________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [ 279 तत्पश्चात् मल्ली अरहन्त ने उस बड़ी भारी परिषद् को, कुम्भ राजा को और उन जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं को धर्म का उपदेश दिया। परिषद् जिस दिशा से आई थी, उस दिशा में लौट गई / कुभ राजा श्रमणोपासक हुा / वह भी लौट गया। रानी प्रभावती श्रमणोपासिका हुई। वह भी वापिस चली गई। १९०-तए णं जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो धम्म सोच्चा आलित्ते णं भंते [लोए, पलिते णं भंते ! लोए, आलित्तपलित्ते णं भंते ! लोए, जराए मरणेण य] जाव पव्वइया / चोइसपुस्विणो, अणंते केवले, सिद्धा। तत्पश्चात् जितशत्रु अादि छहों राजाओं ने धर्म को श्रवण करके कहा-भगवन् ! यह संसार जरा और मरण से ग्रादीप्त है-~-जल रहा है, प्रदीप्त है- भयंकर रूप से जल रहा है और प्रादीप्तप्रदीप्त है—अत्यन्त उत्कटता से जल रहा है, इत्यादि कहकर यावत् वे दीक्षित हो गये। चौदह पूर्वो के ज्ञानी हुए, फिर अनन्त केवल-ज्ञान-दर्शन प्राप्त करके यावत् सिद्ध हुए। १९१-तए णं मल्ली अरहा सहसंबवणाओ निक्खमइ, निक्खमित्ता बहिया जणवविहारं विहरइ। तत्पश्चात् (किसी समय) मल्ली अरहंत सहस्राम्रवन उद्यान से बाहर निकले / निकलकर जनपदों में विहार करने लगे। १९२--मल्लिस्स णं अरहओ भिसग (किंसुय) पामोक्खा अट्ठावीसं गणा, अट्ठावीसं गणहरा होत्था। मल्लिस्स णं अरहओ चत्तालीसं समणसाहस्सीओ उक्कोसियाओ, बंधुमतीपामोक्खाओ पणपण्णं अज्जियासाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जिया होत्था / मल्लिस्स गं अरहओ सावयाणं एगा सयसाहस्सीओ चुलसीइं च सहस्सा उक्कोसिया सावया होत्था / मल्लिस्स णं अरहओ सावियाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ पण्ण टिठं च सहस्सा संपया होत्था। मल्लिस्स णं अरहओ छस्सया चोद्दसपुवीणं, वोससया ओहिनाणीणं, बत्तीसं सया केवलणाणोणं, पणतीसं सया वेउदिवयाणं, अट्ठसया मणपज्जवणाणीणं, चोइससया वाईणं, वीसं सया अणुत्तरोववाइयाणं (संपया होत्था)। मल्ली अरहंत के भिषक (या किंशुक) आदि अट्ठाईस गण और अट्ठाईस गणधर थे / मल्ली अरहंत की चालीस हजार साधुओं की उत्कृष्ट सम्पदा थी। बंधुमती आदि पचपन हजार प्रायिकाओं की सम्पदा थी। मल्ली अरहन्त को एक लाख चौरासी हजार श्रावकों की उत्कृष्ट सम्पदा थी। मल्ली अरहन्त की तीन लाख पैंसठ हजार श्राविकाओं की उत्कृष्ट सम्पदा थी। मल्ली अरहन्त की छह सौ चौदहपूर्वी साधुनों की, दो हजार अवधिज्ञानी, बत्तीस सौ केवलज्ञानी, पैंतीस सौ वैक्रियलब्धिधारी, आठ सौ मनःपर्यायज्ञानी, चौदह सौ वादी और बीस सौ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org