-'देवानुप्रियो ! यदि आप संसार के भय से उद्विग्न होकर प्रवजित होते हो तो मेरा दूसरा कौन अवलम्बन यावत् [या प्राधार है ? क्या प्रतिबन्ध है ?] अतएव मैं भी संसार के भय से उद्विग्न होकर देवानुप्रियों के साथ दीक्षा अंगीकार करूंगी।' प्रवज्या ग्रहण २१९-तए णं पंच पंडवा पंडुसेणस्स अभिसेओ जाव राया जाए जाव रज्जं पसाहेमाणे विहरइ / तए णं ते पंच पंडवा दोवई य देवी अन्नया कयाई पंडुसेणं रायाणं आपुच्छंति / तए गं से पंडुसेणे राया कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! निक्खमणाभिसेयं करेह, जाव पुरिससहस्सवाहिणीओ सिवियाओ उवद्ववेह / ' जाव पच्चोरुहंति / जेणेव थेरा तेणेब, आलित्ते णं जाव' समणा जाया / चोदसपुब्बाई अहिज्जंति, अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहि मासद्धमासखमहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। तत्पश्चात् पांचों पाण्डवों ने पाण्डुसेन का राज्याभिषेक किया। यावत् पाण्डुसेन राजा हो गया, यावत् राज्य का पालन करने लगा / तब किसी समय पांचों पाण्डवों ने और द्रौपदी ने पाण्डुसेन राजा से दीक्षा की अनुमति मांगी। तब पाण्डुसेन राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र हो दीक्षा-महोत्सव की तैयारी करो और हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिविकाएँ तैयार करो। शेष वृत्तान्त पूर्ववत् जानना चाहिए, यावत् वे शिविकानों पर प्रारूढ होकर चले और स्थविर मुनि के स्थान के पास पहुँच कर शिविकाओं से नीचे उतरे। उतर कर स्थविर मुनि के निकट पहुँचे। वहाँ जाकर स्थविर से निवेदन किया--भगवन् ! यह संसार जल रहा है आदि यावत् पांचों पाण्डव श्रमण बन गये / चौदह पूर्वो का अध्ययन किया / अध्ययन करके बहुत वर्षों तक बेला, तेला, चौला, पंचोला तथा अर्धमास-खमण, मासखमण प्रादि तपस्या द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। २२०–तए णं सा दोवई देवी सीयाओ पच्चोरुहइ, जाव पव्वइया सुव्वयाए अज्जाए 1. अ. 1 मेघकुमार का दीक्षाप्रसंग देखिए / Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 ] [ ज्ञाताधर्मकथा सिस्सिणीयत्ताए दलयति, इक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि छट्ठट्ठमदसमदुवालसेहिं जाव विहरइ। द्रौपदी देवी भी शिविका के उतरी, यावत् दीक्षित हुई / वह सुव्रता आर्या को शिष्या के रूप में सौंप दी गयी। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन करके बहुत वर्षों तक वह षष्ठभक्त, अष्टभक्त, दशमभक्त और द्वादशभक्त आदि तप करती हुई विचरने लगी। २२१-तए णं थेरा भगवंतो अनया कयाई पंडमहराओ गयरीओ सहस्संबवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवविहारं विहरति / तत्पश्चात् किसी समय स्थविर भगवंत पाण्डुमथुरा नगरी के सहस्राम्रवन नामक उद्यान से निकले / निकल कर बाहर जनपदों में विचरण करने लगे। भगवान् अरिष्टनेमि का निर्वाण 222- तेणं कालेणं तेणं समएणं अरिहा अरिट्रनेमी जेणेव सुरद्वाजणवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुरद्वाजणवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरई / तए णं बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ-'एवं खलु देवाणुपिया ! अरिहा अरिद्वनेमी सुरद्वाजणवए जाव विहरइ / तए णं से जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमढें सोच्चा अन्नमन्नं सद्दावेंति, सदावित्ता एवं क्यासी एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहा अरिटुनेमी पुन्वाणुपुब्धि जाव विहरइ, तं सेयं खलु अम्हं थेरे भगवंते आपुच्छित्ता अरहं अरिट्टनेमि वंदणाए गमित्तए / ' अन्नमन्नस्स एयमलैं पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वदंति, नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासो-'इच्छामो गं तुम्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणा अरहं अरिटनेमि जाव गमित्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया!' उस काल और उस समय में अरिहन्त अरिष्टनेमि जहाँ सुराष्ट्र जनपद था, वहाँ पधारे / पधार कर सुराष्ट्र जनपद में संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। उस समय बहुत जन परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रियो ! तीर्थंकर अरिष्टनेमि सुराष्ट्र जनपद में यावत् विचर रहे हैं।' तब युधिष्ठिर प्रभृति पांचों अनगारों ने बहुत जनों से यह वृत्तान्त सुन कर एक दूसरे को बुलाया और कहा---'देवानुप्रियो ! अरिहन्त अरिष्टनेमि अनुक्रम से विचरते हुए यावत् सुराष्ट्र जनपद में पधारे हैं, अतएव स्थविर भगवंत से पूछकर तीर्थंकर अरिष्टनेमि को वन्दना करने के लिए जाना हमारे लिये श्रेयस्कर है।' परस्पर की यह बात सबने स्वीकार की। स्वीकार करके वे जहाँ स्थविर भगवन्त थे, वहाँ गये / जाकर स्थविर भगवन्त को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दननमस्कार करके उनसे कहा-'भगवन् ! आपकी आज्ञा पाकर हम अरिहंत अरिष्टनेमि को वन्दना करने हेतु जाने की इच्छा करते हैं।' स्थविर ने अनुज्ञा दी- 'देवानुप्रियो ! जैसे सुख हो, वैसा करो।' Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [ 469 223. तए णं ते जहुट्ठिलपामोक्खा पंच अणगारा थेरेहि अब्भणुनाया समाणा थेरे भगवंते वंदंति, णमंसंति, वंदित्ता गमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता मासंमासेण अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं गामाणुगामं दूइज्जमाणा जाव जेणेव हत्थिकप्पे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हथिकप्पस्स बहिया सहसंबवणे उज्जाणे जाव विहरंति / तत्पश्चात् उन युधिष्ठिर आदि पांचों अनगारों ने स्थविर भगवान् से अनुज्ञा पाकर उन्हें वन्दना-नमस्कार किया / बन्दना नमस्कार करके वे स्थविर के पास से निकले / निकल कर निरन्तर मासखमण करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हुए, यावत् जहाँ हस्तीकल्प नगर था, वहाँ पहुँचे / पहुँच कर हस्तीकल्प नगर के बाहर सहस्राम्रवन नामक उद्यान में ठहरे / २२४--तए णं ते जुहिट्ठिलवज्जा चत्तारि अणगारा मासक्खमणपारणए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेंति बीयाए एवं जहा गोयमसामी, णवरं जुहिटिलं आपुच्छंति, जाव अडमाणा बहुजणसद णिसार्मेति- 'एवं खल देवाणुप्पिया ! अरहा अरिद्वनेमी उज्जितसेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहि छत्तीसेहि अणगारसहिं सद्धि कालगए सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे सव्वदुक्खप्पहीणे / ' तत्पश्चात् युधिष्ठिर के सिवाय शेष चार अनगारों ने मासखमण के पारणक के दिन पहले प्रहर में स्वाध्याय किया, दूसरे प्रहर में ध्यान किया। शेष गौतमस्वामी के समान वर्णन जानना चाहिए। विशेष यह कि उन्होंने युधिष्ठिर अनगार से पूछा-भिक्षा की अनुमति माँगी। फिर वे भिक्षा के लिए जब अटन कर रहे थे, तब उन्होंने बहुत जनों से सुना-~'देवानुप्रियो ! तीर्थकर अरिष्टनेमि गिरिनार पर्वत के शिखर पर, एक मास का निर्जल उपवास करके, पांच सौ छत्तीस साधुओं के साथ काल-धर्म को प्राप्त हो गये हैं, यावत् सिद्ध, मुक्त, अन्तकृत् होकर समस्त दुःखों से रहित हो गये हैं।' २२५-तए णं ते जुहिट्ठिलवज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमठे सोच्चा हत्थिकप्पाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे, जेणेव जुहिट्ठिले अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पच्चुवेक्खंति, पच्चुवेक्खित्ता गमणागमणस्स पडिक्कमंति, पडिक्कमित्ता एसणमणेसणं आलोएंति, आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदंसेंति, पडिदंसित्ता एव वयासो--- तब युधिष्ठिर के सिवाय वे चारों अनगार बहुत जनों के पास से यह अर्थ सुन कर हस्तीकल्प नगर से बाहर निकले / बाहर निकलकर जहाँ सहस्राम्रवन था और जहाँ युधिष्ठिर अनगार थे वहाँ पहुँचे / पहुँच कर आहार-पानी की प्रत्युपेक्षणा की, प्रत्युपेक्षणा करके गमनागमन का प्रतिक्रमण किया। फिर एषणा-अनेषणा की आलोचना की / अालोचना करके दिखलाया। दिखला कर युधिष्ठिर अनगार से कहा---- २२६–'एवं खलु देवाणुप्पिया ! जाव कालगए, ते सेयं खल अम्हं देवाणुप्पिया ! इमं पुन्वगहियं भत्तपाणं परिवेत्ता सेत्तुजं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहित्तए, संलेहणा-झूसणा-झोसियाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए, त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमट्ठ पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता तं पुव्व१. प्र. 16 सूत्र 224. Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470] [ ज्ञाताधर्मकथा गहियं भत्तपाणं एगते परिद्वयंति, परिद्ववित्ता जेणेव सेत्तुजे पव्वए तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता सेत्तुजं पन्चयं दुरूहंति, दुरूहित्ता जाव कालं अणवकंखमाणा विहरति / हे देवानुप्रिय ! (हम आपकी अनुमति लेकर भिक्षा के लिए नगर में गये थे। वहाँ हमने सुना है कि तीर्थंकर अरिष्टनेमि) यावत् कालधर्म को प्राप्त हुए हैं / अत: हे देवानुप्रिय ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि भगवान् के निर्वाण का वृत्तान्त सुनने से पहले ग्रहण किये हुए आहारपानी को परठ कर धीरे-धीरे शत्रु जय पर्वत पर आरूढ हों तथा संलेखना करके झोषणा (कमशोषण की क्रिया) का सेवन करके और मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरें-रहें, इस प्रकार कह कर सबने परस्पर के इस अर्थ (विचार) को अंगीकार किया। अंगीकार करके वह पहले ग्रहण किया आहार-पानी एक जगह परठ दिया। परठ कर जहाँ शत्रुजय पर्वत था, वहाँ गए / शत्रुजय पर्वत पर आरूढ हुए / आरूढ होकर यावत् मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरने लगे / पाण्डवों का निर्वाण २२७-तए णं ते जुहिटिलपामोक्खा पंच अणगारा सामाइयमाइयाइं चोइस पुव्वाइं अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता जस्सट्टाए कोरइ णग्गभावे जाव' तमझें आराहेति / आराहित्ता अणते जाव केवलवरनाणदसणे समुप्पाडेता जाव सिद्धा। तत्पश्चात् उन युधिष्ठिर आदि पांचों अनगारों ने सामायिक से लेकर चौदह पूर्वो का अभ्यास करके बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके, दो मास की संलेखना से प्रात्मा को झोषण करके, जिस प्रयोजन के लिए नग्नता, मुडता आदि अंगीकार की जाती है, उस प्रयोजन को सिद्ध किया। उन्हें अनन्त यावत् श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त हुआ। यावत् वे सिद्ध हो गये / आर्या द्रौपदी का स्वर्गवास २२८-तए णं सा दोवई अज्जा सुब्बयाणं अज्जियाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्करस्स अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामग्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए आलोइयपडिक्कता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए उववन्ना / दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् द्रौपदी आर्या ने सुव्रता प्रार्या के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया / अध्ययन करके बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन किया / अन्त में एक मास की संलेखना करके, आलोचना और प्रतिक्रमण करके तथा कालमास में काल करके (यथासमय निधन को प्राप्त होकर) ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग में जन्म लिया। २२९-तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / तत्थ णं दोवइस्स' देवस्स दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक में कितनेक देवों की दस सागरोपम की स्थिति कही गई है। उनमें द्रौपदी (द्रुपद) देव की भी दस सागरोपम की स्थिति कही गई है। 1. प्रोववाइय सूत्र 154. 2. पाठान्तर—'दुवयस्स / ' Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [471 द्रौपदी का भविष्य २३०-से णं भंते ! दुवए देवे ताओ जाव [देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता] महाविदेहे वासे जाव अंतं काहिह। गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से प्रश्न किया-'भगवन् ! वह द्रुपद देव वहाँ से चय कर कहाँ जन्म लेगा? तब भगवान् ने उत्तर दिया—'ब्रह्मलोक स्वर्ग से वहाँ की आयु, स्थिति एवं भव का क्षय होने पर महाविदेह वर्ष में उत्पन्न होकर यावत् कर्मों का अन्त करेगा। निक्षेप २३१-एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं सोलसमस्स णायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते त्ति बेमि। प्रकृत अध्ययन का उपसंहार करते हुए श्री सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा- इस प्रकार निश्चय ही, हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने सोलहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है / जैसा मैंने सुना वैसा तुम्हें कहा है। / / सोलहवाँ अध्ययन समाप्त / / Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ अध्ययन : आकीर्ण सार : संक्षेप प्रस्तुत अध्ययन का नाम आकीर्णज्ञात है। आकीर्ण अर्थात् उत्तम जाति का अश्व / अश्वों के उदाहरण द्वारा यहाँ यह प्रतिपादन किया गया है कि जो साधक इन्द्रियों के वशवर्ती होकर, अनुकूल विषयों को प्राप्त करके उनमें लुब्ध बन जाते हैं, वे अपनी रागवृत्ति की उत्कटता के कारण दीर्घकाल तक भव-भ्रमण करते हैं। जन्म-जरा-मरण की वेदनाओं के अतिरिक्त भी उन्हें अनेक प्रकार की व्यथाएँ सहन करनी पड़ती हैं। इसके विपरीत, प्रलोभन-जनक विषयों में जो पासक्त नहीं होते, जो इन्द्रिय-विषयों से विमुख रहते हैं, वे अपने वीतरागभाव के कारण सांसारिक यातनाओं से बच जाते हैं। यही नहीं, वे सहज-स्वाभाविक असीम आत्मानन्द को प्राप्त कर लेते हैं / कथानक इस प्रकार है हस्तिशीर्ष नगर के कुछ नौकावणिक्-जलयान द्वारा समुद्र के रास्ते विदेश जाकर व्यापार करने वाले व्यापारी, व्यापार के लिए निकले / वे लवणसमुद्र में जा रहे थे कि अचानक तूफान आ गया। नौका आँधी के थपेड़ों से डगमगाने लगी / चलित-विचलित होने लगी। इधर-उधर चक्कर खाने लगी। निर्यामक की बुद्धि भी चक्कर खाने लगी। उसे दिशा का भान नहीं रहा-नौका किधर जा रही है, किस ओर जाना है, यह भी वह भूल गया। वणिकों के भी होश-हवास ठिकाने नहीं रहे / वे देवी-देवताओं की मनौती मनाने लगे। गनीमत रही कि तूफान थोड़ी देर में शान्त हो गया। निर्यामक की संज्ञा जागृत हुई / दिशा का बोध हो पाया। नौका कालिक द्वीप के किनारे जा लगी। ___ कालिक द्वीप में पहुँचने पर वणिकों ने देखा-यहाँ चाँदी, सोने, हीरों आदि रत्नों की प्रचुर खाने हैं। उन्होंने वहाँ उत्तम जाति के विविध वर्णों वाले अश्व भी देखे। मगर वणिकों को अश्वों से कोई प्रयोजन नहीं था, अतएव वे चाँदी, सोना, हीरा आदि भर कर वापिस अपने नगर में-हस्तिशीर्ष-लौट आए। तत्कालीन परम्परा के अनुसार वणिक बहुमूल्य उपहार लेकर राजा कनककेतु के समक्ष गए / राजा ने उनसे पूछा-देवानुप्रियो ! आप लोग अनेक नगरों में भ्रमण करते हैं, समुद्रयात्रा भी करते हैं तो इस बीच कुछ अद्भुत अनोखी वस्तु देखने में आई है ? वणिकों ने कालिक द्वीप के अश्वों का उल्लेख किया, उनकी सुन्दरता का वर्णन कह सुनाया / तब राजा ने वणिकों को अश्व ले पाने का आदेश दिया। वणिक् राजा के सेवकों के साथ पुनः कालिक द्वीप गए। किन्तु उन्होंने देखा था कि वहाँ के अश्व मनुष्य की गंध पाकर दूर भाग गए थे, वे सहज ही पकड़ में आने वाले नहीं थे। अतएव वे पाँचों इन्द्रियों को लुभाने वाली सामग्नी लेकर चले। कालिक द्वीप पहुँच कर उन्होंने वह सामग्नी बिखेर दी / जो घोड़े इन्द्रियों को वश में न रख सके, उस सामग्री के प्रलोभन में फंस गए, वे बन्धन में फंस गए-पकड़े गए और हस्तिशीर्ष नगर में ले पाए गए। वहाँ प्रशिक्षित होने में उन्हें Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ अध्ययन : पाकीर्ण ] [473 चाबुकों को मार खानी पड़ी। वध-बन्धन के अनेकानेक कष्ट सहन करने पड़े। उनकी स्वाधीनता का सुख नष्ट हो गया / पराधीनता में जीवन यापन करना पड़ा। कुछ अश्व ऐसे भी थे जो वणिकों द्वारा बिखेरी गई लुभावनी सामग्री के जाल में नहीं फंसे थे। वे जाल में फंसने से भी बच गए। वे उस सामग्री से विमुख होकर दूर चले गए। उनकी स्वाधीनता नष्ट नहीं हुई। पराधीनता के कष्टों से वे बचे रहे। उन्हें न चाबुक आदि की मार सहनी पड़ी और न सवारी का काम करना पड़ा / वे स्वेच्छापूर्वक कालिक द्वीप में ही सुख से रहे / __ इस प्रकार जो कोई भी साधक इन्द्रियों के विषयों में प्रासक्त हो जाता है, वह पराधीन बन जाता है। उसे बध-बन्धन सम्बन्धी अनेक प्रकार के कष्ट झेलने पड़ते हैं / दीर्घकाल तक संसार परिभ्रमण करना पड़ता है। इससे विपरीत, जो साधक इन्द्रियों पर संयम रखता है, उनके अधीन नहीं होता, वह स्वतंत्र विहार करता हुआ इस भव में सुख का भागी होता है और भविष्य में रागमात्र का उच्छेदन करके अजर-अमर, अविनाशी बन जाता है / अनन्त आत्मिक अानन्द को उपलब्ध कर लेता है। इस अध्ययन में अश्ववर्णन के प्रसंग में एक 'वेढ' पाया है। वेढ जैन-पागमों में यत्र-तत्र पाने वाली एक विशिष्ट प्रकार की रचना है / वह रचना विशेषतः द्रष्टव्य है / Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तररामं अज्झयण : आइण्णे जम्बूस्वामी की जिज्ञासा १–'जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स णायज्ञयणस्स अयमढे पण्णत्ते, सत्तरसमस्स णं णायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ?' जम्बूस्वामी ने अपने गुरु श्री सुधर्मास्वामी से प्रश्न किया-'भगवन् ! यदि यावत् निर्वाण को प्राप्त जिनेन्द्रदेव श्रमण भगवान् महावीर ने सोलहवें ज्ञात-अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा है तो सत्तरहवें ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्य कहा है ?' श्री सुधर्मा द्वारा समाधान २-'एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिसीसे शामं नयरे होत्था, वण्णओ' / तत्थ णं कणगकेऊ णामं राया होत्था, वण्णओ / श्री सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी की जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा- उस काल और उस समय में हस्तिशीर्ष नामक नगर था / यहाँ नगर-वर्णन जान लेना चाहिए / उस नगर में कनककेतु नामक राजा था। राजा का भी वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए। नौकावणिकों का कालिकद्वीपगमन ३-तत्थ णं हथिसीसे णयरे बहवे संजत्ताणावावाणियगा परिवसंति, अट्टा जाव बहुजणस्स अपरिभूया यावि होत्था / तए णं तेसि संजत्ताणावावाणियगाणं अन्नया कयाई एगयओ सहियाणं जहा अरहण्णओ' जाव लवणसमुदं अणेगाई जोयणसयाई ओगाढा यावि होत्था। उस हस्तिशीर्ष नगर में बहुत-से सांयात्रिक नौकावणिक ( देशान्तर में नौका-जहाज द्वारा व्यापार करने वाले व्यापारी) रहते थे। वे धनाढ्य थे, यावत् बहुत लोगों से भी पराभव न पाने वाले थे। एक बार किसी समय वे सांयात्रिक नौकावणिक् आपस में मिले। उन्होंने अर्हन्त्रक की भांति समुद्रयात्रा पर जाने का विचार किया, वे लवणसमुद्र में कई सैकड़ों योजनों तक अवगाहन भी कर गये। ४–तए णं तेसि जाव बहूणि उप्पाइयसयाई जहा मागंदियदारगाणं जाव' कालियवाए य तत्थ समुत्थिए। तए णं सा णावा तेणं कालियवाएणं आघोलिज्जमाणी आघोलिज्जमाणी संचालिज्जमाणी संचालिज्जमाणी संखोहिज्जमाणी संखोहिज्जमाणी तत्थेव परिभमइ। तए णं से णिज्जामए णट्ठमईए गट्ठसुईए णट्ठसण्णे मूढदिसाभाए जाए यावि होत्था। ण जाणइ कयरं देसं वा दिसि वा विदिसं वा पोयवहणे अवहिए त्ति कटु ओहयमणसंकप्पे जाव शियायइ / 1-2. प्रौपपातिक सूत्र. 3. देखिए अष्टम अध्ययन. 4. देखिए नवम अध्ययन सूत्र 10. Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ अध्ययन : पाकीर्ण ] [475 उस समय उन वणिकों को माकन्दीपुत्रों के समान' सैकड़ों उत्पात हुए, यावत् समुद्री तूफान भी प्रारंभ हो गया। उस समय वह नौका उस तूफानी वायु से बार-बार कांपने लगी, बारबार चलायमान होने लगी, बार-बार क्षुब्ध होने लगी और उसो जगह चक्कर खाने लगी। उस समय नौका के निर्यामक (खेवटिया) की बुद्धि मारी गई, श्रुति (समुद्रयात्रा सम्बन्धी शास्त्र का ज्ञान) भी नष्ट हो गई और संज्ञा (होश-हवास) भी गायब हो गई / वह दिशाविमूढ हो गया। उसे यह भी ज्ञान न रहा कि पोतवाहन (नौका) कौन-से प्रदेश में है या कौन-सी दिशा अथवा विदिशा में चल रहा है ? उसके मन के संकल्प भंग हो गये / यावत् वह चिन्ता में लीन हो गया / ५-तए णं ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गभिल्लगा य संजत्ताणावावाणिया य जेणेव से निज्जामए तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता एवं वयासी-'किण्णं तुमं देवाणुप्पिया ! ओयमणसंकप्पे जाव [करयलपल्हत्थमुखे अट्टज्झाणोवगए] झियायसि / ' तए णं से णिज्जामए ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गम्भिल्लगा य संजत्ताणावावाणियगा य एवं वयासी–‘एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! गट्ठमईए जाव अवहिए त्ति कटु तओ ओहयमणसंकप्पे जाव झियामि / ' उस समय बहुत-से कुक्षिधार (फावड़ा चलाने वाले नौकर), कर्णधार, गम्भिल्लक (भीतरी फुटकर काम करने वाले) तथा सांयात्रिक नौकावणिक् निर्यामक के पास आये / पाकर उससे बोले'देवानुप्रिय ! नष्ट मन के संकल्प वाले होकर एवं मुख हथेली पर रखकर चिन्ता क्यों कर रहे हो ? तब उस निर्यामक ने उन बहुत-से कुक्षिधारकों, कर्णधारों, गभिल्लकों और सांयात्रिक नौकावणिकों से कहा---'देवानुप्रियो ! मेरी मति मारी गई है, यावत् पोतवाहन किस देश, दिशा या विदिशा में जा रहा है. यह भी मुझे नहीं जान पड़ता / अतएव मैं भग्नमनोरथ होकर चिन्ता कर रहा ६–तए णं ते कण्णधारा तस्स णिज्जामयस्स अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म भीया तत्था उविग्गा उविग्गमणा व्हाया कयबलिकम्मा करयल-परिगहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु बहूणं इंदाण य खंदाण य जहा मल्लिनाए जाव उवायमाणा उवायमाणा चिठ्ठति / तब वे कर्णधार उस निर्यामक से यह बात सुनकर और समझ कर भयभीत हुए, त्रस्त हुए, उद्विग्न हुए, घबरा गये। उन्होंने स्नान किया, बलिकर्म किया और हाथ जोड़कर बहुत-से इन्द्र, स्कंद (कार्तिकेय) आदि देवों की मल्लि-अध्ययन में कहे अनुसार हाथ जोड़ कर मस्तक पर अंजलि करके मनौती मनाने लगे। ७-तए णं से णिज्जामए तओ मुहुत्तंतरस्स लद्धमईए, लद्धसुईए, लद्धसण्णे अमूढदिसाभाए जाए यावि होत्था / तए णं से णिज्जामए ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गभिल्लगा य संजत्ताणावावाणियगा य एवं वयासो—'एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! लद्धमईए जाव अमूढदिसाभाए जाए। अम्हे णं देवाणुप्पिया ! कालियदीवंतेणं संवूढा, एस णं कालियदीवे आलोक्कइ / 1. देखिए, अध्ययन ९वां 2. अ.१७ सूत्र 4. 3. देखिए अष्टम अध्ययन / Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 ] [ ज्ञाताधर्मकथा थोड़ी देर बाद वह निर्यामक लब्धमति, लब्धश्रुति, लब्धसंज्ञ और अदिङ मूढ हो गया। अर्थात् उसकी बुद्धि लौट आई, शास्त्रज्ञान जाग गया; होश आ गया और दिशा का ज्ञान भी हो गया। तब उस निर्यामक ने उन बहुसंख्यक कुक्षिधारों, कर्णधारों, गम्भिल्लकों और सांयात्रिक नौकावणिकों से कहा---'देवानुप्रियो ! मुझे बुद्धि प्राप्त हो गई है, यावत् मेरी दिशा-मूढता नष्ट हो गई है / देवानुप्रियो ! हम लोग कालिक द्वीप के समीप आ पहुँचे हैं / वह कालिक द्वीप दिखाई दे रहा है।' ८-तए णं ते कुच्छिधारा य कण्णधारा य गम्भिल्लगा य संजत्ताणावावाणियगा य तस्स निज्जामयस्स अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म हट्ठ-तुट्ठा पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छति, उवाच्छित्ता पोयवहणं लंबेति, लंबित्ता एगट्टियाहि कालियदीवं उत्तरंति / उस समय वे कुक्षिधार, कर्णधार, गभिल्लक तथा सांयात्रिक नौकावणिक् उस निर्यामक (खलासी) की यह बात सुनकर और समझकर हृष्ट-तुष्ट हुए। फिर दक्षिण दिशा के अनुकूल वायु की सहायता से वहाँ पहुँचे जहाँ कालिक द्वीप था। वहाँ पहुँच कर लंगर डाला / लंगर डाल कर छोटी नौकाओं द्वारा कालिक द्वीप में उतरे। कालिकद्वीप के आकर और अश्व ९-तत्थ गं बहवे हिरण्णागरे य सुवण्णागरे य रयणागरे य वइरागरे य बहवे तत्थ आसे पासंति / कि ते ? हरिरेणुसोणिसुत्तगा आईणवेढो / तए णं ते आसा ते वाणियए पासंति, पासित्ता तेसि गंधं अग्घायंति, अग्घाइत्ता भीया तत्था उम्विग्गा उब्धिग्गमणा तओ अणेगाई जोयणाई उम्भमंति, ते णं तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया निब्भया निरुश्विग्गा सुहंसुहेणं विहरति / उस कालिक द्वीप में उन्होंने बहुत-सी चाँदी की खाने, सोने की खाने, रत्नों की खाने, हीरे की खाने और बहुत से अश्व देखे / वे अश्व कैसे थे? वे पाकीर्ण अर्थात् उत्तम जाति के थे / उनका वेढ अर्थात् वर्णन जातिमान् अश्वों के वर्णन के समान यहाँ समझ लेना चाहिए। वे अश्व नीले वर्ण वाली रेणु के समान वर्ण वाले और श्रोणिसूत्रक अर्थात् बालकों की कमर में बांधने के काले डोरे जैसे वर्ण वाले थे। (इसी प्रकार कोई श्वेत, कोई लाल वर्ण के थे)। उन अश्वों ने उन वणिकों को देखा। देख कर उनकी गंध सूधी। गंध सूघ कर वे अश्व भयभीत हुए, त्रास को प्राप्त हुए, उद्विग्न हुए, उनके मन में उद्वेग उत्पन्न हुग्रा, अतएव वे कई योजन दूर भाग गये। वहां उन्हें बहुत-से गोचर (चरने के खेत-चरागाह) प्राप्त हुए / खूब घास और पानी मिलने से वे निर्भय एवं निरुद्वेग होकर सुखपूर्वक वहाँ विचरने लगे। विवेचन-अभयदेव कृत टीका वाली प्रति में तथा अन्य प्रतियों में 'हरिरेणुसोणियसुत्तगा आईणवेढो' इतना ही संक्षिप्त पाठ ग्रहण किया गया है, किन्तु टीका में अश्वों के पूरे वेढ का उल्लेख है / अंगसुत्ताणि (भाग 3) में भी वह उद्धृत है / तदनुसार विस्तृत पाठ इस प्रकार है Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां अध्ययन : आकीर्ण ] [477 हरिरेणु-सोणिसुत्तग-सकविल-मज्जार-पायकुक्कुड-वोंडसमुग्गयसामवण्णा / गोहूमगोरंग-गोरपाडलगोरा, पवालवण्णा य धूमवण्णा य केइ / / 1 / / तलपत्त-रिट्ठवण्णा य, सालिवण्णा य भासवण्णा य केइ / जंपिय-तिल-कीडगा य, सोलोयरिट्टगा य पुंडपइया य कणगपिट्ठा य केइ / / 2 / / चक्कागपिट्ठवण्णा सारसवण्णा य हंसवण्णा य केइ / केइत्थ अब्भवण्णा पक्कतल-मेघवण्णा य बाहुवण्णा य / / 3 / / संझाणुरागसरिसा सुयमुह-गुजद्धराग-सरिसत्थ केइ। एला-पाडलगोरा सामलया-गवलसामला पुणो केइ / / 4 / / बहवे अण्णे अणिद्देसा, सामा कासीसरत्त-पीया, अच्चंत विसुद्धा वि य णं पाइण्णग-जाइ-कुलविणीय-गयमच्छरा। हयवरा जहोवएस-कम्मवाहिणो वि य णं सिक्खा विणीयविणया, लंघण-वग्गण-धावण-तिवई-जईण-सिक्खियगई। कि ते ? मणसा वि उव्विहंताई अणेगाई आससयाई पासंति / / भावार्य-कालिक द्वीप में पहुंचने पर नौका-वणिकों ने चांदी, सोने, रत्नों और हीरों की खानों के साथ विविध वर्ण वाले अश्वों को भी देखा। उन अश्वों में कोई-कोई नीले वर्ण की रेणु के समान, श्रोणिसूत्रक अर्थात् बालकों की कमर में बाँधने के काले डोरे के समान तथा मार्जार, पादुकुक्कुट [विशेष जाति का कुकड़ा] एवं कच्चे कपास के फल के समान श्याम वर्ण वाले थे। कोई गेहूँ और पाटल पुष्प के समान गौर वर्ण वाले थे, कोई विद्रुम-मूगा के समान अथवा नवीन कोंपल के सदृश रक्तवर्ण-लाल थे, कोई धूम्रवर्ण-पाण्डुर धुए जैसे रंग के ये / कोई तालवृक्ष के पत्तों के सरीखे तो कोई रिष्ठा-मदिरा सरीखे वर्ण वाले थे। कोई शालिवर्णचावल जैसे रंग वाले और कोई भस्म जैसे रंग वाले थे। कोई पुराने तिलों के कीड़ों जैसे, कोई चमकदार रिष्टक रत्न जैसे वर्ण वाले, कोई धवल श्वेत पैरों वाले, कोई कनकपृष्ठ-सुनहरी पीठ वाले थे। कोई सारस पक्षी की पीठ, चक्रवाक एवं हंस के समान श्वेत थे / कोई मेघ-वर्ण और कोई तालवृक्ष के पत्तों के समान वर्ण वाले थे। कोई रंगबिरंगे अर्थात् अनेक रंगों वाले थे। कोई संध्याकाल की लालिमा, तोते की चोंच तथा गुजा [चिरमी के अर्धभाग के सदृश लाल थे, कोई एला-पाटल या एला और पाटल जैसे रंग के थे। कोई प्रियंगु-लता और महिषशग के समान श्यामवर्ण थे। __ कोई-कोई अश्व ऐसे थे कि उनके वर्ण का निर्देश-कथन ही नहीं किया जा सकता, जैसे कोई श्यामाक (धान्य विशेष), काशीष (एक रक्तवर्ण द्रव्य), रक्त और पीत थे-- अर्थात् चितकबरे (अनेक रंगों के) थे / वे अश्व विशुद्ध-निर्दोष थे। प्राकीर्ण अर्थात् वेगवत्ता आदि गुणों वाली जाति एवं कूल के थे / विनीत, प्रशिक्षित (ट्रेनिंग पाए हुए) थे एवं परस्पर असहनशीलता से रहित थे-जैसे अन्य अश्व दूसरे अश्वों को सहन नहीं करते, एक दूसरे के निकट आते ही लड़ने लगते हैं, वैसे वे अश्व नहीं थे, Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 ] [ ज्ञाताधर्मकथा सहनशील थे। वे अश्व-प्रवर थे, प्रशिक्षण के अनुसार ही गमन करते थे / गड्ढा आदि को लांघने में, कूदने में, दौड़ने में, धोरण अर्थात् गतिचातुर्य में, त्रिपदी-रंगभूमि में मल्ल की-सी गति करने में कुशल थे / न केवल शरीर से हो वरन् मन से भी वे उछल रहे थे। नौकावणिकों आदि ने ऐसे सैकड़ों घोड़े वहाँ देखे / / इस वेढ का अर्थ करने के पश्चात् अन्त में अभयदेवसूरि लिखते हैं-'गमनिकामात्रमेतदस्य वर्णकस्य भावार्थस्तु बहुश्रुतबोध्यः' अर्थात् इस वर्णक का यह अर्थमात्र दिया गया है, भावार्थ तो वहुश्रुत विद्वान् ही जाने / १०-तए णं ते संजत्ताणावावाणियगा अण्णमण्णं एवं वयासो-'किव्ह अम्हे देवाणुप्पिया! आसेहि ? इमे णं बहवे हिरण्णागरा य, सुवण्णागरा य, रयणागरा य, वइरागरा य, तं सेयं खलु अम्हं हिरण्णस्स य, सुवण्णस्स य, रयणस्स य, वइरस्स य पोयबहणं भरित्तए' त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमलैं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता हिरण्णस्स य, सुवण्णस्स य, रयणस्स य, वइरस्स य, तणस्स य, अण्णस्स य, कटुस्स य, पाणियस्स य पोयवहणं भरेंति, भरित्ता पयक्खिणाणुकलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयवहणपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेति, लंबित्ता सगडीसागडं सज्जेंति, सज्जित्ता तं हिरणं जाव वइरं च एगढियाहि पोयवहणाओ संचारेंति, संचारिता सगडीसागडं संजोइंति, संजोइत्ता जेणेव हत्थिसीसए नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हस्थिसीसयस्स नयरस्स बहिया अग्गुज्जाणे सत्थणिवेसं करेंति करिता सगडीसागडं मोएंति, मोइत्ता महत्थं जाव [महग्धं महरिहं विउलं रायारिहं] पाहुडं गेण्हति गेण्हित्ता हथिसीसं नयर अणुपविसंति, अणुपविसित्ता जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता जाव उवणेति / __ तब उन सांयात्रिक नौकावणिकों ने आपस में इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! हमें अश्वों से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं। यहाँ यह बहुत-सी चाँदी की खानें, सोने की खाने, रत्नों की खाने और हीरों की खाने हैं / अतएव हम लोगों को चाँदी-सोने से, रत्नों से और हीरों से जहाज भर लेना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार कहकर उन्होंने एक दूसरे की बात अंगीकार की। अंगीकार करके उन्होंने हिरण्य से, सुवर्ण से, रत्नों से, हीरों से, घास से, अन्न से, काष्ठों से और मीठे पानी से अपना जहाज भर लिया / भर कर दक्षिण दिशा की अनुकूल वायु से जहाँ गंभीर पोतवहनपट्टन था, वहाँ आये। पाकर जहाज का लंगर डाला। लंगर डाल कर गाड़ी-गाड़े तैयार किये / तैयार करके लाये हुए उस हिरण्य, स्वर्ण यावत् हीरों का छोटी नौकाओं द्वारा संचार किया अर्थात् पोतवहन से गाड़ेगाड़ियों में भरा। फिर गाड़ी-गाड़े जोते। जोतकर जहां हस्तिशीर्ष नगर था वहाँ पहुँचे / हस्तिशीर्ष नगर के बाहर अग्र उद्यान में सार्थ को ठहराया। गाड़ी-गाड़े खोले / फिर बहुमूल्य, [महान् पुरुषों के योग्य, विपुल एवं नृपतियोग्य] उपहार लेकर हस्तिशीर्ष नगर में प्रवेश किया। प्रवेश करके कनककेतु राजा के पास आये / वह उपहार राजा के समक्ष उपस्थित किया। ११---तए णं से कणगकेऊ तेसि संजत्ताणावावाणियगाणं तं महत्थं जाव पडिच्छइ / राजा कनककेतु ने उन सांयात्रिक नौकावणिकों के उस बहुमूल्य [महान् पुरुषों के एवं राजा के योग्य विपुल] उपहार को स्वीकार किया। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां अध्ययन : प्राकीर्ण ] [ 479 अश्वों का अपहरण १२-ते संजत्ताणावावाणियगा एवं वयासी-'तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! गामागर जाव आहिंडह, लवणसमुदं च अभिक्खणं अभिक्खणं पोयवहणेणं ओगाहह, तं अत्थि याई केइ भे कहिंचि अच्छेरए दिट्टपुत्वे ?' तए णं संजत्ताणावावाणिया कणगकेउं रायं एवं वयासी—'एवं खलु अम्हे देवाणुप्पिया ! इहेव हत्यिसीसे नयरे परिक्सामो, तं चेव जाव कालियदीवतेणं संबूढा, तत्थ णं बहवे हिरण्णागरा य जाव' बहवे तत्थ आसे, कि ते हरिरेणुसोणिसुत्तगा जाव' अणेगाई जोयणाई उन्भमंति। तए णं सामी ! अम्हेहि कालियदीवे ते आसा अच्छेरए दिट्ठा / फिर राजा ने उन सांयात्रिक नौकावणिकों से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! तुम लोग ग्रामों में यावत् पाकरों में (सभी प्रकार की वस्तियों में) घूमते हो और बार-बार पोतवहन द्वारा लवणसमुद्र में अवगाहन करते हो, तुमने कहीं कोई आश्चर्यजनक-अद्भुत-अनोखी वस्तु देखी है ?' तब सांयात्रिक नौकावणिकों ने राजा कनककेतु से कहा-'देवानुप्रिय ! हम लोग इसी हस्तिशीर्ष नगर के निवासी हैं; इत्यादि पूर्ववत् कहना चाहिए, यावत् हम कालिक द्वीप के समीप गए। उस द्वीप में बहुत-सी चाँदी की खाने यावत् बहुत-से अश्व हैं / वे अश्व कैसे हैं ? नील वर्ण वाली रेणु के समान और श्रोणिसूत्रक के समान श्याम वर्ण वाले हैं। यावत् वे अश्व हमारी गंध से कई योजन दूर चले गए। अतएव हे स्वामिन् ! हमने कालिक द्वीप में उन अश्वों को आश्चर्यभूत (विस्मय की वस्तु) देखा है।' १३--तए णं से कणगकेऊ तेसि संजत्ताणावावाणियगाणं अंतिए एयमठं सोच्चा णिसम्म ते संजत्ताणावावाणियए एवं वयासी-'गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! मम कोडुबियपुरिसेहि द्धि कालियदीवाओ ते आसे आणेह।' तए णं ते संजत्ता कणगकेउं रायं एवं वयासो-'एवं सामी !' ति कटु आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति / तत्पश्चात् कनककेतु राजा उन सांयात्रिकों से यह अर्थ सुन कर उन्हें कहा–'देवानुप्रियो ! तुम मेरे कौटुम्बिक पुरुषों के साथ जानो और कालिक द्वीप से उन अश्वों को यहाँ ले पायो।' तब सांयात्रिक वणिकों ने कनककेतु राजा से इस प्रकार कहा---'स्वामिन् ! बहुत अच्छा' ऐसा कहकर उन्होंने राजा का वचन आज्ञा के रूप में विनयपूर्वक स्वीकार किया। १४-तए णं कणगकेऊ राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी- 'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! संजत्ताणावावाणिएहि सद्धि कालियदीवाओ मम आसे आणेह।' ते वि पडिसुणेति / तए णं ते कोड बियपरिसा सगडीसागडं सज्जेंति, सज्जित्ता तत्थ णं बहणं वीणाण य, वल्लकीण य, भामरीण य, कच्छभीण य, भंभाण य, छब्भामरीण य, विचित्तवीणाण य, अन्नेसि च बहूर्ण सोइंदियपाउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरेंति / 1-2 प्र. 17 सूत्र 9. Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम सांयात्रिक वणिकों के साथ जाओ और कालिक द्वीप से मेरे लिए अश्व ले पायो।' उन्होंने भी राजा का आदेश अंगीकार किया। तत्पश्चात् कौटुम्बिक पुरुषों ने गाड़ो-गाड़े सजाए / सजा कर उनमें बहुत-सी वीणाएँ, बल्लकी, भ्रामरी, कच्छपी, भंभा, षभ्रमरी आदि विविध प्रकार की वीणाओं तथा विचित्र वीणाओं से और श्रोत्रेन्द्रिय के योग्य अन्य बहुत-सी वस्तुओं से (कानों को प्रिय लगने योग्य सामग्री-साधनों) से गाड़ी-गाड़े भर लिये। १५–भरित्ता बहूणं किण्हाण य जाव [नीलाण य लोहियाण य हालिदाण य] सुक्किल्लाण य कट्टकम्माण य [चित्तकम्माण य पोत्थकम्माण य लेप्पकम्माण य] गंथिमाण य जाव [वेढिमाण य पूरिमाण य] संघाइमाण य अन्नेसि च बहूणं चक्खिदियपाउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरेंति / भरित्ता बहूर्ण कोटपुडाण य केयइपुडाण य जाव [पत्तपुडाण य चोयपुडाण य तगरपुडाण य एलापुडाण य हिरिवेरपुडाण य उसीरपुडाण य चंपगपुडाण य मरुयपुडाण य दमणगपुडाण य जाइपुडाण य जुहियापुडाण य मल्लियपुडाण य वासंतियपुडाण य कप्पूरपुडाण य पाडलपुडाण य] अन्नेसि च बहूणं घाणिदियपाउग्गाणं दव्वाणं सगडीसागडं भरेंति। भरित्ता बहुस्स खंडस्स य गुलस्स य सक्कराए य मच्छंडियाए य परफुत्तरपउमुत्तर अन्नेसि च जिभिदियपाउग्गाणं दम्वाणं सगडीसागडं भरति / भरित्ता बहूर्ण कोयवयाण य कंबलाण य पावरणाण य नवतयाण य मलयाण य मसगाण य सिलावट्टाण य जाव हंसगम्भाण य अन्नेसि च फासिदियपाउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरेंति। श्रोत्रेन्द्रिय के योग्य (प्रिय) वस्तुएँ भर कर बहुत-से कृष्ण वर्ण वाले, [नील, रक्त, पीत एवं] शुक्ल वर्ग वाले काष्ठकर्म (लकड़ी के पटिये पर चित्रित चित्र), चित्रकर्म, पुस्तकर्म (पुठे पर बनाए चित्र), लेप्यकर्म (मृत्तिका से बनाए चित्र-विचित्र रूप) तथा वेढिम, पूरिम तथा संघातिम एवं अन्य चक्षु-इन्द्रिय के योग्य द्रव्य गाड़ी-गाड़ों में भरे।। ___ यह भर कर बहुत-से कोष्ठपुट' (कोष्ठपुट में जो पकाये जाते हैं वे वास-सुगंधित द्रव्य विशेष) इसी प्रकार केतकीपुट, पत्रपुट, चोय-त्वपुट, तगरपुट, एलापुट, हरिवेर (बालक) पुट, उसीर (खसखस का मूल अथवा एक विशिष्ट पुष्पजाति) पुट, चम्पकपुट, मरुक (मरुपा) पुट, दमनकपुट, जाती (जाई) पुट, यूथिकापुट, मल्लिकापुट, वासंतीपुट, कपूरपुट, पाटलपुट तथा अन्य बहुत-से घ्राणेन्द्रिय को प्रिय लगने वाले पदार्थों से गाड़ी-गाड़े भरे। तदनन्तर बहुत-से खांड, गुड, शक्कर, मत्संडिका (विशिष्ट प्रकार की शक्कर), पुष्पोत्तर (शर्करा-विशेष) तथा पद्मोत्तर जाति की शर्करा आदि अन्य अनेक जिह्वा-इन्द्रिय के योग्य द्रव्य गाड़ी-गाड़ों में भरे। उसके बाद बहुत-से कोयतक-रुई के बने वस्त्र, कंबल-रत्न-कंबल, प्रावरण-मोढ़ने के वस्त्र, नवत-जीन, मलय-विशेष प्रकार का प्रासन अथवा मलय देश में बने वस्त्र, अथवा मसग—चर्म से मढ़े एक प्रकार के वस्त्र, शिलापट्टक-चिकनी शिलाएँ यावत् हंसगर्भ (श्वेत वस्त्र) तथा अन्य स्पर्शेन्द्रिय के योग्य द्रव्य गाड़ी-गाड़ों में भरे / 1. कोष्ठपुटे—ये पच्यन्ते ते कोष्ठपुटा: वासविशेषा:--अभयदेवटीका / Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ अध्ययन : आकीर्ण ] [481 १६-भरित्ता सगडीसागडं जोएंति, जोइत्ता जेणेव गंभीरपोयद्वाणे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सगडीसागडं मोएंति, मोइत्ता पोयवहणं सज्जेंति सज्जित्ता तेसि उक्किट्ठाणं सद्द-फरिसरस-रूव-गंधाणं कठुस्स य तणस्स य पाणियस्स य तंदुलाण य समियस्स य गोरसस्स य जाव' अन्नेसि च बहूणं पोयवहणपाउग्गाणं पोयवहणं भरेंति / उक्त सब द्रव्य भरकर उन्होंने गाड़ी-गाड़े जोते / जोत कर जहाँ गंभीर पोतपट्टन था, वहाँ पहुँचे / पहुँच कर गाड़ी-गाड़े खोले / खोल कर पोतवहन तैयार किया / तैयार करके उन उत्कृष्ट शब्द, स्पश, रस, रूप और गध के द्रव्य तथा काष्ठ, तृण, जल, चावल, पाटा, गोरस तथा अन्य बहुत-से पोतवहन के योग्य पदार्थ पोतवहन में भरे / १७-भरित्ता दक्खिणाणुकलेणं वाएणं जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेति, लंबित्ता ताई उक्किट्ठाई सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाई एगट्टियाहि कालियदीवं उत्तारेंति, उत्तारित्ता जहि जहिं च णं ते आसा आसयंति वा, सयंति वा, चिट्ठति वा, तुयटेंति वा, तहि तहि च णं ते कोडुबियपुरिसा ताओ वीणाओ य जाव विचित्तवीणाओ य अन्नाणि बहूणि सोइंदिययाउग्गाणि य दव्वाणि समुदीरेमाणा समुदीरेमाणा चिट्ठति, तेसि च परिपेरंतेणं पासए ठवेंति, ठवित्ता णिच्चला णिफंदा तुसिणीया चिट्ठति / वे उपर्युक्त सब सामान पोतवहन में भर कर दक्षिण दिशा के अनुकूल पवन से जहाँ कालिक द्वीप था, वहाँ आये / पाकर लंगर डाला / लंगर डाल कर उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध के पदार्थों को छोटी-छोटी नौकाओं द्वारा कालिक द्वीप में उतारा / उतार कर वे घोड़े जहाँ-जहाँ वैठते थे, सोते थे और लोटते थे, वहाँ-वहाँ वे कौटुम्बिक पुरुष वह वीणा, विचित्र वीणा आदि श्रोत्रेन्द्रिय को प्रिय वाद्य बजाते रहने लगे तथा इनके पास चारों ओर जाल स्थापित कर दिएजाल बिछा दिए / जाल बिछा करके वे निश्चल, निस्पन्द और मूक होकर स्थित हो गए। १८-जत्थ जत्थ ते आसा आसयंति वा जाव तुयटॅति वा, तत्थ तत्थ णं ते कोडुबियपुरिसा बहणि किण्हाणि य 5 कट्टकम्माणि य जाव संधाइमाणि य अन्नाणि य बहुणि चक्खिदियपाउम्गाणि य दव्वाणि ठवेंति, तेसि परिपेरतेणं पासए ठति, ठवित्ता णिच्चला णिफंदा तुसिणीया चिट्ठति / जहाँ-जहाँ वे अश्व बैठते थे, यावत् लोटते थे, वहाँ-वहाँ उन कौटुम्बिक पुरुषों ने बहुतेरे कृष्ण वर्ण वाले यावत शुक्ल वर्ण वाले काष्ठकर्म यावत संघातिम तथा अन्य बहत-से चक्ष-इन्द्रिय के योग्य पदार्थ रख दिए तथा उन अश्वों के पास चारों ओर जाल बिछा दिया और वे निश्चल और मूक होकर छिप रहे। १९-जत्थ जत्थ ते आसा आसयंति वा, सयंति वा, चिट्ठति वा, तुयति वा, तत्थ-तत्थ णं ते कोडुबियपुरिसा तेसि बहूणं कोटपुडाण य अन्नेसि च घाणिदियपाउग्गाणं दवाणं पुजे य णियरे य करेंति, करिता तेसि परिपेरते जाव चिट्ठति / जहाँ-जहाँ वे अश्व बैठते थे, सोते थे, खड़े होते थे अथवा लोटते थे वहाँ-वहाँ उन कौटुम्बिक 1. अ. 8 सूत्र 55 2. अ. 17 सूत्र 14-15 / Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482] [ ज्ञाताधर्मकथा पुरुषों ने बहुत से कोष्ठपुट तथा दूसरे घ्राणेन्द्रिय के प्रिय पदार्थों के पुज (ढेर) और निकर (बिखरे हुए समूह) कर दिये / उनके पास चारों ओर जाल बिछाकर वे मूक होकर छिप गये / २०-जत्थ जत्थ णं ते आसा आसयंति वा, सयंति वा, चिट्ठति वा, तुयति वा, तत्थ तत्थ गुलस्स जाय अन्नेसि च बहूणं जिभिदियपाउम्गाणं दव्वाणं पुजे य णियरे य करेंति, करित्ता वियरए खणंति, खणित्ता गुलपाणगस्स खंडपाणगस्स पोरपाणगस्स अन्नेसि च बहूणं पाणगाणं वियरे भरेंति, भरिता तेसि परिपेरतेणं पासए ठवेति जाव चिटठति / जहाँ-जहाँ वे अश्व बैठते थे, सोते थे, खड़े होते थे अथवा लोटते थे, वहाँ-वहाँ कौटम्बिक पुरुषों ने गुड के यावत् अन्य बहुत-से जिह्वन्द्रिय के योग्य पदार्थों के पुज और निकर कर दिये। करके उन जगहों पर गड़हे खोदे ! खोद कर गुड़ का पानी, खांड का पानी, पोर (ईख) का पानी तथा दूसरा बहुत तरह का पानी उन गड़हों में भर दिया / भरकर उनके पास चारों ओर जाल स्थापित करके मूक होकर छिप रहे / २१-हिं जहिं च णं ते आसा आसयंति वा, सयंति वा, चिट्ठति वा, तुयति वा, तहिं हि च णं ते बहवे कोयवया य जाव सिलावट्टया अण्णाणि य फासिदियपाउग्गाई अत्थुयपच्चत्थुयाई ठति, ठवित्ता तेसि परिपेरंतेणं जाव चिट्ठति / जहाँ-जहाँ वे घोड़े बैठते थे, सोते थे, खड़े होते थे यावत् लोटते थे, वहाँ-वहाँ कोयवक (रुई के वस्त्र) यावत् शिलापट्टक (चिकनी शिला) तथा अन्य स्पर्शनेन्द्रिय के योग्य प्रास्तरण--प्रत्यास्तरण (एक दूसरे के ऊपर बिछाए हुए वस्त्र) रख दिये। रख कर उनके पास चारों ओर जाल बिछा कर एवं मूक होकर छिप गए। २२-तए णं ते आसा जेणेव एए उक्किट्ठा सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तत्थ णं अत्थेगइया आसा 'अपुटवा णं इमे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधा' इति कट्ट तेसु उक्किठेसु सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु अमुच्छिया अगढिया अगिद्धा अणज्झोववण्णा, तेसि उक्किट्टाणं सद्द जाब गंधाणं दूरंदूरेणं अवक्कमंति, ते णं तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया णिब्भया णिरुविग्गा सुहंसुहेणं विहरंति। तत्पश्चात् वे अश्व वहाँ पाये, जहाँ यह उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध (वाली वस्तुएं) रखी थीं। वहाँ आकर उनमें से कोई-कोई अश्व 'ये शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध अपूर्व हैं अर्थात् पहले कभी इनका अनुभव नहीं किया है, ऐसा विचार कर उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में मूच्छित, गृद्ध, आसक्त न होकर उन उत्कृष्ट शब्द यावत् गंध से दूर चले गये। वे अश्व वहाँ जाकर बहुत गोचर (चरागाह) प्राप्त करके तथा प्रचुर घास-पानी पीकर निर्भय हुए, उद्वेग रहित हुए और सुखे-सुखे विचरने लगे। कथानक का निष्कर्ष - २३–एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां अध्ययन : प्राकीर्ण ] [ 483 णो सज्जइ, से णं इहलोगे चेव बहूणं समणाणं समणोणं सावयाणं सावियाणं अच्चणिज्जे जाव [चाउरंतसंसारकतारं] वीइवयइ। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! हमारा जो साधु या साध्वी शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में आसक्त नहीं होता, वह इस लोक में बहुत साधुनों, साध्वियों, श्रावकों और श्राविकाओं का पूजनीय होता है और इस चातुर्गतिक संसार-कान्तार को पार कर जाता है / विषयलोलुपता का दुष्परिणाम २४--तत्थ णं अत्थेगइया आसा जेणेव उक्किट्ठ सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तेसु उक्किट्ठेसु सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु मुच्छिया जाव अज्झोववण्णा आसेविउं पयत्ता यावि होत्था / तए णं ते आसा एए उक्किट्ठ सद्द-फरिस-रस-रुव गंधा आसेवमाणा तेहि बहूहि कूडेहि य पासेहि य गलएसु य पाएसु य बझंति / उन घोड़ों में से कितनेक घोड़े जहाँ वे उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध थे, वहाँ पहुँचे / वहाँ पहुँच कर वे उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में मूच्छित हए, अति आसक्त हो गए और उनका सेवन करने में प्रवृत्त हो गए / तत्पश्चात् उस उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का सेवन करने वाले वे अश्व कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बहुत से कूट पाशों (कपट से फैलाए गए बंधनों) से गले में यावत् पैरों में बाँधे गए-बंधनों से बाँधे गए--पकड़ लिए गए। २५-तए णं ते कोडुबिया एए आसे गिण्हंति, गिण्हित्ता एगट्ठियाहि पोयवहणे संचारेंति, संचारित्ता तणस्स कटुस्स जाव' भरेति / तए णं ते संजत्ताणावावाणियगा दक्खिणाणुकलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेति, लंबिता ते आसे उत्तारेंति, उत्तारित्ता जेणेव हथिसीसे णयरे, जेणेव कणगकेऊ राया, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धाति वद्धावित्ता ते आसे उवणेति। तए णं से कणगकेऊ राया तेसि संजत्ताणावावाणियगाणं उस्सुक्कं वियरइ, वियरित्ता सक्कारेइ, मंमाणेइ, सक्कारिता संमाणित्ता पडिविसज्जेइ। . तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उन अश्वों को पकड़ लिया। पकड़ कर वे नौकाओं द्वारा पोतवहन में ले आये / लाकर पोतवहन को तृण, काष्ठ आदि आवश्यक पदार्थों से भर लिया। तत्पश्चात् वे सांयात्रिक नौकावणिक् दक्षिण दिशा के अनुकूल पवन द्वारा जहाँ गंभीर पोतपट्टन था, वहाँ आये / आकर पोतवहन का लंगर डाला। लंगर डाल कर उन घोड़ों को उतारा / उतार कर जहाँ हस्तिशीर्ष नगर था और जहाँ कनककेतु राजा था, वहाँ पहुँचे / पहुँच कर दोनों हाथ जोड़कर राजा का अभिनन्दन किया / अभिनन्दन करके वे अश्व उपस्थित किये। राजा कनककेतु ने उन सांयात्रिक वणिकों का शुल्क माफ कर दिया / उनका सत्कार-सन्मान किया और उन्हें विदा किया। 1. प्र. 17. सूत्र 16. Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 ] [ ज्ञाताधर्मकथा २६-तए णं से कणगकेऊ राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता सक्कारेइ, संमाणेइ, सक्कारित्ता संमाणित्ता पडिविसज्जेइ। तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने कालिक द्वीप भेजे हुए कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुला कर उनका भी सत्कार-सन्मान किया और फिर उन्हें विदा कर दिया / २७-तए णं से कणगकेऊ राया आसमद्दए सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! मम आसे विणएह / ' तए णं ते आसमद्दगा तह त्ति पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता ते आसे बहूहि मुहबंधेहि य, कण्णबंधेहि य, णासाबंधेहि य, वालबंधेहि य, खुरबंधेहि य कडगबंधेहि य खलिणबंधेहि य, अहिलाणेहि य, पडया हि य, अंकणाहि य, वेलप्पहारेहि य, वित्तष्पहारेहि य, लयप्पहारेहि य, कसप्पहारेहि य, छिवप्पहारेहि य विणयंति, विणइत्ता कणगकेउस्स रण्णो उवणेति / तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने अश्वमर्दकों (अश्वपालों) को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम मेरे अश्वों को विनीत करो-प्रशिक्षित करो।' तब अश्वमर्दकों ने 'बहुत अच्छा' कहकर राजा का आदेश स्वीकार किया / स्वीकार करके उन्होंने उन अश्वों को मुख बाँधकर, कान बाँधकर, नाक बाँधकर, झौंरा (पूछ के बालों का अग्रभाग) बाँधकर, खुर बांधकर, कटक बांधकर, चौकड़ी चढ़ाकर, तोबरा चढ़ाकर, पटतानक (पलान के नीचे का पट्टा) लगा कर, खस्सी करके, वेलाप्रहार करके, बेंतों का प्रहार करके, लताओं का प्रहार करके, चाबुकों का प्रहार करके तथा चमड़े के कोड़ों का प्रहार करके विनीत किया-प्रशिक्षित किया / विनीत करके वे राजा कनककेतु के पास ले आये / २८-तए णं से कणगकेऊ ते आसमद्दए सक्कारेइ, संमाणेइ, सक्कारित्ता संमाणित्ता पडिविसज्जेइ / तए णं ते आसा बहूहि मुहबंधेहि य जाव छिवप्पहारेहि य बहूणि सारीरमाणसाणि दुक्खाई पाति। तत्पश्चात् कनककेतु ने उन अश्वमर्दकों का सत्कार किया, सन्मान किया। सत्कार-सन्मान करके उन्हें विदा किया। उसके बाद वे अश्व मुखबंधन से यावत् चमड़े के चाबुकों के प्रहार से बहुत शारीरिक और मानसिक दुःखों को प्राप्त हुए। २९-एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा पव्वइए समाणे इठेसु सद्दफरिस-रस-रूव-गंधेसु सज्जति, रज्जति, गिज्झति, मुज्झति, अज्झोववज्जति, से णं इह लोगे चेव बहूणं समणाण य जाव सावियाण य हीलणिज्जे जाव [चाउरंतसंसारकतारं भुज्जो भुज्जो] अणुपरियट्टिस्सइ। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! हमारा जो निग्रंथ या निग्रंथी दीक्षित होकर प्रिय शब्द स्पर्श रस रूप और गंध में गृद्ध होता है, मुग्ध होता है और आसक्त होता है. वह इसी लोक में बहुत श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों तथा श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र होता है, चातुर्गतिक संसारअटवी में पुनः पुनः भ्रमण करता है / Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ अध्ययन : प्राकीर्ण ] [485 इन्द्रियलोलुपता का दुष्फल ३०--कल-रिभिय-महुर-तंती-तलतालवंसकउहाभिरामेसु / सद्देसु रज्जमाणा, रमंति सोइंदियवसट्टा // 1 // कल अर्थात् श्रुतिसुखद और हृदयहारी, रिभित अर्थात् स्वरघोलना के प्रकार वाले, मधुर वीणा, तलताल (हाथ की ताली-करताल) और बाँसुरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में अनुरक्त होने और श्रोत्रेन्द्रिय के वशवर्ती बने हुए प्राणी प्रानन्द मानते हैं // 1 // सोइंदियदुद्दन्त-त्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। दीविगख्यमसहंतो, वहबंधं तित्तिरो पत्तो // 2 // किन्तु श्रोत्रेन्द्रिय की दुर्दान्तता का अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय की उच्छृङ्खलता का इतना दोष होता है, जैसे पारधि के पिंजरे में रहे हुए तीतुर के शब्द को सहन न करता हुआ तीतुर पक्षी वध और बंधन को प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि पारधि के पीजरे में फंसे हुए तीतुर का शब्द सुनकर वन का स्वाधीन तीतुर अपने स्थान से निकल आता है और पारधि उसे भी फंसा लेता है। श्रोत्रेन्द्रिय को न जीतने से ऐसे दुष्परिणाम की प्राप्ति होती है / / 2 / / थण-जहण-वयण-कर-चरण-जयण-गब्धिय-विलासियगइसु / रूवेसु रज्जमाणा, रमंति चक्खिदियवसट्टा // 3 // चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत और रूपों में अनुरक्त होने वाले पुरुष स्त्रियों के स्तन, जघन, वदन, हाथ, पैर, नेत्रों में तथा विष्ठ बनी हुई स्त्रियों की विलासयुक्त गति में रमण करते हैं—आनन्द मानते हैं // 3 // चक्खिदियदुद्दन्त-त्तणस्स अह एत्तिओ भवइ दोसो। जं जलणम्मि जलते, पडइ पयंगो अबुद्धीओ // 4 // परन्तु चक्षु इन्द्रिय की दुर्दान्तता से इतना दोष होता है कि जैसे बुद्धिहीन पतंगिया जलती हुई आग में जा पड़ता है अर्थात् चक्षु के वशीभूत हुया पतंगा जैसे प्राणों से हाथ धो बैठता है, उसी प्रकार मनुष्य भी वध-बंधन के घोर दुःख पाते हैं / / 4 / / अगुरु-वरपयरधूवण,-उउय-मल्लाणुलेवणविहीस् / गंधेसु रज्जमाणा, रमंति घाणिदियवसट्टा // 5 // सुगंध में अनुरक्त हुए और घ्राणेन्द्रिय के वश में पड़े हुए प्राणी श्रेष्ठ अगर, श्रेष्ठ धूप, विविध ऋतुओं में वृद्धि को प्राप्त माल्य (जाई आदि के पुष्पों) तथा अनुलेपन (चन्दन आदि के लेप) की विधि में रमण करते हैं अर्थात् सुगंधित पदार्थों के सेवन में प्रानन्द का अनुभव करते हैं / / 5 / / Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 ] [ ज्ञाताधर्मकथा घाणिदियदुद्दन्त-तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जं ओसहिगंधेणं, विलाओ निद्धावई उरगो // 6 // परन्तु प्राणेन्द्रिय (नासिका) की दुर्दान्तता से अर्थात् नासिका-इन्द्रिय का दमन न करने से इतना दोष होता है कि औषधि (वनस्पति) की गंध से सर्प अपने बिल से बाहर निकल आता है। अर्थात् नासिका के विषय में प्रासक्त हुआ सर्प सँपेरे के हाथों पकड़ा जाकर अनेक कष्ट भोगता है // 6 // तित्त-कडुयं कसायंब-महुरं बहुखज्ज-पेज्ज-लेज्झेसु / आसायंमि उ गिद्धा, रमंति जिभिदियवसट्टा // 7 // रस में आसक्त और जिह्वा इन्द्रिय के वशवर्ती हुए प्राणी कड़वे, तीखे, कसैले, खट्ट एवं मधुर रस वाले बहुत खाद्य, पेय, लेह्य (चाटने योग्य) पदार्थों में आनन्द मानते हैं / / 7 / / जिभिदियदुद्दन्त-तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जं गललग्गुक्खित्तो, फुरइ थलविरल्लिओ मच्छो // 8 // किन्तु जिह्वा इन्द्रिय का दमन न करने से इतना दोष उत्पन्न होता है कि गल (बडिश)में लग्न होकर जल से बाहर खींचा हुआ मत्स्य स्थल में फेंका जाकर तड़फता है / अभिप्राय यह है कि मच्छीमार मछली को पकड़ने के लिए मांस का टुकड़ा काँटे में लगाकर जल में डालते हैं / मांस का लोभी मत्स्य उसे मुख में लेता है और तत्काल उसका गला विध जाता है / मच्छीमार उसे जल से बाहर खींच लेते हैं और उसे मृत्यु का शिकार होना पड़ता है / / 8 / / उउ-भयमाण-सुहेहि य, सविभव-हियय-मणनिन्वुइकरेसु / फासेसु रज्जमाणा, रमंति फासिदियवसट्टा // 9 // स्पर्शेन्द्रिय के वशीभूत हुए प्राणी स्पर्शेन्द्रिय की अधीनता से पीड़ित होकर विभिन्न ऋतुओं में सेवन करने से सुख उत्पन्न करने वाले तथा विभव (समृद्धि) सहित, हितकारक (अथवा वैभव वालों को हितकारक) तथा मन को सुख देने वाले माला, स्त्री आदि पदार्थों में रमण करते हैं / / 9 / / फासिदियदुद्दन्त-तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जं खणइ मत्थयं कुजरस्स लोहंकुसो तिक्खो॥१०॥ किन्तु स्पर्शनेन्द्रिय का दमन न करने से इतना दोष होता है कि लोहे का तीखा अंकुश हाथी के मस्तक को पीड़ा पहुँचाता है। अर्थात् स्वच्छंद रूप से वन में विचरण करने वाला हाथी स्पर्शनेन्द्रिय के वश में होकर पकड़ा जाता है और फिर पराधीन बनकर महावत की मार खाता है / / 10 / / इन्द्रियसंवर का सुफल कलरिभियमहुरतंती-तल-ताल-वंस-ककुहाभिरामेसु / सद्देसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए // 11 // कल, रिभित एवं मधुर तंत्री, तलताल तथा बाँसुरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में जो आसक्त नहीं होते, वे वशार्तमरण नहीं मरते / Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरवां अध्ययन : पाकीर्ण ] [487 अर्थात-जो इन्द्रियों के वश होकर पात-पीडित होते हैं, उन्हें वशात कहते हैं / अथवा वश को अर्थात् इन्द्रियों की पराधीनता को जो ऋत-प्राप्त हैं, वे वशात कहलाते हैं / ऐसे प्राणियों का मरण वशात-मरण है। अथवा इन्द्रियों के वशीभूत होकर मरना, विषयों के लिए हाय-हाय करते हुए प्राण त्यागना वशार्तमरण कहलाता है / इन्द्रियों का दमन करने वाले पुरुष ऐसा मरण नहीं मरते / / 11 / / विवेचन-मरण, जीवन की अन्तिम परिणति है और वह ध्र व परिणति है। मरण के अनन्तर जन्म हो अथवा न भी हो, किन्तु जन्म के पश्चात् मरण अनिवार्य है, अवश्यभावी है। __जैन परम्परा में मृत्यु को भी महोत्सव का रूप प्रदान किया गया है, यदि वह विवेक, समभाव, आत्मलीनता, प्रभुमयता के साथ समाधिपूर्वक हो। वहाँ मृत्यु के संबंध में अनेक स्थलों पर विशद प्रकाश डाला गया है और उसका विश्लेषण किया गया है / उत्तराध्ययनसूत्र में लिखा है बालाणं अकामं तु मरणं असइं भवे / पंडियाणं सकामं तु उक्कोसेण सई भवे / / / -उत्तराध्ययन, अ. 5, गाथा 4 अर्थात् अज्ञानी जीव अकाम-मरण से मरते हैं। उन्हें बार-बार मरना पड़ता है। किन्तु पंडितों अर्थात् ज्ञानी जनों का सकाम-मरण होता है। देह उत्कृष्ट एक बार ही होता है / उन्हें वारंवार नहीं मरना पड़ता-वे अमर-जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार मरण के दो भेद बतलाए गये हैं / कहीं-कहीं बालमरण, पण्डितमरण और बालपण्डितमरण यों तीन भेद किए गए हैं। बाल-पण्डितमरण श्रमणोपासक का कहा गया है, शेष दो मरण पूर्वोक्त ज्ञानी और अज्ञानी के ही हैं। भावपाहुड़ आदि में मरण के सत्तरह प्रकार भी कहे गये हैं / जो इस प्रकार हैं (1) आवीचिमरण-जन्म होने के पश्चात् प्रतिसमय उदय में आए हुए आयुकर्म के दलिकों का निर्जीर्ण होना-प्रतिसमय प्रायुदालिकों का कम होते जाना / (2) तद्भवमरण-वर्तमान भव में प्राप्त शरीर के साथ संबंध छूट जाना / (3) अवधिमरण-एक बार भोग कर छोड़े हुए परमाणुगों को दोबारा भोगने से पहले--- जब तक जीव उनका भोगना प्रारम्भ नहीं करता तब तक अवधिमरण कहलाता है। (4) आद्यन्तमरण-सर्व से और देश से आयु क्षीण होना तथा दोनों भवों में एक-सी मृत्यु होना। (5) बालमरण-अज्ञानपूर्वक हाय-हाय करते हुए मरना। (6) पण्डितमरण-समाधि के साथ आयु पूर्ण होना / (7) वलन्मरण--संयम एवं व्रत से भ्रष्ट होकर मरना / (8) बाल-पण्डितमरण-श्रावक के व्रतों का प्राचरण करके समाधिपूर्वक शरीर त्याग करना। (9) सशल्यमरण-मायाशल्य, मिथ्यात्वशल्य या निदानशल्य के साथ मरना / Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 ] { ज्ञाताधर्मकथा (10) प्रमादमरण-प्रमादवश होकर तथा घोर संकल्प-विकल्पमय परिणामों के साथ प्राणों का परित्याग करना। (11) वार्तमरण- इन्द्रियों के वशवर्ती होकर कषाय के वशीभूत होकर, वेदना-वश होकर या हास्यवश होकर मरना / (12) विप्रणमरण-संयम, व्रत आदि का निर्वाह न होने के कारण प्राघात करना / (13) गृद्धपृष्ठमरण-संग्राम में शूरवीरता के साथ प्राण त्यागना अथवा किसी विशालकाय प्राणी के मृत कलेवर में प्रवेश करके मरना / (14) भक्तप्रत्याख्यानमरण-विधिपूर्वक आहार का त्याग करके यावज्जीवन प्रत्याख्यान करके शरीर त्यागना / (15) इंगितमरण-समाधिमरण ग्रहण करके दूसरे से वैयावृत्य (सेवा) न कराते हुए शरीर को त्यागना। (16) पादपोपगमनमरण-आहार और शरीर का यावज्जीवन त्याग करके स्वेच्छापूर्वक हलन-चलन आदि क्रियाओं का भी त्याग करके समाधिपूर्वक प्राणोत्सर्ग करना / (17) केवलिमरण-केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् मोक्ष-गमन करते समय अन्तिम रूप से शरीर-त्याग करना / उल्लिखित मरणों में से यहाँ और अगली गाथाओं में ग्यारहवें मरण का उल्लेख किया गया है। जो अपनी इन्द्रियों का संवर करता है, उनके वशीभूत नहीं होता किन्तु उनको अपने वश में करता है, उसे वशार्त्तमरण जैसे अकल्याणकारी मरण का पात्र नहीं बनना पड़ता। थण-जहण-वयण-कर-चरण-नयण-गम्वियविलासियगईसु / रूवेसु जे न सत्ता, वसट्टमरणं न ते मरए // 12 // स्त्रियों के स्तन, जघन, मुख, हाथ, पैर, नयन तथा गर्वयुक्त विलास वाली गति आदि समस्त रूपों में जो पासक्त नहीं होते वे वशार्तमरण नहीं मरते / / 12 / / अगरु-वरपवरधूवण-उउमल्लाणुलेवविहीसु / गंधेसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए // 13 // ___ उत्तम अगर, श्रेष्ठ धूप, विविध ऋतुओं में वृद्धि को प्राप्त होने वाले पुष्पों की मालाओं तथा श्रीखण्ड आदि के लेपन की गन्ध में जो आसक्त नहीं होते, उन्हें वशार्तमरण नहीं मरना पड़ता // 13 // तित्त-कडुयं कसायंब-महुरं बहुखज्ज-पेज्ज-लेज्झेसु / आसायंमि न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए // 14 // तिक्त, कटुक, कसैले, खट्टे और मीठे खाद्य, पेय और लेह्य (चाटने योग्य) पदार्थों के प्रास्वादन में जो गृद्ध नहीं होते, वे वशा-मरण नहीं मरते // 14 // Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 489 सत्तरहवां अध्ययन : आकीर्ण ] उउ-भयमाणसुहेसु य, सविभव-हियय-निव्वुइकरेसु / फासेसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए // 15 // हेमन्त आदि विभिन्न ऋतुओं में सेवन करने से सुख देने वाले, वैभव (धन) सहित, हितकर (प्रकृति को अनुकूल) और मन को प्रानन्द देने वाले स्पर्शों में जो गृद्ध नहीं होते, वे वशार्तमरण नहीं मरते / / 15 / / कर्तव्य-निर्देश सद्देसु य भद्दग-पावएस सोयविसयं उवगएसु। तुळेण व रुठेण व समणेण सया ण होअव्वं // 16 // साधु को भद्र (शुभ-मनोज्ञ) श्रोत्र के विषय शब्द प्राप्त होने पर कभी तुष्ट नहीं होना चाहिए और पापक (अशुभ-अमनोज्ञ) शब्द सुनने पर रुष्ट नहीं होना चाहिए // 16 // रूवेसु य भद्दग-पावएसु चक्खुविसयं उवगएसु / तुळेण व रुठेण व, समणेण सया ण होअव्वं // 17 // शुभ अथवा अशुभ रूप चक्षु के विषय होने पर-दृष्टिगोचर होने पर साधु को कभी न तुष्ट होना चाहिए और न रुष्ट होना चाहिए / / 17 / / गंधेसु य भद्दग-पावएसु घाणविसयमुवगएसु / तुठेण व रुद्रेण व समणेण सया ण होअव्वं // 18 // घ्राण-इन्द्रिय को प्राप्त हुए शुभ अथवा अशुभ गंध में साधु को कभी तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होना चाहिए // 18 // रसेसु य भद्दय-पावएसु जिब्भविसयं उवगएसु / तुळेण व रुढेण व, समण सया न होअव्वं // 19 // __ जिह्वा इन्द्रिय के विषय को प्राप्त शुभ अथवा अशुभ रसों में साधु को कभी तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होना चाहिए // 19 / / फासेसु य भद्दय-पावएसु कायविसयमुवगएसु। तुह्रण व रुद्रुण व, समणेण सया न होअव्वं // 20 // ' स्पर्शनेन्द्रिय के विषय बने हुए प्राप्त शुभ अथवा अशुभ स्पर्शों में साधु को कभी तुष्ट या रुष्ट नहीं होना चाहिए। अभिप्राय यह है कि पाँचों इन्द्रियों में से किसी भी इन्द्रिय का मनोज्ञ विषय प्राप्त होने पर प्रसन्नता का और अमनोज्ञ विषय प्राप्त होने पर अप्रसन्नता का अनुभव नहीं करना चाहिए, किन्तु दोनों अवस्थाओं में समभाव धारण करना चाहिए / / 20 / / 1. टीकाकार ने इन बीस गाथात्रों को प्रकृत बाचना की न मान कर वाचनान्तर की स्वीकार की हैं। Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490] [ ज्ञाताधर्मकथा ३१-एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तरसमस्स णायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते त्ति बेमि। सुधर्मास्वामी अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं—'जम्बू ! निश्चय ही यावत् मुक्ति को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सत्तरहवें ज्ञात अध्ययन का यह अर्थ कहा है / वही अर्थ मैं तुझसे कहता हूँ। / / सत्तरहवाँ अध्ययन समाप्त / / Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ अध्ययन : सुंसुमा सार : संक्षेप ___ सुसुमा ! सोने के पलने में झूली, सुख में पली, राजगृह नगर के धन्य सार्थवाह की लाड़ली कुमारी कितनी अभागिनी ! कैसा करुण अन्त हना उसके जीवन का ! धन्य सार्थवाह के पाँच पुत्रों के पश्चात् उसका जन्म हुआ था / जब वह छोटी थी तब चिलात (किरात) दास उसे अड़ोस-पड़ोस के बच्चों के साथ खेलाया करता था / यही उसका मुख्य काम था / चिलात बड़ा हो नटखट था, बहुत उदंड और दुष्ट / खेल के समय वह बालक-बालिकाओं को बहुत सताता था। बहुत वार वह उनकी कौड़ियां छीन लेता, लाख के गोले छिपा लेता, वस्त्र हरण कर लेता। कभी उन्हें धमकाता, मारता, पीटता / उसके मारे बालकों का नाकों दम था। वे घर जाकर अपने माता-पिता से उसकी शिकायत करते / धन्य सेठ उसे डाँटते मगर वह अपनी आदत से बाज न आया / उसकी हरकतें बढ़ती गई। __ एक बार बालकों के अभिभावक जब बहुत क्रुद्ध हुए, रुष्ट हुए, तब धन्य सार्थवाह ने चिलात को खरी-खोटी सुना कर अपने घर से निकाल दिया। चिलात अब पूरी तरह स्वच्छंद और निरंकुश हो गया। उसे कोई रोकने वाला या फटकारने वाला नहीं था। अतएव वह जुमा के अड्डों में, मदिरालयों में, वेश्यागृहों में--इधर-उधर भटकने लगा। उसके जीवन में सभी प्रकार के दुर्व्यसनों ने अड्डा जमा लिया। राजगह से कुछ दूरी पर सिंहगुफा नामक एक चोरपल्ली थी। उसमें पांच सौ चोरों के साथ उनका सरदार विजय नामक चोर रहता था। चिलात उस चोर-पल्ली में जा पहुँचा / वह बड़ा साहसी, बलिष्ठ और निर्भीक तो था ही, विजय ने उसे चोरकलाएँ चोरविद्याएँ और चोरमंत्र सिखला कर चौर्य-कला में निष्णात कर दिया। विजय की मृत्यु के पश्चात् वह चोरों का सरदारसेनापति भी बन गया। तिरस्कृत करके घर से निकाल देने के कारण धन्य सार्थवाह के प्रति उसके मन में प्रतिशोध की भावना थी। कदाचित् सुसुमा पर उसकी प्रीति थी किन्तु उसके जीवन की अपवित्रता ने उस प्रीति को भी अपवित्र बना दिया था। जो भी कारण हो, उसने एक बार सब साथियों को एकत्र करके धन्य का घर लटने का निश्चय प्रकट किया। सब साथी उससे सहमत हो गए / चिलात ने कहा---लूट में जो धन मिलेगा वह सब तुम्हारा होगा, केवल सुसुमा लड़की मेरी होगी। निश्चयानुसार एक रात्रि में धन्य सार्थवाह के घर डाका डाला गया। प्रचुर सम्पत्ति और Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492] [ ज्ञाताधर्मकथा सुसुमा को लेकर चोर जब वापिस लौट गए तो धन्य सेठ, जो कहीं छिपकर अपने प्राण बचा पाया था, नगर-रक्षकों के यहाँ गया / समग्र वृत्तान्त सुनकर नगर-रक्षकों ने सशस्त्र होकर चोरों का पीछा किया / धन्य और उसके पाँचों पुत्र भी साथ चले। नगर-रक्षकों ने निरन्तर पीछा करके चिलात को पराजित कर दिया / तब उसके साथी पाँच सौ चोर चोरी का माल छोड कर इधर-उधर भाग गए। नगर-रक्षक वह धन-सम्पत्ति लेकर वापिस लौट गए। चिलात सुसुमा को लेकर अकेला भागा / धन्य सेठ अपने पुत्रों के साथ उसका लगातार पीछा करता चला गया। यह देखकर, बचने का अन्य कोई उपाय न रहने पर चिलात ने सुसुमा का गला काट डाला और धड़ को वहीं छोड़, मस्तक साथ लेकर अटवी में कहीं भाग गया। मगर भूख-प्यास से पीडित होकर वह अटवी में ही मृत्यु को प्राप्त हो गया-सिंहगुफा तक नहीं पहुँच सका। उधर धन्य सार्थवाह ने जब अपनी पुत्री का मस्तकविहीन निर्जीव शरीर देखा तो उसके शोक-संताप का पार न रहा / वह बहुत देर तक रोता-विलाप करता रहा। धन्य और उसके पुत्र चिलात का पीछा करते-करते बहुत दूर पहुँच गये थे। जोश ही जोश में उन्हें पता नहीं चला कि हम नगर से कितनी दूर आ गए हैं। अब वह जोश निश्शेष हो चुका भूख-प्यास से बुरी तरह पीडित हो गए थे। आसपास पानी तलाश किया, मगर कहीं एक बूद न मिला / भूख-प्यास की इस स्थिति में लौट कर राजगृह तक पहुँचना भी संभव नहीं था। बड़ी विकट अवस्था थी। सभी के प्राणों पर संकट था / यह सब सोचकर धन्य सार्थवाहं ने कहा-'भोजन-पान के विना राजगह पहुँचना संभव नहीं है, अतएव मेरा हनन करके मेरे मांस और रुधिर का उपभोग करके तुम लोग सकुशल घर पहुंचो।' किन्तु ज्येष्ठ पुत्र ने पिता के इस सुझाव को स्वीकार नहीं किया। उसने अपने वध की बात कही, पर अन्य भाइयों ने उसे भी मान्य नहीं किया। इस प्रकार कोई भी किसी भाई के वध के लिए सहमत नहीं हुग्रा / तब धन्य ने सुसुमा के मृत कलेकर से ही भूख-प्यास की निवृत्ति करने स्ताव किया। यही निर्णय रहा / ससमा के शरीर का आहार करके अपने पुत्रों के साथ धन्य सार्थवाह सकुशल राजगृह नगर पहुँच गया / यथासमय धन्य ने प्रव्रज्या अंगीकार की / सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुना / वह विदेहक्षेत्र से सिद्धि प्राप्त करेगा। प्रस्तुत अध्ययन में वर्णित कथा का यह संक्षिप्त स्वरूप है / इसका सार-निष्कर्ष स्वयं शास्त्रकार ने अन्त में दिया है। वह इस प्रकार है धन्य सार्थवाह और उसके पुत्रों ने सुसुमा के मांस-रुधिर का आहार शरीर के पोषण के लिए नहीं किया था, जिह्वालोलुपता के वशीभूत होकर भी नहीं किया था, किन्तु राजगृह तक पहुँचने के उद्देश्य से ही किया था। इसी प्रकार साधक मुनि को चाहिए कि वह इस अशुचि शरीर के पोषण के लिए नहीं वरन् मुक्तिधाम तक पहुँचने के लक्ष्य से ही आहार करे / Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ अध्ययन : सुसुमा ] [493 जैसे धन्य सार्थवाह को अपनी पुत्री के मांस-रुधिर के सेवन में लेशमात्र भी प्रासक्ति या लोलुपता नहीं थी, उसी प्रकार साधक के मन में आहार के प्रति अणुमात्र भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए। उच्चतम कोटि की अनासक्ति प्रदर्शित करने के लिए योजित यह उदाहरण अत्यन्त उपयुक्त है—अनुरूप है / इस पर सही दृष्टिकोण से विचार करना चाहिए शास्त्रकार के प्राशय को समझने का प्रयत्न करना चाहिए। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारसमं अज्झायण : सुंसुमा उत्क्षेप १–जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तरसमस्स णायज्शयणस्स अयम→ पण्णत्ते, अट्ठारसमस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? ___ जम्बूस्वामी ने प्रश्न किया-'भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने सत्तरहवें ज्ञातअध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो अठारहवें अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?' २–एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं नयरे होत्था, वष्णओ / तत्थ णं धण्णे णामं सत्यवाहे परिवसइ, तस्स णं भद्दा भारिया। तस्स णं धण्णस्स सस्थवाहस्स पुत्ता भद्दाए अत्तया पंच सत्यवाहदारगा होत्था, तंजहा-धणे, धणपाले, धणदेवे, धणगोवे, धणरक्खिए / तस्स णं धण्णस्स सस्थवाहस्स धूया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजाइया सुसुमा णामं दारिया होत्था सूमालपाणिपाया। तस्स णं धण्णस्स सत्यवाहस्स चिलाए नाम दासचेडए होत्था / अहीणपंचिदियसरीरे मंसोवचिए बालकोलावणकुसले यावि होत्था। श्री सुधर्मास्वामी उत्तर देते हैं-'हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगह नामक नगर था, उसका वर्णन प्रोपपातिकसूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए। वहाँ धन्य नामक सार्थवाह निवास करता था। भद्रा नाम की उसकी पत्नी थी। उस धन्य सार्थवाह के पुत्र, भद्रा के आत्मज पाँच सार्थवाहदारक थे। उनके नाम इस प्रकार हैं-धन, धनपाल, धनदेव, धनगोप और धनरक्षित / धन्य सार्थवाह की पुत्री, भद्रा की पात्मजा और पाँचों पुत्रों के पश्चात् जन्मी हुई सुसुमा नामक बालिका थी। उसके हाथ-पैर आदि अंगोपांग सुकुमार थे। उस धन्य सार्थवाह का चिलात नामक दास चेटक (दासपुत्र) था उसकी पाँचों इन्द्रियाँ पूरी थों और शरीर भी परिपूर्ण एवं मांस से उपचित था / वह बच्चों को खेलाने में कुशल भी था / दास चेटक : उसको शंतानी ३–तए णं दासचेडे सुसुमाए दारियाए बालम्गाहे जाव यावि होत्था / सुसुमं दारियं कडीए गिण्हइ, गिहित्ता बाहिं दारएहि य दारियाहि य डिभएहि य डिभयाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य सद्धि अभिरममाणे अभिरममाणे विहरई। अतएव वह दासचेटक सुसुमा बालिका का बालग्राहक (बालक को खेलाने वाला) नियत किया गया। वह सुसुमा बालिका को कमर में लेता और बहुत-से लड़कों, लड़कियों, बच्चों, बच्चियों, कुमारों और कुमारिकाओं के साथ खेलता रहता था। ४--तए णं से चिलाए दासचेडे सेसि बहूणं दारयाण य दारियाण य डिभयाण य डिभियाण य Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां अध्ययन : सुसुमा ] [495 कुमाराण य कुमारीण य अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ, एवं बट्टए आडोलियाओ तेंदूसए पोत्तुल्लए साडोल्लए, अप्पेगइयाणं आभरणमल्लालंकारं अवहरइ, अप्पेगइए आउसइ, एवं अवहसइ, निच्छोडेइ, निभच्छेइ, तज्जेइ, अप्पेगइए तालेइ / उस समय वह चिलात दास-चेटक उन बहुत-से लड़कों, लड़कियों, बच्चों, बच्चियों, कुमारों और कुमारियों में से किन्हीं की कोड़ियाँ हरण कर लेता-छीन लेता या चुरा लेता था / इसी प्रकार वर्तक (लाख के गोले) हर लेता, प्राडोलिया (गेंद) हर लेता, दड़ा (बड़ी गेंद), कपड़ा और साडोल्लक (उत्तरीय वस्त्र) हर लेता था। किन्हीं-किन्हीं के आभरण, माला और अलंकार हरण कर लेता था। किन्हीं पर आक्रोश करता, किसी की हँसी उड़ाता, किसी को ठग लेता, किसी को भर्त्सना करता, किसी की तर्जना करता और किसी को मारता-पीटता था। तात्पर्य यह है कि वह दास-चेटक बहुत शैतान था। दास-चेटक की शिकायतें ५-तए णं ते बहवे दारगा य दारिया य डिभया य डिभिया य कुमारा य कुमारिगा य रोयमाणा य कंदमाणा य सोयमाणा य तिप्पमाणा य विलक्माणा य साणं-साणं अम्मा-पिऊणं णिवेदेति। तए णं तेसि बहूर्ण दारगाण य दारिगाण य डिभाण य डिभियाण य कुमाराण य कुमारियाण य अम्मापियरो जेणेव धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्सा धण्णं सत्थवाहं बहहिं खिज्जणाहि य रुटणाहि य उवलंभणाहि य खिज्जमाणा य रुटमाणा य उवलंभेमाणा य धण्णस्स एयमझें णिवेदेति / तब वे बहुत-से लड़के, लड़कियां, बच्चे, बच्चियाँ, कुमार और कुमारिकाएँ रोते हुए, चिल्लाते हुए, शोक करते हुए, आँसू बहाते हुए, विलाप करते हुए जाकर अपने-अपने माता-पिताओं से चिलात की करतूत कहते थे। उस समय बहुत-से लड़कों, लड़कियों, बच्चों, बच्चियों, कुमारों और कुमारिकाओं के मातापिता धन्य सार्थवाह के पास आते / आकर धन्य सार्थवाह को खेदजनक वचनों से, रुवासे होकर उलाहने भरे वचनों से खेद प्रकट करते, रोते और उलाहना देते थे और धन्य सार्थवाह को यह वृत्तान्त कहते थे। ६-तए णं धण्णे सत्थवाहे चिलायं दासचेडं एयमठे भुज्जो भुज्जो णिवारेति, णो चेव णं चिलाए दासचेडे उवरमइ / तए णं से चिलाए दासचेडे तेसि बहूणं दारगाण य दारिगाण य डिभयाण य डिभियाण य कुमारगाण य कुमारिगाण य अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ जाव तालेइ। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने चिलात दास-चेटक को इस बात के लिए बार-बार मना किया, मगर चिलात दास चेटक रुका नहीं, माना नहीं / धन्य सार्थवाह के रोकने पर भी चिलात दासचेटक उन बहुत-से लड़कों, लड़कियों, बच्चों, बच्चियों, कुमारों और कुमारिकाओं में से किन्हीं की कौड़ियाँ हरण करता रहा और किन्हीं को यावत् मारता-पीटता रहा / Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496 ] [ ज्ञाताधर्मकथा ७–तए णं ते बहवे दारगा य दारिगा य डिभगा य डिभिया य कुमारा य कुमारिया य रोयमाणा य जाव अम्मापिऊणं णिवेदेति / तए णं ते आसुरुत्ता रुट्टा कुविया चंडिक्किया मिसिमिसेमाणा जेणेव धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता बहूहि खिज्जणाहि य जाव* एयमढें णिवेदेति / तब वे बहुत लड़के, लड़कियाँ, बच्चे, बच्चियाँ, कुमार और कुमारिकाएँ रोते-चिल्लाते गये, यावत् माता-पिताओं से उन्होंने यह बात कह सुनाई। तब वे माता-पिता एकदम क्रुद्ध हुए, रुष्ट, कुपित, प्रचण्ड हुए, क्रोध से जल उठे और धन्य सार्थवाह के पास पहुंचे / पहुंच कर बहुत खेदयुक्त वचनों से उन्होंने यह बात उससे कही। दास-चेटक का निष्कासन ___८-तए णं से धण्णे सत्यवाहे बहूणं दारगाणं दारियाणं डिभयाणं डिभियाणं कुमारगाणं कुमारियाणं अम्मापिऊणं अंतिए एयमझें सोच्चा आसुरुत्ते चिलायं दासचेडं उच्चावयाहि आउसणाहि आउसइ, उद्धंसइ, णिन्भच्छेइ, णिच्छोडेइ, तज्जेइ, उच्चावयाहिं तालणाहि तालेइ, साओ गिहाओ णिच्छुभइ / तब धन्य सार्थवाह बहुत लड़कों, लड़कियों, बच्चों, बच्चियों, कुमारों और कुमारिकाओं के मात-पिताओं से यह बात सुन कर एक दम कुपित हुआ / उसने ऊँचे-नीचे आक्रोश-वचनों से चिलात दासचेट पर आक्रोश किया अर्थात् खरी-खोटी सुनाई, उसका तिरस्कार किया, भर्त्सना की, धमकी दी, तर्जना की और ऊँची-नीची ताड़नाओं से ताड़ना की और फिर उसे अपने घर से बाहर निकाल दिया। दास-चेटक दुर्व्यसनी बना ९-तए णं से चिलाए दासचेडे साओ गिहाओ णिच्छूढे समाणे रायगिहे नयरे सिंघाडए जाव पहेसु य देवकुलेसु य सभासु य पवासु य जयखलएसु य वेसाघरेसु य पाणघरएसु य सुहंसुहेणं परियट्टइ। तए णं चिलाए दासचेडे अणोहट्टिए अणिवारिए सच्छंदमई सइरप्पयारी मज्जपसंगी चोज्जपसंगी मंसपसंगी जूयप्पसंगी वेसापसंगी परदारप्पसंगी जाए यावि होत्था / धन्य सार्थवाह द्वारा अपने घर से निकाला हुआ यह चिलात दासचेटक राजगृह नगर में, शृंगाटकों यावत् पथों में अर्थात् गली-कूचों में, देवालयों में, सभाओं में, प्याउओं में, जुआरियों के अड्डों में, वेश्याओं के घरों में तथा मद्यपानगृहों में मजे से भटकने लगा। उस समय उस दासचेट चिलात को कोई हाथ पकड़ कर रोकने वाला (हटकने वाला) तथा वचन से रोकने वाला न रहा. अतएव वह निरंकुश बद्धि वाला. स्वेच्छाचारी, मदिरापान में ग्रासक्त. चोरी करने में आसक्त, मांसभक्षण में प्रासक्त, जुत्रा में पासक्त, वेश्यासक्त तथा पर-स्त्रियों में भी लम्पट हो गया। . 1. अ. 18 सूत्र 2. 2. अ. 18 सूत्र 5. Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां अध्ययन : सुसुमा ] [ 497 १०–तए णं रायगिहस्स णगरस्स अदूरसामते दाहिणपुरस्थिमे दिसिभाए सोहगुहा नाम चोरपल्ली होत्या, विसमगिरिकडग-कोडंब-संनिविट्ठा वंसीकलंक-पागार-परिक्खिता छिण्ण-सेलविसमप्पवाय-फरिहोवगूढा एगदुवारा अणेगखंडी विदितजणणिग्गम-पवेसा अभितरपाणिया सुदुल्लभजलपेरंता सुबहुस्स वि कूवियबलस्स आगयस्स दुप्पहंसा यावि होत्था / ' उस समय राजगृह नगर से न अधिक दूर और न अधिक समीप प्रदेश में, दक्षिणपूर्व दिशा ( प्राग्नेयकोण ) में सिंहगुफा नामक एक चोरपल्ली थी। वह पल्ली विषम गिरिनितंब के प्रान्त भाग में बसी हुई थी। बांस की झाड़ियों के प्राकार से घिरी हुई थी। अलग-अलग टेकरियों के प्रपात (दोपर्वतों के बीच के गडहे ) रूपी परिखा से युक्त थी / उसमें जाने-माने के लिए एक ही दरवाजा था, परन्तु भाग जाने के लिए छोटे-छोटे अनेक द्वार थे। जानकार लोग ही उसमें से निकल सकते और उसमें प्रवेश कर सकते थे / उसके भीतर ही पानी था। उस पल्ली से बाहर आस-पास में पानी मिलना अत्यन्त दुर्लभ था / चुराये हुए माल को छीनने के लिए आई हुई सेना भी उस पल्ली का कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी / ऐसी थी वह चोरपल्ली! ११-तत्थ णं सीहगुहाए चोरपल्लीए विजए णामं चोरसेणावई परिवसइ अहम्मिए जाव [अहम्मिठे अहम्मक्खाई अहम्माणुए अहम्मपलोई अहम्मपलज्जणे अहम्मसील-समुदायारे अहम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे विहरइ / हण-छिद-भिद-वियत्तए लोहियपाणी चंडे रुद्दे खुद्दे साहस्सिए उक्कंचणबंचण-माया-नियडि-कवड-कूड-साइ-संपयोगबहुले निस्सीले निव्वए निग्गुणे निप्पच्चक्खाणपोसहोववासे बहूणं दुप्पय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि-सरिसिवाणं घायाए वहाए उच्छायणाए] अहम्मकेऊ समुट्टिए बहुनगरणिग्गयजसे सूरे दढप्पहारी साहसिए सद्दवेही / से गं तत्थ सोहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाणं आहेबच्चं जाव विहरइ / उस सिंहगुफा पल्ली में विजय नामक चोरसेनापति रहता था। वह अधार्मिक, [अत्यन्त क्रू र कर्मकारी होने के कारण अमिष्ठ, अधर्म की बात करने वाला, अधर्म-प्रलोकी--अधर्म पर ही दृष्टि रखने वाला, अधर्म-कृत्यों का अनुरागी, अधर्मशील और अधर्माचारी था तथा अधर्म से ही जीवन-निर्वाह कर रहा था। इसका घात कर डालो, इसे काट डालो, इसे भेद डालो, ऐसी दूसरों को प्रेरणा किया करता था। उसके हाथ रुधिर से लिप्त रहते थे / वह चंड-तीव्र रोष वाला, रौद्र--नृशंस, क्षुद्र-क्षुद्रकर्म करने वाला, साहसिक-परिणाम विचार किए बिना किसी भी काम में कद पड़ने वाला था। प्रायः उत्कंचन, वंचन, माया, निकृति (वकवृत्ति से दूसरों को एक मायाचार को ढंकने के लिए दूसरी माया करना), कपट ( वेष परिवर्तन करना आदि ). क (न्यूनाधिक तोलना-नापना) एवं स्वाति-अविश्रंभ का ही प्रयोग किया करता था। वह शीलहीन, 1. वाचनान्तर में इस प्रकार का पाठ है---'जत्थ चउरंगबलनियुत्तावि कूवियबला हय-महिय-पवरवीर-घाइयनिवडिय-चिंध-धय-बडाया कीरंति / ' ----अभयदेव टीका पृ. 245 (पू.) तात्पर्य यह कि उस चोरपल्ली में रहने वाले चोर इतने बलिष्ठ और सशक्त थे कि चुराया हुआ माल छीनने के लिए यदि सबल चतुरंगिणी सेना भेजी जाय तो उसे भी वे हत और मथित कर सकते थे-उसका मानमदन कर सकते थे और उसकी ध्वजा-पताका नष्ट कर सकते थे। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा व्रतहीन, गुणहीण, प्रत्याख्यान और प्रोषधोपवास से रहित तथा बहुत-से द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सरीसृप-रेंग कर चलने वाले जंतुओं का घात, वध और उच्छेदन करने वाला था। इन सब दोषों और पापों के कारण वह अधर्म की ध्वजा था। बहुत नगरों में उसका (चोरी करने की बहादुरी का) यश फैला हुआ था। वह शूर था, दृढ़ प्रहार करने वाला, साहसी और शब्दवेधी (शब्द के आधार पर वाण चला कर लक्ष्य का वेधन करने वाला) था। वह उस सिंहगुफा में पांच सौ चोरों का अधिपतित्व करता हग्रा रहता था ! १२-तए णं से विजए तक्करे चोरसेणावई बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयगाण य संधिच्छेयगाण य खत्तखणगाण य रायावगारीण य अणधारगाण य - बालघायगाण य वीसंभघायगाण य जूयकाराण य खंडरक्खाण य अन्नेसि च बहूणं छिन्न-भिन्न बाहिरायाणं कुडंगे यादि होत्था। _वह चोरों का सेनापति विजय तस्कर दूसरे बहुतेरे चोरों के लिए, जारों के लिए, राजा के अपकारियों के लिए, ऋणियों के लिए, गठकटों के लिए, सेंध लगाने वालों के लिए, खात खोदने वालों के लिए बालघातकों के लिए, विश्वासघातियों के लिए, जुमारित्रों के लिए तथा खण्डरक्षकों (दंडपाशिकों) के लिए और मनुष्यों के हाथ-पैर आदि अवयवों को छेदन-भेदन करने वाले अन्य लोगों के लिए कुडंग (बाँस की झाड़ी) के समान शरणभूत था / अर्थात् जैसे अपराधी लोग राजभय से बाँस की झाड़ी में छिप जाते हैं अतः बाँस की झाड़ी उनके लिए शरण रूप होती है, उसी प्रकार विजय चोर भी अन्यायी-अत्याचारी लोगों का आश्रयदाता था / १३–तए णं से विजए तक्करे चोरसेणावई रायगिहस्स नगरस्स दाहिणपुरच्छिमं जणवयं बहूहि गामघाएहि य नगरघाएहि य गोग्गहणेहि य वंदिग्गहणेहि य पंथकुट्टणेहि य खत्तखणणेहि य उवीलेमाणे उवीलेमाणे विद्धंसेमाणे-विद्धंसेमाणे णित्थाणं गिद्धणं करेमाणे विहरइ।। वह चोर सेनापति विजय तस्कर राजगृह नगर के दक्षिणपूर्व (अग्निकोण) में स्थित जनपदप्रदेश को, ग्राम के घात द्वारा, नगरपात द्वारा, गायों का हरण करके, लोगों को कैद करके, पथिकों को मारकूट कर तथा सेंध लगा कर पुनः पुनः उत्पीडित करता हुआ तथा विध्वस्त करता हुआ, लोगों को स्थानहीन एवं धनहीन बना रहा था। चोर-सेनापति की शरण में १४-तए णं से चिलाए दासचेडे रायगिहे णयरे बहूहि अत्थाभिसंकोहि य चोराभिसंकोहि य दाराभिसंकोहि य धणिएहि य जूयकरेहि य परब्भवमाणे परभवमाणे रायगिहाओ नयराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सीहगुहा चोरपल्ली तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विजयं चोरसेणावई उपसंपज्जित्ता णं विहरइ / तत्पश्चात वह चिलात दासचेट राजगृह नगर में बहुत-से अर्थाभिशंकी (हमारा धन यह चुरा लेगा ऐसी शंका करने वालों), चौराभिशंकी (चोर समझने वालों), दाराभिशंकी (यह हमारी स्त्री को ले जायगा, ऐसी शंका करने वालों), धनिकों और जुआरियों द्वारा पराभव पाया हुआ--तिरस्कृत Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ अध्ययन : सुसुमा ] [ 499 होकर राजगृह नगर से बाहर निकला / निकल कर जहाँ सिंहगुफा नामक चोरपल्ली थी, वहाँ पहुँचा। पहुँच कर चोरसेनापति विजय के पास पहुँच कर उसकी शरण में जा कर रहने लगा। १५-तए णं से चिलाए दासचेडे विजयस्स चोरसेणावइस्स अग्ग-असि-लद्विग्गाहे जाए यावि होत्था / जाहे वि य णं से विजए चोरसेणावई गामघायं वा जाव [नगरघायं वा गोगहणं वा बंदिग्गहणं वा] पंथकोट्टि वा काउं वच्चइ, ताहे वि य णं से चिलाए दासचेडे सुबहंपि हु कूवियबलं हयमहियं जाव' पडिसेहेइ, पुणरवि लट्ठे कयकज्जे अणहसमग्गे सीहगुहं चोरपल्लि हव्वमागच्छइ / तत्पश्चात् वह दासचेट चिलात विजय नामक चोरसेनापति के यहाँ प्रधान खड्गधारी या खड़ग और यष्टि का धारक हो गया। अतएव जब भी वह विजय चोरसेनापति ग्राम के लिए [नगर-घात करने के लिए, गायों का अपहरण करने या बंदियों को पकड़ने अथवा] पथिकों को मारने-कूटने के लिए जाता था, उस समय दासचेट चिलात बहुत-सी कविय (चोरी का माल छीनने के लिए आने वाली) सेना को हत एवं मथित करके रोकता था-भगा देता था और फिर उस धन आदि को लेकर अपना कार्य करके सिंहगुफा चोरपल्ली में सकुशल वापिस आ जाता था। १६-तए णं से विजए चोरसेणावई चिलायं तक्करं बहूईओ चोरविज्जाओ य चोरमंते य चोरमायाओ य चोरनिगडीओ य सिक्खावेइ / उस विजय चोरसेनापति ने चिलात तस्कर को बहुत-सी चौरविद्याएं चोरमंत्र चोरमायाएँ और चोर-निकृतियाँ (चोरों के योग्य छल-कपट) सिखला दीं। १७–तए णं से विजए चोरसेणावई अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्था। तए णं ताई पंच चोरसयाई विजयस्स चोरसेणावइस्स महया महया इड्डी-सक्कार-समुदएणं णीहरणं करेंति, करित्ता बहूई लोइयाई मयकिच्चाई करेई, करित्ता जाव [कालेणं] विगयसोया जाया यावि होत्था। तत्पश्चात् विजय चोर किसो समय मृत्यु को प्राप्त हुआ-कालधर्म से युक्त हुआ। तब उन पांच सौ चोरों ने बड़े ठाठ और सत्कार के समूह के साथ विजय चोरसेनापति का नीहरण कियाश्मशान में ले जाने की क्रिया की / फिर बहुत-से लौकिक मृतककृत्य किये / कुछ समय बीत जाने पर वे शोकरहित हो गये। चिलात सेनापति बना १८-तए णं ताइं पंच चोरसयाइं अन्नमन्नं सदावेंति, सद्दाविता एवं वयासी--'एवं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! विजए चोरसेणावई कालधम्मुणा संजुत्ते, अयं च णं चिलाए तक्करे विजएणं चोरसेणावइणा बहूओ चोरविज्जाओ य जाव' सिक्खाविए, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! चिलायं तक्करं सीहगुहाए चोरपल्लीए चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचित्तए / ' त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमझें पडिसुणेति, पडिसुणित्ता चिलायं तक्करं तीए सोहगुहाए चोरसेणावइत्ताए अभिसिचंति / तए णं से चिलाए चोरसेणाबई जाए अहम्मिए जाव विहरइ / 1. प्र. 16 सूत्र 179 2. अ. 18 सूत्र 16 . 3. अ. 18 सूत्र 11 Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् उन पांच सौ चोरों ने एक दूसरे को बुलाया (सब इकट्ठे हुए)। तब उन्होंने अापस में कहा -'देवानप्रियो ! हमारा चोरसेनापति विजय कालधर्म (मरण) से संयुक्त हो गया है और विजय चोरसेनापति ने इस चिलात तस्कर को बहुत-सी चोरविद्याएँ प्रादि सिखलाई हैं। अतएव देवानुप्रियो ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर होगा कि चिलात तस्कर का सिंहगुफा चोरपल्ली के चोरसेनापति के रूप में अभिषेक किया जाय / इस प्रकार कह कर उन्होंने एक दूसरे की बात स्वीकार की। चिलात तस्कर को सिंहगुफा चोरपल्ली के चोरसेनापति के रूप में अभिषिक्त किया। तब वह चिलात चोरसेनापति हो गया तथा विजय के समान ही अधार्मिक क्रूरकर्मा एवं पापाचारी होकर रहने लगा। १९-तए णं से चिलाए चोरसेणावई चोरणायगे जाव' कुडंगे यावि होत्था / से णं तत्थ सोहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाण य एवं जहा विजओ तहेव सव्वं जाव रायगिहस्स दाहिण पुरच्छिमिल्लं जणवयं जाव णित्थाणं निद्धणं करेमाणे विहरह। ___वह चिलात चोरसेनापति चोरों का नायक यावत् कुडंग (वाँस की झाड़ी) के समान चोरों जारों आदि का आश्रयभूत हो गया। वह उस सिंहगुफा नामक चोरपल्ली में पांच सौ चोरों का अधिपति हो गया, इत्यादि विजय चोर के वर्णन के समान समझना चाहिए। यावत् वह राजगृह नगर के दक्षिण-पूर्व के जनपद निवासी जनों को स्थानहीन और धनहीन बनाने लगा। २०–तए णं से चिलाए चोरसेणावई अन्नया कयाई विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता पंच चोरसए आमंतेइं। तओ पच्छा पहाए कयबलिकम्मे भोयणमंडवंसि तेहिं पंचहि चोरसएहि सद्धि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च जाव [मज्जं च मंसं च सीधुच] पसणं च आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे बिहरई। जिभियभुत्तुत्तरागए ते पंच चोरसए विपलेणं धव-पुष्फ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ, संमाणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता एवं वया तत्पश्चात् चिलात चोरसेनापति ने एक बार किसी समय विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवा कर पांच सौ चोरों को आमंत्रित किया / फिर स्नान तथा बलिकर्म करके भोजन-मंडप में उन पांच सौ चोरों के साथ विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का तथा सुरा (मद्य, मांस, सीधु तथा) प्रसन्ना नामक मदिराओं का प्रास्वादन, विस्वादन, वितरण एवं परिभोग करने लगा। भोजन कर चुकने के पश्चात् पांच सौ चोरों का विपुल धूप, पुष्प, गंध, माला और अलंकार से सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार सन्मान करके उनसे इस प्रकार कहा धन्य सार्थवाह के घर को लूट : धन्य-कन्या का अपहरण २१–एवं खलु देवाणुप्पिया ! रायगिहे गयरे धण्णे णामं सत्यवाहे अड्ढे, तस्स णं धूया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजाइया सुसुमा णामं दारिया यावि होत्था अहीणा जाव सुरूवा। तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! धण्णस्स सत्थवाहस्स गिहं विलुपामो। तुभं विपुले धणकणग जाव [रयण-मणि-मोत्तिय-संख-] सिलप्पवाले, ममं सुसुमा दारिया।' तए णं ते पंच चोरसया चिलायस्स चोरसेणावइस्स एयमझै पडिसुणेति / 1. अ. 18 सूत्र 12 2. देखिए, द्वितीय अध्ययन Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [501 अठारहवां अध्ययन : सुसुमा] (चिलात ने कहा-) 'देवानुप्रियो ! राजगृह नगर में धन्य नामक धनाढ्य सार्थवाह है। उसकी पुत्री, भद्रा की प्रात्मजा और पांच पुत्रों के पश्चात् जन्मी हुई सुसुमा नाम की लड़की है / वह परिपूर्ण इन्द्रियों वाली यावत् सुन्दर रूप वाली है। तो हे देवानुप्रियो ! हम लोग चलें और धन्य सार्थवाह का घर लूटें / उस लूट में मिलने वाला विपुल धन, कनक, यावत् [रत्न, मणि, मोती, शंख तथा] शिला मूगा वगैरह तुम्हारा होगा, सुसुमा लड़की मेरी होगी।' तब उन पांच सौ चोरों ने चोरसेनापति चिलात की यह बात अंगीकार की। २२-तए णं से चिलाए चोरसेणावई तेहि पंचहि चोरसएहि सद्धि अल्लं चम्मं दुरूहइ, पच्चावरण्हकालसमयंसि पंचहि चोरसएहिं सद्धि सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणे माइयगोमुहिएहि फलएहि, णिक्कट्ठाहि असिलट्ठीहि, अंसगएहि तोहि, सजीवेहि धहिं, समुक्खित्तेहिं सरेहि समुल्लालियाहि दाहाहि, ओसारियाहि उरुघंटियाहिं, छिप्पतूरेहि वज्जमाणेहि महया महया उक्किट्ठसीहणायबोल-कलकलरवेणं जाव [पक्खुभियमहा-] समुद्दरवभूयं करेमाणा सीहगुहाओ चोरपल्लीओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिहस्स अदूरसामंते एगं महं गहणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता दिवसं खवेमाणो चिट्ठइ / तत्पश्चात् चिलात चोरसेनापति उन पांच सौ चोरों के साथ (मंगल के लिए) आर्द्र चर्म (गीली चमड़ी) पर बैठा / फिर दिन के अंतिम प्रहर में पांच सौ चोरों के साथ कवच धारण करके तैयार हुआ / उसने श्रायुध और प्रहरण ग्रहण किये / कोमल गोमुखित-~गाय के मुख सरीखे किये हुए फलक (ढाल) धारण किये। तलवारें म्यानों से बाहर निकाल लीं / कन्धों पर तर्कश धारण किये। धनुष जीवायुक्त कर लिए। वाण बाहर निकाल लिए / बछियाँ और भाले उछालने लगे / जंघाओं पर बाँधी हुई घंटिकाएँ लटका दीं / शीघ्र बाजे बजने लगे। बड़े-बड़े उत्कृष्ट सिंहनाद और बोलों की कल-कल ध्वनि से ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे महासमुद्र का खलबल शब्द हो रहा हो ! इस प्रकार शोर करते हुए वे सिंहगुफा नामक चोरपल्ली से बाहर निकले / निकलकर जहाँ राजगृह नगर था, वहाँ पाये / आकर राजगह नगर से कुछ दूर एक सघन वन में घुस गये। वहाँ घुस कर शेष रहे दिन को समाप्त करने लगे—सूर्य के प्रस्त हो जाने की प्रतीक्षा करने लगे। २३-तए णं से चिलाए चोरसेणावई अद्धरत्तकालसमयंसि निसंतपडिनिसंतंसि पंचहिं चोरसहि सद्धि माइयगोमुहिएहि फलएहि जाव मूइआहि ऊरुघंटियाहिं जेणेव रायगिहे नयरे पुरच्छिमिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उदगवत्थि परामुसइ, परामुसित्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूइ तालुग्धाडणिविज्जं आवाहेइ, आवाहिता रायगिहस्स दुवारकवाडे उदएणं अच्छोडेइ, अच्छोडित्ता कवाडं विहाडेइ, विहाडित्ता रायगिहं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता महया महया सद्देणं उग्रोसेमाणे उग्घोसेमाणे एवं वयासी तत्पश्चात् चोरसेनापति चिलात आधी रात के समय, जब सब जगह शान्ति और सुनसान हो गई थी, पांच सौ चोरों के साथ, रीछ आदि के बालों से सहित होने के कारण कोमल गोमुखित (ढाले) छाती से बाँध कर यावत् जांघों पर धूघरे लटका कर राजगृह नगर के पूर्व दिशा के दरवाजे पर पहुँचा / पहुँच कर उसने जल की मशक ली। उसमें से जल की एक अंजलि लेकर आचमन किया, स्वच्छ हुआ, पवित्र हुआ। फिर ताला खोलने की विद्या का आवाहन करके राजगृह के द्वार के Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502] [ ज्ञाताधर्मकथा किवाड़ों पर पानी छिड़का। पानी छिड़क कर किवाड़ उघाड़ लिये। तत्पश्चात् राजगह के भीतर प्रवेश किया। प्रवेश करके ऊँचे-ऊँचे शब्दों से आघोषणा करते-करते इस प्रकार बोला-~~ २४–'एवं खलु देवाणुप्पिया ! चिलाए णामं चोरसेणावई पंचहि चोरसएहि सद्धि सोहगुहाओ चोरपल्लीओ इह हव्वमागए धण्णस्स सस्थवाहस्स गिहं घाउकामे, तं जो गं णवियाए माउयाए दुद्धं पाउकामे, से गं निग्गच्छउ' त्ति कटु जेणेव धण्णस्स सत्थवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धण्णस्स गिहं बिहाडेइ। 'देवानुप्रियो ! मैं चिलात नामक चोरसेनापति, पांच सौ चोरों के साथ, सिंहगुफा नामक चोर-पल्ली से, धन्य सार्थवाह का घर लूटने के लिए यहाँ पाया है। जो नवीन माता का दूध पीना चाहता हो अर्थात् मरना चाहता हो, वह निकल कर मेरे सामने पावे।' इस प्रकार कह कर वह धन्य सार्थवाह के घर आया / आकर उसने धन्य सार्थवाह का (द्वार) उघाड़ा। २५--तए णं से धणे सत्थवाहे चिलाएणं चोरसेणावइणा पंचहि चोरसएहि सद्धि गिहं घाइज्जमाणं पासइ, पासित्ता भीए, तत्थे, पंचहि पुत्तेहिं सद्धि एगंतं अवक्कमइ / तए णं से चिलाए चोरसेणावई धण्णस्स सत्यवाहस्स गिहं घाएइ, धाइत्ता सुबहुं धणकणग जाव सावएज्जं सुसुमं च दारियं गेण्हइ, गेण्हित्ता रायगिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सीहगुहा तेणेव पहारेत्य गमणाए। धन्य सार्थवाह ने देखा कि पांच सौ चोरों के साथ चिलात चोरसेनापति के द्वारा घर लूटा जा रहा है / यह देखकर वह भयभीत हो गया, घबरा गया और अपने पांचों पुत्रों के साथ एकान्त में चला गया-छिप गया / तत्पश्चात् चोर सेनापति चिलात ने धन्य सार्थवाह का घर लूटा / लट कर बहुत सारा धन, कनक यावत् स्वापतेय (द्रव्य) तथा सुसुमा दारिका को लेकर वह राजगृह से बाहर निकल कर जिधर सिंहगुफा थी, उसी ओर जाने के लिए उद्यत हुआ। नगररक्षकों के समक्ष फरियाद २६–तए णं से धणे सत्यवाहे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुबहुं धणकणगं सुसुमं दारियं णवहरियं जाणिता महत्थं महग्धं महरिहं पाहुडं गहाय जेणेव गगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं महत्थं जाव पाहुडं उवणे, उणित्ता एवं वयासी–‘एवं खलु देवाणुप्पिया ! चिलाए चोरसेणावई सीहगुहाओ चोरपल्लीओ इहं हव्वमागम्म पंचहि चोरसएहि सद्धि मम गिहं घाएत्ता सुबहुं धणकणगं सुसुमं च दारियं गहाय जाव पडिगए, तं इच्छामो णं देवाणुप्पिया ! सुसुमादारियाए कूवं गमित्तए / तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! से विपुले धणकणगे, ममं सुसुमा दारिया। चोरों के चले जाने के पश्चात् धन्य सार्थवाह अपने घर आया / पाकर उसने जाना कि मेरा बहुत-सा धन कनक और सुसुमा लड़की का अपहरण कर लिया गया है। यह जान कर वह बहुमूल्य भेंट लेकर के रक्षकों के पास गया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! चिलात नामक चोरसेनापति सिंहगुफा नामक चोरपल्ली से यहाँ आकर, पांच सौ चोरों के साथ, मेरा घर लूट कर और बहुत-सा Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ अध्ययन : सुसुमा ] [ 503 धन कनक तथा सुसुमा लड़की को लेकर चला गया है / अतएव हम, हे देवानुप्रियो ! सुसुमा लड़की को वापिस लाने के लिए जाना चाहते हैं / देवानुप्रियो ! जो धन कनक वापिस मिले वह सब तुम्हारा होगा और सुसुमा दारिका मेरी रहेगी।' चिलात का पीछा किया २७-तए णं ते णयरगुत्तिया धण्णस्स एयमझें पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणा महया महया उक्किट्ठ जाव समुद्दरवभूयं पिव करेमाणा रायगिहाओ निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता जेणेव चिलाए चोरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता चिलाएणं चोरसेणावइणा सद्धि संपलग्गा यावि होत्था। तब नगर के रक्षकों ने धन्य सार्थवाह की यह बात स्वीकार की / स्वीकार करके वे कवच धारण करके सन्नद्ध हुए। उन्होंने आयुध और प्रहरण लिए / फिर जोर-जोर के उत्कृष्ट सिंहनाद से समद्र की खलभलाट जैसा शब्द करते हुए राजगह से बाहर निकले / निकल कर जहाँ चिलात चोर था, वहाँ पहुँचे / पहुँच कर चिलात चोरसेनापति के साथ युद्ध करने लगे। २८-तए णं जगरगुत्तिया चिलायं चोरसेणावई हयमहिय जाव पडिसेहंति / तए णं ते पंच चोरसया णगरगोत्तिएहि हयमयि जाव पडिसेहिया समाणा तं विपुलं धणकणगं बिच्छड्डेमाणा य विष्पकिरेमाणा य सव्वओ समंता विप्पलाइस्था। तए णं ते णयरगुत्तिया तं विपुलं घणकणगं गेहंति, गेण्हित्ता जेणेव रायगिहे तेणेव उवागच्छंति / तब नगररक्षकों ने चोरसेनापति चिलात को हत, मथित करके यावत् पराजित कर दिया। उस समय वे पांच सौ चोर नगररक्षकों द्वारा हत मथित होकर और पराजित होकर उस विपुल धन और कनक आदि को छोड़कर और फेंक कर चारों ओर- कोई किसी तरफ, कोई किसी तरफ भाग खड़े हुए। तत्पश्चात् नगररक्षकों ने वह विपुल धन कनक आदि ग्रहण कर लिया / ग्रहण करके वे जिस ओर राजगृह नगर था, उसी ओर चल पड़े / २९-तए णं से चिलाए तं चोरसेण्णं तेहिं नगरगुत्तिएहि हयमहिय जाव पवरवीरघाइयविवडियचिंध-धय-पडागं किच्छोवगयपाणं दिसोदिसि पडिसेहियं (पासित्ता ?) भीते तत्थे सुसुम दारियं गहाय एग महं अगामियं दीहमद्धं अडवि अणुपविठे। तए णं धणे सत्थवाहे सुसुमं दारियं चिलाएणं अडविहि अवहीरमाणि पासित्ता णं पंचर्चाह पुहि सद्धि अप्पछ? सन्नद्धबद्धवम्मियकवए चिलायस्स पदमग्गविहिं अभिगच्छइ, अणुगच्छमाणे अणुगज्जेमाणे हक्कारेमाणे पुक्कारेमाणे अभितज्जेमाणे अभितासेमाणे पिट्ठओ अणुगच्छइ / नगररक्षकों द्वारा चोरसैन्य को हत एवं मथित हुअा देख कर तथा उसके श्रेष्ठ वीर मारे गये, ध्वजा-पताका नष्ट हो गई, प्राण संकट में पड़ गए हैं, सैनिक इधर उधर भाग छूटे हैं, यह देख Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504] [ ज्ञाताधर्मकथा कर चिलात भयभीत और उद्विग्न हो गया / वह सुसुमा दारिका को लेकर एक महान् अग्रामिक' (जिसके बीच में या आसपास कोई गाँव न हो ऐसी) तथा लम्बे मार्ग वाली अटवी में घुस गया। उस समय धन्य सार्थवाह सुसुमा दारिका को अटवी के सन्मुख ले जाती देख कर, पांचों पुत्रों के साथ छठा आप स्वयं कवच पहन कर, चिलात के पैरों के मार्ग पर चला अर्थात् उसके पैरों के चिह्न देखता-देखता आगे बढ़ा / वह उसके पीछे-पीछे चलता हुआ, गर्जना करता हुआ, चुनौती देता हुआ, पुकारता हुआ, तर्जना करता हुआ और उसे त्रस्त करता हुआ उसके पीछे-पीछे चलने लगा। सुसुमा पुत्री का शिरच्छेदन ३०-तए णं से चिलाए तं धणं सत्थवाहं पंचहि पुत्तेहि अप्पछठं सन्नद्धबद्धं समणुगच्छमाणं पासइ, पासित्ता अत्थामे अबले अपरक्कमे अवीरिए जाहे णो संचाएइ सं समं दारियं णिवाहित्तए. ताहे संते तंते परितंते नीलुप्पलं असि परामुसइ, परामुसित्ता सुसुमाए दारियाए उत्तमंग छिदइ, छिदित्ता तं गहाय तं अगामियं अडवि अणुपविठे। चिलात ने देखा कि धन्य-सार्थवाह पांच पुत्रों के साथ आप स्वयं छठा सन्नद्ध होकर मेरा पीछा कर रहा है / यह देख कर निस्तेज, निर्बल, पराक्रमहीन एवं वीर्यहीन हो गया / जब वह सुसुमा दारिका का निर्वाह करने (ले जाने) में समर्थ न हो सका, तब श्रान्त हो गया-थक गया, ग्लानि को प्राप्त हया और अत्यन्त श्रान्त हो गया। अतएव उसने नील कमल के समान तलवार हाथ में ली और सुसुमा दारिका का सिर काट लिया। कटे सिर को लेकर वह उस अग्रामिक या दुर्गम अटवी में घुस गया। ३१-तए णं चिलाए तीसे अगामियाए अडवोए तण्हाए अभिभूए समाणे पम्हढदिसाभाए सीहगुहं चोरपल्लि असंपत्ते अंतरा चेव कालगए। ___ चिलात उस अग्रामिक अटवी में प्यास से पीडित होकर दिशा भूल गया / वह चोरपल्ली तक नहीं पहुँच सका और बीच में ही मर गया। विवेचन-सूत्र संख्या २०वें से यहाँ तक का कथानक अत्यन्त विस्मयजनक है / राजगृह जैसे राजधानीनगर में चोरों का, भले ही वे पांच सौ थे, चुनौती और धमकी देते हुए प्रवेश करना, किसके घर डाका डालना है, यह प्रकट करना और डाका डालना, फिर भी नगर-रक्षकों के कानों पर जून रेंगना--उनका सर्वथा बेखबर रहना कितना आश्चर्योत्पादक है ! धन और कन्या का अपहरण होने के पश्चात् धन्य नगर-रक्षकों के समक्ष फरियाद करने जाता है तो उसे बहुमूल्य भेंट लेकर जाना पड़ता है / इसके सिवाय भी उसे कहना पड़ता है कि चोरों द्वारा लूटा गया माल सब तुम्हारा होगा, मुझे केवल अपनी पुत्री चाहिए। धन्य के ऐसा कहने पर नगर-रक्षक अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर जाते हैं और चोरों को परास्त करते हैं। मगर चुराया हुआ धन जब उन्हें मिल जाता है तो वहीं से वापिस लौट जाते हैं। सुसुमा लड़की के उद्धार के लिये वे कुछ भी नहीं करते, मानो उन्हें धन की ही चिन्ता थी, लड़की 1. टीकाकार ने 'प्रगामियं' का 'अग्राम्य' अर्थ किया है / इसका अर्थ अगम्य अर्थात् दुर्गम भी हो सकता है। Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ अध्ययन : सुसुमा ] [ 505 को नहीं ! लड़की को प्राप्त करने के लिए अकेले ही अपने पांचों पुत्रों के साथ धन्य सार्थवाह को जाना पड़ता है। __ यह सत्य है कि प्रस्तुत कथानक एक ज्ञात-उदाहरण मात्र ही है तथापि इस वर्णन से उस समय की शासन-व्यवस्था का जो चित्र उभरता है, उस पर आधुनिक काल का कोई भी विचारशील व्यक्ति गौरव का अनुभव नहीं कर सकता। इस वृत्तान्त से हमारा यह भ्रम दूर हो जाना चाहिए कि अतीत का सभी कुछ अच्छा था / यहाँ प्राचार्यवर्य श्री हेमचन्द्र का कथन स्मरण आता है-'न कदाचिदनीदृशं जगत्' अर्थात् जगत् कभी ऐसा नहीं था, ऐसी बात नहीं है / वह तो सदा ऐसा ही रहता है / 32-- एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्स बंतासवस्स जाव [पित्तासवस्स खेलासवस्स सुक्कासवस्स सोणियासवस्स दुरुय-उस्सास-निस्सासस्स दुरुय-मुत्त-पुरीस-पूयबहुपडिपुण्णस्स उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणग-वंत-पित्त-सुक्क-सोणियसंभवस्स अधुवस्स अणितियस्स असासयस्स सडण-पडण-विद्धंसणधम्मस्स पच्छा पुरं च णं अवस्स-विप्पजहणस्स] वण्णहेउं जाव आहारं आहारेइ, से गं इहलोए चेव बहूणं समणाणं समणीणं सावयाणं सावियाणं हीलणिज्जे जाव अणुपरियट्टिस्सइ, जहा व से चिलाए तक्करे / इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! हमारे जो साधु या साध्वी प्रवृजित होकर जिससे वमन बहता-झरता है [पित्त, कफ, शुक्र एवं शोणित बहता है, जिससे अमनोज्ञ उच्छ्वास-निश्वास निकलता है, जो अशुचि मूत्र, पुरीष, मवाद से भरपूर है, जो मल, मूत्र, कफ, रेंट (नासिकामल), वमन, पित्त, शुक्र, शोणित की उत्पत्ति का स्थान है, अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत है, सड़ना, पड़ना तथा विध्वस्त होना जिसका स्वभाव है और जिसका प्रागे या पीछे अवश्य ही त्याग ऐसे अपावन एवं] विनाशशील इस औदारिक शरीर के वर्ण (रूप-सौन्दर्य) के लिए यावत् आहार करते हैं, वे इसी लोक में बहुत-से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र बनते हैं और दीर्घ संसार में पर्यटन करते हैं, जैसे चिलात चोर अन्त में दुःखी हुआ, (उसी प्रकार वे भी दुःखी होते हैं)। धन्य का शोक ३३--तए णं से धणे सत्थवाहे पंचहि पुत्तेहि अप्पछठे चिलायं परिधाडेमाणे परिधाडेमाणे तण्हाए छुहाए य संते तंते परितंते नो संचाएइ चिलायं चोरसेणावई साहित्थि गिण्हित्तए। से णं तओ पडिनियत्तइ, पडिनियत्तिता जेणेव सा सुसुमा दारिया चिलाएणं जीवियाओ ववरोविया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुसुमं दारियं चिलाएणं जीवियाओ ववरोवियं पासइ, पासित्ता परसुनियत्तेव चंपगपायवे निव्वत्तमहेन्व इंदलट्ठी विमुक्कबंधणे धरणितलंसि सव्वंगेहि धसत्ति पडिए। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह पांच पुत्रों के साथ आप छठा स्वयं चिलात के पीछे दौड़ता-दौड़ता प्यास से और भूख से श्रान्त हो गया, ग्लान हो गया और बहुत थक गया। वह चोरसेनापति चिलात को अपने हाथ से पकड़ने में समर्थ न हो सका / तव वह वहाँ से लौट पड़ा, लौट कर वहाँ पाया जहाँ सुसुमा दारिका को चिलात ने जीवन से रहित कर दिया था / वहाँ अाकर उसने देखा कि बालिका Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा सुसुमा चिलात के द्वारा मार डाली गई है / यह देख कर कुल्हाड़े से काटे हुए चम्पक वृक्ष के समान या बंधनमुक्त इन्द्रयष्टि के समान धड़ाम से वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। ३४-तए णं से धण्णे सत्यवाहे पंचहि पुत्तेहिं अध्पछ8 आसत्थे कूवमाणे कंदमाणे विलवमाणे महया महया सद्देणं कुहकुहसुपरुन्ने' सुचिरं कालं वाहमोक्खं करेइ / तत्पश्चात् पांच पुत्रों सहित छठा पाप धन्य सार्थवाह आश्वस्त हुआ तो आक्रंदन करने लगा, विलाप करने लगा और जोर-जोर के शब्दों से कुह-कुह (अस्पष्ट शब्द) करता रोने लगा। वह बहुत देर तक प्रांसू बहाता रहा / आहार-पानी का अभाव ३५-तए णं से धण्णे पंचहि पुत्तेहि अप्पछठे चिलायं तीसे अगामियाए सव्वओ समंता परिधाडेमाणा तण्हाए छहाए य पराभए समाणे तीसे अगामियाए अडवीए सव्वओ समंता उदगस्स मग्गणगवेसणं करेति, करिता संते तंते परितंते णिन्विन्ने तीसे अगामियाए अडवीए उदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणे नो चेव णं उदगं आसादेइ / पांच पुत्रों सहित छठे स्वयं धन्य सार्थवाह ने चिलात चोर के पीछे चारों ओर दौड़ने के कारण प्यास और भूख से पीड़ित होकर, उस अग्रामिक अटवी में सब तरफ जल की मार्गणा-गवेषणा की। गवेषणा करके वह श्रान्त हो गया, ग्लान हो गया, बहुत थक गया और खिन्न हो गया। उस अग्रामिक अटवी में जल की खोज करने पर भी वह कहीं जल न पा सका। धन्य सार्थवाह का प्राणत्याग का प्रस्ताव ३६-तए णं उदगं अणासाएमाणे जेणेव सुसुमा जीवियाओ ववरोविया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जेठे पुत्तं धण्णे सत्यवाहे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-‘एवं खलु पुत्ता ! सुसुमाए दारियाए अट्टाए चिलायं तक्करं सवओ समंता परिधाडेमाणा तण्हाए छुहाए य अभिभूया समाणा इमोसे अगामियाए अडवीए उदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणा णो चेव णं उदगं आसादेमो। तए गं उदगं अणासाएमाणा णो संचाएमो रायगिहं संपावित्तए। तं णं तुम्हं ममं देवाणुप्पिया! जीवियाओ ववरोवेह, मंस च सोणियं च आहारेह, आहारित्ता तेणं आहारेणं अवहिट्ठा समाणा तओ पच्छा इमं अगामियं अडवि णित्थरिहिह, रायगिहं च संपाविहिह, मित्त-णाइय-नियग-सयण-संबंधि-परियणं अभिसमागच्छिहिह, अत्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह / ' तत्पश्चात कहीं भी जल न पाकर धन्य सार्थवाह, जहाँ सुसुमा जीवन से रहित की गई थी, उस जगह पाया / आकर उसने ज्येष्ठ पुत्र को बुलाया। बुलाकर उससे कहा-'हे पुत्र ! सुसुमा दारिका के लिये चिलात तस्कर के पीछे-पीछे चारों ओर दौड़ते हुए प्यास और भूख से पीडित होकर हमने इस अग्रामिक अटवी में जल की तलाश की, मगर जल न पा सके / जल के बिना हम लोग राजगह नहीं पहुँच सकते / अतएव हे देवानुप्रिय ! तुम मुझे जीवन से रहित कर दो और सब भाई मेरे मांस 1. पाठान्तर-'कुहकुहास परुन्ने' -अंगसुत्ताणि / 2. पाठान्तर--'अवथद्धा' और 'प्रववद्धा'--.अं. सु. Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ अध्ययन : सुसुमा ] [ 507 और रुधिर का पाहार करो। पाहार करके उस पाहार से स्वस्थ होकर फिर इस अग्रामिक अटवी को पार कर जाना, राजगृह नगर पा लेना, मित्रों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, संबंधियों और परिजनों से मिलना तथा अर्थ, धर्म और पुण्य के भागी होना।' ज्येष्ठपुत्र की प्राणोत्सर्ग की तैयारी ३७-तए णं से जेटुपुत्ते धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे धणं सत्थवाहं एवं वयासी'तुम्भे णं ताओ! अम्हं पिया, गुरू, जणया, देवयभूया, ठावका, पइट्टावका, संरक्खगा, संगोवगा, तं कहं णं अम्हे ताओ ! तुब्भे जीवियाओ ववरोवेमो? तुभं णं मंसं च सोणियं च आहारेमो ? तं तुभे णं तातो! ममं जीवियाओ ववरोवेह; मंसं च सोणियं च आहारेह, अगामियं अडवि णित्थरह / ' तं चेव सव्वं भणइ जाव अत्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भविस्सह / धन्य सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर ज्येष्ठपुत्र ने धन्य सार्थवाह से कहा-'तात ! श्राप हमारे पिता हो, गुरु हो, जनक हो, देवता-स्वरूप हो, स्थापक (विवाह आदि करके गृहस्थधर्म में स्थापित करने वाले) हो, प्रतिष्ठापक (अपने पद पर स्थापित करने वाले) हो, कष्ट से रक्षा करने वाले हो, दुर्व्यसनों से बचाने वाले हो, अतः हे तात ! हम आपको जीवन से रहित कैसे करें? कैसे आपके मांस और रुधिर का पाहार करें? हे तात! आप मुझे जीवन-हीन कर दो और मेरे मांस तथा रुधिर का आहार करो और इस अग्रामिक अटवी को पार करो।' इत्यादि सब पूर्ववत् कहा, यहाँ तक कि अर्थ, धर्म और पुण्य के भागी बनो। ३८-तए णं धणं सत्यवाहं दोच्चे पुत्ते एवं वयासो-'मा णं ताओ! अम्हे जेट भायरं गुरु देवयं जीवियाओ ववरोवेमो, तुम्भे णं ताओ ! मम जीवियाओ ववरोवेह, जाव आभागी भविस्सह / ' एवं जाव पंचमे पुत्ते। तत्पश्चात् दूसरे पुत्र ने धन्य सार्थवाह से कहा—'हे तात ! हम गुरु और देव के समान ज्येष्ठ बन्धु को जीवन से रहित नहीं करेंगे / हे तात! आप मुझको जीवन से रहित कीजिए, यावत् आप सब पुण्य के भागी बनिए / ' तीसरे, चौथे और पांचवें पुत्र ने भी इसी प्रकार कहा / विवेचन--सूत्र 36 से 38 तक का वर्णन तत्कालीन कौटुम्बिक जीवन पर प्रकाश डालने वाला है। इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि उस समय का पारिवारिक जीवन अत्यन्त प्रशस्त था। सुसुमा का उद्धार करने के लिए धन्य सार्थवाह और उसके पांचों पुत्र चिलात का पीछा करते-करते भयंकर और अनामिक अटवी में पहुँच गये थे / जोश ही जोश में वे आगे बढ़ते गए जो ऐसे प्रसंग पर स्वाभाविक ही था / किन्तु जब सुसुमा का वध कर दिया गया और चिलात आगे चला गया तो धन्य ने उसका पीछा करना छोड़ दिया। मगर लगातार वेगवान् दौडादौड़ से वे अतिशय श्रान्त हो गए। फिर सुसुमा का वध हुअा जान कर तो उनकी निराशा को सीमा नहीं रही / थकावट, भूख, प्यास और सबसे बड़ी निराशा ने उनका बुरा हाल कर दिया। समीप में कहीं जल उपलब्ध नहीं। अटवी अग्रामिक-जिसके दूर-दूर के प्रदेश में कोई ग्राम नहीं, जहाँ भोजन-पानी प्राप्त हो सकता। बड़ी विकट स्थिति थी / पिता सहित पांचों पुत्रों के जीवन की रक्षा का कोई उपाय नहीं था। सबका मरण-शरण हो जाना, सम्पूर्ण कुटुम्ब का निर्मूल हो जाना था। ऐसी स्थिति में धन्य Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508] [ ज्ञाताधर्मकथा सार्थवाह ने 'सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति: पण्डित' की लोकोक्ति का अनुसरण करते हुए अपने वध का प्रस्ताव उपस्थित किया / ज्येष्ठ पुत्र ने उसे स्वीकार करने में अपनी असमर्थता प्रकट की और अपने वध की बात सुझाई / अन्य भाइयों ने उसकी बात भी मान्य नहीं की / सभी के वध का प्रस्ताव दूसरे किसी भाई को स्वीकार्य नहीं हुमा / यह प्रसंग हमारे समक्ष कौटाम्बिक संबंध के विषय में अतीव स्पृहणीय आदर्श प्रस्तुत करता है। पुत्रों के प्रति पिता का, पिता के प्रति पुत्रों का, भाई के प्रति भाई का स्नेह कितना प्रगाढ और उत्सर्गमय होना चाहिए / पारस्परिक प्रीति की मधुरिमा इस वर्णन से स्पष्ट है / प्रत्येक, प्रत्येक को प्राण-रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने का अभिलाषी है। इससे अधिक त्याग और बलिदान अन्य क्या हो सकता है ! वस्तुतः यह चित्रण भारतीय साहित्य में असाधारण है, साहित्य की अमूल्य निधि है। अन्तिम निर्णय ३९-तए णं धण्णे सत्थवाहे पंचपुत्ताणं हियइच्छियं जाणित्ता ते पंच पुत्ते एवं क्यासी—'मा णं अम्हे पुत्ता ! एगमवि जीवियाओ ववरोवेमो, एस णं सुसमाए दारियाए सरीरे गिप्पाणे जाव [निच्चेठे] जीवविप्पजढे, तं सेयं खलु पुत्ता ! अम्हं सुसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेत्तए। तए णं अम्हे तेणं आहारेणं अवस्थद्धा समाणा रायगिहं संपाउणिस्सामो।' तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने पांचों पुत्रों के हृदय की इच्छा जान कर पांचों पुत्रों से इस प्रकार कहा-'पुत्रो ! हम किसी को भी जीवन से रहित न करें। यह सुसुमा का शरीर निष्प्राण निश्चेष्ट और जीव द्वारा त्यक्त है, अतएव हे पुत्रो ! सुसुमा दारिका के मांस और रुधिर का पाहार करना हमारे लिए उचित होगा। हम लोग उस आहार से स्वस्थ होकर राजगृह को पा लेंगे। ४०-तए णं ते पंच पुत्ता धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वृत्ता समाणा एयमझें पडिसुणेति / तए णं धण्णे सत्यवाहे पंचहि पुत्तेहि सद्धि अरणि करेइ, करिता सरगं च करेइ, करिता सरएणं अरणि महइ, महित्ता अग्गि पाडेइ, पाडित्ता अग्गि संधुक्खेइ, संधुक्खित्ता दारुयाई पक्खेवेइ, पक्खेवित्ता अग्गि पज्जालेइ, पज्जालित्ता सुसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेइ / धन्य सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर उन पांच पुत्रों ने यह बात स्वीकार की। तब धन्य सार्थवाह ने पांचों पुत्रों के साथ अरणि की (अरणि काष्ठ में गड़हा किया)। फिर शर बनाया (अरणि की लम्बी लकड़ी तैयार की)। दोनों तैयार करके शर से अरणि का मंथन किया। मंथन करके अग्नि उत्पन्न की। फिर अग्नि धौंकी / उसमें लकड़ियाँ डालीं। अग्नि प्रज्वलित की / प्रज्वलित करके सुसमा दारिका का मांस पका कर उस मांस का और रुधिर का आहार किया। राजगृह में वापिसी ४१-तए णं आहारेणं अवत्थद्धा समाणा रायगिहं नार संपत्ता मित्तणाई नियग-सयणसंबंधि-परिजणं अभिसमण्णागया, तस्स य विउलस्स धणकणगरयण जाव' आभागी जाया वि होत्था। 1. प्र. 18 सूत्र 21. Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 509 अठारहवाँ अध्ययन : सुसुमा ] तए णं से धणे सत्यवाहे सुसुमाए वारियाए बहूई लोइयाई जाव [मयकिच्चाई करेइ, करेता कालेणं] विगयसोए जाए यावि होत्था / उस आहार से स्वस्थ होकर वे राजगृह नगरी तक पहुँचे / अपने मित्रों एवं ज्ञातिजनों, स्वजनों, परिजनों आदि से मिले और विपुल धन कनक रत्न आदि के तथा धर्म अर्थ एवं पुण्य के भागी हुए। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने सुसुमा दारिका के बहुत-से लौकिक मृतक कृत्य किए, तदनन्तर कुछ काल बीत जाने पर वह शोकरहित हो गया। 42 तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे गुणसोलए चेइए समोसढे / से णं धण्णे सत्थवाहे संपत्ते, धम्म सोच्चा पम्वइए, एक्कारसंगवी, मासियाए संलेहणाए सोहम्मे उववण्णो, महाविदेहे वासे सिज्यिहिइ / __ उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर राजगृह के गुणशील चैत्य में पधारे। उस समय धन्य सार्थवाह वन्दना करने के लिए भगवान् के निकट पहुँचा। धर्मोपदेश सुन कर दीक्षित हो गया / क्रमश: ग्यारह अंगों का वेत्ता मुनि हो गया / अन्तिम समय आने पर एक मास की संलेखना करके सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुा / वहाँ से च्यवन करके महाविदेह क्षेत्र में संयम धारण करके सिद्धि प्राप्त करेगा। निष्कर्ष ४३-जहा वि य गं जंबू ! धण्णेणं सत्यवाहेणं णो वण्णहेउं वा, णो रूवहेउं वा, नो विसयहेउं वा, सुसुमाए दारियाए मंससोणिए आहारिए ननस्थ एगाए रायगिहं संपावणाए। एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स सुक्कासवस्स सोणियासवस्स जाव' अवस्सं विप्पजहियव्वस्स नो वण्णहेउं वा, नो रूवहेउं वा, नो बलहेउं वा, नो विसयहेउं वा आहारं आहारेइ, नन्नत्य एगाए सिद्धिगमणसंपावणट्ठयाए, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं अच्चणिज्जे जाव वीईवइस्सइ। हे जम्बू ! जैसे उस धन्य सार्थवाह ने वर्ण के लिए, रूप के लिए, बल के लिए अथवा विषय के लिए सुसुमा दारिका के मांस और रुधिर का आहार नहीं किया था, केवल राजगृह नगर को पाने के लिए ही आहार किया था। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! हमारा जो साधु या साध्वी वमन को झराने वाले, पित्त को झराने वाले, शुक्र को झराने वाले, शोणित को झराने वाले यावत् अवश्य ही त्यागने योग्य इस औदारिक शरीर के वर्ण के लिए, बल के लिए अथवा विषय के लिए आहार नहीं करते हैं, केवल सिद्धिगति को प्राप्त करने के लिए आहार करते हैं, वे इसी भव में बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं के अर्चनीय होते हैं एवं संसार-कान्तार को पार करते हैं। 1. प्र. 18 सूत्र 32 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510 ] [ ज्ञाताधर्मकथा विवेचन---'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात् धर्म का प्रथम अथवा प्रधान साधन शरीर है / शरीर को रक्षा पर ही संयम को रक्षा निर्भर है। मानव-शरीर के माध्यम से ही मुक्ति की साधना संभव होती है / अतएव त्यागो वैरागी उच्चकोटि के सन्तों को भी शरीर टिकाए रखने के लिए आहार करना पड़ता है। तीर्थंकरों ने आहार करने का विधान भी किया है। किन्तु सन्त जनों का आहार अपने लक्ष्य को प्रति के एक मात्र ध्येय को समक्ष रख कर होना चाहिए। शरीर को पूष्टि, सुन्दरता, विषयसेवन की शक्ति, इन्द्रिय-तृप्ति आदि की दष्टि से नहीं। साधु-जीवन में अनासक्ति का बड़ा महत्त्व है / गृहस्थों के घरों से गोचर-चर्या द्वारा साधु को आहार उपलब्ध होता है / वह मनोज्ञ भी हो सकता है, अमनोज्ञ भी हो सकता है। आहार अमनोज्ञ हो तो उस पर अप्रीतिभाव अरुचि या द्वेष का भाव उत्पन्न न हो और मनोज्ञ आहार करते समय प्रोति या प्रासक्ति उत्पन्न न हो, यह साधू के समभाव की कसौटी है। यह कसौटी बड़ी विकट है। आहार न करना उतना कठिन नहीं है, जितना कठिन है मनोहर सुस्वाद प्राहार करते हए भी पूर्ण रूप से अनासक्त रहना / विकार का कारण विद्यमान होने पर भी चित्त को विकृत न होने देने के लिए दीर्घकालिक अभ्यास, अत्यन्त धैर्य एवं दृढता की आवश्यकता होती है। साधु के चित्त में आहार करते समय किस श्रेणी की अनासक्ति होनी चाहिए, इस तथ्य को सरलता से समझाने के लिए ही प्रस्तुत उदाहरण की योजना की गई है। धन्य सार्थवाह को अपनी बेटी सुसुमा अतिशय प्रिय थी। उसकी रक्षा के लिए उसने सभी संभव उपाय किए थे। उसके निर्जीव शरीर को देखकर वह संज्ञाशून्य होकर धरती पर गिर पड़ा। रोता रहा / इससे स्पष्ट है कि सुसुमा उसको प्रिय पुत्री थी / तथापि प्राण-रक्षा का अन्य उपाय न रहने पर उसने उसके निर्जीव शरीर के मांस-शोणित का माहार किया। कल्पना की जा सकती है। कि इस प्रकार का पाहार करते समय धन्य के मन में किस सीमा का अनासक्त भाव रहा होगा ! निश्चय ही लेशमात्र भी आसक्ति का संस्पर्श उसके मन को नहीं हुआ होगा-अनुराग निकट भी नहीं फटका होगा / धन्य ने उस आहार में तनिक भी आनन्द न माना होगा / राजगृह नगर और अपने घर पहुँचने के लिए प्राण टिकाए रखना ही उसका एक मात्र लक्ष्य रहा होगा। साधु को इसी प्रकार का अनासक्त भाव रखकर आहार करना चाहिए। अनासक्ति को समझाने के लिए इससे अच्छा तो दूर रहा, इसके समकक्ष भी अन्य उदाहरण मिलना संभव नहीं है / यह सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। इसी दृष्टिकोण को समक्ष रख कर इस उदाहरण की अर्थघटना करनी चाहिए। ४४--एवं खलु जंबू ! :समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठारसमस णायज्झयणस्स अयमठे पण्णते त्ति बेमि। जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने अठारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है / जैसा मैंने सुना वैसा ही तुम्हें कहा है। / / अठारहवां अध्ययन समाप्त / / Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : पुण्डरीक सार : संक्षेप प्रस्तुत अध्ययन का कथानक मानव-जीवन में होने वाले उत्थान और पतन का तथा पतन और उत्थान का सजीव चित्र उपस्थित करता है / जो कथानक यहाँ प्रतिपादित किया गया है, वह . महाविदेह क्षेत्र का है। ___ महाविदेह क्षेत्र के पूर्वीय भाग में पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी राजधानी है / राजधानी साक्षात् देवलोक के समान मनोहर एवं सुन्दर है / बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी है। वहाँ के राजा महापद्म के दो पुत्र थे-पुण्डरीक और कण्डरीक / एक बार वहाँ धर्मघोष स्थविर का पदार्पण हुआ। धर्मदेशना श्रवण कर और संसार की असारता का अनुभव करके राजा महापद्म दीक्षित हो गए। पुण्डरीक राजसिंहासन पर श्रासोन हुए / महापद्म मुनि संयम और तपश्चर्या से प्रात्मा विशुद्ध करके यथासयय सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। ___ किसी समय दूसरी बार पुनः स्थविर का आगमन हुा / इस बार धर्मोपदेश श्रवण करने से राजकुमार कण्डरीक को वैराग्य उत्पन्न हुआ / उसने राजा पुण्डरीक से दीक्षा की अनुमति मांगी। पुण्डरीक ने उसे राजसिहासन प्रदान करने की पेशकश की, मगर कण्डरीक ने उसे स्वीकार नहीं किया / आखिर वह दीक्षित हो गया। दीक्षा के पश्चात् स्थविर के साथ कण्डरीक मुनि देश-देशान्तर में विचरने लगे, किन्तु रूखासूखा पाहार करने के कारण उनका शरीर रुग्ण हो गया / स्थविर जब पुनः पुण्डरीकिणी नगरी में आए तो राजा पृण्डरीक ने कण्डरीक मुनि को रोगाकान्त देखा। पुण्डरीक ने स्थविर मनि से निवेदन किया--भंते ! में कण्डरीक मुनि की चिकित्सा कराना चाहता हूँ। आप मेरी यानशाला में पधारें। स्थविर यानशाला में पधार गए / उचित चिकित्सा होने से कण्डरीक मुनि स्वस्थ हो गए। स्थविर मुनि वहाँ से अन्यत्र विहार कर गए परन्तु कण्डरीक मुनि राजसी भोजन-पान में ऐसे आसक्त हो गए कि विहार करने का नाम ही न लेते / पुण्डरीक उनकी आसक्ति और शिथिलता को समझ गए / कण्डरीक की आत्मा को जागृत करने के लिए एक बार पुण्डरीक ने उनके निकट जाकर वन्दननमस्कार करके कहा-'देवानुप्रिय, आप धन्य हैं, आप पुण्यशाली हैं, आपका मनुष्यजन्म सफल हुअा है, आपने अपना जीवन धन्य बनाया है। मैं पुण्यहीन हूँ, भाग्यहीन हूँ कि अभी तक मेरा मोह नहीं छूटा, मैं संसार में फंसा हूँ। कण्डरीक को यह कथन रुचिकर तो नहीं हुआ फिर भी वह लज्जा के कारण, बिना इच्छा ही विहार कर गया / मगर संयम का पालन तो तभी संभव है जब अन्तरात्मा में सच्ची विरक्ति हो, इन्द्रियविषयों के प्रति लालसा न हो और आत्महित की गहरी लगन हो / कण्डरीक में यह कुछ भी शेष नहीं रहा था। अतएव कुछ समय तक वह स्थविर के पास रह कर और सांसारिक लालसाओं . Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512] [ ज्ञाताधर्मकथा से पराजित होकर फिर लौट आया। वह लौट कर राजप्रासाद की अशोकवाटिका में जा कर बैठ गया / लज्जा के कारण प्रासाद में प्रवेश करने का उसे साहस न हुआ। धायमाता ने उसे अशोकवाटिका में बैठा देखा / जाकर पुण्डरीक से कहा / पुण्डरीक अन्तःपुर के साथ उसके पास गया और पूर्व की भांति उसकी सराहना की। किन्तु इस बार पुण्डरीक की वह युक्ति काम न आई / कण्डरीक चुपचाप बैठा रहा / तब पुण्डरीक ने उससे पूछा-भगवन् ! आप भोग भोगना चाहते हैं ? कण्डरीक ने लज्जा और संकोच को त्याग कर 'हाँ' कह दिया / पुण्डरीक राजा ने उसी समय कण्डरीक का राज्याभिषेक किया, उसे राजगद्दी दे दी और कण्डरीक के संयमोपकरण लेकर स्वयं दीक्षित हो गए। उन्होंने प्रतिज्ञा धारण की कि स्थविर महाराज के दर्शन करके एवं उनके निकट चातुर्याम धर्म अंगीकार करने के पश्चात् ही मैं आहार-पानी ग्रहण करूगा / वे पुण्डरीकिणी नगरी का परित्याग करके, विहार करके स्थविर भगवान् के निकट जाने को प्रस्थान कर गए। ___कण्डरीक अपने अपथ्य आचरण के कारण अल्प काल में ही प्रार्तध्यानपूर्वक मृत्यु को प्राप्त हुआ / तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकों में, सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न हुआ। यह उत्थान के पश्चात् पतन की करुण कहानी है। पुण्डरीक मुनि उग्र साधना करके, अन्त में समाधिपूर्वक शरीर का त्याग करके तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले देवों में सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए / तदनन्तर वे मुक्ति के भागी होंगे। यह पतन से उत्थान की ओर जाने का उत्कृष्ट उदाहरण है। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगणतीसइमं अज्झयण : पुंडरीए श्री जम्बू को जिज्ञासा १-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस्स नायज्ञयणस्स अयमठेट पण्णते, एगूणवीसइमस्स णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पण्णत्ते ? ___जम्बूस्वामी प्रश्न करते हैं--- 'भगवन् ! यदि यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने अठारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो उन्नीसवें ज्ञात-अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? श्री सुधर्मा द्वारा समाधान ____२–एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे पुनविदेहे सोयाए महाणदोए उत्तरिल्ले कूले नोलवंतस्स दाहिणणं उत्तरिल्लस्स सीतामुखवणसंडस्स पच्छिमेणं एगसेलगस्स बक्खारपब्वयस्स पुरच्छिमेणं एत्थं गं पुक्खलावई णामं विजए पण्णत्ते / तत्थ णं पुडरोगिणी णामं रायहाणी पन्नत्ता-णवजोयणवित्थिन्ना दुवालसजोयणायामा जाव' पच्चक्खं देवलोयभूया पासाईया दंसणीया अभिरूवा पडिरूवा। तीसे णं पुंडरीगिणीए णयरीए उत्तरपुरच्छिमे विसिभाए गलिणिवणे णाम उज्जाणे होत्था / वष्णओ। श्री सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-जम्बू ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप में, पूर्व विदेह क्षेत्र में, सीता नामक महानदी के उत्तरी किनारे नीलवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, उत्तर तरफ के सीतामुख वनखण्ड के पश्चिम में और एकशैल नामक वक्षार पर्वत से पूर्व दिशा में पुष्कलावती नामक विजय कहा गया है। उस पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी नामक राजधानी है। वह नौ योजन चौड़ी और बारद योजन लम्बी यावत साक्षात देवलोक के समान है। मनोहर है, दर्शनीय है, सन्दर रूप वाली है और दर्शकों को आनन्द प्रदान करने वाली है। उस पुण्डरीकिणी नगरी में उत्तर-पूर्व दिशा के भाग (ईशानकोण) में नलिनीवन नामक उद्यान था। उसका वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए। महापद्मराज की दीक्षा : सिद्धिप्राप्ति ३–तत्थ णं पुंडरीगिणीए रायहाणीय महापउमे णामं राया होत्या / तस्स णं पउमावई देवी होत्था। तस्स णं महापउमस्स रण्णो पुत्ता पउमावईए देवीए अत्तया दुवे कुमारा होत्था, तं जहा--पुडरोए य कंडरीए य सुकुमालपाणिपाया। पुंडरीए जुवराया। उस पुण्डरीकिणी राजधानी में महापद्म नामक राजा था। पद्मावती उसकी–देवी-पटरानी 1. अ. 5 सूत्र 2. Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 ] [ ज्ञाताधर्मकथा थी। महापद्म राजा के पुत्र और पद्मावती देवी के पात्मज दो कुमार थे-पुडरीक और कंडरीक / उनके हाथ-पैर (आदि) बहुत कोमल थे / उनमें पुंडरीक युवराज था / ४--तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं (धम्मघोसा थेरा पंचहि अणगारसएहि सद्धि संपरिबुडे पुव्वाणुपुन्धि चरमाणा जाव जेणेव णलिणिवणे उज्जाणे तेणेव समोसढे / ) उस काल और उस समय में स्थविर मुनि का आगमन हुआ अर्थात् धर्मघोष स्थविर पांच सौ अनगारों के साथ परिवृत होकर, अनुक्रम से चलते हुए, यावत् नलिनीवन नामक उद्यान में ठहरे / ५–महापउमे राया णिग्गए। धम्म सोच्चा पोंडरीयं रज्जे ठवेत्ता पव्वइए / पोंडरोए राया जाए। कंडरीए जुवराया / महापउमे अणगारे चोद्दसपुव्वाई अहिज्जइ / तए णं थेरा बहिया जणवयविहारं विहरइ / तए णं से महापउमे बहूणि वासाणि जाव सिद्ध / महापद्म राजा स्थविर मुनि को वन्दना करने निकला। धर्मोपदेश सुनकर उसने पुंडरीक को राज्य पर स्थापित करके दीक्षा अंगीकार कर ली। अब पुंडरीक राजा हो गया और कंडरीक युवराज हो गया। महापद्म अनगार ने चौदह पूर्वो का अध्ययन किया / स्थविर मुनि बाहर जाकर जनपदों में विहार करने लगे। मुनि महापद्म ने बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय पालकर सिद्धि प्राप्त की। ६.-तए णं थेरा अन्नया कयाई पुणरवि पुंडरीगिणीए रायहाणीए णलिणिवणे उज्जाणे समोसढा / पोंडरीए राया णिग्गए। कंडरीए महाजणसई सोच्चा जहा महाब्बलो जाव पज्जवासइ / थेरा धम्म परिकहेंति / पुडरीए समणोवासए जाए जाव पडिगए। तत्पश्चात् एक बार किसी समय पुनः स्थविर पुडरीकिणी राजधानी के नलिनीवन उद्यान में पधारे / पुंडरीक राजा उन्हें वन्दना करने के लिए निकला। कंडरीक भी महाजनों (बहुत लोगों) के मुख से स्थविर के आने की बात सुन कर (भगवतीसूत्र में वर्णित) महाबल कुमार की तरह गया / यावत् स्थविर की उपासना करने लगा। स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया। धर्मोपदेश सुन कर पुंडरीक श्रमणोपासक हो गया और अपने घर लौट पाया। कंडरीक की दीक्षा ७--तए णं कंडरीए उट्ठाए उठेइ, उट्ठाए उद्वित्ता जाव' से जहेयं तुब्भे वदह, जं णवरं पुंडरीयं रायं आयुच्छामि, तए णं जाव पव्वयामि / 'अहासुहं देवाणुप्पिया !' तत्पश्चात् कंडरीक युवराज खड़ा हुआ / खड़े होकर उसने इस प्रकार कहा-'भगवन् ! आपने जो कहा है, वैसा ही है---सत्य है / ' मैं पुंडरीक राजा से अनुमति ले लू, तत्पश्चात् यावत् दीक्षा ग्रहण करूंगा। 2. भगवती श. 11,164 1. किसी-किसी प्रति में ब्रेकेट में दिया पाठ अधिक है। 3. अ. 1 सूत्र 115 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : पुण्डरीक ] [ 515 तब स्थविर ने कहा-'देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो।' --तए णं से कंडरीए जाव थेरे बंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तमेव चाउघंटं आसरहं दुरुहइ, जाव पच्चोरुहइ, जेणेव पुंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव पुंडरीए एवं वयासो—'एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए थेराणं अंतिए जाव धम्मे निसंते, से धम्मे अभिरुइए, तए णं देवाणुप्पिया ! जाव पव्वइत्तए।' तत्पश्चात् कंडरीक ने यावत् स्थविर मुनि को वन्दन किया / वन्दन-नमस्कार करके उनके पास से निकला / निकल कर चार घंटा वाले घोड़ों के रथ पर पारूढ हुआ, यावत् राजभवन में आकर उतरा / रथ से उतर कर पुडरीक राजा के पास गया; वहाँ जाकर हाथ जोड़ कर यावत् पुंडरीक से कहा-'देवानुप्रिय ! मैंने स्थविर मुनि से धर्म सुना है और वह धर्म मुझे रुचा है / अतएव हे देवानुप्रिय ! मैं यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करने की इच्छा करता हूँ।' ९-तए णं पुंडरोए राया कंडरीयं जुवरायं एवं वयासी--'मा णं तुम देवाणुप्पिया! इदाणि मुंडे जाव पव्वयाहि, अहं णं तुमं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचामि / तए णं से कंडरीए पुडरीयस्स रण्णो एयमढ् णो आढाइ, जाव तुसिणीए संचिटुइ / तए णं पुंडरीए राया कंडरीयं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी जाव तुसिणीए संचिट्ठइ / तब पुंडरीक राजा ने कंडरीक युवराज से इस प्रकार कहा---'देवानुप्रिय ! तुम इस समय मुडित होकर यावत् दीक्षा ग्रहण मत करो। मैं तुम्हें महान् महान् राज्याभिषेक से अभिषिक्त करना चाहता हूँ।' तब कंडरीक ने पुडरीक राजा के इस अर्थ का आदर नहीं किया-स्वीकार नहीं किया; वह यावत् मौन रहा / तब पुडरीक राजा ने दूसरी बार और तीसरी बार भी कण्डरीक से इस प्रकार कहा; यावत् कण्डरीक फिर भी मौन ही रहा / १०-तए णं पुंडरीए कंडरीयं कुमारं जाहे नो संचाएइ बहूहि आघवाहि पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य ताहे अकामए चेव एयमझें अणुमण्णित्था जाव णिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचइ जाव थेराणं सीसभिक्खं दलयइ / पन्वइए, अणगारे जाए, एक्कारसंगविऊ / तए णं थेरा भगवंतो अन्नया कयाई पुडरोगिणीओ नयरीओ नलिनीवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति / तत्पश्चात् जब पुण्डरीक राजा, कण्डरीक कुमार को बहुत कहकर और समझा-बुझा कर और विज्ञप्ति करके रोकने में समर्थ न हुआ, तब इच्छा न होने पर भी उसने यह बात मान ली, अर्थात् दीक्षा की आज्ञा दे दी, यावत् उसे निष्क्रमण-अभिषेक से अभिषिक्त किया, यहाँ तक कि स्थविर मुनि को शिष्य-भिक्षा प्रदान की। तब कंडरीक प्रवजित हो गया, अनगार हो गया, यावत् ग्यारह अंगों का वेत्ता हो गया। तत्पश्चात् स्थविर भगवान् अन्यदा कदाचित् पुण्डरीकिणी नगरी के नलिनीवन उद्यान से बाहर निकले / निकल कर बाहर जनपद-विहार करने लगे। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 516 ] [ ज्ञाताधर्मकथा कंडरोक को रुग्णता १२-तए णं तस्स कंडरीयस्स अणगारस्स तेहि अंतेहि य पंतेहि य जहा सेलगस्स जाव दाहवक्कंतीए यावि विहरइ / तत्पश्चात् कंडरीक अनगार के शरीर में अन्त-प्रान्त अर्थात् रूखे-सूखे आहार के कारण शैलक मुनि के समान यावत् दाह-ज्वर उत्पन्न हो गया। वे रुग्ण होकर रहने लगे। . १३-तए णं थेरा अन्नया कयाई जेणेव पोंडरोगिणी तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता गलिणिवणे समोसढा, पोंडरीए णिग्गए, धम्मं सुणेइ / तए णं पुंडरीए राया धम्म सोच्चा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरोयं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता कंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगं सव्वाबाहं सरोयं पासइ, पासित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छहउवागच्छित्ता थेरे भगवते वंदड, वंदह, णमंसह, वंचित्ता णमंसित्ता एवं वयासो-'अहं णं भंते ! कंडरीयस्स अणगारस्स अहापवत्तेहि ओसहभेसज्जेहिं जाव तेइच्छं आउट्टामि, तं तुम्भे गं भंते ! मम जाणसालासु समोसरह / ' तत्पश्चात् एक बार किसी समय स्थविर भगवंत पुण्डरीकिणी नगरी में पधारे और नलिनीवन उद्यान में ठहरे / तब पुंडरीक राजमहल से निकला और उसने धर्मदेशना श्रवण की। तत्पश्चात् धर्म सुनकर पुडरीक राजा कंडरीक अनगार के पास गया / वहाँ जाकर कंडरीक मुनि की वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके उसने कंडरीक मुनि का शरीर सब प्रकार की बाधा से युक्त और रोग से आक्रान्त देखा / यह देखकर राजा स्थविर भगवंत के पास गया / जाकर स्थविर भगवंत को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया---'भगवन् ! मैं कंडरीक अनगार की यथाप्रवृत्त (आपकी प्रवृत्ति-समाचारी के अनुकूल) औषध और भेषज से चिकित्सा कराता हूँ ( करना चाहता हूँ ) अतः भगषन् ! आप मेरी यानशाला में पधारिये।' १४-तए णं थेरा भगवंतो पुंडरीयस्स रणो एयमट्ठ पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता जाव उवसंपज्जित्ता गं विहरति / तए णं पुंडरीए राया जहा मंडुए सेलगस्स जाव वलियसरोरे जाए / तब स्थविर भगवान् ने पुडरीक राजा का यह निवेदन स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके यावत् यानशाला में रहने की आज्ञा लेकर विचरने लगे-वहाँ रहने लगे / तत्पश्चात् जैसे मंडुक राजा ने शैलक ऋषि की चिकित्सा करवाई, उसी प्रकार राजा पुडरीक ने कंडरीक की करवाई। चिकित्सा हो जाने पर कंडरीक अनगार बलवान् शरीर वाले हो गये / कंडरीक मुनि को शिथिलता १५--तए णं थेरा भगवंतो पोंडरीयं रायं पुच्छंति, पुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति / ___तए णं से कंडरीए ताओ रोयायंकाओ विप्पमुक्के समाणे तंसि मणुण्णंसि असण-पाण-खाइमसाइमंसि मुच्छिए गिद्धे गढिए अन्झोववन्ने, णो संचाएइ पोंडरीयं आपुच्छित्ता बहिया अब्भुज्जएणं जणवयविहारेणं विहरित्तए / तत्थेव ओसणे जाए। Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां अध्ययन : पुण्डरीक ] [517 तत्पश्चात् स्थविर भगवान् ने पुण्डरीक राजा से पूछा अर्थात् अपने विहार की उसे सूचना दी। तदनन्तर वे बाहर जाकर जनपद-विहार विहरने लगे। ___उस समय कण्डरीक अनगार उस रोग-आतंक से मुक्त हो जाने पर भी उस मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार में मूच्छित, गृद्ध,प्रासक्त और तल्लीन हो गए / अतएव वे पुण्डरीक राजा से पूछ कर अर्थात् कहकर बाहर जनपदों में उग्र विहार करने में समर्थ न हो सके / शिथिलाचारी होकर वहीं रहने लगे। १६-तए णं से पोंडरोए इमोसे कहाए लद्धठे समाणे व्हाए अंतेउरपरियालसंपरिबुडे जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं तिक्छ्तो आयाहिणं फ्याहिणं करेइ, करिता वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-'धन्ने सि गं तुमं देवाणुप्पिया ! कयत्थे कयपुष्णे कयलक्खणे, सुलद्धे णं देवाणुप्पिया ! तव माणुस्सए जम्म-जीवियफले, जे गं तुमं रज्जं च जाव अंतेउरं च छड्डइत्ता विगोवइत्ता जाब पम्वइए / अहं णं अहण्णे अकयपुण्णे रज्जे जाव अंतेउरे य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुन्छिए जाव अझोववन्ने नो संचाएमि जाव पव्वइत्तए / तं धनो सि णं तुमं देवाणुप्पिया! जाव जीवियफले / ' तत्पश्चात् पुण्डरीक राजा ने इस कथा का अर्थ जाना अर्थात् जब उसे यह बात विदित हुई, तब वह स्नान करके और विभूषित होकर तथा अन्तःपुर के परिवार से परिवृत होकर जहाँ कण्डरीक अनगार थे वहाँ आया। आकर उसने कण्डरीक को तीन बार पादक्षिण प्रदक्षिणा की। फिर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना और नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! आप धन्य हैं, कृतार्थ हैं, कृतपुण्य हैं और सुलक्षण वाले हैं। देवानुप्रिय ! प्रापको मनुष्य के जन्म और जीवन का फल सुन्दर मिला है, जो आप राज्य को और अन्तःपुर को त्याग कर और दुत्कार कर प्रवजित हुए हैं / और मैं अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ, यावत् राज्य में, अन्तःपुर में और मानवीय कामभोगों में मूच्छित यावत् तल्लीन हो रहा हूँ, यावत् दीक्षित होने के लिए समर्थ नहीं हो पा रहा हूँ / अतएव देवानुप्रिय ! आप धन्य हैं, यावत् आपको जन्म और जीवन का सुन्दर फल प्राप्त हुआ है / १७-तए णं से कंडरीए अणगारे पुंडरीयस्स एयमझें णो आढाइ जाव [णो परियाणाइ, तुसिणीए] संचिठुइ / तए णं कंडरीए पुडरीएणं दोच्चं पि तच्चं पि एवं बुत्ते समाणे अकामए अवस्सवसे लज्जाए गारवेण य पोंडरीयं रायं आपच्छड, आपच्छित्ता थेरेहि सद्धि बहिया जणवयविहारं विहरइ / तए णं से कंडरीय थेरेहिं सद्धि किंचि कालं उग्गंउग्गेणं विहरइ। तओ पच्छा समणत्तणपरितंते समणत्तणणिविणे समणत्तणणिन्भस्थिए समणगुणमुक्कजोगी थेराणं अंतियाओ सणियं सणिणं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेव पुंडरीगिणी पयरी, जेणेव पुंडरीयस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टगंसि णिसीयह, णिसीइत्ता ओयमणसंकप्पे जाव झियायमाणे संचिट्ठइ / तत्पश्चात् कण्डरीक अनगार ने पुण्डरीक राजा की इस बात का आदर नहीं किया / यावत् वह मौन बने रहे / तब पुण्डरीक ने दूसरी बार और तीसरी बार भी यही कहा / तत्पश्चात् इच्छा न होने पर भी विवशता के कारण, लज्जा से और बड़े भाई के गौरव के कारण पुण्डरीक राजा से Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '518 ] [ ज्ञाताधर्मकथा पूछा--अपने जाने के लिए कहा / पूछ कर वह स्थविर के साथ बाहर जनपदों में विचरने लगे। उस समय स्थविर के साथ-साथ कुछ समय तक उन्होंने उग्न-उग्र विहार किया। उसके बाद वह श्रमणत्व (साधुपन) से थक गये, श्रमणत्व से ऊब गये और श्रमणत्व से निर्भर्त्सना को प्राप्त हुए / साधुता के गुणों से रहित हो गए / अतएव धीरे-धीरे स्थविर के पास से (बिना आज्ञा प्राप्त किये) खिसक गये / खिसक कर जहाँ पुण्डरी किणी नगरी थी और जहाँ पुण्डरीक राजा का भवन था, उसी तरफ आये / आकर अशोकवाटिका में, श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे, पृथ्वी शिलापट्टक पर बैठ गये। बैठ कर भग्नमनोरथ एवं चिन्तामग्न हो रहे / १८-तए णं तस्स पोंडरोयस्स अम्मधाई जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासइ, पासित्ता जेणेव पोंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागिच्छत्ता पोंडरीयं रायं एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! तव पियभाउए कंडरीए अणगारे असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टे ओहयमणसंकप्पे जाव शियायइ / ' तत्पश्चात् पुण्डरीक राजा की धायमाता जहाँ अशोकवाटिका थी, वहाँ गई / वहाँ जाकर उसने कण्डरीक अनगार को अशोक वृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर भग्नमनोरथ यावत् चिन्तामग्न देखा / यह देखकर वह पुण्डरीक राजा के पास गई और उनसे कहने लगी–देवानुप्रिय ! तुम्हारा प्रिय भाई कण्डरीक अनगार अशोकवाटिका में, उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्ट पर भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता में डूबा बैठा है / १९-तए णं पोंडरीए अम्मधाईए एयमद्रं सोच्चा णिसम्म तहेव संभंते समाणे उडाए उठेइ, उद्वित्ता अंतेउरपरियालसंपरिबुडे जेणेव असोगवणिया जाव कंडरीयं तिक्खुत्तो एवं वयासी--'धण्णे सि तुमं देवाणुप्पिया! जाव' पव्वइए, अहं णं अधण्णे जाव पव्वइत्तए, तं धन्ने सि णं तुमं देवाणुप्पिया! जाव जीवियफले।' तब पुण्डरीक राजा, धायमाता की यह बात सुनते और समझते ही संभ्रान्त हो उठा / उठ कर अन्तःपुर के परिवार के साथ अशोकवाटिका में गया / जाकर यावत् कण्डरीक को तीन बार इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो कि यावत् दीक्षित हो / मैं अधन्य हूँ कि यावत् दीक्षित होने के लिए समर्थ नहीं हो पाता। अतएव देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो यावत् तुमने मानवीय जन्म और जीवन का सुन्दर फल पाया है।' २०-तए णं कंडरीए पुंडरीएण एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ दोच्चं पितच्चं पि जाव चिट्ठइ। तत्पश्चात् पुंडरीक राजा के द्वारा इस प्रकार कहने पर कण्डरीक चुपचाप रहा / दूसरी बार और तीसरी बार कहने पर भी यावत् वह मौन ही बना रहा / 1-2. म. 19 सूत्र 16 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : पुण्डरीक ] [ 519 प्रवज्या का परित्याग २१-तए णं पुंडरीए कंडरीयं एवं वयासो-'अट्ठो भंते ! भोगोहि ?' 'हंता अट्ठो। तब पुण्डरीक राजा ने कंडरीक से पूछा---'भगवन् ! क्या भोगों से प्रयोजन है ? अर्थात् क्या भोग भोगने की इच्छा है ? तब कंडरीक ने कहा-'हाँ प्रयोजन है।' राज्याभिषेक २२-तए णं पोंडरोए राया कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासो-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कंडरीयस्स महत्थं जाव रायाभिसेयं उबटुवेह / ' जाव रायाभिसेएणं अभिसिंचइ / तत्पश्चात् पुण्डरीक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुला कर इस प्रकार कहा-- 'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही कंडरीक के महान् अर्थव्यय वाले एवं महान पुरुषों के योग्य राज्याभिषेक की तैयारी करो।' यावत् कंडरीक राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया गया / वह मुनिपर्याय त्याग कर राजसिंहासन पर आसीन हो गया। पुण्डरीक का दीक्षाग्रहण २३--तए णं पुंडरीए सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ सयमेव चाउज्जामं धम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता कंडरीयस्स अतिसं आयारभंड यं गेण्हइ, गेण्हित्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-- 'कप्पइ मे थेरे वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अंतिए चाउज्जामं धम्म उवसंपज्जित्ता णं तओ पच्छा आहारं आहारित्तए' त्ति कटु इमं च एयारूवं अभिम्गहं अभिगिण्हेत्ता णं पोंडरीगिणीए पडिणिक्खमइ / पडिणिक्खमित्ता पुव्वाणुपुन्वि चरमाणे गामाणुणामं दूइज्जमाणे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तत्पश्चात् पुण्डरीक ने स्वयं ही पंचमुष्ठिक लोच किया और स्वयं ही चातुर्याम धर्म अंगीकार किया / अंगीकार करके कंडरीक के आचारभाण्ड (उपकरण) ग्रहण किये और इस प्रकार का अभिग्रह ग्रहण किया स्थविर भगवान् को वन्दन-नमस्कार करने और उनके पास से चातुर्याम धर्म अंगीकार करने के पश्चात् ही मुझे पाहार करना कल्पता है। ऐसा कहकर और इस प्रकार का अभिग्रह धारण करके पुण्डरीक पूण्डरोकिणी नगरा से बाहर निकला / निकल कर अनुक्रम से चलता हश्रा, एक ग्राम दूसरे ग्राम जाता हुआ, जिस ओर स्थविर भगवान् थे, उसी अोर गमन करने को उद्यत हुआ। विवेचन-आगमों में अनेक स्थलों पर दीक्षा के प्रसंग में 'पंचमुट्ठियलोय' अर्थात् पञ्च मुष्ठियों द्वारा लोच करने का उल्लेख पाता है / अभिधानराजेन्द्रकोष में इसका अर्थ किया गया है-'पञ्चभिमुष्टिभिः शिरः केशापनयनम्' अर्थात् पाँच मुट्टियों से शिर के केशों का उत्पाटन करना हटा देना। इस अर्थ के अनुसार पाँच मुट्रियों से शिर के केशों को उखाड़ने का अभिप्राय तो स्पष्ट होता है किन्तु दाढी और मूछों के केशों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं होता / इन केशों का अपनयन Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 ] [ ज्ञाताधर्मकथा पाँच मुट्ठियों से ही हो जाता है अथवा अतिरिक्त मुट्ठियों से ? अगर अतिरिक्त मुट्ठियों से होता है तो उसे पंचमुष्टिक लोच कैसे कहा जाता है ? भगवान् ऋषभदेव के लोच सम्बन्ध में लिखा है--(ऋषभंः) सयमेव चउहिं अट्टाहि मुट्टिहिं लोयं करेइ-स्वयमेव चतसृभिः (अट्ठाहिं ति) मुष्टिभिः करणभूताभिलुञ्चनीयकेशानां पञ्चमभागलुञ्चिकाभिरित्यर्थः, लोचं करोति, अपरालङ्कारादिमोचनपूर्वकमेव शिरोलंकारादिमोचनं विधिक्रमायेति पर्यन्ते मस्तकालंकारकेशामोचनम् / तीर्थकृता पञ्चमुष्टिकलोचसम्भवेऽपि अस्य भगवतश्चतुर्मुष्टिकलोचगोचरः श्रीहेमचन्द्राचार्यकृत-ऋषभचरित्राद्यभिप्रायोऽयम्-प्रथममेकया मुष्ट्याश्मश्रुकूर्चयोलोंचे, तिसृभिश्च शिरोलोचे कृते, एकां मुष्टिमवशिष्यमाणां पवनान्दोलिनां कनकावदातयोः प्रभुस्कन्धयोरुपरि लुठन्तीं मरकतोपमानमाविभ्रतीं परमरमणीयां वीक्ष्य प्रमोदमानेन शक्रेणभगवन् ! मय्यनुग्रहं विधाय ध्रियतामेव इत्थमेवेति विज्ञप्ते भगवताऽपि तथैव रक्षिताः / __ इस उद्धरण से विदित होता है कि एक मुद्दो से, लोच करने के योग्य समस्त केशों के पाँचवें भाग का उत्पाटन किया जाता है। किन्तु भ० ऋषभदेव ने चार-मुट्ठी लोच किया। वह इस प्रकार-पहली एक मुट्ठी से दाढी और मूछों के केश उखाड़े और तीन मुष्टियों से सिर के केश उखाड़े / जब एक मुट्ठो शेष रही तब भगवान् के दोनों कन्धों पर केशराशि सुशोभित हो रही थी। भगवान् के स्वर्ण-वर्ण कन्धों पर मरकत मणि की सी अतिशय रमणीय केशराशि को देख कर शक्रेन्द्र को प्रमोदभाव उत्पन्न हुआ और उसने प्रार्थना की--'भगवन् ! मुझ पर अनुग्रह करके इस केशराशि को इसी प्रकार रहने दीजिए।' भगवान् ने इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार करके वैसी ही रहने दी। इससे स्पष्ट है कि दोनों कन्धों के ऊपर वाले केश एक पाँचवीं मुट्ठी से उखाड़े जाते हैं। यह भी सम्भव है कि किस मुट्ठी से कौन से केश उखाड़े जाएँ, ऐसा कोई प्रतिबन्ध न हो; केवल यही अभीष्ट हो कि पांच मुट्टियों में मस्तक, दाढी और मूछों के समस्त केश उखड़ जाने चाहिए। कम्बरीक को पुनः गणता २४-तए णं तस्स कंडरीयस्य रणोतं पणीयं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स अतिजागरिएण य अइभोयणप्पसंगेण य से आहारे णो सम्मं परिणमह / तए णं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तंसि आहारंसि अपरिणममाणंसि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सरीरंसि वेयणा पाउम्भूया उज्जला विउला कक्खडा पगाढा जाव [चंडा दुक्खा] दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि होत्था। तत्पश्चात् प्रणीत (सरस पौष्टिक) पाहार करने वाले कण्डरीक राजा को प्रति जागरण करने से और मात्रा से अधिक भोजन करने के कारण वह आहार अच्छी तरह परिणत नहीं हुआ, पच नहीं सका / उस आहार का पाचन न होने पर, मध्य रात्रि के समय कण्डरीक राजा के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, अत्यन्त गाढ़ी, प्रचंड और दुःखद वेदना उत्पन्न हो गई। उसका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया / अतएव उसे दाह होने लगा / कण्डरीक ऐसी रोगमय स्थिति में रहने लगा। Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां अध्ययन : पुण्डरीक ] [ 521 मरण एवं नारक-जन्म २५--तए णं से कंडरीए राया रज्जे य रठे य अंतेउरे य जाव अज्झोववन्ने अदुहट्टवसट्टे अकामए अवस्सवसे कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए उक्कोसकालट्टिइयंसि नरयसि नेरइयत्ताए उववण्णे। तत्पश्चात् कंडरीक राजा राज्य में राष्ट्र में, और अन्तःपुर में यावत् अतीव आसक्त बना हुआ, आर्तध्यान के वशीभूत हुया, इच्छा के बिना ही, पराधीन होकर, कालमास में (मरण के अवसर पर) काल करके नीचे सातवीं पृथ्वी में सर्वोत्कृष्ट (तेतीस सागरोपम) स्थिति वाले नरक में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। २६-एवामेव समणाउसो ! जाव पब्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसाएइ जाव अणुपरियट्टिस्सइ, जहा व से कंडरीए राया / इस प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! यावत् हमारा जो साधु-साध्वी दीक्षित होकर पुनः मानवीय कामभोगों की इच्छा करता है, वह यावत् कंडरीक राजा की भांति संसार में पुनः पुनः पर्यटन करता है। पुण्डरीक को उग्र साधना २७-तए णं से पोंडरीए अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते बंदइ, णमंसइ, बंदिता णमंसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चं पि चाउज्जामं धम्म पडिवज्जइ, छटुक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, करित्ता जाव अडमाणे सोयलुक्खं पाणभोयणं पडिगाहेइ, पडिगाहित्ता अहापज्जत्तमिति कटु पडिणियत्तइ, पडिणियत्तित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता थेरेहि भगवंतेहिं अभणुनाए समाणे अमुच्छिए अगिद्ध अढिए अणज्झोववण्णे बिलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणणं तं फासुएसणिज्ज असणं पाणं खाइमं साइमं सरीरकोटुगंसि पक्खिवइ / पुडरीकिणी नगरी से रवाना होने के पश्चात् पुडरीक अनगार वहाँ पहुँचे जहाँ स्थविर भगवान थे। वहां पहुंच कर उन्होंने स्थविर भगवान को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दनानमस्कार करके स्थविर के निकट दूसरी बार चातुर्याम धर्म अंगीकार किया। फिर षष्ठभक्त के पारणक में, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, (दूसरे प्रहर में ध्यान किया) तीसरे प्रहर में यावत् भिक्षा के लिए अटन करते हुए ठंडा और रूखा भोजन-पान ग्रहण किया। ग्रहण करके यह मेरे लिए पर्याप्त है, ऐसा सोच कर लौट आये / लौट कर स्थविर भगवान् के पास आये। उन्हें लाया हुआ भोजन-पानी दिखलाया / फिर स्थविर भगवान् को आज्ञा होने पर मूर्छाहीन होकर तथा गद्धि, आसक्ति एवं तल्लीनता से रहित होकर, जैसे सर्प बिल में सीधा चला जाता है, उसी प्रकार (स्वाद न लेते हुए) उस प्रासुक तथा एषणीय प्रशन, पानी, खादिम और स्वादिम याहार को उन्होंने शरीर रूपी कोठे में डाल लिया। २८--तए णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स तं कालाइक्कंतं अरसं विरसं सोयलुक्खं पाणभोयणं Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522]] [ज्ञाताधर्मकथा आहारियस्स समाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स से आहारे णो सम्म परिणमइ / तए णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव' दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए विहरह। तत्पश्चात् पुडरीक अनगार उस कालातिकान्त (जिसके खाने का समय बीत गया है ऐसे), रसहीन, खराब रस वाले तथा ठंडे और रूखे भोजन पानी का आहार करके मध्य रात्रि के समय धर्म जागरण कर रहे थे। तब वह अाहार उन्हें सम्यक् रूप से परिणत न हुआ। उस समय पुंडरीक अनगार के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रचण्ड एवं दुःखरूप, दुस्सह वेदना उत्पन्न हो गई। उनका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में दाह होने लगा। उग्र साधना का सुफल २९–तए णं ते पुंडरीए अणगारे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे करयल जाव एवं वयासी नमोऽत्य णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं, णमोऽत्थु णं थेराणं भगवंताणं मम धम्मारियाणं धम्मोवएसयाणं, पुदिव पि य णं मए थेराण अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए जाव मिच्छादसणसल्ले णं पच्चक्खाए' जाव आलोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा सम्वदृसिद्धे उववण्णे / ततोऽणंतरं उध्वट्टित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ। तत्पश्चात् पुडरीक अनगार निस्तेज, निर्बल, वीर्यहीन और पुरुषकार-पराक्रमहीन हो गये। उन्होंने दोनों हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार कहा यावत् सिद्धिप्राप्त अरिहंतों को नमस्कार हो। मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक स्थविर भगवान् को नमस्कार हो / स्थविर के निकट पहले भी मैंने समस्त प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया, यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का (अठारहों पापस्थानों) का त्याग किया था, इत्यादि कहकर यावत् शरीर का भी त्याग करके आलोचना प्रतिक्रमण करके, कालमास में काल करके सर्वार्थ सिद्ध नामक अनुत्तर विमान में देवपर्याय में उत्पन्न हए / वहाँ से अनन्तर च्यवन करके, अर्थात बीच में कहीं अन्यत्र जन्म न लेकर सीधे महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धि प्राप्त करेंगे / यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। ३०--एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे माणुस्सएहि कामभोगेहि णो सज्जइ, णो रज्जइ, जाव नो विप्पडिघायमावज्जइ, से गं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं अच्चणिज्चे वंदणिज्जे पूणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जे त्ति कटु परलोए विय णं णो आगच्छइ बहणि दंडणाणि य मुंडणाणि य तज्जणाणि य ताडणाणि य जाव चाउरंतसंसारकंतारं जाव वीईवइस्सइ, जहा व से पोंडरीए राया। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! जो हमारा साधू या साध्वी दीक्षित होकर मनुष्य संबंधी कामभोगों में प्रासक्त नहीं होता, अनुरक्त नहीं होता, यावत् प्रतिघात को प्राप्त नहीं होता, वह इसी भव व बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, 1. अ. 19, सूत्र 24 Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : पुण्डरीक ] [ 523 पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याणरूप, मंगलकारक, देव और चैत्य समान उपासना करने योग्य होता है। इसके अतिरिक्त वह परलोक में भी राजदण्ड, राजनिग्रह, तर्जना और ताड़ना को प्राप्त नहीं होता, यावत् चतुर्गति रूप संसार-कान्तार को पार कर जाता है, जैसे पुडरीक अनगार / __३१-एवं खलु जम्बू समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सिद्धिगइनामधेज्ज ठाणं संपत्तेणं एगूणवीसइमस्स नायज्झयणस्स अयमठे पन्नत्ते / जम्बू ! धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले, यावत् सिद्धि नामक स्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने ज्ञात-अध्ययन के उन्नीसवें अध्ययन का यह अर्थ कहा है। ३२–एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स पढमस्स सुयक्खंधस्स अयमठे पण्णते त्ति बेमि / श्री सुधर्मास्वामी पुनः कहते हैं --'इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त जिनेश्वर देव ने इस छठे अंग के प्रथम श्रुतस्कंध का यह अर्थ कहा है / जैसा सुना वैसा मैंने कहा है-अपनी कल्पना-बुद्धि से नहीं कहा। ३३-तस्स णं सुयक्खंधस्स एगूणवीसं अज्झयणाणि एक्कसरगाणि एगूणवीसाए दिवसेसु समपंत्ति // 147 // इस प्रथम श्रुतस्कंध के उन्नीस अध्ययन हैं, एक-एक अध्ययन एक-एक दिन में पढ़ने से उन्नीस दिनों में यह अध्ययन पूर्ण होता है (इसके योगवहन में उन्नीस दिन लगते हैं ) / // उन्नीसवां अध्ययन समाप्त / / ॥प्रथम श्रुतस्कंध समाप्त / Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शुतस्कन्ध 1-10 वर्ग सार : संक्षेप महाव्रतों का विधिवत् पालन करने वाला जीव उसी भव में यदि समस्त कर्मों का क्षय कर सके तो निर्वाण प्राप्त करता है / यदि कर्म शेष रह जाएँ तो वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है। किन्तु महाव्रतों को अंगीकार करके भी जो उनका विधिवत् पालन नहीं करता, कारणवश शिथिलाचारी बन जाता है, कुशील हो जाता है, सम्यग्ज्ञान आदि का विराधक हो जाता है, तीर्थंकर के उपदेश की परवाह न करके स्वेच्छाचारी बन जाता है और अन्तिम समय में अपने अनाचार को अलोचनाप्रतिक्रमण नहीं करता, वह मात्र कायक्लेश आदि बाह्य तपश्चर्या करने के कारण देवगति प्राप्त करके भी वैमानिक जैसी उच्चगति और देवत्व नहीं पाता। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क की पर्याय प्राप्त करता है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में यही तत्त्व प्रकाशित किया गया है। इसमें चारों देवनिकायों की इन्द्राणियों के पूर्व-जीवन का विवरण दिया गया है। इन सब इन्द्राणियों के पूर्व-जीवन में इतनी समानता है कि एक का वर्णन करके दूसरी सभी के जीवन को उसी के सदृश समझ लेने का उल्लेख कर दिया गया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में दश वर्ग हैं / वर्ग का अर्थ है श्रेणी / एक श्रेणी की जीवनियां एक वर्ग में सम्मिलित कर दी गई हैं। प्रथम वर्ग में चमरेन्द्र की अग्रमहिषियों का वर्णन है / दूसरे वर्ग में वैरोचनेन्द्र बलीन्द्र की, तीसरे में असुरेन्द्र को छोड़कर दक्षिण दिशा के नौ भवनवासी-इन्द्रों की अग्रमहिषियों का और चौथे में उत्तर दिशा के इन्द्रों की अनमहिषियों का वर्णन है / पांचवें में दक्षिण और छठे में उत्तर दिशा के वाणव्यन्तर देवों की अग्रमहिषियों का, सातवें में ज्योतिष्केन्द्र की, आठवें में सूर्य-इन्द्र की तथा नौवें और दसवें वर्ग में वैमानिक निकाय के सौधर्मेन्द्र तथा ईशानेन्द्र की अग्रमहिषियों का वर्णन है। इन सब देवियों का वर्णन वस्तुतः उनके पूर्वभव का है, जिसमें वे मनुष्य पर्याय में महिला के रूप में जन्मी थी, उन्होंने साध्वीदीक्षा अंगीकार की थी और कुछ समय तक चारित्र की आराधना की थीं। कुछ काल के पश्चात् वे शरीर-बकुशा हो गईं, चारित्र की विराधना करने लगी / गुरुणी के मना करने पर भी विराधना के मार्ग से हटी नहीं। गच्छ से अलग होकर रहने लगी और अन्तिम समय में भी उन्होंने अपने दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमणा किये बिना ही शरीर-त्याग किया। राजगृह नगर में श्रमण भगवान महावीर का पदार्पण हुआ। उस समय चमरेन्द्र असुरराज को अग्रमहिषी (पटरानो) कालो देवी अपने सिंहासन पर आसीन थी। उसने अचानक अवधिज्ञान का उपयोग जम्बूद्वीप की ओर लगाया तो देखा कि भगवान् महावीर जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में राजगृह नगर में विराजमान हैं। यह देखते ही काली देवी सिंहासन से नीचे उतरी, जिस दिशा Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्रुतस्कन्ध : प्रथम वर्ग ] [ 525 में भगवान् थे, उसमें सात-पाठ कदम आगे गई और पृथ्वी पर मस्तक टेक कर उन्हें विधिवत् वन्दना की। तत्पश्चात् उसने भगवान् के समक्ष जाकर प्रत्यक्ष दर्शन करने, वन्दना और नमस्कार करने का निश्चय किया। उसी समय एक हजार योजन विस्तृत दिव्य यान की विक्रिया द्वारा तैयारी करने का आदेश दिया। यान तैयार हया और भगवान के समक्ष उपस्थित हई। वन्दन किया, नमस्कार किया। देवों की परम्परा के अनुसार अपना नाम-गोत्र प्रकाशित किया। फिर बत्तीस की नाट्यविधि दिखला कर वापिस लौट गई। काली देवी के चले जाने पर गौतम स्वामी ने भगवान् के समक्ष निवेदन किया-भंते ! काली देवी को यह दिव्य ऋद्धि-विभूति किस प्रकार प्राप्त हुई है ? तब भगवान् ने उसके पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाया--प्रामलकल्पा नगरी के काल नामक गाथापति की एक पुत्री थी। उसकी माता का नाम कालश्री था / पुत्री का नाम काली था / काली नामक वह पुत्री शरीर से बड़ी बेडोल थी / उसके स्तन तो इतने लम्बे थे कि नितम्ब भाग तक लटकते थे / अतएव उसे कोई बर नहीं मिला / वह अविवाहित ही रही। एक बार पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ का आमलकल्पा नगरी में पदार्पण हुा / काली ने धर्मदेशना श्रवण कर दीक्षा अंगीकार करने का संकल्प किया। माता-पिता ने सहर्ष अनुमति दे दी / ठाठ के साथ दोक्षा-महोत्सव मनाया गया / भगवान् ने दीक्षा प्रदान कर उसे आर्या पुष्पचूला को सौंप दिया / काली आर्या ने ग्यारह अंगों-आगमों का अध्ययन किया और यथाशक्ति तपश्चर्या करती हई संयम की प्राराधना करने लगी किन्तु कुछ समय के पश्चात् काली आर्या को शरीर के प्रति आसक्ति उत्पन्न हो गई / वह बार-बार अंग-उपांग धोती और जहाँ स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि करती, वहाँ जल छिड़कती। साध्वी-प्राचार से विपरीत उसकी यह प्रवृत्ति देखकर आर्या पुष्पचला ने उसे ऐसा न करने के लिए समझाया / वह नहीं मानी / बार-बार टोकने पर वह गच्छ से सम्बन्ध तोड़ कर अलग उपाश्रय में रहने लगी। अब वह पूरी तरह स्वच्छन्द हो गई। संयम की विराधिका बन गई / कुछ समय इसी प्रकार व्यतीत हुा / अन्तिम समय में उसने पन्द्रह दिन का अनशन-संथारा तो किया किन्तु अपने शिथिलाचार की न आलोचना की और न प्रतिक्रमण ही किया। भगवान् महावीर ने कहा-यही वह काली आर्या का जीव है, जो काली देवी के रूप में उत्पन्न हुआ है। गौतम स्वामी के पुनः प्रश्न करने पर भगवान् ने कहा—देवीभव का अन्त होने पर, उद्वर्तन करके काली देवो महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगी / वहाँ निरतिचार संयम की आराधना करके सिद्धि प्राप्त करेगी। ___ यह प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का सार-संक्षेप है। आगे के वर्गों और अध्ययनों की कथाएँ काली के ही समान हैं / अतएव उनका विस्तृत वर्णन नहीं किया गया है / केवल उनके नाम, पूर्वभव के माता-पिता, नगर आदि का उल्लेख करके शेष वृत्तान्त काली के समान जान लेने की सूचना कर दी गई है। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्रुतस्कंध : धर्मकथा प्रथम वर्ग प्रथम अध्ययन : काली प्रास्ताविक प्रथम श्रुतस्कंध में दृष्टान्तों द्वारा धर्म का प्रतिपादन किया गया है / इस द्वितीय श्रुतस्कंध में साक्षात् कथाओं द्वारा धर्म का अर्थ प्रकट किया गया है / १-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे होत्था / वण्णओ। तस्स णं रायगिहस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए तत्थ णं गुणसीलए णामं चेइए होत्था / वण्णओ। उस काल और उस समय में राजगृह नगर था। उसका वर्णन यहाँ कहना चाहिए / उस राजगृह के बाहर उत्तरपूर्व दिशाभाग (ईशान कोण) में गुणशील नामक चैत्य था। उसका भी वर्णन यहाँ प्रौपपातिकसूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए। सुधर्मा का आगमन २-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मा णामं थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना, कुलसंपन्ना जाव' चउद्दसपुव्वी, चउणाणोवगया, पंचहि अणगारसएहि सद्धि संपरिवुडा, पुवाणुपुरिव चरमाणा, गामाणुगामं दूइज्जमाणा, सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे, जेणेव गुणसीलए चेइए, जाव' संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति / उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी आर्य सुधर्मा नामक स्थविर उच्चजाति से सम्पन्न, कुल से सम्पन्न यावत् चौदह पूर्वो के वेत्ता और चार ज्ञानों से युक्त थे। वे पांच सौ अनगारों से परिवृत होकर अनुक्रम से चलते हुए, ग्रामानुग्राम विचरते हुए और सुखे-सुखे विहार करते हुए जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील चैत्य था, वहाँ पधारे / यावत् संयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे / जम्बू का प्रश्न ३–परिसा णिग्गया / धम्मो कहिओ / परिसा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी अज्जजंबू णामं अणगारे जाव' पज्जुबासमाणे एव वयासी-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छहस्स अंगस्स पढमसुयक्खंधस्स णायसुणाय अयमठे पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! सुयक्खंधस्य धम्मकहाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णते? सुधर्मास्वामी को वन्दना करने के लिए परिषद् निकली / सुधर्मास्वामी ने धर्म का उपदेश दिया / तत्पश्चात् परिषद् वापिस चली गई। उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा अनगार के अन्तेवासी आर्य जम्बू नामक अनगार 1. प्र. अ. सूत्र 4. 2. प्र. अ. सूत्र 4. 3. प्र. अ. सूत्र 6. 4. पाठान्तर-'नायाणं' / Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्रुतस्कन्ध अध्ययन : प्रथम वर्ग ] [ 527 यावत् सुधर्मास्वामी की उपासना करते हुए बोले-'भगवन् ! यदि यावत् सिद्धि को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने छठे अंग के 'ज्ञातश्रुत' नामक प्रथम श्रुतस्कंध का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा है, तो भगवन् ! धर्मकथा नामक द्वितीय श्रुतस्कंध का सिद्धपद को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? सुधर्मास्वामी का उत्तर ४–एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दस वग्गा पन्नत्ता, तंजहा(१) चमरस्स अग्गमहिसीणं पढमे वग्गे। (2) बलिस्स वइरोणिदस्स वइरोयणरण्णो अग्गमहिसोणं बीए वग्गे। (3) असुरिंदवज्जियाणं दाहिणिल्लाणं भवणवासीणं इंदाणं अग्गमहिसोणं तइए वग्गे / (4) उत्तरिल्लाणं असुरिंदवज्जियाणं भवणवासिइंदाणं अग्गमहिसीणं चउत्थे वग्गे। (5) दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसोणं पंचमे वग्गे। (6) उत्तरिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गहिसीणं छठे वग्गे। (7) चंदस्स अग्गमहिसोणं सत्तमे वगे। (8) सूरस्स अग्गमहिसीणं अट्टमे वग्गे / (9) सक्कस्स अग्गमहिसीणं णवमे वग्गे / (10) ईसाणस्स अग्गमहिसीणं दसमे वग्गे / श्री सुधर्मास्वामी ने उत्तर दिया-'इस प्रकार हे जम्बू ! यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने धर्मकथा नामक द्वितीय श्रुतस्कंध के दस वर्ग कहे हैं / वे इस प्रकार हैं--- (1) चमरेन्द्र की अग्नमहिषियों (पटरानियों) का प्रथम वर्ग / (2) वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि (बलीन्द्र) की अग्रमहिषियों का दूसरा वर्ग / (3) असुरेन्द्र को छोड़ कर शेष नौ दक्षिण दिशा के भवनपति इन्द्रों की अग्रमहिषियों का तीसरा वर्ग। (4) असुरेन्द्र के सिवाय नौ उत्तर दिशा के भवनपति इन्द्रों की अग्रमहिषियों का चौथा वर्ग / (5) दक्षिण दिशा के वाणव्यन्तर देवों के इन्द्रों की अग्रमहिषियों का पांचवाँ वर्ग / (6) उत्तर दिशा के वाणव्यन्तर देवों के इन्द्रों की अग्नमहिषियों का छठा वर्ग / (7) चन्द्र की अग्रमहिषियों का सातवा वर्ग / (8) सूर्य की अनमहिषियों का आठवाँ वर्ग। (9) शक्र इन्द्र की अग्रमहिषियों का नौवां वर्ग और (10) ईशानेन्द्र की अग्रमहिषियों का दसवाँ वर्ग / ५-जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दस वग्गा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते ! वग्गस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णते ? एवं खलु जंबू ! समजेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा.(१) काली (2) राई (3) रयणी (4) विज्जू (5) मेहा। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 ] [ ज्ञाताधर्मकथा जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णते ? जम्बूस्वामी पुनः प्रश्न करते हैं-भगवन् श्रमण भगवान् यावत् सिद्धिप्राप्त ने यदि धर्मकथा श्रुतस्कंध के दस वर्ग कहे हैं, तो भगवन् ! प्रथम वर्ग का श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान् ने क्या अर्थ कहा है ? आर्य सुधर्मा उत्तर देते हैं- जम्बू ! श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान् ने प्रथम वर्ग के पांच अध्ययन कहे हैं / वे इस प्रकार हैं-(१) काली (2) राजी (3) रजनी (4) विद्युत् और (5) मेघा / जम्बू ने पुनः प्रश्न किया-भगवन् ! श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त महावीर भगवान ने यदि प्रथम वर्ग के पांच अध्ययन कहे हैं तो हे भगवन् ! प्रथम अध्ययन का श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान् ने क्या अर्थ कहा है ? ६-'एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसीलए चेइए, सेणिए राया, चेलणा देवी / सामी समोसरिए / परिसा निग्गया जाव परिसा पज्जुवासइ / श्री सुधर्मास्वामी उत्तर देते हैं-जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था, गुणशील चैत्य था, श्रेणिक राजा था और चेलना रानी थी। उस समय स्वामी (भगवान् महावीर) का पदार्पण हुआ। वन्दना करने के लिए परिषद् निकली, यावत् परिषद् भगवान् को पर्युपासना करने लगी। काली देवी की कथा ७–तेणं कालेणं तेणं समएणं काली नामं देवी चमरचंचाए रायहाणीए कालडिसगभवणे कालंसि सीहासणंसि, चहि सामाणियसाहस्सीहि, चहि महयरियाहि, सपरिवाराहि, तिहि परिसाहि सहि अणिएहि, सहि अणियाहिवहि, सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि, अण्णेहि बहुएहि य कालडिसयभवणवासोहि असुरकुमारहिं देवेहिं देवीहि य सद्धि संपरिबुडा महयाहय जाव विहरइ। उस काल और उस समय में, काली नामक देवी चमरचंचा राजधानी में, कालावतंसक भवन में, काल नामक सिंहासन पर आसीन थी। चार हजार सामानिक देवियों, चार महत्तरिका देवियों, परिवार सहित तीनों परिषदों, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा अन्यान्य कालावतंसक भवन के निवासी असुरकुमार देवों और देवियों से परिवृत होकर जोर से बजने वाले वादित्र नृत्य गीत आदि से मनोरंजन करती हुई विचर रही थी। ८-इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी आभोएमाणी पासइ / तत्थ णं समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संयमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे पासइ, पासित्ता हट्ठतुचित्तमाणंदिया पीइमणा हयहियया सोहासणाओ अन्भुठेइ, अन्भुद्वित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरहित्ता पाउयाओ ओमुयइ, Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्रुतस्कन्ध : प्रथम वर्ग } [ 529 ओमुइत्ता तित्थगराभिमुही सत्तटु पयाई अणुगच्छद, अणुगच्छित्ता वामं जाणुअंचेइ, अंचित्ता दाहिणं जाणु धरणियलंसि निहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेइ, निवेसित्ता ईसि पच्चुण्णमइ, पच्चण्णमइत्ता कडय-तुडिय-थंभियाओ भुयाओ साहरइ, साहरित्ता करयल जाव [परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि] कटु एवं क्यासी-- वह काली देवी इस केवल-कल्प (सम्पूर्ण) जम्बूद्वीप को अपने विपुल अवधिज्ञान से उपयोग लगाती हुई देख रही थी। उसने जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में, राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में, यथाप्रतिरूप-साधु के लिए उचित स्थान की याचना करके, संयम और तप द्वारा प्रात्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर को देखा / देखकर वह हर्षित और संतुष्ट हुई। उसका चित्त प्रानन्दित हुया / मन प्रीतियुक्त हो गया। वह अपहृतहृदय होकर सिंहासन से उठी। पादपीठ से नीचे उतरो / उसने पादुका (खडाऊँ) उतार दिए / फिर तीर्थकर भगवान् के सन्मुख सात-पाठ पर आगे बढ़ी। बढ़कर बायें घुटने को ऊपर रखा और दाहिने घुटने को पृथ्वी पर टेक दिया। फिर मस्तक कूछ ऊँचा किया। तत्पश्चात् कड़ों और बाजबंदों से स्तंभित भजात्रों को मिलाया / मिलाकर, दोनों हाथ जोड़कर [मस्तक पर अंजलि करके, आवर्त करके] इस प्रकार कहने लगी ९–णमोऽत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इह गए, पासउ णं मे समणे भगवं महावीरे तत्थ गए इह गयं, ति कटु वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहा निसण्णा / यावत् सिद्धि को प्राप्त अरिहन्त भगवन्तों को नमस्कार हो / यावत् सिद्धि को प्राप्त करने की इच्छा वाले श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार हो / यहाँ रही हुई मैं, वहाँ स्थित भगवान् को वन्दना करती हूँ। वहाँ स्थित श्रमण भगवान् महावीर, यहाँ रही हुई मुझको देखें / इस प्रकार कह कर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके पूर्व दिशा की ओर मुख करके अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन हो गई। १०-तए णं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था—'सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जुवासित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता आभिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दाविता एवं वयासी -'एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवं जहा सूरियाभो तहेव आणत्तियं देइ, जाव दिव्वं सुरवराभिगमणजोग्गं करेह / करित्ता जाव पच्चप्पिणह।' ते वि तहेव जाव करित्ता जाव पच्चप्पिणंति, णवरं जोयणसहस्सविच्छिन्नं जाणं, सेसं तहेव / णामगोयं साहेइ, तहेब नट्टविहिं उवदंसेइ, जाव पडिगया। __तत्पश्चात् काली देवी को इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुा-'श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना करके यावत् उनको पर्युपासना करना मेरे लिए श्रेयस्कर है। उसने ऐसा विचार किया। विचार करके पाभियोगिक देवों को बुलाया। बुलाकर उन्हें इस प्रकार कहा- 'देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में विराजमान हैं, इत्यादि जैसे सूर्याभ देव ने अपने 1. विस्तार के लिए देखिए राजप्रश्नीय सूत्र 9. सारांश पहले दिया जा चका है। देखें पृष्ठ 338. Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530 ] [ ज्ञाताधर्मकथा आभियोगिक देवों को प्राज्ञा दी थी, उसी प्रकार काली देवी ने भी प्राज्ञा दी यावत् 'दिव्य और श्रेष्ठ देवताओं के गमन के योग्य यान-विमान बनाकर तैयार करो, यावत् मेरी प्राज्ञा वापिस सौंपों।' आभियोगिक देवों ने आज्ञानुसार कार्य करके आज्ञा लौटा दी। यहाँ विशेषता यही है कि हजार योजन विस्तार वाला विमान बनाया (जबकि सूर्याभ देव के लिए लाख योजन का विमान बनाया गया था)। शेष वर्णन सूर्याभ के वर्णन के समान ही समझना चाहिए। सूर्याभ की तरह ही भगवान् के पास जाकर अपना नाम-गोत्र कहा, उसी प्रकार नाटक दिखलाया। फिर वन्दन-नमस्कार करके काली देवी वापिस चली गई। ११-भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी–कालीए णं भंते! देवीए सा दिव्वा देविड्डी कहिं गया ?' कूडागारसाला-दिळंतो। 'अहो भगवन् !' इस प्रकार संबोधन करके भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया, वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भगवन् ! काली देवी की वह दिव्य ऋद्धि कहाँ चली गई ?' भगवान् ने उत्तर में कूटाकारशाला का दृष्टान्त दिया।' काली देवी का पूर्वभव १२–'अहो णं भंते ! काली देवी महिट्टिया। कालीए णं भंते ! देवीए सा दिव्वा देविड्डी किण्णा लद्धा? किण्णा पत्ता ? किण्णा अभिसमग्णागया ?' एवं जहा सूरियाभस्स जाब एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दोवे भारहे वासे आमलकप्पा णाम णयरी होत्था / वण्णओ। अंबसालवणे चेइए / जियसत्तू राया। 'अहो भगवन् ! काली देवी महती ऋद्धि वाली है / भगवन् ! काली देवी को वह दिव्य देवधि पूर्वभव में क्या करने से मिली? देवभव में कैसे प्राप्त हुई ? और किस प्रकार उसके सामने आई, अर्थात् उपभोग में आने योग्य हुई ?' / यहाँ भी सूर्याभ देव के समान ही कथन समझना चाहिए। भगवान् ने कहा- 'हे गौतम ! उस काल और उस समय में, इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, पामलकल्पा नामक नगरी थी। उसका वर्णन करना चाहिए। उस नगरी के बाहर ईशान दिशा में अाम्रशालवन नामक चैत्य (वन) था / उस नगरी में जितशत्रु नामक राजा था। १३-तत्थ णं आमलकप्पाए नयरीए काले णामं गाहावई होत्था, अड्ढे जाव अपरिभूए / तस्स णं कालस्स गाहावइस्स कालसिरी णामं भारिया होत्या, सुकुमालपाणिपाया जाव सुरूवा / तस्स णं कालगस्स गाहावइस्स धूया कालसिरीए भारियाए अत्तया काली णामं दारिया होत्था, वड्डा वड्डकुमारी जुण्णा जुण्णकुमारी पडियपुयस्थणी णिविन्नवरा वरपरिवज्जिया वि होत्था। उस आमलकल्पा नगरी में काल नामक गाथापति (गृहस्थ) रहता था। वह धनाढ्य था और किसी से पराभूत होने वाला नहीं था। काल नामक गाथापति की पत्नी का नाम कालश्री था / वह सुकुमार हाथ पैर प्रादि अवयवों वाली यावत् मनोहर रूप वाली थी / उस काल गाथापति की पुत्री और कालश्री भार्या को आत्मजा काली नामक बालिका थी / वह (उम्र से) बड़ी थी और बड़ी 1. दृष्टान्त का विवरण पहले आ चुका है, देखिये पृष्ठ 339. Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्रुतस्कन्ध : प्रथम वर्ग ] [ 531 होकर भी कुमारी (अविवाहिता) थी / वह जोर्णा (शरीर से जीर्ण होने के कारण वृद्धा) थी और जीर्ण होते हुए कुमारी थी। उसके स्तन नितंब प्रदेश तक लटक गये थे / वर (पति बनने वाले पुरुष) उससे विरक्त हो गये थे अर्थात् कोई उसे चाहता नहीं था, अतएव वह वर-रहित अविवाहित रह रही थी। १४–तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा बद्धमाणसामी, णवरं णवहत्थुस्सेहे सोलसहि समणसाहस्सोहि अटुत्तीसाए अज्जियासाहस्सोहिं सद्धि संपरिवुडे जाव अंबसालवणे समोसढे, परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ / __उस काल और उस समय में पुरुषादानीय (पुरुषों में प्रादेय नामकर्म वाले) एवं धर्म की आदि करने वाले पार्श्वनाथ अरिहंत थे वनाथ अरिहंत थे। वे वर्धमान स्वामी के समान थे। विशेषता केवल इतनी थी कि उनका शरीर नौ हाथ ऊँचा था तथा वे सोलह हजार साधुनों और अड़तीस हजार साध्वियों से परिवृत थे / यावत् वे पुरुषादानीय पार्श्व तीर्थकर आम्रशालवन में पधारे / वन्दना करने के लिए परिषद् निकली, यावत् वह परिषद् भगवान् की उपासना करने लगी। १५--तए णं सा काली दारिया इमीसे कहाए लढा सभाणी हट जाव हियया जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु अम्मयाओ ! पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जाव विहरइ, तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुब्भेहि अन्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवंदिया गमित्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि / ' तत्पश्चात् वह काली दारिका इस कथा का अर्थ प्राप्त करके अर्थात् भगवान् के पधारने का समाचार जानकर हर्षित और संतुष्ट हृदय वाली हुई / जहाँ माता-पिता थे, वहाँ गई / जाकर दोनों हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोली-'हे माता-पिता ! पार्श्वनाथ अरिहन्त पुरुषादानीय, धर्मतीर्थ की अादि करने वाले यावत् यहाँ विचर रहे हैं / अतएव हे माता-पिता ! आपकी आज्ञा हो तो मैं पार्श्वनाथ अरिहन्त पुरुषादानीय के चरणों में वन्दना करने जाना चाहती हैं।' माता-पिता ने उत्तर दिया-'देवानुप्रिये ! तुझे जैसे सुख उपजे, वैसा कर / धर्म कार्य में विलम्ब मत कर।' १६.-तए णं सा कालिया दारिया अम्मापिईहिं अब्भणुनाया समाणी हट्ट जाव हियया व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता सुद्धप्पवेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिया अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा चेडिया-चक्कवाल-परिकिण्णा साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा / तत्पश्चात् वह काली नामक दारिका का हृदय माता-पिता की आज्ञा पाकर हर्षित हुआ। उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया तथा साफ, सभा के योग्य, मांगलिक और श्रेष्ठ वस्त्र धारण किये। अल्प किंतु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को भूषित किया। फिर दासियों के समूह से परिवृत होकर अपने गृह से निकली / निकल कर जहाँ बाहर की Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532 ] [ज्ञाताधर्मकथा उपस्थानशाला (सभा) थी, वहाँ आई / आकर धर्मकार्य में प्रयुक्त होने वाले श्रेष्ठ यान पर प्रारूढ़ हुई। १७--तए णं सा काली दारिया धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा समाणी एवं जहा दोवई जाव पज्जुवासइ / तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महइमहालियाए परिसाए धम्मं कहेइ। तत्पश्चात् काली नामक दारिका धार्मिक श्रेष्ठ यान पर आरूढ होकर द्रौपदी के समान भगवान को वन्दना करके उपासना करने लगी। उस समय पुरुषादानीय तीर्थंकर पार्श्व ने कालो नामक दारिका को और उपस्थित विशाल जनसमूह को धर्म का उपदेश दिया। १८-तए णं सा काली दारिया पासस्स अरहओ परिसादाणीयस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट जाव हियया पासं अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-'सहहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं जाव' से जहेयं तुन्भे वयह, जं णवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव [मुंडा भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं] पव्वयामि / ' 'अहासुहं देवाणुप्पिए ?' तत्पश्चात् उस काली नामक दारिका ने पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्वनाथ के पास से धर्म सुन कर और उसे हृदयंगम करके, हर्षितहृदय होकर यावत् पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्वनाथ को तीन बार वन्दना की, नमस्कार किया / वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया'भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ / यावत् पाप जैसा कहते हैं, वह वैसा ही है / केवल, हे देवानुप्रिये ! मैं अपने माता-पिता से पूछ लेती हूँ, उसके बाद मैं आप देवानुप्रिय के निकट [मुडित होकर गृहत्याग करके] प्रव्रज्या ग्रहण करूगी। भगवान ने कहा-'देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सूख उपजे, करो।' १९-तए णं सा काली दारिया पासेणं अरहया पुरिसादरणीएणं एवं वुत्ता समाणी हट्ठ जाव डियया पासं अरहं वंदड, नमसड, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं वरूडडदहिता पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियाओ अंबसालवणाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आमलकप्पं णार मज्झमझेणं जेणेव बाहिरिया उवदाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणपवरं ठवेई, ठवित्ता धम्मियामो जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता करयल जाव एवं वयासी तत्पश्चात् पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्व के द्वारा इस प्रकार कहने पर वह काली नामक दारिका हर्षित एवं संतुष्ट हृदय वाली हुई। उसने पार्श्व अरिहंत को वन्दन और नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके वह उसी धार्मिक श्रेष्ठ यान पर आरूढ हुई। आरूढ होकर पुरुषादानीय 1. प्र.अ. सूत्र 115. Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्रुतस्कन्ध : प्रथम वर्ग ] [533 अरिहन्त पार्श्व के पास से, अाम्रशाल बन नामक चैत्य से बाहर निकली और पामलकल्पा नगरी की ओर चली / आमलकल्पा नगरी के मध्य भाग में होकर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी वहाँ पहुँची / धार्मिक एवं श्रेष्ठ यान को ठहराया और फिर उससे नीचे उतरी। फिर अपने माता-पिता के पास जाकर और दोनों हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार बोली २०–'एवं खलु अम्मयाओ ! मए पासस्स अरहओ अंतिए धम्मे णिसंते, से वि य णं धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए, तए णं अहं अम्मयाओ! संसारभउधिग्गा, भीया जम्मणमरणाणं इच्छामि गं तुब्भेहिं अभणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ अंतिए मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेह / ' 'हे माता-पिता ! मैंने पार्श्वनाथ तीर्थंकर से धर्म सुना है और उस धर्म की मैंने इच्छा की है, पुनः पुनः इच्छा की है। वह धर्म मुझे रुचा है। इस कारण हे मात-तात ! मैं संसार के भय से उद्विग्न हो गई हूँ, जन्म-मरण से भयभीत हो गई हूँ। आपकी आज्ञा पाकर पार्श्व अरिहन्त के समीप मुडित होकर, गृहत्याग कर अनगारिता की प्रव्रज्या धारण करना चाहती हूँ।' माता-पिता ने कहा-'देवानुप्रिये ! जैसे सुख उपजे, करो / धर्मकार्य में विलंब न करो।' २१–तए णं से काले गाहावई विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परियणं आमतेइ, आमंतित्ता ततो पच्छा व्हाए जाब विपुलेणं पुप्फवत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परियणस्स पुरओ कालियं दारियं सेयापीएहि कलसेहि व्हावेइ, पहावित्ता सवालंकारविभूसियं करेइ, करित्ता पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूहेइ, दुरूहित्ता मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सद्धि संपरिबुडा सव्वड्डीए, जाव रवेणं आमलकप्पं नरि मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव अंबसालवणे चेइए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्ताईए तित्थगराइसए पासइ, पासित्ता सीयं ठवेइ, ठवित्ता कालियं दारियं सीयाओ पच्चोरहेइ / तए णं कालि दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासो--- तत्पश्चात् काल नामक गाथापति ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन तैयार करवाया। तैयार करवाकर मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकों, स्वजनों, संबंधियों और परिजनों को आमंत्रित किया / आमंत्रण देकर स्नान किया। फिर यावत् विपुल पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य और अलंकार से उनका सत्कार-सन्मान करके उन्हीं ज्ञाति, मित्र, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों के सामने काली नामक दारिका को श्वेत एवं पीत अर्थात् चांदी और सोने के कलशों से स्नान करवाया। स्नान करवाने के पश्चात् उसे सर्व अलंकारों से विभूषित किया / फिर पुरुषसहस्रवाहिनी शिविका पर आरूढ किया। प्रारूढ करके मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों के साथ परिवत होकर सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ, यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ, अामलकल्पा नगरी के बीचों-बीच होकर निकले / निकल कर अाम्रशालवन की ओर चले / चलकर छत्र आदि तीर्थकर भगवान के अतिशय देखे / अतिशयों पर दृष्टि पड़ते ही शिविका रोक दी गई। फिर माता-पिता काली नामक दारिका को शिविका से नीचे उतार कर और फिर उसे पागे करके जिस अोर पुरुषादानीय तीर्थंकर Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534 ] [ ज्ञाताधर्मकथा पार्श्व थे, उसी पोर गये / जाकर भगवान् को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करने के पश्चात् इस प्रकार कहा २२-'एवं खलु देवाणुप्पिया! काली दारिया अम्हं धूया इट्ठा कंता जाव किमंग पुण पासणयाए ? एस णं देवाणुप्पिया ! संसार-भउविग्गा इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता णं जाव पब्वइत्तए, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं सिस्सिणीभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणीभिक्खं / ' 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / ' _ 'देवानुप्रिय ! काली नामक दारिका हमारी पुत्री है। हमें यह इष्ट है और प्रिय है, यावत् इसका दर्शन भी दुर्लभ है / देवानुप्रिय ! यह संसार-भ्रमण के भय से उद्विग्न होकर आप देवानुप्रिय के निकट मुडित होकर यावत् प्रवजित होने की इच्छा करती है। अतएव हम यह शिष्यनीभिक्षा देवानुप्रिय को प्रदान करते हैं / देवानुप्रिय ! शिष्यनीभिक्षा स्वीकार करें।' भगवान बोले-'देवानुप्रिय ! जैसे सूख उपजे करो। धर्मकार्य में विलम्ब न करो।' २३-तए णं सा काली कुमारी पासं अरहं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरथिमं दिसिभायं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव लोयं करेइ, करिता जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता पासं अरहं तिक्खुत्तो वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते णं भंते ! लोए, एवं जहा देवाणंदा,' जाव सयमेव पवावेउं / तत्पश्चात् काली कुमारी ने पार्श्व अरिहंत को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके वह उत्तरपूर्व (ईशन) दिशा के भाग में गई / वहाँ जाकर उसने स्वयं ही प्राभूषण, माला और अलंकार उतारे और स्वयं ही लोच किया। फिर जहाँ पुरुषादानीय अरहन्त पार्श्व थे वहाँ पाई। पाकर पार्श्व अरिहन्त को तीन बार वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोली-'भगवन् ! यह लोक प्रादीप्त है अर्थात् जन्म-मरण आदि के संताप से जल रहा है, इत्यादि (भगवतीसूत्रणित) देवानन्दा के समान जानना चाहिए / यावत् मैं चाहती हूँ कि आप स्वयं ही मुझे दीक्षा प्रदान करें। २४-तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालि सयमेव पुप्फचलाए अज्जाए सिस्सिणियत्ताए दलयति / तए णं सा पुष्फचूला अज्जा कालि कुमारि सयमेव पवावेइ, जाव उवसंपज्जित्ता णं विहरइ / तए णं सा काली अज्जा जाया ईरियासमिया जाव' गुत्तबंभयारिणी। तए णं सा कालो अज्जा पुप्फचूलाअज्जाए अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूणि चउत्थ जाव [छट्ठट्ठमदसमदुवालसेहि मासद्धमासखमहिं अप्पाणं भावेमाणी] विहरइ / तत्पश्चात् पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्व ने स्वयमेव काली कुमारी को, पुष्पचूला प्रार्या को शिष्यनी के रूप में प्रदान किया। ___ तब पुष्पचला आर्या ने काली कुमारी को स्वयं ही दीक्षित किया। यावत् वह काली प्रव्रज्या अंगीकार करके विचरने लगी। तत्पश्चात् वह काली आर्या ईर्यासमिति से युक्त यावत् गुप्त 1. भगवती. श. 9 2. प्र. 14 सू. 28. Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्रुतस्कन्ध : प्रथम वर्ग ] [ 535 ब्रह्मचारिणी प्रार्या हो गई / तदनन्तर उस काली आर्या ने पुष्पचूला पार्या के निकट सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा बहुत-से चतुर्थभक्त-उपवास, [षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशमभक्त, अर्धमासखमण, मासखमण] अादि तपश्चरण करती हुई विचरने लगी। २५-तए णं सा काली अज्जा अन्नया कयाइं सरीरवाउसिया जाया यावि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवइ, पाए धोवइ, सीसं धोवइ, मुहं धोवइ, थणंतराइं धोवइ, कवखंतराणि धोवइ, गुज्झंतराई धोवइ, जत्य जत्थ वि य णं ठाणं वा सेज्ज वा णिसीहियं वा चेएइ, तं पुवामेव अब्भुक्खेत्ता पच्छा आसयइ वा सयइ वा / तत्पश्चात् किसी समय, एक बार काली प्रार्या शरीरबाकुशिका (शरीर को साफ-सुथरा रखने की वृत्ति वाली—शरीरासक्त) हो गई / अतएव वह बार-बार हाथ धोने लगी, पैर धोने लगी, सिर धोने लगी, मुख धोने लगी, स्तनों के अन्तर धोने लगी, कांखों के अन्तर-प्रदेश धोने लगी और गुह्यस्थान धोने लगी / जहाँ-जहाँ वह कायोत्सर्ग, शय्या या स्वाध्याय करती थी, उस स्थान पर पहले जल छिड़क कर बाद में बैठती अथवा सोती थी। २६-तए णं सा पुष्फजूला अज्जा कालि अज्जं एवं बयासी-नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिए ! समणोणं णिम्गंथीणं सरीरबाउसियाणं होत्तए, तुमं च णं देवाणुप्पिए, सरीरबाउसिया जाया अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवसि जाव आसयाहि वा सयाहि वा, तं तुमं देवाणुप्पिए ! एयरस ठाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्तं पडिवज्जाहि।' तब पुष्पचला आर्या ने उस काली आर्या से कहा-'देवानुप्रिये ! श्रमणी निन्थियों को शरीरबकुशा होना नहीं कल्पता और तुम देवानुप्रिये ! शरीरबकुशा हो गई हो / वार-वार हाथ धोती हो, यावत् पानी छिड़ककर बैठती और सोती हो / अतएव देवानुप्रिये ! तुम इस पापस्थान की अालोचना करो, यावत् प्रायश्चित्त अंगीकार करो।' २७-तए णं सा काली अज्जा पुष्फचूलाए एयमझें नो आढाइ जाव तुसिणीया संचिट्ठइ। तब काली प्रार्या ने पुष्पचूला प्रार्या की यह बात स्वीकार नहीं की। यावत् वह चुप बनी रही। २८--तए गं ताओ पुप्फचूलाओ अज्जाओ कालि अज्ज अभिक्खणं अभिक्खणं हीलेंति, णिदंति, खिसंति, गरिहंति, अवमण्णंति, अभिक्खणं अभिवखणं एयमद्वं निवारेति / तत्पश्चात् वे पुष्पचूला प्रादि आर्याएँ, काली आर्या की बार-बार अबहेलना करने लगीं, निन्दा करने लगीं, चिढ़ने लगीं, गहीं करने लगीं, अवज्ञा करने लगीं और बार-बार इस अर्थ (निषिद्ध कर्म) को रोकने लगीं। २९-तए णं तीसे कालीए अज्जाए समणीहि णिग्गंथीहि अभिक्खणं अभिक्खणं होलिज्जमाणीए जाव निवारिज्जमाणीए इमेयारवे अज्झिथिए जाव समुप्पज्जित्था---'जया णं अहं अगारवासमझे वसित्था, तया णं अहं सयंवसा, जपभिई च अहं मुंडा भविता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, तप्पभिई च णं अहं परवसा जाया, तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 536 ] [ ज्ञाताधर्मकथा जलते पाडिक्कियं उवस्सयं उवसंपज्जिताणं विहरित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाय जलते पाडिएक्कं उवस्सयं गिण्हइ, तत्थ णं अणिवारिया अणोहट्टिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवइ, जाव आसयइ वा सयइ वा। ___निग्रंथी श्रमणियों द्वारा बार-बार अवहेलना की गई यावत् रोकी गई उस काली आर्यिका के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुअा-'जब मैं गृहवास में वसती थी, तब मैं स्वाधीन थी, किन्तु जब से मैंने मुडित होकर गृहत्याग कर अनगारिता की दीक्षा अंगीकार की है, तब से मैं पराधीन हो गई हूँ / अतएव कल रजनी के प्रभातयुक्त होने पर यावत् सूर्य के देदीप्यमान होने पर अलग उपाश्रय ग्रहण करके रहना ही मेरे लिए श्रेयस्कर होगा / उसने ऐसा विचार किया। विचार करके दूसरे दिन सूर्य के प्रकाशमान होने पर उसने पृथक् उपाश्रय ग्रहण कर लिया / वहाँ कोई रोकने वाला नहीं रहा, हटकने (निषेध करने) वाला नहीं रहा, अतएव वह स्वच्छंदमति हो गई और बारबार हाथ-पैर आदि धोने लगी, यावत् जल छिड़क-छिड़क कर बैठने और सोने लगी। ३०---तए णं सा कालो अज्जा पासत्या पासथविहारी, ओसण्णा ओसण्णविहारी, कुसीला कुसीलविहारी, अहाछंदा, अहाछंदविहारी, संसत्ता संसत्तविहारी, बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, झूसित्ता तीसं भताई अणसणाए छेएइ, छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयअप्पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणोए कालडिसए भवणे उववायसभाए देवसणिज्जंसि देवदूसंतरिया अंगुलस्स असंखेज्जाए भागमेत्ताए ओगाहणाए कालीदेवित्ताए उववन्ना / तत्पश्चात् वह काली प्रार्या पासत्था (पार्श्वस्था-ज्ञान दर्शन चारित्र के पास रहने वाली) पासथविहारिणी, अवसन्ना, (धर्म-क्रिया में आलसी) अवसन्नविहारिणी, कुशीला, कुशीलविहारिणी, यथाछंदा (मनचाहा व्यवहार करने वाली), यथाछंदविहारिणी, संसक्ता (ज्ञानादि की विराधना करने वाली) तथा संसक्तविहारिणी होकर, बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय (साध्वी-अवस्था का पालन करके, अर्द्धमास (एक पखवाड़े) की संलेखना द्वारा आत्मा (अपने शरीर) को क्षीण करके तीस बार के भोजन को अनशन से छेद कर, उस पापकर्म की पालोचना-प्रतिक्रमण किए बिना ही, कालमास में काल करके चमरचंचा राजधानी में, कालावतंसक नामक विमान में, उपपात (देवों के उत्पन्न होने की) सभा में, देवशय्या में, देवदूष्य वस्त्र से अंतरित होकर (देवदूष्य वस्त्र के नीचे) अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना द्वारा, काली देवी के रूप में उत्पन्न हुई। ३१-तए णं सा काली देवी अहुणोववन्ना समाणी पंचविहाए पज्जत्तीए जहा सूरियाभो जाव भासामणपज्जत्तीए / तत्पश्चात् काली देवो उत्पन्न होकर तत्काल (अन्तर्मुहूर्त में) सूर्याभ देवी की तरह यावत् भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति आदि पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से युक्त हो गई। ३२–तए णं सा काली देवी चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव अण्णेसि च बहूणं कालवडेंसगभवणवासीणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव विहरई। एवं खलु गोयमा ! कालीए देवीए सा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवज्जुई दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए। Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्रुतस्कन्ध : प्रथम वर्ग ]. [ 537 तत्पश्चात् वह काली देवी चार हजार सामानिक देवों तथा अन्य बहुतेरे कालावतंसक नामक भवन में निवास करने वाले असुरकुमार देवों और देवियों का अधिपतित्व करती हुई यावत् रहने लगी / इस प्रकार हे गौतम ! काली देवी ने वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव प्राप्त किया है यावत् उपभोग में आने योग्य बनाया है / ३३-कालीए णं भंते ! देवीए केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! अड्डाइज्जाइं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। काली गं भंते ! देवो ताओ देवलोगाओ अणंतरं उववट्टित्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, जाव अंतं काहिइ / गौतम स्वामी ने प्रश्न किया---'भगवन् ! काली देवी की कितने काल की स्थिति कही भगवान्– 'हे गौतम ! अढ़ाई पल्योपम की स्थिति कही है।' गौतम-'भगवन् ! काली देवी उस देवलोक से अनन्तर चय करके (शरीर त्याग) कर कहाँ उत्पन्न होगी ?' भगवान्-'गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर यावत् सिद्धि प्राप्त करेगी यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगी।' ___३४-एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमवग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते त्ति बेमि // 14 // श्री सुधर्मास्वामी अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं- हे जम्बू ! यावत् सिद्धि को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है / वही मैंने तुमसे कहा है। ३५---जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वगस्स पढमज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते बिइयस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते ? ____ जम्बूस्वामी ने अपने गुरुदेव आर्य सुधर्मा से प्रश्न किया-'भगवन् ! यदि यावत् सिद्धि को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने धर्मकथा के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?' ___३६–एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णगरे, गुणसीलए चेइए, सामी समोसढे, परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ / श्री सुधर्मास्वामी ने उत्तर दिया-हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था तथा गुणशील नामक उद्यान था। स्वामी (भगवान् महावीर) पधारे / बन्दन करने के लिए परिषद् निकली यावत् भगवान की उपासना करने लगी। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 ] [ ज्ञाताधर्मकथा ३७-तेणं कालेणं तेणं समएणं राई देवी चमरचंचाए रायहाणीए एवं जहा काली तहेव आगया, पट्टविहिं उवदंसेत्ता पडिगया। 'भंते ति' भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता पुश्वभवपुच्छा। उस काल और उस समय में राजी नामक देवी चमरचंचा राजधानी से काली देवी के समान भगवान् की सेवा में आई और नाट्यविधि दिखला कर चली गई। उस समय 'हे भगवन् !' इस प्रकार कह कर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करके राजी देवी के पूर्वभव को पृच्छा की / (तब भगवान् ने आगे कहा जाने वाला वृत्तान्त कहा)। ३८-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं आमलकप्पा णयरी, अंबसालवणे चेइए, जियसत्त राया, राई गाहावई, राईसिरी भारिया, राई दारिया, पासस्स समोसरणं, राई दारिया जहेव काली तहेव णिक्खंता तहेव सरीरबाउसिया, तं चेव सव्वं जाव अंतं काहिइ। हे गौतम ! उस काल और उस समय में आमलकल्पा नगरी थी। अाम्रशालवन नामक उद्यान था। जितशत्रु राजा था। राजी नामक गाथापति था। उसकी पत्नी का नाम राजश्री था। राजी उसकी पुत्री थी। किसी समय पार्श्व तीर्थकर पधारे / काली की भांति राजी दारिका भी भगवान् को वन्दना करने के लिए निकली / वह भी काली की तरह दीक्षित होकर शरीरबकुश हो गई / शेष समस्त वृत्तान्त काली के समान ही समझना चाहिए, यावत् वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेगी। ३९–एवं खलु जंबू ! बिइयज्मयणस्स निक्खेवओ। इस प्रकार हे जम्बू ! द्वितीय अध्ययन का निक्षेप जानना चाहिए / Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं [तृतीय अध्ययन] रजनी ४०-जइ गं भंते ! तइयस्स उक्खेवओ [समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स बिइयज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते, तइयस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महाबीरेणं के अट्ठ पण्णते? तीसरे अध्ययन का उत्क्षेप (उपोद्घात) इस प्रकार है-'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने धर्मकथा के प्रथम वर्ग के द्वितीय अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा है तो, भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने तीसरे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? ४१-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसोलए चेइए, एवं जहेव राई तहेव रयणी वि / गवरं-आमलकप्पा गयरी, रयणी (रयणे) गाहावई, रयणसिरी भारिया, रयणी दारिया, सेसं तहेव जाव अंते काहिइ। जम्बूस्वामी के प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा ने कहा-जम्बू ! राजगृह नगर था, गुणशील चैत्य था इत्यादि जो वृत्तान्त राजी के विषय में कहा गया है, वही सब रजनी के विषय में भी नाट्यविधि दिखलाने प्रादि का वृत्तान्त कहना चाहिए। विशेषता यह है-आमलकल्पा नगरी में रजनी (रयण-रत्न ?) नामक गाथापति था। उसकी पत्नी का नाम रजनीश्री था। उसकी पुत्री का भी नाम रजनी था / शेष सब वृत्तान्त पूर्ववत् समझ लेना चाहिए, यावत् वह महाविदेह क्षेत्र से मुक्ति प्राप्त करेगी। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं अज्झयग [चतुर्थ अध्ययन विज्ज-विद्युत् ४२–एवं विज्जू वि / आमलकप्पा नयरी। विज्जू गाहावाई / विज्जूसिरी भारिया / विज्जू दारिया / सेसं तहेव। इसी प्रकार विद्युत देवी का कथानक समझना चाहिए / विशेष यह कि प्रामलकल्पा नगरी थी। उसमें विद्युत नामक गाथापति निवास करता था। उसकी पत्नी विद्युतश्री थी। विद्युत् नामक उसकी पुत्री थी / शेष समग्र कथा पूर्ववत् / Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं [पञ्चम अध्ययन मेहा-मेघा ४३-एवं मेहा वि। आमलकप्पाए नयरीए मेहे गाहावई, मेहसिरी भारिया, मेहा दारिया, सेसं तहेव / मेघा देवी का कथानक भी ऐसा ही जान लेना चाहिए / नामों की विशेषता यों है-- आमलकल्पा नगरी थी। उसमें मेघ नामक गाथापति निवास करता था। मेघश्री उसकी भार्या थी। पुत्री का नाम मेघा था। शेष कथन पूर्ववत्, अर्थात् उसने भी आकर नाट्यप्रदर्शन किया। उसके चले जाने के पश्चात् गौतमस्वामी ने उसके विषय में जिज्ञासा की / भगवान ने उसके पूर्वभव का वृत्तान्त बतलाया और अन्त में कहा कि वह भी सिद्धि प्राप्त करेगी। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ वग्गो-द्वितीय वर्ग पढमं अज्झयणं प्रथम अध्ययन ४४--जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं-जाव दोच्चस्स वग्गस्स उक्खेवओ। जम्बूस्वामी ने प्रश्न किया--भगवन् ! यावत् मुक्तिप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने प्रथम वर्ग का यह अर्थ कहा है तो दूसरे वर्ग का क्या अर्थ कहा है ? ४५---एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा--(१) सुभा (2) निसुभा (3) रंभा (4) निरंभा (5) मदणा। श्री सुधर्मास्वामी उत्तर देते हैं-जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान् महावीर ने दूसरे वर्ग के पांच अध्ययन कहे हैं / वे इस प्रकार हैं-(१) शंभा (2) निशुभा (3) रंभा (4) निरंभा और (5) मदना। ४६-जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दोच्चस्स यग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, दोच्चस्स णं भंते ! वग्गस्स पढमज्झयणस्स के अट्ठे पण्णते? (प्रश्न) भगवन् ! यदि श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने धर्मकथा के द्वितीय वर्ग के पांच अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं तो द्वितीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है ? ४७-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे, गुणसोलए चेइए, सामो समोसढे, परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ / (उत्तर) जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था, गुणशील चैत्य था / भगवान का पदार्पण हुआ / परिषद् (नगर से) निकली और भगवान् की उपासना करने लगी। ४८-तेणं कालेणं तेणं समएणं सुभा देवी बलिचंचाए रायहाणीए सुंभवडेसए भवने सुभंसि सीहासणंसि विहरइ / कालीगमएणं जाव नट्टविहिं उवदंसेत्ता पडिगया। उस काल और उस समय में (भगवान् जब राजगृह में पधारे तब) शुभानामक देवी बलिचंचा राजधानी में, शुभावतंसक भवन में शुभ नामक सिंहासन पर आसीन थी, इत्यादि काली देवी के अध्ययन के अनुसार समग्र वृत्तान्त कहना चाहिए / वह नाट्यविधि प्रदर्शित करके वापिस लौट गई। ४९-पुव्वभवपुच्छा / सावत्थी नयरी, कोट्ठए चेइए, जियसत्तू राया, सुभे गाहावई, सुभसिरो भारिया, सुभा दारिया, सेसं जहा कालीए। वरं अद्ध छाई पलिओवमाइं ठिई। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 543 द्वितीय श्रुतस्कन्ध : द्वितीय वर्ग ] एवं खलु निक्खेवओ अज्झयणस्स / शुभा देवी जब नाटयविधि दिखला कर चली गई तो गौतम स्वामी ने उसके पूर्वभव के विषय में पृच्छा की। भगवान् ने उत्तर दिया-श्रावस्ती नगरी थी। कोष्ठक नामक चैत्य था। जितशत्र राजा था। श्रावस्ती में शभ नाम का गाथापति था। शुभश्री उस की पत्नी थी / शुभा उनकी पुत्री का नाम था। शेष सर्व वृत्तान्त काली देवी के समान समझना चाहिए / विशेषता यह है-शुभा देवी की साढ़े तीन पल्योपम की स्थिति-प्रायु है। हे जम्बू ! दूसरे वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ है / उसका निक्षेप कह लेना चाहिए। 2.5 अज्झयणाणि [2-3-4-5] ५०-एवं सेसा वि चत्तारि अज्झयणा / सावत्थीए / णवरं-माया पिता सरिसनामया। शेष चार अध्ययन पूर्वोक्त प्रकार के ही हैं / इसमें नगरी का नाम श्रावस्ती कहना चाहिए और उन-उन देवियों (पूर्वभव की पुत्रियों) के समान उनके माता-पिता के नाम समझ लेने चाहिए / यथा-निशुभा नामक पुत्री के पिता का नाम निशुभ और माता का नाम निशुभश्री। रंभा के पिता का नाम रंभ और माता का नाम रंभश्री / निरंभा के पिता निरंभ गाथापति और माता निरंभश्री। मदना के पिता मदन और माता मदनश्री। पूर्वभव में इन देवियों के ये नाम थे। इन्हीं नामों से देव भव में भी इनका उल्लेख किया गया है। Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ वग्गो-तृतीय वर्ग पढम अज्झयणं प्रथम अध्ययन ५१-उक्खेवओ तइयवग्गस्स / एवं खलु जम्बू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तइअस्स वग्गस्स चउप्पण्णं अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा-पढमे अज्झयणे जाव चउप्पण्णइमे अज्झयणे / तीसरे वर्ग का उपोद्घात समझ लेना चाहिए, अर्थात् जम्बूस्वामी के प्रश्न से उसकी भूमिका जान लेना चाहिए। सुधर्मास्वामी ने उत्तर दिया-हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर यावत् मुक्तिप्राप्त ने तीसरे वर्ग के चौपन अध्ययन कहे हैं / वे इस प्रकार प्रथम अध्ययन यावत् चौपनवाँ अध्ययन / ५२-जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं तइयस्स वग्गस्स चउप्पण्णं अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अछे पण्णत्ते ? (प्रश्न) भगवन् ! यदि यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने धर्मकथा के तीसरे वर्ग के चौपन अध्ययन कहे हैं तो भगवन् ! प्रथम अध्ययन का श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान् ने क्या अर्थ कहा है ? ५३-एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसीलए चेइए, सामी समोसढे, परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं इला' देवी धारणीए' रायहाणीए इलावतंसए भवणे इलंसि सोहासणंसि, एवं कालीगमएणं जाव नट्टविहिं उवदंसेत्ता पडिगया। (उत्तर) हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था / गुणशील चैत्य था। भगवान् पधारे / परिषद् निकली और भगवान् की उपासना करने लगी। उस काल और उस समय इला देवी धरणी नामक राजधानी में इलावतंसक भवन में, इला नामक सिंहासन पर आसीन थी। (उसने अवधिज्ञान से भगवान् का पदार्पण जाना, भगवान की सेवा में उपस्थित हुई और) काली देवी के समान भी यावत् नाटयविधि दिखलाकर लौट गई। ५४---पुत्वभवपुच्छा। वाराणसीए णयरीए काममहाबणे चेइए, इले गाहावई, इलसिरी भारिया, इला दारिया, 1. पाठान्तर-अला'। 2. पाठान्तर--'धरणाए'। 3. पाठान्तर-अलाक०। 4. पाठान्तर-'अलंसि' / * Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्रुतस्कन्ध : तृतीय वर्ग ] [ 545 सेसं जहा कालीए / णवरं–धरणस्स अग्गमहिसित्ताए उववाओ, सातिरेगं अद्धपलिओवमं ठिई / सेसं तहेव / इला देवी के चले जाने पर गौतम स्वामी ने उसका पूर्वभव पूछा / भगवान् ने उत्तर दिया-वाराणसी नगरी थी। उसमें काममहावन नामक चैत्य था। इल गाथापति था। उसकी इलश्री पत्नी थी। इला पुत्री थी। शेष वृत्तान्त काली देवी के समान / विशेष यह कि इला प्रार्या शरीर त्याग कर धरणेन्द्र की अग्रमहिषो के रूप में उत्पन्न हुई / उसको आयु अर्द्ध पल्योपम से कुछ अधिक है। शेष वृत्तान्त पूर्ववत् / ५५–एवं खलु ..... निक्खेवओ पढमज्झयणस्स। यहाँ प्रथम अध्ययन का निक्षेप-उपसंहार कह लेना चाहिए / 2-6 अज्झयणाणि (2-6 अध्ययन) ५६-एवं कमा सतेरा, सोयामणी, इंदा, घणा, विज्जया वि; सव्वाओ एयाओ धरणस्स अग्गहिसीओ। इसी क्रम से (1) सतेरा, (2) सौदामिनी (6) इन्द्रा (4) घना और (5) विद्युता, इन पांच देवियों के पांच अध्ययन समझ लेने चाहिए / ये सब धरणेन्द्र की अग्रमहिषियां हैं। विवेचन-किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में कमा (क्रमा) को पृथक् नाम माना गया है और 'घणा विज्जुया' इन दो के स्थानों पर 'धनविद्युता' एक नाम मान कर पांच की पूर्ति की गई है / एक प्रति में 'कमा' पृथक्' और 'घणा' तथा 'विज्जुआ' को भी पृथक् स्वीकार किया है, किन्तु ऐसा मानने पर एक नाम अधिक हो जाता है, जो समीचीन नहीं है। 7-12 अज्झयणाणि (7-12 अध्ययन) ५७-एवं छ अज्झयणा वेणुदेवस्स वि अविसेसिया भाणियन्वा / इसी प्रकार छह अध्ययन, बिना किसी विशेषता के वेणुदेव के भी कह लेने चाहिए / 13-54 अज्झयणाणि (13-54 अध्ययन) ५८-एवं जाव [हरिस्स अग्गिसिहस्स पुण्णस्स जलकंतस्स अमियगतिस्स वेलंबस्स] घोसस्स वि एए चेव छ-छ अज्झयणा / इसी प्रकार हरि, अग्निशिख, पूर्ण, जलकान्त, अमितगति वेलम्ब और] घोष इन्द्र को पटरानियों के भी यही छह-छह अध्ययन कह लेने चाहिए। Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 546 } [ ज्ञाताधर्मकथा __ ५९--एवमेते दाहिणिल्लाणं इंदाणं चउप्पण्णं अज्झयणा भवंति / सव्वाओ वि वाणारसीए महाकामवणे चेइए। तइयवग्गस्स निक्खेवओ। इस प्रकार दक्षिण दिशा के इन्द्रों के चौपन अध्ययन होते हैं / ये सब वाणारसी नगरी के महाकामबन नामक चैत्य में कहने चाहिए / ___ यहाँ तीसरे वर्ग का निक्षेप भी कह लेना चाहिए, अर्थात् भगवान् ने तीसरे वर्ग का यह अर्थ कहा है। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो वग्गो-चतर्थ वर्ग पढमं अज्झयणं प्रथम अध्ययन रूपा ६०-चउत्थस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं चउत्थस्स वग्गस्स चउप्पण्णं अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा--पढमे अज्झयणे जाव चउप्पण्णइमे अज्झयणे / प्रारम्भ में चौथे वर्ग का उपोद्घात कह लेना चाहिए, अर्थात् जम्बूस्वामी ने प्रश्न किया-- भगवन ! श्रमण भगवान महावीर ने यदि तीसरे वर्ग का यह पूर्वोक्त अर्थ कहा है तो चौथे वर्ग का श्रमण भगवान् ने क्या अर्थ कहा है ? इस प्रश्न का उत्तर सुधर्मास्वामी देते हैं—जम्बू ! यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने धर्मकथा के चौथे वर्ग के चौपन अध्ययन कहे हैं / वे इस प्रकार हैं प्रथम अध्ययन यावत् चौपनवां अध्ययन। ६१-पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ / यहाँ प्रथम अध्ययन का उपोद्घात कह लेना चाहिए / सुधर्मास्वामी ने उत्तर दिया-हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर (गुणशोल चैत्य) में भगवान् पधारे / नगर से परिषद् निकली यावत् भगवान् की पर्युपासना करने लगी। ६२–तेणं कालेणं तेणं समएणं रूया देवी, रूयाणंदा' रायहाणी, ख्यगडिसए भवणे, ख्यगंसि सोहासणंसि, जहा कालीए तहा; नवरं पुन्वभवे चंपाए पुग्णभद्दे चेइए; रूयगगाहावई, रूयगसिरी भारिया, रूया दारिया, सेसं तहेव / णवरं भूयाणंद-अग्गमहिसित्ताए उववाओ, देसूर्ण पलिओवमं ठिई। निक्खेवओ। उस काल और उस समय में रूपा देवी, रूपानन्दा राजधानी में, रूपकावतंसक भवन में, रूपक नामक सिंहासन पर प्रासीन थी। इत्यादि वृत्तान्त काली देवी के समान समझना चाहिए / विशेषता इतनी है-पूर्वभव में चम्पा नगरी थी, पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ चम्पा नगरी में रूपक नामक गाथापति था / रूपकश्री उसको भार्या थी / रूपा उसकी पुत्री थी / शेष सब वृत्तान्त पूर्ववत् है / विशेषता यह कि 1. पाठान्तर-'भूयाणंदा'-राजधानी का नाम 'भूतानन्दा' था। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548 ] [ ज्ञाताधर्मकथा रूपा भूतानन्द नामक इन्द्र की अग्रमहिषी के रूप में जन्मी / उसकी स्थिति कुछ कम एक पल्योपम की है। यहाँ चौथे वर्ग के प्रथम अध्ययन का निक्षेप समझ लेना चाहिए, अर्थात् यह कहना चाहिए कि श्रमण भगवान महावीर यावत् सिद्धिप्राप्त ने चतुर्थ वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है। 2-6 अध्ययन ६३---एवं सुरूया वि, रूयंसा वि, रूयगावई वि, रूयकता वि रूयप्पभा वि। इसी प्रकार सुरूपा भी, रूपांशा थी, रूपवती भी, रूपकान्ता भी और रूपप्रभा के विषय में भी समझ लेना चाहिए, अर्थात इन पांच देवियों के पांच अध्ययन भी ऐसे हो जानने चाहिए / 7-54 अध्ययन ६४–एयाओ चेव उत्तरिल्लाणं इंदाणं भाणियवाओ जाव ( वेणुदालिस्स हरिस्सहस्स अग्गिमाणवस्स विसिटुस्स, जलप्पभस्स अमितवाहणस्स पभंजणस्स) महाघोसस्स / निक्खेवओ चतुत्थवग्गस्स / इसी प्रकार उत्तर दिशा के इन्द्रों की छह-छह पटरानियों के छह-छह अध्ययन कह लेना चाहिए, अर्थात् वेणुदाली, हरिस्सह अग्निमाणवक, विशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभंजन तथा महाघोष की पटरानियों के छह-छह अध्ययन होते हैं / सब मिलकर चौपन अध्ययन हो जाते हैं। यहाँ चौथे वर्ग का निक्षेप--उपसंहार पूर्ववत् कह लेना चाहिए। Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो वग्गो-पंचम वर्ग प्रथम अध्ययन कमला ६५---पंचमवग्गस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! जाव बत्तीसं अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा कमला कमलप्पभा चेव, उप्पला य सुदंसणा / रूववई बहुरूवा, सुरूवा सुभगा वि य // 1 // पुण्णा बहुपुत्तिया चेव, उत्तमा भारिया वि य / पउमा वसुमती चेव, कणगा कणगप्पभा // 2 // वडेंसा केउमइ चेव, वइरसेणा रइप्पिया / रोहिणी नवमिया चेव, हिरी पुष्फक्ती ति य // 3 // भुयगा भुयगवई चेव, महाकच्छाऽपराइया / सुघोसा बिमला चेव, सुस्सरा य सरस्सई // 4 // पंचम वर्ग का उपोद्घात पूर्ववत् कहना चाहिए / सुधर्मास्वामी ने उत्तर दिया-जम्बू ! पांचवें वर्ग में बत्तीस अध्ययन हैं। उनके नाम ये हैं--(१) कमला देवी (2) कमलप्रभा देवी (3) उत्पला (4) सुदर्शना (5) रूपवती (6) बहुरूपा (7) सुरूपा (8) सुभगा (9) पूर्णा (10) बहुपुत्रिका (11) उत्तमा (12) भारिका (13) पद्मा (14) वसुमती (15) कनका (16) कनकप्रभा (17) अवतंसा (18) केतुमती (19) वज्रसेना (20) रतिप्रिया (21) रोहिणी (22) नवमिका (23) ह्री (24) पुष्पवती (25) भुजगा (26) भुजगवती (27) महाकच्छा (28) अपराजिता (29) सुघोषा (30) विमला (31) सुस्वरा (32) सरस्वती। इन बत्तीस देवियों के वर्णन से सम्बद्ध बत्तीस अध्ययन पंचम वर्ग में जानने चाहिए। प्रथम अध्ययन ६६–उक्खेवओ पढमज्झयणस्स / एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ / प्रथम अध्ययन का उपोद्घात कहना चाहिए, यथा जम्बूस्वामी ने प्रश्न किया-भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने पांचवें वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 550 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तब सुधर्मास्वामी ने उत्तर दिया-जम्बू ! उस काल और उस समय राजगृह नगर था / भगवान महावीर वहाँ पधारे / यावत् परिषद् निकलकर भगवान् की पर्युपासना करने लगी। ६७-तेणं कालेणं तेणं समएणं कमला देवी कमलाए रायहाणीए कमलवडेंसए भवणे कमलसि सोहासगंसि, सेसं जहा कालीए तहेव / नवरं-पुत्वभवे नागपुरे नयरे, सहसंबवणे उज्जाणे, कमलस्स गाहावइस्स कमलसिरोए भारियाए कमला दारिया पासस्त अरहओ अंतिए निक्खंता, कालस्स पिसायकुमारिदस्स अग्गमाहिसी, अद्धपलिओवमं ठिई। उस काल और उस समय कमला देवी कमला नामक राजधानी में, कमलावतंसक भवन में, कमल नामक सिंहासस पर आसीन थी। आगे की शेष समस्त घटना काली देवी के अध्ययन के अनुसार हो जानना चाहिये / काली देवी से विशेषता मात्र यह है-पूर्वभव में कमला देवी नागपुर नगर में थी। वहाँ सहस्राम्रवन नामक चैत्य था। कमल गाथापति था। कमलश्री उसकी पत्नी थी और कमला पुत्री थी / कमला अरहन्त पार्श्व के निकट दीक्षित हो गई / शेष वृत्तान्त पूर्ववत् जान लेना चाहिए यावत् वह काल नामक पिशाचेन्द्र की अग्रमहिषी के रूप में जन्मी / उसकी प्रायु वहाँ अर्ध पल्योपम की है। शेष अध्ययन ६५-एवं सेसा वि अज्झयणा दाहिणिल्लाणं वाणमंतरिदाणं भाणियवाओ / सव्वाओ नागपुरे सहसंबवणे उज्जाणे, माया-पिया धूया सरिसनामया, ठिई अद्धपलिओवमं / इसी प्रकार शेष एकतीस अध्ययन दक्षिण दिशा के वाणव्यन्तर इन्द्रों के कह लेने चाहिए। कमलप्रभा आदि 31 कन्याओं ने पूर्वभव में नागपुर में जन्म लिया था। वहाँ सहस्राम्रवन उद्यान था / सब के माता-पिता के नाम कन्याओं के नाम के समान ही हैं। देवीभव में स्थिति सबकी आधेप्राधे पल्योपम की कहनी चाहिए। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छो वग्गो-षष्ठ वर्ग 1-32 अध्ययन ६९---छट्ठो वि वग्गो पंचमवग्गसरिसो / णवरं महाकालिदाणं उत्तरिल्लाणं इंदाणं अगमहिसीओ। पुव्वभवे सागेयनयरे, उत्तरकुरु-उज्जाणे, माया-पिया धूया सरिसणामया / सेसं तं चेव / छठा वर्ग भी पांचवें वर्ग के समान है / विशेषता इतनी ही है कि ये सब कुमारियां महाकाल इन्द्र आदि उत्तर दिशा के पाठ इन्द्रों की बत्तीस अग्रमहिषियाँ हुई / पूर्वभव में सब साकेतनगर में उत्पन्न हुई। उत्तरकुरु नामक उद्यान उस नगर में था। इन कुमारियों के नाम के समान ही उनके माता-पिता के नाम थे / शेष सब पूर्ववत् / Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो वग्गो-सप्तम वर्ग 1-4 अध्ययन ७०-सत्तमस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू! जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा---सूरप्पभा, आयवा, अच्चिमालो, पभंकरा। सातवें वर्ग का उत्क्षेप कहना चाहिए-जम्बूस्वामी ने प्रश्न किया-भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने छठे वर्ग का यह अर्थ कहा तो सातवें वर्ग का क्या अर्थ कहा है ? उत्तर में सुधर्मास्वामी ने कहा-हे जम्बू ! भगवान् महावीर ने सप्तम वर्ग के चार अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं / उनके नाम ये हैं--(१) सूर्यप्रभा (2) प्रातपा (3) अचिमाली और (4) प्रभंकरा / ७१-पढमज्झयणस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ / यहाँ प्रथम अध्ययन का उपोद्घात कहना चाहिए / सुधर्मास्वामी ने उत्तर दिया-जम्बू ! उस काल और उस समय राजगृह में भगवान् पधारे यावत् परिषद् उनकी उपासना करने लगी। ७२-तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरप्पभा देवी सूरंसि विमाणंसि सूरप्पभंसि सीहासणंसि, सेसं जहा कालीए तहा, नवरं पुश्वभवो अरवखुरीए नयरीए सूरप्पभस्स गाहावइस्स सूरसिरीए भारियाए सूरप्पभा दारिया / सूरस्स अग्यमाहिसी, ठिई अद्धपलिओवमं पंचर्चाहं वाससएहि अमहियं / सेसं जहा कालीए / एवं सेसाओ वि सव्याओ अरक्खुरीए नयरीए। सत्तमो वग्गो समत्तो उस काल और उस समय सूर्य (सूर) प्रभादेवी सूर्य विमान में सूर्यप्रभ सिंहासन पर आसीन थी। शेष समग्र कथानक कालीदेवी के समान / विशेष बात इतनी कि-पूर्वभव में अरक्खुरी नगरी में सूर्याभ गाथापति को सूर्यश्री भार्या थी। उनकी सूर्यप्रभा नामक पुत्री थी। अन्त में मरण के पश्चात् वह सूर्य नामक ज्योतिष्क-इन्द्र की अग्रमहिषी हुई / उसकी स्थिति वहाँ पांच सौ वर्ष अधिक प्राधे पल्योपम को है / शेष सर्व वृत्तान्त कालीदेवी के समान जानना चाहिए। इसी प्रकार शेष सब-तीनों देवियों का वृत्तान्त जानना चाहिए / वे भी (पूर्वभव में) अरक्खुरी नगरी में उत्पन्न हुई थीं। / / सातवां वर्ग समाप्त / / . Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो वग्गो-अष्टम वर्ग 1-4 अध्ययन ७३-अट्ठमस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णता, तंजहा-(१) चंदप्पहा (2) दोसिणाभा (3) अच्चिमाली (4) पभेकरा। आठवे वर्ग का उपोद्घात कह लेना चाहिए, अर्थात् जम्बूस्वामी ने सुधर्मास्वामी से प्रश्न किया कि श्रमण भगवान् महावीर ने सातवें वर्ग का यह अर्थ प्ररूपित किया है तो आठवें वर्ग का क्या अर्थ कहा है ? सुधर्मास्वामी ने उत्तर दिया--जम्बू ! श्रमण भगवान् ने आठवें वर्ग के चार अध्ययन प्ररूपित किए हैं। वे इस प्रकार हैं--(१) चन्दप्रभा (2) दोसिणाभा [ज्योत्स्नाभा] (3) अचिमाली (4) प्रभंकरा। ७४-पढमज्झयणस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं, जाव परिसा पज्जुबासइ / प्रथम अध्ययन का उपोद्घात पूर्ववत् कह लेना चाहिए / सुधर्मास्वामी ने कहा-जम्बू ! उस काल और उस समय में भगवान् राजगृह नगर में पधारे यावत् परिषद उनकी पर्युपास्ति करने लगी। 75 तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदप्पभा देवी चंदप्पभंसि विमाणंसि चंदप्पमंसि सीहासणंसि, सेसं जहा कालीए / णवरं पुव्वभवे महुराए णयरीए चंदवडेंसए उज्जाणे, चंदप्पभे गाहावई, चंदसिरी भारिया, चंदप्पभा दारिया, चंदस्स अग्गमहिसी, ठिई अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससाहस्सेहि अब्भहियं। एवं सेसाओ वि महुराए णयरीए, माया-पियरो वि धूया-सरिसमाणा। अट्ठमो वग्गो समत्तो। उस काल और उस समय में चन्द्रप्रभा देवी, चन्द्रप्रभ विमान में, चन्द्रप्रभ सिंहासन पर आसीन थी। शेष वर्णन काली देवी के समान ही है / विशेषता यह-पूर्वभव में वह मथुरा नगरी की निवासिनी थी। वहाँ चन्द्रावतंसक उद्यान था / वहाँ चन्द्रप्रभ गाथापति रहता था / चन्द्रश्री उसकी पत्नी थी। चन्दप्रभा उनकी पुत्री थी 1 वह (अगले भव में) चन्द्र नामक ज्योतिष्क इन्द्र की अग्रमहिषी हुई / उसकी आयु पचास हजार वर्ष अधिक अर्ध पल्योपम की है / शेष सब वर्णन काली देवी के समान। पाठवां वर्ग समाप्त / / Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो वग्गो नौवाँ वर्ग 1.8 अध्ययन ७६-नवमस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! जाव अट्ठ अज्झयणा पण्णता, तंजहा-(१) पउमा (2) सिवा (3) सती (4) अंजू (5) रोहिणी (6) णवमिया (7) अचला (8) अच्छरा / नौवें वर्ग का उपोद्धात / सुधर्मास्वामी ने उत्तर दिया-हे जम्बू ! यावत् श्रमण भगवान् महावीर ने नौवें वर्ग के पाठ अध्ययन कहे हैं / वे इस प्रकार हैं-(१पद्मा (2) शिवा (3) सती (4) अंजू (5) रोहिणी (6) नवमिका (7) अचला और (8) अप्सरा। ७७-पढमज्झयणस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं / जाव परिसा पज्जवासइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं पउमावई देवी सोहम्मे कप्पे पउमव.सए विमाणे सभाए सुहम्माए, पउमंसि सीहासणंसि, जहा कालीए / एवं अट्ट वि अज्झयणा काली-गमएणं नायव्वा / नवरं सावत्थीए दो जणीओ, हथिणाउरे दो जणीओ, कंपिल्लपुरे दो जणीओ, सागेयनयरे दो जणीओ, पउमे पियरो, विजया मायराओ। सवाओ वि पासस्स अंतिए पटवइयाओ, सक्कस्स अग्गमहिसीओ, ठिई सत्त पलिओवमाई, महाविदेहे वासे अंतं काहिति / गवमो वग्गो समत्तो। प्रथम अध्ययन का उत्क्षेप कह लेना चाहिए। सुधर्मास्वामी ने कहा-जम्बू ! उस काल और उस समय स्वामी भगवान महावीर राजगह में पधारे / यावत् जनसमूह उनकी पर्युपासना करने लगा। उस काल और उस समय पद्मावती देवी सौधर्म कल्प में, पद्मावतंसक विमान में, सूधर्मा सभा में, पद्म नामक सिंहासन पर आसीन थी। शेष वृत्तान्त काली देवी के समान जानना चाहिए / काली देवी के गम के अनुसार आठों अध्ययन इसी प्रकार समझ लेने चाहिए / काली-अध्ययन से जो विशेषता है वह इस प्रकार है-पूर्वभव में दो जनी श्रावस्ती में, दो जनी हस्तिनापुर में, दो जनी काम्पिल्यपुर में और दो जनो साकेतनगर में उत्पन्न हुई थीं। सबके पिता का नाम पद्म और माता का नाम विजया था। सभी पार्श्व अरहंत के निकट दीक्षित हुई थीं। सभी शकेन्द्र की अग्रमहिषियां हुई / उनकी स्थिति सात पल्योपम की है। सभी यावत् महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर (संयम का पालन करके) यावत् समस्त दुःखों का अन्त करेंगी-मुक्ति प्राप्त करेंगी। / / नौवाँ वर्ग समाप्त // Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो वग्गो दसवाँ वर्ग 1-8 अध्ययन ७८-दसमस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! जाव अट्ठ अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा काण्हा य कण्हराई, रामा तह रामरक्खिया वसु या। वसुगुत्ता वसुमित्ता, वसुधरा चेव ईसाणे // 1 // दसवें वर्ग का उपोद्घात / सुधर्मास्वामी का उत्तर-जम्बू ! यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने दसवें वर्ग के पाठ अध्ययन प्ररूपित किए हैं / वे इस प्रकार-(१) कृष्णा (2) कृष्णराजि (3) रामा (4) रामरक्षिता (5) वसु (6) वसुगुप्ता (7) वसुमित्रा और (8) वसुन्धरा / ये आठ ईशानेन्द्र की आठ अग्रमहिषियां हैं। ७९-पढमज्झयणस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं, जाव परिसा पज्जुवासइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं कण्हा देवी ईसाणे कप्पे कण्हब.सए विमाणे, सभाए सुहम्माए, कण्हंसि सीहासणंसि, सेसं जहा कालीए / एवं अट्ट वि अज्झयणा कालीगमएणं णेयव्वा। गवरं-पुत्वभवे वाणारसोए णयरीए दो जणीओ, रायगिहे णयरे दो जणीओ, सावत्थीए णयरीए दो जणोओ, कोसंबीए नयरीए दो जणीओ। रामे पिया, धम्मा माया / सव्वाओ वि पासस्स अरहओ अंतिए पव्वइयाओ। पुप्फचलाए अज्जाए सिस्सिणीयत्ताए, ईसाणस्स अगमहिसीओ, ठिई णव पलिओवमाइं, महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, बुज्झिहिति, मुचिहिति, सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति / एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ दसमवग्गस्स / दसमो वग्गो! समत्तो। प्रथम अध्ययन का उपोद्घात कहना चाहिए, अर्थात् जम्बूस्वामी ने प्रश्न किया कि-भगवन् यदि श्रमण भगवान् महावीर ने नौवें वर्ग का यह पूर्वोक्त अर्थ कहा है तो भगवान् ने दसवें वर्ग का क्या अर्थ कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में सुधर्मास्वामी ने कहा-जम्बू ! उस काल और उस समय में स्वामी राजगृह नगर में पधारे, यावत् परिषद् ने उपासना की। उस काल और उस समय कृष्णा देवी ईशान कल्प (देवलोक) में कृष्णावतंसक विमान में, सधर्मा सभा में, कृष्ण सिंहासन पर प्रासोन थी। शेष वृत्तान्त कालो पर ग्रासोन थी। शेष वत्तान्त काली देवी के समान है. अर्थात कृष्णा देवो भगवान् का राजगृह में पदार्पण जानकर सेवा में उपस्थित हुई। काली देवी के समान नाट्य Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 556 ] [ ज्ञाताधर्मकथा विधि का प्रदर्शन किया और वन्दन तथा नमस्कार करके चली गई। तब गौतमस्वामी ने उसके पूर्वभव की पृच्छा की / भगवान् ने उसके पूर्वभव का वृत्तान्त कहा, इत्यादि। ___ आठों अध्ययन काली-अध्ययन सदृश ही समझ लेने चाहिए। इनमें जो विशेष बात है, वह इस प्रकार है--पूर्वभव में इन पाठ में से दो जनी बनारस नगरी में, दो जनी राजगृह में, दो जनी श्रावस्ती में और दो जनी कौशाम्बी में उत्पन्न हुई थीं। सबके पिता का नाम राम और माता का नाम धर्मा था। सभी पावं तीर्थंकर के निकट दीक्षित हुई थीं। वे पुष्पचूला नामक आर्या की शिष्या हुई / वर्तमान भव में ईशानेन्द्र की अग्रमहिषियाँ हैं। सबकी आयु नौ पल्योपम की कही गई है / सब महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होंगी और सब दुःखों का अन्त करेंगी। यहाँ दसवें वर्ग का निक्षेप-उपसंहार कहना चाहिए, अर्थात् यों कह लेना चाहिए कि यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने दसवे वर्ग का यह अर्थ कहा है। / / दसवाँ वर्ग समाप्त / / अन्तिम उपसंसार ८०एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसुत्तमेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं अयमठे पण्णत्ते / धम्मकहासुयक्खंधो समत्तो दहि वग्गेहि / णायाधम्मकहाओ समत्ताओ। हे जम्बू ! अपने युग में धर्म को प्रादि करने वाले, तीर्थ के संस्थापक, स्वयं बोध प्राप्त करने वाले, पुरुषोत्तम यावत् सिद्धि को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने धर्मकथा नामक द्वितीय श्रुतस्कन्ध का यह अर्थ कहा है। धर्मकथा नामक द्वितीय श्रुतस्कन्ध दस वर्गों में समाप्त / [ज्ञाताधर्मकथा समाप्त Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 0 उवणय-गाहाओ / व्यक्ति-नाम-सूची 1] स्थल-विशेष-सूची -ज्ञाताधर्मकथांग Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (1) उवणय-गाहाओ टीकाकार द्वारा प्रत्येक अध्ययन के अन्त में विभिन्नसंख्यक गाथाएँ उद्धृत की गई हैं, जिन्हें उपनय-गाथाओं के नाम से अभिहित किया गया है। ये गाथाएँ मूल सूत्र का अंश नहीं हैं, किसी स्थविर प्राचार्य द्वारा रचित हैं। अध्ययन के मूल भाव को स्पष्ट करने वाली होने से उन्हें परिशिष्ट के रूप में यहाँ उद्धृत किया जा रहा है / प्रथम अध्ययन १-महुरेहि णिउणेहि क्यणेहि चोययंति आयरिया। सीसे कहिचि खलिए, जह मेहमुणि महावीरो॥ किसी प्रसंग पर शिष्य संयम से स्खलित हो जाय तो आचार्य उसे मधुर तथा निपुण वचनों से संयम में स्थिरता के लिए प्रेरित करते हैं / जैसे भगवान महावीर ने मेघमुनि को स्थिर किया। द्वितीय अध्ययन २-सिवसाहणेसु आहार-विरहिओ जं न वट्टए देहो। तम्हा धण्णोव्व विजयं साहू तं तेण पोसेज्जा // मोक्ष के साधनों में आहार के विना यह देह समर्थ नहीं हो सकता, अतएव साधु आहार से शरीर का उसी प्रकार पोषण करे, जैसे धन्य सार्थवाह ने विजय चोर का (लेशमात्र अनुराग न होने पर भी) पोषण किया। तृतीय अध्ययन १–जिणवर-भासिय-भावेसु, भावसच्चेसु भावओ मइमं / नो कुज्जा संदेह, संदेहोऽणत्थहेउ ति // २--णिस्संदेहत्तं पुण गुणहेउं जं तओ तयं कज्जं / एत्थं दो सेट्ठिसुया, अंडयगाही उदाहरणं // ३-कत्थइ मइदुम्बल्लेणं, तविहायरियविरहओ वा वि / नेयगहणत्तणेणं, नाणावरणोदएणं य॥ ४-हेऊदाहरणासंभवे य, सइ सुठ जं न बुज्झिज्जा / सव्वष्णुमयमवितह, तहावि इइ चितए मइमं // ५---अणुवकयपराणुग्गह-परायणा जं जिणा जगप्पवरा / जिय-राग-दोस-मोहा, य जनहावाइणो तेणं // Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 ] [ ज्ञाताधर्मकथा -सन्देह अनर्थ का कारण है, अतः बुद्धिमान् पुरुष वीतराग जिनेश्वर द्वारा भाषित भावसत्य विषयों-भावों में सन्देह न करे / २-निस्सन्देहता प्राप्तवचनों पर श्रद्धा करने योग्य है / इस विषय में मयूरी के अण्डे ग्रहण करने वाले दो श्रेष्ठिपुत्र (जिनदत्तपुत्र और सागरदत्तपुत्र) उदाहरण हैं / _3-4 - बुद्धि की दुर्बलता, तज्ज्ञ आचार्य का संयोग न मिलना, ज्ञेय विषय की अतिगहनता, ज्ञानावरणीय कर्म का उदय अथवा हेतु एवं उदाहरण का अभाव होने से कोई तत्त्व ठीक तरह से समझ में न आए, तो भी सर्वज्ञ का मत (सिद्धान्त) अवित्तथ (असत्य नहीं) है, विवेकी पुरुष को ऐसा विचार करना चाहिए / तथा ५-जिनेश्वर देव दूसरों से अनुपकृत होकर भी परोपकारपरायण, राग, द्वेष और मोहअज्ञान से अतीत हैं, अतः अन्यथावादी हो ही नहीं सकते / चतुर्थ अध्ययन १–विसएसु इंदियाई, संभंता राग-दोस-निम्मुक्का। पावंति निव्वूइसुहं, कुम्मुच्च मयंगदहसोक्खं / / 2- अवरे उ अणत्यपरंपराउ पावंति पावकम्मवसा। संसार-सागरगया गोमाउग्गसिय-कुम्मो ट्व / / विषयों से इन्द्रियों को रोकते हुए अर्थात् इन्द्रिय-विषयों में प्रासक्ति न रखने वाले राग-द्वेष से रहित साधक मुक्ति का सुख प्राप्त करते हैं, जैसे कूर्म (कच्छप) ने मृतगंगातीर ह्रद में पहुँच कर सुख प्राप्त किया। इसके विपरीत, पापकर्म के वशीभूत प्राणी संसार-सागर में गोते खाते हुए, शृगालों द्वारा ग्रस्त कूर्म की तरह अनेक अनर्थ-परम्पराओं को प्राप्त करते हैं / पंचम अध्ययन १-सिढिलियसंजमकज्जा वि होइउं उज्जमंति जइ पच्छा। संवेगाओ तो सेलउच्च आराहया होति / / संयम-पाराधना में शिथिल हो जाने पर भी यदि कोई साधक बाद में संवेग उत्पन्न हो जाने से संयम में उद्यत हो जाते हैं तो वे शैलक राषि के समान आराधक होते हैं। षष्ठ अध्ययन १--जह मिउलेवालित्तं गरुयं तु अहो वयइ एवं / आसव-कय-कम्मगुरू, जीवा वच्चंति अहरगई। २-तं चेव तविमुक्कं जलोरि ठाइ जायलहुभावं / जह तह कम्मविमुक्का लोयग्गमइट्ठिया होति / / Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ~1] [ 561 १-जैसे मिट्टी के लेप से भारी होकर तुम्बा जल के तल में चला जाता है, इसी प्रकार आस्रव द्वारा उपार्जित कर्मों से भारी होकर जीव अधोगति में जाता है / २-जैसे वही तुम्बा मिट्टी के लेप से विमुक्त होने पर, लघु होकर जल के ऊपर स्थित होता है, वैसे ही कर्म से विमुक्त जीव लोक के अग्र-ऊपरी भाग में प्रतिष्ठित-विराजमान हो जाते हैं / सप्तम अध्ययन १-जह सेट्टी तह गुरुणो, जह पाइजणो तहा समणसंघो। जह बहुया तह भव्वा, जह सालिकणा तह वयाई // २–जह सा उज्झियणामा, उज्झियसाली जहत्थमभिहाणा / पेसण-गारित्तेणं, असंखदुक्खक्खणी जाया / ३–तह भन्वो जो कोई, संघसमक्खं गुरुविदिण्णाई / पिडिवज्जिउं समुज्झइ, (महव्वयाई महामोहा // ४–सो इह चेव भवम्मि, जणाण धिक्कारभायणं होइ / परलोए उ दुहत्तो, नाणाजोणीसु संचरइ / ५–जह वा सा भोगवती, जहत्थनामोवभुत्तसालिकणा। पेसविसेसकारितणेण पत्ता दुहं चेव // ६-तह जो महन्वयाई उवभंजुइ जीवियत्ति पालितो। आहाराइसु सत्तो, चत्तो सिवसाहणिच्छाए / ७–सो इत्थ जहिच्छाए, पावइ आहारमाइ लिगित्ति / विउसाण नाइपुज्जो परलोयम्मि दुही चेव / / ८-जइ वा रक्खिय बहुया, रक्खियसालीकणा जहत्थक्खा। परिजणमण्णा जाया, भोगसुहाइं च संपत्ता // ९-तह जो जीवो सम्म पडिवज्जिज्जा महब्वए पंच / पालेइ निरइयारे, पमायलेसंपि वज्जैतो // १०---सो अप्पहिएक्करई, इहलोयंमि वि विहिं पणयपओ। एगंतसुही जायइ, परम्मि मोक्खं पि पावेइ / / ११–जह रोहिणी उ सुष्हा, रोवियसाली जहत्थमभिहाणा / वड्डित्ता सालिकणे पत्ता सव्वस्स सामित्तं / / १२-तह जो भवो पाविय वयाई पालेइ अप्पणा सम्मं / अन्नेसि पि भव्वाणं देइ अणेगेसि हियहेउं / १३-सो इह संघपहाणो, जुगप्पहाणेत्ति लहइ संसदं / अप्प-परेसि कल्लाणकारओ गोयमपहुव्व // Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562 ] [ ज्ञाताधर्मकथा १४-तित्थस्स वुद्धिकारी, अक्खेवणओ कुतित्थियाईणं / विउसनर-सेविय-कमो, कमेण सिद्धि पि पावेइ / / 1-- श्रेष्ठी (धन्य सार्थवाह) के स्थान पर गुरु, ज्ञातिजनों के स्थान पर श्रमणसंघ, बहुओं के स्थान पर भव्य प्राणी और शालिकणों के स्थान पर महाव्रत समझने चाहिए। २-जैसे उज्झिता बहू यथार्थ नाम वाली थी और शालि के दानों को फेंक देने के कारण दास्य-कर्म करने से असंख्य दुःखों को प्राप्त हुई। ३-वैसे ही जो भव्य जीव गुरु द्वारा प्रदत्त महाव्रतों को संघ के समक्ष स्वीकार करके महामोह के वशीभूत होकर त्याग देता है .. ४-वह इस भव में जनता के तिरस्कार का पात्र होता है और परलोक में भी दुःख से पीड़ित होकर अनेक योनियों में भ्रमण करता है। ५-जैसे यथार्थ नाम वाली भोगवती बहू शालिकणों को खा गई, वह भी विशेष प्रकार के दासी-कर्म करने के कारण दुःख को ही प्राप्त हुई। ६-वैसे ही जो महाव्रतों को जीविका का साधन मानकर पालता एवं उनका उसी प्रकार से उपयोग करता है, आहारादि में आसक्त होता है और ये महाव्रत मुक्ति के साधन हैं, इस भावना से रहित होता है ७-वह केवल साधुलिंगधारी यथेष्ट आहारादि प्राप्त करता है पर विद्वानों का पूजनीय नहीं होता / परलोक में भी दुःखी होता है। -जिस प्रकार यथार्थ नामवाली बहू रक्षिता ने शालिकणों की रक्षा की और पारिवारिक जनों में मान्य हुई। उसने भोग-सुखों को भी प्राप्त किया। ९-उसी प्रकार जो जीव महाव्रतों को स्वीकार करके लेश मात्र भी प्रमाद नहीं करता हुआ उनका निरतिचार पालन करता है--- १०-वह एक मात्र आत्महित में आनन्द मानने वाला इस लोक में विद्वानों द्वारा पूजित तथा एकान्त रूप से सुखी होता है / परभव में मोक्ष भी प्राप्त करता है।। ११-जैसे यथार्थ नाम वाली रोहिणी नामक पुत्रवधू शालि के रोप द्वारा उनकी वृद्धि करके समस्त धन की स्वामिनी बनी १२—उसी प्रकार जो भव्य प्राणी महाव्रतों को प्राप्त करके स्वयं उनका सम्यक प्रकार से पालन करता है और दूसरे भी भव्य प्राणियों को उनके हित के लिए प्रदान करता है। १३--वह इस भव में गौतमस्वामी के समान संघप्रधान एवं युगप्रधान पदवी को प्राप्त करता है तथा अपना और दूसरों का कल्याण करने वाला होता है। १४-वह तीर्थ का अभ्युदय करने वाला, कुतीथिकों का निराकरण करने वाला और विद्वानों द्वारा पूजित होकर क्रमश : सिद्धि को भी प्राप्त करता है / अष्टम अध्ययन 1- उग्ग-तव-संजमवओ पगिट्ठफलसाहगस्स वि जियस्स / धम्मविसएवि सुहमावि, होइ माया अणत्थाय // Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट---१] [563 २--जह मल्लिस्स महाबलभवम्मि तित्थगरनामबंधे वि। तवविसय-थेवमाया जाया जवइत्तहेउत्ति / / १-उग्रतप तथा संयमवान् एवं उत्कृष्ट फल के साधक जीव द्वारा की गई सूक्ष्म और धर्मविषयक माया भी अनर्थ का कारण होती है, यथा २-मल्ली कुमारी को महाबल के भव में तीर्थकरनामकर्म का बंध होने पर भी तप के विषय में की गई थोड़ी-सी माया भी युवतीत्व (स्त्रीत्व) का कारण बन गई। नौवां अध्ययन १-जह रयणदीवदेवी, तह एत्थं अविरई महापावा। जह लाहत्थी वणिया, तह सुहकामा इहं जीवा // २–जह तेहिं भीएहि, दिट्ठो आघायमंडले पुरिसो। ___संसारदुक्खभीया, पासंति तहेव धम्मकहं // ३–जह तेण तेसि कहिया, देवी दुक्खाण कारणं घोरं / तत्तो च्चिय नित्थारो, सेलगजक्खाओ नन्नत्तो। ४---तह धम्मकही भव्वाणं, साहए दिट्ठ-अविरइ-सहावो। सयलदुहहेउभूआ, विसया विरयंति जीवाणं // ५–सत्ताणं दुहत्ताणं, सरणं चरणं जिगिंदपण्णत्तं / आनन्दरूव-निव्वाण-साहणं तह य देसेइ / / ६-जह तेसि तरियम्वो, रुदसमुद्दो तहेव संसारो। जह तेसि सगिहगमणं, निव्वाणगमो तहा एत्थं / / ७-जह सेलगपिट्ठाओ, भट्ठो देवीइ मोहियमईओ। सावय-सहस्स-पउरंमि, सायरे पाविओ निहणं // ८--तह अविरईइ नडिओ, चरणचुओ दुक्ख-सावयाइण्णो। निवडइ अपार-संसार-सायरे दारुणसरूवे / / ९-जह देवीए अक्खोहो, पत्तो सट्टाणं जीवियसुहाई। तह चरणट्ठिओ साहू, अक्खोहो जाइ निव्वाणं // 1- रत्नद्वीप की देवी के स्थान पर यहाँ महापापमय अविरति समझना चाहिए / लाभ के अभिलाषी वणिकों की जगह यहाँ सुख की कामना करने वाले जीव समझना चाहिए। २-जैसे उन्होंने (जिनरक्षित और जिनपाल नामक वणिकों ने) प्राघात-मंडल में एक पुरुष को देखा, उसी प्रकार संसार से भयभीत जन धर्मकथा (धर्मकथा करने वाले उपदेशक) को देखते हैं। ३-जैसे उस पुरुष ने उन्हें बतलाया कि यह (रत्न देवी) घोर दुःखों का कारण है और उससे निस्तार पाने का उपाय शैलक यक्ष के सिवाय अन्य नहीं है। ४-उसी प्रकार अविरति के स्वभाव को जानने वाले धर्मोपदेशक भव्य जीवों से कहते हैंइन्द्रियों के विषय समस्त दुःखों के हेतु हैं, अतः वे जीवों को उनसे विरत करते हैं / Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564] [ ज्ञाताधर्मकथा ५-दुःखों से पीडित प्राणियों के लिए जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित चारित्र ही शरण है। वही आनन्दस्वरूप निर्वाण का साधन है / ६-जैसे उन वणिकों को विस्तृत सागर तरना था, उसी प्रकार भव्य जीवों को विशाल संसार तरना है / जैसे उन्हें अपने घर पहुँचना था, उसी प्रकार यहाँ मोक्ष में पहुँचना समझना चाहिए। ७-देवी द्वारा मोहितमति (जिनरक्षित) शैलक यक्ष की पीठ से भ्रष्ट होकर सहस्रों हिंसक जन्तुषों से व्याप्त सागर में निधन को प्राप्त हुमा / ८-उसी प्रकार अविरति से बाधित होकर जो जीव चारित्र से भ्रष्ट हो जाता है, वह दुःख रूपी हिंसक जन्तुनों से व्याप्त, भयंकर स्वरूप वाले अपार संसार-सागर में पड़ता है। ९-जैसे देवी के प्रलोभन–मोहजनक वचनों से क्षुब्ध न होने वाला (जिनपालित) अपने स्थान पर पहुँच कर जीवन और सुखों को अथवा जीवन संबंधी सुखों को प्राप्त कर सका, उसी प्रकार चारित्र में स्थित एवं विषयों से क्षुब्ध न होने वाला साधु निर्वाण प्राप्त करता है। दशम अध्ययन १-जह चंदो तह साहू, राहुवरोहो जहा तह पमाओ। वण्णाई गुणगणो जह तहा खमाई समणधम्मा / / २-पुण्णो वि पइदिणं जह, हायंतो सम्वहा ससी नस्से / तह पुण्णचरित्तो वि हु, कुसीलसंसग्गिमाईहिं / / ३–जणियपमाओ साहू, हायंतो पइदिणं खमाईहिं / ___ जायइ निद्रुचरित्तो, तत्तो दुक्खाई पावेइ॥ ४-हीणगुणो वि हु हो, सुहगुरुजोगाइ जणियसंवेगो। पुण्णसरूवो जायइ, विवड्ढमाणो ससहरो ब्व / / १–यहाँ चन्द्रमा के समान साधु और राहु-ग्रहण के समान प्रमाद जानना चाहिए / चन्द्रमा के वर्ण, कान्ति आदि गुणों के समान साधु के क्षमा आदि दस श्रमणधर्म जानना चाहिए। २-३-(पूर्णिमा के दिन) परिपूर्ण होकर भी चन्द्रमा प्रतिदिन घटता-घटता (अमावस्या को) सर्वथा लुप्त हो जाता है, उसी प्रकार पूर्ण चारित्रवान् साधु भी कुशीलों के संसर्ग आदि कारणों से प्रमादयुक्त होकर प्रतिदिन क्षमा आदि गुणों से हीन होता-होता अन्त में चारित्रहीन बन जाता है / इससे उसे दुःखों की प्राप्ति होती है। ४--कोई साधु भले हीन गुण वाला हो किन्तु सद्गुरु के संसर्ग से उसमें संवेग उत्पन्न हो जाता है तो वह चन्द्रमा के समान क्रमशः वृद्धि पाता हुआ पूर्णता प्राप्त कर लेता है। ग्यारहवां अध्ययन १-जह दावदवतरुवणमेवं साहू जहेव दीविच्चा। वाया तह समणा इयसपक्खवयणाई दुसहाई / / २-जह सामुद्दयवाया तहण्णतित्थाइकट्यवयणाई। कुसुमाइसंपया जह, सिवमग्गाराहणा तह उ॥ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१] [ 565 ३-जह कुसुमाइविणासो, सिवमग्गविराहणा तहा नेया। जह दीववाउजोगे, बहु इड्ढी ईसि य अणिड्ढी / ४-तह साहम्मिय-वयणाण सहणमाराहणा भवे बहुया। __ इयराणमसहणे पुण, सिवमग्गविराहणा थोबा // ५-जह जलहि-वाउजोगे, थेविड्ढी बहुयरा यऽणिड्ढी य / तह परपक्ख-क्खमणे, आराहणमोसि बहु इयरं // ६-जह उभयवाउविरहे, सव्वा तरुसंपया विणटुत्ति / __ अणिमित्तोभयमच्छररूवेह विराहणा तह य॥ ७-"जह उभयवाउजोगे, सव्वसमिड्ढी वणस्स संजाया। तह उभयवयणसहणे, सिवमग्गाराहणा वुत्ता // ८-ता पुन्नसमणधम्माराहणचित्ती सया महासत्तो। सम्वेणवि कोरंति, सहेज्ज सव्वंपि पडिकलं // १--जैसे दावद्दव जाति के वृक्ष कहे गए हैं, वैसे यहाँ साधु समझना चाहिए / जैसे द्वीप सम्बन्धी वायु है, वैसे यहाँ श्रमण आदि (श्रमणी, श्रावक, श्राविका) रूप स्वपक्ष के दुस्सह वचन जानने चाहिए। २-जैसे सामुद्रिक पवन है वैसे यहाँ अन्यतीथिकों के कटुक वचन आदि जानना / वृक्षों में पुष्प आदि सम्पत्ति के समान यहाँ मोक्षमार्ग की आराधना समझना / ३-पुष्प आदि समृद्धि के अभाव को यहाँ मोक्षमार्ग की विराधना जान लेना चाहिए। जैसे द्वीप सम्बन्धी वायु के सद्भाव में अधिक समृद्धि और थोड़ी असमृद्धि होती है ४-उसी प्रकार सार्मिकों के दुर्वचनों को सहन करने से बहुत आराधना होती है, किन्तु अन्ययूथिकों के दुर्वचनों को सहन न करने से मोक्षमार्ग की किचित् विराधना भी होती है। ५-जैसे सामुद्रिक वायु का संयोग मिलने पर किंचत् समृद्धि और बहुतर असमृद्धि होती है, उसी प्रकार परपक्ष (अन्ययूथिकों) के वचन सहन करने से थोड़ी अाराधना होती है, (स्वयूथ्यों के वचन न सहने से) विराधना अधिक होती है। ६-जैसे दोनों द्वैपिक और सामुद्रिक प्रकार के पवन के अभाव में समस्त तरु-सम्पदा (पत्र-पुष्प-फल आदि) का विनाश हो जाता है, वैसे ही निष्कारण दोनों के प्रति मत्सरता होना यहाँ विराधना है। ७-जैसे दोनों प्रकार के पवन का योग प्राप्त होने पर वन-वृक्षसमूह को सर्व प्रकार की पूर्ण समृद्धि प्राप्त होती है / उसी प्रकार दोनों पक्षों (स्वयूथिकों, अन्ययूथिकों) के दुर्वचनों को सहन करने से मोक्षमार्ग की पूर्ण आराधना कही गई है। 8 अतएव जिसके चित्त में पूर्ण श्रमणधर्म की आराधना करने की अभिलाषा है, वह सभी प्रकार के मनुष्यों द्वारा किए जाने वाले प्रतिकूल व्यवहार-वचनप्रयोग, उपसर्ग आदि को सहन करे / बारहवां अध्ययन १–मिच्छत्तमोहियमणा पावपसत्तावि पाणिणो विगुणा / फरिहोदगं व गुणिणो हवंति वरगुरुप्पसायाओ। Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञाताधर्मकथा १-जिनका मन मिथ्यात्व से मूढ बना हुआ है, जो पापों में अतीव आसक्त हैं और गुणों से शून्य हैं वे प्राणी भी श्रेष्ठ गुरु का प्रसाद पाकर गुणवान् बन जाते हैं, जैसे (सुबुद्धि अमात्य के प्रसाद से) खाई का गन्दा पानी शुद्ध, सुगंधसम्पन्न और उत्तम जल बन गया / तेरहवाँ अध्ययन १-संपन्नगुणो वि जओ, सुसाहु-संसग्गवज्जिओ पायं / पावइ गुणपरिहाणि, ददुरजीवोव्व मणियारो॥ अथवा २-तित्थयरवंदणत्थं चलिओ भावेण पावए सग्गं / जह दद्दुरदेवेणं, पत्तं वेमाणियसुरत्तं // १-कोई भव्य जीव गुण-सम्पन्न होकर भी, कभी-कभी सुसाधु के सम्पर्क से जब रहित होता है तो गुणों की हानि को प्राप्त होता है-सुसाधु-समागम के अभाव में उसके गुणों का ह्रास हो जाता है, जैसे नन्द मणिकार का जीव (सम्यक्त्वगुण की हानि के कारण) दर्दुर (मंडक) के पर्याय में उत्पन्न हुमा / अथवा इस अध्ययन का उपनय यों समझना चाहिए तीर्थकर भगवान् को बन्दना के लिए रवाना हुआ प्राणी (भले भगवान् के समक्ष न पहुँच पाए, मार्ग में ही उसका निधन हो जाए, तो भी वह) भक्ति भावना के कारण स्वर्ग प्राप्त करता है। यथा-दर्दुर (मेंढक) मात्र भावना के कारण वैमानिक देव-पर्याय को प्राप्त करने में समर्थ हो सका। चौदहवाँ अध्ययन १–जाव न दुक्खं पत्ता, माणभंसं च पाणिणो पायं / ताव न धम्मं गेहंति, भावओ तेयलीसुयन्व / १--प्रायः- कभी-कभी ऐसा होता है कि मनुष्यों को जब तक दुःख प्राप्त नहीं होता और जब तक उनका मान-मर्दन नहीं होता, तब तक वे तेतलीपुत्र अमात्य की तरह भावपूवक-अन्त:करण से धर्म को ग्रहण नहीं करते / पन्द्रहवां अध्ययन १-चंपा इव मणयगई, धणो व्व भयवं जिणो दएक्करसो। अहिछत्तानयरिसमं इह निव्वाणं मुणेयन्वं / / २-घोसणया इव तित्थंकरस्स सिवमग्गदेसणमहाधं / चरगाइणो ब्व इत्थं सिवसुहकामा जिया बहवे / / ३-नंदिफलाइ ध्व इहं सिवपहपडिवण्णगाण विसया उ। तब्भक्खणाओ मरणं, जह तह विसएहि संसारो // ४-तव्वज्जणेण जह इठ्ठपुरगमो विसयवज्जणेण तहा। परमाणंदनिबंधण-सिवपुरगमणं मुणेयध्वं / / Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१] [ 567 १--चम्पा नगरी के समान मनुष्यगति, धन्य सार्थवाह के समान एकान्त दयालु भगवान् तीर्थंकर और अहिछत्रा नगरी के समान निर्वाण समझना चाहिए। २-धन्य सार्थवाह की घोषणा के समान तीर्थकर भगवान् की मोक्षमार्ग की अनमोल देशना और चरक आदि के समान मुक्ति-सुख को कामना करने वाले बहुतेरे प्राणी जानना चाहिए / ३-मोक्षमार्ग को अंगीकार करने वालों के लिए इन्द्रियों के विषय (विषमय) नंदीफल के समान हैं। जैसे नंदीफलों के भक्षण से मरण कहा, उसी प्रकार यहाँ इन्द्रियविषयों के सेवन से संसार-जन्म-मरण जानना चाहिए / ४-नन्दीफलों के नहीं सेवन करने से जैसे इष्ट पुर (अहिछत्रा नगरी) की प्राप्ति कही, उसी प्रकार विषयों के परित्याग से निर्वाण-नगर की प्राप्ति होती है, जो परमानन्द का कारण है / सोलहवाँ अध्ययन १-सुबहू वि तव-किलेसो, नियाणदोसेण दूसिओ संतो। __ न सिवाय दोवतीए, जह किल सुकुमालियाजम्मे / / अथवा २–अमणुन्नमभत्तीए, पत्ते दाणं भवे अणत्याय / जह कडुयतुंबदाणं, नागसिरिभवंमि दोवईए / १–तपश्चर्या का कोई कितना ही कष्ट क्यों न सहन करे किन्तु जब वह निदान के दोष से दूषित हो जाती है तो मोक्षप्रद नहीं होती, जैसे सुकुमालिका के भव में द्रौपदी के जीव का तपश्चरण-क्लेश मोक्षदायक नहीं हुआ। अथवा इस अध्ययन का उपनय इस प्रकार समझना चाहिए-सुपात्र को भी दिया गया आहार अगर अमनोज्ञ हो और भक्तिपूर्वक न दिया गया हो तो अनर्थ का कारण होता है, जैसे नागधी ब्राह्मणी के भव में द्रौपदी के जीव द्वारा दिया कटुक तुम्बे का दान / सत्तरहवां अध्ययन १-जह सो कालियदीवो अणुवमसोक्खो तहेव जइधम्मो / जह आसा तह साहू, वणियव्यऽणुकूलकारिजणा // २-जह सद्दाइ-अगिद्धा पत्ता नो पासबंधणं आसा / ___ तह विसएसु अगिद्धा, वझंति न कम्मणा साहू // ३--जह सच्छंदविहारो, आसाणं तह य इह वरमुणीणं / जर-मरणाइविवज्जिय-संपत्ताणंद-निवाणं // ४--जह सद्दाइसु गिद्धा, बद्धा आसा तहेव विसयरया। पावेंति कम्मबंध, परमासुहकारणं घोरं // ५---जह ते कालियदीवा जोया अन्नत्थ दुहगणं पत्ता। तह धम्मपरिभट्ठा, अधम्मपत्ता इहं जीवा / / ६--पाति कम्म-नरवइ-वसया संसार-वायालीए / आसप्पमद्दएहि ब, नेरइयाईहिं दुक्खाई॥ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568 ] [ ज्ञाताधर्मकथा १-जैसे यहाँ कालिक द्वीप कहा है, वैसे अनुपम सुख प्रदान वाला श्रमणधर्म समझना चाहिए / अश्वों के समान साधु और वणिकों के समान अनुकूल उपसर्ग करने वाले (ललचाने वाले) लोग हैं। २-~-जैसे शब्द आदि विषयों में आसक्त न होने वाले अश्व जाल में नहीं फंसे, उसी प्रकार जो साधु इन्द्रियविषयों में आसक्त नहीं होते वे साधु कर्मों से बद्ध नहीं होते / ३-जैसे अश्वों का स्वच्छंद विहार कहा, उसी प्रकार श्रेष्ठ मुनिजनों का जरा-मरण से रहित और आनन्दमय निर्वाण समझना। तात्पर्य यह है कि शब्दादि विषयों से विरत रहने वाले अश्व जैसे स्वाधीन-इच्छानुसार विचरण करने में समर्थ हुए, वैसे ही विषयों से विरत महामुनि मुक्ति प्राप्त करने में समर्थ होते हैं / ४--इससे विपरीत शब्दादि विषयों में अनुरक्त हुए अश्व जैसे बन्धन-बद्ध हुए, उसी प्रकार जो विषयों में अनुरागवान् हैं, वे प्राणी अत्यन्त दु:ख के कारणभूत एवं घोर कर्मबन्धन को प्राप्त करते हैं। ५--जैसे शब्दादि में प्रासक्त हुए अश्व अन्यत्र ले जाए गए और दुःख-समूह को प्राप्त हुए, उसी प्रकार धर्म से भ्रष्ट जीव अधर्म को प्राप्त होकर दुःखों को प्राप्त होते हैं। ६-ऐसे प्राणी कर्म रूपी राजा के वशीभूत होते हैं / वे सवारी जैसे सांसारिक दुःखों के, अश्वमर्दकों द्वारा होने वाली पीडा के समान (परभव में) नारकों द्वारा दिये जाने वाले कष्टों के पात्र बनते हैं। अठारहवां अध्ययन १-जह सो चिलाइपुत्तो, सुसुमगिद्धो अकज्जपडिबद्धो। धण-पारद्धो पत्तो, महावि वसणसय-कलिअं॥ २--तह जीवो बिसयसुहे, लुद्धो काऊण पावकिरियाओ। कम्मवसेणं पावइ, भवाडवीए महादुक्खं // ३---धणसेट्ठी विव गुरुणो, पुत्ता इव साहबो भवो अडवी। सुय-मांसमिवाहारो, रायगिहं इह सिवं नेयं / ४-जह अडवि-नयर नित्थरण-पावणत्थं तएहि सुयमंसं / भत्तं तहेह साहू, गुरूण आणाए आहारं // ५-भवलंघण-सिवपावण-हेउं भुजंति न उण गेहीए। वण्ण-बल-रूवहे, च भावियप्पा महासत्ता / / १-जैसे चिलातीपुत्र सुसुमा पर आसक्त होकर कुकर्म करने पर उतारू हो गया और धन्य श्रेष्ठी के पीछा करने पर सैकड़ों संकटों से व्याप्त महा-अटवी को प्राप्त हुआ। २-उसी प्रकार जीव विषय-सुखों में लुब्ध होकर पापक्रियाएँ करता है / पापक्रियाएँ करके कर्म के वशीभूत होकर इस संसार रूपी अटवी में घोर दुःख पाता है / ३–यहाँ धन्य श्रेष्ठी के समान गुरु हैं, उसके पुत्रों के समान साधु हैं और अटवी के समान संसार है / सुता (पुत्री) के मांस के समान आहार है और राजगृह के समान मोक्ष है / Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१] [569 4 --जैसे उन्होंने अटवो पार करने और नगर तक पहुँचने के उद्देश्य से ही सुता के माँस का भक्षण किया, उसी प्रकार साधु, गुरु की आज्ञा से ग्राहार करते हैं। ५-वे भवितात्मा एवं महासत्त्वशाली मुनि श्राहार करते हैं एक मात्र संसार को पार करने और मोक्ष प्राप्त करने के ही उद्देश्य से / प्रासक्ति से अथवा शरीर के वर्ण, बल या रूप के लिए नहीं / उन्नीसवाँ अध्ययन १-वाससहस्सं पि जई, काऊणं संजमं सुविउलं पि / __अंते किलिनुभावो, न विसुज्झइ कंडरीयब्व / / २---अप्पेण वि कालेणं, केइ जहा गहियसीलसामण्णा / साहिति निययकज्जं, पुंडरीयमहारिसि व्य जहा // 1- कोई हजार वर्ष तक अत्यन्त विपुल-उच्चकोटि के संयम का पालन करे किन्तु अन्त में उसकी भावना संक्लेशयुक्त-मलीन हो जाए तो वह कंडरीक के समान सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। २-इसके विपरीत, कोई शोल एवं श्रामण्य-साधुधर्म को अंगीकार करके अल्प काल में भी महषि पुडरीक के समान अपने प्रयोजन को-शुद्ध प्रात्मस्वरूप की प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं / Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (2) 383 364 549 358 549 458 अग्निमाणव अग्निशिख अचल अचला अदीनशत्र असंगसेना अपराजित अप्सरा अभयकुमार अभिचन्द्र अमितगति अमितवाहन अचिमाली अर्जुन अन्नक अरिष्टनेमि अवतंसा प्रातपा 214 549 548 426 व्यक्ति-नाम सची 548 कच्छुल्ल 545 कनककेतु 215 कनकध्वज कनकप्रभा 221 कनकरथ 157 कनका 549 कपिल (वासुदेव) कमलप्रभा कमलश्री 215 कमला 545 कमा कलाद 552 काल कालश्री काली 468 कीचक 549 कृष्ण (वासुदेव) 552 कृष्ण (अंगराज) 554 कृष्णराजि 545 कृष्णा कुभ (क) 545 केनूमती 544 कोणिक गोपालिका घना 273 घोष 157 चन्द्र 197 चन्द्रच्छाय 549 चन्द्रप्रभ 549 चन्द्रप्रभा mmmmm 427 426 अंजू 555 417 545 इन्द्रभूति इन्द्रा इल इलश्री इला ईशान उग्रसेन उज्झिता उत्तमा उत्पला 221 553 Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 [ 571 494 413 421 426 254 8 340 547 549 427 xnnow w o x x x 6 oo six 542 542 440 540 चन्द्रश्री चिलाय (त) चलनी चोक्षा जम्बू जरासिन्धु जलकान्त जलप्रभ जितशत्रु जितशत्रु (चंपानृप) जिनदत्त जिनदत्तपुत्र जिनपालित जिनरक्षित ज भक ज्योतिस्नाभ तेतलिपुत्र दमघोष दमदन्त दर्दुरदेव दारुक देवदत्त देवदत्ता द्रपद द्रौपदी धन धनगोप धनदेव धनपाल धनरक्षित धन्य धर धरण धर्म धर्मघोष धर्मरुचि ر ل धारिणी धृष्टद्युम्न नकुल नन्द नन्दादेवी नवमिका नागश्री निरंभा निसुभा पद्मनाभ पद्मा पद्मावती पाण्डु पाण्डुसेन पाव पुण्डरीक पुष्पचूला पुष्पवती पूर्ण पूर्णा पोट्टिला पंथक (दासचेट) पंथक (मुनि) प्रतिबुद्धि प्रद्युम्न प्रभंकरा प्रभंजन बन्धुमती बल बलदेव बलभद्र बली बहुपुत्रिका बहुरूपा भद्रा भद्रा wy w man my 553 358 426 Ancxxcccc 426 338 545 549 358 109 or m 221 494 197 552 or 197 279 197 197 108 427 545 214 273 549 549 129 395 108 197 Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 572] 549 279 [ ज्ञाताधर्मकथा 555 221 157 549 भारिका भिसग भीमसेन भुजगा भुजगावती भूतश्री भूतानन्द भेसग भोगवती मदना मधुरा मल्ली मल्लीदत्त महाकच्छा महाकाल महाघोष महापद्म महाबल 547 427 197 542 रामा रुक्मि रुक्मिणी रूयकता रूयग रूयगावती रूयप्पभा रूया रूयानंदा रोहिणीका रोहिणी रंभा वज्रसेना 548 547 548 548 547 547 197 549 224 248 549 542 549 वसु 215 551 555 214 महावीर 157 महासेन माकन्दी मुनिसुव्रत 285 549 555 109 554 162 539 540 540 549 548 मेघ 458 541 46 541 539 वसुगुप्ता वसुन्धरा वसुमती वसुमित्रा विजय (तस्कर) विजया विजय (हस्ति रत्न) विद्युत् विद्यत (गाथापति) विद्युत्श्री विमला विशिष्ट वीरसेन वेणुदाली वेणुदेव वेलम्ब वैश्रमण शाम्ब शिवा शिशुपाल शुक शैलक (ऋषि) 548 मेधकुमार मेघश्री मेघा मेरुप्रभ मंडुक्क यक्षश्री युधिष्ठिर रक्षिता रजनी रत्नश्री रयण (रत्न) राजि रामरक्षिता 545 167 393 426 197 545 215 157 539 554 426 168 167 538 Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2] शैलक (यक्ष) शंख 297 221 श्रेणिक सुभगा सुमेरुप्रभ सुरूपा सुबाहु सुव्रता (आर्या) सुस्थित 554 545 157 548 243 267 291 549 552 552 सुस्वरा सती सतेरा समुद्रविजय सरस्वती सहदेव सागर सागरदत्त सागरदत्तपुत्र सुभा सुसुमा सुकुमालिका सघोषा सुदर्शन 549 426 407 405 135 552 सूर्यप्रभ सूर्यप्रभा सूर्यश्री सूर्याभ सेचनक सेल्ल सोम सोमदत्त सोमभूति सौदामिनी हरि हरिस्सह 536 42 426 393 494 405 549 168 الله له 393 سلع ع सुदर्शना 545 सुधर्मा सुनाम '440 548 सुबुद्धि 227 549 Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (3) स्थल-विशेषसूची 452 427 222 अमरकंका अरक्खुरी अलकापुरी अहिच्छत्रा आमलकल्पा काकन्दी काशी कांपिल्यपुर कौण्डिन्य चमरचंचा 148 156 427 213 246 167 243 चंपा 226 (क) नगर-नगरी मथरा मिथिला 156 राजगृह 383 वाराणसी 530 वारवती (द्वारका) विराट वीतशोका 254 शुक्तिमती 427 शैलकपुर श्रावस्तो साकेत 111 सौगंधिका हस्तिकल्प 464 हस्तिनापुर 513 हस्तिशीर्ष (ख) पर्वत मंदर 425 वैताढय 214 विन्ध्य 213 शत्रुञ्जय 213 सुखावह 180 168 नगर नागपुर पाण्डुमथुरा पुण्डरीकिणी 550 469 248 426 209 रैवतक 157 एकशैल अंजनगिरि गिरि चारु निषध नीलवन्त पुण्डरीक 469 कव गंगा महानदी (ग) जलाशय 107 गम्भीर पोतपट्टन 81 गुजालिका 232 Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 3 ] [ 575 148 वापी 111 सर .. दीपिका नंदा (पुष्करिणी) पु (पो)क्खरिणी प्रपा मृतगंगातीर लवणसमुद्र 111 सरपंक्ति सर-सरपंक्ति सागर सीता सीतोदा 157 148 213 (घ) उद्यान : वन 538 157 513 213 ग्राम्रशालवन पाराम इन्द्रकुम्भ उज्जाण काममहावन गुणशील (सिलक) चन्द्रावतंसक जीर्णोद्यान नन्दनवन नलिनीवन नीलाशोक प्रमदवन मालुकाकच्छ सहस्राम्रवन सुभूमिभाग 544 107 553 107 358 108 279 128 अधोलोक अंतरिक्ष कालिकद्वीप 254 कुणाल कौशल जम्बूद्वीप दक्षिणार्ध भरत (ङ) द्वीप : देश : क्षेत्र 224 नरक पाञ्चालदेश 476 पुष्कलावती 243 पूर्व विदेह 248 भरत 226 भारतवर्ष महाविदेह रत्नदीप 224 विदेह जनपद सलिलावती विजय 440 सुराष्ट्र 224 संसार o-x.. दोष देवलोक धातकीखण्ड नन्दीश्वर द्वीप morror प्रच्छनगृह आलियगृह (च) भवन : गृह : विमान 139 इलावतंसक 139 उपस्थानशाला Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 576 [ ज्ञाताधर्मकथा 159 कदलीगृह कुसुमगृह कृष्णावतंसक विमान गर्भगृह 225 110 गह चारक चारकशाला जयन्तविमान जालगृह तस्करस्थान तस्करगृह थूणामंडप देवकुल नागगृह पानागार प्रसाधनगृह or or worror Mor mmmxmraroom 111 110 m WWWW / प्रासाद प्रेक्षणगृह भवन / भूतगृह मोहनगृह यक्षदेवगृह 122 यानशाला 220 रूपकावतंसक लतागृह 110 लयन 110 वेश्यागार 137 वैश्रमणगृह शालगृह शून्यगृह सभा सौधर्मकल्प (छ) प्रकीर्णक स्थल द्यूतखल 110 नगरनिद्धमन 123 निर्गमन 128 निर्वर्तन 159 पानागार 159 पथ 110 मणिपीठिका 111 महापथ विवर 168 श्मशान 110 शृगाटक 110 संवर्तन 110 सिंहगुफा सुधर्मा सभा 159 द्वार अतिगमन अपद्वार आघातन उक्कुरुडिय कान्तार 110 110 110 110 कंदरा खंडी गिरिकन्दरा 3 121 159 गोपुर चतुर्मुख चतुष्क चत्वर छिडी त्रिक 497 दरी Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रागमप्रकाशन-समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री श० जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचन्दजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 9. श्री गुमानमलजी चोरड़िया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरड़िया, मद्रास टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 9. श्रीमती सि रेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास चंदजी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्न राजजी चोरड़िया, मद्रास " 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K. G. F.) जाड़न 15. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर- 11. श्री थानचन्दजी मेहता, जोधपुर डिया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजी लाभचंदजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजो हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 17. श्री जे. हक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, स्तम्भ सदस्य व्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 15. श्री इन्द्रचन्दजी बैद, राजनादगाँव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचन्दजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी, सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तुरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी चोरड़िया, मद्रास . 19. श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरड़िया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा८. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर टोला 9. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोल Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mr mmm mr mm 578] [सदस्य-नामावली 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 9. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचन्दजी उत्तमचन्दजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजी लुणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचन्दजी भागचन्दजी बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 29. श्री मूलचन्दजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचन्दजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भंवरलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया. जोधपर 32. श्री बादलचंदजी जगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 19. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी w/o श्री ताराचंदजी 35. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, गोठी. जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचन्दजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरडिया, मद्रास 22. श्री घेवरचन्दजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा 24. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर 39. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी 25. श्री माणकचंदजी किशनलालजी, मेड़तासिटी 40. श्री जबरचन्दजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचन्दजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास जिजा, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 29. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लणकरणजी रिखबचंदजी लोढा, मद्रास 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री आसूमल एण्ड कं०, जोधपुर सहयोगी सदस्य 32. श्री पुखराजजी लोढा, जोधपुर 33. श्रीमती सुगनीबाई w/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़तासिटी सांड, जोधपुर 2. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचन्दजी नाहटा, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेडतिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकडिया, सेलम 39. श्री मांगीलालजी चोरडिया, कुचेरा Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली [579 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 69. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराजजो सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्तमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंध, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 49. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया मेपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगूल्ली 79. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री आसकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 22. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन मेड़तासिटी 23. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरड़िया, भैरूंदा 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपूर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंबरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी 27. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर 59. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां 86. श्री धुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुमराजजी बाफना, बैंगलोर 90. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजो मोदी, भिलाई .श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 92. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 3. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, 94. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलौर राजनांदगाँव 65. श्रीमती कमलाकवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री 67. श्री रावतमलजी छाजेड, भिलाई स्व. पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, 96. श्री अखेचंदजी लणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 97. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगाँव Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 580] [सदस्य-नामावली 98. श्री प्रकाशचंदजो जैन, नागौर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी 99. श्री कुशालचंदजी रिखबचन्दजी सुराणा, लोढा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजो बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 119. श्री भीखमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदडमलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुंवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजो भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीखमचन्दजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी ब निर्मलादेवी, मद्रास धूलिया 108. श्री दुले राजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 109. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरडिया, सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरडिया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुलीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 129. श्री मोतीलालजी पासूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं., बैंगलोर 115. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ ] Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत डॉ. भागचन्द्र जैन एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट. आगम प्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित अठारह भाग प्राप्त हुए। धन्यवाद / इन ग्रन्थों का विहंगावलोकन करने पर यह कहने में प्रसन्नता हो रही है कि संपादकों एवं विवेचक विद्वानों ने नियुक्ति, चूणि एवं टीका का आधार लेकर आगमों की सयुक्तिक व्याख्या की है। व्याख्या का कलेवर भी ठीक है। अध्येता की दृष्टि से ये ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी हैं / इस सुन्दर उपक्रम के लिए एतदर्थ हमारी बधाइयाँ स्वीकारें / S Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम मूल्य प्रागमप्रकाशन समिति द्वारा अद्यावधि प्रकाशित आगम प्रन्यांक पृष्ठ अनुवादक-सम्पादक 1. आचारांगसूत्र [प्र. भाग] 426 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 2. आचारांगसूत्र [द्वि. भाग] 508 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 3. उपासकदशांगसूत्र 250 डॉ. छगनलाल शास्त्री 4. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र 640 पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल 5. अन्तकृद्दशांगसूत्र 248 साध्वी दिव्यप्रभा 25) 6. अनुत्तरोपपातिकसूत्र 120 साध्वी मुक्तिप्रभा 7. स्थानांगसूत्र 824 पं० हीरालाल शास्त्री 8. समवायांगसूत्र 364 पं० हीरालाल शास्त्री 9. सूत्रकृतांगसूत्र [प्र. भाग] 562 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 10. सूत्रकृतांगसूत्र [द्वि. भाग] 280 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 11. विपाकसूत्र 208 अनु.पं. रोशनलाल शास्त्री 25) सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल 12. नन्दीसूत्र 252 अनु. साध्वी उमरावक वर 'अर्चना' 28) सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. 13. औपपातिकसूत्र 242 डॉ. छगनलाल शास्त्री 25) 14. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र. भाग] 568 अमरमुनि 15. राजप्रश्नीयसूत्र 284. वाणीभूषण रतनमुनि 16. प्रज्ञापनासूत्र [प्र. भाग] 568 जैनभूषण ज्ञानमुनि 17. प्रश्नव्याकरणसूत्र 356 अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल 18. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [द्वि. भाग] 266 अमरमुनि 19. उत्तराध्ययनसूत्र राजेन्द्रमुनि शास्त्री 20. प्रज्ञापनासूत्र [द्वि. भाग] 542 जैनभूषण ज्ञानमुनि 21. निरयावलिकासूत्र 176 देवकुमार जैन 22. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र[तृ. भाग] 836 - अमरमुनि 23. दशवकालिकसूत्र 532 महासती पुष्पवती 24. आवश्यकसूत्र 188 महासती सुप्रभा एम. ए., शास्त्री 25. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चतुर्थ भाग] 908 अमरमुनि 26. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री 27. प्रज्ञापनासूत्र [तृ. भाग] 368 जैनभूषण ज्ञानमुनि 28. अनुयोगद्वारसूत्र . 502 उपा. श्री केवलमुनि, सं. पं. देवकुमार 50) 29. सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्द्रप्रज्ञप्ति ___ मुनि श्री कन्हैयालाल 'कमल' 30. जीवाजीवाभिगमसूत्र [प्र.खण्ड] 450- श्री राजेन्द्रमुनि 30) 842 478 Jan Education emaliogal For Privates Personal use only