________________ 332] [ ज्ञाताधर्मकथा होना चाहिए / मुमुक्षु को जिनागमप्ररूपित नौ तत्त्वों का ज्ञान अनिवार्य है। उसे इतना सत्त्वशाली होना चाहिए कि देवगण डिगाने का प्रयत्न करके थक जाएँ, पराजित हो जाएँ किन्तु वह अपने श्रद्धान और अनुष्ठान से डिगे नहीं। ____ मनुष्य जब श्रावकपद को अंगीकार करता है-श्रावकवृत्ति स्वीकार कर लेता है, तब उसके प्रान्तरिक जीवन में पूरी तरह परिवर्तन हो जाता है और आन्तरिक जीवन में परिवर्तन होने पर बाह्य व्यवहार में भी स्वतः परिवर्तन या जाता है। उसका रहन-सहन, खान-पान, बोल-चाल आदि समस्त व्यवहार बदल जाता है। श्रावक मानो उसी शरीर में रहता हुआ भी नूतन जीवन प्राप्त करता है। उसे समग्र जगत् वास्तविक स्वरूप में दृष्टि-गोचर होने लगता है। उसकी प्रवृत्ति भी तदनुकूल ही हो जाती है / राजा प्रदेशी आदि इस तथ्य के उदाहरण हैं। निम्रन्थ मुनियों के प्रति उसके अन्तःकरण में कितनी गहरी भक्ति होती है, यह सत्य भी प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित कर दिया गया है / इस सूत्र से राजा और उसके मन्त्री के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध प्राचीन काल में होता था अथवा होना चाहिए, यह भी विदित होता है। २५-तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरा जेणेव चंपा गयरी जेणेव पुण्णभद्दचेइए तेणेव समोसढे, जियसत्तू राया सुबुद्धी य निग्गच्छइ / सुबुद्धी धम्म सोच्चा जं णवरं जियसत्तु आपुच्छामि जाव पन्वयामि / अहासुहं देवाणुप्पिया! उस काल और उस समय में जहाँ चम्पा नगरी और पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ स्थविर मुनि पधारे / जितशत्रु राजा और सुबुद्धि उनको वन्दना करने के लिए निकले। सुबुद्धि ने धर्मोपदेश सुन कर (निवेदन किया-) 'मैं जितशत्रु राजा से पूछ लू-उनकी आज्ञा ले लू और फिर दीक्षा अंगीकार करूँगा। तब स्थविर मुनि ने कहा-देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो।' २६-तए णं सुबुद्धी अमच्चे जेणेव जियसत्तू राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी-'एवं खलु सामी ! मए थेराणं अंतिए धम्मे निसंते, से वि य धम्मे इच्छिए पडिच्छिए इच्छियपडिच्छिए तए णं अहं सामी ! संसारभउविग्गे, भीए जम्म-मरणाणं, इच्छामि गं तुन्भेहि अन्भणुनाए समाणे जाव पव्वइत्तए।' तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धि अमच्चं एवं वयासी-अच्छासु ताव देवाणुप्पिया! कइवयाई वासाइं जाव भुजमाणा तओ पच्छा एगयओ थेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वइस्सामो। तत्पश्चात् सुबुद्धि अमात्य जितशत्रु राजा के पास गया और बोला-'स्वामिन ! मैंने स्थविर मुनि से धर्मोपदेश श्रवण किया है और उस धर्म की मैंने पुनः पुनः इच्छा की है। इस कारण हे स्वामिन् ! मैं संसार--अनादि काल से चली आ रही जन्म-मरण की निरन्तरता के भय से उद्विग्न हुअा हूँ तथा जरा-मरण से भयभीत हुआ हूँ / अतः आपकी प्राज्ञा पाकर स्थविरों के निकट प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ।' तब जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! अभी कुछ वर्षों तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org