________________ 128 ] [ज्ञाताधर्मकथा आनन्द होगा, जब कि तुमने मेरे पुत्र के घातक यावत् वैरी तथा प्रत्यमित्र (विजय चोर) को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन में से संविभाग किया--हिस्सा दिया। ४७–तए णं से भदं एवं वयासी--'नो खलु देवाणुप्पिए ! धम्मो त्ति वा, तवो ति वा, कयपडिकयाइ वा, लोगजत्ता इ वा, नायए ति वा, धाडियए ति वा, सहाए ति वा, सुहि त्ति वा, तओ विपुलाओ असणपाणखाइमसाइमाओ संविभागे कए, नन्नत्थ सरीरचिन्ताए। तए णं सा भद्दा धणेणं सत्थवाहेणं एवं बुत्ता समाणी हट्टतुट्ठा--जाव (चित्तमाणंदिया जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया) आसणाओ अब्भुटुइ, कंठाठिं अवयासेइ, खेमकुसलं पुच्छइ, पुच्छित्ता व्हाया जाव पायच्छित्ता विपुलाई भोगभोगाइं भुजमाणी विहरइ। तब धन्य सार्थवाह ने भद्रा से कहा-'देवानुप्रिये ! धर्म समझकर, तप समझ कर, किये उपकार का बदला समझकर, लोकयात्रा-लोक दिखावा ममझकर, न्याय समझकर या उसे अपना नायक समझ कर, सहचर समझकर, सहायक समझकर अथवा सुहृद (मित्र) समझकर मैंने उस विपुल, अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से संविभाग नहीं किया है। सिवाय शरीर चिन्ता (मल-मूत्र की बाधा) के और किसी प्रयोजन से संविभाग नहीं किया। धन्य सार्थवाह के इस स्पष्टीकरण से भद्रा हृष्ट-तुष्ट हुई, [पानन्दितचित्त हुई, हर्ष से उसका हृदय विकसित हो गया] वह अासन से उठी, उसने धन्य सार्थवाह को कंठ से लगाया और उसका कुशल-क्षेम पूछा / फिर स्नान किया, यावत् प्रायश्चित्त (तिलक आदि) किया और पांचों इन्द्रियों के विपुल भोग भोगती हुई रहने लगी। विजय चोर की अधम गति ४८-तए णं से विजयं तक्करे चारगसालाए तेहि बंहिं बहेहि कसप्पहारेहि य जाव' तण्हाए य छुहाए य परज्झवमाणे कालमासे कालं किच्चा नरएसु नेरइयत्ताए उववन्ने / से णं तत्थ नेरइए जाए काले कालोभासे जाव (गंभीरलोमहरिसे भीमे उत्तासणए परमकण्हे वण्णणं / से णं तत्थ निच्च भीए, निच्चं तत्थे, निच्चं तसिए निच्चं परमऽसुहसंबद्धं नरगगति-) वेयणं पच्चणुब्भवमाणे विहरई। से णं तओ उध्वट्टित्ता अणादीयं अणवदग्गं दोहमद्धं चाउरंत-संसारकतारं अणुपरियट्टिस्सइ / तत्पश्चात् विजय चोर कारागार में बन्ध, वध, चाबुकों के प्रहार (लता प्रहार, कंबा प्रहार) यावत् प्यास और भूख से पीड़ित होता हुआ, मृत्यु के अवसर पर काल करके नारक रूप से नरक में उत्पन्न हुआ / नरक में उत्पन्न हुआ वह काला और अतिशय काला दिखता था, [गंभीर, लोमहर्षक, भयावह त्रासजनक एवं वर्ण से काला था / वह नरक में सदैव भयभीत, सदैव त्रस्त और सदैव घबराया हुआ रहता था। सदैव अत्यन्त अशुभ नरक सम्बन्धी] वेदना का अनुभव कर रहा था। वह नरक से निकल कर अनादि अनन्त दीर्घ मार्ग या दीर्घकाल वाले चतुर्गति रूप संसारकान्तार में पर्यटन करेगा। 1. द्वि. म. सूत्र 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org