________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [ 457 कहा--देवानुप्रिय ! क्या तुम नहीं जानते कि पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव का विप्रिय करते हुए तुम मुझे यहां लाये हो ? किन्तु जो हुआ सो हुप्रा / अब देवानुप्रिय ! तुम जायो / स्नान करो। पहनने और प्रोढ़ने के वस्त्र गोले (पानी नितरते हुए) धारण करो। पहने हुए वस्त्र का छोर नीचा रखो अर्थात् कांछ खुली रखो / अन्तःपुर की रानियों आदि परिवार को साथ में ले लो। प्रधान और श्रेष्ठ रत्न भेंट के लिए लो / मुझे आगे कर लो। इस प्रकार चलकर कृष्ण वासुदेव को दोनों हाथ जोड़ कर उनके पैरों में गिरो और उनकी शरण ग्रहण करो / देवानुप्रिय ! उत्तम पुरुष प्रणिपतितवत्सल होते हैं-अर्थात् जो उनके सामने नम्र होते हैं, उन पर दया और प्रसन्नता प्रकट करते हैं / (ऐसा करने से ही तुम्हारी नगरी प्रादि की रक्षा होगी / अन्यथा नहीं)। द्रौपदी-समर्पण १९१–तए णं से पउमणाभे दोवईए देवीए एयमलैं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता हाए जाव सरणं उवेइ, उवइत्ता करयल एवं वयासी-'दिट्ठा णं देवाणुप्पियाणं इड्डी जाव परक्कमे, तं खामेमि गं देवाणप्पिया ! जाव खमंतु णं जाव णाहं भुज्जो एवं करणयाए' त्ति कटु पंजलिउडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवस्स दोवई वि साहत्थि उवणेइ / उस समय पद्मनाभ ने द्रौपदी देवी के इस अर्थ को अंगीकार किया / अंगीकार करके द्रौपदी देवी के कथनानुसार स्नान आदि करके कृष्ण वासुदेव को शरण में गया / वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहने लगा-'मैंने आप देवानुप्रिय की ऋद्धि देख ली, पराक्रम देख लिया / हे देवानुप्रिय ! मैं क्षमा की प्रार्थना करता हूँ, आप यावत् क्षमा करें / यावत् मैं पुन: ऐसा नहीं करूगा।' इस प्रकार कह कर उसने हाथ जोड़े / पैरों में गिरा / उसने अपने हाथों द्रौपदी देवी सौंपी। १९२--तए णं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभं एवं वयासी---- 'हं भो पउमणाभा! अप्पत्थियपत्थिया ! किण्णं तुम ण जाणसि मम भििण दोवई देवि इह हव्वमाणमाणे ? ते एवमवि गए त्थि ते ममाहितो इयाणि भयमस्थि' त्ति कटु पउमणाभं पडिविसज्जेइ, पडिविसज्जित्ता दोवई देवि गिण्हइ, गिहित्ता रहं दुरुहेइ, दुरूहित्ता जेणेव पंच पंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचण्हं पंडवाणं दोवई देवि साहत्यि उवणेइ। ___ तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा-'अरे पद्मनाभ अप्रार्थित (मृत्यु) को प्रार्थना करने वाले! क्या तू नहीं जानता कि तू मेरी भगिनी द्रौपदी देवी को जल्दी से यहाँ ले आया है ? ऐसा होने पर भी, अव तुझे मुझसे भय नहीं है !' इस प्रकार कह कर पद्मनाभ को छुट्टी दी। उसे छुटकारा देकर द्रौपदी देवी को ग्रहण किया और रथ पर आरूढ हुए। रथ पर आरूढ होकर पांच पाण्डवों के समीप आये / वहाँ श्राकर द्रौपदी देवी को हाथों-हाथ पांचों पाण्डवों को सौंप दिया। १९३-तए णं से कण्हे पंचहि पंडवेहि सद्धि अप्पछठे हि रहेहि लवणसमुदं मज्झमझेणं जेणेव जंबुद्दीवे दोवे, जेणेव भारहे वासे, तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तत्पश्चात् पांचों पाण्डवों के साथ, छठे आप स्वयं कृष्ण वासुदेव छह रथों में बैठकर, लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जिधर जम्बूद्वीप था अोर जिधर भारतवर्ष था, उधर जाने को उद्यत हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org