________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट] [ 127 तए णं से धण्णे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता जावि य से तत्य बाहिरिया परिसा भवइ, तंजहा-दासाइ वा, पेस्साइ वा, भियगाइ वा, भाइल्लगाइ वा, से वि य गंधण्णं सत्थवाहं एज्जंतं पासइ, पासित्ता पायवडियाए खेमकुसलं पुच्छति / / तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को आता देखकर राजगृह नगर के बहुत-से आत्मीय जनों, श्रेष्ठी जनों तथा सार्थवाह आदि ने उसका आदर किया, संमान से बुलाया, वस्त्र आदि से सत्कार किया नमस्कार आदि करके समान किया, खड़े होकर मान किया और शरीर की कुशल पूछी। तत्पश्चात् धन्य "सार्थवाह अपने घर पहुँचा। वहाँ जो बाहर की सभा थी, जैसे-दास (दासीपुत्र), प्रेष्य (काम-काज के लिए बाहर भेजे जाने वाले नौकर), भतक (जिनका बाल्यवस्था से पालन-पोषण किया हो) और व्यापार के हिस्सेदार, उन्होंने भी धन्य सार्थवाह को आता देखा। देख कर पैरों में गिर कर क्षेम, कुशल की पृच्छा की। ४४--जावि य से तत्थ अभंतरिया परिसा भवइ, तंजहा-मायाइ वा, पियाइ वा, भायाइ वा, भगिणीइ वा, सावि य णं धण्णं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता आसणाओ अब्भटे / अन्भुट्ठता कंठाकंठियं अवयासिय बाहप्पमोक्खणं करेइ / वहाँ जो आभ्यन्तर सभा थी, जैसे कि माता, पिता, भाई, बहिन आदि, उन्होंने भी धन्य सार्थवाह को आता देखा / देखकर वे आसन से उठ खड़े हुए, उठकर गले से गला मिलाकर उन्होंने हर्ष के आँसू बहाये। और न भद्रा के कोप का उपशमन ४५--तए णं से धण्णे सत्थवाहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छइ / तए णं सा भद्दा सत्थवाही धण्णं सत्यवाहं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता पो आढाइ, नो परियाणाइ, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी तुसिणीया परम्मुही संचिट्ठइ।। ___ तए णं से धण्णे सत्थवाहे भई भारियं एवं वयासी-कि णं तुभं देवाणुप्पिए, न तुट्ठी वा, न हरिसे वा, नाणंदे वा ? जं मए सएणं अस्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पाणं विमोइए। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह भद्रा भार्या के पास गया / भद्रा सार्थवाही ने धन्य सार्थवाह को अपनी ओर ग्राता देखा / देखकर न उसने अादर किया. न मानो जाना / न अादर कर जानती हुई वह मौन रह कर और पीठ फेर कर (विमुख होकर) बैठी रही। उब धन्य सार्थवाह ने अपनी पत्नी भद्रा से इस प्रकार कहा –देवानुप्रिये ! मेरे आने से तुम्हें सन्तोष क्यों नहीं है ? हर्ष क्यों नहीं है ? अानन्द क्यों नहीं है ? मैंने अपने सारभूत अर्थ से राजकार्य (राजदंड) से अपने आपको छुड़ाया है। ४६-तए णं भद्दा धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी—'कहं णं देवाणुप्पिया! मम तुट्टी वा जाव (हरिसे वा) आणंदे वा भविस्सइ, जेणं तुमं मम पुत्तघायगस्स जाव पच्चामित्तस्स तओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेसि ? तब भद्रा ने धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! मुझे क्यों सन्तोष, हर्ष और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org