________________ 388] [ ज्ञाताधर्मकथा आदि का छेदन, हृदय एवं वृषणों का उत्पाटन, फांसी आदि / उसे अनादि अनन्त संसार-अटवी में चतुरशीति योनियों में भ्रमण नहीं करना पड़ता / वह अनुक्रम से संसार कान्तार को पार कर जाता है-सिद्धि प्राप्त कर लेता है।। १३--तत्थ णं जे से अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्स एयमझें नो सद्दहति नो पत्तियत्ति नो रोयंति, धन्नस्स एयमढें असद्दहमाणा जेणेव ते णंदिफला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तेसि नंदिफलाणं मूलाणि य जाव बोसमंति, तेसि णं आवाए भद्दए भवइ, ततो पच्छा परिणममाणा जाव ववरोति। ___ उनमें से जिन कितनेक पुरुषों ने धन्य सार्थवाह की इस बात पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की, वे धन्य सार्थवाह की बात पर श्रद्धा न करते हुए जहाँ नन्दीफल वृक्ष थे, वहाँ गये। जाकर उन्होंने उन नन्दीफल वृक्षों के मूल आदि का भक्षण किया और उनकी छाया में विश्राम किया। उन्हें तात्कालिक सुख तो प्राप्त हुआ, किन्तु बाद में उनका परिणमन होने पर उन्हें जीवन से मुक्त होना पड़ा-मृत्यु का ग्रास बनना पड़ा। १४-एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पन्वइए पंचसु कामगुणेसु सज्जेइ, जाव अणुपरियट्टिस्सइ, जहा व ते पुरिसा। __इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! हमारा जो साधु या साध्वी प्रव्रजित होकर पाँच इन्द्रियों के विषयभोगों में प्रासक्त होता है, वह उन पुरुषों की तरह यावत् हस्तच्छेदन, कर्णच्छेदन, हृदयोत्पाटन आदि पूर्वोक्त दुःखों का भागी होता है और चतुर्गतिरूप संसार में पुनः पुनः परिभ्रमण करता है / धन्य का अहिच्छत्रा पहुंचना 15- तए णं से धण्णे सगडीसागडं जोयावेइ जोयावित्ता जेणेव अहिच्छत्ता णयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहिच्छत्ताए णयरोए बहिया अग्गुज्जाणे सत्थनिवेसं करेइ, करित्ता सगडीसागडं मोयावेइ / तए णं से धणे सत्थवाहे महत्थं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुडं मेण्हइ, गेण्हित्ता बहुपुरिसेहि सद्धि संपरिधुडे अहिच्छत्तं नरिं मझमज्झेणं अणुप्पविसइ, अणपविसित्ता जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेइ, बद्धावित्ता तं महत्थं पाहुडं उवणेइ / इसके पश्चात् धन्य सार्थवाह ने गाड़ी-गाड़े जुतवाए / जुतवाकर वह जहाँ अहिच्छत्रा नगरी थी, वहाँ पहुँचा / वहाँ पहुँचकर अहिच्छत्रा नगरी के बाहर प्रधान उद्यान में पड़ाव डाला और गाड़ीगाड़े खुलवा दिए। फिर धन्य सार्थवाह ने महामूल्यवान् और राजा के योग्य उपहार लिया और बहुत पुरुषों के साथ, उनसे परिवृत होकर अहिच्छत्रा नगरी में मध्यभाग में होकर प्रवेश किया। प्रवेश करके कनककेतु राजा के पास गया / वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके राजा का अभिनन्दन किया / अभिनन्दन करने के पश्चात् वह बहुमूल्य उपहार उसके समीप रख दिया / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org