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________________ बारहवाँ अध्ययन : उदकं ] २३–तए णं जियसत्तू सुबुद्धिस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हद्वतुट्ठ सुबुद्धि अमच्चं एवं वयासी –'सद्दहामि णं देवाणुप्पिया ! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुन्भे वयह, तं इच्छामि णं तव अंतिए पंचाणुव्वइयं सत सिक्खावइयं जाव उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / ' तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से धर्म सुन कर और मन मे धारण करके, हर्षित और संतुष्ट होकर सुबुद्धि अमात्य से कहा- देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। जैसा तुम कहते हो वह वैसा ही है / सो मैं तुमसे पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को यावत् ग्रहण करके विचरने की अभिलाषा करता हूँ।' (तब सुबुद्धि प्रधान ने कहा-) 'हे देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो, प्रतिबंध मत करो।' २४--तए णं से जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव दुवालसविहं सावयधम्म पडिवज्जइ / तए णं जियसत्तू समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे [जाव उबलद्धपुण्णपावे आसव-संवर-निज्जर-किरिया-अहिगरण-बंध-मोक्खकुसले असहेज्जे देवासुर-नाग-जक्ख-रक्खस-किण्णरकिंपुरिस-गरुल-गंधब्व-महोरगाइएहि देवगणेहि निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे निग्गंथे पावयणे णिस्संकिए णिक्कंखिए निवितिगिच्छे लद्धढे गहियट्ठ पुच्छियठे अभिगयठे विणिच्छियठे आट्ठ-मजपमाणुरागरत्त अयमाउसो ! निग्गथे पावयणे अखें, अयं परमठे, सेसे अणटठे, ऊसियफलिहे अवंगुय-दुवारे चियत्तंतेउर-परघरदारप्पवेसे चाउद्दसटुमुद्दिट्ट-पुण्णमासिणोसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेमाणे समणे निम्नथे फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं ओसह-भेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं] पडिलाभेमाणे विहरइ / व तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से पाँच अणुव्रत वाला (और सात शिक्षाव्रत वाला) यावत् बारह प्रकार का श्रावकधर्म अंगीकार किया। तत्पश्चात् जितशत्रु श्रावक हो गया, . जीव-अजीव का ज्ञाता हो गया (पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण (पाप के साधन), बंध और मोक्ष में कुशल, किसी की सहायता की अपेक्षा न रखने वाला, देव असुर नाग यक्ष राक्षस किन्नर किंपुरुष गरुड गन्धर्व महोरग ग्रादि देवगणों द्वारा भी निर्ग्रन्थ प्रवचन का अतिक्रमण न करने वाला, निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा से रहित, अर्थों-पदार्थों को भलीभांति जानने वाला, पूछकर समझने वाला, निश्चित कर लेने वाला, निर्ग्रन्थ प्रवचन में गहरे अनुराग वाला, 'आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ और परमार्थ है, शेष अनर्थ हैं, ऐसी श्रद्धा वाला, घर की आगल को ऊपर कर देने वाला, दानादि के लिए द्वार खुला रखने वाला, दूसरे के घर में जाने पर उसे प्रीति उपजाने वाला, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा को पोषधव्रत का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाला, निर्ग्रन्थ श्रमणों को प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम, औषध, भेषज, प्रतिहारी पीढ़ा, पाट, उपाश्रय एवं संस्तारक) दान करता हुअा रहने लगा। विवेचन-श्रावकपन अमुक कुल में उत्पन्न होने जन्म लेने से नहीं आता। वह जातिगत विशेषता भी नहीं है / प्रस्तुत सूत्र स्पष्ट निर्देश करता है कि श्रावक होने के लिए सर्वप्रथम वीतरागप्ररूपित तत्त्वस्वरूप पर श्रद्धा होनी चाहिए / वह श्रद्धा भी ऐसी अचल, अटल हो कि मनुष्य तो क्या, देव भी उसे भंग न कर सके। साथ ही उसे आस्रव, बन्ध, निर्जरा, मोक्ष आदि का सम्यक् ज्ञाता भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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