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________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट [ 129 ४९--एवामेव जंबू! जे णं अम्हं निग्गंथो वा निग्गन्थी वा आयरिय-उवज्झायाणं अन्तिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइए समाणे विपुलमणि-मुत्तिय-धण-कणग-रयण-सारे णं लुब्भइ से वि य एवं चेव / श्री सुधर्मा स्वामी अब तक के कथानक का उपसंहार करते हुए जम्बू स्वामी से कहते हैं---हे जम्बू ! इसी प्रकार हमारा जो साधु या साध्वी प्राचार्य या उपाध्याय के पास मुण्डित होकर, गृहत्याग कर, साधुत्व की दीक्षा अंगीकार करके विपुल मणि मौक्तिक धन कनक और सारभूत रत्नों में लुब्ध होता है, वह भी ऐसा ही होता है उसकी दशा भी चोर जैसी होती है। स्थविर-आगमन 50 तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नाम थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना कुलसंपन्ना जाव' पुब्वानुपुब्धि चरमाणा जाव' गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव गुणसिलए चेइए जाव (तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता) अहापडिरूवं उग्गहं उम्गिम्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरंति / परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ। उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर भगवन्त जाति (मातृपक्ष) से सम्पन्न, कुल (पितृपक्ष) से सम्पन्न, यावत् [बल, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन चारित्र एवं लाघव (द्रव्य और भाव से लघुता) से सम्पन्न, प्रोजस्वी, तेजस्वी, वचस्वी, यशस्वी, क्रोध-मान-माया लोभ के विजेता, निद्रा और परीषहों को जीत लेने वाले, जीवन की कामना और मरण के भय से ऊपर उठे हुए, तपस्वी, गुणवान, चरण-करण तथा यतिधर्मों का सम्पूर्ण रूप से पालन करने वाले, उदार, उग्रवती, उग्रतपस्वी, उग्र ब्रह्मचारी, शरीर के प्रति अनासक्त, विपुल तेजोलेश्या को संक्षिप्त कर अपने अन्दर ही समाये हुए, चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता, चार ज्ञानों के धनी, पाँच सौ अनगारों के साथ अनुक्रम से चलते हुए, [ग्रामानुग्राम विचरते हुए और सुखपूर्वक विहार करते हुए] जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील चैत्य था, वहाँ आये। आकर] यथायोग्य उपाश्रय की याचना करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे-रहे / उनका प्रागमन जानकर परिषद् निकली। धर्मघोष स्थविर ने धर्मदेशना दी। धन्य को पर्युपासना ५१--तए णं तस्स धण्णस्स सस्थवाहस्स बहुजणस्स अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म इमेयारूवे अज्झथिए जाव (चिन्तिए पत्थिए मणोगए संकप्पे) समुप्पज्जित्था--"एवं खलु भगवंतो जाइसंपन्ना इहमागया, इहं संपत्ता, तं गच्छामि गं थेरे भगवंते वदामि नमसामि / ' एवं संपेहेइ, संपेहिता पहाए जाव (कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते) सुद्धप्यावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पचरपरिहिए पायविहार-चारेणं जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव थेरा भगवंतो 1. प्र.अ. 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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