________________ पन्द्रहवां अध्ययन : नन्दीफल ] [ 387 तुम्भे जाव दूरं दूरेणं परिहरमाणा वीसमह, मा णं अकाले जीवियाओ ववरोविस्संति / अग्नेसि रुक्खाणं मूलाणि य जाव वीसमह त्ति कटु घोसणं' पच्चप्पिणंति / इसके बाद धन्य सार्थवाह ने गाड़ी-गाड़े जुतवाए / जुतवाकर जहाँ नंदीफल नामक वृक्ष थे, वहाँ आ पहुँचा / उन नंदीफल वृक्षों से न बहुत दूर न समीप में पड़ाव डाला। फिर दूसरी बार और तीसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा---'देवानुप्रियो ! तुम लोग मेरे पड़ाव में ऊँचीऊँची ध्वनि से पुनः पुनः घोषणा करते हुए कहो कि-'हे देवानुप्रियो ! वे नन्दीफल वृक्ष ये हैं, जो कृष्ण वर्ण वाले, मनोज्ञ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श वाले और मनोहर छाया वाले हैं / अतएव हे देवानुप्रियो! इन नन्दीफल वृक्षों के मूल, कंद, पुष्प, त्वचा, पत्र या फल आदि का सेवन मत करना, क्योंकि ये यावत् अकाल में ही जीवन से रहित कर देते हैं। अतएव कहीं ऐसा न हो कि इनका सेवन करके जीवन का नाश कर लो। इससे दूर ही रहकर विश्राम करना, जिससे ये जीवन का नाश न करें। हां दूसरे वक्षों के मूल ग्रादि का भले सेवन करना और उनकी छाया में विश्राम करना कौटुम्बिक पुरुषों ने इसी प्रकार घोषणा करके आज्ञा वापिस सौंपी / चेतावनी का पालन ११---तत्थ णं अत्थेगइया पुरिसा धन्नस्स सत्यवाहस्स एयमढें सद्दहंति, पत्तियंति रोयंति, एयमझें सद्दहमाणा तेसि नंदिफलाणं दूरं दूरेणं परिहरमाणा अन्नेसि रुक्खाणं मूलाणि य जाव वीसमंति तेसि णं आवाए नो भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणा परिणममाणा सुहरूवत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति। उनमें से किन्हीं-किन्हीं पुरुषों ने धन्य सार्थवाह की बात पर श्रद्धा की, प्रतीति की एवं रुचि की। वे धन्य सार्थवाह के कथन पर श्रद्धा करते हुए, उन नन्दीफलों का दूर ही दूर से त्याग करते हुए, दूसरे वृक्षों के मूल आदि का सेवन करते थे और उन्हीं की छाया में विश्राम करते थे। उन्हें तात्कालिक भद्र (सुख) तो प्राप्त न हुआ, किन्तु उसके पश्चात् ज्यों-ज्यों उनका परिणमन होता चला त्यों-त्यों वे बार-बार सुख रूप ही परिणत होते चले गए। उपसंहार १२--एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव [आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइए समाणे] पंचसु कामगुणेसु नो सज्जेइ, नो रज्जेइ, से गं इहभवे चेव बहूणं समणाणं समणीणं सावयाणं सावियाणं अच्चणिज्जे भवइ, परलोए वि य नो आगच्छइ जाव [नो बहूणि हत्थछेयणाणि य कण्णछेयणाणि य नासाछेयणाणि य, एवं हिययउप्यायणाणि य वसणुप्पायणाणि उल्लंबणाणि य पाविहिइ, पुणो अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरतं संसारकतारं] वोईवइस्सइ जहा व ते पुरिसा। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! हमारा जो निम्रन्थ या निर्ग्रन्थी यावत् (प्राचार्यउपाध्याय के समीप गृहत्याग कर अनगार रूप में प्रवजित होकर) पाँच इन्द्रियों के कामभोगों में प्रासक्त नहीं होता और अनुरक्त नहीं होता, वह इसी भव में बहुत-से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं का पूजनीय होता है और परलोक में भी दुःख नहीं पाता है, जैसे-हाथ, कान, नाक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org