________________ 126 [ज्ञाताधर्मकथा सत्थवाहिं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! धण्णे सत्यवाहे तव पुत्तघायगस्स जाव' पच्चामित्तस्स ताओ विउलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही पंथयस्स दासचेडयस्स अंतिए एयमढं सोच्चा आसुरत्ता रुट्ठा जाव (कुविया) मिसिमिसेमाणा धण्णस्स सत्थवाहस्स पओसमावज्जइ / पंथक भोजन-पिटक लेकर कारागार से बाहर निकला। निकलकर राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर जहाँ अपना घर था और जहाँ भद्रा भार्या थी वहाँ पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसने भद्रा सार्थवाही से कहा-देवानुप्रिये धन्य सार्थवाह ने तुम्हारे पुत्र के. घातक यावत् पुत्रहन्ता, शत्रु, वैरी (सानुबन्ध वैर वाले प्रतिकूल), आचरण करने वाले] दुश्मन को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से हिस्सा दिया है। तब भद्रा सार्थवाही दास चेटक पंथक के मुख से यह अर्थ सुनकर तत्काल लाल हो गई, रुष्ट हुई [कुपित हुई] यावत् मिसमिसाती हुई धन्य सार्थवाह पर प्रद्वेष करने लगी। धन्य का छुटकारा ४२-तए णं धरणे सत्थवाहे अन्नया कयाइं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणेणं सएण य अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पाणं मोयावेइ। मोयावित्ता चारगसालाओ पडिनिक्खमइ / पडिनिक्खमित्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता अलंकारियकम्मं करेइ / करित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता अहधोयमट्टियं गेण्हइ / गेण्हित्ता पोक्खरिणि ओगाहेइ / ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ / करित्ता ण्हाए कयबलिकम्मे जाव (कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए) रायगिहं नगरं अणुपविसइ / अणुपविसित्ता रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को किसी समय मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिवार के लोगों ने अपने (धन्य सार्थवाह के) सारभूत अर्थ से---जुर्माना चुका करके राजदण्ड से मुक्त कराया। मुक्त होकर वह कारागार से बाहर निकला। निकल कर जहाँ पालंकरिक सभा (हजामत बनवाना, नाखून कटवाना आदि शरीर-शृंगार करने की नाई की दुकान) थी, वहाँ पहुँचा / पहुँच कर पालंकरिक—कर्म किया। फिर जहाँ पुष्करिणी थी, वहाँ गया / जाकर नीचे की धोने की मिट्टी ली और पुष्करिणी में अवगाहन किया, जल से मज्जन किया, स्नान किया, बलिकर्म किया, यावत् [कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त किया] फिर राजगृह में प्रवेश किया / राजगृह नगर के मध्य में होकर जहाँ अपना घर था, वहाँ जाने के लिए रवाना हुा / धन्य का सरकार ४३-तए णं धण्णं सत्यवाहं एज्जमाणं पासित्ता रायगिहे नगरे बहवे नियग-सेटि-सत्यवाहपभइओ आढ़ति, परिजाणंति, सक्कारेंति, सम्माणेति, अन्भुट्ठति, सरीरकुसलं पुच्छंति / 1. द्वि अ. सूत्र 35. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org