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________________ 246 ] [ ज्ञाताधर्मकथा काशीराज शंख ८६-तेणं कालेणं तेणं समएणं कासी नामं जणवए होत्या। तत्थ गं वाणारसी नाम नयरी होत्था / तत्थ णं संखे नामं राया कासीराया होत्था / उस काल और उस समय में काशी नामक जनपद था। उस जनपद में वाणारसी नामक नगरी थी। उसमें काशीराज शंख नामक राजा था। ८७---तए णं तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नगाए अन्नया कयाइं तस्स दिव्वस्स कुडलजयलस्स संधी विसंघडिए यावि होत्था। तए णं कुभए राया सुवन्नगारसेणि सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! इमस्स दिव्वस्स कुडलजुयलस्स संधि संघाडेह / ' एक बार किसी समय विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली के उस दिव्य कुण्डल-युगल का जोड़ खुल गया / तब कुम्भ राजा ने सुवर्णकार की श्रेणी को बुलाया और कहा–'देवानुप्रियो ! इस दिव्य कुण्डलयुगल के जोड़ को सांध दो।' ८८-तए णं सा सुवण्णगारसेणी एयमझें तह त्ति पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तं दिव्वं कुडलजयलं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव सुवण्णगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुवण्णगार. भिसियासु गिवेसेइ, णिवेसित्ता बहूहिं आएहि य जाव [उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य पारिणामियाहि य बुद्धीहि) परिणामेमाणा इच्छंति तस्स दिव्वस्स कुडलजुयलस्स संधि घडित्तए, नो चेव णं संचाएंति संघडितए। ___ तत्पश्चात् सुवर्णकारों की श्रेणी ने 'तथा-ठीक है', इस प्रकार कह कर इस अर्थ को स्वीकार किया / स्वीकार करके उस दिव्य कुण्डलयुगल को ग्रहण किया / ग्रहण करके जहाँ सुवर्णकारों के स्थान (औजार रखने के स्थान) थे, वहाँ पाये। आकर के उन स्थानों पर कुण्डलयुगल रखा / रख कर बहुत-से [ यत्नों से, उपायों से, औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी एवं पारिणामिकी बुद्धियों से] उस कुण्डलयुगल को परिणत करते हुए उसका जोड़ साँधना चाहा, परन्तु साँधने में समर्थ न हो सके। ८९-तए णं सा सुवन्नगारसेणी जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल. जाव बद्धावेत्ता एवं वयासी-'एवं खलु सामी! अज्ज तुम्भे अम्हे सद्दावेह / सद्दावेत्ता जाव संधि संघाडेता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / तए णं अम्हे तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हामो। जेणेव सुबन्नगार. भिसियाओ जाव नो संचाएमो संघाडितए / तए णं अम्हे सामी ! एयस्स दिव्वस्स कुडलस्स अन्नं सरिसयं कुडलजयलं घडेमो।' तत्पश्चात् वह सुवर्णकार श्रेणी, कुम्भ राजा के पास पाई। आकर दोनों हाथ जोड़ कर पौर जय-विजय शब्दों से वधा कर इस प्रकार निवेदन किया—'स्वामिन् ! अाज अापने हम लोगों को बुलाया था। बुला कर यह आदेश दिया था कि कुण्डलयुगल की संधि जोड़ कर मेरी आज्ञा वापिस लौटायो। तब हमने वह दिव्य कुण्डलयुगल लिया। हम अपने स्थानों पर गये, बहुत उपाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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