________________ 458 ] [ ज्ञाताधर्मकथा 194 तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे पुरिच्छमद्धे भारहे वासे चंपा णामं णयरी होत्था / पुण्णभद्दे चेइए / तत्थ णं चंपाए गयरीए कविले णामं वासुदेवे राया होत्था, महया हिमवंत वष्णओ' / उस काल और उस समय में, धातकीखंडद्वीप में, पूर्वार्ध भाग के भरतक्षेत्र में, चम्पा नामक नगरी थी। पूर्णभद्र नामक चैत्य था। उस चम्पा नगरी में कपिल नामक वासुदेव राजा था। वह महान् हिमवान् पर्वत के समान महान् था / यहाँ राजा का वर्णन कह लेना चाहिए। वासुदेवों का ध्वनि-मिलन १९५-तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुब्बए अरहा चंपाए पुण्णभद्दे समोसढे / कपिले वासुदेवे धम्म सणेहतए णं से कविले वासदेवे मणिसवयस्स अरहओ धम्म सणमाणे कण्हस्स वासुदेवस्स संखसई सुणेइ / तए णं तस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था-'कि मष्णे धायइसंडे दीवे भारहे वासे दोच्चे वासुदेवे समुप्पण्णे जस्स णं अयं संखसद्दे ममं पिव मुहवायपूरिए वियंभइ?' उस काल और उस समय में मुनिसुव्रत नामक अरिहन्त चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे। कपिल वासुदेव ने उनसे धर्मोपदेश श्रवण किया / उसी समय मुनिसुव्रत अरिहन्त से धर्म श्रवण करते-करते कपिल वासुदेव ने कृष्ण वासुदेव के पांचजन्य शंख का शब्द सुना / तब कपिल वासदेव के चित्त में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुा-'क्या धातकीखण्ड द्वीप के भारतवर्ष में दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है ? जिसके शंख का शब्द ऐसा फैल रहा है, जैसे मेरे मुख की वायु से पूरित हुया हो-~-मैंने बजाया हो।' १९६–'कविला वासुदेवा, सद्दाई (सुणेइ)' मुणिसुव्वए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी-'से णणं ते कविला ! वासुदेवा ! मम अंतिए धम्म णिसामेमाणस्स संखसई आकण्णित्ता इमेयारूवे अज्झथिएं समुप्पण्णे-fक मण्णे जाव वियंभइ, से नणं कविला! वासुदेवा ! अयमठे समठे ?' 'हता अस्थि / ' 'कपिल वासुदेव' इस प्रकार से सम्बोधित करके मुनिसुव्रत अरिहन्त ने कपिल वासुदेव से कहा-'हे कपिल बासुदेव ! मेरे धर्म श्रवण करते हुए तुम्हें यह विचार आया है कि---'क्या इस भरतक्षेत्र में दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है, जिसके शंख का यह शब्द फैल रहा है आदि; हे कपिल वासुदेव ! मेरा यह अर्थ (कथन) सत्य है ?' (कपिल वासुदेव ने उत्तर दिया)--'हाँ सत्य है / ' १९७--'नो खलु कपिला ! वासुदेवा ! एवं भूयं वा, भवइ वा, भविस्सइ वा जण्णं एगे खेते, एगे जगे, एगे समए दुवे अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा उपज्जिसु वा, उप्पज्जंति वा, उपज्जिस्संति वा / एवं खलु वासुदेवा ! जंबुद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ 1. प्रौपपातिक सूत्र में राजवर्णन देखिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org