________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [459 हत्थिणाउरनयराओ पंडुस्स रणो सुण्हा पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवई देवी तव पउमणाभस्स रणो पुव्वसंगतिएणं देवेणं अमरकंकारि साहरिया। तए णं से कण्हे वासुदेवे पंहिं पंडवेहि सद्धि अप्पछठे हिं रहेहिं अमरकंकं रायहाणि दोवईए देवीए कूवं हवमागए / तए णं तस्स कण्हस्स वासुदेवस्स पउमनाभेणं रण्णा सद्धि संगाम संगामेमाणस्स अयं संखसद्दे तव मुहवायपूरिते इव इठे कंते इहेव वियंभइ।" मुनिसुव्रत अरिहंत ने पुनः कहा --'कपिल वासुदेव ! ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा नहीं कि एक क्षेत्र में एक ही युग में और एक ही समय में दो तीर्थंकर, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव अथवा दो वासुदेव उत्पन्न हुए हों, उत्पन्न होते हों या उत्पन्न होंगे। हे वासुदेव ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप से, भरत से हस्तिनापर नगर से पाण्ड राजा की पत्र-वध और पांच पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी देवी को तुम्हारे पद्मनाभ राजा का पहले का साथी देव हरण करके ले पाया था। पांच पांडवों समेत आप स्वयं छठे द्रौपदी देवी को वापिस छीनने के लिए शीघ्र पाये हैं। वह पद्मनाभ राजा के साथ संग्राम कर रहे हैं / अतः कृष्ण वासुदेव के शंख का यह शब्द है, जो ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारे मुख की वायु से पूरित किया गया हो और जो इष्ट है, कान्त है और यहाँ तुम्हें सुनाई दिया है।' १९८--तए णं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासो'गच्छामि णं अहं भंते ! कण्हं वासुदेवं उत्तमपुरिसं पासामि / ' तए णं मुणिसुव्वए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासो-'नो खलु देवाणुप्पिया! एवं भूयं वा, भवइ वा, भविस्सइ वा जाणं अरिहंता वा अरिहंतं पासंति, चक्कवट्टो वा चक्कट्टि पासंति, बलदेवा वा बलदेवं पासंति, वासुदेवा वा वासुदेवं पासंति। तह वि य णं तुमं कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुई मज्झमज्झेण वीइवयमाणस्स सेयापीयाई धयग्गाई पासिहिसि / ' तत्पश्चात् कपिल वासुदेव ने मुनिसुव्रत तीर्थंकर को बन्दना को, नमस्कार किया। बंदनानमस्कार करके कहा-'भगवन ! मैं जाऊँ और पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव को देख-उनके दर्शन करूं।' तब मुनिसुव्रत अरिहन्त ने कपिल वासुदेव से कहा-'देवानुप्रिय ! ऐसा हुया नहीं, होता नहीं और होगा नहीं कि एक तीर्थकर दूसरे तीर्थंकर को देखें, एक चक्रवतीं दूसरे चक्रवर्ती को देखें, एक बलदेव दूसरे बलदेव को देखें और एक वासुदेव दूसरे वासुदेव को देखें। तब भी तुम लवणसमुद्र के मध्य भाग में होकर जाते हुए कृष्ण वासुदेव के श्वेत एवं पीत ध्वजा के अग्रभाग को देख सकोगे।' १९९–तए णं कविले वासुदेवे मुणिमुव्वयं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता हत्थिखधं दुरूहइ, दुरूहित्ता सिग्धं सिग्धं जेणेव वेलाउले तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुई मज्झमज्झेणं वीइवयमाणस्स सेयापीयाई धयग्गाई पासइ, पासित्ता एवं वयइ–'एस णं मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासुदेवे लवणसमुहं मझमझेणं वीईवयइ' त्ति कटु पंचयन्नं संखं परामुसइ मुहवायपूरियं करेइ / तत्पश्चात् कपिल वासुदेव ने मुनिसुव्रत तीर्थंकर को वन्दन और नमस्कार किया। वन्दन 1. पाठान्तर ---'इव वियंभइ' / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org