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________________ 278] [ ज्ञाताधर्मकथा १८५-तएणं भवणवइ-वाणमन्तर-जोइसिय-वेमाणिया देवा मल्लिस्स अरहओ निक्खमणमहिम करेंति, करित्ता जेणेव नंदीसरवरे दीवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अट्टाहियं करेंति, करित्ता जाव पडिगया। तत्पश्चात् भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक-इन चार निकाय के देवों ने मल्ली अरहन्त का दीक्षा-महोत्सव किया। महोत्सव करके जहाँ नन्दीश्वर द्वीप था, वहाँ गये। जाकर अष्टाह्निका महोत्सव किया / महोत्सव करके यावत् अपने-अपने स्थान पर लौट गये / १८६-तए णं मल्ली अरहा जं चेव दिवसं पवइए तस्सेव दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहासणवरगयस्स सुहेणं परिणामेणं, पसत्थेहि अज्झवसाणेणं, पसत्याहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहि, तयावरणकम्मरयविकरणकरं अपव्वकरणं अणपविट्रस्स अणते जाव (अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे) केवलनाणदंसणे समुष्पन्ने। तत्पश्चात् मल्ली अरहन्त ने, जिस दिन दीक्षा अंगीकार की, उसी दिन के प्रत्यपराह्नकाल के समय अर्थात् दिन के अन्तिम भाग में, श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक के ऊपर विराजमान थे, उस समय शुभ परिणामों के कारण, प्रशस्त अध्यवसाय के कारण तथा विशुद्ध एवं प्रशस्त लेश्याओं के कारण, तदावरण (ज्ञानावरण और दर्शनावरण) कर्म की रज को दूर करने वाले अपूर्वकरण (आठवें गुणस्थान) को प्राप्त हुए। तत्पश्चात् अरहन्त मल्ली को अनन्त अर्थात् अनन्त वाला और सदाकाल स्थायी, अनत्तर-सर्वोत्कृष्ट, नियाघात-सब प्रकार के व्याघातों से रहित-जिसमें देश या काल सम्बन्धी दूरी आदि कोई बाधा उपस्थित नहीं हो सकती, निरावरण-सब प्रावरणों से रहित, सम्पूर्ण और प्रतिपूर्ण केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन की उत्पत्ति हुई। १८७-तेणं कालेणं तेणं समएणं सव्वदेवाणं आसणाई चलति / समोसढा, धम्म सुणेति, अट्ठाहियमहिमा नंदीसरे, जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। कुभए वि निग्गच्छइ / उस काल और उस समय में सब देवों के प्रासन चलायमान हुए। तब वे सब देव वहाँ पाये, सबने धर्मोपदेश श्रवण किया / नन्दीश्वर द्वीप में जाकर प्राष्टाह्निका महोत्सव किया। फिर जिस दिशा से प्रकट हुए थे, उसी दिशा में लौट गये / कुम्भ राजा भी वन्दना करने के लिए निकला। १८८-तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो जेटुपुत्ते रज्जे ठावित्ता पुरिससहस्सवाहिणीयाओ (सीयाओ) दुरूढा सव्विढिए जाव रवेणं जेणेव मल्ली अरहा जाव पज्जुवासंति / तत्पश्चात् वे जितशत्रु वगैरह छहों राजा अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को राज्य पर स्थापित करके, हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविकानों पर प्रारूढ होकर समस्त ऋद्धि (पूरे ठाठ) के साथ यावत् गीत-वादित्र के शब्दों के साथ जहाँ मल्ली अरहन्त थे, यावत् वहाँ आकर उनकी उपासना करने लगे। १८९--तए णं मल्ली अरहा तोसे महइ महालियाए कुभगस्स रन्नो तेसि च जियसत्तुपामोक्खाणं धम्म कहेइ। परिसा जामेव दिसि पाउन्भूआ तामेव दिसि पडिगया / कुभए समणोवासए जाए, पडिगए, पभावई य समणोवासिया जाया, पडिगया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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