________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ] [ 111 अलग-अलग होने के स्थानों, जुमा के अखाड़ों, मदिरापान के अड्डों, वेश्या के घरों, उनके घरों के द्वारों (चोरों के अड्डों), चोरों के घरों, शृगाटकों-सिंघाड़े के आकार के मार्गों, तीन मार्ग मिलने के स्थानों, चौकों, अनेक मार्ग मिलने के स्थानों, नागदेव के गृहों, भूतों के गृहों, यक्षगृहों, सभास्थानों, प्याउओं, दुकानों और शून्यगृहों को देखता फिरता था / उनकी मार्गणा करता था-उनके विद्यमान गुणों का विचार करता था, उनकी गवेषणा करता था, अर्थात् थोड़े जनों का परिवार हो तो चोरी करने में सुविधा हो, ऐसा विचार किया करता था / विषम-रोग की तीव्रता, इष्ट जनों के वियोग, व्यसन-राज्य आदि की ओर से आये हुए संकट, अभ्युदय-राज्यलक्ष्मी प्रादि के लाभ, उत्सवों, प्रसवपुत्रादि के लाभ, मदन त्रयोदशी आदि तिथियों, क्षण-बहुत लोकों के भोज आदि के प्रसंगों, यज्ञ-नाग आदि की पूजा, कौमुदी अादि पर्वणी में, अर्थात् इन सब प्रसंगों पर बहुत से लोग मद्यपान से मत्त हो गए हों, प्रमत्त हुए हों, अमुक कार्य में व्यस्त हों, विविध कार्यों में प्राकुल-व्याकुल हों, सुख में हों, दुःख में हों, परदेश गये हों, परदेश जाने की तैयारी में हों, ऐसे अवसरों पर वह लोगों के छिद्र का, विरह (एकान्त) का और अन्तर (अवसर) का विचार करता और गवेषणा करता रहता था। १०-बहिया वि य णं रायगिहस्स नगरस्स आरामेसु य, उज्जाणेसु य वावि-पोखरिणीदीहिया-गुजालिया-सरेसु य सरपंतिसु य सरसरपंतियासु य जिण्णुज्जाणेसु य भग्गकूवएसु य मालुयाकच्छएसु य सुसाणेसु य गिरिकन्दर-लेण-उवट्ठाणेसु य बहुजणस्स छिद्देसु य जाव अन्तरं मग्गमाणे गवेसमाणे एवं च णं विहरइ। वह विजय चोर राजगृह नगर के बाहर भी आरामों में अर्थात् दम्पती के क्रीड़ा करने के लिए माधवीलतागृह आदि जहाँ बने हों ऐसे बगीचों में, उद्यानों में अर्थात् पुष्पों वाले वृक्ष जहाँ हों और लोग जहाँ जाकर उत्सव मनाते हों ऐसे बागों में, चौकोर बावड़ियों में, कमल वाली पुष्करिणियों में, दीपिकाओं (लम्बी बावडियों) में, गुजालिकाओं (बांकी बावडियों) में, सरोवरों में, सरोवरों की पंक्तियों में, सर-सर पंक्तियों (एक तालाब का पानी दूसरे तालाब में जा सके, ऐसे सरोवरों को पंक्तियों) में, जीर्ण उद्यानों में, भग्न कूपों में, मालुकाकच्छों की झाड़ियों में, श्मशानों में, पर्वत की गुफाओं में, लयनों अर्थात् पर्वतस्थित पाषाणगृहों में तथा उपस्थानों अर्थात् पर्वत पर स्थित पाषाणमंडपों में उपर्युक्त बहुत लोगों के छिद्र आदि देखता रहता था। ११-तए णं तीसे भद्दाए भारियाए अन्नया कयाइं पुव्वरत्तावरत्तकाल-समयंसि कुडुबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव (चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे) समुप्पज्जित्था 'अहं धन्नेणं सत्थवाहेण सद्धि बहूणि वासाणि सद्द-फरिस-रस-गंध-रूवाणि माणुस्सयाई कामभोगाई पच्चणुभवमाणी विहरामि / नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयायामि / तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव [ संपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयस्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ, अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयविहवाओ णं ताओ अम्मयाओ] सुलद्धे णं माणुस्सए जम्मजीवियफले तासि अम्मयाणं, जासिं मन्ने णियगकुच्छिसंभूयाई थणदुद्धलुद्धयाई महरसमुल्लावगाइं मम्मणपयंपियाई थणमूला कक्खदेसभागं अभिसरमाणाई मुद्धयाइं थणयं पिबंति / तओ य कोमलकमलोवमेहि हत्थेहि गिहिणं उच्छंगे निवेसियाई देन्ति समुल्लावए पिए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पणिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org