________________ 456 [ ज्ञाताधर्मकथा जालपरिक्खित्तं, तडित-तरुणकिरण-तवणिज्जवचिधं, दद्दरमलयगिरिसिहर-केसरचामरबालअद्धचंदचिधं, काल-हरिय-रत्त-पीय-सुक्किल्ल-बहुण्हारुणिसंपिणद्धजीवं, जीवियंतकर--- भावार्थ-यह श्रीकृष्ण के धनुष का वर्णन है / वह इस प्रकार है:-कृष्ण का धनुष शुक्लपक्ष की द्वितीया के अचिर-उदित-जिसे उदित हुए बहुत समय न हुआ हो ऐसे चन्द्रमा और इन्द्रधनुष था, अतीव दप्त-मदमाते उत्तम महिष के दढ और सधन अगों के अग्रभागों से बनाया गया था, कृष्ण सर्प, श्रेष्ठ भैसे के सींग, उत्तम कोकिला, भ्रमर-निकर और नील की गोली के सदृश उज्ज्वल स्निग्ध-काली कान्ति से युक्त उसका पृष्ठ भाग था, किसी कुशल कलाकार द्वारा उजाले गए-चमकाए हुए-मणिरत्नों की घंटियों के समूह से वेष्टित था, चमकती बिजली की किरणों जैसे स्वर्ण-चिह्नों से सुशोभित था, दर्दर और मलय पर्वत शिखरों पर विचरण करने वाले सिंह की गर्दन के वालों (अयाल) तथा चमरों की पूछ के केशों के एवं अर्द्धचन्द्र के लक्षणों-चिह्नों से युक्त था, काली, हरी, लाल, पीली और श्वेत वर्ण की नसों से उसकी जीवा (प्रत्यंचा) बंधी थी। वह धनुष शत्रुओं के जीवन का अन्त करने वाला था। १८९-तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, ठवित्ता रहाओ पच्चोरहइ, पच्चोरुहित्ता देउब्वियसमुग्धाएणं समोहणइ, समोहणित्ता एग महं णरसीहरूवं विउव्वइ, विउवित्ता महया महया सद्देणं पाददद्दरियं करेइ / तए णं से कण्हेणं वासुदेवेणं महया महया सद्देणं पाददद्दरएणं कएणं समाणेणं अमरकंका रायहाणी संभग्गपागार-गोपुराट्टालय-चरियतोरण-पल्हस्थियपवरभवण-सिरिघरा सरस्सरस्स धरणियले सन्निवइया / तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव जहाँ अमरकंका राजधानी थी, वहाँ गये / वहाँ जाकर रथ ठहराया। रथ से नीचे उतरे। वैक्रियसमुद्घात से समवहत हुए अर्थात् समुद्घात किया। समुद्घात करके उन्होंने एक महान न नरसिंह का रूप धारण किया। फिर जोर-जोर के शब्द करके पैरों का प्रास्फालन किया--पैर पछाड़े / कृष्ण वासुदेव के जोर-जोर की गर्जना के साथ पैर पछाड़ने से अमरकंका राजधानी के प्राकार (परकोटा) गोपुर (फाटक) अट्टालिका (झरोखे) चरिका (परकोटा और नगर के बीच का मार्ग) और तोरण (द्वार का ऊपरी भाग) गिर गये और श्रेष्ठ महल तथा श्रीगृह (भंडार) चारों ओर से तहस-नहस होकर सरसराट करके धरती पर आ पड़े। पद्मनाभ द्रौपदी की शरण में १९०-तए णं पउमणाभे राया अमरकंक रायहाणि संभग्ग जाव पासित्ता भीए दोवई देवि सरणं उवेइ / तए णं सा दोवई देवी पउमनाभं रायं एवं वयासी-'किण्णं तुम देवाणुप्पिया ! न जाणसि कण्हस्स वासुदेवस्स उत्तमपुरिसस्स विप्पियं करेमाणे ममं इह हब्वमाणेसि ? तं एवमवि गए गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! हाए उल्लपडसाडए अवचूलगवत्थणियत्थे अंतेउरपरियालसंपरिडे अग्गाई वराई रयणाई गहाय मम पुरतो काउं कण्हं वासुदेवं करयलपायपडिए सरणं उवेहि, पणिवइयवच्छला गं देवाणुप्पिया ! उत्तमपुरिसा / तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा अमरकंका राजधानी को पूर्वोक्त प्रकार से बुरी तरह भग्न हुई जानकर भयभीत होकर द्रौपदी देवी की शरण में गया / तब द्रौपदी देवी ने पदमनाभ राजा से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org